(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – प्राचीन धार्मिक साहित्य में चिकित्सकीय वर्णन।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 291 ☆
आलेख – प्राचीन धार्मिक साहित्य में चिकित्सकीय वर्णन
मनुष्य प्रकृति की अनुपम कृति है। मनुष्य मूलतः बुद्धि जीवी प्राणी है। स्वाभाविक है कि मनुष्य की प्रयोगवादी प्रवृति के चलते उसे स्वास्थ्य सहित विभिन्न क्षेत्रों में कई खतरों और बीमारियों का सामना करना पड़ता रहा है। यहीं चिकित्सा का प्रारंभ होता है। प्राकृतिक चिकित्सा सर्वप्रथम औषधीय प्रयास है। प्राकृतिक चिकित्सा का वर्णन पौराणिक ग्रन्थों एवं वेदों में सुलभ है प्राकृतिक चिकित्सा के साथ ही योग एवं आसानों का प्रयोग शारीरिक एवं आध्यात्मिक तथा मानसिक आरोग्य के लिये होता रहा है। पतंजलि का योगसूत्र इसका एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। भारत में ही नहीं विदेशों में भी प्राकृतिक चिकित्सा विधियों के इतिहास होने के प्रमाण मिलते है। आधुनिक चिकित्सा विधियों के विकास के फलस्वरूप इस प्राचीन चिकित्सकीय पद्धति को हम भूलते गये। प्राकृतिक चिकित्सा संसार में प्रचलित सभी चिकित्सा प्रणाली में सर्वाधिक पुरानी है। प्राचीन ग्रंथों मे जल चिकित्सा व उपवास चिकित्सा का उल्लेख मिलता है। उपवास को अचूक चिकित्सा माना जसाता है, और उसके स्पष्ट त्वरित परिणाम भी दिखते हैं। महाभारत और श्री रामचरित मानस विश्व महा काव्य हैं। ये ग्रंथ धर्म, राजनीति, संस्कृति, जीवन मूल्य, लोकाचार, पौराणिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है। इन ग्रंथों के अध्ययन और व्याख्या से इसमें सन्नहित न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को विद्वान अनावरित करते रहते हैं। चिकित्सा और औषधीय ज्ञान की भी अनेकानेक जानकारियां मानस तथा महाभारत से मिलती हैं। यहाँ तक कि मानसिक रोगों की चिकित्सा का उपाय भी राम चरित मानस में मिलता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चार वेदों में से मुख्य रूप से ऋग्वेद और अथर्ववेद में वानस्पतिक औषधियों का वर्णन सुलभ है। अथर्ववेद को चिकित्सा शास्त्रीय ज्ञान का पहला स्रोत माना जाता है। अधिकांश वैदिक उपचारक छंद अर्थ वेद में पाए जाते है। आयुर्वेद, अथर्ववेद का उपवेद है।
अथर्ववेद में बीमारियों के इलाज के लिए वानस्पतिक औषधियों के वर्णन के साथ ही कई मंत्र, तथा प्रार्थनाओ का भी वर्णन किया गया है।
आयुर्वेद ब्रह्मांड में ही सब कुछ देखता है, जिसमें मनुष्य भी शामिल है, जो पांच मूल तत्वों अंतरिक्ष, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी जिन्हें पंचमहाभूत कहा गया है, से निर्मित है। । ये पांच तत्व एक दूसरे के साथ मिलकर मानव शरीर के भीतर तीन जैव-भौतिक बलों (या दोषों) को जन्म देते हैं, वात (वायु और अंतरिक्ष), पित्त (अग्नि और जल) और कफ (जल और पृथ्वी), साथ में ये त्रिदोष के रूप में जाने जाते हैं। मन और शरीर के सभी जैविक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कार्यों को नियंत्रित करते हैं। आयुर्वेद आहार, हर्बल उपचार, विषहरण, योग, आयुर्वेदिक मालिश, जीवनशैली दिनचर्या और व्यवहार पर नियंत्रण से सकारात्मक भावनाओं को उत्तेजित करता है, और इस पद्धति के संयोजन का उपयोग कर व्यक्ति के दोष के अनुसार मन और शरीर का इलाज करता है। चरक संहिता, आयुर्वेद का प्रसिद्ध पौराणिक ग्रन्थ है। यह संस्कृत भाषा में है। इसी तरह सुश्रुत संहिता भी आयुर्वेद का आधारभूत प्राचीन ग्रन्थ है। चरकसंहिता की रचना दूसरी शताब्दी से भी पूर्व की मानी जाती है। चरकसंहिता में भोजन, स्वच्छता, रोगों से बचने के उपाय, चिकित्सा-शिक्षा, वैद्य, धाय और रोगी के विषय में विशद चर्चा है। आचार्य चरक केवल आयुर्वेद के साथ ही अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनका दर्शन एवं विचार सांख्य दर्शन एवं वैशेषिक दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है। आचार्य चरक ने शरीर को वेदना, व्याधि का आश्रय माना है, और आयुर्वेद शास्त्र को मुक्तिदाता कहा है। आरोग्यता को महान् सुख की संज्ञा दी है, कहा है कि आरोग्यता से बल, आयु, सुख, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है। समय के प्रवाह के संग मनुष्य नई नई चिकित्सा पद्धतियों का विकास करता गया किन्तु हमारे प्राचीन धार्मिक साहित्य का चिकित्सकीय वर्णन ही उन सारे नये अन्वेषण तथा खोज का आधार बना हुआ है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साइकिल स्टैंड…“।)
अभी अभी # 415 ⇒ साइकिल स्टैंड… श्री प्रदीप शर्मा
जब तक साइकिल चलती रहती है, उसे किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं रहती, केवल दो पहिये के सहारे वह खुद भी चलती है, और सवारी को भी ले जाती है। जैसे ही वह रुकती है, उसे खड़े रहने के लिए स्टैंड यानी सहारा लगता है। अगर साइकिल को स्टैंड न हो, तो या तो उसको किसी दीवार का सहारा लेना पड़ता है, या फिर वह लेट जाती है।
पहले जो साइकिल का स्टैंड होता था, वह पीछे के दोनों पहियों को कवर करता था, साइकिल को स्टैंड पर लगाना पड़ता था। बाद की साइकिलों में स्टैंड एक ही ओर होता था, जिसे आसानी से ऊपर नीचे किया जा सकता था। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि साइकिल भी लेडीज़ और जेंट्स होती थी। जेंट्स लोग लड़ीज साइकिल चला सकते थे, लडीज, जेंट्स साइकिल नहीं चलाती थी।।
आज जब शहर में जगह जगह कार पार्किंग होते हुए भी, पार्किंग की समस्या है, कारों और अन्य चार पहिए के वाहनों के कारण जगह जगह जाम लग जाया करता है, तब हींग फिटकरी रहित साइकिल की बहुत याद आती है। कहीं से भी निकाल ली, कहीं पर भी खड़ी कर ली।
आज कार पार्किंग की तरह कभी शहर में जगह जगह साइकिल स्टैंड भी हुआ करते थे। सभी मिल मज़दूर खाने का टिफिन बांधे जब हुकमचंद मिल अथवा अन्य मिलों में पहुंचते थे, तो उनकी गाड़ी, साइकिल स्टैंड पर रखी जाती थी, जिसका माहवारी पास बनता था। आज जिस तरह किसी भी मॉल में कार पार्किंग की व्यवस्था होते हुए, पार्किंग एक समस्या बनी हुई है, उसी तरह कभी सिनेमा घरों के बाहर साइकिलों के लिए साइकिल स्टैंड बने रहते थे। साइकिल स्टैंड वाला इज्जत से आपके पास आकर आपकी साइकिल थाम लेता था, इस जानकारी के साथ, अभी तो डॉक्यूमेंट्री चल रही है, टिकट भी मिल जाएंगे बाबूजी। एक पतरे का बिल्ला आपको पकड़ाकर, वह आपकी साइकिल स्टैंड पर ले जाकर, स्टैंड पर खड़ी कर देता था। आप चैन से पिक्चर देख सकते थे, और साइकिल भी अपनी सखी सहेलियों के साथ कुछ वक्त गुज़ार लेती थी।।
आज शहर में जितनी गौ शालाएं नहीं, कभी शहर में उतने साइकिल स्टैंड हुआ करते थे। हर स्कूल कॉलेज का अपना साइकिल स्टैंड हुआ करता था, जिसके ठेके हुआ करते थे। किसी कॉलेज अथवा सिनेमा घर के साइकिल स्टैंड का ठेका मिलना उतना ही मुश्किल था, जितना आज किसी शासकीय निर्माण का ठेका मिलना।
शहर का सरवटे बस स्टैंड हो, या रेलवे स्टेशन, जो लोग डेली अप-डाउन करते हैं, उनके वाहन आज भी साइकिल स्टैंड पर ही रखे जाते हैं। लेकिन विडम्बना देखिए, आजकल, साइकिल तो कम, स्कूटर ज़्यादा नजर आते हैं। कहीं कहीं तो साइकिल स्टैंड का नाम भी बदलकर स्कूटर स्टैंड कर दिया गया है।।
दुनिया कितनी भी आगे निकल जाए, साइकिल स्टैंड भले ही कार पार्किंग स्थल बनते चले जाएं, साइकिल कल भी अपने पांव (स्टैंड) पर खड़ी थी, और आज भी अपने पांव पर खड़ी है। अगर आप भी अपने पांव पर ठीक से खड़े होना चाहते हो, सदा स्वस्थ रहना चाहते हो, पेट्रोल की बढ़ती कीमत, ट्रैफिक जाम और ट्रैफिक के चालान से बचना चाहते हो, तो एक स्टैंड वाली साइकिल का हैंडल थाम लो।
जीरो मेंटेनेंस वाला, हर तरह के टैक्स से मुक्त, हेलमेट-फ्री कोई दोपहिया वाहन आज अगर है, तो वह साइकिल ही है। शहर को प्रदूषण मुक्त अगर रखना है, तो वाहनों की संख्या केवल साइकिल ही कम कर सकती है। कितना अच्छा हो, सिक्स लेन सड़कों पर एक लेन साइकिल की भी हो। आज के युग में साइकिल पर आना, गरीबी की नहीं, समझदारी की निशानी है। Who will understand?
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता –“वो भी क्या दिन थे”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 178 ☆
☆ बाल कविता – वो भी क्या दिन थे☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र- ‘आपल्यासाठी आपल्या हिताचं काय हे आपल्यापेक्षा त्याला जास्त समजतं. तो यश देतोच. क्वचित कधी अपयश आल्यासारखं वाटलं तरी त्यातच आपलं हित आहे हे नंतर जाणवतंच’ कधीकाळी बाबांच्या तोंडून कानावर पडलेल्या या शब्दांचा रोख गेल्या दोन-तीन महिन्यात घडलेल्या माझ्या संपूर्ण आयुष्याला नेमकी आणि वेगळी कलाटणी देणाऱ्या घटनांकडेच असावा असा विश्वास वाटण्याइतका या शब्दांचा नेमका अर्थ या अनुभवांनी मला समजून सांगितला होता.’त्या’ला मी इतकी वर्ष मानत आलो होतो.या सर्व घटनाक्रमांच्या निमित्ताने ‘त्या’ला जाणण्याची प्रक्रियाही माझ्या मनात नकळत सुरू झाली!)
असोशीने धरून ठेवायला धडपडत होतो ते हातातून निसटून गेलं होतं आणि जे मिळणं शक्यच नाही असं गृहित धरलं होतं ते मात्र अगदी अनपेक्षितपणे मला मिळालं होतं! स्टेट बँक आणि युनियन बँक यांच्या बाबतीतले परस्परविरोधी असे हे दोन प्रसंग ‘सगळं सुरळीत होईल,काळजी नको.’ हे बाबांचे शब्द सार्थ ठरवणारेच होते!
समोर गडद अंधार पसरलेला असताना निरंजन साठे माझ्या आयुष्यात आले होते. आणि मला डॉ. कर्डकांकडे सुपूर्द करून गेले होते.होय.कारण मला नेमणूकपत्र मिळालं ते होतं डाॅ.कर्डक यांच्याच अधिपत्याखालील रेक्रूटमेंटसेलला जाॅईन होण्यासाठीचं!डाॅ.कर्डक आणि निरंजन साठे यांचं हे अल्पकाळासाठी असं माझ्या आयुष्यात येणं माझ्या मनावर अमिट ठसा उमटवणारे ऋणानुबंध जसे तसेच माझ्यावरील ‘त्या’च्या कृपालोभाची प्रसादचिन्हेसुद्धा!
युनियन बँकेत मी १३ मार्च १९७२ रोजी जॉईन झालो आणि एका नव्या पर्वाला सुरुवात झाली. बँकिंगक्षेत्रातल्या माझ्यासारख्या नवोदितांना सुरुवातीचा सहा महिन्यांचा प्रोबेशन पिरिएड म्हणजे खूप मोठे दडपण वाटत असे.तो प्रोबेशन पिरिएड समाधानकारक पूर्ण झाला तरच नोकरीत कायम केल़ जायचं. हे सहा महिने रजाही मिळणार नव्हती. म्हणून मग जॉईन होण्यापूर्वीच मी घरी जाऊन सर्वांना भेटून यायचं ठरवलं. त्या भेटीत समाधान मात्र मिळालं नाहीच. हळूहळू परावलंबी होत चाललेले माझे बाबा अंथरुणाला खिळून होते. त्यांच्या नेमक्या गरजेच्यावेळी मला त्यांच्याजवळ रहाता येत नाहीये या विचाराने मी अस्वस्थ होत असे.त्यांचा निरोप घेऊन निघालो तेव्हा अंथरुणावर पडल्या पडल्याच त्यांनी स्वतःचा थरथरता हात क्षणभर कसाबसा वर उचलून मला आशीर्वाद दिला. तेच हळवे क्षण सोबत घेऊन मी बाहेर पडलो आणि आयुष्यातल्या नव्या वाटेवर पहिलं पाऊल टाकलं!
लवकरच माझ्या निर्णयक्षमतेची कसोटी पहाणारं एक प्रलोभन माझी वाट पहात दबा धरून बसलेलं होतं याची मला तेव्हा कल्पनाच नव्हती. माझा प्रोबेशन पिरिएड संपला आणि मी नोकरीत कन्फर्म झालो,त्याच दिवशी मला एक पत्र आलं आणि ते युनियन बँकेतल्या सुरळीत सुरू झालेल्या माझ्या रुटीनला परस्पर छेद देणारं ठरलं!
पूर्वी उल्लेख केल्याप्रमाणे मध्यंतरीच्या काळात मी भावाच्या सल्ल्याप्रमाणे स्टेट बँकेच्या नवीन भरतीच्या जाहिरातीनुसार पुन्हा अर्ज केला होता आणि तिथे नव्याने पुन्हा रिटन टेस्ट न् इंटरव्ह्यूही देऊन आलो होतो. अर्थात तेव्हा माझ्या दृष्टीने तो फक्त एक उपचार होता. म्हणूनच असेल मी ते विसरूनही गेलो होतो. पण नेमकी त्याचीच आठवण करून देणारं हे पत्र होतं. स्टेट बँकेकडून नवीन अपॉइंटमेंट ऑफर करणारं ते पत्र पाहून मला क्षणभर आश्चर्यच वाटलं.दुसऱ्याच क्षणी आता यापुढे कसलीच अस्थिरता नको असंच वाटत राहिलं. हातचं सोडून पळत्याच्या मागे लागणं योग्य ठरेल? पुन्हा नवीन नोकरी, पुन्हा सहा महिन्यांचा प्रोबेशन पिरियड..सगळं सुरळीत होईल? आणि नाही झालं तर? पुन्हा ती विषाची परीक्षा नकोच.
मी ते पत्र ड्राॅवरमधे ठेवून दिलं आणि तो विषय माझ्यापुरता मिटवून टाकला. घरी सविस्तर तसं कळवून टाकलं. माझं पत्र मिळताच भावाचा लगेच फोन आला. त्याने मला वेड्यातच काढलं.म्हणाला,
“हे बघ,असा अविचार करू नकोस. आजच तुझ्या पत्राला मी सविस्तर इन्लॅंडलेटर लिहिलंय.आईलाही कांही लिहायचंय म्हणाली म्हणून ते घरी तिच्याकडे ठेवून आलोय. तिचं लिहून झालं कि ती ते पोस्टात टाकेल. सर्वबाजूने विचार केला तरीही स्टेट बँक जॉईन करणंच तुझ्या हिताचं आहे हे लक्षात ठेव. ते कसं हे सगळं सविस्तर पत्रात लिहिलंय. ते वाच आणि तसंच कर.”
मी मनाविरुद्ध ‘हो’ म्हटलं आणि फोन ठेवला. लगेच त्याचं पत्रही आलं. पत्रातला प्रत्येक मुद्दा योग्य आणि बिनतोड होता.
एकतर त्या काळी या परिसरात युनियन बँकेच्या फक्त दोन ब्रॅंचेस होत्या. कोल्हापूर आणि जयसिंगपूर.याउलट स्टेट बँकेचं ब्रॅंचनेटवर्क मात्र तालुका पातळीपर्यंत विस्तारलेलं होतं. त्यामुळे युनियन बँकेत बदली मिळणं शक्य नव्हतंच पण स्टेट बँकेत मात्र अल्पकाळात सोईच्या जागी सहजपणे बदली मिळू शकणार होती.पे स्केल्स आणि इतर सवलतीही युनियन बँकेच्या तुलनेत स्टेट बँकेच्याच आकर्षक होत्या. युनियन बँकेची प्रमोशन पॉलिसी ‘स्ट्रीक्टली ऑन सिनॅरीटी बेसिस अशीच होती, त्यामुळे प्रमोशनच्या संधी जवळजवळ नव्हत्याच.स्टेट बँकेत मात्र हीच पॉलिसी मेरीटला प्राधान्य देणारी होती.
हे सगळं वाचून पुन्हा उलटसुलट विचार मनात गर्दी करू लागले. आईने लिहिलेला मजकूर वाचून तर मी हळवाच होऊन गेलो. मी लवकरात लवकर जवळचं पोस्टींग मिळून तिकडं यावं म्हणून ती अधीर झाली होती. तिने लिहिलेला शब्द न् शब्द माझ्या मनात रुतत चालला होता.
‘हे झोपूनच असतात.बोलणं जवळजवळ हवं-नको एवढंच. त्यांना त्रास नको म्हणून या विषयी मुद्दाम काही सांगितलेलं नाहीये.तू जवळ आलास, अधून मधून कां होईना भेटत राहिलास तर त्यांनाही उभारी वाटेल.’
हे वाचून बाबांच्या आठवणीने मी व्याकुळ झालो. भावनेच्या आहारी जाऊन कां होईना पण मी मन घट्ट केलं. आता ‘स्टेट बँक’ हेच आपलं नशीब हे स्वीकारलं. युनियन बँक सोडायची हा निर्णय पक्का झाला. पण तरीही मनाला स्वस्थता कशी ती नव्हतीच.
‘बाबा हिंडतेफिरते असते तर त्यांच्याशी बोलता आलं असतं. त्यांनी योग्य तो मार्ग नक्कीच दाखवला असता.’ हा विचार मनात घोळत असतानाच मी हातातल्या इन्लॅंडलेटरची घडी घालू लागलो आणि क्षणभर थबकलोच. आत दुमडायचा जो आडवा फोल्ड असतो तो उलटा धरून त्यावर गिजबीट अक्षरात कांही मजकूर लिहिला असल्याचं माझ्या लक्षात आलं. पाहिलं आणि मला आश्चर्याचा धक्काच बसला. हे बाबांनी तर लिहिलं नसेल? छे! कसं शक्य आहे?बाबांचं अक्षर आणि असं? विश्वासच बसेना. पण ते बाबांनीच लिहिलेलं होतं! थरथरत्या हाताने लिहिल्याचं स्पष्ट जाणवत होतं. आणि म्हणूनच ते वेडंवाकडं आणि केविलवाणं दिसत होतं. मात्र प्रयत्नपूर्वक एकेक अक्षर जुळवायचा आटापिटा करून मी ते वाचल्यानंतर जे कांही हाती लागलं ते मात्र खरंच लाखमोलाचं होतं!!
☆ हरवले ते गवसले कां ? – लेखक : श्री अनिल रेगे ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला केळकर☆
बरीच वर्षे झाली या घटनेला. पण अजूनही तो दिवस आठवला की अंगावर कांटा येतो. मी बहुतेक नववीत होतो तेव्हां. माझ्या वडलांची चुलत….चुलत बहिण दादरला राहत होती. तशी लांबची असली, तरी त्या काळी सर्व नातीगोती श्रद्धेने जपली जात. आमच्याकडे गोरेगांवला एक गृहस्थ घरी केसांसाठी आयुर्वेदिक औषधी तेल बनवीत. माझी आत्या त्यांनी बनवलेली औषधी तेलं वापरत असे.
‘त्या’ दिवशी त्या गृहस्थाकडून तेलाचा मोठा शिसा घेऊन तो आत्याकडे दादरला पोंचवण्याची जबाबदारी मला देण्यांत आली होती. त्याप्रमाणे मी आत्याकडे गेलो व तिला तो तेलाचा शिसा दिला. “किती झाले रे ?” आत्याचा नेहमीचा प्रश्न आला.
“पैशाविषयी कांही बोलू नकोस, असं काका म्हणालेत. बरं मी निघू ?” मी विचारले.
“अरे थांब. चहा तरी घे.” मी मानेनेच ‘मला चहा नको’ अशी खूण केली. “बरं मग करंजी तरी खा” आत्याने आग्रह केला. मी करंजी-मोदकाला नाही म्हणणं, म्हणजे बगळ्याने माशाकडे पाठ फिरवण्यासारखे होते. मी तब्येतीत दोन करंज्या हाणल्या. तेवढ्यांत आत्याची मुलगी…मी तिला बेबीताई म्हणायचो ती एक पिशवी घेऊन समोर आली. अरे हो ! या बेबीताईविषयी सांगायचे राहिले. ती जन्मत:च मुकी व बहिरी होती. पण रूपाने अत्यंत देखणी. अगदी माला सिन्हाची ड्युप्लीकेट. माझ्यापेक्षा वयाने साधारण दहा वर्षांनी मोठी. बेबीताई मला खुणेने कांहीतरी सांगत होती. तेवढ्यांत आत्याच म्हणाली “अरे, ती गोरेगांवला जायचं म्हणतेय. नेशील कां व्यवस्थित तिला ?” आता या प्रश्नावर मी तरी काय बोलणार. मानेनेच ‘हो’ म्हणालो. “बेबीताई माझा हात सोडू नकोस हां !” हे वाक्य मी बोलून आणि खुणेने दोन्ही पद्धतीने तिला सांगितले आणि तिनेही मान डोलावून ‘कळलं’ अशी खूण केली.
वेळ संध्याकाळची होती. दादर स्टेशनवर बरीच गर्दी होती. आम्हाला गाडीत चढायला मिळालं, पण बसायला जागा नव्हती.
जोगेश्वरी स्टेशन पार झालं आणि मी बेबीताईला ‘आता आपल्याला उतरायचं आहे’ अशी खूण केली. गोरेगांवला आम्ही उतरलो आणि संवयीप्रमाणे मी उजवीकडे चालायला लागलो. दोन-तीन मिनिटं चाललो असेन आणि माझ्या अचानक लक्षांत आलं, अरेच्च्या आपल्याबरोबर बेबीताईसुद्धा आहे, पण आत्ता ती कुठे दिसत नाही. मी थांबून मागे पाहिलं, पण गर्दीत कोणीच नीट दिसत नव्हतं. मी जोरजोरात हांका मारू लागलो. माझ्या हांका बेबीताईला कशा ऐकू येतील, हे सुद्धा माझ्या लक्षांत आले नाही. मी जाम घाबरलो. घसा कोरडा पडला. बेबीताई कुठे गेली असेल ? ती हरवली तर घरी काय सांगू ? शेवटी कांहीच सुचेना. मी वेड्यासारखा घराच्या दिशेने धावत सुटलो. बेबीताई माझ्याबरोबर येत होती आणि आता ती हरवली आहे, हे घरी कळल्यावर हलकल्लोळ माजला. “तू कशाला ही जबाबदारी घेतलीस ?” “थोडी तरी अक्कल आहे कां?” “अरे ती बिचारी मुकी पोर. कांही सांगू पण शकणार नाही” चारी बाजूनी माझ्यावर फैरी झडत होत्या. मी कांहीच बोलू शकत नव्हतो. तेवढ्यात आमच्या गोगटेवाडीतील दोन-तीन तरुण मुलगे आवाज ऐकून आमच्या घरासमोर आले.एकंदर परिस्थिती लक्षांत आल्यावर त्यांतला एकजण म्हणाला “काका आम्ही याला घेऊन पुन्हा स्टेशनवर जातो. तुम्ही काळजी करू नका. मी माझ्या पोलीस मित्रालाही सांगतो. तो नक्कीच मदत करेल. आम्ही निघतो आता.” आणि माझ्या खांद्याला धरून त्यांनी जवळजवळ मला ओढतच तेथून न्यायला सुरवात केली.
“अरे हा मूर्ख कार्टा आणि याच्या भरोश्यावर एका तरण्याताठ्या मुलीला त्यांनी पाठवलंच कसं ? अरे हा बिनडोक पोरगा शाळेत दप्तर विसरून येतो. अक्कलशून्य आहे. आणि हा ही जबाबदारी घेतो ?” ते सर्वजण माझी सालं काढू लागले. मी गप्प होतो. तोंडातून शब्द निघाला तर मार पडायचा.
आम्ही स्टेशनच्या दिशेने येताना त्यांतल्या एकाने विचारले “तू कुठून येत होतास ? जिन्याने की रेल्वे ट्रॅकच्या बाजूने ?” मी म्हणालो “रेल्वे ट्रॅकच्या दिशेने.”
“अरे गाढवा, रेल्वे ट्रॅकच्या बाजूने कशाला ? जिन्याने पलीकडे उतरून घासबाजारच्या रस्त्याने यायला काय पाय मोडले होते तुझे ? ती नक्कीच जिन्याच्या दिशेने गेली असणार. तुला आधी नीट सांगता आलं नाही तिला ? च्यायला मीपण कोणत्या गाढवाला विचारतोय ?” तो वैतागाने म्हणाला. आम्ही स्टेशनवर आलो आणि त्यांनी आपसांत ठरवलं. दोघेजण प्लॅटफॉर्म दोनवर चेक करतील व मी आणि एकजण प्लॅटफॉर्म एकवर चेक करू. (त्याकाळी गोरेगांवला दोनच प्लॅटफॉर्म होते). “कोणीही एकटी तरुण बाई दिसली तर लगेच तिला खुणेने विचारा ती बीनाताई आहे कां ?” आमच्यातला लीडर म्हणाला….
“अरे पण अनोळखी तरुणीला खुणा कशा करणार ? भलताच अर्थ काढून त्यांनी आरडाओरड केली तर लेने के देने पड जायेंगे” दुसऱ्याने शंका व्यक्त केली. मग सर्वानुमते कागदावर मोठ्या अक्षरांत “ आपण बिनाताई आहांत काय ? आम्ही आपल्याला न्यायला आलो आहोत.” अशा ओळी लिहून तो कागद त्यांना दिला. मी बरोबर असल्यामुळे आम्हाला तसा कांही प्रॉब्लेम नव्हता. आम्ही दोन्ही प्लॅटफॉर्म या टोकापासून त्या टोकापर्यंत पालथे घातले. पण उपयोग शून्य. बेबीताई कुठेच दिसली नाही. शेवटी आमच्या लीडरने स्टेशन मास्तरांकडे तक्रार नोंदवायचे ठरवले. आम्ही चौघेजण स्टेशनमास्तरांच्या केबिनचा दरवाजा ढकलून आंत गेलो आणि माझा डोळ्यावर विश्वासच बसेना. जिला शोधण्यासाठी आम्ही जंग जंग पछाडले होते, ती बेबीताई स्टेशन मास्तरसाहेबांच्या केबिनमध्ये ऐटीत खुर्चीत बसली होती. तिच्या हातात कॉफीचा ग्लास होता. मला पाहिल्यावर तिच्या चेहऱ्यावर आनंद झळकला आणि खुणेनेच तिने स्टेशनमास्तरसाहेबांना माझ्याबद्दल कांहीतरी सांगितले. ते पुढे आले. कायरे मुला, कुठे हरवला होतास तू ? या ताई खूप घाबरल्या होत्या. त्यांनी मला सांगितलं म्हणून मी हा सर्व भाग चेक करायला लावला. मालाड ते बोरिवली संदेश पाठवले. गेला अर्धा तास आम्ही शोधतो आहे तुला. कुठे गेला होतास तू ?” त्यांच्या तोफखान्याने मी पुरता गारद झालो. शेवटी त्यांना मी सर्व हकीकत सांगितली. आमच्या वाडीतील मोठ्या मुलांना घेऊन मी बेबीताईला शोधायलाच आलो होतो, हे पण सांगितले. स्टेशनमास्तरसाहेबांनी त्यांच्या लॉगबुकांत सर्व नोंदी केल्या आमची नांवे पत्ता सर्व कांही लिहून घेतलं आणि आम्ही बेबीताईला घेऊन घरी आलो.
पण हा किस्सा इथेच संपत नाही, TRUTH IS STRANGER THAN FICTION (वास्तव हे कल्पितापेक्षा अद्भूत असतं) या सुभाषिताचा प्रत्यय आम्हाला यायचा होता.
वरील घटनेला चार-पांच दिवस उलटून गेले होते. आमच्या गोगटेवाडीच्या घरी सकाळीच एक पाहुणे आले. मी त्यांना लगेच ओळखले. तेच स्टेशन मास्तरसाहेब होते ते. मी त्यांची घरातल्या मोठ्या माणसांची ओळख करून दिली. स्टेशनमास्तर साहेबांचं आडनांव प्रभू होतं. ते म्हणाले “मी एका खास कामानिमित्त तुमच्याकडे आलो आहे. माझा भाचा चांगला शिकलेला आहे. **** बँकेत नोकरीला आहे. तुमच्या भाचीसाठी त्याचं स्थळ घेऊन मी आलो आहे.”
“अहो प्रभू साहेब, पण ही मुलगी बोलू शकत नाही, हे तुम्हाला माहित आहे कां ? बाकी सर्व दृष्टीने ती गृहकर्तव्यदक्ष आहे. स्वयंपाक उत्तम करते. दिसायला छान आहे. पण देवाने वाणी दिली नाही” माझ्या काकांनी थोडसं चांचरतच सांगितलं.
“काका, मला त्याची कल्पना आहे. त्या दिवशी अर्धा-पाऊण तास आम्ही खुणेनेच गप्पा मारत होतो. मध्ये मध्ये ती लिहून सांगायची. फार हुशार आहे तुमची भाची. माझा भाचा सर्व दृष्टीने चांगला आहे. फक्त त्याच्या पायांत किंचित दोष आहे. त्याचा एक पाय दुसऱ्या पायापेक्षा किंचित तोकडा आहे. त्यामुळे तो थोडासा लंगडत चालतो. एवढा एक दोष सोडला तर लाखात एक मुलगा आहे. हुशार आहे. इंग्लीश विषय घेऊन बी.ए.ला फर्स्टक्लास मिळवला आहे. नंतर लॉची पदवी मिळवली. बँकेत ज्युनियर ऑफिसर आहे. निर्व्यसनी, रूपाने चांगला. बघा पसंत पडतो कां ?” प्रभू साहेब अगदी तळमळीने बोलत होते.
“ठीक आहे. शुभस्य शीघ्रम्. मी तुम्हाला पत्ता लिहून देतो माझ्या दादरच्या बहिणीचा. परवा रविवार. तुमच्या भाच्यालाही सुट्टी असेल. त्याला घेऊनच तिथे या. आम्ही तिथेच असू. दोघेही एकमेकांना बघतील व तुम्ही माझ्या बहिणीशी व तिच्या यजमानांशी बोलून घ्या.” काकांच्या बोलण्यावर प्रभू साहेबांनी मान डोलावली.
मग सर्व कांही चित्रपटांत घडतं तसं झालं. माझी आत्या तर घरी चालून आलेलं स्थळ पाहून आनंदाने वेडी झाली. मुलगा-मुलगी एकमेकांना पसंत पडले. विवाहाचा खर्च अर्धा-अर्धा करायचं ठरलं. हुंडा, मान-पान अशा बुरसटलेल्या पध्दतींना, दोन्हीकडच्या लोकांनी पूर्णपणे कात्री लावली. आणि पुढच्याच महिन्याचा मुहूर्त निघाला.
“देवाच्या मनांत आलं तर तो एखाद्या गाढवाकडूनही मोठी मोठी कामे करवून घेतो.” माझी आत्या मला उद्देशून म्हणाली. मला गाढव, अक्कलशून्य, मूर्ख, धांदरट ही सर्व विशेषणं ऐकण्याची आधीपासून संवय होती. त्यामुळे आत्याने मला दिलेल्या ‘गाढव’ या उपाधीबद्दल अजिबात वाईट वाटलं नाही.
विवाहाच्या रिसेप्शनसमारंभाला मी स्टेजवर गेलो. “भावोजी मनापासून अभिनंदन” मी बेबीताईच्या ‘अहो’ना म्हटलं.
“अरे, तू काय अभिनंदन करतोस बाबा, मीच तुला मनापासून धन्यवाद देतो. तुझी आणि हिची त्यादिवशी चुकामुक झाली नसती, तर आमच्या भाग्यांत बीनादेवी कुठून आल्या असत्या ? तू त्या नळ-दमयंती आख्यानातल्या राजहंसासारखा आहेस आमच्यासाठी. केवळ तुझ्यामुळेच हा दिवस दिसतो आहे. तू सांगशील तिथे तुला माझ्याकडून पार्टी नक्की. शिवाय खास तुझ्यासाठी मी एक गिफ्ट आणलं आहे. रिसेप्शन आटोपलं की देतो तुला.” बेबीताईचा नवरा भलताच खूष दिसत होता. मी बेबीताईकडे पाहिले. तिच्या डोळ्यांत अवघा आनंद दाटला होता. “बेबीताई तू खुश आहेस ना?” मी तिला खुणेने विचारले. त्यावर बेबीताई अशी बेफाम लाजली की ‘गाढव ते राजहंस’ या माझ्या व्यक्तिमत्व प्रगतीचे आईशप्पथ सार्थक झाले.
लेखक:- श्री अनिल रेगे
प्रस्तुती : उज्ज्वला केळकर
संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३ सेक्टर – ५, सी. बी. डी. – नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र
सर्वप्रथम मी निवेदन करतो की हरिपाठावर या आधी अनेक संत आणि अधिकारी सत्पुरुषांनी चिंतन लिहिले आहे. ज्ञानेश्वर माऊलींनी लिहिलेल्या पाठावर ‘काही’ लिहिणे हे खरंतर माझ्यासारख्या सामान्य बुद्धीच्या माणसाचे काम नाही, तरीही मी माझ्या सद्गुरूंच्या आधाराने यथामती लिहिण्याचा पुन्हा एकदा प्रयत्न करीत आहे.
भगवंत प्राप्तीचा सर्वांगसुंदर मार्ग सर्व संतांनी स्वानुभूतीने सामान्य मनुष्यासाठी खुला करून दिला आहे. मनुष्य स्वाभाविकच स्वतःवर प्रेम करतो, त्यानंतर तो त्याच्या आवडीच्या माणसांवर, त्याच्या वस्तूंवर, घरादारावर, गाडी घोड्यावर, संपत्तीवर प्रेम करीत असतो. संत सांगतात त्याप्रमाणे हे प्रेम अंशतः का होईना स्वार्थी असतेच असते. या नश्वर जगात मनुष्य निःस्वार्थी प्रेम करू शकत नाही. जो मनुष्य निःस्वार्थी प्रेम करतो, तो सर्वांना आवडतो, त्यामुळे ती देवालाही प्रिय होतो. एका गीतात श्री. वसंत प्रभू म्हणतात
“जो आवडतो सर्वांना | तोचि आवडे देवाला|`”
परमार्थ साधणे म्हणजे अधिकाधिक निःस्वार्थ होणे. परमार्थ मार्गात गुरू शिष्याला नाम देतात आणि मग शिष्य त्या नामाचा अभ्यास करून परमार्थ साधण्याचा यत्न करीत असतो. माऊलींचे गुरू निवृत्तीनाथ यांनी त्यांना हरिनाम दिले. त्या नामाचा अभ्यास करून ज्ञानदेवांनी ज्ञांनदेव ते ज्ञानेश्वर इतकाच पल्ला गाठला नाही तर विश्वाची माऊली होऊन अवघाचि संसार सुखाचा करीन अशी ग्वाही दिली. माऊली म्हणतात,
“अवघाचि संसार सुखाचा करीन । आनंदे भरीन तिन्हीं लोक ॥१॥ जाईन गे माय तया पंढरपुरा । भेटेन माहेरा आपुलिया ॥२॥ सर्व सुकृताचें फ़ळ मी लाहीन । क्षेम मीं देईन पांडुरंगी ॥३॥ बापरखुमादेवीवरु विठ्ठलेंसी भेटी । आपुले संवसाटी करुनि ठेला ॥४॥”
{अर्थ:- संसार हा दुःखरूप असून माऊली म्हणतात. तो संसार मी सुखाचा करीन याचा अर्थ संसार हा ज्या ब्रह्मस्वरूपा वर मिथ्या भासलेला आहे. ते ब्रह्म सुखरूप आहे. आणि मिथ्या पदार्थ अधिष्ठानरूप असतो. या दृष्टीने संपूर्ण संसार ब्रह्मरूपच आहे. असे मी ज्ञानसंपादन करून संसार सुखरूप करून टाकीन इतकेच काय त्रैलोक्य ब्रह्मस्वरूप आहे असे जाणून सर्व त्रैलोक्य आनंदमय करून सोडीन. हे जाणण्याकरीता त्या पंढरपूरास वारीला जाऊन माझे माहेर जो श्रीविठ्ठल त्याला मी आलिंगन देईल. त्या पंढरीरायाला आलिंगन देऊन आतापर्यंत केलेल्या माझ्या पुण्याईचे फळ मी प्राप्त करून घेईन. माझे पिता व रखुमादेवीचे पती जे श्रीविठ्ठल त्यांच्या भेटीला आतापर्यंत जे जे भक्त गेले. त्यांना त्यांनी आपलेसे करून सोडले. म्हणजे तो भक्त परमात्मरूपच होतो. असे माऊली सांगतात.
सामान्य मनुष्याला स्वतःचा प्रपंच नेटका करता येतोच असे नाही, कारण त्याच्या प्रपंचात स्वार्थ जास्त असतो. संत होणे म्हणजे अत्यंत निःस्वार्थ होणे. म्हणून सर्व संत विश्वाचा प्रपंच करतात आणि सद्गुरू कृपेने ज्ञानेश्वरांसारखे संत विश्वमाऊली होत असतात.
माउलींचा हरिपाठ हा सर्वमान्य आणि लोकप्रिय हरिपाठ आहे. आजही अनेक ठिकाणी त्याचे नित्य पठण केले जाते. सातशे वर्षांपूर्वी लिहिलेला हरिपाठ गावोगावी कसा पोहचला असेल आणि मागील सुमारे सातशे वर्षे तो नित्य म्हटला जात असेल तर जागतिक आश्चर्य नव्हे काय ?
भगवन्नामाचे महात्म्य, महत्व आणि महती आपल्याकडील सर्व संतांनी मुक्त कंठानी गायिली आहे. ‘बिनमोल परंतु अमोल’ अशा नामांत मुक्ती, भुक्ती व भक्ती प्राप्त करून देण्याचे सामर्थ्य आहे आई सर्वसंतांनी उच्चरवाने प्रतिपादित केले आहे. नामाने भवरोग नाहीसा होतो इतकेच नव्हे, तर सर्व शाररिक व मानसिक रोग नाहीसे करण्याची अगाध शक्ती भगवंताच्या नामांत आहे. प्रपंच व परमार्थातील नाना प्रकारच्या अडचणी, विघ्ने व संकटे नामाने सहज दूर होतात. अत्यंत नाजूक व साजूक असे भगवंतांचे प्रेमसुख मिळण्याचे भाग्य नामस्मरण करणाऱ्या नामधारकालाच प्राप्त होते. संसार ‘असार’ नसून तो परमेश्वराच्या ऐश्वर्याचा अविष्कार आहे अशी दृष्टी नामानेच प्राप्त होते. कर्म, वर्ण व धर्म यांचे बंड मोडून भगवतप्राप्तीचा मार्ग संतांनी केवळ नामाच्या बळावर सर्वाना खुला केला आहे. हरिपाठ म्हणजे विठूमाऊलीच्या गळ्यातील सत्ताविस नक्षत्रांचा हार आहे, असे म्हणता येईल. संत ज्ञानेश्वरांच्या संपूर्ण शिकवणुकीचे सारं म्हणजे हा हरिपाठ आहे असे म्हटले तर वावगे होऊ नये. एक कल्पना मांडतो. भावार्थ दीपिका अर्थात ज्ञानेश्वरीच्या सुमारे नऊ हजार ओव्या आणि हरिपाठाचे सत्तावीस अभंग. नऊ हजार ओव्यांचा अभ्यास सामान्य मनुष्याला तसा कठीणच जाणार यात वाद नसावा. पण तरीही ज्याला थोड्या वेळात आणि कमी श्रमात परमार्थ प्राप्ती करायची आहे त्याने या सत्तावीस अभगांचा अभ्यास केला तरी त्याचे काम होईल असे माऊली सांगतात. या हरिपाठ चिंतनाच्या निमित्ताने आपली सर्वांची नामावर असलेली निष्ठा आणिक वृद्धिंगत होवो ही सद्गुरू आणि माऊलींच्या चरणी प्रार्थना करतो, सर्व सुजाण वाचकांना नमन करतो.
☆ ताकास तूर न लागू देणे… लेखिका – सुश्री मुग्धा पानवलकर ☆ प्रस्तुती – सौ अंजली दिलीप गोखले ☆
‘ताकास तूर न लागू देणे.’ ही म्हण आपणास परिचित आहेच.
या म्हणीचा प्रचलित अर्थ एखाद्या गोष्टीचा दुसऱ्याला अजिबात पत्ता लागू न देणे.
पण इथे ताक हा दही घुसळून केलेला पेयपदार्थ आणि तूर म्हणजे एक द्विदल कडधान्य अभिप्रेत नाही. तसा असता तर या म्हणीचा आणि त्याच्या अर्थाचा अर्थाअर्थी संबंध लागला नसता. तर याविषयी वेगळी माहिती आहे ती अशी…
इथे ‘ताक’ शब्द नसून ‘ताका’ शब्द आहे.
ताका म्हणजे कापडाचा तागा. जुन्या शब्दकोशात हा अर्थ दिला आहे.
आणि तूर हे द्विदल धान्य असा अर्थ इथे नाही. हातमागावर कापड विणण्यासाठी धागे गुंडाळून घ्यायचे जे विणकराच्या डोक्यावरचे आडवे लाकूड/तुळई असते तिला ‘तूर’ असे म्हणतात. हा ही शब्दकोशातील अर्थ आहे.
म्हणजे या म्हणीचा शब्दशः अर्थ असा की, ताग्याचा आणि तुरीचा संबंधच येऊ न देणे. थोडक्यात एखादी गोष्ट पार पडण्यासाठी जो कळीचा घटक आहे, तोच होऊ न देणे किंवा होणार नाही ह्याची काळजी घेणे.
तर अशी आहे ‘ताकाच्या तुरी’ची गंमत !
लेखिका : सुश्री मुग्धा पानवलकर
संग्रहिका : अंजली दिलीप गोखले
मोबाईल नंबर 8482939011
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈