हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #202 – इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 202 ☆

☆ व्यंग्य – इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग इंटरनेट मीडिया का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस इंटरनेट मीडिया में भी फेसबुक सबसे ज्यादा प्रचलित, लोकप्रिय और मोबाइल के कारण तो जेब-जेब तक पहुंचने वाला माध्यम हो गया है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।

उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्र-पत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर इंटरनेट मीडिया पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।

‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है। मगर उसकी चर्चा इंटरनेट मीडिया पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पोस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।

ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज पांच से सात घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकाना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है। कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वे छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकाना उन्हें नहीं आता है। वे इंटरनेट मीडिया से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है। जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।

तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर

लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा इंटरनेट मीडिया पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।

चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में इंटरनेट मीडिया पर बने रहते हैं।

ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।

पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है, जितनी रचना छप जाती है। उसे इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।

छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं, जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।

कहने का तात्पर्य यह है कि इंटरनेट मीडिया के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह इंटरनेट मीडिया पर अपना ‘फेस’ चमकते रहते हैं।

इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01/12/2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 237 ☆ गीत – भारत गणतंत्र है प्यारा… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 237 ☆ 

☆ गीत – भारत गणतंत्र है प्यारा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

भारत का गणतंत्र है प्यारा

आओ सभी मनाएँ हम

संविधान पावन है लाया

वंदेमातरम गाएँ हम।।

इसकी माटी सोना चंदन

हर कोना है वंदित नन्दन

हम सब करते हैं अभिनंदन

 *

अदम्य शक्ति, साहस, शौर्य का

आओ दीप जलाएँ हम।।

 **

सागर इसके पाँव पखारे

अडिग हिमालय मुकुट सँवारे

झरने , नदियाँ कल- कल प्यारे

 *

गाँव, खेत, खलियान धरोहर

हरियाली लहलहाएं हम।।

 **

नई उमंगें, लक्ष्य अटल है

नूतन रस्ते सुंदर कल है

श्रम से ही शक्ति का बल है

 *

सभी स्वस्थ हों, सभी सुखी हों

ऐसा देश बनाएँ हम।।

 **

जय जवान हो, जय किसान हो

बच्चा – बच्चा ही महान हो

आन – वान हो सदा शान हो

 *

रूढ़ि मिटे विज्ञान की जय हो

ऐसी नीति चलाएँ हम।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मनाचे मंदिर… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

? कवितेचा उत्सव  ?

☆ मनाचे मंदिर सुश्री नीलांबरी शिर्के 

मन मंदिरा देव्हारी

सदविचार गाभारा

सद वर्तन हा देव

मांगल्य ये परिसरा

*

 मन मंदिर स्वच्छता

 नीत्य नियमीत व्हावी

 माया ममतेची फुले

 अंतरातच फुलावी

*

 नको द्वेष न् मत्सर

 आप पराचे अंतर

 सत् कर्म करूनिया

 जपू मनाचे मंदिर

 

 

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य – “छोट्या छोट्या चुका…!” ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य – छोट्या छोट्या चुका…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

त्याच त्याच गोष्टीआपण

किती वेळा ऐकतो

तरीसुद्धा आपण पुन्हा

त्याच चुका करतो…!

*

चुकांमधून काहीतरी

शिकता यायला हवं

कुठे चुकलो आपण

हे समजून घ्यायला हवं

*

पुन्हा पुन्हा त्याच चुका

म्हणजे शुद्ध गाढवपणा

चुकून सुद्धा नाही म्हणणं

म्हणजे केवळ मूर्खपणा

*

चुकलं तर चुकूदे

हरकत नाही काही..

आपण काही कुणी

साक्षात परमेश्वर नाही

*

चुकांमधून थोडा तरी

बोध घ्यायला हवा

पुन्हा चुक होणार नाही

हा संकल्प करायला हवा…

*

लहानपणी ऐकलेल्या

गोष्टी जरा आठवूया.

छोट्या छोट्या चुका आता

आपणच आपल्या टाळूया…!

© श्री सुजित कदम

मो .. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गय… ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ गय… ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी 

सुखाला नुसते ‘शब्द’देखील सहज गवसत नाहीत

पण दुःख मात्र सोबतच घेऊन येते आपली ‘लय’

*

त्या वेशीवरती जर नसतीच झाली आपुली भेट

तर डोळ्यांमध्ये का दाटून आली असती ‘सय’

*

रोज सुचतच नाही लिहायला मजला काहीबाही

पण लिहिते करते दुःखानेही सोडून जायाचे ‘भय’

*

तसे ऋतूंचे बहरणे होते नेहमी‌प्रमाणेच सुरळीत

पण बेसावध क्षणी मोहरण्याचे होते आपुले ‘वय’

*

मी थांबले होते नंतर त्या मोहक वळणापाशी

पण होकाराच्या विलंबाने केलीच नाही माझी ‘गय’

©  सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ४१ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ४१ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- इथं कोल्हापूरात लहान वयाच्या पेशंटना देवधर डागतरकडंच आणत्यात समदी. माज्या रिक्षाच्या तर रोज चार-पाच फेऱ्या हुत्यात. म्हनून तर सवयीनं त्येंच्या दवाखान्याम्होरंच थांबलो बगा.. ” तो चूक कबूल करत म्हणाला. पण…. ?

 पण ती त्याची अनवधानानं झालेली चूक म्हणजे पुढील अरिष्टापासून समीरबाळाला वाचवण्याचा एक केविलवाणा प्रयत्न होता हे सगळं हातातून्या निसटून गेल्यानंतर आमच्या लक्षात येणार होतं… !!)

डॉ. जोशींच्या हॉस्पिटलमधे गेलो त्याआधीच आपलं काम आवरून रिसेप्शनिस्ट घरी गेलेली होती. हॉस्पिटलमधे एक स्टाफ नर्स होती. तिने ‘डॉक्टर अर्जंट मीटिंगसाठी राऊंड संपवून थोड्याच वेळापूर्वी गेलेत, आता उद्याच येतील’ असे सांगितले. आम्ही इथे तातडीने येण्याचे प्रयोजन तिला सांगताच तिने आम्हाला एका रूममधे बसवले. लगबगीने बाहेर गेली. ती परत येईपर्यंतची पाच दहा मिनिटेही आमचं दडपण वाढवणारी ठरत होती. ती येताच तिने बाळाला अॅडमिट करून घ्यायच्या फॉर्मलिटीज पूर्ण केल्या.

“डॉक्टर कधी येतायत?”

मी उतावीळपणे विचारले.

डॉक्टर सपत्निक केशवराव भोसले नाट्यगृहात नाटक पहायला गेले होते हे नर्सला असिस्टंट डॉक्टरशी बोलल्यावर समजले होते. समीरच्या केसबद्दल त्याच्याशी डॉक्टरांची जुजबी चर्चा झालेली होती. त्यानुसार त्याने दिलेल्या सूचनेप्रमाणे नर्सने तातडीने समीरबाळाला सलाईन लावायची व्यवस्था केली.

डाॅ. जोशी दुसऱ्या दिवशी सकाळी नेहमीप्रमाणे राऊंडला आले. समीरला तपासताना असिस्टंट डॉक्टरही सोबत होते. आम्हाला औषधांचं प्रिस्क्रिप्शन त्यांनी लिहून दिलं.

“दोन दिवस सलाईन लावावं लागेल. या औषधाने नक्कीच फरक पडेल. डोण्ट वरी. “

आम्हाला धीर देऊन डाॅक्टर दुसऱ्या पेशंटकडे गेले. योग्य निर्णय तातडीने घेतल्याचं ‌त्या क्षणी आम्हाला मिळालेलं समाधान कसं भ्रामक होतं हे आमच्या लक्षात यायला पुढे आठ दिवस जावे लागले. दोन दिवसांपुरतं लावलेलं सलाईन चार दिवसानंतरही सुरू ठेवल्याचं पाहून आमच्या मनात कुशंकेची पाल चुकचुकली खरी पण त्यातलं गांभीर्य तत्क्षणी जाणवलं मात्र नव्हतं. अलिकडच्या काळात सलाईन लावताना एकदा शीर सापडली की त्या शीरेत ट्रीटमेंट संपेपर्यंत कायमच एक सुई टोचून ठेवलेली असते. त्यामुळे सलाईन बदलताना प्रत्येकवेळी नव्याने शीर शोधताना होणारा त्रास टाळला जातो. पण त्याकाळी ही सोय नसे. त्या चार दिवसात प्रत्येक वेळी सलाईन बदलायच्या वेळी शीर शोधताना द्याव्या लागणाऱ्या टोचण्यांमुळे असह्य वेदना होऊन समीरबाळ कर्कश्श रडू लागे. त्याचं ते केविलवाणेपण बघणंही आमच्यासाठी असह्य वेदनादायी असायचं. बॅंकेत मित्रांसमोर मन मोकळं केलं तेव्हा झालेल्या चर्चेत तातडीने सेकंड ओपिनियन घ्यायची निकड अधोरेखित झाली. डाॅ. देवधर हाच योग्य पर्यायही पुढे आला पण ते काॅन्फरन्सच्या निमित्ताने परगावी गेले होते. सुदैवाने आमच्या एका स्टाफमेंबरच्या बहिणीने नुकतीच पेडिट्रेशियन डिग्री मिळाल्यावर डाॅ. देवधर यांच्याच मार्गदर्शनाखाली राजारामपुरीत स्वत:चं क्लिनिक सुरु केल्याचं समजलं. मी तिला जाऊन भेटलो. माझ्याजवळची फाईल चाळतानाच तिचा चेहरा गंभीर झाल्याचे जाणवले.

” मी डाॅ. देवधर यांच्याशी संपर्क साधते. ही वुईल गाईड अस प्राॅपरली. “

पुढे हे प्रोसेस पूर्ण होईपर्यंत एक दिवस निघून गेला. आम्ही डिस्चार्जसाठी डाॅ. जोशीना विनंती केली तेव्हा ते कांहीसे नाराज झाल्याचे जाणवले.

“तुम्ही ट्रीटमेंट पूर्ण होण्याआधीच डिस्चार्ज घेणार असाल तर स्वतःच्या जबाबदारीवर घेणार आहात कां? तसे लिहून द्या आणि पेशंटला घेऊन जावा. पुढे घडणाऱ्या कोणत्याही गोष्टीला मी जबाबदार रहाणार नाही” त्यांनी बजावले.

पुढे डॉ. देवधर यांच्या मार्गदर्शनाखाली योग्य ट्रीटमेंट चालू झाली तरी आधीच डॉ. जोशींमुळे स्पाॅईल झालेली समीरची केस त्याचा शेवट होऊनच फाईलबंद झाली. केस स्पाॅईल कां आणि कशी झाली होती ते आठवणं आजही आम्हाला क्लेशकारक वाटतं. समीरच्या अखेरच्या दिवसांत देवधर डॉक्टरांच्याच सल्ल्याने त्याला पुढील उपचारांसाठी पुण्याला केईएम हॉस्पिटलमधे रातोरात शिफ्ट केल्यानंतर त्याचं ठरलेलं ऑपरेशन होण्यापूर्वीच त्याने शेवटचा श्वास घेतला होता!!

घरी आम्हा सर्वांसाठीच तो अडीच तीन महिन्यांचा काळ म्हणजे एक यातनापर्वच होतं!

पण या सर्व घटनाक्रमामधे लपलेले अघटिताचे धागेदोरे अलगद उलगडून पाहिले की आश्चर्याने थक्क व्हायला होतं!माझे बाबा १९७३ साली गेले ते इस्लामपूरहून पुण्यात शिफ्ट केल्यानंतर तिथल्या हाॅस्पिटलमधेच. २६सप्टे. च्या पहाटे. तिथी होती सर्वपित्री अमावस्या. समीरचा मृत्यू झाला तोही त्याला रातोरात पुण्याला शिफ्ट केल्यानंतर तिथल्या हाॅस्पिटलमधेच. तोही २६सप्टें. च्या पहाटेच. आणि त्या दिवशीची तिथी होती तीही सर्वपित्री अमावस्याच! हे थक्क करणारे साम्य एक अतर्क्य योगायोग असेच आम्ही गृहित धरले होते. शिवाय घरी आम्ही सर्वचजण विचित्र दडपण आणि प्रचंड दु:खाने इतके घायाळ झालेलो होतो की त्या योगायोगाचा विचार करण्याच्या मनस्थितीत आम्ही नव्हतोही. पण त्याची उकल झाली ती अतिशय आश्चर्यकारकरित्या आणि तीही त्यानंतर जवळजवळ पंधरा वर्षांच्या प्रदीर्घ काळानंतर आणि तेही अशाच एका चमत्कार वाटावा अशा घटनाक्रमामुळे. ते सर्व लिहिण्याच्या ओघात पुढे येईलच.

समीरच्या आजारपणाचा हा तीन महिन्यांमधला आमचा आर्थिक, भावनिक, मानसिक आणि शारीरिक अस्वास्थ्य अशा सर्वच पातळ्यांवरचा आमचा संघर्ष आम्ही अथकपणे निभावू शकलो ते आम्हा सर्व कुटु़बियांच्या ‘त्या’च्यावरील दृढ श्रध्दा आणि निष्ठा यामुळेच! ‘तो’ बुध्दी देईल तसे निर्णय घेत राहिलो, या संघर्षात लौकिकार्थाने अपयश आल्यासारखे वाटत असले तरी तोल जाऊ न देता समतोल विचारांची कास कधी सोडली नाही. त्यामुळेच कदाचित आमच्या दु:खावर ‘त्या’नेच हळुवार फुंकर घातली तीही अगदी ध्यानीमनी नसताना आणि त्यासाठी ‘त्या’ने खास निवड केली होती ती लिलाताईचीच! तो क्षण हा ‘तो’ आणि ‘मी’ यांच्यातील अनोख्या नात्यातला एक तेजस्वी पैलू अधोरेखित करणारा ठरला आणि म्हणूनच कायम लक्षात रहाणाराही!

समीर जाऊन पंधरा दिवस होऊन गेले होते. आरतीची मॅटर्निटी लिव्ह संपल्यानंतर त्यालाच जोडून बाळाच्या आजारपणासाठी तिने घेतलेली रजाही तो गेल्यानंतर आठवड्याभरात संपणार होती. पण आरती पूर्णपणे सावरली नसल्याने घराबाहेरही पडली नव्हती. रजा संपताच ती बँकेत जायला लागावी तरच ती वातावरण बदल होऊन थोडी तरी सावरली जाईल असं मलाही वाटत होतं पण ती तिची उमेदच हरवून बसली होती. मीही माझं रुटीन सुरू केलं होतं ते केवळ कर्तव्याचा भाग म्हणूनच. कारण या सर्व धावपळीत माझं बॅंकेतल्या जबाबदाऱ्यांकडे आधीच खूप दुर्लक्ष झालं होतं. स्वतःचं दुःख मनात कोंडून ठेवून ड्युटीवर हजर होण्याशिवाय मला पर्यायही नव्हताच. रोज घरून निघतानाही पूत्रवियोगाच्या दुःखात रुतून बसलेल्या आरतीच्या काळजीने मी व्याकुळ व्हायचो. त्यामुळे मनावरही प्रचंड दडपण असायचं आणि अनुत्साहही.. !

अशा वातावरणातला तो शनिवार. हाफ डे. मी कामं आवरुन घरी आलो. दार लोटलेलंच होतं. दार ढकलून पाहिलं तर आरती सोफ्यावर बसून होती आणि दारात पोस्टमनने शटरमधून आत टाकलेलं एक इनलॅंडलेटर. ते उचलून पाहिलं तर पाठवणाऱ्याचं नाव आणि पत्ता… सौ. लिला बिडकर, कुरुंदवाड!

ते नाव वाचलं आणि मनातली अस्वस्थता क्षणार्धात विरूनच गेली. एरवी तिचं पत्र कधीच यायचं नाही. तसं कारणही कांही नसायचं. मी नृसि़हवाडीला जाईन तेव्हा क्वचित कधीतरी होणाऱ्या भेटीच फक्त. जी काही ख्यालीखुशाली विचारणं, गप्पा सगळंं व्हायचं ते त्या भेटीदरम्यानच व्हायचं. म्हणूनच तिचं पत्र आल्याचा आनंद झाला तसं आश्चर्यही वाटलं. मुख्य म्हणजे माझा घरचा हा एवढा संपूर्ण पत्ता तिला दिला कुणी हेच समजेना.

मी घाईघाईने ते पत्र फोडलं. वाचलं. त्यातला शब्द न् शब्द आम्हा उभयतांचं सांत्वन करणारा तर होताच आणि आम्हाला सावरणाराही. त्या पत्रातलं एक वाक्य मात्र मला मुळापासून हादरवणारं होतं!

‘समीरचा आजार पृथ्वीवरच्या औषधाने बरा होण्याच्या पलिकडे गेलेला असल्याने तो बरा होण्यासाठी देवाघरी गेलाय आणि तो पूर्ण बरा होऊन परत येणाराय या गोष्टीवर तू पूर्ण विश्वास ठेव. आरतीलाही सांग. आणि मनातलं दुःख विसरून जा. सगळं ठीक होणाराय. ‘

समीरच्या संपूर्ण आजारपणात मी घरच्या इतरांपासूनच नव्हे तर आरती पासूनही लपवून ठेवलेली एकच गोष्ट होती आणि ती सुद्धा त्यांनी उध्वस्त होऊ नये म्हणून. समीर जिवंत राहिला तरी कधीच बरा होणार नव्हता. हे कां ते डॉ. देवधर यांनी मला अतिशय सौम्यपणे समजून सांगितलेलं होतं आणि त्या प्रसंगी एकमेव साक्षीदार होते त्यादिवशी डॉक्टरांच्या केबिनमधे माझ्यासोबत असणारे माझे ब्रॅंच मॅनेजर घोरपडेसाहेब! ‘समीरचा आजार पृथ्वीवरच्या औषधाने बरा होण्याच्या पलिकडे गेलेला होता’ ही तिसऱ्या कुणालाही माहित नसलेली गोष्ट लिलाताईपर्यंत पोचलीच कशी याचा उलगडा तिला समक्ष भेटल्यानंतरच होणार होता आणि ‘समीर बरा होऊन परत येणाराय’ या तिच्या भविष्यवाणीत लपलेल्या रहस्याचाही! पण तिला समक्ष जाऊन भेटण्याची गरजच पडली नाही. तिच्या पत्रात लपलेल्या गूढ अतर्क्याची चाहूल लागली ती त्याच दिवशी आणि तेही अकल्पितपणे!!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ त्याग… – भाग २ – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री सुजाता पाटील ☆

सुश्री सुजाता पाटील

? जीवनरंग ?

☆ त्याग… – भाग २ – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री सुजाता पाटील 

डॉ हंसा दीप

(मी हे कदापि सहन करु शकलो नसतो…. की आज तिच्या जाण्यान जे दुःख मी सहन करतोय ते दुःख, ती तळमळ माझ्या जाण्याने तिला सहन करावी लागली असती.) – इथून पुढे — 

मी एकटक आश्चर्याने पप्पांकडे पहात बसलो…. जस की कुठल्यातरी रहस्यावरचा पडदा हटवावा. पप्पांचे शब्द कानावर पडत होते…. ” मी तिला माझ्या पश्चात सुद्धा दुःखी पाहू शकत नव्हतो. माझ्या जाण्याने ती रडून रडून अर्धमेली झाली असती, आणि हे मी सहन करू शकलो नसतो. कमीतकमी तिच अस पहिल्यांदी निघून जाण्याने ‌ती ह्या एकटेपणाच्या दुःखातून तरी वाचली. तिच्या ह्या आनंदात मी सहभागी होऊ इच्छित आहे. ते बोलत जात होते…. आणि माझ्या आत जी पप्पांची पाषाणाची मूर्ती होती ती बर्फासारखी वितळत माझ्या डोळ्यावाटे अश्रुंच्या रूपाने वाढत निघाली होती.

तुला माहित आहे, तुझ्या आईसोबत माझा दीर्घ प्रवास 

राहिला. कितीतरी पहाट आम्ही आमच्या एकत्रित डोळ्यांनी पाहिल्या. ; अगणित संध्याकाळी आम्ही एकत्र फिरलो. आज निवांतपणे एकांतात जेव्हा गतकाळातील आठवणींना वाकून बघतो, कधी भविष्यातील योजना बनवत सुंदर भविष्य रंगवत‌. ह्या लांब टप्प्याच्या प्रवासात आम्ही कित्येक घर बदलली, देश बदलले. न जाणो कित्येक वेळा सोबत आम्ही पॅकिंग व अनपॅकिंग केली. प्रत्येक नवीन घराला अशाप्रकारे आम्ही सजवत राहिलो जस की हे घर आता आमच आयुष्यभराच सोबती असेल. जेव्हा नवीन घरात गेलो की त्या घराला ही मन लावून सजवायचो, पण तरीही मागच्या घराला मनापासून आठवत रहायचो. प्रत्येक नव्या घरासोबत आमचा एक टप्पा नावासहित जोडला जायचा.

भारतापासून न्युयॉर्क, आणि न्युयॉर्क पासून टोरंटो चे बदलणारे जग, ‌बदलणारे लोक पण आम्हाला व आमच्या एकसंध विचारांना ही बदलू शकले नाहीत. आम्ही दोघ ठेठ झाबुआई ला राहिलो, जराही बदललो नाही. आमच राहण -खाण नक्कीच बदलल. वर्षानुवर्षे एकत्र रहात, भांडत -झगडत, प्रेम करायचो, खायचो -प्यायचो, आयुष्याचा लेखा -जोखा नमूद होत राहिला की कोणी कितीवेळ काम केल, आराम केला. सगळी पसरलेली काम विकून -सावरून मुलासाठी कमीतकमी झझंट ठेवून त्याच्या संगोपनाची योजना आखली होती. वृद्धापकाळात चिंतेची गरज नव्हती, सरकारी सोय होती. जर चिंता होती ती फक्त एकच की, कोण पहिल जाईल, जो पाठीमागे रहाणार, त्याच्यासाठी आपल्या आयुष्यातील उरलेले दिवस व्यतीत करण कठिण होणार.

सहज व स्पष्ट स्वरात पप्पा आज बोलत होते व मी ऐकत होतो. कोणत्या उपदेशापलीकडची दोन लोकांची जीवनगाथा होती ही. मी पप्पांचा वाढीस लागलेला मुलगा हा विचार करत होतो की ह्या सगळ्यात कुठेतरी विषयवासना किंवा फक्त सेक्शुअल डिजायर ची झलक तर दिसत नाही. इथे फक्त दिसत आहे तर तो आहे…. दोन व्यक्तींचा आपापसातील ताळमेळ, कटिबद्धता. ही एकप्रकारे पाहता दोन व्यक्तींची कंपनी होती. एक घरंदाज -खानदानी कार्पोरेशन सारख, जिचा जिवनकाल सतत पुढे सरकत राहिला. मध्ये अडथळा आणण्यासाठी कोणी नव्हतं. परिवार आणि समाज निश्चितच त्या बंधनात होते, पण त्या दोघांमध्ये कोणी नव्हतं.

पप्पांनी ‌माझी अव्यक्त भाषा समजली…. “एका स्त्री सोबत पंचावन्न वर्ष आयुष्याची भागिदारी करण काय असत, ह्याची आपण फक्त जाणीव करू शकतो. शरीराच्या गरजा तर क्षणिक असतात पण त्याव्यतिरिक्त प्रत्येक दिवसाचा, प्रत्येक वर्षाचा, हिशेब शब्दात कसा काय व्यक्त होऊ शकतो. विनारक्ताची नाती कशी जुळली होती, त्या हजारो क्षणांची गहनता समजण्यासाठी हजारो ग्रंथाची गरज लागेल. “

पप्पा दोन मिनिटे थांबले होते. आपल्या कपाळावर दरदरून आलेल दोन थेंब हाताने पुसत सांगू लागले, ” खूप साऱ्या संकटात आम्ही एकत्र राहिलो. मंदिरात एकत्र प्रार्थना केली, एकाचवेळी एका टेबलावर कित्येक वेळा जेवतो… ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर. ती माझ्या सोबत माझ्या कामात बरोबरीची भागिदार होती, आनंदात व दुःखात ही. माझ्यासाठी ही आनंदाची गोष्ट होती की मला जाळण्याची जीवघेणी पीडा तिला सहन करावी लागली नाही. मी तिला एकट सोडू शकलो नसतो. आता जेव्हा पण मी ह्या जगातून जाईन तेव्हा मनात कुठली चिंता न बाळगता जाईन. आणि तेव्हा तिच्या सोबत घालवलेले, तिच्या शिवाय जगलेल्या क्षणांची आठवण माझ्या सोबत राहणार. उद्या, आज आणि काल च्या बाबतीत हा विचार करणच माझ्यासाठी दिलासा देणार आहे. तिच जाण ह्यासाठी एक चांगला दिवस होता. खरच मी खूप आनंदी आहे की मी तिला माझ्या हातून स्वर्गापर्यंत पोहचवल. तिच्या शिवाय फक्त मीच अपूर्ण नाही तर ह्या घरातील प्रत्येक वस्तू अपूर्ण आहे. ह्या अपूर्णतेसोबत मी जगेन, परंतु कदाचित ती जगू शकली नसती. “

अस बोलत ते दोन क्षण तिथे बसले, भोळ्याभाबड्या मुलासारख तसच हास्य चेहऱ्यावर लेवून जो आपल वचन पूर्ण करून आनंदी होतो.

मी आज त्या पतीला बघत होतो, त्याच्या आनंदाला, आनंदाच्या पाठीमागे लपलेल्या त्या दुःखाच्या गडद छायेला. त्या वडिलांना ही अपुर्णतेची जाणिव असूनही एक संपूर्णतेने परिपूर्ण होते. दुःखातून बाहेर आल्यानंतर एखाद्या पाषाण मूर्ती समान शांतता. कदाचित पप्पा आपल्या मनातील व्यथा -व दुःखाच बलिदान देऊन मुर्ता कडून अमुर्ताच्या प्रवासाकडे निघाले होते. त्यांच हे मौन आता माझ्या आत खोलवर कुठेतरी वर्णित होत होत.

पप्पा उभे राहिले. फुले हातातून खाली पडली. स्मारकावर आईचा चेहरा हसताना परावर्तित होत होता. तिचा चेहरा म्हणजे दोन किनाऱ्याचे अंतर एकजूट करणारा सेतू. घरी परतताना मी पप्पांचा हात पकडला, कदाचित आता त्यांना माझ्या सहाऱ्याची, सोबतीची खऱ्या अर्थाने गरज होती.

♥♥♥♥

मूळ हिंदी कथा : उत्सर्जन

मूळ हिंदी लेखिका : डॉ  हंसा दीप, कॅनडा

मराठी अनुवाद : सुश्री सुजाता पाटील

अणुशक्ती नगर मुंबई

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “हळदी कुंकू…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सुश्री नीता कुलकर्णी

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☆ “हळदी कुंकू …” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

हळदी कुंकवाला घरी बोलावणे ही एक सुंदर प्रथा आपल्या धर्मात आहे. त्यानिमित्ताने आवर्जून एकमेकांच्या घरी जाणे होते. स्नेहबंध राहतो. नाती दृढ होतात.. टिकून राहतात. एकमेकांच्या घरी गेल्याने पुढच्या पिढीची ओळख.. जवळीक होते. ही नात्यांची साखळी पुढे पुढे जात राहते.

 

 माझ्या लहानपणी हळदीकुंकवाचे आमंत्रण देणे याची फार गंमत असायची. लांब राहणाऱ्या लोकांचे आमंत्रण वडील सायकलवरून जाऊन देत असत. भाऊ मोठा झाला की हे काम तो करायला लागला. जवळ राहणाऱ्या आईच्या आणि आमच्या मैत्रिणींकडे आमंत्रण आम्ही दोघी बहिणी करायला जात असू. त्याची आम्हाला फार मज्जा वाटायची. शाळेतून आलो की आम्ही निघत असू. त्यांचा क्रमही ठरलेला असायचा.

 

पहिलं घर होतं आईच्या मैत्रिणीचं भडभडे मावशीच… एकदा काय गंमत झाली…

मावशीकडे गेलो. ती बसा. म्हणाली तिने आम्हाला दोघींना खोबऱ्याच्या वड्या खायला दिल्या. आम्ही खात होतो. त्यांच्याकडे पाहुणे आलेले आजोबा समोर बसलेले होते. त्यांनी आमची नावं विचारली. मग म्हणाले,

” पाढे पाठ आहेत का ?ते पाठ करा हिशोब घालताना आयुष्यभर त्यांचा उपयोग होतो. “

” हो आम्ही पाढे पाठ केलेले आहेत ” बहीण म्हणाली.

” मग म्हण बघू एकोणतीसचा पाढा “.. आजोबा म्हणाले.

मावशी म्हणाली….

“अहो पोरींची परीक्षा कसली घेताय? “

 

पण बहिणीने सहजपणे एकोणतीसचा पाढा म्हणून दाखवला. आजोबा एकदम खुश झाले.

म्हणाले, ” पोरगी फार हुशार आहे धीटुकली आहे. त्यांना अजून एक एक वडी दे. “

 

आजोबांचं भविष्य खरं झालं. आक्का हुशारच होती. मोठी झाल्यावर तिने स्वतःचा क्लास काढला आणि हजारो मुलांना शहाणं केलं, शिकवलं.

 

आईच्या बागडे या मैत्रिणीकडे गेलो होतो. ती गप्पीष्ट होती. गंमत जंमत करायची. म्हणून ती आम्हाला फार आवडायची.

ती म्हणाली, ” तुम्हाला च ची भाषा येते का?”

“हो येते की. “.. तेव्हा ती सगळ्यांनाच यायची.

संदीप खरेनी त्या च च्या भाषेत ” चम्हाला तु चंगतो सा… “.. अगदी वेगळीच अशी कविता पण केली आहे.

 

 

मावशी म्हणाली, ” तुम्हाला अजून एक भाषा सांगते. मुंडा रूप्याची “

” मावशी ही कुठली भाषा “?

मग तिने आम्हाला नीट समजावून सांगितलं.

 

प्रथम व म्हणायचं मग त्या अक्षराचा पहिला शब्द सोडून बाकीचे पुढचे सगळे शब्द म्हणायचे नंतर मुंडा म्हणायच नंतर पहिला शब्द म्हणून रूप्या म्हणायचं.. तुला म्हणताना वला मुंडा तू रुप्या म्हणायचं.. काहीतरी म्हणताना वहीतरी मुंडा का रुप्या म्हणायचं… “

मावशीने हे निराळच शिकवलं.

त्याची फार गंमत वाटायला लागली. आम्ही ती भाषा लगेच शिकलो. माझ्या भावाला पण ती भाषा यायला लागली. पुढे आमचे आम्हाला काही प्रायव्हेट बोलायचं असलं की आम्ही त्या भाषेत बोलत असू. अजूनही आमची ती मजा चालू असते.

 

आम्ही दोघी बहिणी हातात हात घेऊन… गप्पा मारत जात असलेला तो रस्ता आठवणीने सुद्धा जीवाला सुखावतो…

आईच्या मैत्रिणी, वाड्यात राहणाऱ्या काकू, आसपास राहणारे, स्मरणात आहेत. आईच्या गुजराती, मारवाडी मैत्रिणी सुंदर साड्या दागिने घालून हळदी कुंकवाला यायच्या. कसेही करून वेळात वेळ काढून, ऊशीर झाला तरी बायका हळदी कुंकवाला यायच्याच…

अत्तरदाणी, गुलाबदाणी बाहेर काढायची. वडील त्यासाठी गुलाब पाण्याची बाटली आणून द्यायचे.

चैत्रगौरीला हातावर कैरीची डाळ दिली जायची. काही हुशार बायका डबा घेऊन यायच्या. मोठ्या पातेल्यात पन्हे करायचे. पाणी प्यायच्या भांड्यात ते द्यायचे. ओल्या हरभऱ्यानी ओटी भरली जायची. आम्हा मुलींना पण मूठ मूठ हरबरे दिले जायचे. त्याचे आम्हाला फार कौतुक वाटायचे. आई त्याचे चटपट चणे, मिक्स भाजी, उसळ असे पदार्थ करायची. हळदी कुंकवाच्या निमित्ताने त्या ऋतूला साजेसे आणि पोटाला योग्य असे हे पदार्थ केले जायचे आणि आरोग्य सांभाळले जायचे.

 

या हळदी कुंकवाच्या आमंत्रणाची जी. ए. कुलकर्णी यांची “चैत्र” ही नितांत सुंदर कथा आहे.

श्रावण शुक्रवारच हळदीकुंकू छोट्या प्रमाणात असायचं. वाड्यात आणि जवळ राहणाऱ्या बायका यायच्या.

गरम मसाला दूध आणि फुटाणे दिले जायचे. पावसाळ्यात फुटाणे खाल्ले की खोकला होत नाही अस आजी सांगायची.

“शुक्रवारचे फुटाणे “….

असं म्हणून ओरडत सकाळीच फुटाणेवाला यायचा. त्याची पण आज आठवण आली.

 

गणपती नंतर गौरी यायच्या. पण त्याचं आमंत्रण घरोघरी जाऊन द्यायचं नसायचं. जिला जसा वेळ होईल तसं ती येऊन जायची कारण त्यावेळेस प्रत्येकजण गडबडीत असायची. त्या हळदीकुंकवाला

“गौरीचे दर्शन ” महत्त्वाचे असायचे. प्रसाद म्हणून हातावर अगदी साखर खोबरे सुद्धा दिले जायचे.

 

संक्रांतीला तिळाची वडी, लाडू असायचा. आईच्या गुजराथी मैत्रिणीने तिला नुसत्या साखरेची कॅरमल सारखा पाक करून लाटून करायची वडी शिकवली होती. ती खुसखुशीत वडी सगळ्यांना आवडायची. आम्हाला मात्र कोणी काय लुटलं याचीच उत्सुकता असायची. प्लास्टिकचे डबे, छोट्या वाट्या, गाळणी, कुंकू, दोऱ्याचे रीळ, आरसे, रुमाल असं काही काही असायचं.

 

एकदा आईच्या मैत्रिणीनी.. अघोरकर मावशींनी सगळ्यांना शंभर पानी वही दिली होती. त्यावर रोज एका पानावर “श्रीराम जय राम जय जय राम” लिहायचं असं तिने सांगितलं होतं.

किती गोड कल्पना.. काही दिवस आपोआप नामस्मरण होत गेलं.

 

हळदीकुंकवाला बायका यायच्या. गप्पा व्हायच्या. नव्या नवरीला नाव घे म्हटलं की ती लाजत लाजत नाव घ्यायची….

त्या दिवशी घरी घूम चालायची…. वडील मित्राकडे जायचे किंवा नातेवाईकांकडे जायचे. चार पासून ते रात्री आठपर्यंत गडबड असायची. दिवसभर आई खुश असायची.

किती छान दिवस होते ते…. आताही आठवले तरी मन हरखून जाते.

आपली ही हिंदू संस्कृतीची परंपरा आपण अशीच चालू ठेऊ या…

संक्रांतीच्या हळदीकुंकवाची तुमची तयारी झाली का? यावर्षी काय लुटणार आहात?

बऱ्याच बऱ्याच गोष्टी आतापर्यंत लुटून झालेल्या आहेत. यावेळेस काहीतरी वेगळं लुटू या का? 

 

करा बरं विचार……

 तुम्हालाही काहीतरी नवीन सुचेल. जरा वेगळं असं काही मिळालं की मजा येईल…

माझ्या मनात एक विचार आला..

 

यावर्षी ” वेळ ” लुटायची कल्पना कशी वाटते तुम्हाला ?

कोणाला तरी तुमचा वेळ द्या. आनंदाने प्रेमाने त्याच्याशी बोला. प्रत्यक्ष भेटा… फोन करा…

” तिळगुळ घ्या गोड गोड बोला ” 

असं नुसतं म्हणण्यापेक्षा प्रत्यक्ष बोललात तर जास्ती आनंद होईल……

 यावर्षी असा आनंदच लुटला तर….

तुम्ही तुमच्या पद्धतीने कसाही साजरा करा. तुम्ही आणलेलं वाण सगळ्यांना जरूर द्या…

 

हा आनंद लुटायचा सण आहे.

कोणाचा आनंद कशात आहे हे तुम्हाला माहीत आहे…

तो मात्र त्याला जरूर द्या.

संक्रांतीच्या तुम्हाला सर्वांना मनापासून शुभेच्छा.

© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

पुणे

मो 9763631255

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ “उसळ-चपातीचे ऋण…!!”  – लेखक – अज्ञात ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ “उसळ-चपातीचे ऋण…!!”  – लेखक – अज्ञात ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

एकदा भीमसेन जोशी (अण्णा) गाण्याच्या मैफलीसाठी गुलबर्ग्यात गेले होते. ते आटपून अण्णांची गाडी परतीच्या प्रवासात होती. रात्रीची दोनची वेळ असेल. गाडी चालवता चालवता अण्णांनी मुख्य रस्ता सोडला आणि एका आडगावाच्या वाटेला लागले. साथीदारांना कळेचना की हे कुठे चाललेत.

तेवढ्यात अण्णा म्हणाले, “आमचे एक गुरुजी इथून जवळच राहतात. आता अनायसे या वाटेनं चाललोच आहोत तर त्यांना भेटू या.. !”

रात्री दोनची वेळ असल्यामुळे गावात सामसूम होती. थोड्या वेळाने एका अंधार्‍या खोपटापुढे अण्णांची गाडी उभी राहिली.. मंडळी गाडीतून उतरली.

अण्णांनी खोपटाचं दार ठोठावलं. एका वयस्कर बाईनं दार उघडलं. चिमणी मोठी केली आणि खोपटात प्रकाश पसरला. खाटेवर एक वयस्कर गृहस्थ पहुडला होता. त्याचं नाव रामण्णा.. ! 

अण्णा त्यांच्यापाशी गेले आणि त्यांना हात देऊन बसतं केलं.. अण्णा म्हणाले, ‘काय, कसं काय? ओळखलंत का? बर्‍याच दिवसांनी आलो, अलीकडे वेळच मिळत नाही..’ अण्णा कानडीतनं बोलत होते.

रामण्णाही ओळखीचं हसले.. थोड्या गप्पा आणि विचारपूस झाल्यावर अण्णांनी रामण्णाच्या पायांवर डोकं ठेऊन त्यांना नमस्कार केला आणि खिशातलं २०-२५ हजारांचं बिदागीचं पाकिट त्यांच्या हातात दिलं.. आणि त्यांचा निरोप घेतला..

साथीदार मंडळींना हा प्रकार काय आहे, हेच कळेना. तेव्हा अण्णांनीच खुलासा केला –

“इथून जवळच्याच एका रेल्वे स्थानकात (होटगीच्या आसपास) एके काळी मी बेवारशी राहायचो. सायडिंगला जे डबे लागत त्यातच झोपायचो. तिथेच रेल्वेच्या थंडगार पाण्याने आंघोळ उरकायचो. खिशात दमडा नव्हता. गाणं शिकण्यासाठी घरातून पळालो होतो. कानडीशिवाय दुसरी कोणतीही भाषा येत नव्हती. भिकारी अवस्थाच होती.

स्टेशनच्या बाहेरच तेव्हा हा रामण्णा त्याची हातगाडी लावत असे. मुगाची पातळ उसळ आणि चपात्या तो विकायचा. मस्त वास यायचा त्याच्या गाडीभोवती. मी तिथेच घुटमळायचा.. आमची ओळख झाली. गदगच्या जोशी मास्तरांचा मुलगा. गाणं शिकायचं आहे. इतपत जुजबी ओळख मी त्याला दिली”.

“उसळ-चपाती पाहिजे काय?”, असं तो मला विचारायचा. माझ्या खिशात दमडा नव्हता.

रामण्णा म्हणायचा, “तुला गाणं येतं ना? मग मला म्हणून दाखव. तरच मी तुला खायला देईन. फुकट नाही देणार.. !”

“घरी माझी आई जी काही कानडी भजनं आणि अभंग गायची, तेवढीच मला गाता येत होती. रामण्णाला दोन भजनं म्हणून दाखवली की तो मला पोटभर खायला द्यायचा..!”

“जो पर्यंत त्या स्टेशनात मुक्काम ठोकून होतो, तोपर्यंत मला रामण्णा खायला द्यायचा. पण फुकट कधीही नाही.

रामण्णा म्हणायचा, “तुला गाणं येतं ना? मग कशाला उगाच चिंता करतोस पोटाची ?”

रामण्णाचा निरोप घेऊन गाडी पुन्हा परतीच्या वाटेवर भरधाव वेगाने निघाली होती.. साथीदार मंडळी गप्प होती.. गाडीमध्ये शांतता होती. धीरगंभीर चेहर्‍याचे स्वरभास्कर गाडी चालवत होते..

रामण्णाच्या खोपटात भविष्यातला भारतरत्न येऊन मुगाची उसळ आणि चपातीच्या खाल्ल्या अन्नाला नमस्कार करून गेला होता.

हात आभाळाला टेकले तरी पाय जमिनीवर असलेला माणूस…..

स्वरभास्कर “

लेखक : अज्ञात 

प्रस्तुती : श्री सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “रूशा (रूपांतरित शायरी )…” मूल शायरी – शायर अनवर जलालपुरी ☆  भावानुवाद – श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? वाचताना वेचलेले ?

शायर अनवर जलालपुरी

☆ “रूशा (रूपांतरित शायरी )”  – मूल शायरी – शायर अनवर जलालपुरी ☆  भावानुवाद – श्री सुनील देशपांडे

(शायर अनवर जलालपुरी, ज्यांनी भगवद्गीतेचा उर्दूमध्ये अनुवाद केला आहे. त्यांच्या निधनाला ६ जानेवारी २०२५ रोजी एक वर्ष पूर्ण झाले. त्यानिमित्ताने त्यांची काही शायरी !! त्या शायरीचे मी केलेले मराठी रूपांतर मी ज्याला ‘ रूशा ‘ असे म्हणतो, सोबत दिले आहे.

अन्वर जलालपुरी यांचे हे शेर आमचे नाशिक येथील परममित्र आणि उर्दू शायरीचे अभ्यासक ॲड. नंदकिशोर भुतडा यांचेकडून उपलब्ध झाली त्यांचेही धन्यवाद !)

1.

 मैं अपने साथ रखता हूँ सदा अख़्लाक़* का पारस ! 

इसी पत्थर से मिट्टी छू के, मैं सोना बनाता हूँ !!

* सदवर्तन !!

सद्वर्तनाचा परिस मी नेहमी बाळगतो 

मातीला स्पर्श करून सोने ही बनवतो 

२.

शादाब-ओ-शगुफ़्ता*कोई गुलशन न मिलेगा ! 

दिल ख़ुश्क** रहा तो कहीं सावन न मिलेगा !

*हरा भरा !! **सूखा !

कुठेही हिरवळीने समृद्ध बाग दिसणार नाही

अंतर्यामीच दुष्काळ तर श्रावण ही येणार नाही 

३.

जो भी नफ़रत की है़ दीवार गिराकर देखो !

दोस्ती की भी कोई रस्म निभाकर देखो !!

*

द्वेशाची भिंत पाडून तर पहा

मैत्रीची शुचिता पाळून तर पहा

४.

तू मुझे पा के भी ख़ुश न था, ये किस्मत तेरी !

मैं तुझे खो कर भी ख़ुश हूँ, यह जिगर मेरा है !!

*

माझी प्राप्ती होऊन सुद्धा तुला आनंद नाही हे नशीब तुझे 

तुला गमावून सुद्धा मी आनंदी आहे ही जिद्द माझी

५.

मैं जाता हूँ, मगर आँखों का सपना बन के लौटूँगा !

मेरी ख़ातिर कम-अज-कम* दिल का दरवाज़ा खुला रखना !!

*कम से कम !!

जातोय खरा पण सारी स्वप्ने प्रत्यक्ष घेऊनच येईन

माझ्यासाठी किमान हृदयाचे दरवाजे उघडे तरी ठेव

रात भर इन बंद आँखों से भी, क्या क्या देखना ?

देखना एक ख़्वाब, और वह भी अधूरा देखना !!

*

रात्रभर हे बंद डोळे काय बरे पाहतील 

एक स्वप्न आणि तेही अर्धेच पाहतील?

७.

 जिन लोगों से, ज़हन* ना मिलता हो अनवर‘ 

उन लोगों का साथ निभाना कितना मुश्किल है !!

*

मनामनांचे मिलन होत नसेल जिथे 

किती बरे अवघड सहजीवन तिथे

८.

सभी के अपने मसाइल* सभी की अपनी अना**

पुकारूँ किस को, जो दे साथ उम्र भर मेरा !!

*समस्या **अहंकार !!

किती समस्या किती अहंकार प्रत्येकाकडे 

आयुष्याची सोबत मागू तरी कोणाकडे

९.

वक़्त जब बिगड़ा तो, ये महसूस हमने भी किया !

ज़हन व दिल का सारा सोना जैसे पत्थर हो गया !!

*

वेळ वाईट आल्यावर काळाचा महिमा मला समजला

मनातील, हृदयातील सोन्याचा कण अन् कण दगड बनला

मूल शायरी – शायर अनवर जलालपुरी 

भावानुवाद – श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : sunil68deshpande@outlook.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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