English Literature – Articles ☆ – Recipe for Authentic Happiness and Well-Being -☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Recipe for Authentic Happiness and Well-Being – ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Can we experience continuous happiness? Is there a way to reclaim the child-like joy in our body, mind, and spirit? Can we shield ourselves from the stress of daily life and cultivate a tranquil mind?

More importantly, is it possible to develop a simple routine that keeps us energized throughout the day?

These are questions I have pondered for over two decades. I have not only reflected on them but also researched, experimented, and learned. Today, I feel fortunate and fulfilled to share the fruits of that journey—a recipe for authentic happiness that is practical, enriching, and transformative.

The Journey Begins:

My journey began as a behavioral science trainer, helping people discover their authentic selves. Spending long hours with them was deeply satisfying, but I struggled to share these meaningful experiences with my wife. That disconnect felt like a loss.

In response, we decided to embark on an activity we could share. That decision turned out to be life-changing. We discovered laughter yoga, an activity that brought joy and connection into our lives. Over time, we started conducting sessions to spread smiles and uplift others. What began as a shared interest became a profound purpose, drawing participants from across the world.

Laughter yoga is one of the most uplifting activities imaginable. It generates positivity, promotes health, and sparks instant joy. Unconditional laughter often leads to a meditative state, melting away stress and worry. There’s something profoundly spiritual about making others laugh, especially those who feel weighed down by life’s burdens.

Despite its immense benefits, we realized that laughter yoga had its limitations. It felt like a delightful dessert, but what people needed was a wholesome meal.

A Deeper Exploration:

This realization led us to explore yoga nidra, a systematic method for achieving deep physical, mental, and emotional relaxation. As we delved deeper, we unearthed hidden treasures. This path eventually led us to ancient meditation practices, including Buddha’s mindfulness and insight meditations.

Simultaneously, I immersed myself in the field of positive psychology. According to its founder, Martin Seligman, the five elements of well-being are positive emotions, engagement, relationships, meaning, and accomplishment. Similarly, Sonja Lyubomirsky’s research highlights the most effective happiness practices, such as embracing spirituality, engaging in physical activity, meditating, and simply acting happy.

Psychologist Mihaly Csikszentmihalyi draws parallels between yoga and the state of flow – a joyous, self-forgetful involvement achieved through focused concentration. He describes yoga as a “thoroughly planned flow activity,” made possible through disciplined practice.

Influential figures like Stephen Covey, Daniel Goleman, Matthieu Ricard, and Richard Gere also attest to the transformative power of meditation. Their lives exemplify how regular practice contributes to enduring happiness.

Experiments in Happiness:

Building on these insights, we designed and implemented programs to promote happiness and well-being:

The Wheel of Happiness and Well-Being:

Designed for workplaces and educational institutions, this program integrates positive psychology, meditation, yoga, laughter yoga, and spirituality. Participants found it highly valuable, appreciating its comprehensive approach.

Meditate Like the Buddha:

A weekly, early-morning meditation session focused purely on mindfulness and inner stillness. Participants loved its simplicity and requested daily sessions.

Happiness Boot Camp:

Held on weekends in parks, this family-friendly program combined yoga, meditation, laughter yoga, and fun activities. The response was overwhelmingly positive.

East Meets West Retreat:

A week-long retreat blending modern science with ancient wisdom. Participants learned to create a meaningful and joyful life while training to become versatile Happiness and Well-Being Facilitators. The retreat featured practices such as yoga nidra, surya namaskara, the five Tibetans, anapana meditation, sufi meditation, and happiness activities.

The Recipe for Happiness:

After years of practice, experimentation, and interaction with thousands of participants, we believe we have discovered a genuine recipe for happiness and well-being. It is a blend of modern insights and ancient wisdom, woven together with the threads of mindfulness, physical vitality, and emotional connection.

Ultimately, the greatest fulfillment comes from touching lives -helping others discover their own paths to happiness and well-being.

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१० ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१० ☆ श्री सुरेश पटवा ?

राम राय के मारे जाते ही विजयनगर की सेना तितर-बितर हो गई। मुस्लिम सेना ने विजयनगर पर कब्जा कर लिया। उसके बाद वैभव, कला तथा विद्वता की इस ऐतिहासिक नगरी में विध्वंश का जो तांडव शुरू हुआ, उसकी नादिर शाह की दिल्ली लूट और कत्लेआम से ही तुलना की जा सकती है। हत्या, लूट, बलात्कार तथा ध्वंस का ऐसा नग्न नृत्य किया गया कि जिसके निशान आज भी हम्पी में देखे जा सकते हैं।

बीजापुर, बीदर, गोलकोंडा तथा अहमदनगर की सेना करीब 5 महीने हम्पी में रही। इस अवधि में उसने इस वैभवशाली नगर की ईंट से ईंट बजा दी। ग्रंथागारों व शिक्षा केंद्रों को आग की भेंट चढ़ा दिया गया। मंदिरों और मूर्तियों पर लगातार हथौड़े बरसते रहे। हमलावरों का एकमात्र लक्ष्य था विजयनगर का ध्वंस और उसकी लूट। साम्राज्य हथियाना उनका प्रथम लक्ष्य नहीं था। क्योंकि बेरहम विध्वंस के बाद वे जनता को बदहाल करके यहाँ से चलते बने।

सल्तनत की संयुक्त सेना ने हम्पी को खूब लूटा और इसे खंडहर में बदल दिया। अपनी पुस्तक ‘द फॉरगॉटेन एम्पायरट‘ में रॉबर्ट सेवेल ने लिखा है, “आग और तलवार के साथ वे विनाश को अंजाम दे रहे थे। शायद दुनिया के इतिहास में ऐसा कहर कभी नहीं ढाया गया। इस तरह एक समृद्ध शहर लूटने के बाद नष्ट कर दिया गया और वहाँ के लोगों का बर्बर तरीके से नरसंहार कर दिया गया।”

सामान्यतः विजयी सेना विजित राज्य के ख़ज़ाने को लूटती है। मुस्लिम सेना ने हम्पी पहुँच खजाने को नहीं पाया तो उन्होंने आम कत्लेआम का फरमान जारी कर जिहाद का “सिर कलम या इस्लाम” आदेश दिया। दक्कन की सल्तनतों की संयुक्त सेना ने विजयनगर की राजधानी हम्पी में प्रवेश करके जनता  को बुरी तरह से लूटा और सब कुछ नष्ट कर दिया।

मुस्लिम आक्रांताओं ने पूरी राजधानी का एक भी नागरिक ज़िंदा नहीं छोड़ा और एक भी घर या दुकान नष्ट करने से नहीं छोड़ी। पंक्तिबद्ध खड़े पत्थर के खंभे बिना छत की क़तारबद्ध दुकानों के अवशेष मुस्लिम अत्याचार की कहानी कहते हैं। महल, रनिवास, स्नानागार, बैठक, चौगान, गलियारे सभी नेस्तनाबूद कर दिये। बारूद से मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ने और भ्रष्ट करने के कार्य चार महीनों तक अनवरत जारी रहे। हम्पी में गिद्दों और जगली कुत्तों के सिवाय कुछ भी शेष नहीं छोड़ा।

हम्पी को खंडहर में तब्दील करने के बाद बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर, और मराठों के प्रतिनिधि घोरपड़े ने संपूर्ण विजयनगर साम्राज्य के इलाक़ों को आपस में बाँट लिया। एकमात्र हिंदू विजयनगर साम्राज्य मिट्टी में मिला दिया गया। तालीकोटा की लड़ाई के पश्चात् विजयनगर राज्य का अस्तित्व समाप्त हो गया। मैसूर के राज्य, वेल्लोर के नायकों और शिमोगा में केलादी के नायकों ने विजयनगर से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। दक्कन की इन सल्तनतों ने विजयनगर की इस पराजय का लाभ नहीं उठाया और पुनः पहले की तरह एक दूसरे से लड़ने में व्यस्त हो गए और अंततः मुगलों के आक्रमण के शिकार हुए। बाद में शिवाजी के अभ्युदय से इनका बहुत बड़ा इलाक़ा मराठा साम्राज्य में विलीन हो गया।

विजयनगर की हार के कई कारण थे। दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना में घुड़सवार सेना की कम संख्या थी। दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना में जो भी हथियार इस्तेमाल किये जा रहे थे वे आधुनिक व परिष्कृत नहीं थे। दक्कन की सल्तनतों के तोपखाने बेहतर थे। उनकी व्यूह रचना कारगर सिद्ध हुई। विजयनगर की हार का सबसे बड़ा कारण उनकी सेना के गिलानी भाइयों का विश्वासघात था।

गौरवशाली विजयनगर साम्राज्य की हार के बाद, सल्तनत की सेना ने हम्पी के खूबसूरत शहर को लूट खंडहर में बदल दिया। यह एक उजड़ा हुआ बंजर इलाका है, जहां खंडहर बिखरे हुए हैं, जो एक हिंसक अतीत की कहानी बयान करते हैं। हम्पी धूल धूसरित होकर ज़मीन के भीतर खो गया था। जिसके ऊपर पेड़ झाड़ी ऊग आए और यह पहाड़ियों में तब्दील हो गया था।

ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़ौजी अधिकारी से पुरातत्ववेत्ता बने कॉलिन मैकेंज़ी ने 1800-1810 में हम्पी के खंडहरों की खोज की थी। 1799 में, मैकेंज़ी सेरिंगपट्टम की लड़ाई में ब्रिटिश सेना का हिस्सा थे, जिसमें मैसूर के महाराजा टीपू सुल्तान की हार हुई थी। टीपू की हार के बाद, उन्होंने 1799 और 1810 के बीच मैसूर सर्वेक्षण का नेतृत्व किया और इसका एक उद्देश्य राज्य की सीमाओं के साथ-साथ निज़ाम के क्षेत्रों को निर्धारित करना था। सर्वेक्षण में दुभाषियों, ड्राफ्ट्समैन और चित्रकारों की एक टीम शामिल थी जिन्होंने क्षेत्र के प्राकृतिक इतिहास, भूगोल, वास्तुकला, इतिहास, रीति-रिवाजों और लोक कथाओं पर सामग्री एकत्र की।

सदाशिव राय का शाही परिवार तब तक पेनुकोंडा (वर्तमान अनंतपुर जिले में स्थित) पहुंच गया था। पेनुकोंडा को उसने अपनी नई राजधानी बनाया, लेकिन वहां भी नवाबों ने उसे चैन से नहीं रहने दिया। बाद में वहां से हटकर चंद्रगिरि (जो चित्तूर जिले में है) को राजधानी बनाया। वहां शायद किसी ने उनका पीछा नहीं किया। विजयनगर साम्राज्य करीब 80 वर्ष और चला। गद्दारों के कारण विजयनगर साम्राज्य 1646 में पूरी तरह इतिहास के कालचक्र में दफन हो गया। इस वंश के अंतिम राजा रंगराय (तृतीय) थे, जिनका शासन 1642-1650 था। यह चर्चा करते-करते हम सभी तीन बजे तक हम्पी पहुँच गए। बीच में एक दक्षिण भारतीय होटल में रुककर शुद्ध दक्षिण भारतीय भोजन किया। सूर्य पूरी तन्मयता से तपा रहा था। हमारे साथी लोग सिकंजी, नारियल पानी, आइसक्रीम इत्यादि पर टूट पड़े। निस्तार इत्यादि से फुरसत होने के पश्चात सबको इकट्ठा कर विरूपाक्ष मंदिर चल दिए।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 587 ⇒ गुमशुदा की तलाश ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश।)

?अभी अभी # 587 ⇒ गुमशुदा की तलाश ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक समय था, जब समाचार पत्रों में यदा कदा ऐसी तस्वीरें छपा करती थीं, जिनके साथ यह संदेश होता था, प्रिय मोहन, तुम जहां भी हो, घर चले आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की ज़रूरत हो बता देना।

लाने वाले को आने जाने के किराए के अलावा उचित इनाम दिया जाएगा। इनमें कुछ ऐसे वयस्क महिला पुरुष भी होते थे जो मानसिक रूप से विक्षिप्त होते थे, और घर छोड़कर चले जाते थे।

तब किसी का अपहरण अथवा किडनैपिंग सिर्फ फिल्मों में ही होता था। मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चे या तो मेलों में गुम होते थे, अथवा उन्हें डाकू या गुंडे उठाकर ले जाते थे, और वे बड़े होकर डॉन या फिर डाकू बन जाते थे।।

तब ना घर में फोन अथवा मोबाइल होता था और ना ही कोई संपर्क सूत्र। घर भी भाई बहनों और रिश्तेदारों से भरे भरे रहते थे। खेलने कूदने की आउटडोर गतिविधि अधिक होती थी। स्कूल के दोस्तों के साथ साइकलों पर पाताल पानी और टिंछा फॉल जैसी प्राकृतिक जगह निकल जाते थे। सर्दी, गर्मी, बारिश, कभी साइकिल पंक्चर, देर सबेर हो ही जाती थी। परिवार जनों की चिंता स्वाभाविक थी। लेकिन वह उम्र ही बेफिक्री और रोमांच की थी।

गुमने और खोने में फर्क होता है। जो गुमा है उसके वापस आने की संभावना बनी रहती है। गुमना एक तरह से गायब होना है, कुछ समय के लिए बिछड़ना है। कई बार ऐसा होता है, हम खोए खोए से, गुमसुम बैठे रहते हैं। हमें ही नहीं पता, हम कहां गायब रहते हैं, अचानक कोई हमें सचेत करता है, और हम अपने आप में वापस आ जाते हैं।।

हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है, जो हमसे जुड़ा हुआ है, चल – अचल, जड़ – चेतन। रिश्ते बनते हैं, बिगड़ते हैं, कभी कोई काम बनता है, तो कभी कोई काम बिगड़ता भी है। खोने पाने के बीच जीवन निरंतर चलता रहता है। किसी चीज की प्राप्ति अगर उपलब्धि होती है तो किसी का खोना एक अपूरणीय क्षति। जेब से पर्स का गिरना, चोरी होना या खोना तक हमें कुछ समय के लिए विचलित कर सकता है।

कभी कभी तो जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब किसी के अचानक चले जाने से समय रुक जाता है, ज़िन्दगी ठहर जाती है, एक तरह से दुनिया ही लुट जाती है।

होते हैं कुछ ऐसे इंसान भी, जो खोने पाने के बीच, मन को एक ऐसी स्थिति में ले आते हैं, जहां जो खो गया, वह आसानी से भुला दिया जाता है, और जो मिल गया, उसे ही मुकद्दर समझ लिया जाता है। मिलने की खुशी ना खोने का ग़म, क्या एक ऐसा भी कोई मुकाम होता है।।

सदियों से इंसान की एक ही तलाश है। वह सब कुछ पाना तो चाहता है, लेकिन कुछ भी खोना नहीं चाहता। उस लगता है, पाने में खुशी है, और गंवाने में गम। उसकी चाह, चाहत बन जाती है, जब कि हकीकत में हर चाह का पूरा होना मुमकिन नहीं।

चाह में चिंता है, बैचेनी है, दिन रात का परिश्रम है, आंखों में नींद नहीं सिर्फ सपने हैं।

और पाने के बाद उसके खोने और गुम हो जाने का भय। ताले चाबी, लॉकर, सुरक्षा, key word, पासवर्ड, OTP, सेफ्टी अलार्म, सीसीटीवी, और सिक्योरिटी गार्ड। लेकिन जो आपसे ज़िन्दगी तक छीन सकता है, उससे आप क्या क्या बचाओगे। साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय तो आज की तारीख में अतिशयोक्ति होगी लेकिन जो है वह पर्याप्त है का भाव ज़रूरी है। बस सुख चैन कोई ना छीने, हमारी स्वाभाविक खुशियां कहीं गुम ना हो जाए। दुनिया में आज भी नेकी कायम है। अमन चैन भी, थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 144 ☆ मुक्तक – ।।घर में प्रेम,रौनक का रंग ,भरती हैं बेटियाँ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 144 ☆

☆ मुक्तक – ।।घर में प्रेम,रौनक का रंग ,भरती हैं बेटियाँ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

बेटियाँ और आगे भी बढ़ेंगी    बेटियाँ।

बराबर हक के  लिए  भी लड़ेंगी  बेटियाँ।।

बेटों से कमतर नहीं हैं   बेटियाँ भी हमारी।

हर ऊँची सीढ़ी  पर भी चढ़ेंगी    बेटियाँ।।

=2=

विश्व पटल पर आज बेटियों का ऊंचा नाम है।

आज कर   रही  दुनिया में वह हर  काम है।।

बेटी को जो देते बेटों जैसा प्यारऔर सम्मान।

अब वही माता पिता    कहलाते  महान हैं।।

=3=

हर दुःख  सुख   साथ   में  संजोतीं  हैं बेटियाँ।

हर घर प्रेम और रौनक के फूल बोती हैं बेटियाँ।।

बड़ी होकर करती   सृष्टि की रचना बनके नारी।

प्रभु कृपा बरसती वहीं जहाँ होती हैं   बेटियाँ।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 210 ☆ कविता – बापू का सपना… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – बापू का सपना। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 210 ☆ कविता – बापू का सपना ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

बापू का सपना था—भारत में होगा जब अपना राज ।

गाँव-गाँव में हर गरीब के दुख का होगा सही इलाज ॥

*

कोई न होगा नंगा – भूखा, कोई न तब होगा मोहताज ।

राम राज्य की सुख-सुविधाएँ देगा सबको सफल स्वराज ॥

*

पर यह क्या बापू गये उनके साथ गये उनके अरमान।

रहा न अब नेताओं को भी उनके उपदेशों का ध्यान ॥

*

गाँधी कोई भगवान नहीं थे, वे भी थे हमसे इन्सान ।

किन्तु विचारों औ’ कर्मों से वे इतने बन गये महान् ॥

*

बहुत जरूरी यदि हम सबको देना है उनको सन्मान ।

हम उनका जीवन  समझें, करे काम कुछ उन्हीं समान ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “प्रेषित…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “प्रेषित…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

प्रेषित निघून जातात कालातीत विचारांचे ठसे ठेवत.

आम्ही मात्र काळाच्या पडद्यावर रक्तलांच्छित ठसे ठेवतो.

*

ते सुळावर चढतात आमच्या कल्याणा साठी.

त्यांच्या विचारांना आम्ही सुळी देतो स्वार्थासाठी.

*

ते आपलाच क्रूस वागवतात खांद्यावर स्वतःच्याच.

आम्ही जबाबदारीचे ओझेही पेलत नाही स्वतःच्याच.

*

मृत्यूनंतरही ते पुन्हा प्रकटतात आमच्या भल्यासाठी.

मारेकरी मात्र सतत जन्म घेतात क्रौर्यासाठी.

*

एकदा क्रूरपणे त्यांना प्रत्यक्ष मारण्यासाठी,

 मग अधिक क्रूरपणे विचारांना मारण्यासाठी.

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : sunil68deshpande@outlook.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ओढ… ☆ सौ. अर्चना गादीकर निकारंगे ☆

सौ. अर्चना गादीकर निकारंगे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ओढ… ☆ सौ. अर्चना गादीकर निकारंगे 

संध्याकाळच्या वेळेस पक्ष्यांची माळ घरट्याकडे परतत होती,

दूरवर राहिलेल्या घरट्याला कवेत घेऊ पाहत होती.

चुकलेला, राहीलेला असेल मागे कोणी

म्हणाली, ” पुरे आता, फिरा माघारी, नका थांबू आणि,

*

अनुभवलेल्या गोष्टींचे भांडार होते तिच्यापाशी,

भविष्यासाठी असेच शिकणार होते ते प्रत्येक दिवशी.

अंगातला थकवा रात्रीच्या विसाव्याने घालवून,

प्रसन्न मनाने ते उदया परत उडणार होते आनंदून.

*

पण त्यासाठी आज घरी परतणे अनिवार्य होते,

काहींचे कुटुंब येण्याची त्यांच्या वाट पाहत होते,

सांगायचे होते काहींना आज त्यांनी काय पाहीले,

जे घरी राहून न गेलेल्यांचे अनुभवायचे राहीले.

© सुश्री अर्चना गादीकर निकारंगे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ गीता जशी समजली तशी… – गीता आणि समत्व – भाग – ५ ☆ सौ शालिनी जोशी ☆

सौ शालिनी जोशी

☆ गीता जशी समजली तशी… – गीता आणि समत्व – भाग – ५ ☆ सौ शालिनी जोशी

आपले जीवन विरोधी गोष्टींनी युक्त आहे. इथे सुख आहे आणि दुःखही आहे. तसेच राग- द्वेष, लाभ-अलाभ, जय- पराजय, शीत- उष्ण असे द्वैत आहे. यापैकी एक गोष्टच एका वेळी साध्य असते. आपली स्वाभाविक ओढ सुखाकडे. ते हातात आल्यावर निसटून जाईल की काय भीती आणि सुख मिळवण्यासाठी केलेले श्रम दुःखच निर्माण करतात. सुखाचे दुःख कसे होते कळतच नाही. जयाच्या उन्मादात पराजय पुढे ठाकतो. साध्याच्या वाटेवर अडचणी येतात, सध्याचे असाध्य होते. असा हा लपाछपीचा खेळ म्हणजे जीवन. माणूस यातच गुंततो आणि खऱ्या शाश्वत सुखाला मुकतो. अशा वेळी या दोन्ही गोष्टी कशा सांभाळाव्या आणि आनंदी जीवन कसे जगावे याचा उपाय गीता सांगते. तो म्हणजे समत्व,समानता.

सुख म्हणजे इंद्रियांना अनुकूल आणि इंद्रियांना प्रतिकुल ते दुःख. (ख- इंद्रिय). या दोन्हीचा परिणाम मनावर होऊ द्यायचा नाही. मन स्थिर असेल तर बुद्धी ही स्थिर राहते. कार्याविषयी दृढभाव निर्माण होतो. इंद्रियांच्या प्रतिक्रिया नाहीत. हळहळ नाही, हुरळून जाणे नाही. सुखदुःख येवो, यश मिळो अथवा न मिळो अशा विरुद्ध परिस्थितीतही मनाची चलबिचल न होता स्थिर राहणे हेच गीतेत सांगितलेले समत्व. गीता म्हणते,’ सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यतेl’ म्हणजेच ‘सुखदुःखे समे कृत्वा लाभा लाभौ जयाजयौl’ अशी ही स्थिती. शीत- उष्ण, शुभ -अशुभ, राग- द्वेष, प्रिय-अप्रिय, निंदा-स्तुती, मान- अपमान असे प्रसंग येतच असतात. कोणतीही वेळ आली तरी जो सुखाने हर्षित होत नाही. दुःखाने खचून जात नाही त्यालाच समत्व साधले. अशा बुद्धीने केलेले कर्म हे निष्काम होते. कर्मातील मनाचा असा समतोलपणा हाच निष्काम कर्मयोग आणि हे ज्याला साधलं तोच श्रेष्ठ भक्त, गुणातीत, जीवनमुक्त.

हेच समत्व वस्तू व प्राणीमात्रांविषयी, सर्व भूतान् विषयी असावे असे गीता सांगते. वस्तू विषयी म्हणजे ‘समलोष्ठाश्मकांचन:’ (६/८)अशी स्थिती. दगड,माती आणि सोन या तीनही विषयी समत्व. माणसाला सोन्याची आसक्ती असते. ती नसणे म्हणजे ‘धनवित्त आम्हा मृत्तिके समान’. असा माणूस अनासक्त असतो. तसेच व्यक्तीविषयी समत्व ही गीता सांगते ‘सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबंधुषु l साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यतेl(६/९). निरपेक्ष मित्र,उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष करणारा, हितकारक बंधू, पापी आणि साधू पुरुष यांचे विषयी समभाव असणारा ब्राह्मण, गाय, कुत्रा, चांडाळ यातही समत्व पाहतो. कुणाच्या द्वेष करत नाही. वरवर ते भिन्न दिसले तरी सर्वांमध्ये एकच परमेश्वर आहे या भावनेने सर्वांचा योग्य आदर करणे हीच समत्वबुद्धी. भगवंत स्वतःही समत्त्वाचे आचरण करतात. ‘समोsहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योsस्ति न प्रिय:l’ ‘सर्व भूतात मी समभावाने व्यापून आहे. मला कोणी अप्रिय नाही आणि प्रिय नाही. हा भेद माझ्या ठिकाणी नाही. आत्मरूपाने मी सर्वांना व्यापून आहे.

सर्व भूतात भगवंत तोच माझ्यात आहे आणि मी त्यांच्यात हा सर्व भुतात्मभाव. ‘ जे जे देखे भूत ते ते भगवंत’ मान्य झाली की राग द्वेष कुणाच्या करणार ? सर्वत्र एकच परमात्मा पाहणे हेच समत्व. असे समत्व प्राप्त झाले की दृष्टिच बदलते. गत काळाचा शोक नाही, भविष्याची चिंता नाही. वर्तमानात सर्वांशी समत्वाने व्यवहार. प्राप्त कर्म उत्कृष्टपणे करणे हाच स्वधर्म होतो. शत्रु- मित्र आणि लाभ-अलाभ इत्यादी सर्व भेद स्वार्थापोटी. पण जेथे स्वार्थच नाही तिथे सर्वच समत्व. दोषांची निंदा नाही, गुणांचे स्तुती नाही दोन्ही सारखेच. आपपर भाव नाही. अशीही भेद रहित अवस्था म्हणजे सर्व सुख, मोक्ष.

असा हा जीवनाला आवश्यक विचार गीता सांगते. त्रासदायक गोष्टी टाळून शांत व सुखी जीवनाचा मार्ग दाखवते. अध्यात्माची दृष्टी देते. अर्जुनालाही युद्धातील जय पराजया विषयी समत्व सांगितले. युद्धात समोर येणारा कोणीही असला तरी शत्रूच असतो. ही समत्वबुद्धी सांगून अशा समत्व योगाने कर्म हेच कौशल्य असेही सांगितले. असे निष्काम बुद्धीने केलेल्या कर्माचे अकर्म होते. ते पाप पुण्य द्यायला शिल्लक राहत नाही. अशा प्रकारे अर्जुनाबरोबर सर्वांनाच गीता नवीन विचार देते. सत्कर्म, स्वधर्म, समत्व हा गीतेचा पायाच आहे.

©  सौ. शालिनी जोशी

संपर्क – फ्लेट न .3 .राधाप्रिया  टेरेसेस, समर्थपथ, प्रतिज्ञा मंगल कार्यालयाजवळ, कर्वेनगर, पुणे, 411052.

मोबाईल नं.—9850909383

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ V. R. S. ची किमया… ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? जीवनरंग ?

☆ V. R. S. ची किमया…☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे 

जय माता की.. अंबामाताकी जय.. दुर्गामाताकी जय…

बाल्कनीत उभा राहून मी रस्त्यावरची मिरवणूक पहात होतो. नवरात्र चालू होतं. दररोजच रात्री अशा छोट्या मोठ्या मिरवणुकीने लोक टेकडीवरच्या देवीच्या दर्शनाला जातात.

आज का कोण जाणे, पण हा देवीचा जयजयकार ऐकून, मला आमच्या शाखेतल्या श्री. मानमोडे साहेबांची एकदम आठवण झाली. काहीही कारण नसताना.

अगदीच काही कारण नाही असंही म्हणता येणार नाही म्हणा. त्याचं काय आहे की, हे आमचे मानमोडे साहेब, वय ५४ वर्षे ७ महिने, हे आमच्या शाखेतले एक जबाबदार अधिकारी. अतिशय साधे, शांत, सज्जन, पापभिरू, आनंदी गृहस्थ. गेली ३१ वर्षे, अगदी मनापासून नोकरी करत आलेले.. काळाच्या ओघात मिळत गेली ती प्रमोशन्स स्वीकारत आता डेप्युटी मॅनेजर पदापर्यंत पोहोचलेले…

दर गुरुवारी बँकेतल्या दत्ताच्या फोटोला, चतुर्थीला गणपतीच्या फोटोला हार आणि नैवेद्याला नारळ मानमोडे साहेबांचाच, हा जणू Book of Instructions मधला भाग, एवढे हे देवभक्त. अगदी टेबलाच्या ड्रॉवरमध्येही देवादिकांचे छोटे फोटो कायम ठेवलेले, अगदी सहज दिसतील असे. त्या देवाच्या कृपेनेच आत्तापर्यंत सर्व आलबेल आहे ही त्यांची गाढ श्रध्दा.

असं सगळं अगदी व्यवस्थित शांतपणे चालू होतं. आणि अचानक बँकेत एक झंझावात आला. V. R. S. नावाचा… अधिकाऱ्यांसाठी वय वर्षे ५५ च्या पुढे असण्याची अट होती. त्याचे फायदे, तोटे, घरच्या गरजा, सर्वांचा आपापल्या परीने सारासार विचार करून अनेकांनी त्यासाठी अर्ज केले. मानमोडेसाहेबही त्यात होते.

सर्वांची सहनशक्ती पुरेशी ताणून झाल्यावर, बँकेने retire होणा-या लोकांची यादी जाहीर केली. पण इथे मात्र देवाने मानमोड्यांची प्रार्थना कबूल केली नाही. जन्मायला काही महिने उशीर केल्याचे कारण देवून त्यांचा अर्ज reject झाला. आणि ते retire होऊ शकले नाहीत.

आणि इथूनच बँकेतल्या वातावरणाला, प्रत्येकाच्या कामाला, कामाच्या ताणाला वेगळंच परिमाण मिळालं. आमच्या शाखेतले ११ पैकी ७ अधिकारी V. R. S. मध्ये निवृत्त झाले. सुखाने-आनंदाने- बरंच मोठं डबोलं घेऊन घरी गेले. आणि कामाचं डबोलं मात्र इतरांच्या डोक्यावर अलगद ठेवून गेले. आधी एक नवीन आव्हान म्हणून.. किंवा खरं तर दुसरा काही पर्यायच नाही म्हणून, राहिलेल्यांना काम करणं भागच होतं. काळ हेच सर्वांवर औषध या नियमाने, राहिलेल्या लोकांमध्येच कामकाजाची घडी बसवावीच लागत होती. हळूहळू सगळेच जण या बदलालाही सरावले. इतके की, काही बदललंय हेही विस्मरणात जावं लागलं.

पण आमचे मानमोडे मात्र हळूहळू जणू आमूलाग्र बदलू लागले. शारीरिक कुवतीपेक्षा खूपच जास्त काम करावं लागत होतं त्यांना. त्यांच्या आवडत्या देव-देवतांसाठीही त्यांना पुरेसा वेळ देता येईनासा झाला त्यांना. ते सतत अस्वस्थ वाटू लागले. हळूहळू शरीरही त्रास देऊ लागले. सर्व अवयव आपले महत्त्व पटवून देऊ लागले. मानदुखी, पाठदुखी, बी. पी. आणि काय काय… रोज नवीन नवीन भेटीगाठी होऊ लागल्या. डॉक्टरांकडचे हेलपाटे वाढले.

आणि काही दिवसातच, V. R. S. मुळे झालेल्या बदलानेही तोंडात बोट घालावे असा एक आश्चर्यकारक बदल आमच्या मानमोडेसाहेबांमध्ये झालेला दिसू लागला. ड्रॉवरमधल्या देवांच्या फोटोंवर हळूहळू गोळ्यांच्या स्ट्रिप्स साठत होत्या. वाढत होत्या. आता देव पूर्ण झाकले गेले. मानमोडे वारंवार सगळ्या गोळ्या, मलमं जागेवर आहेत की नाही पाहू लागले. जणू नाही पाहिलं तर अचानक लुप्त होतील ती. हळूहळू तर, पूर्वी देवाला करायचे, तसा त्या औषधांनाच येता-जाता नमस्कार करू लागले ते. इकडे देवांच्या फोटोंचे हार पार वाळून वाळून गेले. प्रसाद-बिसाद तर लांबच. मानमोड्यांच्या डोक्यावर काही परिणाम वगैर तर झाला नाही ना अशी कुशंका भेडसावू लागली आम्हाला ! नाही म्हटलं तरी, आम्हा सर्वांचा, आमच्याही नकळत जीव होता ना त्यांच्यावर !

शेवटी आम्ही सर्वांनी मिळून ठरवलंच की त्यांच्याशी बोलायचं. त्यांना मन मोकळं करायला लावायचंच. आणि एका शनिवारी आम्ही ३-४ जण काही ना काही निमित्त काढून त्यांच्या टेबलाशी जमलो. काम उरकत आणल्याने मानमोडेही जरा relaxed वाटत होते.

आणि आम्ही बोलता बोलता विषय काढला. आमची काळजी बोलून दाखवली. विचारू लागलो की ते एवढे बदललेत कसे? का? त्यांची देवभक्ती गेली कुठे? देवांची जागा औषधांनी घेऊन सुध्दा, ते परत पूर्वीसारखे शांत कसे वाटायला लागलेत हल्ली? ते मनाने तर खचले नाहीत ना? देवावरचा त्यांचा विश्वास तर उडला नाही ना? तसं असेल तर हे सगळं कशामुळे? V. R. S. मध्ये नाव नाही म्हणून? की दुप्पट तिप्पट काम पडतंय ते झेपत नाहीये म्हणून? की अनेक शारीरिक व्याधी साथीला आल्यात म्हणून?

आम्ही आमची खंत बोलून दाखविली मात्र, मानमोडे जोरजोरात हसायलाच लागले. आम्ही नुसतेच एकमेकांकडे बघत राहिलो. हसणं थांबल्यावर साहेब शांतपणे पण आत्मविश्वासपूर्ण बोलू लागले…

‘‘अरे, तुम्हाला माझी इतकी काळजी वाटते हे पाहून माझं मन अगदी भरून आलंय. आता मला सांगावंच लागेल तुम्हाला सगळं…” आम्ही जिवाचे कान करून ऐकू लागलो.

‘‘काही दिवसांपूर्वी मला साक्षात्कार झाला. असे दचकू नका. स्वप्नात येऊन देव बोलला माझ्याशी स्वत:! अहो खरंच. आमच्या बोलण्याचा सारांश सांगू का तुम्हाला? ऐका. आपण पूर्वीपासून ऐकत आलोय ना की देव वेगळ्यावेगळ्या रूपात आपल्या भक्तांच्या हाकेला धावतो ते. एकनाथांसाठी तो श्रीखंड्या झाला. जनीबरोबर दळणं दळली त्याने. कबिराचे शेले विणले. अरे पण या कलियुगात भक्तांच्या हाका इतक्या वाढल्या की देव जरी झाला तरी किती रुपं घेणार तो? नाही का! सांगा की. मग त्यानं अशी वेगवेगळी रुपं घ्यायचं आणि माणूस म्हणून भक्तांना मदत करण्याचं थांबवलंच आहे आताशा. निदान क्षुल्लक गोष्टींसाठी कुणी धावा करत असेल तर तो स्वत: नाहीच धावून येऊ शकणार यापुढे. अरे, असं आSSS वासून काय पहाताय माझ्याकडे? खरंच सांगतोय मी. आता माझंच उदाहरण घ्या ना. मी पूर्वीसारखा देवभक्त राहिलो नाही असं वाटतंय ना तुम्हाला? पण तसं काही नाहीये रे! मी पूर्वीचाच आहे. तसाच देवभक्तही आहे. फक्त देवाचं रूप बदललंय हे माझ्या लक्षात आलंय आणि तुम्हाला वाटतंय की मी बदललोय. ”

आता मात्र आम्ही पारच बुचकळ्यात पडलो. मानमोड्यांना भ्रम तर झाला नाही ना ही आमच्या मनातली शंका बहुदा आमच्या चेहे-यावर दिसत असावी. कारण आम्हालाच समजावत मानमोडे साहेब पुढे बोलू लागले… ‘‘अरे खरंच सांगतो मी नाही बदललो. पण माझ्या देवाचं रूप मात्र बदललंय ! या नव्या रूपात देव क्षणोक्षणी माझ्या हाकेला धावून येतोय. म्हणून मी निश्चिंत आहे आता. नाही ना कळत? अरे असे घाबरू नका. मी पूर्ण शुध्दीवर आहे म्हटलं. थांबा, आता मी तुम्हाला सगळं समजावून सांगतो सविस्तर…”

आता साहेब जरासे सावरून बसले आणि आम्हालाच भांबावल्यासारखं वाटायला लागलं. आम्ही ऐकू लागलो…

‘‘असं पहा, गेल्या ५-६ महिन्यांपासून, माझं मानमोडे नाव सार्थ व्हावं या सद्हेतूने, खरंच माझी मान मोडेपर्यंत बँक मला कामाला लावतीये! पण माझी त्याबद्दल तक्रार नाही. हल्ली वरचेवर पाठ, कंबर दुखते. पण तरीही माझी तक्रार नाही. इतकंच काय, अहो तीन तीन assignments सांभाळता सांभाळता माझं बी. पी. ही वाढू लागलंय, रोज डोकंही दुखतंय. पण तरी मी चिंता करत नाही. अधूनमधून साखर वाढते, छातीचे ठोके अनियमित होतात पण तरीही मी.. माझं मन शांत रहातं ! का? कारण मला साक्षात्कार झालाय ना! अहो कसला काय? थोडं डोकं चालवा कधी तरी! अरे आता माणसांमध्ये देव शोधण्याचे दिवस नाही राहिले पूर्वीचे. आता देव निर्जीव वस्तूंच्या रूपानेही भेटतो म्हटलं ! सतत, आणि पूर्वीपेक्षा जास्त वेळा भेटतो मला तर तो. कुठे? अहो कुठे काय? त्याची किती रूपं गच्च भरलीयेत माझ्या ड्रॉवरमध्ये….. या गोळ्यांच्या, मलमांच्या रूपात ! आता तरी आलं की नाही काही ध्यानात?”

ड्रॉवर पुढे ओढून मानमोड्यांनी आतल्या देवदेवतांना एक उडता नमस्कार केला आणि ते पुढे बोलू लागले…

‘‘अहो, इतके महिने, काय वाट्टेल ते झालं तरी हा कामाचा गाडा मी ओढू शकतोय तो कोणाच्या जीवावर! आं! सांगा ना, या माझ्या कलियुगीन देव-देवतांचा तर धावाही नाही करावा लागत. उलट माझ्या दिमतीलाच जणू ते तयारच आहेत माझ्या ड्रॉवरमध्ये. या औषधांच्या रूपात! मग आता मला कसली काळजी? आता आणखी परत V. R. S. येऊ दे, परत त्यात मी reject होऊ दे. काही problem नाही. काम सहापट वाढू दे. No problem at all, कितीही काम पडू दे, कितीही दुखणी येऊ देत. चिंता नाही. माझा हा देव माझ्या मदतीला already धावून आलेलाच आहे. आणि सर्व संचारी आहे ना तो! माझ्या ड्रॉवरमध्ये राहतोय, माझ्या बॅगेत रहातोय. घरातल्या औषधाच्या पेटीत तर रहातोयच – अगदी ‘घरजमाई’ असल्यासारखा. आणि हो, माझ्या original देवात आणि माझ्यात आणखी एक गुपीत आहे बरं का! पण आता सांगूनच टाकतो तुम्हाला…

त्या देवाने मला promise केलंय, की जेव्हा मी त्याच्या या वर्तमानरूपांना कंटाळेन ना तेव्हा तो स्वत: येऊन, अगदी गुपचुप मला त्याच्या घरी घेऊन जाईल. मी जेथे असेन तेथून, अगदी on duty असलो तरीही. आणि अगदी या कानाचं त्या कानालाही कळू न देता… तेव्हा आता बोला. आणखी काय पाहिजे मला. तेव्हा हे पहा, तुम्ही माझी अजिबात काळजी करू नका. मी पूर्वीसारखाच आता शांत आहे, आनंदी आहे आणि हो, देवभक्तही आहे. पटली ना खात्री?”

हे इतकं सगळं ऐकून बहुधा आम्हालाही जाणवलं की, अरेच्चा, असं असेल, तर मग आपल्यालाही भेटतोच आहे की देव अधून मधून, या नव्या रूपात !

आमच्या चेहे-यावरचे झरझर बदलणारे भाव आणि नकळत ‘हो-हो’ म्हणणारी आमची हलती मान पाहून मानमोडे खूष झाले. त्यांच्या या देवाला आणखी भक्त मिळाले, मिळतच रहाणार याची खात्री वाटण्यासारखीच परिस्थिती होती ना !

आमच्या या असल्या अवस्थेत, मग हळूच माझ्या खांद्यावर हात ठेवून, मानमोडे साहेबांनी जणू order च सोडली. हं, आता म्हणा माझ्या बरोबर…

मान दुखतेय? जय moov… जय Voreran

डोकं दुखतंय? जय जय झंडू बाम… जय डिस्प्रिन…

पाठ दुखतेय? जय ब्रूफेन

ताप आलाय? जय क्रोसीन

बी. पी. वाढतंय? जय जय स्टॅमलो… जय कार्डोज

साखर वाढली? जय इन्सुलिन, जय जय Glynase 

पित्त वाढलं? जय जय जेल्युसिल, जय भोले सूतशेखर

कंबरदुखी? जय जय लम्ब्रील

आणि हो… विसरू नका…

देवाची ही इतकी रूपं एकाचवेळी अनुभवण्याची संधी आम्हाला दिल्याबद्दल…

बोला V. R. S. की जय…

स्टेट बँक माता की जय…

© सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सांगली 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “तुझे आहे तुजपाशी – –” ☆ श्री जगदीश काबरे ☆

श्री जगदीश काबरे

☆ “तुझे आहे तुजपाशी – –” ☆ श्री जगदीश काबरे

मोगो नावाचा एक चिनी मुलगा. तो बिचारा दगड फोडायचं काम करायचा. हाताला फोड यायचे. उन्हातान्हात दगड फोडून अंगाला घामाच्या धारा लागायच्या. लोकांना कसली भन्नाट कामं करायला मिळतात आणि आपल्याच नशिबी काय ही दगडफोडी, असं तो नेहमी मनात म्हणे आणि दुःखी होई.

एकदा त्याचं दुखणं एका देवदुतानं ऐकलं. त्याचे दयावून त्याने त्याला विचारलं की, “का तू इतका उदास?”

मोगो म्हणतो, “देवानं माझ्यावर अन्याय केलाय. हे असलं काम दिलंय मला. तू विचार देवाला की, का त्यानं असं केलं?” 

देवदूत देवाकडं जातो विचारतो, “का या तरुणावर अन्यायकेला तुम्ही?” 

देव म्हणतो, “ठीक आहे. आजपासून त्याला जे काम आवडेल ते त्याला मिळेल. “

त्याच दिवशी मोगो दगड फोडताना एक श्रीमंत माणूस पाहतो. तो असतो हिर्‍यांचा व्यापारी. मोगोला वाटतं, ‘असं नशीब पाहिजे होतं आपलं. ‘ 

देवदूत तथास्तू म्हणतो आणि मोगो एकदम बडा व्यापारी होतो. एका महालात हिरे-जवाहरात लोळू लागतो. पण नेमका त्या वर्षी उन्हाळा फार असतो. काही दिवसात तो कंटाळतो. त्याला वाटतं, ‘या पैशाला काही अर्थ नाही. आपण थेट सूर्याइतकं पॉवरफूल व्हायला हवं. ‘

त्याच क्षणी त्याचं सूर्यात रूपांतर होतं… सर्वोच्च स्थान! सारं जग त्याच्याभोवती फिरू लागतं. उन्हाळा सरून पावसाळा येतो. ढग सूर्याला ग्रासून टाकतात. मोगोला तर पृथ्वीही दिसेनाशी होते. त्याला वाटतं, ‘सूर्यापेक्षा ढग जास्त पॉवरफूल आहे. ‘ 

मग काय तो ढग होतो… बरसतो. पण पाहतो तर काय, सगळं जग भिजतंय पण एक टणक खडक मात्र कोरडाच. पाण्यानं तो न फुटतो न हलतो. मोगो म्हणतो, ही खरी ताकद. त्याक्षणी तो खडक होतो.

काही दिवसांत एक माणूस येतो खडक फोडायला लागतो. मोगो पुन्हा ओरडतो आणि म्हणतो, ‘देवा मला खडक फोडणारा कर, तो खरा स्ट्राँग!’ 

झालं, मोगो पुन्हा दगडफोड्या होतो.

मग मोगो देवदुताला विचारतो, “म्हणजे मीच खरा पॉवरफूल आहे की काय?”

देवदूत हसतो आणि म्हणतो, “तुला मनापासून तुझं काम आवडलं, त्यात सुख वाटलं तर तूच खरा पॉवरफूल. नाहीतर तू कुणीही झालास तरी असमाधानीच राहशील. “

© श्री जगदीश काबरे

मो ९९२०१९७६८०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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