(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी
इस साधना में – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे
ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “हरो जन की पीर…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 203 ☆ हरो जन की पीर… ☆
शोर गुल से नींद टूट गयी, आँखें मलते हुए ज्ञानचंद्र जी चल दिये कि चलो भई लग जाओ अपने काम पर। इनकी विशेषता है कि बिना ज्ञान दान दिए इनको भोजन हज़म नहीं होता। ये सत्य है कि जब हाजमा खराब हो तो पूरे माहौल को बिगड़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगता।
इधर ध्यानचंद्र जी तो अपने नामारूप हैं, ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर ध्यान योग किए बिना उन्हें चैन कहाँ। इतना शोर उनके ध्यान को भंग करने के लिए पर्याप्त था, वे योगासन छोड़कर ऐसे उठे मानो इंद्र ने इंद्रासन छोड़ा हो।
दोनों के प्रिय समयलाल जी की माँ फुरसत देवी आज पूरे सौ वर्ष की हो गयीं थी, जिससे सुबह से ही अखंड मानस पाठ की तैयारी चल रही थी इधर साधना देवी भी मगन होकर सासू माँ के जी हजूरी में जीवन बिता देने की बात छेड़ बैठीं थीं।
आजकल तो रात बारह बजे से ही जन्मदिन मनाने लगते हैं, सो इनका भी मना, केक काटा गया, फेसबुक पर फ़ोटो अपलोड हुई और लाइक का जो दौर चला वो चलता ही जा रहा है एक तो शुभ सूचना दूसरा समयलाल के मोबाइल प्रेमी बेटे बबलू ने सारे दोस्तों को टैग जो कर दिया था।
इनके यहाँ तो मेहमान बारह बजे से आने लगेगें, हाँ भाई पड़ोस का भी पूरे दो दिन का चूल न्यौता है। ज्ञानचंद्र जी मुखिया बन कर सबको समझाइश देने लगे तो ध्यानचंद्र भी कहाँ चूकने वाले थे उन्होंने पूरे अधिकार से कहा ओ बबलू बेटा जरा कड़क चाय तो लाओ और हाँ वो जो रात में मठरी और कचौड़ी बनी है उसे भी ले आना, ससुरी महक भी ऐसी थी कि रात भर सो नहीं पाए और ध्यान तो लगवय नहीं कीन्ह।
ज्ञानचंद्र जी ने भी आराम से बैठते हुए कहा अरे भाई जो लोग पूजा में संकल्प लेगें वो केवल फलाहारी ही करें। समयलाल तुम तो केवल पूजा में बैठना सारा काम हम लोग देख लेगें आखिर पड़ोसी होते किसलिए हैं।
अब ये दोनों साठा तो पाठा की कहावत को चरितार्थ करते हुए बाहर पड़े तखत पर बैठ गए। बड़ी मुश्किल से एक बजे दोपहर में गए और पंद्रह मिनट में वापस आ कर फिर से आसन जमा कर बैठे ही थे कि बबलू आया उसने कहा चाचा जी खाना खा लीजिए।
अरे पहले बच्चों को खिलाओ और हाँ कन्या का मुहँ जरूर जुठला देना, बिना इनकी पूजा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता समझाते हुए ज्ञानचंद्र ने कहा।
ध्यानचंद्र ने माथे में बल लाते हुए कहा अब तो नवरात्रि में नौ कन्या भी नहीं मिलती, छोटे शहरों में लोग भेज भी देते हैं कन्या पूजन हेतु अष्टमी व नवमी के दिन, बाकी यहाँ तो लगता है मूर्ति रखनी पड़ेगी कन्याओं की।
अरे सब कलयुग की महिमा है, धार्मिक होते हुए मगन लाल जी ने कहा जो बड़े ध्यान से दोनों की बातें ऐसे सुन रहे थे जैसे कथा पाठ चल रहा हो।
पंडित जी का ध्यान भी इन्हीं बुजुर्गों की तरफ था। उन्होंने और जोर- जोर से मंत्र जाप शुरू कर दिया और पूरी ताकत के साथ माइक से सबको संबोधित करते हुए कहा कि सब लोग यहाँ आकर प्रणाम करें व्यास पीठ को, अपनी बात को बल देने हेतु कुछ संस्कृत में श्लोक भी पढ़ दिए, सबने भी ऐसे व्यक्त किया जैसे अर्थ समझ में आ गया हो पर सच्ची बात तो यही है कि ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति बस यही अच्छा लगता है क्योंकि इतना अनुभव आजतक के सत्संग से हुआ है कि इसके बाद ही कार्यक्रम पूर्णता को प्राप्त होता है फिर आरती होकर प्रसाद मिल जाता है।
सबके के साथ ये दोनों बंधु भी पहुँचे जो सुबह से ही सच्चे पड़ोसी धर्म निभा रहे थे, इनके आभामंडल की रौनक तो देखते ही बन रही थी अब तो कई दिनों तक समयलाल के यहाँ ही इनका बसेरा होगा जब तक कि चाय के साथ मिठाई व नमकीन मिलना बंद नहीं होगा।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना साथ कौन चलें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 12 – साथ कौन चलें☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
कल रात हरिवंशराय बच्चन सपने में आए थे। पूछा – बेटा तुम्हें हिंदी साहित्य में कोई रुचि है भी या नहीं या यूँ ही लिखते चले जा रहे हो। मैंने कहा – आपने हिंदी साहित्य तो जरूर रचा लेकिन बेरोजगारी का मजा नहीं चखा। अब चूंकि हमारे पास नौकरी नहीं है इसलिए कोरा कागज काला कर डालने वाला टाइमपास करते हैं। हर कोई यहाँ कोरे को काला करने में लगा है। हम भी भीड़ में शामिल हो गए। इन्हीं काला करने वालों में किसी एकाध को रोजगार न सही गोरा-चिट्टा पुरस्कार तो मिल जाता है। हम भी उसी आस में है। मेरी बातें सुन उन्होंने कहा – बेटा इस तरह टाइमपास करोगे तो काम नहीं बनेगा। जानते नहीं मैंने हिंदी साहित्य को एक से बढ़कर एक रचना दी हैं। कम से कम उसका तो अध्ययन करो।
मैंने कान पकड़ते हुए कहा – बच्चन जी, आप ऐसा न कहें। मैं आपका बड़ा प्रशंसक हूँ। आपका लिखा गीत – मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है, मेरा सबसे पसंदीदा गीत है। मैं आपकी साहित्य साधना को ऐसे-कैसे अनदेखा कर सकता हूँ। न जाने बच्चन जी को क्या हुआ पता नहीं, वे एकदम से उखड़ गए। उन्होंने कहा – बेटा! मैंने कुछ फिल्मी गीत जरूर लिखे थे, लेकिन वे साहित्य के लिए नहीं रोजी रोटी कमाने के लिए थे। तुमने कभी मधुशाला के बारे में सुना है। वह होता है सच्चा साहित्य। उसे पढ़ते तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती। मैंने आश्चर्य से कहा – मधुशाला! उसे तो मैं क्या आज की सभी पीढ़ी पसंद करती है। उसकी बढ़ती कीमतों की परवाह किए बिना उसे खरीदने के लिए हम मरे जाते हैं। बच्चन जी ने कहा – मेरा पाला भी कैसे मूर्ख से पड़ गया समझ नहीं आता। मैं आन कह रहा हूँ तो तुम कान सुन रहे हो। मैं मधुशाला पुस्तक की बात कर रहा हूँ। जिसके लिए मैं दुनिया भर में जाना जाता हूँ। मैंने स्वयं की गलती सुधारी और कहा – क्षमा चाहता हूँ। मधुशाला का मतलब पीने वाली जगह से लगा बैठा। मैंने उसे ठीक से नहीं पढ़ा है, लेकिन घर के पास शराब का एक ठेका है, उसका नजारा मेरी आँखों में अभी भी समाया हुआ है। मैं समझता हूँ आपने उसमें जो बातें लिखी होंगी उसी को मैंने ठेके पास ठहरकर व्यवहार में प्राप्त किया है।
बच्चन जी का गुस्सा अब सातवें आसमान पर था। कहने लगे – तुम्हारा यही व्यवहार तुम्हें ले डूबेगा। तुम्हारी अज्ञानता और मूर्खता तुम्हें संघर्ष करने के लिए मजबूर कर देगी। तब तुम्हें मेरी अग्निपथ कविता की याद हो आएगी। मैंने कहा – यह कविता तो मुझे मुजबानी याद है। कविता कुछ इस प्रकार है –
बेरोजगारी हों भली खड़ी, हों घनी हों बड़ी, एक रिक्त पद भी,
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – बदलते समय में साहित्य में लोकतांत्रिक मूल्य।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 290 ☆
आलेख – बदलते समय में साहित्य में लोकतांत्रिक मूल्य
लोकतंत्र एक नैसर्गिक मानवीय मूल्य होता है । इसलिए, वसुधैव कुटुम्बकम् की वैचारिक उद्घोषणा करने वाले वैदिक भारतीय साहित्य में लोकतांत्रिक मूल्य खोजना नहीं पड़ता, यह अव्यक्त रूप से भारतीय साहित्य में समाहित है. वैज्ञानिक अनुसंधानो, विशेष रूप से संचार क्रांति जनसंचार (मीडिया एवं पत्रकारिता) एवं सूचना प्राद्योगिकी (इलेक्ट्रानिक एवं सोशल मीडिया) तथा आवागमन के संसाधनो के विकास ने तथा विभिन्न देशो की अर्थव्यवस्था की परस्पर प्रत्यक्ष व परोक्ष निर्भरता ने इस सूत्र वाक्य को आज मूर्त स्वरूप दे दिया है कि दुनिया एक समदर्शी गांव है. हम भूमण्डलीकरण के युग में जी रहे हैं. सारा विश्व कम्प्यूटर चिप और बिट में सिमट गया है. लेखन, प्रकाशन, पठन पाठन में नई प्रौद्योगिकी की दस्तक से आमूल परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं. नई पीढ़ी अब बिना कलम कागज के कम्प्यूटर पर ही लिख रही है, प्रकाशित हो रही है, और पढ़ी जा रही है. ब्लाग तथा सोशल मीडीया वैश्विक पहुंच के साथ वैचारिक अभिव्यक्ति के सहज, सस्ते, सर्वसुलभ, त्वरित साधन बन चुके हैं. ये संसाधन स्वसंपादित हैं, अतः इस माध्यम से प्रस्तुति में मूल्यनिष्ठा अति आवश्यक है, सामाजिक व्यवस्था के लिये यह वैज्ञानिक उपलब्धि एक चुनौती बन चुकी है. सामाजिक बदलाव में सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है.
लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई क्योकि पत्रकारिता वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है, आम आदमी की नई प्रौद्योगिकी तक पहुंच और इसकी त्वरित स्वसंपादित प्रसारण क्षमता के चलते ब्लाग जगत व सोशल मीडिया को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है.
वैश्विक स्तर पर पिछले कुछ समय में कई सफल जन आंदोलन सोशल मीडिया के माध्यम से ही खड़े हुये हैं. कई फिल्मो में भी सोशल मीडिया के द्वारा जनआंदोलन खड़े करते दिखाये गये हैं. हमारे देश में भी बाबा रामदेव, अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथा दिल्ली के नृशंस सामूहिक बलात्कार के विरुद्ध बिना बंद, तोड़फोड़ या आगजनी के चलाया गया जन आंदोलन, और उसे मिले जन समर्थन के कारण सरकार को विवश होकर उसके सम्मुख किसी हद तक झुकना पड़ा. इन आंदोलनो में विशेष रुप से नई पीढ़ी ने इंटरनेट, मोबाइल एस एम एस और मिस्डकाल के द्वारा अपना समर्थन व्यक्त किया. मूल्यनिष्ठा के अभाव में ये त्वरित प्रसारण के नये संसाधन अराजकता भी फैला सकते हैं, हमने देखा है कि किस तरह कुछ समय पहले फेसबुक के जरिये पूर्वोत्तर के लोगो पर अत्याचार की झूठी खबर से दक्षिण भारत से उनका सामूहिक पलायन होने लगा था. स्वसंपादन की सोशल मीडिया की शक्ति उपयोगकर्ताओ से मूल्यनिष्ठा व परिपक्वता की अपेक्षा रखती है. समय आ गया है कि फेक आई डी के जरिये सनसनी फैलाने के इलेक्ट्रानिक उपद्रव से बचने के लिये इंटरनेट आई डी का पंजियन वास्तविक पहचान के जरिये करने के लिये कदम उठाये जावें.
आज जनसंचार माध्यमो से सूचना के साथ ही साहित्य की अभिव्यक्ति भी हो रही है. साहित्य समय सापेक्ष होता है. साहित्य की इसी सामयिक अभिव्यक्ति को आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. आधुनिक तकनीक की भाषा में कहें तो जिस तरह डैस्कटाप, लैपटाप, आईपैड, स्मार्ट फोन विभिन्न हार्डवेयर हैं जो मूल रूप से इंटरनेट के संवाहक हैं एवं साफ्टवेयर से संचालित हैं. जनसामान्य की विभिन्न आवश्यकताओ की सुविधा हेतु इन माध्यमो का उपयोग हो रहा है. कुछ इसी तरह साहित्य की विभिन्न विधायें कविता, कहानी, नाटक, वैचारिक लेख, व्यंग, गल्प आदि शिल्प के विभिन्न हार्डवेयर हैं, मूल साफ्टवेयर संवेदना है, जो इन साहित्यिक विधाओ में रचनाकार की लेखकीय विवशता के चलते अभिव्यक्त होती है. परिवेश व समाज का रचनाकार के मन पर पड़ने प्रभाव ही है, जो रचना के रूप में जन्म लेता है. लेखन की सारी विधायें इंटरनेट की तरह भावनाओ तथा संवेदना की संवाहक हैं. साहित्यकार जन सामान्य की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है. बहुत से ऐसे दृश्य जिन्हें देखकर भी लोग अनदेखा कर देते हैं, रचनाकार के मन के कैमरे में कैद हो जाते है. फिर वैचारिक मंथन की प्रसव पीड़ा के बाद कविता के भाव, कहानी की काल्पनिकता, नाटक की निपुणता, लेख की ताकत और व्यंग में तीक्ष्णता के साथ एक क्षमतावान रचना लिखी जाती है. जब यह रचना पाठक पढ़ता है तो प्रत्येक पाठक के हृदय पटल पर उसके स्वयं के अनुभवो एवं संवेदनात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग चित्र संप्रेषित होते हैं.
वर्तमान में विश्व में आतंकवाद, देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद, सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण आदि के सूक्ष्म रूप में हिंसा की मनोवृत्ति समाज में तेज़ी से फैलती जा रही है, यह दशा हमारी शिक्षा, समाज में नैतिक मूल्यो के हृास, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियो और हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओ व आर्थिक प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, साथ ही उन सभी प्रक्रियाओं को भी कठघरे में खड़ा कर देती है जिनका संबंध हमारे संवेदनात्मक जीवन से है. समाज से सद्भावना व संवेदना का विलुप्त होते जाना यांत्रिकता को जन्म दे रहा है. यही अनेक सामाजिक बुराईयो के पनपने का कारण है. स्त्री भ्रूण हत्या, नारी के प्रति बढ़ते अपराध, चरित्र में गिरावट, चिंतनीय हैं. हमारी सभी साहित्यिक विधाओं और कलाओ का औचित्य तभी है जब वे समाज के सम्मुख उपस्थित ऐसे ज्वलंत अनुत्तरित प्रश्नो के उत्तर खोजने का यत्न करती दिखें. समाज की परिस्थितियो की अवहेलना साहित्य और पत्रकारिता कर ही नही सकती. क्योकि साहित्यकार या पत्रकार का दायित्व है कि वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थितियों में भी समाज के लिये मार्ग प्रशस्त करे. समाज का नेतृत्व करने वालो को भी राह दिखाये.
राजनीतिज्ञो के पास अनुगामियो की भीड़ होती है पर वैचारिक दिशा दर्शन के लिये वह स्वयं साहित्य का अनुगामी होता है. साहित्यकार का दायित्व है और साहित्य की चुनौती होती है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार समाज के गुण अवगुणो का अध्ययन एवं विश्लेषण करने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा बना रहे और शाश्वत तथ्यो का अन्वेषण कर उन्हें लोकप्रिय तरीके से समुचित विधा में प्रस्तुत कर समाज को उन्नति की ओर ले जाने का वैचारिक मार्ग बनाता रहे.समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व मीडिया व पत्रकारिता का ही है. इसके लिये साहित्यिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही नही, राजनेताओ को ऐसा करने के लिये अपनी लेखनी से विवश कर देने की क्षमता भी लोकतांत्रिक प्रणाली में पत्रकारिता के जरिये रचनाकार को सुलभ है.
प्राचीन शासन प्रणाली में यह कार्य राजगुरु, ॠषि व मनीषी करते थे.उन्हें राजा स्वयं सम्मान देता था. वे राजा के पथ दर्शक की भूमिका का निर्वाह करते थे.हमारे महान ग्रंथ ऐसे ही विचारको ने लिखे हैं जिनका महत्व शाश्वत है. समय के साथ बाद में कुछ राजाश्रित कवियो ने जब अपना यह मार्गदर्शी नैतिक दायित्व भुलाकर केवल राज स्तुति का कार्य संभाल लिया तो साहित्य को उन्हें भांड कहना पड़ा. उनकी रचनाओ ने भले ही उनको किंचित धन लाभ करवा दिया हो पर समय के साथ ऐसी लेखनी का साहित्यिक मूल्य स्थापित नही हो सका. कलम की ताकत तलवार की ताकत से सदा से बड़ी रही है.वीर रस के कवि राजसेनाओ का हिस्सा रह चुके हैं, यह तथ्य इस बात का उद्घोष करता है कि कलम के प्रभाव की उपेक्षा संभव नही. जिस समय में युद्ध ही राज धर्म बन गया था तब इस तरह की वीर रस की रचनायें हुई.जब विदेशी आक्रांताओ के द्वारा हमारी संस्कृति का दमन हो रहा था तब तुलसी हुये. भक्तिरस की रचनायें हुई. अकेली रामचरित मानस, भारत से दूर विदेशो में ले जाये गये मजदूरो को भी अपनी संस्कृति की जड़ो को पकड़े रखने का संसाधन बनी.
जैसे जैसे नई कम्प्यूटर साक्षर पीढ़ी बड़ी होगी, स्मार्ट सिटी बनेंगी, इंटरनेट और सस्ता होगा तथा आम लोगो तक इसकी पहुंच बढ़ेगी यह वर्चुएल लेखन और भी ज्यादा सशक्त होता जायेगा, एवं भविष्य में लेखन क्रांति का सूत्रधार बनेगा. युवाओ में बढ़ी कम्प्यूटर साक्षरता से उनके द्वारा देखे जा रहे ब्लाग के विषय युवा केंद्रित अधिक हैं.विज्ञापन, क्रय विक्रय, शैक्षिक विषयो के ब्लाग के साथ साथ स्वाभाविक रूप से जो मुक्ताकाश कम्प्यूटर और एंड्रायड मोबाईल, सोशल नेट्वर्किंग, चैटिंग, ट्विटिंग, ई-पेपर, ई-बुक, ई-लाइब्रेरी, स्मार्ट क्लास, ने सुलभ करवाया है, बाजारवाद ने उसके नगदीकरण के लिये इंटरनेट के स्वसंपादित स्वरूप का भरपूर दुरुपयोग किया है. मूल्यनिष्ठा के अभाव में हिट्स बटोरने हेतु उसमें सैक्स की वर्जना, सीमा मुक्त हो चली है. पिछले दिनो वैलेंटाइन डे के पक्ष विपक्ष में लिखे गये ब्लाग अखबारो की चर्चा में रहे.
प्रिंट मीडिया में चर्चित ब्लाग के विजिटर तेजी से बढ़ते हैं, और अखबार के पन्नो में ब्लाग तभी चर्चा में आता है जब उसमें कुछ विवादास्पद, कुछ चटपटी, बातें होती हैं, इस कारण अनेक लेखक गंभीर चिंतन से परे दिशाहीन होते भी दिखते हैं. हिंदी भाषा का कम्प्यूटर लेखन साहित्य की समृद्धि में बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में हैं, ज्यादातर हिंदी ब्लाग कवियों, लेखको, विचारको के सामूहिक या व्यक्तिगत ब्लाग हैं जो धारावाहिक किताब की तरह नित नयी वैचारिक सामग्री पाठको तक पहुंचा रहे हैं. पाडकास्टिंग तकनीक के जरिये आवाज एवं वीडियो के ब्लाग, मोबाइल के जरिये ब्लाग पर चित्र व वीडियो क्लिप अपलोड करने की नवीनतम तकनीको के प्रयोग तथा मोबाइल पर ही इंटरनेट के माध्यम से ब्लाग तक पहुंच पाने की क्षमता उपलब्ध हो जाने से इलेक्ट्रानिक लेखन और भी लोकप्रिय हो रहा है.
आज का लेखक और पत्रकार राजाश्रय से मुक्त कहीं अधिक स्वतंत्र है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार हमारे पास है. लेखन, प्रकाशन, व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन अधिक सुगम हैं. अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है. माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है. पर आज नई पीढ़ी में पठनीयता का तेजी हृास हुआ है. किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है. आज चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये.
पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की जाये. आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है, प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है.अखबारो में नये स्तंभ बनाये जा सकते हैं. यदि समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है, तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्यिक विधा की मान्यता दी जा सकती है? यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर रचनाओ की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे ? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं.
जो भी हो हमारा समय उस परिवर्तन का साक्षी है जब समाज में कुंठाये, रूढ़ियां, परिपाटियां टूट रही हैं. समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है, अतः हमारी पीढ़ी की चुनौती अधिक है. आज हम जितनी मूल्यनिष्ठा और गंभीरता से अपने साहित्यिक दायित्व में लोक मूल्यों का निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नाक रगड़ेंगे, गिड़गिड़ाएंगे…“।)
अभी अभी # 409 ⇒ नाक रगड़ेंगे, गिड़गिड़ाएंगे… श्री प्रदीप शर्मा
नाक रगड़ेंगे, गिड़गिड़ाएंगे, आपके कदमों में ही सर झुकाएंगे। केवल अनन्य प्रेम और शरणागति भाव में ही यह संभव है। बिना लगन और समर्पण के यह संभव नहीं। बच्चे बहुत छोटे होते हैं, और उतने ही छोटे उनके हाथ। लेकिन जब आप उनसे पूछते हैं, कित्ती चॉकलेट खाओगे, तो वे अपने दोनों छोटे छोटे हाथ आसमान में
फैला देते हैं, इत्ता। यानी उनकी चाह असीम है, अनंत है। इतना और जितना को कोई कभी नाप नहीं पाया। शायद इसकी शुरुआत कुछ कुछ ऐसी होती हो ;
तू ही तू है इन आँखों में
और नहीं कोई दूजा
तुझ को चाहा तुझ को सराहा
और तुझे ही पूजा
तेरे दर को मान के मंदिर
झुकते रहे हम जितना
कौन झुकेगा इतना
कौन झुकेगा इतना
हमने तुझको प्यार किया है जितना
कौन करेगा इतना ;
जब हममें संसारी भाव होता है, तो हम किसी के आगे झुकते नहीं, हमारा मान सम्मान, अहंकार, अस्मिता और स्वाभिमान सभी ताल ठोंककर मैदान में उतर जाते हैं, सीना तना, मस्तक ऊंचा और भौंहे भी तनी हुई।।
लेकिन मंदिर में पहुंचते ही हम एकदम भक्त बन जाते हैं, आठों अंगों सहित साष्टांग दंडवत करते हैं। इतने दीन हीन हो जाते हैं, कि हमें अपने सभी विषय विकार याद आ जाते हैं,
बाहर ज्ञान बांटने वाले, वहां अपने आप को मूरख और अज्ञानी कहने लगते हैं। झुककर आचमन लेते हैं, प्रसाद माथे पर लगाकर ग्रहण करते हैं और जैसे ही बाहर जाकर जूते पहन कार में बैठते हैं, अपने पुराने रंग में आ जाते हैं।
दोहरी जिंदगी का यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। हमारा असली रूप कौन सा होता है, मंदिर के अंदर वाला, अथवा मंदिर के बाहर जगत वाला। हम तो खैर जैसे भी हैं, अपने इन दोनों रूपों से भली भांति अवगत हैं, लेकिन समस्या तब खड़ी होती है, जब किसी महात्मा की परीक्षा की घड़ी सामने होती है।।
जिस तरह एक राजनेता लाखों प्रशंसकों की भीड़ में किसी अपराध में जेल जाता है, तो उसके चेहरे पर कोई पश्चाताप का भाव नहीं होता, क्योंकि वह और उसके प्रशंसक जानते हैं, सदा सत्य की ही विजय होती है। जमानत मिलने पर भी जश्न मनाया जाता है।
संत महात्मा तो ईश्वर के अवतार होते हैं। यह कलयुग है, ईश्वर सबकी परीक्षा लेता है। सच्चा संत और महात्मा वही, जो हर परीक्षा और संकट में मुस्कुराता रहे, और अपने परमात्मा का स्मरण करता रहे। सत्यमेव जयते। धर्म की हमेशा विजय हुई है।।
आप शायद मेरी बात को गंभीरता से ना लें, लेकिन हर सुबह, मैं अपने इष्ट के आगे, यानी उसके दरबार में, नाक रगड़ता हूं और गिड़गिड़ाता हूं और उसके कदमों में झुककर, जाने अनजाने अपने किए अपराधों के लिए क्षमा मांगता हूं।
घर बाहर का अंतर मिटाना ही सच्ची ईश्वर सेवा है। हो सकता है, धीरे धीरे अंदर बाहर का अंतर भी मिट जाए। ईश्वर नहीं चाहता, आप रोज़ मंदिर आओ और उसके आगे नाक रगड़ो, जहां हो वही उसे महसूस करो। उसका मात्र स्मरण ही सत्य का मार्ग प्रशस्त करेगा। अपने अंदर उसे महसूस करना ही चित्त शुद्धि का मार्ग है।
व्यर्थ बाबाओं के यहां भीड़ बढ़ाना, अपने कल्याण के लिए उनको माया में उलझाना ही है। जब उनकी भी उलझन बढ़ जाती है तो वे भी मुस्कुराते हुए, अपने लाखों अनुयायियों के बीच, उसके दर पर नाक रगड़कर अपनी नाक बचा लेते हैं।।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा –“नकचढ़ा देवांश”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 177 ☆
☆ बाल कथा – नकचढ़ा देवांश☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
देवांश की शैतानियां कम नहीं हो रही थी। वह कभी राजू को लंगड़ा कह कर चढ़ा दिया करता था, कभी गोपी को गेंडा हाथी कह देता था। सभी छात्र व शिक्षक उससे परेशान थे।
तभी योगेश सर को एक तरकीब सुझाई दी। इसलिए उन्होंने को देवांश को एक चुनौती दी।
“सरजी! मुझे देवांश कहते हैं, ” उसने कहा, “मुझे हर चुनौती स्वीकार है। इसमें क्या है? मैं इसे करके दिखा दूंगा, ” कहने को तो देवांश ने कह दिया। मगर, उसके लिए यह सब करना मुश्किल हो रहा था।
ऐसा कार्य उसने जीवन में कभी नहीं किया था। बहुत कोशिश करने के बाद भी वह उसे कर नहीं पा रहा था। तब योगेश सर ने उसे सुझाया, “तुम चाहो तो राजू की मदद ले सकते हो।”
मगर देवांश उससे कोई मदद नहीं लेना चाहता था। क्योंकि वह उसे हमेशा लंगड़ा-लंगड़ा कहकर चिढ़ाता था। इसलिए वह जानता था राजू उसकी कोई मदद नहीं करेगा।
कई दिनों तक वह प्रयास करता रहा। मगर वह नहीं कर पाया। तब वह राजू के पास गया। राजू उसका मंतव्य समझ गया था। वह झट से तैयार हो गया। बोला, “अरे दोस्त! यह तो मेरे बाएं हाथ का काम है।” कहते हुए राजू अपने एक पैर से दौड़ता हुआ आया, झट से हाथ के बल उछला। वापस सीधा हुआ। एक पैर पर खड़ा हो गया, “इस तरह तुम भी इसे कर सकते हो।”
देवांश का एक पैर डोरी से बना हुआ था। वह एक लंगड़े छात्र के नाटक का अभिनव कर रहा था। मगर वह एक पैर पर ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था। अभिनव करना तो दूर की बात थी।
तभी वहां योगेश सर आ गए। तब राजू ने उनसे कहा, “सरजी, देवांश की जगह यह नाटक मैं भी कर सकता हूं।”
“हां, कर तो सकते हो, ” योगेश सर ने कहा, “इससे बेहतर भी कर सकते हो। मगर उसमें वह बात नहीं होगी, जिसे देवांश करेगा। इसके दोनों पैर हैं। यह इस तरह का अभिनव करें तो बात बन सकती है। फिर देवास ने चुनौती स्वीकार की है। यह करके बताएगा।”
यह कहते हुए योगेश सर ने देवांश की ओर आंख ऊंचका कर कर पूछा, “क्यों सही है ना?”
“हां सरजी, मैं करके रहूंगा, ” देवांश ने कहा और राजू की मदद से अभ्यास करने लगा।
राजू का पूरा नाम राजेंद्र प्रसाद था। सभी उसे राजू कह कर बुलाते थे। बचपन में पोलियो की वजह से उसका एक पैर खराब हो गया था। तब से वह एक पैर से ही चल रहा था।
वह पढ़ाई में बहुत होशियार था। हमेशा कक्षा में प्रथम आता था। सभी मित्रों की मदद करना, उन्हें सवाल हल करवाना और उनकी कॉपी में प्रश्नोत्तर लिखना उसका पसंदीदा शौक था।
उसके इसी स्वभाव की वजह से उसने देवांश की भरपूर मदद की। उसे खूब अभ्यास करवाया। नई-नई तरकीब सिखाई। इस कारण जब वार्षिक उत्सव हुआ तो देवांश का लंगड़े लड़के वाला नाटक सर्वाधिक चर्चित, प्रशंसनीय और उम्दा रहा।
देवांश का नाटक प्रथम आया था। जब उसे पुरस्कार दिया जाने लगा तो उसने मंचन अतिथियों से कहा, “आदरणीय महोदय! मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूं।”
“क्यों नहीं?” मंच पर पुरस्कार देने के लिए खड़े अतिथियों में से एक ने कहा, “आप जैसे प्रतिभाशाली छात्र की इच्छा पूरी करके हमें बड़ी खुशी होगी। कहिए क्या कहना है?” उन्होंने देवांश से पूछा।
तब देवांश ने कहा, “आपको यह जानकर खुशी होगी कि मैं इस नाटक में जो जीवंत अभिनव कर पाया हूं वह मेरे मित्र राजू की वजह से ही संभव हुआ है।”
यह कहते ही हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। देवांश ने कहना जारी रखा, “महोदय, मैं चाहता हूं कि आपके साथ-साथ मैं इस पुरस्कार को राजू के हाथों से प्राप्त करुं। यही मेरी इच्छा है।”
इसमें मुख्य अतिथि को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। यह सुनकर वह भावविभोर हो गए, “क्यों नहीं। जिसका मित्र इतना हुनरबंद हो उसके हाथों दिया गया पुरस्कार किसी परितोषिक से कम नहीं होता है, ” यह कहते हुए अतिथियों ने ताली बजा दी।
“कौन कहता है प्रतिभा पैदा नहीं होती। उन्हें तराशने वाला चाहिए, ” भाव विह्वल होते हुए अतिथियों ने कहा, “हमें गर्व है कि हम आज ऐसे विद्यालय और छात्रों के बीच खड़े हैं जिनमें परस्पर सौहार्द, सहिष्णुता, सहृदयता, सहयोग और समन्वय का संचार एक नदी की तरह बहता है।”
तभी राजू अपने लकड़ी के सहारे के साथ चलता हुआ मंच पर उपस्थित हो गया।
अतिथियों ने राजू के हाथों देवांश को पुरस्कार दिया तो देवांश की आंख में आंसू आ गए। उसने राजू को गले लगा कर कहा, “दोस्त! मुझे माफ कर देना।”
“अरे! दोस्ती में कैसी माफी, ” कहते हुए राजू ने देवांश के आंसू पूछते हुए कहा, “दोस्ती में तो सब चलता है।”
तभी मंच पर प्राचार्य महोदय आ गए। उन्होंने माइक संभालते हुए कहा, “आज हमारे विद्यालय के लिए गर्व का दिन है। इस दिन हमारे विद्यालय के छात्रों में एक से एक शानदार प्रस्तुति दी है। यह सब आप सभी छात्रों की मेहनत और शिक्षकों परिश्रम का परिणाम है कि हम इतना बेहतरीन कार्यक्रम दे पाए।”
प्राचार्य महोदय ने यह कहते हुए बताया, “और सबसे बड़ी खुशी की बात यह है कि राजू के लिए जयपुर पैर की व्यवस्था हमारे एक अतिथि महोदय द्वारा गुप्त रूप से की गई है। अब राजू भी उस पैर के सहारे आप लोगों की तरह समान्य रूप से चल पाएगा।” यह कहते हुए प्राचार्य महोदय ने जोरदार ताली बजा दी।
पूरा हाल भी तालियों की हर्ष ध्वनि से गूंज उठा। जिसमें राजू का हर्ष-उल्लास दूना हो गया। आज उसका एक अनजाना सपना पूरा हो चुका था।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र- दारावरची बेल वाजवताच आमचीच वाट पहात असल्यासारखं दार तत्परतेने उघडलं गेलं. निरंजन साठेनी माझी नेमकी अडचण समजून घेतली आणि मोजक्या शब्दात वस्तुस्थितीची कल्पनाही मला दिली.ते म्हणाले,
“युनियन बँकेच्या ‘मेहता चेंबर्स’ मधील ‘रेक्रूटमेंट सेल’ मधे गेल्या आठवड्यापासून रिक्रुटमेंट प्रोसेस सुरू आहे. डॉ. विष्णू कर्डक तिथे सुपरिंटेंडेंट आहेत. दोन महिन्यांपूर्वी माझा इंटरव्ह्यूही त्यांनीच घेतला होता. त्यानंतर आमची भेट नाहीय, पण ते बहुतेक मला ओळखतील. आपण त्यांना सांगू सगळं. टेस्टप्रोग्रॅम शनिवारी संपला असेल तर मात्र प्रॉब्लेम येईल, एरवी काहीतरी मार्ग निघू शकेल.माझं डिपार्टमेंट त्याच कॅम्पसमधील ‘मेहता महल’ मधे आहे.हे माझं कार्ड.तू सोमवारी बरोबर सकाळी दहा वाजता माझ्या केबिनमधे ये. आपण भेटू डाॅ.कर्डकना. बघू काय होतं ते.”
निरंजन साठेंच्या घरून निघालो तेव्हा इतका वेळ मनात भरून राहिलेल्या अंधारात प्रयत्नांची दिशा दाखवणारा आशेचा अंधुक का होईना एक किरण मला दिसू लागला.)
साठे कुटुंबीयांचा निरोप घेऊन आम्ही बाहेर पडलो तेव्हा मध्यरात्र उलटून गेलेली होती.
‘उद्याची सकाळ प्रसन्न प्रकाश घेऊन येईल की हा रात्रीचा काळोख सरलेलाच नसेल?’ या संभ्रमात रात्री उशिरा अंथरुणाला पाठ टेकली खरी,पण स्वस्थ झोप नव्हतीच.
जागरणाचा शीण आणि विचारांचं दडपण घेऊन मी चर्नीरोडला लोकलमधून उतरलो.वेळ गाठायची निकड होती, त्यामुळे घरून थोडंफार कसंबसं खाऊन निघालो होतो पण भूक भागलेली नव्हतीच. त्यामुळेच असेल, हाकेच्या अंतरावरचा ‘मेहता महाल’ मला मैलोन् मैल दूर असल्यासारखा वाटत राहिला.
या कुठल्याच उलाढालींची कल्पना घरी आई-बाबा कुणालाही नव्हतीच. त्यांना दिलासा देणारं यातून कांही चांगलं निष्पन्न झालं तरच मला आनंद वाटणार होता. मग त्यासाठी टेस्ट-इंटरव्यू वगैरे सोपस्कारांमधून बाहेर पडायला कितीही दिवस लागले तरी वाट पहायची माझी तयारी होती. ही कोंडी एकदाची फुटावी,अंधार सरावा, नवी प्रकाशवाट दिसावी एवढंच उत्कटतेनं वाटत होतं.पण आश्चर्य म्हणजे त्यासाठी थांबावं लागलंच नाही! वाट पहायची वेळ आलीच नाही. कारण पुढची पंधरा-वीस मिनिटं असा काही झंझावात घेऊन आली की मन उत्साहानं भरूनच गेलं एकदम.
मी ‘मेहता महल’ च्या लिफ्टपाशी जाऊन थांबलो तेवढ्यात मला निरंजन साठे लगबगीने लिफ्टच्या दिशेनेच येताना दिसले. मी तत्परतेने पुढे होऊन त्यांना ‘विश’ केलं.ते हसले. त्यांनी हातातल्या घड्याळात पाहिलं.
“शार्प टेन. गुड. बरं झालं इथेच भेटलो आपण. चल लगेच. डॉ.कर्डकना आधी भेटू. बघू काय म्हणतात ते.”
डॉ. कर्डकांनी आमचं हसतमुखाने स्वागत केलं.
“येस मि.साठे, हाऊ आर यू?”
” फाईन सर. थँक्यू.व्हेरी बिझी?”
” ऑफ कोर्स…,बट नाॅट फाॅर यू..बोला.”
“याचे एक छोटेसे काम आहे तुमच्याकडे.म्हणून मुद्दाम याला घेऊन आलोय.”बोलता बोलता माझ्याकडून कॉल लेटर घेऊन ते निरंजननी त्यांच्यापुढे केलं. नेमका प्रॉब्लेम त्यांना समजावून सांगितला.
“माय गुडनेस..आज शेवटचा दिवस आहे रिटन-टेस्ट प्रोसेसचा. आताच आलात फार बरं झालं. जस्ट अ मिनिट. मी बघतो काय करता येईल ते. बसा.आलोच.”
माझं कॉल लेटर सोबत घेऊन ते झरकन् उठले. केबिन बाहेर गेले .ते परत येईपर्यंतच्या क्षणात एक प्रकारची निश्चिंतता माझ्या मनात पाझरत राहिलेली होती. डाॅ.कर्डक यांचं व्यक्तिमत्वच नव्हे तर त्यांचा अॅप्रोचही उत्साहवर्धक होता.
डाॅ.कर्डक हे सायकॉलॉजी घेऊन एम्. ए. झाले होते अन् मग त्यातच डॉक्टरेट! तेही खास रेक्रूटमेंट इन्चार्ज म्हणून नुकतेच रुजू झाले होते. एन.आय.बी.एम च्या मार्गदर्शनाखाली ‘अॅप्टीट्यूड टेस्ट’ च्या माध्यमातून ‘फास्टट्रॅक रेक्रूटमेंट प्रोसेसची राष्ट्रीयकृत बँकांमधली ही सुरुवात होती.
” हे बघ, आता सव्वा दहा वाजलेत. साडेदहाच्या बॅचला किंवा दुपारी अडीचच्या बॅचला तुला रिटन टेस्ट देता येईल. काय करतोस बोल.”
डाॅ. कर्डकनी मला विचारलं. क्षणाचाही विचार न करता मी म्हणालो,” सर,आत्ताची साडेदहाची बॅच चालेल मला”
“चल तर मग.पेन आहे ना जवळ ?”
“हो सर”
“गुड.कम फास्ट…!”
माझी वाट न पहाता ते तातडीने केबिनबाहेर पडले. मी जाऊ लागणार तेवढ्यात निरंजन साठेंनी मला थांबवलं.
“आर यू मेंटली प्रीपेअर्ड?”
“हो”
“पण तू खाल्लेयस कां पुरेसं कांही? नाहीतर व्यवस्थित जेवण वगैरे आवरून दुपारी अडीचच्या बॅचलाच ये सरळ. इट विल बी बेटर आय थिंक”
” नाही.. नको. खरंच नको.” त्या विचाराच्या मोहात पडण्यापूर्वीच मी तो विचारच तत्परतेने झटकून टाकला.
” मी खाऊन आलोय.मला आता भूक नाहीये. खरंच.”
मी चक्क खोटं बोललो होतो. कारण समोर आलेली संधी मला दुपारपर्यंत पुढे ढकलायचीच नव्हती.
टेस्टचं स्वरूपही माहीत नसताना भुकेपोटी, अतिशय उतावीळपणानं असं टेस्ट द्यायला तयार होणं हा चक्क एक जुगार होता आणि माझ्याही नकळत का होईना पण मी तो खेळायला प्रवृत्त झालो होतो.
ही लेखी परीक्षा म्हणजे अॅप्टीट्यूड टेस्ट होती. .इंग्रजी, गणित,सामान्यज्ञान याबरोबरच मुख्यत: बौद्धिक क्षमतेची चाचणी घेणारी एक टेस्ट.शंभर प्रश्न होते. पर्यायी उत्तरांमधल्या अचूक उत्तराला टिक करायची होती. हल्ली सर्रास सुरु झालेल्या प्रोसेसचं ते सुरुवातीचं पहिलं वर्ष होतं.
मघाशी या प्रोसेसचा ‘फास्टट्रॅक’ असा उल्लेख मी केला त्यानुसार खरोखरच पुढचं प्रोसेस विनाविलंब द्रूतगतीनं सुरु झालं.रिटन टेस्टच्या दुसऱ्याच दिवशी टेस्टमध्ये उत्तीर्ण झालेल्यांची लिस्ट बँकेतल्या काचफलकांत लगेचच झळकली. त्यात माझा नंबर बराच वरचा होता. तिसऱ्या दिवशी इंटरव्ह्यू झाले आणि पाचव्या दिवशी माझ्या हातात नेमणुकीचं पत्रही पडलं.ते खरंच एक आक्रितच होतं. क्षणभर मला मी स्वप्नातच हे सगळं बघतोय,अनुभवतोय असंच वाटत राहिलं. तसं तर हे सगळं योगायोगानंच घडलं होतं असं वाटेल खरं,पण ते तसं नव्हतं.मी मेव्हण्यांच्या सूचनेनुसार त्यादिवशी एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंजमधे नाव नोंदवलंच नसतं तर?त्यांनीच पुढाकार घेऊन रात्री उशीर झालेला असूनही माझ्यासाठी लगोलग ठाण्याला जायचा निर्णय घेतलाच नसता तर? किंबहुना त्यांच्या मावस बहिणीचा दीर नेमका युनियन बँकेतच असणं आणि त्यानेही अगदी मनापासून माझ्या मदतीला धावून येणं हे सगळे योग्यवेळी योग्य क्रमाने घडत गेलेले केवळ योगायोग असूच कसे शकतील? ते तसे असतीलच तर ते कुणीतरी जाणीवपूर्वक घडवून आणलेले असणार! माझ्या हातात नेमणुकीचं पत्र पडलं त्याक्षणी हे सगळे विचार मनात आले आणि मला उत्कटतेने ‘त्या’ची आठवण झाली. माझा कोणताही नित्यनेम सुरू नसताना,मला नकारात्मक विचारांच्या दडपणात या चार-सहा दिवसात ‘त्या’ची पुसटशी आठवणही झालेली नसताना, ‘त्या’ला माझ्या अशा या मन:स्थितीत कसलं साकडं घालायचा विचार मनात येण्याइतपत स्वस्थताही मला लाभलेली नसतानासुध्दा ‘त्या’ने मात्र माझ्यावर रणरणत्या उन्हात अशी सावली धरलेली होती!!
या जाणीवेच्या स्पर्शानेच मला अचानक बाबांची आठवण झाली. त्यांचा निरोप घेऊन निघतानाचे त्यांचे… ‘सगळं सुरळीत होईल. काळजी नको.’ हे शब्द मला जवळ घेऊन थोपटतायत असं वाटत राहीलं.
‘त्याच्याकडे कधीच काही मागायचं नाही. आपल्यासाठी आपल्या हिताचं काय हे आपल्यापेक्षा त्याला जास्त समजतं. तो यश देतोच. क्वचित कधी अपयश आल्यासारखं वाटलं तरी त्यातच आपलं हित होतं हे नंतर जाणवतंच’…कधी काळी बाबांच्या तोंडून ऐकलेल्या या शब्दांचा रोख गेल्या दोन-तीन महिन्यात घडलेल्या,माझ्या संपूर्ण आयुष्याला नेमकी आणि वेगळी कलाटणी देणाऱ्या घटनांकडेच असावा असा विश्वास
वाटण्याइतका या शब्दांचा नेमका अर्थ या अनुभवांनी मला समजून सांगितला होता. ‘त्या’ला मी इतकी वर्षं मानत आलो होतो. या घटनाक्रमांच्या निमित्ताने ‘त्या’ला जाणण्याची प्रक्रियाही माझ्या मनात नकळत सुरू झाली!!