श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  एक व्यंग्यकार द्वारा स्वयं की पुस्तक कौआ कान ले गया  पर पुस्तक चर्चा। निःसंदेह यह आपके लिए नया अनुभव होना चाहिए। )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 33 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य-संग्रह   – कौआ कान ले गया   

पुस्तक – कौआ कान ले गया  (व्यंग्य  संग्रह )

व्यंगकार –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

पृष्ठ :  96

मूल्य :  60रु.

प्रकाशक :  सुकीर्ति प्रकाशन

आईएसबीएन :  81-88796-184-5

प्रकाशित :  जनवरी ०१, २००९

पुस्तक क्रं : 7236

मुखपृष्ठ : अजिल्द

 

☆  व्यंग्य–संग्रह  –  कौआ कान ले गया  –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव 

सारांश:

हम तो बोलेंगे ही, सुनो ना सुनो, यह बयान किसी कवि सम्मेलन पर नहीं है ना ही यह संसद की कार्यवाही का वृतांत है। यह सीधी सी बात है,  कलम के साधकों की जो लगातार लिख रहे हैं, अपना श्रम, समय, शक्ति लगाकर अपने ही व्यय पर किताबों की शक्ल में छापकर ‘सच’ को बाँट रहे हैं। कोई सुने, पढ़े ना पढ़े, लेखक के  अंदर का रचनाकार अभिव्यक्ति को विवश है। इस विवशता में पीड़ा है, अंतर्द्वद है, समाज की विषमता, दोगलेपन पर प्रहार है। परिवेश के अनुभवों से जन्मी यह रचना प्रक्रिया एक निरंतर कर्म है। विवेक जी के व्यंग्य लेख लगातार विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, इंटरनेट पर ब्लाग्स में प्रकाशित होते है, वे कहते हैं, देश विदेश से पाठकों के, समीक्षकों के पत्र प्रतिक्रियायें मिलती हैं, तो लगता है, कोई तो है, जो सुन रहा है। कहीं तो अनुगूंज है। इससे उनके लेखन कर्म को ऊर्जा मिलती है। समय-समय पर छपे अनेक व्यंग लेखों के  संग्रह ‘रामभरोसे’ को व्यापक प्रतिसाद मिला। उसे अखिल भारतीय दिव्य अलंकरण भी मिला। ये लेख कुछ मनोरंजन, कुछ वैचारिक सत्य है। आपको सोचने पर विवश करते हैं।  प्रत्येक व्यंग कही गुदगुदाते हुये शुरू होता है, समाज की कुप्रथाओ पर प्रहार करता है और अंत में एक शिक्षा देते हुये, संभावित समाधान बताते हुये समाप्त होता है।  बहुत सीमित शब्दों में अपनी बात इस सुंदर शैली में कह पाना विवेक जी की विशेषता है।

पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में लेखकीय शोषण, पाठकहीनता, एवं पुस्तकों की बिक्री की जो वर्तमान स्थितियां है, वे हम सबसे छिपी नहीं है, पर समय रचनाकारों के इस सारस्वत यज्ञ का मूल्यांकन करेगा, इसी आशा के साथ, कोई ४५ व्यंग लेखो का यह संग्रह पाठक को बांधे रखता है।  दैनंदनी जीवन की वे अनेक विसंगतियां जिन्हें देखकर भी हम अनदेखा कर देते हैं, विवेक जी की नजरो से बच नही पाई हैं, उनका इस धर्म में दीक्षित होना सुखद है।  पुस्तक जितनी बार पढ़ी जावे नये सिरे से आनंद देती।

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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