हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 292 ☆ कविता – सेवा निवृत्ति पर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 292 ☆

? कविता – सेवा निवृत्ति पर ?

तीस-पैंतीस साल पहले, एक नौजवान,

मिठाई बांट रहा था नौकरी में चयन पर,

मां खुश थी, बहनें हर्षित,

पिता की चिंता थी खत्म हुई।

 

आज वही युवक बन चुका है एक परिपक्व पुरुष,

कुछ खिचड़ी बाल अब वह रखता है,

साथ ब्लड प्रेशर और शुगर की दवाएं,

नौकरी की गाथा पूरी हुई,

पत्नी प्रसन्न हुई,

अब आपका समय सिर्फ मेरा होगा।

 

खूब मेहनत की है आपने,

अब समय है आराम और सुकून का,

घूमना है दुनियां,

अब यादें हैं अनगिनत,

अनुभव हैं अमूल्य,

डायरियां भर भर,

सीखा और जिया है जीवन,

नित नई चुनौतियों की फाइलों के बीच।

 

अब समय है खुद के लिए समय निकालने का,

अपने सपनों को पूरा करने का,

नई उम्मीदों के साथ,

जीवन के नए मुकाम की ओर बढ़ने का,

जीवन के नए अध्याय रचने हैं,

कुछ खुद के लिए,

कुछ परिवार के लिए,

और कुछ समाज के लिए।

 

जुड़ना है अब दोबारा गांव की मिट्टी से,

करने हैं पूरे अपने शौक,

बेरोकटोक जीना है अपने आप के लिए।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 212 ☆ बाल गीत – पुस्तक बाँचें ज्ञान-वान की ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 212 ☆

बाल गीत – पुस्तक बाँचें ज्ञान-वान की  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चिड़िया बैठी शमी-डाल पर

करती आज सवेरा।

आँख दिखाई चिड़िया ने जब

भागा दूर अँधेरा।।

एक-एक करके बहुतेरी

चिड़ियाँ हैं आईं।

पुस्तक बाँचें ज्ञान-वान की

मन से करें पढ़ाई।

 *

पढ़तीं क,ख,ग,घ,अं,अः,

कोई ठ से पढ़े ठठेरा।।

 *

कोई पढ़ती ए,बी,सी,डी,

पढ़तीं अ , आ , इ , ई।

गणित और विज्ञान पढ़ें सीखें

तकनीकें नई -नई।

 *

कोई पढ़ती बाल पत्रिका

उपवन में उनका डेरा।

 *

शिक्षा से ही ज्योतिर्मय हो

मिटती द्वेष कुरीती।

देश प्रेम जगता है मन में

बढ़े सुमति सँग प्रीती।

 *

अहंकार भी मिट जाता है

मन से तेरा – मेरा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #179 – आलेख – ओजोन कवच की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “ओजोन कवच की आत्मकथा )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 179 ☆

☆ आलेख – ओजोन कवच की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मैं हूं ओजोन कवच, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद हूं, जहां से मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करता हूं। ये विकिरण मनुष्यों, पौधों और जानवरों के लिए बहुत ही हानिकारक होते हैं। वे त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान और अन्य कई बीमारियों का कारण बन सकते हैं।

मेरी खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। उन्होंने सूर्य से आने वाले प्रकाश के स्पेक्ट्रम में कुछ काले रंग के क्षेत्रों को देखा, जो पराबैंगनी विकिरण के अवशोषण के कारण थे।

मेरा निर्माण सूर्य से आने वाले ऑक्सीजन के अणुओं से होता है। ये अणु वायुमंडल में ऊपर उठते समय, उच्च तापमान और ऊर्जा के कारण टूट जाते हैं और ऑक्सीजन के तीन अणुओं से बने ओजोन अणुओं में बदल जाते हैं।

मैं पृथ्वी के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच हूं। मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके, जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं।

अंतर्राष्ट्रीय ओजोन परिषद की स्थापना 1985 में हुई थी। इस परिषद ने ओजोन परत के संरक्षण के लिए कई समझौते किए हैं। इन समझौतों के तहत, दुनिया भर के देश ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करने या समाप्त करने पर सहमत हुए हैं।

ओजोन परत के संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप, ओजोन परत में क्षरण की दर में कमी आई है। हालांकि, ओजोन परत पूरी तरह से ठीक होने में अभी भी कई वर्षों का समय लगेगा।

मैं पृथ्वी के लिए एक अनिवार्य हिस्सा हूं। मैं जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। मैं सभी लोगों से मेरा संरक्षण करने का आग्रह करता हूं।

मेरा संदेश

मैं ओजोन कवच हूं, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं आप सभी को याद दिलाना चाहता हूं कि मैं आपके लिए कितना महत्वपूर्ण हूं। मैं आपके जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। कृपया मेरा संरक्षण करें।

मैं आपसे निम्नलिखित बातें करने का अनुरोध करता हूं:

मुझे यानी ओजोन परत के बारे में जागरूकता बढ़ाएं।

मुझको नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करें या समाप्त करें।

अपने आसपास के पर्यावरण की रक्षा करें।

मैं आपके सहयोग की सराहना करता हूं। मिलकर हम मुझे यानी ओजोन परत को बचा सकते हैं और एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

12-09-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पंढरीची वारी… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पंढरीची वारी… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

(षडाक्षरी रचना)

वारी चालली हो

चंद्रभागे तीरी

एकमुखे गाती

नाम जप हरि  ||१||

 * 

शोभतसे भाळी

चंदनाची उटी

वैजयंती कंठी

कर ते हो कटी  ||२||

*

घोष तो गजर

भक्तीचा प्रहर

मृदंगाचा स्वर

विठाईचे द्वार ||३||

*

वैष्णवांची भक्ती

विठुराजा प्रती

नाम हीच शक्ती

लाख मुखे गाती ||४||

*

सावळी विठाई

गुण गावे किती ?

मूर्ती साजिरी ती

 भक्त साठविती  ||५||

© सुश्री दीप्ती कोदंड कुलकर्णी

हैदराबाद.

भ्र.९५५२४४८४६१

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नमन कवीकुलगुरू कालिदासा ☆ प्रेमकवी दयानंद ☆

प्रेमकवी दयानंद

? कवितेचा उत्सव ?

☆ नमन कवीकुलगुरू कालिदासा ☆ प्रेमकवी दयानंद 

आषाढातील, प्रथम दिनी

कृष्णमेघ, जमले नभांगणी

सुरु जाहली, सजल जलक्रीडा

पाहुनी व्याकुळ, गजगामिनी..

अमल,धवलगिरी, शिखरावरती

नांदीस नर्तन,मेघांचे

धूम्रवर्ण, वायुमंडलामधे

दर्शन, दिग्विजयी मेघांचे…

सूरवंदनी,वर्षाधारा

सृष्टीचे हे,पूजन मंगल

वृक्ष-वेली, पुलकित अवघे

घनकलशीचे, झरे पवित्रजल…

कृष्ण-घनांचे, सुंदर दर्शन

नयनरम्य, ते विखुरले

पंख पाचुचे, रंग प्रीतीचे

रानी-वनी,नीलमयूर, नाचले…

 विरही, व्याकुळ, प्रेमी कान्ता

दुरुनी जाणी,कालिदास मनी

यक्षाला अन् मेघाला, झणी

पाठवी सत्वर, दूत म्हणोनी..

आषाढातील, प्रथम दिन हा

कालिदास,यक्ष, मेघाचा

निसर्ग उत्सव, प्रतिमा-प्रतिभा,

काव्यसौंदर्य,साहित्याचा…

 प्रवास अलौकिक, हा प्रतिभेचा

सोहळा, अक्षर संस्कृतीचा

कवी कुलगुरु, कालिदास हा, थोर प्रथम कवी,जगी आदरणीय, सर्वांचा..🙏🏼

© प्रेमकवी दयानंद

संपर्क – तावरे काॅलनी.सातारा रोड.पुणे

मो 9822207068

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग १७ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग १७ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- भावाचं पत्र वाचून पुन्हा उलटसुलट विचार मनात गर्दी करू लागले.आईने लिहिलेला मजकूर वाचून तर मी हळवाच होऊन गेलो.बाबांच्या आठवणीने मी व्याकुळ झालो. अखेर भावनेच्या आहारी जाऊन का होईना पण मी मन घट्ट केलं आणि आता ‘स्टेट बँक’ हेच आपलं नशीब हे स्वीकारलं. युनियन बँक सोडायचा निर्णय पक्का झाला. पण तरीही मनाला स्वस्थता नव्हतीच.मी हातातल्या इनलॅंडलेटरची घडी घालू लागलो आणि लक्षात आलं, त्याला आत दुमडायचा जो फोल्ड असतो तो उलटा धरून त्यावर गिजबीट अक्षरात काही मजकूर दिलेला आहे. हे बाबांनी तर लिहिलं नसेल? हो नक्कीच. थरथरत्या हाताने लिहिल्याचं स्पष्ट जाणवत होतं. प्रयत्नपूर्वक एक एक अक्षर जुळवायचा आटापिटा करून ते वाचलं.त्यातून जे हाती लागलं ते मात्र खरंच लाखमोलाचं होतं!)

घाईघाईने कशीबशी लिहिलेली फक्त दोन वाक्यं होती ती.प्रयत्नपूर्वक अक्षरं जुळवत मी ती वाचली आणि अंतर्बाह्य शहारलो!

‘दत्तकृपेचा प्रसाद म्हणून मिळालेली सध्याची नोकरी काही झालं तरी सोडू नकोस. तिथेच तुझा उत्कर्ष होईल. ‘

या आधीच्या अस्वस्थ मनस्थितीत ‘बाबा हिंडते-फिरते असते तर त्यांच्याशी बोलता तरी आलं असतं.त्यांनी योग्य तो मार्ग नक्कीच दाखवला असता’ असं उत्कटतेनं वाटत राहिलं होतं. ते शक्य नाहीय हे माहित असल्याने मन अधिकच सैरभैर झालं होतं. आणि माझी ही अस्वस्थता नेमकी जाणवल्यासारखं बाबांनी मी न विचारताच माझ्या मनातल्या प्रश्नाचं नेमकं उत्तर मला दिलं होतं. मी निश्चिंत झालो. युनियन बँक न सोडण्याचा निर्णय घेतला. खूप दिवसानंतर प्रथमच चार दिवस रजा घेऊ घरी गेलो. मी घेतलेल्या निर्णयाने आई आणि भाऊ दोघांचा खूप विरस झाला होता. आई कांही बोलली नाही पण भाऊ मात्र म्हणाला,

“ही नशिबाने मिळालेली सोन्यासारखी संधी तू सोडायला नको होतीस. तू प्रोबेशन पिरिएडला घाबरून हा निर्णय घेतलायस.हो ना?”

“तसं नाही…पण..”

“मग कसं?”

मी काही न बोलता बाबांकडे पाहिलं. ते शांत झोपले होते. मी बॅग उघडली. बॅगेतलं इन्लॅंडलेटर काढून त्यातला बाबांनी लिहिलेला मजकूर भावाला दाखवला. त्याने तो वाचला आणि अविश्वासाने आईकडे पहात ते पत्र तिच्या हातात दिलं. आईनेही ते वाचलं. काय समजायचं ते समजली. एकवार अंथरुणावर शांतपणे झोपलेल्या बाबांकडे पाहिलं आणि ते पत्र मला परत दिलं.

“माझं लिहून झाल्यावर मी ते चिकटवणार तेवढ्यात यांनी मला थांबवलं होतं. ‘मी वाचून देतो मग टाक’असं म्हणाले होते.

आम्ही खरंतर त्यांना विनाकारण त्रास नको म्हणून त्याबद्दल काही बोललोही नव्हतो. तरीही आमच्या गप्पातून ते त्यांच्यापर्यंत पोहोचलेलं असणार नक्कीच. म्हणून तर जागा मिळाली तेवढ्यात घाईघाईने लिहिलंय हे सगळं जमेल तसं. होतं ते बऱ्यासाठी म्हणायचं दुसरं काय?”

आई असं म्हणाली खरी पण घडलं होतं ते फक्त बऱ्यासाठीच नव्हे तर खूप चांगल्यासाठी होतं याची प्रचिती आम्हा सर्वांना लवकरच आली.

स्टेट बॅंकेतली नोकरी युनियन बॅंकेच्या तुलनेत पगार,इतर सवलती, प्रमोशन्सच्या संधी,मुंबईतून बदली मिळायची अधिक शक्यता अशा सर्वच दृष्टीने निश्चितच आकर्षक होती.तरीही ”दत्तकृपेच्या प्रसाद म्हणून मिळालेली सध्याची नोकरी काही झालं तरी सोडू नकोस. तिथेच तुझा उत्कर्ष होईल ‘ या अंत:प्रेरणेने लिहिलेल्या बाबांच्या शब्दांत लपलेलं गूढ मला योग्य मार्ग दाखवून गेलं होतं.कालांतराने यथावकाश ते गूढही आपसूक उकललं.

माझ्या कन्फर्मेशननंतर लगेचच झालेल्या वेज रिव्हिजनच्या एग्रीमेंटमधे आमच्या बँकेची प्रमोशन पॉलिसी पूर्णतः बदलली. नोकरीची तीन वर्षे पूर्ण होताच प्रमोशनसाठी लेखी परीक्षा आणि इंटरव्यू देण्याचा मार्ग आमच्यासाठी खुला झाला होता. त्यामुळे ती माझ्यासाठी सुवर्णसंधीच ठरली. तीन वर्षे पूर्ण होताच मीही प्रमोशन टेस्ट दिली आणि लगेचच मला पहिलं प्रमोशनही मिळालं.एवढंच नव्हे तर पुढची वेगवेगळ्या

रॅंकची सगळी प्रमोशन्सही मला प्रत्येकवेळी फर्स्ट अटेम्प्टलाच मिळत गेली. त्याही आधी बेळगाव बँक, मिरज स्टेट बँक यासारख्या बँका युनियन बँकेत मर्ज झाल्याने आमच्या बँकेचे ब्रॅच नेटवर्कही सांगली कोल्हापूर भागात अनपेक्षितपणे प्रचंड विस्तारलेलं होतं. त्यामुळे मला लगेचण या भागात बदली तर मिळालीच शिवाय प्रमोशन्सनंतरही प्रत्येक वेळी सोईची पोस्टिंग्जही जवळपासच मिळत गेली. स्टेट बँकेत राहिलो असतो तर हे इतकं सगळं इतक्या सहजपणे नक्कीच मिळालं नसतं.

हे सगळं ज्यांच्या प्रेरणेने शक्य झालं ते माझे बाबा मात्र हा सगळा उत्कर्ष पहायला होतेच कुठे?

बाबांनी इनलॅंडलेटरमधे लिहिलेला तो दोन वाक्यांचा मजकूर हाच आमचा अखेरचा संवाद ठरला होता. कारण त्यानंतर लगेचच सप्टेंबर १९७३ मधे ते गेलेच. जाताना त्यांची सगळी पूर्वपुण्याई आणि आजही मला दिशा दाखवणाऱ्या त्यांच्या मोलाच्या आठवणी हे सगळं ते जाण्याआधी जणू माझ्या नावे करून गेले होते!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ चार अनुवादित लघुकथा : खेळण्याचे दिवस / शंभर रुपये / धर्म अधर्म / मला खेळू द्या ☆ भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? जीवनरंग ?

☆ चार अनुवादित लघुकथा : खेळण्याचे दिवस / शंभर रुपये / धर्म अधर्म / मला खेळू द्या ☆ भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर 

१. खेळण्याचे दिवस

घरातलं कपाट खेळण्यांनी भरून गेलं होतं. पत्नीचा विचार होता, कुठल्या तरी भांगारवाल्याला खेळणी विकून टाकावीत. मुले मोठी झाली होती. ती आता खेळण्यांकडे बघतही नव्हती. ती वैतागाने  पुटपुटली, त्यातली काही खेळणी सोडली, तर बाकीची अगदी नवीच्या नवी आहेत. ‘दर वर्षी वाढदिवस साजरा करायचो. खूप खेळणी यायची. त्यावेळी, इतर मुलांच्या वाढदिवसाला त्यातलीच काही खेळणी दिली असती, तर खेळण्यांचा असा ढीग लागला नसता. दर वेळी इतर मुलांच्या वाढदिवसाला बाजातून आणून नवीन नवीन खेळणी देत राहिलो. आता भांगारवाला काय देणार? शे-पन्नास.’

भाऊसाहेब म्हणाले, ‘जे झालं ते झालं. आपल्या मुलांचं लहानपण खेळण्यांशी खेळण्यात गेलं, ही आनंदाची गोष्ट आहे. आता तू म्हणालीस तर मी ही खेळणी गरीब मुलांच्यामध्ये वाटून येतो. बाकी काही नाही, तरी एक चांगलं काम केल्याचं समाधान’  

पत्नी काहीच बोलली नाही, तेव्हा तिचा होकार गृहीत धरून त्यांनी एका मोठ्या पिशवीत खेळणी भरली आणि ते इंडस्ट्रीयल एरियाच्या मागे बनलेल्या झोपडपट्टीकडे गेले. त्यांच्या मनात येत होतं, मुलं किती खूश होतील ही खेळणी पाहून. भाजी-भाकरी काय, मुलं कशीही खातातच. शरीर झाकण्यासाठी कापडे कुठून कुठून, मागून मागून मुलं मिळवतात. पण खेळणी त्यांच्या नशिबात कुठून असणार? ही खेळणी पाहून त्यांचे डोळे चमकतील. चेहरे हसरे होतील. त्यांना असं प्रसन्न पाहून मलाही खूप आनंद वाटेल. यापेक्षा दुसरं मोठं काम असूच शकत नाही.               

झोपडपट्टीजवळ पोचताच त्यांना दिसलं की मळके, फटाके कपडे घातलेली दोन मुले समोरून येत आहेत. त्यांना आपल्याजवळ बोलावून ते त्यांना म्हणाले, ‘मुलांनो, ही खेळणी मी तुम्हा मुलांना देऊ इच्छितो.  यापैकी तुम्हाला पसंत असेल, ते एक एक खेळणं तुम्ही घ्या….अगदी फुकट.’

मुलांनी हैराण होऊन त्यांच्याकडे पाहिलं. मग एक दुसर्‍याकडे पाहीलं. मग खूश होत त्यांनी खेळणी उलटी-पालटी करून पाहिली. त्यांना खुश झालेलं बघता बघता भाऊसाहेबांनाही आनंद झाला. काही क्षणात त्यांना दिसलं, मुलं विचारात पडली आहेत. त्यांचा चेहरा विझत विझत चाललाय. 

‘काय झालं?’

एका मुलाने खेळणं परत त्यांच्या पिशवीत टाकत म्हंटलं, ‘मी नाही हे घेऊ शकत. जर मी हे खेळणं घरी नेलं, तर आई-बाबांना वाटेल की मी मालकांकडून ओव्हरटाईमचे पैसे घेतले आणि त्यांना न विचारता त्याचं खेळणं घेऊन आलो. कुणी फुकटात खेळणं दिलय, हे त्यांना खरं वाटणार नाही. संशयावरूनच मला मार बसेल.’

दूसरा मुलगा खेळण्यापासून हात बाजूला घेत म्हणाला, ‘बाबूजी, खेळणं घेऊन करणार काय? मी फॅक्टरीत काम करतो. तिथेच रहातो. सकाळी उजाडल्यापासून ते रात्री अंधार पडेपर्यंत काम करतो. केव्हा खेळणार? आपण ही खेळणी कुणा लहान मुलांना द्या.’

मूळ कथा – खेलने के दिन  

मूळ लेखक – डॉ. कमल चोपड़ा   

अनुवाद – उज्ज्वला केळकर

२. शंभर रुपये

आलोक आपली पत्नी आभा आणि इतर नातेवाईकांना घेऊन, एक भाड्याचा टेंपो घेऊन, काही प्रेक्षणीय स्थळे पहाण्यासाठी सकाळीच निघाला होता. दिवसभर अनेक प्रेक्षणीय स्थळे पाहून प्रसन्न चित्ताने ते आता घरी परतू लागले होते. संध्याकाळ गडद होऊ लागली होती. थंडी पडू लागली होती म्हणून मग सगळे जण चहा घेण्यासाठी एके ठिकाणी थांबले. चहा घेऊन ते पुन्हा टेंपोत बसू लागले. टेंपोला लागून टेंपोचा ड्रायव्हर आत्माराम उभा होता. सगळे जण त्याच्या ड्रायव्हिंग कौशल्याची स्तुती करत टेंपोत चढू लागले.

आलोक म्हणाला, ‘मी सकाळपासून पहातोय. आपण सकाळपासून आत्तापर्यंत एकदाही हॉर्न वाजवला नाही. कुणालाही ओव्हरटेक केलं नाही. उलट मागून हॉर्न वाजवणार्‍यांना रस्ता देत गेलात. खरोखर आपण कमालीचे ड्रायव्हर आहात!’ त्याने भेट म्हणून शंभर रुपयाची एक नोट आत्मारामला दिली. त्याने कृतज्ञतापूर्वक नोट कपाळाला लावत म्हंटलं, ‘ मी ही नोट सांभाळून ठेवेन. खर्च नाही करणार!’

टेंपोत बसल्यानंतर आभा आपली नाराजी प्रगट करत म्हणाली, ‘ आपण चांगल्या कामाची नेहमी प्रशंसा करता. लोकांचा उत्साह, धाडस वाढवता, इथपर्यंत ठीक आहे! पण आत्ता ड्रायव्हरला शंभर रूपाये देण्याची काय गरज होती? ठरलेले पैसे तर आपण दिलेच होते.’    आलोक हसत म्हणाला, ‘कळेल तुलाही… मग तूच या गोष्टीचं समर्थन करशील.’

टेंपो घाटातून जाऊ लागला. धूसरता वाढली होती. समोरचं स्पष्ट दिसत नव्हतं. आत्माराम मात्र अतिशय काळजीपूर्वक गाडी चालवत होता. भीतीने आभाने डोळे बंद केले आणि ती आलोकला चिकटून बसली. गाडी हळू हळू घाटातून बाहेर आली आणि सपाट रस्त्यावरून धावू लागली धूसरता नाहिशी झाली होती. आलोकने आभाला डोळे उघडायला सांगितले. आभा दीर्घ श्वास सोडत म्हणाली, ‘ आपल्या शंभर रुपयाची सार्थकता मला कळली.’

मूळ कथा – नो हॉर्न !           

मूळ  लेखक – अशोक वाधवाणी  

अनुवाद – उज्ज्वला केळकर

३. धर्म- अधर्म

‘ए पोरा, थांब. थांब. तू ही जी दगडफेक चालवली आहेस, ती कुणाच्या सांगण्यावरून?’ दंग्यात सामील झालेल्या एका किशोरवयीन मुलाला पोलिसाने विचारलं.

मुलगा गप्प बसला.

‘तुझं नाव काय?’ यावेळेचा आवाज अधीक कडक होता.

तरीही तो गप्प बसला.

मग आपला आवाज थोडा मृदु करत पोलिसाने विचारले, ‘देवळात जातोस?’

त्याने नकारार्थी मान हलवली.

‘मशिदीत?’

त्याने पुन्हा नकारार्थी मान हलवली.

‘चर्चमधे जातोस की गुरुद्वारात?’

किशोर अजूनही गप्पच होता.

‘कोणतं धर्मस्थळ तोडायला आला होतास?’ पोलिसांचा आता स्वत:वरचा ताबा सुटत चालला होता.

‘मी सगळी धर्मस्थळं तोडून टाकीन. ‘ तो मुलगा आपल्या मुठी आवळत म्हणाला.

‘कुठे रहातोस?’ पोलिसांनी आश्चर्याने विचारले.

‘अनाथाश्रमात. तिथे कुणालाच माहीत नाही, माझा धर्म कोणता आहे. लोकांना आपण जन्माला घातलेल्या मुलाचं पालन करता येत नाही, आणि निघालेत मोठे धर्माचं पालन करायला. ‘

क्रोध आणि तिरस्काराने बघत तो पुन्हा दगड हातात घेऊन दंगेखोरांच्यात सामील झाला. ‘ 

मूळ कथा – धर्म – अधर्म   

मूळ  लेखिका – सत्या शर्मा ‘ कीर्ति’

अनुवाद – उज्ज्वला केळकर

४.  मला खेळू द्या. 

नितिनने जोरदार शॉट मारला, तशी बॉल नाल्यात जाऊन पडला. आता त्या घाणेरड्या नालयातून बॉल बाहेर कोण काढणार?

चरणू मोठ्या आवडीने त्यांचा खेळ बघत होता. त्याला काही कुणी खेळायला घेतलं नव्हतं.

नितिन त्याला म्हणाला, ‘ए, त्या नालयातून बॉल बाहेर काढ. आम्ही तुला एक रुपया देऊ आणि खेळायलाही घेऊ.’

चरणूला लालसा वाटली. नाल्यात उतरण्यासाठी तो नाल्याच्या काठाला लटकला. अचानक त्याचे हात सुटले आणि तो घाणीत डोक्यावर पडला. ठाणे तडफडात हात-पाय मारायला सुरुवात केली. त्याने जशी काही आपल्या जिवाची बाजी लावली.

बाकीची मुले नाल्याच्या काठावर उभी राहून हसत-खिदळत होती. त्याने लावाकरात लवकर बॉल काढावा, म्हणून टी वॅट पहाट होती.

‘स्साला, खाली बघा… एका रूपायासाठी घाणीत घुसून …’

‘हे गरीब लोक इतके लालची असतात ना, एक रुपयाच काय, एका पैशासाठीसुद्धा ते आपला जीव देतील.’

एवढ्यात चरणू बाहेर आला. डोक्यापासून पायापर्यंत तो घाणीने लडबडलेला होता. हात, तोंड, कपडे सगळं घाणंच घाण.

‘हा घे तुझा रुपया आणि आण तो आमचा बॉल इकडे.’

चरणूने फेकलेल्या रूपायावर पाय ठेवून उभा राहिला आणि गंभीरपणे म्हणाला, ‘मी या एका रूपायासाठी इतका मोठा धोका पत्करला नव्हता.’

‘मग काय शंभर रुपये घेणार?’

‘नाही. मला तुमच्याबरोबर खेळायचं आहे.’

बाकीची मुले खदाखदा हसायला लागली जशी काही त्याने काही अजब गोष्ट सांगितलीय.

‘साल्या, तू आमच्याबरोबर खेळणार? अवतार बघ एकदा स्वत:चा, जसा काही एखादं डुक्कर चिखलात लोळून आलाय.’

‘मी खेळू इच्छितो. तुम्ही खेळा. मलाही खेळू द्या. बोला. खेळायला घेणार की नाही?’ आवाजावर जोर देत त्याने विचारले.

उत्तरादाखल नितिन चिडून म्हणाला, ‘सांगितलं ना एकदा… दे बॉल इकडे आणि पल इथून नाही तर… ‘

जो बॉल थोड्या वेळापूर्वी प्राण पणाला लावून चरणूने नाल्यातून काढला होता, तो बॉल रागारागाने त्याने पुन्हा त्या नाल्यात फेकून दिला. ‘बघतोच, तुम्ही तरी कसे खेळताय’, असा म्हणत तो गंभीरपणे तिथून निघून गेला.

मूळ कथा – खेलने दो  

मूळ लेखक – डॉ. कमल चोपड़ा   

अनुवाद – उज्ज्वला केळकर

अनुवादिका – सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो. 9403310170, email-id – [email protected] 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ईसीजी आयुष्याचा… ☆ सौ.अश्विनी कुलकर्णी ☆

सौ.अश्विनी कुलकर्णी

? मनमंजुषेतून ?

☆ ‘ईसीजी ‘ आयुष्याचा ☆ सौ.अश्विनी कुलकर्णी ☆

आयुष्य एकच,

पण…

रोज वेगवेगळे नवे निकाल देत राहतं ,

हे कस काय बर?

असे प्रश्न….

 

या निकालांची,

परीक्षा केव्हा दिली होती ?

 

कधी आठवतं,कधी नाही…

तेव्हा प्रश्नपत्रिका समोर आल्या की,

काही वाटायच्या अगदी सोप्या,

तर काही परत परत प्रश्न वाचत,

त्यावर नजर फिरवत ठेवणाऱ्या …. 

गोंधळात टाकणाऱ्या…

 

आयुष्यातील प्रश्नांची उत्तर,

शोधताना…..ती,

शांत राहून, व्यक्त होऊन ,कृतीतून,संवादातून,

संघर्षातून, आनंदातून, दुःखातून  लिहिली गेली…

आयुष्यावर!

 

डोळे मिटून स्तब्ध पडताच

आपल्या आयुष्यातील हालचालींची मोजमापं

दिसू लागली…

मधूनच थोडस तिरकस नजरेने,

जस ईसिजी मशीनकडे पाहतो

तस भूतकाळात पाहिला जीवनाचा ईसीजी…

अनेक डोंगर दऱ्याच दिसल्या…

त्या पार करण्याच्या प्रयत्नात मी,

कधीतरी काहीकाळ सरळ रेषांनी,

चकवाही दिला होता…

गात्र खचली असली तरी,

मन त्यांना प्रत्येक वेळी उठवायचं…

वेळी अवेळी मिळालेले, हेच ते निकाल…

शेजारच्या त्या मशीनमध्ये

होत असते जीवनाच्या ईसीजी ची नोंद.. 

अजूनही सुरू आहे ते मशीन,

सुरूच राहणार…

पण आता भीती वाटत नाही मशीनची…

मशीनने दऱ्या डोंगर दाखवले तरी,

मन शांत, शाबूत ,भक्कम आहे!

© सौ अश्विनी कुलकर्णी

मानसतज्ञ, सांगली  (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491 Email – [email protected] 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ आषाढी एकादशीचे मागणे… सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुती – सौ.अंजली दिलीप गोखले ☆

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ आषाढी एकादशीचे मागणे… सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुती – सौ.अंजली दिलीप गोखले ☆

सौ.अंजली दिलीप गोखले 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

असा एक क्षण यावा

   की जिथे मुक्तिचाही ध्यास संपावा.

असा एक क्षण यावा

की जिथे विठ्ठल आणि आपण

यात भेद नसावा.

असा एक क्षण यावा

की जिथे आत्मानंदालाही

आनंद व्हावा.

असा एक क्षण यावा की

ज्ञानोबांच्या नेत्रानी विठ्ठल पहावा.

असा एक क्षण यावा की

नामदेवांच्या किर्तनाने विठ्ठलाच्या

अस्तित्वाचा वेध घ्यावा.

असा एक क्षण यावा की

नाथांच्या भक्तिभावाने विठ्ठल

प्रसन्न करून घ्यावा.

असा एक क्षण यावा की

तुकोबांच्या भाबड्या भक्तिने

विठ्ठलास बंधनात बांधावा.

असा एक क्षण यावा की

जनाईसम संसाररूपी जात्यावर

धान्य दळताना परमार्थ रूपी

पिठाचा बोध घ्यावा.

असा एक क्षण यावा की

सावत्या सम भक्तिचा मळा

फुलविताना कसदार मनाचा

कस लागावा.

असा एक क्षण यावा की जळी

स्थळी पाषाणी

विठ्ठल सोहळ्याचा अनुभव घ्यावा.

असा एक क्षण यावा की

अज्ञानाच्या अंधारी

दिवा ज्ञानाचा लागावा.

असा एक क्षण यावा की

भक्तिचा मोगरा फुलावा

  भक्तिचा मोगरा फुलावा.

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

प्रस्तुती : अंजली दिलीप गोखले 

मोबाईल नंबर 8482939011

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ माऊलींचा हरिपाठ १. ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले

? इंद्रधनुष्य ?

☆ माऊलींचा हरिपाठ १.… ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले 

☆ 

देवाचिये द्वारी उभा क्षणभरी।

तेणें मुक्ती चारी साधियेल्या ।।१।।

हरि मुखे म्हणा हरि मुखे म्हणा।

पुण्याची गणना कोण करी।।२।।

असोनि संसारी जिव्हे वेगु करी।

वेदशास्त्र उभारी बाह्या सदा।।३।।

ज्ञानदेव म्हणें व्यासाचिया खुणा।

द्वारकेचा राणा पांडवा घरी।।४।।

विवरण :-

महाराष्ट्रात भागवतधर्माची मुहर्तमेढ संत ज्ञानेश्वरांनी रोवली आणि म्हणूनच  “ज्ञानदेवें रचिला पाया, तुका झालासे कळस” असे म्हटले जाते. 

घर बांधताना आधी पाया खणला जातो, मग पाया बांधला जातो. जितकी इमारत उंच त्या प्रमाणात पायाचा आकार ठरवला जातो. मागील ७०० वर्ष ही ‘इमारत’ दिमाखात उभी आहे आणि जगाला ज्ञान देण्याचे, परंपरा टिकविण्याचे असिधारा  व्रत चालू आहे, म्हणजे हा पाया बांधणारा अभियंता किती कुशल असेल.

आपल्याकडे सर्व संतांना स्वाभाविकपणेच आईची उपमा दिली गेली आहे. आई इतकेच नव्हे, तर त्यापेक्षा खूप जास्त असे सर्व संतांचे आपल्यावर उपकार आहेत. आई लेकराला एक जन्म सांभाळते, तर सद्गुरू शिष्याला मुक्ती मिळवून देईपर्यंत सांभाळतात. 

भक्त  आणि देव यांच्यातील ऐक्य साधणारा दुवा असेल तर तो म्हणजे  संत. एखादवेळेस देव प्रसन्न होणार नाही,पण संतांना मात्र मायेचा पाझर लगेच फुटतो. सर्व संतांनी समाजाचे कल्याण व्हावे म्हणून अपारकष्ट  सोसले, अनेक संतांनी समाजाचे हीत व्हावे म्हणून मानहानी पत्करली, त्यांची समाजाकडून हेटाळणी  झाली, कोणाचा संसार विस्कटला, कोणाला वाळीत टाकण्यात आले, कोणाची गाढवावरुन धिंड काढण्यात आली. परंतु या कृतीचे प्रतिबिंब कोणत्याही संतांच्या साहित्यात आपल्याला आढळत नाही आणि पुढेही आढळणार नाही कारण संत म्हणजे अकृत्रिम मातृभाव आणि वात्सल्य यांचे आगर. पंढरपूरच्या पांडुरंग पुरुष देव असूनही त्याला सर्व संतांनी माऊली केले आणि सर्व संत सुद्धा त्या विठूमाऊलीप्रमाणे विश्वाची माऊली झाले…..! अखंड नामस्मरणाने अनेक शिष्यांनी संतत्व प्राप्त करून घेतले. परमार्थ आचरण करायला अत्यंत सुलभ आहे. त्याचे सामान्य सूत्र पुढील प्रमाणे सांगता येईल.

 “एकतर समोरच्या मनुष्याला आई माना,  संपूर्ण जगाला आपली आई माना, अथवा संपूर्ण जगाची आई व्हा!!”

या पाठात माऊली म्हणतात की देवाच्या दारी क्षणभर उभा राहा म्हणजे तुला चारी अर्थात सलोकता, समीपता, सरूपता आणि सायुज्यता या चार मुक्तींचा सहज लाभ होईल. माऊलींनी सांगितलेल्या चार मुक्ती कशा आहेत हे आपण दासबोधाच्या आधारे थोडक्यात समजून घेऊ. 

(संदर्भ: दासबोध दशक ४ समास १०)

“येथें ज्या देवाचें भजन करावें | तेथें ते देवलोकीं राहावें । स्वलोकता मुक्तीचें जाणावें । लक्षण ऐसें ॥ २३॥”

{या मृत्युलोकात असताना ज्या देवतेची उपासना माणूस करतो, त्या देवतेच्या लोकांत तो मृत्यूनंतर जाऊन सहतो. स्वलोकता मुक्तीचे लक्षण हे असे आहे.}

“लोकीं राहावें ते स्वलोकता । समीप असावें ते समीपता । स्वरूपचि व्हावें ते स्वरूपता । तिसरी मुक्ती ॥ २४॥”

{त्या देवतेच्या लोकांत जाऊन राहणे याला स्वलोकता म्हणतात. समीप असावे यास समीपता मुक्ती म्हणतात. त्या देवतेचे स्वरूप प्रास होऊन सहाणे याला स्वरूपता मुक्ती म्हणतात. ही तिसरी मुक्ती आहे.}

“देवस्वरूप जाला देही । श्रीवत्स कौस्तुभ लक्ष्मी नाहीं । स्वरूपतेचें लक्षण पाहीं । ऐसें असे ॥ २५॥”

{त्याला विष्णूचे रूप मिळाले तरी त्यास श्रीवत्स, कौस्तुभ मणी व लक्ष्मी यांची प्राप्ती होत नाही. स्वरूपता मुक्तीचे लक्षण हे अशा प्रकारचे आहे.}

“सुकृत आहे तों भोगिती । सुकृत सरतांच ढकलून देती । आपण देव ते असती । जैसे तैसे ॥ २६॥”

{पुण्याचा साठा असेपर्यंत त्या त्या लोकातील भोग भोगावयास मिठ्यात. पुण्याचा पूर्ण क्षय झाला की तेधून ढकलून देतात. मात्र त्या लोकातील देव तेथे तसेच पूर्वीप्रमाणेच असतात.}

“म्हणौनि तिनी मुक्ति नासिवंत । सायोज्यमुक्ती ते शाश्वत । तेहि निरोपिजेल सावचित्त । ऐक आतां ॥ २७॥”

{या तिन्ही मुक्ती नाशिवंत आहेत. सायुज्यमुक्ती ही अविनाशी आहे. ते कसे ते आता सांगतो. चित्त सावध ठेवून ऐकावे.}

*ब्रह्मांड नासेल कल्पांतीं । पर्वतासहित जळेल क्षिती । तेव्हां अवघेच देव जाती । मां मुक्ति कैंच्या तेथें ॥ २८॥”

{कल्पांती ब्रह्मांडाचा नाश होतो. पर्वतासहित भूमी जळून जाईल तेव्हा सगळे देवही जातात. तेव्हा मग तेथल्या मुक्ती कशा राहणार ? }

“तेव्हां निर्गुण परमात्मा निश्चळ । निर्गुण भक्ती तेहि अचळ । सायोज्यमुक्ती ते केवळ ।  जाणिजे ऐसी ॥ २९॥”

{याप्रमाणे कल्पांत जरी ओढवला तरी निर्गुण निश्चळ परमात्मा जशाच्या तसाच असतो. तो नाहीसा होत नाही. त्याचप्रमाणे निर्गुण भक्तीही अचलच असते. तिचाही नाश होत नाही. सायुज्यमुक्ती ही केवळ शाश्वत असते, हे जाणून घ्यावे.}

“निर्गुणीं अनन्य असतां । तेणें होये सायोज्यता । सायोज्यता म्हणिजे स्वरूपता । निर्गुण भक्ती ॥ ३०॥”

{निर्गुण परमात्म्याशी अनन्य असणे हीच सायुज्यता होय. सायुज्यता म्हणजे स्वस्वरूपता. तिलाच निर्गुण भक्ती म्हणतात.}

हे सर्व वाचून सामान्य मनुष्याला प्रश्न पडतो की मी क्षणभरच काय तासंतास देवळाच्या समोर उभा असतो, कारण माझे घर देवळाच्या समोरच आहे, पण मुक्तीचे सोडा, कणभर देखील मन:शांती प्राप्त होत नाही, याला काय करावे ? याचे उत्तर माऊली आपल्याला पुढे सांगत आहेत.

संतांची वचनांचे अर्थ कळण्यासाठी मनुष्याची त्या विषयातील थोडी तयारी असावी लागते. मूल सकाळी शाळेत गेले आणि संध्याकाळी शिक्षण पूर्ण करून घरी आले असे होत नाही. तद्वतच संत साहित्याचे आहे. माऊली आपल्याला देवाच्या दारी उभे राहायला सांगत आहेत. सामान्य मनुष्य देवाच्या दारी याचा अर्थ देवळाच्या दारी असा घेत असतो. म्हणून अभंग वाचता वाचता तो मनाने देवळाच्या दारी जाऊन उभा राहतो, पुढची ओळ वाचतो आणि त्याला त्वरित देवाचे दर्शन व्हावे अशी अपेक्षा असते, पण तसे होत नाही. याला अनेक कारणे आहेत. 

सर्व संतांनी सांगितले आहे की देव सर्वत्र आहे. देव नाही अशी जागाच नाही. जशी हवा नाही अशी जागा नाही, आकाश नाही अशी जागा नाही, तसे देव नाही अशी जागा नाही. थोडक्यात देव सर्वत्र आहे याचे भान ठेवणे, ते निरंतर टिकणे म्हणजे देवाच्या दारी उभे रहाणे. थोडक्यात आपण नित्य देवाच्या दारी उभे आहोत. याची जाणीव देवाला आहेच, परंतु आपल्या डोळ्यांवर मायेचा पडदा असल्याने देव समोर आहे याची जाणीव आपल्याला अत्यंत क्षीण असते. ही जाणीव विकसित करणे महत्वाचे. ते कार्य भगवंत संतांच्या माध्यमातून करीत असतो.

मनुष्य देवळात जातो, तेव्हा तो देवळाबाहेर आपल्या चपला काढून ठेवतो. देवळाचा उंबरठा ओलांडताना आपला मान, अभिमान, प्रपंच बाहेर ठेवून देवाचे दर्शन घ्यावे असे त्यात अभिप्रेत असते, परंतु मनुष्य देवळात एकटा जात नाही, त्यासोबत वरील सर्व सोबती असतात, त्यामुळे देव त्याला दर्शन देत नाही. एक मनुष्य देवळाबाहेर भिक मागतो आणि हा देवळात जाऊन भीक मागतो.

माऊली क्षणभर उभे रहायला सांगतात. कोणतीही गोष्ट क्षणात होत असते. क्षण युगाचा निर्माता आहे असे म्हटले जाते. काळ अनंत आहे, त्यामानाने आपले आयुष्य क्षणभरच!! बर कोणत्या क्षणाला मृत्यू येईल हे मनुष्याला माहीत नसते, तसे कोणत्या क्षणाला सद्गुरू कृपा करतील हे ज्ञात नसते.

उभा असलेला मनुष्य जागा असतो. त्याचे डोळे उघडे असतात, म्हणजे तो नीट पाहू शकतो. उभा मनुष्य सतत सावध असतो. इथे समर्थांची शिकवण आठवते.

“अखंड सावधान असावे | दुश्चित कदापि नसावे ||” थोडक्यात मनुष्याने क्षणोक्षणी अत्यंत सावध राहून सर्वत्र भरून राहिलेल्या देवाची अनुभूती घेण्यासाठी अखंड नामस्मरण करण्याचा प्रयत्न करायला हवा. 

माऊलींनी सांगितल्याप्रमाणे वागले तर आपल्याला त्याला चारी मुक्ती नक्कीच लाभतील. हे संत वचन आहे, ते सत्य असणारच. मग आपल्या मनात प्रश्न होतो, आम्हाला त्याचा लाभ होणार की नाही आणि कसा होणार ? सर्व संत उत्तम शिक्षक असतात. माऊलींनी याचे उत्तर पुढील ओळीत दिले आहे. 

“हरी मुखे म्हणा हरी मुखे म्हणा।पुण्याची गणना कोण करी।।२।।”

माऊली म्हणतात, तू सतत हरिचे नाम घे. त्याची गणना करू नकोस. मनुष्याला जिवंत राहण्यासाठी श्वसन करावे लागते. मग मनुष्य असे म्हणत नाही की आज मी फक्त पाचवेळाच श्वसन करेन, मला कंटाळा येतो, सारखे श्वसन करण्याचा. तद्वतच मनुष्याने सतत नामस्मरण करावे, हरिचे नाम घ्यावे असे माऊली आपल्याला सांगतात. नामयोगी असलेले माझे सद्गुरू श्री ब्रम्हचैतन्य गोंदवलेकर महाराज सांगतात,

“नाम सदा बोलावे, गावे, भावे जनासी सांगावे”

मुखात नाम येणे किंवा नामस्मरण करावेसे वाटणे हेच मुळात  मोठे पुण्य आहे.  मानव देहधारी असलेला जीवच फक्त नाम घेऊ शकतो, बाकी इतर योनींतील जीवांना 

ही सुविधा उपलब्ध नाही आणि त्यामुळे नाम घेण्यासाठीच जीवाला मनुष्य देह प्राप्त झाला आहेस असे सर्व संत सांगतात. मनुष्याने हे ध्यानात ठेवून अखंड नाम घेण्याचा प्रयत्न करावा. हेच मोठे पुण्य.  

नाम सतत घेतले पाहिजे. वेळ मिळाला की नाम घेतले पाहिजे. असे करता आले तर नामाशिवाय क्षण ही फुकट जाणार नाही. नामस्मरणाला वेळ मिळत नाही ही लंगडी सबब आहे. जेवढा रिकामा वेळ मिळतो तेवढ्या वेळात जरी रोज नामस्मरण केले तरी नामाच्या राशी पडतील. खरोखर आपण रोज किती वेळ फुकट घालवितो. 

नामाचे महात्म्य इतके अपूर्व आहे की, नाम उच्चारणारा व ते ऎकणारा दोघेही उध्दरून जातात. भक्ताचे सर्व दोषहरण करुन नाम त्याला दोषमुक्त करते, म्हणून जड-जीवांना तारणारे नामस्मरणच आहे. एकाच नामस्मरणाची शेकडो-हजारो आवर्तने झाल्यावर आपली स्पंदने त्या देवतेचा आकार घेऊ लागतात. रामाची भक्ती करणारा राम होतो. कृष्णाची भक्ती करणारा कृष्ण होतो. म्हणून मनुष्याने पापपुण्याच्या हिशेबात  न गुंतता नाम घेणे जास्त हिताचे.

जय जय राम कृष्ण हरी !!!! 

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले (दास चैतन्य)

थळ, अलिबाग. 

८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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