English Literature – Travelogue ☆ New Zealand: A Morning Ritual in the Land of the Flat White # 3 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

☆ Travelogue – New Zealand: A Morning Ritual in the Land of the Flat White # 3 ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

During our extended stay in New Zealand, a cherished morning ritual has taken root in our daily lives. Each day begins with a long walk through the serene neighborhoods, the crisp air carrying a hint of the sea and the promise of a new day. Along the way, we’ve adopted the delightful habit of pausing at a local café for a leisurely cup of coffee, a moment of calm amidst our explorations.

New Zealand’s coffee culture is nothing short of a revelation. These cozy neighborhood cafes, each with its unique charm, beckon with their warm and inviting atmospheres. The friendly baristas, often brimming with infectious Kiwi cheer, greet us as though we’re old friends. Inside, the scene is a delightful blend of the old and the new: elderly patrons sipping their morning brews, sharing stories, or indulging in a crossword puzzle, while younger professionals dart in to grab their takeaway cups before heading to work. We often find ourselves thumbing through local newspapers or glossy magazines, adding a touch of nostalgia to our mornings.

When we first arrived, our coffee choices leaned toward familiar favorites like cappuccinos and mochas. But it wasn’t long before the locals’ love for the Flat White intrigued us. A perfect harmony of velvety milk and robust espresso, the Flat White is a testament to New Zealanders’ passion for coffee, and it has since become our drink of choice. Occasionally, we pair it with a warm cheese scone or a sweet muffin, elevating the experience into something almost ceremonial.

Interestingly, cafes here open early, around 7 am, to cater to the early risers and close by 3:30 pm, making evenings without a café outing feel a tad incomplete. How we wish these delightful spots stayed open late, offering the joy of a quiet evening coffee!

Our favorites include Vero Café in Unsworth Shops, Lulu Café in Wairau Valley, and Tob Café in Rosedale. Each has its signature touch, yet they all share a commitment to crafting a superb cup of coffee. Further afield, the coastal charm of Devonport and the bustling energy of Takapuna have provided memorable coffee moments, blending the aromas of fresh brews with the stunning views of the surrounding landscapes.

New Zealand’s coffee culture is steeped in its people’s dedication to quality and community. The Flat White, with its origins hotly debated between Kiwis and Australians, is more than just a drink—it’s a cultural emblem. The sheer number of independent cafes here speaks to a nation that takes its coffee seriously. In fact, New Zealand has more cafes per capita than even New York City, underscoring its status as a global coffee hotspot.

As our days here continue, the morning ritual of walking and pausing for coffee has become more than a habit—it’s a connection to the heart of New Zealand’s culture. Whether in the bustling streets of Auckland or a quiet suburban nook, these moments, and the exceptional coffee that accompanies them, are memories we’ll savor long after we leave.

#coffee #auckland #newzealand

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 550 ⇒ एक जिंदगी स्मार्ट सी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक जिंदगी स्मार्ट सी।)

?अभी अभी # 550 ⇒ एक जिंदगी स्मार्ट सी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सादा जीवन उच्च विचार, क्या कहीं सुना सुना सा नहीं लगता ! दिमाग पर बहुत जोर डालना पड़ता है, तब अनायास लालबहादुर शास्त्री का ख्याल आता है। तब हमारे जीवन में भी कहां तड़क भड़क थी। आज की पीढ़ी भले ही कह ले, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी, लेकिन इसमें हमारा भी कोई दोष नहीं। दिलीप कुमार खुद २२ इंच की मोरी की पैंट पहनता था, लड़के लोग देवानंद जैसे फुग्गे वाले बाल रखते थे और लड़कियां साधना कट बाल। तब बस यही फैशन और स्मार्टनेस की परिभाषा थी।

पहले बच्चों के कपड़े घर में मां ही सीती थी। इतने भाई बहन होते थे कि कपड़े, बस्ते और किताबें आपस में शेयर की जाती थी। वही कोर्स की पुरानी किताबें, नया कवर चढ़ाकर छोटे भाई बहन के काम आती थी। नये कपड़े वार त्योहार और शादी ब्याह के मौके पर।।

परिवार का एक ही दर्जी होता था, भीखाभाई टेलर मास्टर। हेयर कटिंग भी अगर करवानी है तो आपले केश कर्तनालय में।

अपनी कोई पसंद ही नहीं होती थी। रेडियो तक को सिर्फ पिताजी हाथ लगाते थे। बाल कभी बढ़ते ही नहीं थे। शरीफ बच्चे जो होते थे हम।

पहला फोटो कृष्णपुरा के गोपाल स्टूडियो में खिंचवाया, क्योंकि कॉलेज में आइडेंटिटी कार्ड बनवाना था। पहली बार खुद की साइकिल हाथ लगी और खुद का अलग कॉलेज। साला मैं तो स्मार्ट बन गया। अब हाफ पैंट पहनने में शर्म आने लगी थी।।

अच्छी तरह याद है, एवर स्मार्ट टेलर ने हमारा पहला पैंट सीया था। अब मुंह से अंग्रेजी निकलने लगी थी। स्टार लिट टॉकीज में अंग्रेजी फिल्में और अंग्रेजी उपन्यास भी पढ़ने शुरू कर दिए थे। कम सेप्टेंबर की धुन और टकीला ने हमें पूरा अंग्रेज बना दिया था।

अंग्रेजी फिल्म समझे ना समझे, डॉक्टर जिवागो, गन्स ऑफ नेवरोन, साइको (psycho) जिसे कुछ लोग पिस्को भी कहते थे, और ड्रेकुला देखना और रात में बिस्तर में डरना किसे याद नहीं।

तब तक इतने स्मार्ट तो हम भी हो गए थे, कि कॉलेज को बंक मार फिल्में देखना शुरू कर दिया था। अगर आए दिन कॉलेज में जी टी (जनरल तड़ी) और स्ट्राइक होगी तो रोज रोज सीधे घर तो नहीं जाया जा सकता ना। यहां हमारा कोई भाई बहन नहीं होता था, जो घर जाकर मां से चुगली कर दे। सभी जानते थे, कॉलेज लाइफ कैसी होती है।।

आज स्मार्ट टीवी के सामने बैठकर, स्मार्ट फोन पर जब पिछली जिंदगी का सिंहावलोकन करने बैठते हैं, तो बड़ी हंसी आती है। उंगलियों और कागजों पर गुणा भाग करना पड़ता था। तब कहां कैलकुलेटर नसीब होता था। एक चल मेरी लूना हमें कहां कहां ले जाती थी। अलका और प्रकाश सिनेमाघर हमेशा हाउसफुल रहते थे। लाइन में लगे, लेकिन कभी ब्लैक में टिकट नहीं लिया। लेकिन बाद में कई चीजों पर ऑन देना पड़ा।

कभी पूरा शहर पैदल और आसपास के पर्यटन स्थल साइकिल से आराम से नाप लिए जाते थे, लेकिन स्मार्ट सिटी बनता जा रहा हमारा शहर, अब हमसे नहीं नापा जाता। फेसबुक की पोस्ट पर रीच की तरह शहर में भी हमारी रीच बहुत कम हो गई है। या तो हम कम रिच (rich) हो गए हैं, या फिर मेरा शहर बहुत अमीर हो गया है।।

जिस शहर में लोग साइकिल छोड़ बाइक और कार में आ जाते हैं, वहां फिर पैदल कोई नहीं चलता। मोहल्ले कॉलोनियों में, और कॉलोनियां बहुमंजिला इमारतों में तब्दील होती चली जाती है। लोग अब शहर छोड़ गांव में नहीं जाते, गांव खुद ही शहर में शामिल होते चले जाते हैं।

मेरे आसपास आजकल सब्जियां और किराना बिग बास्केट से , और खाना जोमैटो से आता है। महीने का किराना आजकल बनिया नहीं लाता, लोग डी मार्ट चले जाते हैं। सभी कुछ ऑनलाइन होने से , भले ही आपकी जेब में फूटी कौड़ी ना हो, आप दुनिया भर की सैर आराम से कर सकते हैं। जब दुनिया भर का समय भी आजकल स्मार्ट वॉच ही बताती है, तो हमारी जिंदगी भी स्मार्ट ही हो गई है। कितना सुख चैन है इस स्मार्ट लाइफ में। आज अगर शैलेंद्र होते तो मजबूरी में वे भी शायद यही कहते ;

जीना यहां मरना यहां

इसके सिवा जाना कहां।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 214 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  दोहा सलिला)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 214 ☆

☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

निज माता की कीजिए, सेवा कहें न भार।

जगजननी तब कर कृपा, देंगी तुमको तार।।

*

जन्म ब्याह राखी तिलक गृह-प्रवेश त्योहार।

सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।

*

कोशिश करते ही रहें, कभी न मानें हार।

पहनाए मंजिल तभी, पुलक विजय का हार।।

*

डरकर कभी न दीजिए, मत मेरे सरकार।

मत दें मत सोचे बिना, चुनें सही सरकार।। 

*

कमी-गलतियों को करें, बिना हिचक स्वीकार।

मन-मंथन कर कीजिए, खुद में तुरत सुधार।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२.४.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचना/Information ☆ संपादकीय निवेदन ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

‘सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

💐 संपादकीय निवेदन 💐

💐 अभिनंदन! अभिनंदन! अभिनंदन! 💐

तितीक्षा इंटरनॅशनल पुणे आयोजित दशदिवशीय नवरात्र काव्य लेखन स्पर्धेत आपल्या समूहातील ज्येष्ठ लेखिका व कवयित्री सुश्री उज्ज्वला सहस्रबुद्धे यांना प्रथम क्रमांक प्राप्त झाला आहे. विशेष म्हणजे नवरात्रातील प्रत्येक दिवसासाठी एक आणि दसऱ्यासाठी एक अशा एकूण दहा काव्यरचना स्पर्धेसाठी मागवलेल्या होत्या, आणि सगळ्या रचना विचारात घेऊन क्रमांक ठरवण्यात आले. उज्ज्वलाताईंचे आपल्या सर्वांतर्फे मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील अशाच यशस्वी साहित्यिक वाटचालीसाठी असंख्य हार्दिक शुभेच्छा. 

– आजच्या अंकात वाचूया त्यातील त्यांची एक पुरस्कारप्राप्त कविता – “सीमोल्लंघन करू…”

– संपादक मंडळ

ई – अभिव्यक्ती, मराठी विभाग

?कवितेचा उत्सव  ?

सीमोल्लंघन करू… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

‌ नवरात्रीचे दिवस, 

 आगमन दसऱ्याचे !

 रंग,रूप नव रीती,

 जगी या आचरण्याचे !..१

*

 सीमोल्लंघन करू या,

 दुष्ट अनिष्ट प्रथांचे !

 स्वागत आपण करू,

 नित्य नूतन जगाचे !….२

*

 देवी शारदे स्फूर्ती दे,

 साहित्य नवे लिहावे !

 उदासी मनाची जावी,

 कार्य नवे आचरावे !…३

*

  रामायण ते दाखवी ,

  अन्यायाचे निर्दालन!

  महाभारत शिकवी ,

  दुष्टांचे व्हावे दमन !…४

*

  इतिहासातून घ्यावा ,

  बोध मनी घटनांचा !

  दुष्ट शक्तींना मारून,

  विजय व्हावा सत्याचा !…५

*

 सीमोल्लंघन करूनी,

 वाट पुढील पहावी !

 आयुष्यात प्रत्येकाच्या,

 नवीन पहाट व्हावी !…६

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ निराळे कायदे… ☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

सौ. ज्योती कुळकर्णी 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ निराळे कायदे…☆ सौ. ज्योती कुळकर्णी ☆

(आनंदकंद)

भागीरथीत जाती पापे कितीक धुतली

होते मलीन ती जर आहे प्रथाच  इथली

 *

रानात सिंह राजा प्राणीच भक्ष्य त्याचे 

मांडून कायद्याला टाळी तुम्हीच पिटली

 *

वाटे कुणास नारी अन्याय सोसणारी

केले असूर मर्दन तेव्हा सुखात निवली

 *

विश्वास ठेवला पण त्यानेच घात केला

नात्यास शुद्ध म्हणतो जाणून लाज विकली

 *

मिळतो बरा तुम्हाला बाहेर न्याय सहजी

न्यायालयात माझी नाणी बरीच झिजली

© सौ. ज्योती कुळकर्णी

अकोला

मोबा. नं. ९८२२१०९६२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – क्षण सृजनाचे ☆ थेम्सच्या नदीकिनारी… ☆ प्रा. डॉ.सतीश शिरसाठ ☆

प्रा. डॉ.सतीश शिरसाठ

? क्षण सृजनाचे ?

थेम्सच्या नदीकिनारी… ☆ प्रा. डॉ.सतीश शिरसाठ ☆

लंडन येथील नदीचे नाव- थेम्स, त्या नदीवर एक मोठा ऐतिहासिक पूल आहे- टाॅवर ब्रिज. या पुलाच्या बाजूंना दोन मोठे टाॅवर असून राजघराण्यातील व्यक्ति बोटीने जाताना मध्यभागातून तो उघडला जातो.त्या नदीवर एक मोठा दुसरा पूल असून त्याला लंडन ब्रिज म्हणतात. मी त्यावर  मुक्त पध्दतीत एक कविता लिहीली आहे. 👇🏻

☆ थेम्सच्या नदीकिनारी… ☆ प्रा. डॉ.सतीश शिरसाठ ☆

थेम्सच्या नदीकिनारी

पाहिला मी टाॅवर  ब्रिज

ब्रिटिश राजसत्तेला

अभिवादन करताना

मध्यातून  मुडपणारा.

 *

थेम्सच्या नदीकिनारी

पाहिला मी लंडनब्रिज

मुखवटे घालून फिरणा-या

शेकडो  माणसांच्या

घामांत भिजलेला.

 *

थेम्सच्या नदीकिनारी

पाहिला मी एक भिकारी

कळकटलेल्या कपडयांवर

फेकलेली नाणी

गोळा करताना.

© प्रा. डाॅ. सतीश शिरसाठ

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ वृद्धपण आणि मौन… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

?  विविधा ?

☆ वृद्धपण आणि मौन… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

वृद्धपण आणि मौनः

मौन” हा शब्द ऐकल्याक्षणी कुसुमाग्रजांची कविता आठवली.

शिणलेल्या झाडापाशी

कोकिळा आली

म्हणाली, गाणे गाऊ का ?

झाड बोललं नाही

कोकिळा उडून गेली.

 

शिणलेल्या झाडापाशी

सुग्रण आली

म्हणाली घरटे बांधु का?

झाड बोललं नाही

सुग्रण निघून गेली.

 

शिणलेल्या झाडापाशी

चंद्रकोर आली

म्हणाली जाळीत लपू का?

झाड बोललं नाही.

चंद्रकोर मार्गस्थ झाली.

 

बिजली आली

म्हणाली मिठीत येवू का?

झाडाचे मौन सुटलं

अंगांअंगातून

होकारांचे तुफान उठलं.

.

.

.

.

 

पहिल्यांदा वाचली तेव्हा नव्हती समजली. परत वाचली….

परत परत वाचली…

आणि लक्षात आले की हे तर शिणलेल्या झाडाचे समजूतदार मौन आहे….

अनेक वर्ष कोकिळा येवून  गात असेल, बर्‍याच सुगरण पक्षांनी पिल्लांसाठी सुंदर घरटी विणली असतील, चंद्रकोर तर कितीतरी वेळा झाडाच्या जाळीत लपली असेल….

असे सगळ्यांच्या सोबतीत ऐश्वर्यसंपन्न आयुष्य घालवलेल्या झाडासाठी आता आपण थकलो आहोत…

शिणलो आहोत हे स्विकारणे किती कठिण झाले असेल…

 

पक्षांच्याही लक्षात आले आहे की झाड दमलेय….

म्हणून तर विचारताहेत….

की शिणलेल्या झाडाला एकटे वाटू नये म्हणून येताहेत…

 

“नाही” पण म्हणता येत नाही आणि “हो” पण…

 

अश्या वेळी मौनाची सोबत असते….

थोडीशी घुसमट…

पण शब्दाशिवाय पोहोचते बरेच काही….

अशी ही मौनाची भाषा…

आणि कवितेचा शेवट तर….

 

समर्पणाचा…

मनाला चटका लावणारा…..

 

यानिमित्ताने आठवत राहिले ते स्वतःहून स्विकारलेलेले मौन….

 

पटत नसले तरी त्या क्षणी वाद वाढू नये म्हणून,

खूप आनंदाच्या वेळी शब्दातून व्यक्त होता येत नाही तेव्हा,

जंगलातील नीरव शांततेत,

कधीतरी स्वतः लाच चाचपडत असतांना….

 

माणसामाणसातील नात्यांमध्ये तर

कधीतरी  समोरच्याला समजून घेतांना

एकाने थांबणे पण गरजेचे….

.

.

.

.

 

यानिमित्ताने एक प्रसंग आठवला. तरुण मंडळींनी गावातल्या एका आजीबाईंना विचारले की

 

 इतकी वर्ष तुम्ही आनंदाने कसा संसार केला?

त्या म्हणाल्या “तो आग झाला की मी पाणी व्हते…”

 

गम्मत म्हणजे एका तरुण मित्राने लगेच प्रतिसाद दिला आणि म्हणाला

 “म्हणून तर ती राजाची राणी होते “

 

……असे पाणी होतांना मौनाची सोबत नक्की होत असेल का? 

खरं तर मला असे वाटते की ठरवून धारण केलेल्या मौनाची ताकद असतेच असते पण कधी व्यक्त व्हायचे आणि कधी मौनात रहायचे हे  समजले की आयुष्य मात्र नक्की सोपे, सहज होते.

लेखक : अज्ञात 

संग्राहक :श्री. अमोल केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, 

kelkaramol.blogspot.com  

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कुणाच्या खांद्यावर… — भाग-१ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? जीवनरंग ❤️

कुणाच्या खांद्यावर… — भाग-१ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

आईला थोडे बरे नाही हे समजल्यावर आरती लंडनहून नोकरीतून रजा काढून मुंबईला आली.

आरतीच्या आई रजनीताई  म्हणजे एक बडे प्रस्थ होते… दिसायला सुंदर,शिकलेल्या,त्या काळात कॉलेजमध्ये नोकरी करणाऱ्या. त्यांचे यजमान रमेशराव सुद्धा खूप श्रीमंत घराण्यातले. गावाकडे पिढीजात जमिनी वाडे असे  वैभव असलेले. 

एका समारंभात त्यांनी रजनीला  बघितलं आणि मागणी घालून ही मध्यमवर्गातली मुलगी करून घेतली. रजनी होतीच कर्तृत्ववान. मध्यमवर्गातून आल्यावर हे सासरचे वैभव बघून डोळे दिपले नाहीत तरच नवल. 

आपल्या पगारातून रजनी वाट्टेल तसा खूप खर्च करत असे. कोणीही विचारणारे नाही आणि  रमेशरावांना एवढा वेळही नसे. बँकेत शिल्लक टाकावी, सेव्हिंग करावे असं रजनीला कधी वाटलंच नाही. 

रजनी स्वार्थी होती आणि तिचा हा स्वभाव तिची आई जाणून होती. रजनीचे आपल्या आईवडिलांशी तरी कुठे पटायचे ? मग भावंडे तर दूर राहिली… .. आणि श्रीमंत सासर मिळाल्यावर तर रजनीने आपल्या बहिणी आणि भावाशी संबंधच ठेवले नाहीत. भारी साड्या, दागिने, पार्ट्या,  सतत श्रीमंत मैत्रिणीत वावरणे हे रजनीचे आयुष्य बनून गेले. कॉलेजची नोकरी झाली की तिला वेळच वेळ असे रिकामा.

लागोपाठ तीन मुली झाल्या तरीही रजनीने नोकरी न सोडता त्यांना छान वाढवलं.  घरात खूप नोकरचाकर, हाताशी भरपूर पैसा, रजनीला काहीच जड गेलं नाही. 

रजनीबाईनी मुलींना चांगलं वाढवलं. मुली छान शिकल्या. दरम्यान लहानश्या आजाराने रमेशराव अचानकच वारले. रजनीने तिन्ही मुलींची लग्ने थाटात करून दिली. दोघी लगेचच परदेशात गेल्या.  

रजनीताईना आता एकाकीपण जाणवायला लागले   .त्यांची नोकरीही संपली होती  .  खाजगी कॉलेजात नोकरी असल्याने त्यांना  पेन्शन पण नव्हते. गावाकडचे वाडे जमिनी भाऊबंदकीत हातातून निसटून गेल्या. पण तरीही रमेशरावांनी ठेवलेलं काही कमी नव्हतं.

दरम्यान बऱ्याच गोष्टी घडल्या . रजनीताईंची मोठी मुलगी अलका अगदी आईसारखीच होती स्वभावाने.तिला एक  मुलगा झाला . तिचा नवरा अचानकच एक्सीडेंटमध्ये गेला. अलकाने लगेचच कोणताही विचार न करता , आईलाही न विचारता आपला आठ वर्षाचा मुलगा चिन्मय आईकडे आणून टाकला.

”आई , मी दुसरं लग्न करतेय आणि तो आपल्या जातीचा नाहीये. तो चिन्मयला संभाळायला तयार नाही.

मी त्याच्याबरोबर दुबईला जाणार आहे.

रजनीताईंची संमती आहे का नाही हे न विचारताच अलका आली तशी निघून गेली. बिचारा चिन्मय घाबरून आजीकडे बघत राहिला. रजनीताईंचं मन द्रवलं. त्यांना या पोरक्या मुलाचं फार वाईट वाटलं.त्यांनी चिन्मयला पोटाशी धरलं आणि म्हणाल्या,

”  घाबरू नको चिन्मय. मी आहे ना? तू रहा माझ्याकडे हं. आपण चांगल्या शाळेत  घालू तुला.” रजनीबाईनी चिन्मयला चांगल्या नावाजलेल्या शाळेत घातलं. 

अलकाला फोन केला आणि सांगितलं. “ हे बघ अलका.तुझा मुलगा ही तुझी जबाबदारी आहे. त्याच्या खर्चाचे, फीचे सगळे पैसे जर देणार नसलीस तर त्याला मी मुळीच संभाळणार नाही. आई आहेस का कोण आहेस ग तू? माझी इतका भार सहन करण्याची ऐपत आणि ताकदही नाही. जर वर्षभराचे पैसे चार दिवसात जमा झाले नाहीत तर मी त्याला अजिबात संभाळणार नाही. येऊन घेऊन जा तुझा मुलगा.” 

चिडचिड करत अलकाने मुकाट्याने पैसे  रजनीताईंच्या खात्यात जमा केले.

ती कधीही बिचाऱ्या चिन्मयला भेटायलाही यायची नाही. 

बाकीच्या तीन मुलींपैकी एकटी आरती सहृदय आणि शहाणी होती.रजनीताईंशी तिचं चांगलं पटे. या सगळ्या गोष्टी रजनीताई आरतीच्या कानावर घालत. 

मधली अमला तर असून नसल्यासारखी होती.    

जमीनदारांच्या घरी तिला दिली होती खरी, पण तिच्या हातात काडीची सत्ता नव्हती.पार कर्नाटकातील ते खेडं आणि सतत देवधर्म कुलाचार यातच बुडलेली.दोनदोन वर्षं तिला माहेरी यायला जमायचं नाही. आपल्या आईचं बहिणींचं काय चाललंय याची तिला दखलही नसे. ती कधी माहेरीही यायची नाही आणि कोणाला आपल्या घरी बोलवायचीही नाही.  

नशिबाने चिन्मय बुद्धीने चांगला निघाला.  कोणाचाही आधार नसताना तो चांगल्यापैकी मार्क्स मिळवून पास होत गेला.

रजनीताई आता थोड्या थकायला लागल्या. चिन्मयला नाही म्हटलं तरी आजीचं प्रेम लागलं होतं. तिच्याशिवाय त्याला जगात होतंच कोण?

पण सतत  आजी जवळ राहून चिन्मय एकलकोंडा झाला होता.ना त्याचे मित्र घरी येत,ना तो कधी त्यांच्याकडे खेळायला जात असे. 

चिन्मय आता   एम कॉम झाला.त्याला बँकेत नोकरीही लागली.   रजनीताईंनी त्याला जवळ बसवून सांगितलं,”हे बघ चिन्मय.तू आता मिळवायला लागलास .आता तुझ्या खर्चाचे  पैसे मला दरमहा देत जा. 

निमूटपणे चिन्मय आजीला पैसे देऊ लागला.कोणालाही विरोध करण्याची ताकद त्याच्यात निर्माणच झाली नव्हती. सतत त्याच्या मनात एक  कमीपणाची भावना असे. 

सगळ्या बहिणींनी आपली आई म्हणजे जणू चिन्मयचीच जबाबदारी असेच गृहीत धरले होते.

बिचाऱ्या चिन्मयला स्वतःचे आयुष्यच उरले नव्हते.सतत आजीला डॉक्टरकडे ने, तिची औषधे आण, तिला फिरायला ने हेच आयुष्य झाले चिन्मयचे.

ना कधी त्याच्या आईने त्याला फोन केला की कधी कौतुकाने पैसे पाठवले. बँकेत मान खाली घालून काम करणे आणि घर गाठणे हेच आयुष्य झाले होते चिन्मयचे.

आरती पुण्यात आली तेव्हा  माहेरी,रजनीताईंकडेच उतरली होती.

त्यांना बरं नाही म्हणून तिला त्यांनी बोलावून घेतलं खरं पण चांगल्या मस्त तर होत्या त्या.

आरतीला सगळं चित्र लख्ख दिसलं.

बिचारा चिन्मय आजीकडे भरडून निघतोय हेही तिला दिसलं.दोन दोन मिनिटांनी त्याला हाका मारणारी आणि राबवून घेणारी आपलीच आई तिने बघितली. 

“चिन्मय, उद्या माझी  डॉक्टरकडे अपॉइंटमेंट आहे,  लक्षात आहे ना?लवकर ये ऑफिसमधून.नंतर मग लगेच ते सांगतील त्या तपासण्याही करून टाकू.”

चिन्मयच्या कपाळावरच्या आठ्या आरतीला बरंच काही सांगून गेल्या.

आरती तेव्हा काही बोलली नाही.

नंतर चिन्मयला म्हणाली,”उद्या माझ्याबरोबर बाहेर चल चिन्मय.उद्या रविवार म्हणजे सुट्टी असेल ना तुला?आई, तू उद्या आपली जेवून घे ग.मी आणि चिन्मय बाहेर जाऊन कामे करून जेवूनच येऊ .”

रजनी ताईंच्या कुरकुरीकडे लक्षच न देता आरती चिन्मयला घेऊन बाहेर पडली.

एका छानशा हॉटेलमध्ये आरती चिन्मयला घेऊन गेली.”तुला काय आवडतं ते मागव चिन्मय.मला हल्ली फारसं तुम्हा नव्या मुलांना काय आवडतं ते समजत नाही”आरती हसत हसत म्हणाली. 

चिन्मय हळूहळू  आरती मावशी जवळ मोकळा होत गेला. या भिडस्त आणि पडखाऊ मुलाचं तिला फार वाईट वाटलं.

चिन्मय,कोणी मैत्रीण मिळालीय की नाही,  बँकेत किंवा आणखी कुठे?”

आरतीने गमतीने विचारलं.  मावशी, आहे ग माझ्याच बँकेतली  विदिशा माझी चांगली मैत्रीण. पणअजून लग्नाचं विचारलं नाही मी तिला.कोणत्या तोंडानं विचारू ग?

आधीच आजी सतत म्हणत असते, “ बघ, तुझी आई तुला टाकून गेली. मी सांभाळलं नसतं तर काय केलं असतंस रे तू? कठीणच होतं बरं बाबा तुझं.” 

– क्रमशः भाग पहिला 

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “सकारात्मकता : एक कला…” ☆ श्री जगदीश काबरे ☆

श्री जगदीश काबरे

☆ “सकारात्मकता : एक कला☆ श्री जगदीश काबरे ☆

पावसाळ्याचे दिवस होते. संध्याकाळी एका उद्यानात फिरायला गेलो होतो. तिथे दोन मैत्रिणींची मुलं झाडावर चढलेली दिसली. मैत्रिणीच्या झाडाखालीच गप्पा मारत बसल्या होत्या. मुलं झाडावर उंच पोहचल्यावर अचानक जोराचं वादळ आलं. ते झाड वाऱ्यानं गदागदा हालू लागलं.

पहिल्या मुलाची आई तिच्या मुलाला म्हणाली, “अरे, पडशील !”

तर दुसऱ्या मुलाची आई म्हणाली, ” सांभाळ, फांदी घट्ट पकडून ठेव.”

खरंतर दोन्ही मैत्रिणींना आपापल्या मुलांना पडण्यापासून वाचवायचं होतं. परंतु त्यांच्या मुखातून निघालेल्या संदेशांमध्ये मात्र खूप फरक होता. परिणामी पहिल्या स्त्रीचा मुलगा घाबरून फांदीवरून घसरून खाली पडला. मात्र दुसऱ्या स्त्रीच्या मुलानं फांदी घट्ट धरून ठेवली आणि तो अलगद उतरून खाली आला.

काय बरं असेल यामागचं कारण? ….. 

…. पहिल्या स्त्रीच्या शब्दामध्ये नकारात्मकता होती. जी तिच्या मुलानं ग्रहण केली आणि तो पडला.

…. या उलट दुसऱ्या स्त्रीनं उच्चारलेल्या शब्दांमध्ये सकारात्मकता असल्याने तिच्या मुलानं ती ग्रहण केली आणि तो फांदीवर आपले पाय घट्ट रोवून बसला आणि नंतर सावकाश खाली आला. 

…… म्हणून सकारात्मक वागणं, बोलणं ही एक कला आहे आणि ती प्रत्येक पालकाने आत्मसात करायला हवी.

© श्री जगदीश काबरे

मो ९९२०१९७६८०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ आई … ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

डॉ अभिजीत सोनवणे

© doctorforbeggars 

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☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ आई …  ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे

साधारण चार वर्षांपूर्वी COVID लॉकडाऊन काळात मला भेटलेली एक माऊली… 

स्वतःचं सर्व आयुष्य उध्वस्त झालेलं… 

मुलं सोडून गेलेली… 

आयुष्य संपवायच्या विचारात असलेली…

 

त्याच टप्प्यावर एक अपंग मुलगा तिच्या आयुष्यात येतो… 

ती त्याचं मातृत्व स्वीकारते…. 

70 व्या वर्षी ती पुन्हा आई होते… 

त्याच्या आनंदासाठी ती कोणत्याही थराला जावू शकते… 

….. फक्त एक आईच हे करू शकते…. !!! 

 

हा सर्व भावपूर्ण प्रसंग मी माझ्या शब्दात ” आई ”  या शीर्षकाखाली मांडला होता ! 

 

श्री. व सौ. भाविका काळे हे माझे स्नेही… त्यांचा मुलगा विवस्वत काळे… ! 

कोवळ्या वयातच या मुलाने दिग्दर्शक होण्याचे स्वप्न पाहिले… ! 

पहिल्यांदा हा मला भेटला, त्यावेळी मी त्याला विचारले, “ बाळा आयुष्यात तुला पुढे काय करायचंय ?” 

 

“ समाजाला एक सकारात्मक दिशा मिळेल… नुकत्याच उमलणाऱ्या आमच्यासारख्या तरुणांना एक आशा मिळेल; असे चित्रपट मला पुढे बनवायचे आहेत काका …  मला व्ही. शांताराम सर, सत्यजित रे साहेब यांच्यासारखा दिग्दर्शक व्हायचंय… “ .. ठाम स्वरात विवस्वत बोलत होता. 

…. हा मुलगा जेमतेम १८  वर्षाचा सुद्धा नसेल… 

 

अठरा वर्षांचा असतानाचा मला मी आठवलो … 

शाळा / कॉलेज बुडवून, दे धमाल हाणामारीचे पिक्चर मी मित्रांसोबत पाहायचो… 

एकतर डोअरकीपर आमचा मित्र असायचा… आमच्या भीतीने तो तिकीट नसतानाही गप गुमान आम्हाला आत सोडायचा… 

एखाद्या अनोळखी डोअरकीपरने आत सोडायला आम्हाला अटकाव केला तर, चित्रपटाआधीच आमच्यातल्या प्रत्येकाच्या अंगात बच्चन… मिथुन… धर्मेंद्र यायचा… ! 

… मग त्या नवीन डोअर कीपरचा आम्ही “चुथडा” करायचो… ! 

 

मी साधारण त्यावेळी बारावीत असेन… 

मला कोणतीही दिशा नव्हती… ! 

वडील पोलीस डिपार्टमेंट मध्ये…. वडिलांचे मित्र म्हणजे लय मोठे अधिकारी… 

ते घरी यायचे आणि मला विचारायचे, “ बाळा आयुष्यात पुढे तू कोण होणार आहेस… ? “

मी नव्या नवरीगत खाली मान घालून उत्तर द्यायचो… “ बच्चन, मिथुन किंवा धर्मेंद्र… ! “

….. ते मोठे सायेब गेल्यावर, बापाचा लय मार खात असे मी… ! 

 

आम्हाला … म्हणजे आमच्यासारख्या मुलांना एक सकारात्मक दिशा मिळेल… नुकत्याच उमलणाऱ्या, आमच्यासारख्या तरुणांना एक आशा दिसेल, असे आमच्यापुढे कोणीच रोल मॉडेल नव्हते… किंवा असतील तर त्यांना पाहण्याइतपत … समजण्याइतपत आमची अक्कल आणि लायकी नव्हती…  

 

‘ अशा मोठ्या लोकांना पहा रे… समजून घ्या रे बाळांनो… ‘   हे प्रेमानं सांगणारे लोकही आम्हाला त्यावेळी भेटले नाहीत… ! 

मला फक्त आठवतात… चुकलो म्हणून मुस्काटावर खणखणीत मारलेला हात…. आणि ढुंगणावर बसलेली लाथ… !

 

…. “हात” आणि “लाथ” यापेक्षा आमच्यासारख्या नालायक मुलांशी, थोडीशी जर कोणी केली असती “बात”….  तर आम्ही बी घडलो असतो… ! 

… पण नाही… आम्ही बिघडलो…. ! 

 

“ सर…” विवस्वत ने हाक मारली आणि मी डोळे उघडून, भूतकाळातून पुन्हा वर्तमान काळात आलो…!

“ सर मला तुमचा “आई” हा अनुभव आवडला आहे…  आणि मी त्यावर शॉर्ट फिल्म करू इच्छितो, आयुष्याची सुरुवात … ध्येयाची सुरुवात मी आपल्यापासून करू इच्छितो… आपल्या शब्दांनी एक सकारात्मक ऊर्जा निर्माण होईल समाजामध्ये…आपण मला शॉर्ट फिल्म करायची परवानगी द्याल काय ?” 

 

डोळे उघडून मी जागा झालो…  

…. जगाने “ना लायक” ठरवलेल्या माझ्यासारख्या एका मुलाला, विवस्वत नावाच्या दुसऱ्या एका “लायक” मुलाने दिलेली ही सलामी होती…

माझ्या डोळ्यात पाणी होतं… !!! 

 

मी त्याला म्हणालो,  “ ए भावा, समाजाला दिशा किंवा तरुणांची आशा म्हणून माझे शब्द किती योग्य ठरतील मला माहीत नाही रे… पण तू आयुष्याची सुरूवात माझ्या सारख्या नालायक माणसापासून करू नकोस… समाजात खूप लायक आणि नायक लोक आहेत… तू त्यांची एखादी कथा किंवा अनुभव घे ना..!”

 

“ सर, प्लीज तुम्ही लायक आहात किंवा नालायक हे समाजाला ठरवू द्यात… विवस्वत सारख्या मुलांना ठरवू द्यात… तुम्ही जजमेंट नका देऊ…”  सौ भाविकाताई काळे, विवस्वतची आई बोलली. 

…. यापुढे परमिशन देण्या आणि घेण्याचा प्रश्नच नव्हता… ! 

 

यानंतर या छोट्या मुलाने, “आई” नावाने एक शॉर्ट फिल्म बनवली… 

ती जगभर गाजली… 

माझ्या शब्दांना त्याने चित्ररूप दिले… ! 

या शॉर्ट फिल्मची लिंक खाली देत आहे…

…… शॉर्ट फिल्म आवडली, तर त्याचे सर्व श्रेय विवस्वतचे… ! … माझा रोल करणाऱ्या श्रीपाद पानसे यांचे… 

… आजीचा रोल करणाऱ्या श्रीमती आरती गोगटे यांचे… 

https://youtu.be/zhm6g-X2IoQ?si=J-1bGa6aAKZlXaiv

नाहीच आवडली फिल्म, तर सर्व शिव्या या  ना – लायकाच्या पदरात घाला… ! 

मी पदर पसरून उभा आहे माऊली… !!! 

आपला;

डॉ अभिजित सोनवणे

डाॕक्टर फाॕर बेगर्स, सोहम ट्रस्ट, पुणे

मो : 9822267357  ईमेल :  [email protected],

वेबसाइट :  www.sohamtrust.com  

Facebook : SOHAM TRUST

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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