डॉ . प्रदीप शशांक
(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं प्रेरणास्पद लघुकथा “रंगमंच”. )
☆ लघुकथा – रंगमंच ☆
मनोहर रंगमंच का कलाकार था। स्थानीय स्तर पर होने वाले नाटकों में वह विभिन्न पात्रों को बखूबी निभाता था। उसके अभिनय की बहुत प्रशंसा होती थी।
विगत 6 माहों से वह घर पर ही बैठा था। इस विषम काल में नाटकों का मंचन भी बंद था। वह मानसिक अवसाद की स्थिति में पहुंच गया था, उसे महसूस हो रहा था कि उसकी कला में जंग लग रही है।
एक दिन वह शहर के रंगमंच हाल में पहुंच गया। मंच के आगे पीछे सन्नाटा पसरा हुआ था। कुर्सियां भी दर्शकों के अभाव में टिमटिमाते बल्ब की रोशनी में ऊँघती सी प्रतीत होरही थीं। यह वही हाल था जो कभी रोशनी से जगमगाता रहता था जिसमें दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट गूंजती रहती थी। अब न दर्शक, न श्रोता और न कोई नायक न खलनायक, बस आज चारों ओर खामोशियाँ पसरी पड़ी थीं।
मंच के ऊपर लगी दीवार घड़ी अब भी टिकटिक की आवाज करती चल रही थी। समय निरंतर अपनी गति से भाग रहा था। उसे महसूस हुआ कि ऊपर बैठा सबसे बड़ा नाटककार उससे कह रहा है – समय गतिशील है, आज का यह समय भी निकल जायेगा धैर्य रखो। समय की डोर अपने हाथों में थामे रखो। अचानक उसके अंदर नई ऊर्जा का संचार हुआ और वह जिंदगी के रंगमंच में अपनी नई भूमिका निभाने तेज कदमों से आगे बढ़ गया।
© डॉ . प्रदीप शशांक