हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 545 ⇒ बात अभी अधूरी है ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बात अभी अधूरी है।)

?अभी अभी # 545 ⇒ बात अभी अधूरी है ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बीमारियां कई तरह की होती हैं, कुछ का इलाज किया जा सकता है, कुछ लाइलाज होती हैं। हम यहां वात रोग की नहीं, बात रोग की ही बात कर रहे हैं, जो बिना बात के शुरू होता है, और सारी बातें हो जाने के बाद भी, बात अधूरी ही रह जाती है।

बाल मनोविज्ञान यह कहता है कि बोलने की कला बच्चा, सुन सुनकर ही सीखता है। बच्चों से बात करने में बड़ा मजा आता है, खास कर, जब वे चार छः महीने के हों। उनकी आंखें एक जगह टिकनी शुरू हो जाती हैं, और वे हर आवाज को बड़े गौर से सुनते हैं।

एक झुनझुने की आवाज से वे रोना भूल जाते हैं, लोरी सुनाओ तो सो जाते हैं, और मचलते बालक को गाय अथवा तू तू किंवा माऊ, यानी बिल्ली दिखाओ तो बहल जाते हैं।।

उनकी स्मरण शक्ति बहुत तेज होती है। एक एक शब्द को वे ध्यान से सुनते ही नहीं, हमारे हाव भाव को भी नोटिस करते हैं। हमारी अनावश्यक लाड़ भरी बातें सुनकर भी वे आनंदित होते हैं, किलकारी मारते हैं। लेकिन हम नहीं जानते, वे हमारे बिना बताए ही कितना सीख जाते हैं।

फिर शुरू होता है उनके बोलने का अध्याय। लड़कों को अपेक्षा लड़कियां अधिक जल्दी बोलना और चलना सीख लेती हैं, क्योंकि उन्हें जीवन में शायद अधिक बोलना चालना पड़ता है। अपनी सीमित वाक् क्षमता में छोटे छोटे वाक्य बनाना उनकी खूबी होता है। वे वही बोलते हैं जो वे सीखते हैं, बस उनका बोलने का अंदाज अपना अलग ही होता है।।

बस यहीं से बोलने की जो शुरुआत होती है तो फिर बोलना कभी नहीं थमता। जो बालक अंतर्मुखी होते हैं, वे सोचते अधिक हैं, बोलते कम हैं। और कालांतर में यही उनका स्वभाव बन जाता है।

हर घर में हां, हूं की यह बीमारी आजकल आम है। महिलाओं का स्वर तो स्पष्ट सुनाई दे जाता है़, पुरुष की आवाज सुनने के लिए कानों पर जोर देना पड़ता है। अजी सुनते हो, शब्द कितने पुरुषों के कानों तक पहुंचता है, कोई नहीं जानता। घर में पत्नी को अगर बोलने की बीमारी है तो पति को भूलने की। कितनी बातें याद दिलानी पड़ती हैं, पर्स, रूमाल, चाबी, चश्मा, हद है।।

सुबह सोते बच्चों को उठाना इतना आसान भी नहीं होता। पच्चीस आवाज लगाओ, सबके चाय नाश्ते, टिफिन की तैयारी करो, बोल बोलकर थक जाते हैं, लेकिन किसी के कान में जूं नहीं रेंगती। काम वाली बाई की अलग किचकिच।

दोपहर में थोड़ा आराम मिला तो अड़ोस पड़ोस में मन बहला लिया, फोन पर एक दो घंटे बात कर ली, तो मन हल्का हो जाता है। जो आराम बातों से मिलता है, उसका जवाब नहीं। बातों की कोई कमी नहीं, बस शिकायत यही है कि आजकल कोई बात करने वाला ही नहीं मिलता। अकेले में क्या दीवारों से सर फोड़े। आदमी का टाइम तो यार दोस्तों में कट जाता है, हमारी किटी पार्टी इनको अखरती है।।

यह घर घर की बात है। जिसके पास कुछ बोलने का है, वही बोलेगा। जिसने मुंह में दही जमा रखा है, वह क्या बोलेगा। हमें घर गृहस्थी की, बाल बच्चों की फिक्र है, चिंता है, इसलिए बोलना ही पड़ता है।

गलत बात हम बोलते नहीं, किसी की गलत बात सुनते नहीं। साफ बोलना सुखी रहना। मन में किसी बात को दबाकर रखना परेशानी का कारण बन जाता है। बोलने से इंसान हल्का हो जाता है। समय इतना कम है, बहुत सा काम बाकी है। बाकी बातें, बाद में। असली बात अभी अधूरी है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 201 ☆ # “महापरिनिर्वाण के अवसर पर…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता महापरिनिर्वाण के अवसर पर…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 200 ☆

☆ # “महापरिनिर्वाण के अवसर पर…” # ☆

(6 दिसंबर महापरिनिर्वाण दिवस पर विशेष)

तुम्हारे महापरिनिर्वाण पर

आंख भर भर आईं हैं

हर शख्स रूदन कर रहा

आँखें डबडबाई हैं

 

जीवन पथ पर चलने की

तुमने राह दिखाई है

संघर्षों में लड़ने की

तुमने चाह जगाई है

सदियों से अंधेरे में थे

तुमने ज्योत जलाई है

हर शोषित, वंचित के मन में

तुमने आस बंधाई है

शिक्षा हथियार है

यह बात तुमने सिखाई है

छीन लो हक अपने

यह बात समझाई है

तुम ही हो भगवान हमारे

यही एकमात्र सच्चाई है

आज तुम्हारे महापरिनिर्वाण पर

आँखें भर भर आईं हैं

 

आजकल तूफानों में

बहुत जोर है

आंधियों और हवाओं में

बहुत शोर है

चारों तरफ छाई हुई

घटाएं घनघोर हैं

चमकती बिजलीयां

चहुं और है

बदलने तुम्हारे संविधान को

दुष्ट ताकतें

लगा रही जोर जोर हैं

जो भी टकराया है हमसे

उसने मुंह की खाई है

आज तुम्हारे महापरिनिर्वाण पर

आँखें भर भर आईं हैं

 

अब यह सैलाब बहा देगा

ऊंची ऊंची चट्टानों को

कोई भी ना रोक सकेगा

दृढ़ संकल्प दीवानों को

सर पर कफ़न बांधकर

मरने निकले परवानों को

देख कुर्बानी के इस जज्बे को

दुनिया भी थर्राई है

आज तुम्हारे महापरिनिर्वाण पर

आँखें भर भर आईं हैं

 

तुम्हारे अनुयायी अब

जागृत और सचेत हैं  

माना हमारे बीच में

कुछ थोड़े से मतभेद हैं

विचारों की जंग है

अरमानों के खेत हैं  

टीले हैं जज्बातों के

ज़मीं हुई रेत है

जिस्म है अलग अलग पर

सबका लक्ष्य समवेत है

यही समाज के उन्नति और

बदलाव के संकेत हैं

हमने संकल्पों के दीपक में

उम्मीद की बातीं जलाई है

आज तुम्हारे महापरिनिर्वाण पर

आँखें भर भर आईं हैं /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हे शब्द अंतरीचे # 197 ☆ अभंग… प्रेम, शांति, और सुख का गान ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 197 ? 

अभंग… प्रेम, शांति, और सुख का गान ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

हिंदी रचना ( हे शब्द अंतरीचे.)

निरामय हो जीवन मेरा,

न हो कोई दु:ख का डेरा।

मन के कोने उजियारे हों,

सत्य-प्रेम के तारे हों।

*

चंचल मन भी शांत रहे,

हर दुख से अछूता रहे।

तन-मन में ऐसा प्रकाश हो,

जैसे सूरज का आभास हो।

*

न बैर हो, न कोई राग,

हर दिशा में केवल सुहाग।

नफरत का हर रंग मिटे,

प्यार में सब ही सिमटे।

*

निरामय हो काया सारी,

न हो कोई चिंता भारी।

प्रेम, शांति, और सुख का गान,

हो जीवन का सच्चा मान।

*

साथ निभाएं, साथ बढ़ें,

प्रेम का संदेश लाएं,

दिल में हो इंसानियत,

भेदभाव सब मिटाएं।

*

कविराज की यही पुकार

दुःख दूर हो हे महाराज

अर्ज मेरी स्वीकार करो

मेरे जीवन को तेरा ही साज।

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ यज्ञ… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ यज्ञ ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

अवचित आठवली

गाथा हृदयी भिडली

द्वाड झाल्या आठवणी

रात ढळाया लागली

*

अंगावरचा धडपा

त्याचा पदर फाटका

झाकू पहातो संसार

माझा फाटका नेटका

*

कुणा मदतीचा हात

नाही मागायचा आता

शब्द सुखाचे गाठोडे

हीच सारी मालमत्ता

*

गेली मरून मनशा

तिचे दु:ख नाही मला

चार दिसाचे जगणे

त्याचा किती बोलबाला

*

नको आवर्तन पुन्हा

जन्म मरणाच्या दारी

आहे पदरी बांधली

आर्धी सुखाची भाकरी

*

नको निवारा आणखी

नको वैभव कसले

लेखणीला आले बळ

त्याने जगाला जिंकले

*

नाही पुजला दगड

तेच आहे समाधान

दिलदार मैत्र माझे

माझ्या जगण्याचे धन

*

राना वनात भेटते

मला माझेच संचीत

जळे चंदनाची चूड

भोवतीच्या वादळात

*

खोड चंदनी जळता

दरवळ मुलुखात

यज्ञ झाला जगण्यचा

हेच घडले आक्रीत

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मोक्षमुक्ती धाम… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मोक्षमुक्ती धाम… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

पंख परीचे घेउन,

नीज डोळ्यावर आली.

चेटकिणीच्या भयाची,

कथा इथेच संपली.

*

जावळात अजूनही,

तुझी फिरतात बोटे.

हरवल्या शैशवात,

आई अंगाईत भेटे.

*

थोडा निर्मम होउन,

मांड भातुकली डाव.

मोहमायेच्या संसारी,

शोध मोक्षमुक्ती धाम.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ आनंद जीवनाचा – कवी – अज्ञात ☆ रसग्रहण.. सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

? काव्यानंद ?

☆ आनंद जीवनाचा – कवी – अज्ञात ☆ रसग्रहण.. सौ. वृंदा गंभीर 

आनंद जीवनाचा ☆

*

आनंद या जीवनाचा सुगंधा परी दरवळावा

पाव्यातला सूर जैसा ओठातुनी ओघळावा,,,

आनंद या जीवनाचा,,,

*

झिजुनी स्वतः चंदनाने दुसऱ्यास मधुगंध द्यावा

हे जनता जीवनाचा प्रारंभ हा ओळखवा

आनंद या जीवनाचा,,,

*

संसार वेली वरही सुख दुःख फुलुनी फुलावे

संदेश हा जीवनाचा दुःखी मनी हर्षवावा

आनंद हा जीवनाचा,,, 

जीवनी जगता हसुनी सुख दुःख प्रतिसाद द्यावा

हसता हसता हसुनी गतकाळ ही आठवावा

आनंद या जीवनाचा सुगंधापरी दरवळावा

पाव्यातला सूर जैसा ओठातुनी ओघळावा

 गीतकार – अज्ञात

 *

आनंद या जीवनाचा सुगंधापरी दरवळावा

पाव्यातला सूर जैसा ओठातीन ओघळावा

*

आख्खा जीवनपट मंडणार हे गीत ऐकून अंगाला शहारे आणतात.

माणसाने माणसाशी कसे वागावे बोलावे आदर सन्मान करावा जीवन सार्थकी लावावे मनुष्य जन्म एकदाचं मिळतो त्याचं सोनं करावं आनंदी राहावं आनंदी जगावं त्या जगण्याचा वागण्याचा सुगंध सगळंकडे पसरावा आपल्या जीवनाची इतरांना प्रेरणा मिळावी माणूस घडावा माणुसकीचा सुगंध दरवळात राहावा.

बासरीचे मधुर सूर जसे ओठातून ओघाळतात आणि ऐकणारा मंत्रमुग्ध होतो तसंच मंत्रमुग्ध होऊन जगता यायला हवं.

 झिजुनी स्वतः चंदनाने दुसऱ्यास मधुगंध द्यावा

हे जाणता जीवनाचा प्रारंभ हा ओळखवा

स्वतः चांदनासारखे झिजून दुसऱ्याला सुख द्यावे दुसऱ्याच्या सुखाचा विचार करावा स्वतःसाठी सगळेच जगतात इतरांसाठी जगता आलं पाहिजे मन जाणता आलं पाहिजे. जीवन जरी स्वतःच असलं तरी ते दुसऱ्याला अर्पण करावे त्यांना दुःखातून बाहेर आणून आनंद द्यावा.

हे सगळं जाणून जीवनाचा प्रारंभ म्हणजे जीवनाची सुरवात ओळखावी. आपण कुठल्या कार्यासाठी आलो आहोत, काय पूर्ण करायचे हे ओळखून कर्तृत्व करायला हवे. जीवन फार सुंदर आहे. ते जगता यायला हवं. दुसऱ्या साठी जगायला हवं. तेंव्हाच मनुष्य मूर्ती रूपाने गेला तरी किर्ती रूपाने कायम राहतो. जीवनाचा अर्थ ज्याला कळतो तो आमरत्व प्राप्त करून जातो. त्यांना कोणीही विसरू शकत नाही. जसे आपले रतन टाटा जी, सिंधुताई सपकाळ असे अनेक आहेत ज्यांनी चंदनासारखे झिजून दुसऱ्याला सुंदर जीवन दिल.

 संसार वेलीवरही सुख दुःख फुलुनी फुलावे

संदेश हा जीवनाचा दुःखी मनी हर्षवावा

संसाराची वेल नाजूक आणि कठीण असते. सुख दुःख अपार असतात. त्याही पलीकडे जाऊन ते फुलावावे लागतात. संसार प्रेमाने हळू हळू बहरत जातो, फुलत जातो. संयम, त्याग, एकमेकांची साथ असेलतर फुलत जातो. हार न मानता फुलावावा लागतो.

पूर्वी एक म्हण होती ” संसार सुई वरून बारीक आणि मुसळहून ठोसर आहे ” काटकसर, तडजोड, नियोजन करून संसार पुढे न्यावा लागतो.

सुख न सांगता जीवनाचा हा संदेश दुःखीत मनांना आनंद देईल असे करावे. आपलं सुख सांगून इतरांना दुःख देण्यापेक्षा आपण काय करून कुठले दुःख भोगून संकटांचा सामना करून इथपर्यंत पोहचलो याची जाणीव करून प्रेरणा द्यावी.

जीवनाची कहाणी सांगावी. म्हणजे दुःख सहन करण्याची ताकद मिळते.

 जीवनी जगता हसुनी सुख दुःख प्रतिसाद द्यावा

हसता हसता परंतू गतकाळ ही आठवावा

आपण जीवन हसत जगत असलो तरी इतरांच्या सुख दुःखाला प्रतिसाद देता आला पाहिजे. त्यात सहभागी होता आलं पाहिजे. सुखमय सगळे होतात. दुःख वाटून घेता आलं पाहिजे. सुखात सगळेच बरोबर असतात. दुःखात राहता आलं पाहिजे. हेच जीवनाचं सार आहे. हाच जीवनपट आहे.

आपल्याला सुख आल्यावर चेहऱ्यावर हसू आल्यावर आपला भूतकाळ आठवत राहिलं पाहिजे. म्हणजे पाय जमिनीवर राहतात व माणूस माणसा सारखा वागतो. त्याला गर्व अहंकार शिवत नाही. मी पणाची बाधा होत नाही. आपला गतकाळ नेहमी स्मरणात असावा. यशाची दिशा आपोआप मिळत जाते.

भुकेलेल्याला अन्न तहणनेलेल्याला पाणी ही आपली संस्कृती जपावी हेच मोठं सुख आणि श्रीमंती.

हे तत्व पाळले तर आनंद मिळेल. आनंद वाटता येईल आणि सुगंध किर्ती रूपाने दरवळत राहील

अप्रतिम गीत लिहिले आहे लेखकास विनम्र आभिवादन 🙏

© सौ. वृंदा पंकज गंभीर (दत्तकन्या)

न-हे, पुणे. – मो न. 8799843148

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ व्रतोपासना – २. अन्नाचा सन्मान ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

व्रतोपासना – २. अन्नाचा सन्मान ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

आपण बऱ्याच गोष्टी नकळत करत असतो. त्यात काही चुकीच्या गोष्टी पण आपल्या हातून नकळत घडतात. त्याच जर हेतुपुरस्सर बदलल्या तर ती सवय होऊन जाते. आणि भावी पिढी साठी ते संस्कार बनून जातात. यातील काही आवश्यक गोष्टी विविध कारणांनी मागे पडत चालल्या आहेत. यातील एक गोष्ट म्हणजे अन्नाचा सन्मान

आपल्याही नकळत आपण बरेचदा अन्नाचा अपमान करत असतो. कदाचित ते लक्षात पण येत नाही. इथे मला एक गोष्ट आठवते. एक खूप मोठे कुटुंब असते. घरातील सगळे काम करणारे असतात. रात्री ते एकत्र जेवत असतात. एक दिवस घरात फक्त तांदूळ असतात. त्या घरातील मोठी सून त्या तांदुळाची खिचडी करायला ठेवते. तितक्यात तिची सासू येते. तिला वाटते सून मीठ घालायचे विसरली म्हणून ती त्यात मीठ घालते. असेच घरातील तिन्ही सुनांना वाटून प्रत्येक जण स्वतंत्र पणे मीठ घालून जाते. त्याच वेळी लक्ष्मी व अवदसा या घरात असतात. आणि या घरात कोणी राहायचे या वरून त्यांच्यात वाद होतो. आणि असे ठरते, या कुटुंबातील एकाही व्यक्तीने अन्नाला नावे ठेवली नाही तर त्या घरात लक्ष्मी निवास करेल. आणि कोणी नावे ठेवली तर अवदसा त्या घरात राहील. त्या दोघी घरात एका बाजूला बसून निरीक्षण करत असतात. घरातील सर्व पुरुष मंडळी प्रथम जेवायला बसतात. सासरे पहिला घास घेतात त्याच वेळी भात खारट झाल्याचे लक्षात येते. पण घरातील स्त्रियांचे कष्ट लक्षात घेऊन ते काहीही न बोलता गुपचूप जेवतात. ते बघून त्यांची मुलेही गुपचूप जेवतात. त्यामुळे छोटी मुले, स्त्रिया कोणीही काहीही न बोलता जेवतात. थोडक्यात अन्नाला कोणीही नावे ठेवत नाहीत. म्हणजेच अन्नाचा सन्मान ठेवतात. आणि लक्ष्मी कायमची त्या घरात निवास करते.

अन्नाचा सन्मान हे खूप मोठे व महत्वाचे व्रत आहे. त्या सन्मान करण्यात शेतकरी त्यांचे कष्ट, घरातील स्त्रिया त्यांची कामे या सगळ्यांचा सन्मान असतो. परंतू हल्ली वाया जाणारे अन्न पाहिले की मनाला त्रास होतो. एकीकडे आपण अन्न हे पूर्णब्रह्म म्हणतो. त्यावर आपला देह पोसला जातो. जेवणाला उदर कर्म न मानता यज्ञ कर्म मानतो. मग अन्न टाकून देताना ही भावना का विसरतो? असा प्रश्न पडतो. एखाद्या कार्यात बघितले तर अन्नाची नासाडी दिसते. आणि त्याच रस्त्याच्या दुसऱ्या बाजूला अन्नासाठी व्याकूळ झालेले लोक दिसतात. आणि अन्न वाया जाणार नाही, या साठी पण कायदे करण्याची आवश्यकता आहे का? असा प्रश्न पडतो.

पुण्यातील एका कार्यालयात मी असा अनुभव घेतला आहे. ताटात कोणी अन्न ठेवून ताट ठेवायला गेले की तेथे उभी आलेली व्यक्ती ते ताट ठेवू देत नाही. ताट रिकामे करून आणा म्हणून ती व्यक्ती सांगते. सावकाश संपवा अशी विनंती केली जाते. सुरुवातीला लोकांना हे आवडले नाही. पण त्या कार्यालयाचा तो नियमच आहे. एकदा समजल्यावर लोक मर्यादेत वाढून घेऊ लागले. एका डायनिंग हॉल मध्ये पण अशी पाटी लावली आहे. ताटातील अन्न संपवल्यास २० रुपये सवलत मिळेल. असे सगळीकडे व्हावे असे वाटते. त्याही पेक्षा आपण ठरवले तर अन्नाचा योग्य सन्मान करु शकतो. आणि आपले बघून पुढची पिढी हेच संस्कार स्वीकारणार आहे.

अन्नाचा सन्मान तर पूर्वी पासूनच आहे. पण पुन्हा त्याला नव्याने उजाळा देण्याची वेळ आली आहे. तर अन्नाचा सन्मान हे व्रत आचरणात आणण्यास कोणाची हरकत नसावी.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ घर दोघांचं… ☆ सौ.प्रभा हर्षे ☆

सौ. प्रभा हर्षे

? जीवनरंग ?

☆ घर दोघांचं… ☆ सौ.प्रभा हर्षे

संंध्याकाळी फिरून आले तो सात वाजले होते..

आज उशीर झाला असं म्हणत म्हणत कॉफी ठेवली गॅसवर. आत्ता येइल सुमा, पर्स फेकेल आणि जोरात आवाज देइल ‘ मी आले ग ! ‘ फ्रेश होऊन कॉफीचा घोट घेईल आणि आनंदात ओरडेल.. “ बेस्ट ! मला शिकव न अशी कॉफी करायला !” 

मी रोज तिच्याकडे अचंब्याने पहाते. गॅस जवळही न जाता ही कशी कॉफी करायला शिकणार आहे. मात्र सकाळचा नाश्ता ती अगदी सुंदर बनवते म्हणून हा गुन्हा माफ !

ही सुमा माझी भाची ! अगदी लाडकी भाची ! तीन वर्षांपूर्वी दादाने अगदी हौसेने लग्न करून दिले. पण सासरी गेलेली सुमा सहा महिन्यात परत आली ती अगदी रया गेलेली मुलगी होऊन ! तिची ही अवस्था पाहून दादाने तर हाय खाल्ली आणि हार्टचे दुखणे घेऊन बसला. मी सुमाला बदल म्हणून माझ्याकडे घेऊन आले. पोस्ट ग्रॅज्युएशन करायला लावले. पोरगी हुशार. कँपसमध्ये सिलेक्शन होऊन नोकरीला पण लागली. आता दादा वहिनी मागे लागले.. ‘ परत लग्नाचे बघुया का म्हणून !’ पण अं हं ! सुमा लग्नाचे नाव काढू देत नाही.

माझ्याकडच्या या साडेतीन वर्षांत सुमाने मला कधीही आपल्या सासरी काय बिनसलं आणि आपण का परत आलो याबद्दल एक शब्दही सांगितला नाही. कधी मी विचारले तर ती म्हणायची, “आत्तु, ती दोन वर्ष मी माझ्या आयुष्यातून काढून टाकली आहेत. ” 

पण आज अघटितच घडले…. कॉफीचा मग खाली ठेऊन सुमा स्तब्ध बसून राहिली. डोळ्यात पाणी तरळतय असं मला उगाच वाटल.

तिच्या हाताला स्पर्श करत मी विचारले, “ का गं ! बरं नाही वाटत का ? काही होतंय का ? ऑफिसमध्ये काही झालं का ?” 

सुमा काहीच बोलली नाही. पाच मिनिटे अशीच शांततेत गेली

आणि मग हलक्या आवाजात तिने सांगितले, “ आज तनय आला होता ऑफिसमध्ये. ”

“ तुला भेटायला ?” मी आश्चर्यचकित होऊन विचारले

“ नाही, अगदी तसंच नाही, पण मी तिथे भेटीन अशी कल्पना असावी त्याला. ”

“ बरं, पण म्हणाला काय ? ” 

“ घरी येतो म्हणाला. तुझा पत्ता दिलाय. ” 

“ अगं पण तुमचे काय बिनसलंय याची मला काहीच कल्पना तू कधी दिली नाहीस. मी असं करते, थोडा वेळ बाहेर जाते. ” 

“ नको नको आत्तु ! तूच माझी या सगळ्यातून सुटका करशील. ” 

मी कॉफीचे मग उचलता उचलताच बेल वाजली. दारात तनय उभा !

“ ये ना आत ! “ – तो सोफ्यावर टेकला, मात्र अवघडून बसला. मला कससंच झालं, कुठे तो हसरा उमदा मुलगा आणि कुठे हा नाराज, खांदे पाडलेला, अकाली पोक्त झालेला जावई !

“ ऑफिस मधून परस्पर आलास का !”.. कोणी तरी सुरवात करायला पाहिजे म्हणून मी विचारले. त्याची मान होकारार्थी हलली.

“ हा घे टॉवेल ! बेसीनवर फ्रेश हो ! मी कॉफी करते.. का चहा करू ?” मी विचारले.

“ कॉफीच करा आत्या !” 

मी कॉफी करायला वळले आणि सुमा आत आली. तेवढ्यात तिने ड्रेस चेंज केला होता. मलाही बरं वाटलं. ‘चला, कॉफी जरा जास्त वेळ लावून करावी. ’…..

हॉलमध्ये चाललेले संभाषण थोडे थोडे कानावर येतच होते.

“ अरे, किती मी माझे मन मारायचे ? त्याला काही सुमार ? तुला चांगला पगार, सुख सुविधा मिळतात हे तुझ्या आईला आवडत नाही याचं खरंच आश्चर्य वाटतं मला… पण ठीक आहे. पण त्याचा राग माझ्यावर का काढायचा त्यांनी ? तू सांग, त्यांचे माहेर गरीब म्हणून माझ्या आई वडिलांनी मला काहीही द्यायचे नाही, माहेरी बोलवायचे नाही.. असं कुठे असतं का ? मी साधी कॉफीही घ्यायची नाही. का? तर घरात फक्त चहाच आणला जाईल म्हणून ! इतकी मन मारायची मला नाही रे सवय ! मग खायला काही बनवायचे वगैरे तर स्वप्नात पण शक्य नाही. मी खरंच तुमच्या घरी राहू शकत नाही. माझा जीव घुसमटतो. सकाळी सातला केलेली भाजी रात्री आठला जेवायला माझ्या नाही घशाखाली उतरत ! हे बघ.. मला त्यांचा अनादर नाही करायचा. पण मन मारत जगण्यापेक्षा मी माझा स्वतंत्र मार्ग निवडला. मला तुझी अवस्था कात्रीत सापडल्यासारखी करायची नाहीये.. खरंच सांगते. म्हणून मी तुझ्याकडे डायव्होर्स मागितला नाही. मला आशा आहे, कधीतरी ही परिस्थिती बदलेल, तुला माझी बाजू पटेल. मला तुझ्या बरोबर संसार करायचाय तनय ! हो …. पण मोलकरीण म्हणून तुमच्या घरात राहून नाही, तर कुटुंबातील एक सदस्य म्हणून रहायचंय मला ! “ 

…… सुमा बांध फुटल्यासारखी बोलत होती. तनयही शांतपणे ऐकत होता. मीही ऐकत होते. किती ओझं मनावर ठेवलं होत पोरीने मुकाट्याने ! हीच तिच्या समंजसपणाची पावती होती.

मी कॉफी टिपॉयवर ठेवली.

“ जरा ऐक ना माझे ! “ आता बोलायची पाळी तनयची होती.

“ मी तुझे सगळे ऐकतोय. तुझ्या परीने तू बरोबर पण आहेस. पण ते माझे आईवडील आहेत. असं अचानक मी त्यांना सोडू नाही शकत. ही बघ… नवीन ब्लॉकची कागदपत्रे. मी मागच्या आठवड्यात आपल्यासाठी घर शोधलंय. एक तारखेला पझेशन मिळेल. जुन्या घराचे सर्व कर्ज फेडून मगच मी फक्त आपल्यासाठी हे घर घेतलंय… आणि तुला परत बोलवायला आलोय. आपण तुझ्या आईबाबांना हे सर्व सांगू. आणि आपल्या घरी जाऊ. आता मला अजून वाट बघायला लावू नकोस गं … तुझ्या इतकाच मीही विरहात कसेतरी दिवस काढतोय गं सुमा ! “ 

बोलता बोलता तनयने सुमाचे दोन्ही हात घट्ट पकडले….. शब्दापेक्षा स्पर्श नेहेमीच अधिक बोलका असतो ना … 

सुमाचा आणि तनयचा खुललेला चेहरा पाहून मी पण अगदी खूष झाले. जिंकलं बरं पोरीने !!

सुश्री प्रभा हर्षे

 ९८६०००६५९५

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ तो सुवास दरवळतो तेव्हा… ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ तो सुवास दरवळतो तेव्हा… ☆ सौ राधिका भांडारकर

जेव्हा जेव्हा मी माहेरपणाचा आनंद उपभोगून जळगावला परतत असे तेव्हा जीजी (माझी आजी) माझ्यासोबत खाऊचे डबे भरून देत असे आणि ते डब्बे तिच्या जुन्या झालेल्या लुगड्यांचे रुमाल करून त्यात बांधून देत असे. तेव्हा मी तिला म्हणायचे, ” काय ग जीजी माझं सामान वाढवतेस. मी खाल्लं ना सारं इथेच. ”

तेव्हा ती म्हणायची, ” कुठे ग ?अनारसे राहिले की, शिवाय तुला सुकलेले मासे आवडतात ना? जळगावला कुठे मिळतात? जा घेऊन. काही नाही वाढत सामानबिमान.. ”

परवा मी माझं कपाट आवरत होते. तिथे एका कोपऱ्यात सांभाळून ठेवलेला जीजीच्या लुगड्याचा तो रुमाल मला सापडला आणि माझं अंग शहारलं. त्या लुगड्याच्या तुकड्याला जीजीचा वास होता. त्या वासातलं प्रेम, ती मायेची उब, तिचा स्पर्श जाणवला. मन आणि डोळे तुडुंब भरून गेले. किती बोलायचे मी तिला पण तिच्यासारखी माया माझ्यावर जगात कोणीच केली नसेल. एक तुकडा लुगड्याचा आणि त्याचा गंध म्हणजे माझ्यासाठी त्या क्षणी जीजीचं संपूर्ण अस्तित्व होतं.

आयुष्यात असे कितीतरी आठवणींचे गंध साठलेले आहेत. जेव्हा जेव्हा मी तांदुळाच्या शेवया, उकडीचे मोदक अथवा अळूच्या वड्या करते किंवा कुणाकडून त्या मला आलेल्या असतात तेव्हा तेव्हा त्या पदार्थांचे ते सुगंध माझ्या बालपणीच्या श्रावण महिन्यात मला घेऊन जातात. श्रावण सोमवारी आणि शनिवारी आईने सोवळ्यात रांधलेला तो सुवासिक स्वयंपाक आणि पाटावर बसून ताटाभोवती रांगोळ्या रेखलेल्या त्या संध्याभोजनाच्या पारंपरिक पंगती आठवतात. केळीच्या पानावर वाढलेला तो गरमागरम वरणभाताचा, साजुक तुपाचा सुवास केवळ अस्विस्मरणीय! बालपणीच्या सणासुदीच्या आठवणी आणि वातावरणाला जागं करणारा.

मार्च महिन्यात कधीकधी काहीसं अभ्रं आलेलं आभाळ असतं बघा! ऊन— सावलीचा खेळ चालू असतो. कुठून तरी मोगरा, बकुळ, सुरंगीच्या फुलांचा मस्त गंध दरवळतो आणि मला का कोण जाणे आजही शालेय परीक्षा जवळ आल्याचे ते दिवस आठवतात. तो अभ्यास, त्या वह्या, ती पुस्तके आणि परीक्षेची एक अनामिक धडधड पुन्हा एकदा अनुभवास येते.

खरं म्हणजे आयुष्याच्या प्रवासात मी अनेक देश पाहिले पण कुठेही पावसात भिजलेल्या मातीच्या गंधाने मला मात्र नेहमीच भारतात आणून सोडले आहे. अचानक आलेला पहिला पाऊस, छत्री रेनकोट नसल्याने माझी आणि सभोवताली सर्वांचीच झालेली तारांबळ, ते भिजणं आणि मृद्गंधासह अनेक वातावरणातील सुगंध जगाच्या पाठीवर कुठेही मला आठवत राहतात. इतकंच नव्हे तर खरं सांगू का? या वासांची एक मजाच असते. हे आठवणीतले गंध ना तुम्हाला कुठल्याही क्षणी कुठेही घेऊन जातात. पुण्यात मी जेव्हा दोराबजीच्या दुकानात हिंडत असते तेव्हा मला तिथल्या खाद्यपदार्थांचे अथवा इतर वस्तूंवरून येत असलेले वास थेट परदेशात घेऊन जातात. असते मी भारतातच पण दुकानातल्या शीतपेटीतून दरवळणारे वास मला इटली, रोम जर्मनीतही घेऊन जातात. तिथले बेकरी प्राॅडक्टचे, खमीरचे काहीसे भाजके आंबट वास मला ठिकठिकाणच्या देशाची सफर घडवतात. मग तिथल्या आठवणीत मी पुन्हा एकवार रमून जाते.

एकदा मी लेकीकडे.. अमेरिकेला असताना भाजणीच्या चकल्या करत होते. तेव्हा लेक म्हणाली, ” मम्मी मला अगदी आपल्या जळगावच्या घरात असल्यासारखं वाटतंय गं! या तुझ्या चकलीच्या वासाने. ”

आणि तिने दिलेला परफ्युम मी जेव्हा भारतात आल्यावर वापरते तेव्हा मला अमेरिकेत माझ्या लेकीपाशी असल्यासारखं वाटतं.

वॉशिंग्टनला फिरत असताना मॅग्नोलियाचा तो पांढऱ्या फुलांनी गच्च लगडलेला वृक्ष पाहिला आणि त्या फुलांच्या सुगंधाने मला माझ्या अंगणातल्या अनंताच्या झाडाची आठवण झाली. भारतातला पांढरा सुवासिक चाफाही आठवला.

खरोखरच अशा कित्येक निरनिराळ्या सुवासांबरोबर केलेल्या मनाच्या प्रवासाला ना नकाशांची जरूर लागते ना वाहनांची. हा प्रवास निर्बंध, मुक्त असतो.

मी दहावी अकरावीत असेन. घर ते शाळा असा साधारणपणे दहा ते पंधरा मिनिटांचाच रस्ता असेल. ते वय उमलणारं, भावभावनांचं, काहीसं तरल, देहातली कंपने अनोळखी, न समजणारी. त्यावेळची एक आठवण. गंमतच बरं का? 

एक युवक, दिसायला वगैरे बरा होता, छान उंच होता. रोज मध्येच रस्त्याच्या कुठल्यातरी कोपऱ्यावरून माझ्याबरोबर शाळेपर्यंत अगदी न बोलता चालत यायचा. शाळेच्या आवारात शिरताना मला दोन सोनचाफ्याची फुले द्यायचा. माझ्या मैत्रिणी म्हणायच्या, ” आला ग तुझा चंपक!”

आज मला इतकं आठवत नाही की त्यावेळी माझ्या मनात त्याच्याविषयी काय भावना होत्या किंवा मी त्यांनी दिलेली फुलं केवळ भिडस्तपणे घेत होते की मनापासून घेत होते? कोण जाणे! पण आजही जेव्हा जेव्हा या सोनचाफ्याच्या फुलांचा सुगंध येतो तेव्हा त्या कुरळ्या, दाट केसाच्या, उंच युवकाची आठवण जागी होते मात्र आणि तितकंच हसूही येतं. आयुष्यातले असे वेडपट क्षण किती मजेदार असतात ना याची जाणीव होते केवळ ती या आठवणीतल्या गंधांमुळे.

मुलाचे घरदार, शिक्षण, रूप, भविष्य चोखंदळपणे पाहून, पारखून माझं लग्न जमलं. सासर अमळनेरच, मी मुंबईची. तेव्हापासून साहित्यप्रेमी असल्यामुळे गावाविषयीच्या अगदी बा. भ. बोरकरी कल्पना! लग्नाआधी मी अमळनेरला गेले होते. होणाऱ्या नवऱ्याने अगदी रोमँटिकपणे मला मोटरबाईक वरून गावात, गावाबाहेर फिरवून आणले. गाव छानच होता. गावाला शैक्षणिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, अध्यात्मिक परंपरा होती आणि त्याचबरोबर एक घराघरातून ढणढण पेटलेल्या मातीच्या चुलींचा, खरपूस भाकऱ्यांचा, तसाच गाई म्हशींच्या गोठ्यांचा, शेणामुताचा, कडबा —पेंढ्यांचा असा एक संमिश्र वेगळाच वास होता आणि तुम्हाला म्हणून हळूच कानातच सांगते, हा वेगळा वास माझ्या होणाऱ्या नवऱ्याला ही असल्यासारखे मला तेव्हा जाणवले होते आणि ते मी त्याला स्पष्टपणे सांगितले होते. तेव्हा तो म्हणाला होता, ” मग काय विचार आहे तुझा? लग्न कॅन्सल?”

आमचं लग्न झालं. गेल्या पन्नास वर्षात खूप काही बदललं असेल नसेल पण चुकूनमाकून पेटलेल्या मातीच्या चुलीचा तो भाजका वास आणि गायीगुरांच्या सहवासातला वास मला पुन्हा पन्नास वर्षे मागे घेऊन जातो. एका अनोळखी पण जन्माची गाठ बांधली जाणार असलेल्या व्यक्तीबरोबरची ती पहिलीवहिली रोमँटिक बाईक सफर आठवते. आहे की नाही गंमत?

अशा कित्येक आठवणी. माझी आई जळगावला यायची. काही दिवस रहायची आणि परत जायची. ती गेल्यावर मला खूप सुनं सुनं वाटायचं. कितीतरी दिवस मी तिची रुम तशीच ठेवायचे कारण त्या खोलीला आईचा वास असायचा. आणि नकळत त्या वासाचा मला आधार वाटायचा.

तसे तर अनेक वास सुवास! रेल्वे स्टेशनचा वास, विमानतळावरचा वास, समुद्रकिनारी ओहोटीच्या वेळचा वास आणि त्यासोबतच्या कितीतरी आठवणी.

… गंधित आठवणींची एक मजेदार यात्रा. कधीही न संपणारी. कधी भावुक करणारी, हळवी, संवेदनशील तर कधी खळखळून हसवणारी.

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ एक “महावेडा” तलाठी… लेखक : श्री संपत गायकवाड ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

श्री गजानन जाधव

? इंद्रधनुष्य ?

☆ एक “महावेडा” तलाठी… लेखक : श्री संपत गायकवाड ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

२०१६ मध्ये तलाठी म्हणून नोकरी लागल्यावर मिळणार्‍या पगारातील ५०% रक्कम गरीब मुलांच्या शिक्षणावर व अभ्यासिकेवर खर्च करणारा “महावेडा” तलाठी गजानन जाधव.

वास्तविक गजानन जाधव हे प्रोफेसर, प्राचार्य वा विद्यापीठात कुलगुरु व्हायला पाहिजे होते. त्यांनी अचंबित करणारे कार्य केले असते.

स्वतःचे लग्न कमी खर्चात करुन दहा गावात पुस्तकं देत दहा गावात अभ्यासिका सुरु केली. बहिणीच्या लग्नात एक लाख रुपयांची पुस्तकं भेट दिली. विचारवंतांचे शेकडो विचार व डझनभर लिहिलेल्या पुस्तकांपेक्षा गजानन जाधव या वेड्या तलाठ्याची एक कृती श्रेष्ठ वाटते. लाखात लाच घेणारा क्लास वन अधिकारी श्रीमंत की ५०% पगारातून खर्च समाजासाठी देणारा क्लास थ्री तलाठी श्रीमंत… ??? शासकीय विभागात भ्रष्टाचारी असतात तसे देवदूत व मसीहाही असतातच.

२८-०२-२०२१ रोजी कोलारा येथे लग्न साधेपणाने करून चिखली तालुक्यातील दहा गावात स्वखर्चातून ग्रंथ देऊन, अभ्यासिका उभारुन समाजऋण फेडण्याचा निश्चिय करणारा महावेडा तलाठी- गजानन जाधव. २०१८ साली बहिणीच्या लग्नात एक लाख रुपयांची पुस्तके गोद्री व कोलारा गावातील अभ्यसिकेला देणारा शिक्षणप्रेमी तलाठी.

वडील मृत्यू पावल्यानंतर आईने शेती व मजुरी करुन ३ मुली व गजाननला शिक्षण देऊन वाढविले. इलेक्ट्रॉनिक दुकानात नोकरी करत डी एड व बी एड केले. २०१६ ला तलाठी म्हणून नोकरीवर रुजू. पगारातील ५०% रक्कम गरीब मुलांच्या शिक्षणासाठी व अभ्यासिकेसाठी खर्च करतात. बुलढाण्याचे रहिवासी असणारे गजानन जाधव हे औरंगाबाद येथील वैजापूर येथे तलाठी म्हणून कार्यरत आहेत. २८ फेब्रुवारी २०२१ रोजी स्वतःच्या लग्नात दहा गावात स्वखर्चाने ग्रंथासह अभ्यासिका उभारण्याचा संकल्प करुन पूर्ण केला आहे.

२०२१ नंतर आजअखेर दिवठाणा, बोरगाव वसू, सवना, सोनेवाडी आणि शेलुद या ठिकाणी पुस्तके दान करुन अभ्यासिका सुरू केल्या आहेत. शिक्षणामुळे आयुष्य बदलते पण आर्थिक अडचणींमुळे मुलांना शिक्षण घेता नाही. मुलांना आर्थिक कारणांमुळे शिक्षण घेण्यात अडचणी येऊ नयेत म्हणून पगारातून मदत करतात. गरीबीतून आल्यामुळे गरजा कमी आहेत. त्यामूळे ५०% पगारातील रक्कम खर्च करण्यात कोणतीही अडचण नसल्याचे गजानन सांगतात.

मुळात डी एड व बी एड झाल्यामुळे शिक्षणाबद्दल प्रचंड आस्था आहे. अभ्यासिका व पुस्तके यामुळे मुलांचे आयुष्य बदलते याची जाणीव डी एड व बी एड करताना झाल्यामुळे गजानन यांनी आईशी बोलून समाजासाठी मदत करायला सुरुवात केली.

महसूल विभागातील तलाठी हे ग्रासरुट लेवलवरचे महत्त्वाचे पद आहे. महसूल विभागातील लोकांच्या अनेक कथा आपण ऐकतो. लाच घेताना वरिष्ठ अधिकारी पकडले जात असताना तृतीय श्रेणीतील एक तलाठी कर्मचारी मात्र पगारातील ५०% रक्कम समाजासाठी खर्च करतात, ही गोष्ट गजानन यांच्या मनाची श्रीमंती दर्शविते, दानत दाखवून देते.

वडील अकाली मृत्यू तीन बहिणींचे शिक्षण व लग्ने, पार्ट-टाइम नोकरी करत करत शिक्षण व स्पर्धा परीक्षेतून तलाठी. हे सर्व करत असताना आईचे कष्टकरी जीवन. २०१६ नंतर परिस्थिती बदलत असताना बंगला, गाडी, शेत, दागिने यांची भर न करता दहा गावात अभ्यासिका उभारणे म्हणजे समाजऋण फेडणारे काम. समाजसेवा करणेसाठी गर्भश्रीमंत असावे लागते असं काही नसतं. मनाची श्रीमंती व दानत महत्वाची असते.

गजानन जाधव. औरंगाबाद, वैजापूर येथील तलाठी महसूल विभागासाठी नक्कीच एक आदर्श आहेत. डिपार्टमेंट कोणतेही असो प्रत्येक विभागात भ्रष्टाचारी जसे असतात तसे मानवतेचे मसीहा व देवदूतही असतातच. लग्न एकदाच होत असते. लग्नात थाटमाट न करता, हौसमौज न करता, डामडौल न‌ करता लग्नात होणारा खर्च समाजासाठी खर्च करणे ही बाबच समाजासाठी दीपस्तंभ ठरते.

…. गजानन जाधव आपणास, आपल्या मातोश्री व सौभाग्यवती तसेच आपल्या भगिनींनाही आरोग्यदायी दीर्घायुष्य लाभू दे ही परमेश्वराचे चरणी मनोमन प्रार्थना !! 

लेखक : श्री संपत गायकवाड

(माजी सहायक शिक्षण संचालक)

प्रस्तुती : श्री सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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