हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 542 ⇒ हार और उपहार ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हार और उपहार।)

?अभी अभी # 542 ⇒ हार और उपहार ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

इस बार शादी की सालगिरह पर पत्नी ने मुझसे उपहार स्वरूप सोने का हार मांगा है। मेरी गिरह में इतना पैसा नहीं है, वह भी जानती है, लेकिन सोना एक ऐसी चीज है, जिससे किसी का पेट नहीं भरता। जितना सोना, उतनी अधिक भूख।

देव उठ गए हैं ! शादियों का मौसम है। ज्वैलर्स की चांदी है। जितनी कभी शहर में पान की दुकानें होती थीं, उतनी आज ज्वैलर्स की दुकानें हो गई हैं।।

मेरा शहर भी अजीब है ! लोग यहां सराफा आभूषण खरीदने नहीं, चाट और पकवान खाने जाते हैं। सही भी है ! सोना चांदी भूख बढ़ा भी देते हैं। जो भला आदमी, आभूषण नहीं खरीद सकता, वह सराफा की चाट तो खा ही सकता है।

मंदी और तेजी दो विरोधाभासी शब्द है। मंदी में कीमतें कम नहीं होती, व्यापारी की ग्राहकी कम हो जाती है। जैसे जैसे बाज़ार में मंदी बढ़ती जाती है, भावों में तेजी और ग्राहकी एक साथ बढ़ने लगती है। जितनी भीड़ कभी पान की दुकान पर लगती थी, उतनी आज एक ज्वैलर की दुकान पर देखी जा सकती है।।

उपहार में पत्नी को हार देने की समस्या का समाधान भी पत्नी ने ही कर दिया। उसके एक कान का भारी भरकम बाला कहीं गुम गया। मैं उस वक्त शहर में नहीं था, इसलिए ढूंढो ढूंढो रे साजना, मेरे कान का बाला, जैसी परिस्थिति से बच गया।

महिलाओं के बारे में एक भ्रम है कि उनके पेट में कोई बात नहीं पचती। मैं इससे असहमत हूं। कई बार ऐसे मौके आए हैं, जब अप्रिय प्रसंगों को पत्नी ने मुझसे छुपाया है। आप इसके दो अर्थ लगा सकते हैं ! एक, वह मुझे दुखी नहीं देखना चाहती। दो, वह मुझसे डरती है। मुझे कान के बाले के गुमने की कानों कान खबर भी नहीं होती, अगर मैं उसे यह नहीं कहता, वे कान के बालेे कहां हैं, जो मैंने तुम्हें 25 वीं सालगिरह पर दिलवाए थे।।

कुछ बहाने बनाए गए, काम की अधिकता का बखान किया गया, लेकिन जब बात न बनी, तब राज़ खुला, कि अब दो नहीं, एक ही कान का बाला अस्तित्व में है। उसे लगा, अब सर पर पहाड़ टूटने वाला है। मुझे उल्टे खुश देखकर उसे आश्चर्य भी हुआ। क्यों न, इस एक बाले के बदले में एक गले का हार ले लिया जाए इस सालगिरह पर, मैंने सुझाव दिया।

नेकी और पूछ पूछ ! उसके चेहरे के भावों को मैंने पढ़ लिया। तुरंत ज्वेलर से संपर्क साधा गया। बीस प्रतिशत के नुक़सान पर वह बाला बेचा गया, और एक अच्छी रकम और मिलाने पर उपहार-स्वरूप एक हार क्रय कर लिया गया।।

उपहार में दिए हार को हम गले में धारण कर सकते हैं, जीवन में मिली हार को हम गले लगाने से कतराते हैं। हमें हमेशा जीत ही उपहार में चाहिए, हार नहीं। ऐसा क्यों है, जीत को सम्मान, हारे को हरि नाम।

सुख दुख, सफलता असफलता को गले लगाना ही हारे को हरि नाम है। शादी की सालगिरह पर उपहार का हार भी एक सकारात्मक संदेश दे सकता है, कभी सोचा न था।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #258 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 258 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

 लिख मैंने तुमको दिया, अपने दिल का राज।

देख रहे हम बाट यों, उत्तर मिला न आज।।

*

पाती तेरे नाम की , आई पढ़कर लाज।

मिलने को बैचेन हैं, आओ अब सरताज।।

*

घर में सबसे कह दिया, अपने दिल का हाल।

हमें प्रिया से प्यार है, ब्याह करें इस साल ।।

*

वो दिन भी अब आ रहा, नहीं मानना  हार।।

सबको दूँगा एक दिन, दुल्हन का उपहार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #240 ☆ एक बुंदेली पूर्णिका – तुम कांटों की बात करो मत… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी – एक बुंदेली पूर्णिका – तुम कांटों की बात करो मत…  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 240 ☆

☆ एक बुंदेली पूर्णिका – तुम कांटों की बात करो मत… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

तुमने   झूठी       दई    दुहाई

लुटिआ  प्रेम की  खूब  डुबाई

*

तुम   कांटों की  बात करो मत

चोट   फूल    की  हमने  खाई 

*

धोखा   बहुतई  खा  लये हमने

देब   तुमहि   ने   कोई    बुराई

*

जोन  खों समझो  हमने अपनों

हो    गई    देखो   वोई    पराई

*

खूब   करो   विस्वास  सबई  पै

दुनियादारी   समझ    ने    पाई

*

झूठ-कपट   को   ओढ़   लबादा

तुमने     ऐसी     नीत     निभाई

*

भोलो  सो   “संतोष”   तुम्हे   जा

बात   समझ   में   देर   सें   आई

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ करूं या सद्भावाची वारी – – ☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

सौ. ज्योती कुळकर्णी 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ करूं या सद्भावाची वारी  – – ☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

(महापरिनिर्वाण दिन.)

मानवतेच्या मंदिरातील होऊ वारकरी

करूं या सद्भावाची वारी ॥ ध्रु॥

*

मायभूची अम्ही लेकरे सारी

पिता होऊन लढले हे पुढारी

विचाररत्ने लेवून आंबेडकरी

करू या सद्भावाची वारी ॥१॥

*

जातपातीचा भेदभाव सारा

नष्ट करूनी विचार पसारा

भरतभूला उंचवू कळसापरी

करू या सद्भावाची वारी ॥२॥

*

जन्म अमुचा या भूमीमधला

उचनीच कलंक या मातीला

मिटवून टाकू या ही दरी

करू या सद्भावाची वारी

*

मानवतेच्या मंदिरातील होऊ वारकरी

करूं या सद्भावाची वारी ॥ध्रु॥

© सौ. ज्योती कुळकर्णी

अकोला

मोबा. नं. ९८२२१०९६२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ .. चमच्यांची महती… ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆

प्रा. सौ. सुमती पवार

? कवितेचा उत्सव ?

.. चमच्यांची महती… ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆

*

चमच्यांची हो महती किती सांगू मी तुम्हाला

उठसुठ मागे मागे नाही धरबंध तोंडाला

लाळ गळते ती किती नाही लाज नि शरम

पोळी भाजतात रोज स्वार्थाचीच ते गरम…

*

चाटूपणा किती किती पाहताच ये शिसारी

मागे मागे फिरतात हे तर अट्टल भिकारी

बांडगुळे ही झाडांची शोषण करून जगती

बिलगती झाडाला नि करती झाडांची दुर्गती..

*

परस्वाधिन हो जिणे नाही वकुब काडीचा

झेंडा धरावा हो हाती रोज चालत्या गाडीचा

जिथे भाजेल हो पोळी तिथे लागती जळवा

जाती सोडून हे केव्हा नाही भरोसा धरावा…

*

जिथे दिसेल हो तूप तिथे बुडती चमचे

तूप संपताच पहा नाही होणार तुमचे

केव्हा मारतील लाथ केव्हा सोडतील साथ

लाचार नि लाळघोटी निलाजरी ही जमात..

*

दूर ठेवा हो चमचे बदनाम ते करती

तोंडावर गोड गोड खिसे आपुले भरती

गोड गोड जो बोलतो पोटी छद्म असे त्याच्या

फटकळ परवडे हे तर करतात लोच्या..

© प्रा.सौ.सुमती पवार 

 नाशिक

(९७६३६०५६४२)

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “ढुंढते रह जाओगे…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “ढुंढते रह जाओगे…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

नका गडे पुन्हा पुन्हा असे डोळे मोठे मोठे करून माझ्याकडे पाहू… तुमचं तर रोजच ऐकतं असते बिनबोभाट पण माझं ऐकताना किती करता हो बाऊ… नाकी डोळी नीटस, घाऱ्या डोळ्यांची, गोऱ्या रंगाची.. शिडशिडीत बांध्याची पाहून तुम्ही भाळून गेला मजवरती… क्षणाचा विलंब न लावता मुलगी पसंत आहे आपल्या होकाराची दिली तुम्हीच संमती… पण लग्नाच्या बाजारात आम्हा बायकांना आयुष्याचा जोडीदार निवडायचा इतकं का सोपं असते ते… घरदार, शेतीभाती, शिक्षण नोकरी, घरातली नात्यांची किती असेल खोगीर भरती… आणि आणि काय काय प्रश्नांची जंत्री… वेळीच सगळ्या गोष्टींचा करून घ्यावा लागतोय खुलासा वाजण्यापूर्वी सनई नि वाजंत्री… तशी कुठलीच गोष्ट आम्हाला मनासारखी समाधान कारक मिळत नसतेच हाच असतो आम्हा बायकांचा विधीलेख.. साधी साडी घ्यायचं तरी दहा दुकानं पालथी करते.. रंग आहे तर काठात मार खाते… पोत बरा पण डिझाईन डल वाटते… किंमती भारी पण रिचनेस कमी वाटतो… समारंभासाठी मिरवायला छान एकच वेळा मग त्यानंतर तिचं पोतेरंच होणार असतं… आणि शेवटी मग साडी पसंत होते मनाला मुरड घालून… चारचौघी भेटल्यावर साडीचं करतात त्या कौतुक तोंडावर पण मनात होते माझी जळफळ गेला गं बाई हिला आता दृष्टीचा टिळा लागून… जी बाई आपल्या एका साडी खरेदीसाठी इतका आटापिटा करते आणि शेवटी जी खरेदी करते तिला नाईलाजाने का होईना पण पसंत आहे आवडली बरं अशी आपल्याला मनाची समजूत घालावी लागते… अहो तेच नवरा निवडताना, अगदी तसंच होतं.. त्यांच्या पसंतीला उतरले हिथचं आम्ही अर्धी लढाई जिंकलेली असते… मग पसंत आहे आवडला बरं अशी आपल्याला मनाची समजूत घालावी लागते. काय करणार पदरी पडलं पवित्र झालं हेच करतो मग मनाचं समाधान… त्याच गोष्टीचा करतो मगं हुकमाचा एक्का. आणि रोजच्या धबडग्यात देतो टक्का… मी महणून तुमच्या शी लग्न केलं आणि कोणी असती तर तुमच्याकडे ढुंकूनही पाहिलं नसतं… तेव्हा बऱ्या बोलानं गोडी गुलाबीनं माझ्याशी वागावं नाही तर चिडले रागावले तर रुसून कायमची निघून जाईन माहेराला कितीही काढल्या नाकदुऱ्या तुम्ही तर मी काही परत यायची नाही… कळेल तेव्हा बायकोची खरी किंमत…. दुसऱ्या लाख शोधालात तरीही माझ्यासारखी मिळायची नाही तुम्हाला. हथेलीपर हाथ रखे ढुंढते रह जाओगे मैके के चोखटपर…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ये रे पत्रा … ये रे पत्रा… ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?  विविधा ?

☆ ये रे पत्रा … ये रे पत्रा… ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

परवा एकदा कपाट आवरायला घेतलं. कपाट आवरणं हे अतिशय महत्वाचं आणि गरजेचं काम असलं, तरी ते वेळखाऊ आणि जिकीरीचं काम असल्याने नेहमी पुढे पुढेच ढकललं जातं. त्या दिवशी मात्र मी नेटाने बसलेच. कपाट आवरून झालं आणि मी माझी आवडती गोष्ट पुढ्यात घेऊन बसले. ती म्हणजे माझा पत्रांचा बॉक्स. माझी शाळेपासूनची पत्रे मी त्यात जपून ठेवली आहेत आणि जेव्हा जेव्हा म्हणून मी कपाट आवरते, तेव्हा तेव्हा मी ती काढून, वेळ असेल तशी वाचत बसते. त्या दिवशी बॉक्स पुढे घेऊन मी फतकल मारून बसलेच.

सर्वात वरचं पत्र होतं सखा कलालांचं. या पत्राचं मला विशेष अप्रूप होतं, ते अशासाठी की अलिकडे अशी पत्रेच येईनाशी झालीत. सध्या टपाल येतं, ते फक्त वर्गणी संपली, किंवा मिळाली, किंवा मग कार्यक्रमाचं निमंत्रण, मिटींगची सूचना यासारखी. हे पत्र तसं नव्हतं. खूप दिवसांनी माझी कथा आवडल्याचं खुषीपत्र होतं ते. ‘समकालीन भारतीय साहित्यामध्ये माझ्या आलेल्या कथेचा हिन्दी अनुवाद वाचून त्यांनी लिहीलं होतं, युनिफॉर्म कथा वाचली. आवडली. मराठी लेखिकेची कथा हिन्दी भाषेत वाचण्याचा आनंद काही औरच असतो.’ पुढे त्यांनी आवर्जून लिहीलं होतं, ‘तुमच्या नावलौकिकाची कथा अशीच सर्वदूर विस्तारत जावो.’ असं पत्र कुणाचंही असतं, तरी आनंदच झाला असता, पण सखा कलाल म्हणजे नावाजलेले ग्रामीण कथाकार. त्यामुळे त्यांच्यासारख्या दर्दी माणसाकडून मिळालेली दाद मोलाची वाटली.

हे कौतुक – पत्र घरच्यांना दाखवलं. त्यांच्याबरोबर पुन्हा वाचलं. मैत्रिणींना दाखवलं. तितक्या तितक्या वेळा त्या पत्रवाचनातून आनंद होत गेला. या पत्रामुळे मला झालेल्या आनंदात घरच्यांना, मैत्रिणींना सहभागी करून घेता आलं. फोनचं तसं नाही. बोलणार्‍याशी प्रत्यक्ष संवाद होतो, हे खरे. पण तो आपल्यापुरता असतो. त्यात इतरांना सहभागी करून घेता येत नाही आणि पत्रवाचनासारखा पुन:प्रत्ययाचा आनंदही घेता येत नाही.

अलीकडच्या गतिमान युगात पत्रलेखनाला खूप ओहोटी लागली आहे. घराघरातून दूरध्वनीची यंत्रे बसली. आणि दूरवरून विनाविलंब संबंधितांशी संपर्क साधता येऊ लागला. ते माध्यम सोयीचं वाटलं. त्यामुळे अल्पावधीतच त्याचा प्रसारही झाला. आज-काल कथा, कविता, लेख आवडल्याची खुशी पत्रे नाही. खुशी फोन येतात.

मला अगदी लहानपणापासून पत्रलेखनची आवड आहे. त्याला आलेली उत्तरे मी जपून ठेवली आहेत. अगदी शाळेत असल्यापासूनची…. ती पत्रे पुन्हा पुन्हा काढून वाचण्याचा मला छंदच आहे.

माझे कथा-लेख ८०-८२पासून छापून येऊ लागले. त्या काळात दूरदर्शन आणि दूरध्वनी  घराघरात फारसा बोकाळला नव्हता. अर्थात मनोरंजन आणि माहितीसाठी वाचनावरच भिस्त असायची. त्यावेळी लोक, कथा-लेख वाचत आणि जे आवडेल, ते लेखकाला खुशीपत्र पाठवून कळवत. मला माझ्या लेखनाबद्दल अनेक खुशीपत्रे आलेली आहेत आणि अजूनही ती माझ्याजवळ आहेत. त्यात सर्वात देखणं पत्र आहे व. पु. काळे यांचं. दोनच ओळींचं पत्र. पण मांडणी इतकी सुरेख की पत्र म्हणजे एक रेखाचित्र वाटावं.

औपचारिक खुषीपत्रे सोडली, तर इतर जी नातेवाईक, स्नेहीमंडळींची पत्रे असतात, ती  वाचताना, त्यांच्या सहवासात घालवलेले क्षण आठवतात. त्यामुळेच अलीकडे पत्रलेखन कमी होत चाललय, नव्हे ते नष्ट होण्याच्या मार्गावर आहे, यामुळे मन विषण्ण होतं. त्या दिवशी सखा कलालांचं असं अचानक आलेलं पत्र वाचलं आणि वळवाच्या पावसासारखं मन शांतवून, सुगंधित करून गेलं. मनात पुन्हा पुन्हा येत राहीलं,

‘ये रे पत्रा.. ये रे पत्रा …’

© सौ उज्ज्वला केळकर 

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो. 836 925 2454, email-id – [email protected] 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ गैरसमज… ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

? जीवनरंग ?

☆ गैरसमज…  ☆ सौ. वृंदा गंभीर

राहुल आणि मी एकाच कॉलेजमध्ये शिकत होतो. कॉलेजचा पहिला दिवस होता. सगळे अनोळखी होते म्हणून कुणी कुणाशी बोलले नाही.

आठ दिवस असेच निघून गेले हळूहळू ओळख झाली. मुलं मुली बोलायला लागलो … मैत्री झाली.

एक दिवस अचानक एक नवीन मुलगा वर्गात आला आणि आजच ऍडमिशन घेतलं असं सांगितलं सगळ्यांची ओळख करून घेतली. खूप हुशार शांत लाघवी होता राहुल. आमची मैत्री लगेच झाली.

फस्ट सेम झाली आणि आणि आम्हाला सुट्टया लागल्या. सगळे घरी गेले. राहुलशिवाय करमत नव्हतं कधी सुट्टी संपते असं झालं होतं. मी राहुलला कॉल केला. तो म्हणाला “ हा रूपा बोल.. कसा फोन केला. ”

मी म्हणाले, “ सहज केला. सुट्टया संपतील, सेकण्ड सेम सुरु होईल, अभ्यास वाढेल तेव्हा जरा अभ्यासाचं नियोजन करावं, , , “

राहुल म्हणाला, “ हेच कारण आहे ना कि दुसरं काही कारण आहे. असेल तर सांग, , , ”

मी शांत झाले. राहुल हसून म्हणाला, “ करमत नाही का माझ्याशिवाय.. बोलावं वाटतं कि भेटावं वाटतं.. येऊ का भेटायला कि प्रेमात पडली आहेस ? ” माझ्याकडे उत्तर नव्हतं. मी हसले आणि तुझं काहीतरीच म्हणून फोन ठेवला.

मी विचार करू लागले त्याने माझ्या मानतलं कस ओळखलं ? त्याच्याही मनात असंच असेल का, तोही माझ्यावर प्रेम करत असेल का? मी विचारात हरवले होते तेवढ्यात आई आली, म्हणाली “रूपा चल आपण बाहेर जाऊन येऊ. तुला बर वाटेल. ? मी माझ्या आईबरोबर मावशीच्या घरी गेले. मावशीला खूप आनंद झाला कारण आम्ही खूप दिवसांनी भेटत होतो.

मावशी म्हणाली, “ बरं झालं तुम्ही आल्या. त्यांचे मित्र व त्यांचा मुलगा येणार आहे, मला तुमची मदत होईल, , ”,

मी म्हणाले, “ सांग मावशी काय करायचं … स्वयंपाक कि नाष्टा करायचा “.. आई तू बोलत बस. मी तयारी करते. ” मावशीने सांगितलं.. “ छान स्वयंपाक करायचा आहे. आम्ही त्यांच्या गावी बदलीला होतो तेंव्हा त्यांनी खूप काही केलं आमच्यासाठी. खूप प्रेमळ आणि समाधानी लोक आहेत ते. त्यांचा मुलगा खूप हुशार आहे. तो इंजिनिअरिंगला आहे. सुट्टीमुळे घरी आलाय.. करमत नाही म्हणून आपल्या घरी येतो आहे. ”

आई मावशी बोलत बसल्या. मी स्वयंपाक केला. वरण भात कोशिंबीर चटणी मटकी, पनीरची भाजी पोळी गव्हाची खीर केली. तेवढ्यात काकांचे मित्र व त्यांचा मुलगा आला. मावशीने त्यांचं स्वागत केलं.

“ रूपा पाणी आण ग काकांना “ 

मी आईला म्हणाले “ आई तू जा पाणी घेऊन, मी जात नाही. अनोळखी लोक आहेत. मी कसं जाणार “ आई बर म्हणाली आणि ती पाणी घेऊन गेली. मी कॉफी करून दिली आईनं नेऊन दिली. त्यांच्या गप्पा झाल्या काका जेवायला वाढा म्हणाले, , , , , , ,

मी ताटं करायला घेतली आणि राहुल हात धुवायला बेसिनकडे आला तो मला आणि मी त्याला बघतच राहिले. बोलायचं पण सुचेना. काका म्हणाले “ राहूल हात धुवून जेवायला बस. ”

ताट वाढली आणि मी वाढायला पुढे गेले. आई पहात होती ती म्हणाली “ अनोळखी आहेत ना मग कशी वाढते तू, ? “, मी लाजले आणि आईला म्हणाले “आता बराच वेळ झाला काका येऊन त्यामुळे काही वाटत नाही वाढते मी “

सगळे जेवायला बसले. काका स्वयंपाकाचं कौतुक करत होते.. काकांनी सांगितलं सगळा स्वयंपाक रूपाने केला आहे. राहुल बघतच राहिला.. मनात विचार करत होता ही दिसायला सुंदर.. अभ्यासात हुशार.. घरकामात हुशार.. नावाप्रमाणे रूपा हे नाव शोभतं हिला, , , , , , ,

जेवणं झाली. मी आवरून ठेवलं व हॉलमध्ये जाऊन बसले. सगळे गप्पा मारत होते. मावशीने सांगितलं ही ‘ माझी बहीण व तिची मुलगी रूपा.. ही पण इंजिनिअरिंगला आहे.. खूप हुशार आहे. ’ 

राहुल काही बोलणार तोच रूपा म्हणाली “ हा काय करतो.. म्हणजे शिक्षण कि जॉब “ त्याने ओळखलं हिला सांगायचं नाही आम्ही एकाच कॉलेजमध्ये आहोत. तिने डोळ्याने खुणावले.. तो शांत बसला, , , , , , ,

राहुल व काका निरोप घेऊन गेले मी आणि आई घरी आलो, , , , , मनात कुतूहल होत करमत नव्हते म्हणून गेले तर राहुल भेटला मनात आनंद होता एक अनामिक ओढ होती सुट्टी संपायची वाट बघायची होती.

सुट्टी संपली. कॉलेज सुरु झालं. रिझल्ट लागला. राहुल पहिला तर मी दुसरी आले, , , , , , , ,

राहुल म्हणाला “ सांगितलं का नाही घरी आपण एकाच वर्गात आहोत ?”

मी म्हणाले “ कसं सांगायचं होतं ? तू तर मला तू प्रेमात पडली का विचारून ब्लँक केलं होतस. मनातील भावना ओठांवर आली असती, , “,

तो – “ तू खरंच प्रेमात पडली आहेस का ? “

मी – “ तू नाही का पडला ? तुझ्या डोळ्यात दिसतं म्हणून तर ओठांवर आलं.. हो ना राहुल, , , , , , ”,

राहुल -. ” रियली लव्ह यू स्वीट हार्ट, , ”

रूपा – “ लव्ह यू टू राहुल, ”

… मैत्रीचं रूपांतर प्रेमात झाले होते.

आम्ही ठरवलं आधी शिक्षण, मग वेळ द्यायचा.. करिअरकडे लक्ष द्यायचं.. एकत्र अभ्यास.. कारण आठवड्यातून एखादा तास द्यायचो एकमेकांना हेच खूप होतं. डिग्री पूर्ण केली.. कॅम्पस सिलेक्शन झालं.. दोघांना नोकरीं लागली, खूप आनंद झाला आणि आता घरात सांगायचं ठरवलं.

मी आईला सांगितलं, आई मावशीकडे घेऊन गेली. राहुलचे पप्पा आधीच तिथे आले होते. आईने मावशीला सांगितलं आणि ते सगळे हसायला लागले कारण त्या दिवशी आई मला मुद्दाम घेऊन आली होती स्वयंपाक मला करायला लावला होता.. हे नातं त्यांनी आधीच घट्ट केलं होत.

लग्नाचा मुहूर्त काढला. जोमाने तयारीला लागले. सगळ्यांच्या पसंतीने कपडे साड्या दागिने घेतले. आनंदी होते सगळे. लग्न थाटात पार पडलं, , , , , पूजा झाली.. मालदीवला फिरायला गेलो.. ते सुखद क्षण मनात साठवून माघारी आलो.

राहुलने जॉब सोडून बिझनेस सुरु केला. स्पेअरपार्ट व इंजिन बनवण्याची कंपनी टाकली. तो त्यात खूप बिझी झाला. घराकडे माझ्याकडे आई बाबांकडे त्याचं दुर्लक्ष झालं. कंपनीचं काम वाढलं होतं. त्यात मला दिवस गेले ही आनंदाची बातमी ऐकायला सुद्धा त्याला वेळ नव्हता. मी मनातून नाराज रहात होते अशा वेळी तरी राहुल बरोबर असावा असं वाटतं होतं.

जुळी मुलं झाली.. एक मुलगा एक मुलगी. त्याला आम्हाला भेटायला वेळ नव्हता. मुलं मोठी होत होती. मुलांसाठी मला घरात थांबावं लागलं होतं. आई बाबांना वाईट वाटत होतं पण काय कारणार कामच होतं आणि आमच्यासाठी करत होता.

पुढे पुढे हे मला असहाय्य झालं. मला राहुलची कमी भासू लागली. मी उदास राहायला लागले त्याचा परिणाम तब्बेतीवर झाला. मी ठरवलं राहुलला सोडायचं आणि आपण आपली मुलं घेऊन नोकरी करून मजेत जगायचं. अशातच राहुलचा आणि माझा मित्र संजू मला भेटला. मी त्याला सगळं सांगितलं. त्याने मला समजून सांगितलं.. “ असा टोकाचा निर्णय घेऊ नको.. तुझ्या मनातलं त्याला सांग मग हा निर्णय घे. त्याची चूक त्याला दाखवून दे.. पैशापेक्षा माणूस कुटुंब महत्वाचं असतं हे पटवून दे त्याला. मग त्याला कळेल ज्या कुटुंबासाठी तो पळतोय तेच बरोबर नसेल तर त्या पैशाचा उपयोग काय?” 

मी विचार करत घरी आले. राहुलबद्दल किंवा आमच्या दुरावलेल्या नात्याबद्दल जो गैरसमज झाला होता तो मनातून काढून टाकला व एक चिट्ठी लिहून राहुलच्या उशाशी ठेवली व मी झोपायला गेले.

राहुल उशिरा घरी आला. त्याने चिट्ठी वाचली.. डोळ्यात पाणी आलं आणि मुलांच्या बेडरूममध्ये आला. माझी माफी मागितली.. मुलांची आई बाबांची माफी मागितली. ‘ मला तू हवी आहेस ‘ म्हणून मिठीत घेऊन रडायला लागला आणि आम्ही ठरवलं.. एकमेकांना वेळ द्यायचा.. पुन्हा नातं पूर्वीसारखं घट्ट करायचं, , , , , , ,

राहुल आता घराकडे लक्ष देत होता. एक दिवस मला म्हणाला “ रूपा, ऑफिस जॉईन करते का? माझा ताण थोडा कमी होईल आणि तुलाही बरं वाटेल.. ” 

तो दिवस माझ्यासाठी फार आनंदाचा दिवस होता. आज आमची हैप्पी फॅमिली उठून दिसत होती.

© सौ. वृंदा पंकज गंभीर (दत्तकन्या)

न-हे, पुणे. – मो न. 8799843148

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “बंब…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सुश्री नीता कुलकर्णी

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☆ “बंब…” ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

माझ्या मैत्रिणीच्या रेखाच्या घराचे इंटिरियर डेकोरेशनचे काम खूप दिवस चालु होते. ते पूर्ण झाल्यावर “बघायला ये “.. असा तिचा फोन आला. तरी बरेच दिवस मला जायला जमले नव्हते.

 तिचे घर पाहून आलेल्या मैत्रिणी तिच्या घराची खूप स्तुती करत होत्या. त्यामुळे मलाही उत्सुकता लागली होती. एके दिवशी सवड काढून मी मुद्दाम तिच्या घरी गेले. तिने दार उघडल्यावर अक्षरशः बघत उभी राहिले. तिचे घर अनेक वस्तूंनी सजवलेले होते. फारच सुरेख दिसत होते. प्रत्येक गोष्ट अप्रतिम होती.

 पण माझे लक्ष मात्र हॉलच्या कोपऱ्यात गेलं. तिथं तिने काय ठेवलं असेल ?…. मी कधी कल्पनाही केली नव्हती अशी गोष्ट तिथे होती.

तिथे तिने पूर्वी पाणी तापवायला वापरायचा तो तांब्याचा मोठा बंब ठेवला होता. पॉलिश केलेला असल्याने त्याचा लाल तांबूस रंग चांगला चमकत होता. त्याला गोमुखाची तोटी होती. विस्तवाच्या जागी ठेवायचा झारा सुद्धा होता. कितीतरी वेळ बंबासमोर ऊभ राहुन मी बघत होते.

 खूप जुनी मैत्रीण अचानक रस्त्यात भेटली की आपल्याला जसा आनंद होतो तसा मला आनंद झाला होता. असा बंब मी कितीतरी वर्षांनी पाहत होते.

रेखा म्हणाली ” काय बघतेस एवढं?”

” हा तुझा बंब… अग किती छान दिसतोय “

यावर ती म्हणाली, ” ही माझ्या नवऱ्याची आवड.. हॉलमध्ये बंब ऑड दिसेल असं मला वाटत होतं. पण तुला सांगते घरी येणारा प्रत्येक जण बंब बघून खुश होतोय “

नंतर रेखाशी गप्पा झाल्या. खाणं झालं. मी घरी आले. घरी आल्यावरही तिचा बंबच माझ्या डोक्यात होता.

मनात विचार आला…. या जुन्या वस्तू निरुपयोगी झाल्या तरी आपल्याला हव्याशा का वाटतात.. ? मग विचार केल्यावर लक्षात आलं की ह्या वस्तूंकडे नुसतं पाहिलं तरी आपल्याला आनंद होतो.

गेलेले दिवस त्याच्या सोबतीने आपण पकडून ठेवायला बघतो..

तसंच असेल.. कारण तो बंब बघितल्या क्षणी मला माझे लहानपणीचे दिवस आठवले..

पहाटे उठून कामाला लागलेली आई आठवली. भाड्याचं घर… मागच्या अंगणात ठेवलेला बंब आठवला…

त्याच्या अनुषंगाने कितीतरी गोष्टी नजरेसमोर तरळल्या. मनात त्या आठवणींची एक सुरेख साखळीच तयार झाली. माझा तो दिवस त्या आनंदातच गेला..

आजोळ आठवलं. आजोळी बंबासमोर तांब्याच घंगाळ, पितळेचा तांब्या आणि “वज्री ” ठेवलेली असे. वज्री हा शब्द तर माझ्या स्मरणातून निघून गेला असेल असे मला वाटले होते. पण तो अचूक आठवला..

वज्री म्हणजे अंग घासायचा दगड… अजोळच

“न्हाणीघर ” डोळ्यासमोर आलं त्याला न्हाणीघरच म्हटलं जायचं… भांडी घासायला दुसरी जागा होती. तिला मोरी म्हटलं जायचं.

 साध्या बंबावरून माझं मन कुठल्या कुठे भटकून येत होतं. काही दिवसां नंतरची गोष्ट..

यांचे मित्र मनोहर घरी आले. बोलताना मी त्यांना रेखानी बंब हॉलमध्ये ठेवला हे सांगितलं. तर ते म्हणाले… ” पूर्वी आमच्याही घरी तसा पितळेचा बंब होता. अंगणात तो ठेवलेला असे. आई गरम पाण्याची बादली भरून देई.. म्हणत असे

” विसण “घालून घे. विसण हा शब्द आता मुलांना कळणारही नाही.

आई बंबात लाकडं घालायची, पाण्याची भर घालायची, बंब चिंचेनी घासून लख्ख ठेवायची. आणि प्रत्येकाची बादली बाथरूम मध्ये ठेवून द्यायची… किती कष्ट करायची रे…”

असे म्हणेपर्यंत त्यांचे डोळे भरून आले होते. आम्ही दोघे त्यांच्याकडे बघत होतो.

ते आपल्याच तंद्रीत होते. पुढे म्हणाले ” तेव्हा आईच्या कष्टाची काही किंमत वाटायची नाही. जाणवायचे सुद्धा नाहीत. दिवसभर ती राबायची आणि तिची सेवा आम्ही करायची तेव्हा आई देवा घरी गेली. राहूनच गेलं बघ….. “

बंबाच्या विषयावरून मनोहरना त्यांची आई आठवली.. ते हळवे झाले होते..

आपल्याला कशावरून काय आठवेल… हे सांगताच येत नाही. कुणाची कुठे अशी नाजूक दुःख लपून बसलेली असतात.. नकळत त्यांना धक्का लागला की उफाळून वर येतात… तसंच त्यांचं झालं होतं…

रेखाच्या घरातल्या बंबाबद्दल मी पेंडसे आजीं जवळ बोलले.

त्या क्षणभर गंभीर झाल्या… नंतर हसल्या आणि म्हणाल्या,

” तुला एक गंमत सांगू का ?

“सांगा ना ” मी म्हटलं 

” अगं लग्न होऊन सासरी आले तेव्हा माझं वय एकोणीस होत. अंगात अल्लडपणा, धसमुसळेपणा होता. वागण्यात कुठलाच पाचपोच नव्हता….. बंबात भर घालण्यासाठी बादलीनी पाणी ओतायला लागले की माझ्या हातून हमखास पाणी नळकांडण्यात पडायचं.. विस्तव विझायचा.. बंब परत पेटवायला लागायचा. मग सगळ्यांच्या आंघोळीला ऊशीर व्हायचा. सासुबाई सांगायच्या हळू बेताने ओतावं. तरी तीन-चार दिवसांनी माझ्या हातून तसंच व्हायचं. नंतर मात्र एकदा त्या चांगल्याच रागावल्या. त्यांनी तिथलेच एक लाकूड घेतलं आणि माझ्या हातावर मारलं “

” आणि मग काय झालं?” मी उत्सुकतानी विचारलं.

” मग काय.. हात चांगला सुजला. दोन दिवस काही कामं करता येत नव्हती. पण नंतर मात्र सासुबाई स्वतः रक्तचंदनाचा लेप उगाळून लावत होत्या. शिस्तीच्या होत्या पण प्रेमळही होत्या गं.. “

मी आजींकडे बघत होते.

त्यापुढे म्हणाल्या ” आता बटन दाबलं की गरम पाणी.. पण ती मजा नाही बघ.. तसं गरम पाणी सुद्धा नाही.

त्या पाण्याला वास होता जीव होता. ” 

आजी जुन्या आठवणीत रंगून गेल्या होत्या.

त्या वेळी बंब इतका डोक्यात होता की जो भेटेल त्याला मी त्याबद्दल सांगायची. गंमत अशी की प्रत्येकाच्या मनात काही तरी निराळचं असायचं…

त्यावर तो अगदी भरभरून माझ्याशी बोलायचा.

मुलाचा मित्र प्रमोद गाव सोडून आला आहे. आता इथे पुण्यात नोकरी करतोय. तो घरी आला होता. तेव्हा बंबाचा विषय निघाला… तो म्हणाला..

” काकू तुम्ही सांगितल्यापासून मलाही गावाकडे आहे तसा बंब इथे आणावा असं वाटायला लागलंय.. पण ठेवू कुठे ?आम्हीच लहानशा दोन

खोल्यात राहतोय.. आमच्या बाथरूम मध्ये सुद्धा बंबाला जागा नाही. “

” गावाला बंब कुठे ठेवलाय रे ?”

मी विचारलं 

” गावाकडे प्रशस्त घर आहे, परसू आहे, विहीर, रहाट आहे. तिथे बंब आहे. विहिरीचं पाणी काढायचं बंबात भर घालायची.. दिवसभर पाणी.. शहरातल्या सारखं नाही तिथे. हे एवढं मोठं अंगण आहे आणि आम्ही इथे आलोय… पोटासाठी पैशासाठी”

” परत जाताल रे गावाकडे “मी म्हणाले 

” परत कुठले जातोय ?आता ईथेच राहणार.. गाव, जमीन, शेतीवाडी सगळं सुख मागे गेलय आणि आम्ही झालोय आता इथले चाकरमाने.. बंबातल्या गरम पाण्याच्या अंघोळीची मजा आमच्या नशिबात नाही. तिथे अंघोळ केल्यानंतर कस प्रसन्न वाटतं.. इथे आपलं घाईघाईत काहीतरी उरकायचं म्हणून अंघोळ होते.. ” उदासपणे प्रमोद बोलत होता.

माझ्या लक्षात आलं घरात नसली तरी प्रमोदच्या मनात बंबाला जागा होती. मनातलं बोलायला बंबाच निमित्त झालं होतं. गावाकडची पाळमुळं उखडून ही रोपटी इथे आली होती.. पण अजून इथे म्हणावी तशी रुजली नव्हती. शरीरानं इथ आलेली मुलं मनाने अजून गावाकडेच होती.

रेखाचा नवरा निखिल रस्त्यात भेटला. मी त्याच्या घराचे कौतुक केले विशेषत: बंबाचे… यावर तो म्हणाला

” तुम्हाला एक मनातली गोष्ट सांगू का? त्या बंबाकडे पाहिलं की मला आमचे पूर्वीचे दिवस आठवतात. घरची गरीबी होती. खाणारी तोंडे खूप. कमावणारे एकटे वडील.. त्यात आजोबांच्या आजारपणात एकदा पैशाची गरज होती. घरात सोनं-चांदी नव्हतीच.. वडिलांनी मारवाड्याकडे बंब गहाण ठेवायचे ठरवले. बंब घराबाहेर काढताना आई-दाराआड उभी राहून रडत होती. नेमकं त्या क्षणी मी तिच्याकडे पाहिलं. तिची ती आर्त व्याकुळ नजर अजून माझ्या डोळ्यापुढे आहे. “

माझ्याशी बोलताना तो हळवा झाला होता. पुढे म्हणाला,

” ते दिवस गेले.. दिवस जातातच पण चांगले दिवस आले तरी आपण ते दिवस विसरायचे नसतात. तरच आपले पाय जमिनीवर राहतात. म्हणूनच माझ्या दृष्टीने तो नुसता बंब नाही. त्याच्यामागे खूप काही आहे. म्हणून त्यासाठीच तो हॉलमध्ये आहे. घरातल्या महत्त्वाच्या जागी…. “

मी आश्चर्याने त्याच्याकडे पाहायला लागले. रेखाचा नवरा इतक्या गरीबीतून वर आला आहे हे मला नव्यानेच कळले. तो इतका नम्र आणि साधा का याचेही कोडे उलगडले.

केवळ रम्य भूतकाळच आपल्या आठवणीत राहतो असे नाही तर अशा गोष्टींनीही मनात घर केलेले असते. त्या आयुष्यभर साथ देतात. त्याच्या बरोबर जगताना ऊपयोगी पडणारं शिक्षण पण देतात…

केवळ एक साधा बंब हा विषय पण त्यावर किती जणांकडून काय काय ऐकायला मिळाले…

तुमच्या घरी होता का बंब? तुम्हाला आली का कुठली आठवण?असेल तर मला जरूर कळवा..

© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

मो 9763631255

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘माझी शिदोरी… सायकलींचं शहर..’ भाग-१० ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका – माजगावकर- पंडित

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☆ ‘माझी शिदोरी…सायकलींचं शहर..’ भाग-१० ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

सायकलींचं शहर..

50, 60 वर्षांपूर्वी पुण्याच्या चार लाखाच्या वस्तीत एक लाखाच्या वर नुसत्या सायकलीचं होत्या. प्रत्येक घरात दोन तरी सायकली असायच्या. मुला मुलींचा कॉलेज प्रवास सुरू झाला तो सायकली वरूनच नव्या सायकलीला 110 ते 140 रुपये किंमत असायची पण अहो!सर्वसामान्यांसाठी ही पण किंमत खूप होती. कशीतरी जोडाजोडी करून, काही वडिलांच्या पगारातून, थोडे आईच्या सांठवलेल्या हिंगाच्या डबीतून तर थोडे स्वकष्टाचे दूध, पेपर टाकून मिळवलेल्या पैशाची जोडणी करून रु50, 60 उभे करायचे आणि सेकंड हॅन्ड सायकल दारात यायची. त्याच्यातही समाधान मानणारी ती पिढी होती. लेखक डॉ एच वाय कुलकर्णी त्यांच्या लेखात गमतीदार किस्सा लिहितात 1955 साली श्रीअंतरकरांकडून मी सायकल घेतली, ती तब्बल 30 वर्ष वापरलेली होती त्यानंतर मी ती 1960 सालापर्यंत वापरली त्यावेळी कॉर्पोरेशनला वार्षिक टॅक्स अडीच रुपये असायचा मग पत्र्याच्या बिल्ला मिळायचा तो सायकलला लावला नाही तर कॉर्पोरेशनच्या लोकांच्या तावडीत सायकल स्वार सहज पकडला जायचा. भर दिवसाची ही कथा तर रात्रीची वेगळीच कहाणी, रात्री रॉकेलचा दिवा हवाच. तो दिवा सायकल खड्ड्यात गेली की डोळे मिटत असे. मग काय सगळाच अंधकार. आणि मग पोलिसांनी अडवल्यावर कष्टाने सांठवलेले अडीचशे रुपये रडकुंडीला येऊन पोलिसांच्या स्वाधीन करावे लागायचे..

मोहिमेवर जाणारी पेशवाई कारकीर्द संपून पुण्याच्या परिसरातील त्यांची घोडदौड संपुष्टात आली आणि पुण्याच्या रस्त्यावर टांग्याच्या घोड्याच्या टापा सुरू झाल्या. प्रमुख साधन म्हणून हजारभर टांगे पुण्यात फिरू लागले विश्रामबाग वाडा आणि सदाशिव पेठ हौद चौकात दत्त उपहारगृहाजवळ टांगा स्टॅन्ड असायचा, बाजीराव रोड वरून नू. म. वि. पर्यन्त आल्यावर आनंदाश्रम ते आप्पा बळवंत चौक हा रस्ता इतका अरुंद आणि गर्दीचा होता की समोरून बस आली तर येणाऱ्या सायकल स्वाराला उडी मारून बाजूलाच व्हावं लागायचं.

1953 पासून टांग्याचा आकडा घसरला आणि रिक्षाचा भाव वधारला.

1960 नंतर आली बजाजची व्हेस्पा स्कूटर, मग स्कूटरची संख्या वाढून सायकलचा दिमाख आटोपला. त्यात पीएमटी बसने भर टाकली. बस भाडं कमी, पुन्हा सुरक्षित, आरामात प्रवास.. मग टांगेवाल्यांना टांग मिळून सायकल स्वारही तुरळक झाले.

पण काही म्हणा हं ! इतर नावाच्या बिरुदाबरोबर पुण्याला सायकलीचं शहर हे नांव पडलं होतं त्या काळी. आत्ताच्या काळात मात्र गाड्यांच्या गर्दीतून सुळकांडी मारून पुढे जाणारा विजयी वीर क्वचितच दिसतो. आणि हो ! एखादा ज्येष्ठ नागरिक तरुणाला लाजवेल अशा चपळाईने सायकल स्वार झालेला आजही दिसतो. पण असं काही असलं तरी तेंव्हांची मजा काही औरच होती.

तर मंडळी आपण ही आठवणींची ही शिदोरी घेऊन सायकलवरून फेरा मारूया का?

– क्रमशः… 

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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