हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 29 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 29 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

उच्चरित शब्द

अभिदा है,

शब्द की

सीमाएँ हैं

संज्ञाएँ हैं

आशंकाएँ हैं,

चुप्पी

व्यंजना है,

चुप्पी की

दृष्टि है

सृष्टि है

संभावनाएँ हैं!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 10:44 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 426 ⇒ अमृत वेला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अमृत वेला।)

?अभी अभी # 426 ⇒ अमृत वेला? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अमृत वेला होया

तू तो सोया होया

अमृत वेला का तात्पर्य किसी विशिष्ट समय से नहीं है। पहर की समय प्रणाली के अनुसार, अधिकांश सिख आमतौर पर इस समय की शुरुआत लगभग 3:00 बजे से करते हैं। जपजी साहिब में गुरु नानक कहते हैं, “अमृत वेला में एक सच्चे नाम की महिमा पर ध्यान करें”। अमृत वेला का महत्व संपूर्ण गुरु ग्रंथ साहिब में मिलता है।

साधारण भाषा में हमें बताया जाता था ;

Early to bed and early to rise

Is the way to be healthy wealthy and wise.

बड़े होकर भी यही सीख;

उठ जाग मुसाफिर भोर भई,

अब रैन कहाँ जो सोवत है, जो सोवत है वो खोवत है, जो जागत है सो पावत है।।

आदर्श अपनी जगह, लेकिन बच्चों को सुबह जल्दी उठाना, हमें किसी सजा से कम नहीं लगता था। दिन भर खेलकर थक जाना, और सुबह उन्हें कान पकड़कर उठाना। लेकिन उन्हें अच्छा बच्चा भी तो बनाना है। अच्छे बच्चे देर तक नहीं सोते। अपना सबक सुबह जल्दी उठकर याद करते हैं। सुबह सब कुछ जल्दी याद हो जाता है।।

आज की युवा पीढ़ी रात रात भर जागकर अपना कैरियर बना रही है, पढ़ने लिखने और जीवन में कुछ बनने के लिए क्या दिन और क्या रात। उनके लिए तो मानो 24×7 दिन ही दिन है। चैन की नींद उनके नसीब में नहीं।

एक समय ऐसा भी आता है, जब जीवन का निचोड़ हमारे हाथ लग जाता है। सब कुछ पाने के बाद कुछ भी नहीं पाने की स्थिति जब आती है, तब जीवन में अध्यात्म का प्रवेश होता है। एक नई तलाश उस अज्ञात की, जिसे केवल अपने अंदर ही खोजा जा सकता है।।

उसे अपने अंदर खोजने, उससे एकाकार होने का सबसे अच्छा समय यह अमृत वेला ही है। यही वह समय है, जब आसुरी वृत्तियां घोड़े बेचकर सो रही होती हैं, और दिव्य शक्तियां अपने पूरे प्रभाव में सक्रिय रहती हैं। ध्यान का इससे कोई बढ़िया समय नहीं। आप ध्यान कीजिए, आसमान से अमृत बरसेगा।

लेकिन उधर कबीर साहब फरमाते हैं ;

आग लगी आकाश में झड़ झड़ पड़े अंगार,

संत न होते जगत में तो जल मरता संसार”

अवश्य ही उनका आशय किसी सतगुरु से ही होगा।

क्योंकि आज के संतों में से तो आयातित परफ्यूम की खुशबू आती है और शायद इसीलिए सभी संतों का समागम कभी अयोध्या तो कभी अनंत राधिका के विवाह समारोह में होता है।।

जिन साधकों ने नियमित अभ्यास और ईश्वर कृपा से अपनी भूख, प्यास और निद्रा को साध लिया है, उनके लिए क्या जागना और सोना। वे बिना किसी अलार्म के अमृत काल में सुबह ३बजे जाग सकते हैं। लेकिन जो कामकाजी मेहनती साधक हैं, वे संयम, संतुलित भोजन और पर्याप्त नींद के पश्चात् ब्राह्म मुहूर्त में सुबह ५ बजे भी उठकर समय का सदुपयोग कर सकते हैं।

प्रकृति से जुड़ना ही ईश्वर से जुड़ना है। एक पक्षी तक पौ फटते ही जाग जाता है और अपने कर्म में लग जाता है। पुरवा सुहानी और खिलते फूलों की खुशबू के साथ ही तो मंदिरों में पूजा आरती और गुरुद्वारे में अरदास होती है। वही समय संगीत की रियाज और नमाज का होता है। प्रकृति का जगना ही एक नई सुबह की दस्तक है। एक नया शुभ संकल्प, एक नया विचार।।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥

आज गुरु पूर्णिमा है, किसी भी शुभ संकल्प के लिए आज से बढ़िया कोई दिन नहीं। प्रश्न सिर्फ जागने का है, अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर का मार्ग ही सतगुरु का मार्ग है ;

गु से अंधकार मिट जावे

रु शब्दै प्रकाश फैलावे

मनमुख से गुरुमुख होना ही सच्ची साधना है। ईश्वर तत्व ही गुरु तत्व है और उसे ही आत्म गुरु भी कहा गया है। जिन खोजां तिन पाईयां, गहरे पानी पैठ ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 15 – जबरदस्ती का रसायन: समाज की हास्य कथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना जबरदस्ती का रसायन: समाज की हास्य कथा।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 15 – जबरदस्ती का रसायन: समाज की हास्य कथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

जबरदस्ती! यह शब्द सुनते ही दिल में एक अद्भुत प्रकार का उल्लास और चिंता दोनों का मिश्रण पैदा होता है। समाज में जबरदस्ती की प्रवृत्ति इतनी प्रचलित है कि यह किसी अदृश्य और विशाल सर्कस का हिस्सा लगती है, जिसमें सभी लोग बिना किसी खुशीनुमा खुशी के अपने-अपने रोल निभाते हैं। यह एक ऐसा खेल है जिसमें जीतने का कोई स्पष्ट नियम नहीं होता और हर कोई बस खुद को सबसे ऊँचा मानता है।

चलिए, सबसे पहले बात करते हैं उन घरों की, जहाँ पर जबरदस्ती का एक विशेष प्रकार का रसायन बन गया है। यहाँ, माँ-बाप की जबरदस्ती से लेकर भाभी-देवर की नोंक-झोंक तक, हर जगह जबरदस्ती का राज है। बच्चों को “बड़े आदमी बनने” के सपने दिखाकर पढ़ाई के मैदान में उतारा जाता है, और फिर ‘सभी के मापदंड पर खरा उतरने’ का खेल शुरू होता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अगर किसी बच्चे ने कोई नया हुनर दिखाया, तो वह केवल ‘माँ-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने का तरीका’ है।

अब आते हैं ऑफिस की दुनिया पर। यहाँ भी जबरदस्ती का एक अनोखा मेला सजा हुआ है। बॉस की जबरदस्ती से लेकर कलीग की खींचतान तक, सभी के बीच एक अदृश्य युद्ध चल रहा है। बॉस अपने कागजों के ढेर को लेकर कभी-कभी ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह किसी स्वतंत्र राष्ट्र का शासक हो और उसका आदेश “फरमान” हो। और अगर कर्मचारी ने अपनी राय रखी, तो उसे “अनुशासनहीनता” का तमगा मिल जाता है। ऑफिस के कैफे में “सुस्वादु कॉफी” का सुझाव देना, भी कभी-कभी बॉस की जबरदस्ती का शिकार हो जाता है।

फिर आते हैं समाज में आम लोगों की बात पर। यहाँ पर भी जबरदस्ती का एक दिलचस्प संस्करण देखने को मिलता है। शादी-ब्याह के मामलों में जबरदस्ती से लेकर सामाजिक रीति-रिवाजों की पाबंदियों तक, हर जगह का नज़ारा ऐसा होता है जैसे हम एक अनमोल प्राचीन यथार्थ को जी रहे हों। शादी के मंडप में “हर लड़की का सपना होता है कि वह महल जैसी शादी में उतरे,” लेकिन समाज में यह केवल एक आदर्श स्थिति है, जिसमें वास्तविकता कभी जगह नहीं बनाती।

इस सबके बीच, राजनीतिक और सामाजिक संगठनों की जबरदस्ती की भी एक अलग ही कहानी है। यहाँ पर नेताओं का जबरदस्ती वाला व्यवहार ऐसा होता है जैसे वे एक टेलीविजन शो के मेज़बान हों। चुनावी वादों की लुभावनी चमक और तात्कालिक राहत के नाम पर हर कोई “नम्रता” के प्रदर्शन में संलग्न रहता है। लेकिन असली खेल तब शुरू होता है जब वे अपने वादों को निभाने के बजाय, अपना टाइम-सारणी पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

यह जबरदस्ती की अनोखी कहानी केवल हमारे देश की नहीं, बल्कि हर जगह की है। लोगों ने इसे एक जीवनशैली मान लिया है, जिसमें बिना किसी मोल के मजे लेने की उम्मीद की जाती है। ऐसे में अगर आप कभी सोचे कि समाज में जबरदस्ती से कैसे छुटकारा पाया जाए, तो शायद आपको यह समझ में आ जाएगा कि यह एक चक्रीय खेल है, जिसमें हर कोई किसी न किसी स्तर पर एक-दूसरे को घेरने की कोशिश कर रहा है।

अंततः, जबरदस्ती का यह खेल न तो कभी खत्म होगा, और न ही इससे निजात पाना संभव है। इसके बावजूद, हमें हंसी-मज़ाक और आत्म-आलोचना के माध्यम से इसे स्वीकार करना पड़ेगा। क्योंकि आखिरकार, जबरदस्ती केवल समाज के हास्य का एक हिस्सा है, जिसे हम सब मिलकर निभा रहे हैं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 293 ☆ व्यंग्य – बेगानी शादी, अब्दुल्ला दीवाना  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 293 ☆

? व्यंग्य – बेगानी शादी, अब्दुल्ला दीवाना ?

शाम की, लक्जरी टू बाय टू कोच झुमरीतलैया से पटना जा रही थी। बस अपने स्टैंड से चली तो शहर से बाहर निकलते ही एक संभ्रांत से दिख रहे बुज़ुर्ग एकाएक अपनी सीट से खड़े हो गए। लोकतंत्र में सीट से खड़े होने का रिवाज आम है। बहरहाल वे मुसाफिरों का ध्यान आकर्षित करते हुए जोर से नेता जी की तरह कहने लगे भाइयों बहनों मैं कोई भिखारी नहीं हूँ, ऊपर वाले ने मुझे खूब नवाजा है, पर मेरी पत्नी भगवान को प्यारी हो गई है, दुर्भाग्य अकेले नहीं आता, कुछ दिन पहले मेरी फैक्ट्री में आग लग गई, आप लोगों ने अखबारों में वह हादसा पढ़ा होगा, मैं इम्पोर्ट एक्सपोर्ट का कारोबार करता हूँ, मेरा सारा माल जल गया, इन हालात में मुझे दिल का दौरा पड़ चुका है। रिश्तेदारों ने हमसे किनारा कर लिया है। ये मेरी जवान बेटी है, मेरे बाद इसे कौन देखेगा यही ग़म मुझे खाए जा रहा है। वह शख्स रोने लगा। उसकी सुन्दर, गोरी युवा बेटी अपनी ओढ़नी संभालते उठी और बाप को सहारा देकर बैठा दिया। यात्री इस एकाएक संभाषण से हतप्रभ थे। उनके भाषण से प्रभावित होकर पिछली सीट से एक आदमी खड़ा हुआ। उसने कहा ” मैं पटना में रहता हूं, खुद का घर है, ये जो मेरे बगल में बैठा हुआ है, मेरा इकलौता बेटा है, इंजिनियर है, इसके लिये मुझे अच्छी दुल्हन की तलाश है।

मुझे यह बच्ची बहू के रूप में अच्छी लग रही है। मैं इस बेटी का हाथ अपने बेटे के लिए मांगता हूं। बाजू में बैठा लड़का भी युवती की ओर मुखातिब होते हुए बोला कि यदि इन्हें यह रिश्ता मंजूर हो तो मैं इस शादी के लिये तैयार हूं। लड़की ने भी संकोच से हामी में सिर हिला दिया। यात्री प्रसन्नता से तालियां बजाने लगे। लेना एक न देना दो, हम सब एवेई तालियां पीटने में माहिर हैं।

बस में मौजूद एक पंडित जी खड़े होकर बोले ये सफर बहुत सुहाना है। अभी मुहूर्त भी मंगलकारी है, विवाह जैसा एक शुभ कार्य हो जाए वह भी सफर में इससे अच्छी बात औऱ क्या हो सकती है। यदि सब राजी हों तो इन दोनों का विवाह करा दूँ। लड़का लड़की राजी तो, भला एतराज कौन करता ? सरकारी बिल की तरह वाह वाह के ध्वनि मत से समर्थन मिला। कुछ उत्साही युवक और महिलायें वर पक्ष और वधू पक्ष के हिस्से बन गये। मंगल गान गाए जाने लगे। यात्रियों को मुफ्त का मनोरंजन और टाइम पास सामाजिक कार्य मिल गया। पंडित जी ने चलती बस में ही मंत्रोच्चारण कर दीपक की परिक्रमा से विवाह संपन्न कर दिया। अपनी अपनी परेशानियां भूल सब खुश हो रहे थे। इसी प्रकार हिप्नोटाइज कर खुश कर देने के इस फन में सारे बाबा निपुण होते हैं।

एक साहब खड़े होकर कहने लगे मैं छुट्टी पर घर जा रहा था, बच्चों के लिये मिठाई लेकर, इस मुबारक मौके को देखकर समझता हूँ कि लड्डूओ से यहीं सबका मुँह मीठा करा दिया जाए।

दुल्हन के बाप ने ड्राइवर से किनारे बस रोकने का आग्रह किया जिससे सब मिलकर मुंह मीठा कर लें।

सारा घटनाक्रम सहज और प्रवाहमान था, सब वही देख सुन और कर रहे थे जो दिखाया जा रहा था। बिना प्रतिरोध रात होने से पहले बस सड़क किनारे रोक दी गई।

शादी की खुशी मनाते सब मिलकर मिठाई खाने लगे। लड्डू खाते ही कुछ क्षण बाद सब उनींदे हो खर्राटे भरने लगे।

जब लोग नींद से जागे तो सुबह के 6 बज रहे थे। बताने की जरूरत नहीं कि दूल्हा दुल्हन उनके बाप, पंडित और लड्डू बांटने वाला शख्स नदारत थे।

यात्रियों के बटुए, गहने, कीमती सामान भी गायब होना ही था।

तो ये था किस्सा ए “बेगानी शादी, अब्दुल्ला दीवाना”। भाग एक।

 – भाग दो –

हाल ही देश के सेठ जी के बेटे और एक दूसरे बिन्नेस मैन की बेटी की, दुनियां की बहुतई बड़ी शादी हुई है। दुनियां के अलग अलग डेस्टीनेशन पर महीनों चली रस्मों में हर कोई फेसबुक, इंस्टा, थ्रेड, ट्वीटर, ऊ टूब पर सहयात्री अब्दुल्ला बना बेहोशी में झूम रहा है।

अब्दुल्ला ही क्यों, भोलेराम, क्रिस, नसीबा, प्रिया, एन्जेल, देशी विदेशी, पेड, अनपेड मेहमान, मूर्धन्य धर्माचार्य, राजनीति के पुरोधा, पक्ष विपक्ष के शीर्षस्थ, मीडिया, सब सेठ जी से अपनी निकटता साबित करते फोटू खिंचवाते नजर आये।

सेठ जी के कर्मचारियों को सोहन बर्फी और चिप्स के पैकेट में ही सात सितारा खाने का मजा आ गया। साथ में मिले चांदी के सिक्के के संग सेल्फी के प्रोफाईल पिक्चर लगाकर वे सब निहाल हैं।

जब जनता की नींद खुली तो हमारे मोबाईल का टैरिफ बढ़ चुका था। अभी बहुत कुछ लुटना बाकी है, आहिस्ता आहिस्ता लूटेंगे लूटने वाले।

क्रमशः, जीवन भर बेगानी शादी में अब्दुला बने रहना हमारी प्रवृति, संस्कृति, और विवशता है। बजट दर बजट, चुनाव दर चुनाव, जनता को नशे के लड्डू खाने हैं, कभी धर्म की चासनी में बने लड्डू तो कभी आश्वासनों में पागी गई शब्दों की बर्फी। कभी कोई नेता, कभी कोई धर्माचार्य, कभी कोई शेयर बाजार का हर्षद मेहता, कभी कोई प्लांटेशन स्कीम, कभी ये तो कभी वो खिला जायेगा और अब्दुल्ला दीवाना बना बेगानी शादी में नाचता रह जायेगा, उसकी अमानत लुटती रहेगी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #180 – आलेख – एआई का नया खतरा: कीबोर्ड की आवाज से पासवर्ड हैक करना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – एआई का नया खतरा: कीबोर्ड की आवाज से पासवर्ड हैक करना

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 180 ☆

☆ आलेख – एआई का नया खतरा: कीबोर्ड की आवाज से पासवर्ड हैक करना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

आज के डिजिटल युग में, हैकर्स हमेशा नए और अत्याधुनिक तरीकों से लोगों के डेटा को चुराने के लिए तलाश कर रहे हैं. हाल ही में, कॉर्नेल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने  हैकर्स का एक नया तरीका खोज निकाला है जिससे हैकर्स सिर्फ कीबोर्ड की आवाज सुनकर लोगों के पासवर्ड चुरा सकते हैं.

शोधकर्ताओं ने पाया कि जब लोग अपने पासवर्ड टाइप करते हैं, तो वे एक अनूठा टाइपिंग पैटर्न बनाते हैं जो माइक्रोफोन द्वारा रिकॉर्ड किया जा सकता है. हैकर्स इस टाइपिंग पैटर्न का इस्तेमाल करके यह पता लगा सकते हैं कि व्यक्ति कौन सा पासवर्ड टाइप कर रहा है.

शोधकर्ताओं ने इस तकनीक का इस्तेमाल करके लोगों के पासवर्ड की 95% सटीकता के साथ पहचान की है. यह तकनीक इतनी सटीक है कि हैकर्स इसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान लोगों के पासवर्ड चुराने के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

यह तकनीक लोगों के लिए एक गंभीर खतरा है. अगर आप अपने पासवर्ड को सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो आपको कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए. सबसे पहले, अपने पासवर्ड को मजबूत रखें. दूसरे, अपने पासवर्ड को किसी भी सार्वजनिक स्थान पर न टाइप करें. तीसरे, अपने पासवर्ड को एक सुरक्षित जगह पर रखें.

कॉर्नेल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं का यह शोध एक चेतावनी है कि हैकर्स हमेशा नए और अत्याधुनिक तरीकों से लोगों के डेटा को चुराने के लिए तलाश कर रहे हैं. हमें अपने डेटा को सुरक्षित रखने के लिए सतर्क रहना चाहिए.

अपने डेटा को सुरक्षित रखने के लिए कुछ सुझाव

अपने पासवर्ड को मजबूत रखें. एक मजबूत पासवर्ड में कम से कम 8 अक्षर होने चाहिए, जिसमें एक बड़ा अक्षर, एक छोटा अक्षर, एक संख्या और एक विशेष वर्ण शामिल होना चाहिए.

अपने पासवर्ड को दोहराएं नहीं. अपने सभी खातों के लिए अलग-अलग पासवर्ड का इस्तेमाल करें.

अपने पासवर्ड को एक सुरक्षित जगह पर रखें. अपने पासवर्ड को किसी भी कागज पर लिखकर न रखें.

अपने पासवर्ड को किसी के साथ साझा न करें.

दो-कारक प्रमाणीकरण का इस्तेमाल करें. दो-कारक प्रमाणीकरण आपके खाते को हैक होने से बचाता है.

अपने सॉफ़्टवेयर को अपडेट रखें. सॉफ़्टवेयर अपडेट में अक्सर सुरक्षा सुधार शामिल होते हैं जो आपके खाते को हैक होने से बचाते हैं.

सतर्क रहें. जब आप ऑनलाइन हों तो सतर्क रहें. किसी भी संदिग्ध लिंक पर क्लिक न करें और किसी भी व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत जानकारी न दें.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-08-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 213 ☆ बाल गीत – ढमढम बजे नगाड़ा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 213 ☆

बाल गीत – ढमढम बजे नगाड़ा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सुन्न हो रहे हाथ सभी के

दस्तक देता जाड़ा।

दाँत किटकिटी चले सैर के पर

पढ़ते सभी पहाड़ा।।

सूरज दादा छिपे कोहरे

ओस ठंड में अलसाई।

ठंडी – ठंडी हवा कह रही

अब ओढ़ो शीघ्र रजाई।

 *

ठंड ,  कोरोना पास न आए

पीओ प्रतिदिन काढ़ा।।

 *

काजू , पिस्ता और मूंगफली

गरम पकौड़ी हैं भातीं।

अदरक, तुलसी चाय जो पीएं

ठंडी दूर भाग जाती।

 *

काम करें व्यायाम , योग भी

ढमढम बजे नगाड़ा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ ‘बच्चों का देश’ राष्ट्रीय बाल पत्रिका की रजत जयंती पर राजसमंद में 16 से 18 अगस्त 2024 तक ‘राष्ट्रीय बाल साहित्य समागम’ ☆ साभार – श्रीओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

‘बच्चों का देश’ राष्ट्रीय बाल पत्रिका की रजत जयंती पर राजसमंद में 16 से 18 अगस्त 2024 तक ‘राष्ट्रीय बाल साहित्य समागम’ ☆

देश भर से जुटेंगे लगभग 100 बाल साहित्य रचनाकार

रतनगढ़ (निप्र)। राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित मासिक बाल पत्रिका ‘बच्चों का देश’ का रजत जयन्ती समारोह 16 से 18 अगस्त 2024 तक अंतरराष्ट्रीय संस्थान अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी (अणुविभा) के राजसमंद (राजस्थान) स्थित मुख्यालय ‘चिल्ड्रन‘स पीस पैलेस’ में मनाया जायेगा। उल्लेखनीय है कि अणुविभा द्वारा प्रकाशित नई पीढ़ी के नव-निर्माण को समर्पित इस बाल पत्रिका को देशभर में प्रतिष्ठा प्राप्त है और 25 राज्यों में इसका पाठक वर्ग फैला है। देश की महान विभूतियों ने इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है और एक जागरूक, जिम्मेदार और मानवीय मूल्यों को समर्पित श्रेष्ठ व्यक्तित्व के निर्माण में इसकी रचनात्मक भूमिका को रेखांकित किया है।

अणुविभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अविनाश नाहर ने बताया कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के वैश्विक संवाद विभाग से सम्बद्ध अणुविभा गत 75 वर्षों से संचालित अणुव्रत आंदोलन की केंद्रीय संस्था है जिसके अंतर्गत भारत में 200 केंद्र संचालित हैं और इसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 5000 संस्थाओं व शांतिकर्मियों से नेटवर्क है। नई पीढ़ी के संस्कार निर्माण की दृष्टि से यह संस्था ‘बच्चों का देश’ के साथ ही जीवन-विज्ञान, बालोदय कार्यक्रम, अणुव्रत क्रिएटिविटी कॉन्टेस्ट, नशामुक्ति अभियान – एलिवेट, डिजिटल डेटॉक्स अभियान, पर्यावरण जागरूकता अभियान जैसे रचनात्मक प्रकल्प संचालित करती है।

अणुविभा के पूर्व अध्यक्ष‘बच्चों का देश‘ के सम्पादक श्री संचय जैन ने बताया कि पत्रिका की रजत जयन्ती के अवसर पर आयोजित हो रहे ‘राष्ट्रीय बाल साहित्य समागम‘ में 15 राज्यों के लगभग 100 बाल साहित्य रचनाकार भाग लेंगे। इस तीन दिवसीय आयोजन में बाल साहित्य विषयक सात सत्र एवं समूह चर्चाएँ आयोजित होंगी जिनमें बाल पत्रिका : भविष्य की अपेक्षायें और समाधान, एक सफल बाल साहित्य रचनाकार होने के मायने, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हिन्दी बाल साहित्य की दशा और दिशा, आदर्श व्यक्तित्व निर्माण में बाल साहित्य का योगदान, बाल साहित्य का पठन-पाठन : समाज व परिवार का दायित्व, बाल साहित्य रचनाधर्मिता : चुनौतियाँ और समाधान जैसे विषयों पर राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त साहित्यकार अपने विचार व्यक्त करेंगे।

रजत जयन्ती समारोह के अन्तर्गत एक नवाचार किया जा रहा है जिसमें देशभर से समागत बाल साहित्य रचनाकार 17 अगस्त को राजसमन्द क्षेत्र की 25 से अधिक अलग-अलग स्कूलों में जाएँगे और बच्चों के सीधा संवाद करेंगे। यह संवाद जहाँ कहानी, कविता, नाटिका, गीत आदि विविध विधाओं में साहित्य लेखन की बारीकियों से बच्चों को परिचित कराएगा वहीं साहित्यकार बच्चों की भावनाओं व अपेक्षाओं को जान पाएँगे। अपनी तरह का यह एक अनूठा प्रयोग होगा जिसमें पांच हजार से अधिक बच्चों की सहभागिता होगी।

‘बच्चों का देश’ में नियमित लिखने वाले वरिष्ठ साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ने बताया कि ‘राष्ट्रीय बाल साहित्य समागम‘ के आयोजन स्थल ‘चिल्ड्रन‘स पीस पैलेस’ का अपना विशेष महत्व है क्योंकि प्रसिद्ध राजसमंद झील के किनारे पहाड़ी पर विकसित यह कलात्मक भवन बच्चों के सर्वांगीण विकास को समर्पित एक अनूठा केंद्र है जहाँ प्रतिमाह आयोजित होने वाले आवासीय बालोदय शिविरों में बच्चे जीवन निर्माण की वह दिशा प्राप्त करते हैं जो सामान्यतः परिवार या विद्यालयों में भी संभव नहीं हो पाती है। यहाँ विकसित 25 से अधिक बालोदय दीर्घाएँ व कक्ष तथा यहाँ उपलब्ध संसाधन विभिन्न मानवीय मूल्यों से बच्चों को जोड़ते हैं और यहाँ संचालित बाल विज्ञान आधारित प्रवृत्तियाँ बच्चों को स्व से परिचित करा एक सफल जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

रजत जयंती के इस अवसर पर ‘बच्चों का देश’ का रजत जयन्ती विशेषांक भी प्रकाशित किया जाएगा जिसमें पिछले 25 वर्षों में प्रकाशित चयनित रचनाओं के साथ ही इस गौरवशाली यात्रा की झलकियाँ भी सम्मिलित होंगी। उल्लेखनीय है कि बाल मनोविज्ञान की कसौटी पर कसी श्रेष्ठ रचनाओं और बहुरंगी चित्रों के साथ प्रकाशित यह पत्रिका बच्चों के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। यह एक गैर-व्यावसायिक सेवा-प्रकल्प है जिसका प्रारम्भ 1999 में भागीरथी सेवा प्रन्यास के तत्वावधान में जयपुर से हुआ था। देश के विभिन्न भागों से लगभग 400 साहित्यकार इससे जुड़े हैं।

अगस्त में आयोजित हो रहे इस राष्ट्रीय स्तर के आयोजन में रतनगढ़ से श्रीओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ सहभागिता करेंगे। उल्लेखनीय हैं  कि ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ लंबे समय से बाल साहित्य लेखन में संलग्न हैं। आपको मध्य प्रदेश शासन द्वारा श्री हरिकृष्ण देवसरे बालसाहित्य पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।

साभार – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’,

14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश), पिनकोड-458226 मोबाइल नंबर- 8827985775

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “पाऊस पहिला…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “पाऊस पहिला” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

पाऊस पहिला,

भिजवून गेला,

थंडी अजून बाकी।

मनात शिरला,

स्मृतीत उरला,

आठव अजून बाकी।

वर्षा सरली,

वर्षे सरली,

इच्छा अजून बाकी।

पुन्हा भिजावे,

धुंद फिरावे,

जोश न आता बाकी।

धरती भिजली,

मनेही भिजली,

काय राहिले  बाकी?

वृत्ती थिजली,

गात्रे थिजली,

जीवन अजून बाकी।

© श्री सुनील देशपांडे

 

मो – 9657709640

 

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ डोहात हरवले… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ डोहात हरवले… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

काळिमा भासतो गोड,

काळ्याच आठवणींचा.

कृष्णमेघ नभी बरसतो,

तिमिरात श्याम थेंबांचा.

जळात सोडून पाय,

औदुंबर बसला कोणी.

डोहात खोल हरवले,

डोळ्यातील गहिरे पाणी.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग १८ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग १८ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र – माझे बाबा ‘तो’ आणि मी यांच्यातला एक दुवा आहेत असं पूर्वी वाटायचं. ते गेले आणि तो दुवा निखळला याची रुखरुख पुढे बरेच दिवस मनात होती.पण ‘त्या’नेच मला सावरलं. तो दुवा निखळल्यानंतर ‘तो’ आणि मी यांच्यातलं अंतर खरंतर वाढायला हवं होतं पण तसं झालं नाही.ते दिवसेंदिवस कमीच होत गेलं.)

आज मला जाणवतं ते असं की माझ्या अजाण वयापासूनच सभोवतालच्या आणि विशेषतः घरच्या वातावरणामुळे श्रद्धेचं बीजारोपण माझ्या मनोभूमीत झालंच होतं. नंतरच्या अनेक अघटीत घटना, प्रसंग यांच्या खतपाण्यामुळे ते बी रुजलं,अंकुरलं आणि फोफावलं. त्या श्रद्धेबरोबरच आई-बाबांनी त्यांचे अविरत कष्ट, प्रतिकूल परिस्थितीतही जपलेला प्रामाणिकपणा, सह्रदयता आणि माणुसकी यासारख्या मूल्यांचे संस्कार स्वतःच्या आचरणांनी आम्हा मुलांवर केले होतेच. त्यामुळे मनातल्या श्रद्धेतला निखळपणा सदैव तसाच रहाण्यास मदत झाली. ती श्रद्धा रुजता-वाढताना कधी कणभरही अंधश्रद्धेकडे झुकली नाही.अनेक अडचणी, संकटांच्यावेळीही ‘त्या’च्याकडे कधी ‘याचक’ बनून पहावंसं वाटलं नाही. त्या त्या प्रत्येक वेळी प्रयत्नांची पराकाष्ठा करीत असताना ‘तो’ फक्त एक साक्षीदार म्हणून सदैव माझ्या मनात उभा असायचा. ‘कृपादृष्टी असू दे’ एवढीच मनोमन एकच प्रार्थना ‘त्या’च्या चरणी असे. त्यामुळे स्वतःची अंगभूत कर्तव्यं निष्ठेने आणि मनापासून पार पाडण्याकडेच कल कायम राहिला. नित्यनेमाचे रूपांतर त्यामुळेच असेल कर्मकांडात कधीच झाले नाही. तसे कधी घडू पहातेय अशी वेळ यायची तेव्हा या ना त्या निमित्ताने मी सावरलो जायचो. मग आत्मपरीक्षणाने स्वतःच स्वतः ला सावरायची सवय जशी अंगवळणी पडली तसा मी ‘त्या’च्या अधिकाधिक जवळ जाऊ लागलो. ‘तो’ आणि मी यांच्यातलं अंतर कमी होत जाण्याचे हे एक ‘प्रोसेस’ होते!

आणि मग वेळ आली ती माझ्या कसोटीची. पण त्यालाही माझे बाबा १९७३ साली गेल्यानंतर दहा वर्षांचा काळ उलटून जावा लागला!

बाबा नेहमी म्हणायचे, “दत्तसेवा अनेकांना खूप खडतर वाटते. त्यामुळे ‘मी’ करतो असं म्हणून ती प्रत्येकाला जमत नाही.करवून घेणारा ‘तो’च ही भावना हवी.एकदा निश्चय केला कि  मग त्यापासून परावृत्त करणारेच प्रसंग समोर येत रहातात.तेच आपल्या कसोटीचे क्षण.जे त्या कसोटीला खरे उतरतात तेच तरतात….! “

‘तो’ आपली कसोटी पहात असतो म्हणजे नेमकं काय? आणि त्या कसोटीला ‘खरं’ उतरणं म्हणजे तरी काय? याचा अर्थ समजून सांगणारा अनुभव मला लगेचच आला.

तो दत्तसेवेच्या वाटेवरचं पुढचं पाऊल टाकण्याचा एक क्षण होता. घडलं ते सगळं  अगदी सहज घडावं असं.

यापूर्वी उल्लेख केल्यानुसार १९५९ साली कुरुंदवाड सोडून किर्लोस्करवाडीला जायची वेळ आली तेव्हा आईने दर पौर्णिमेला नृसिंहवाडीला दर्शनाला येण्याचं व्रत स्वीकारलं होतं. ते व्रत जवळजवळ दोन तपं अखंड सुरु होतं. आई वय झालं तरी ते व्रत बाबा गेल्यानंतरही श्वासासारखं जपत आली होती.

माझे बँकेतले कामाचे व्याप, जबाबदाऱ्या, दडपणं हे सगळं दिवसेंदिवस वाढत होतंच. त्यामुळे रोजची देवपूजा आणि गुरुचरित्राचं नित्य-वाचन एवढाच माझा नित्यनेम असायचा.

नोव्हेंबर १९८३ मधल्या पौर्णिमेला नेहमीप्रमाणे आई नृसिंहवाडीला गेली आणि अचानक माझी मावस बहिण सासरच्या कार्यासाठी या भागात आली होती आणि माझ्या आईला  भेटून जावं म्हणून आमच्या घरी  आली. थोडा वेळ बसून बोलून मग पुढे पुण्याला जायचं असं तिनं ठरवलं होतं.आई यायची वेळ होत  आली होतीच म्हणून तिची वाट पहात ती  थोडा वेळ थांबली होती.

मी नुकताच बँकेतून येऊन हातपाय धुवत होतो तेवढ्यात आई आली. त्यामुळे दार उघडायला तीच पुढे झाली. आमच्या मुख्यदारापर्यंतच्या तीन पायऱ्या चढतानाही आई खूप थकल्यामुळे गुडघ्यावर हात ठेवून सावकाश चढतेय आणि बहिण तिला हाताचा आधार देऊन आत आणतेय हे मी लांबून पाहिलं आणि कपडे बदलून मी बाहेर जाणार तोवर बहिणीने तिला खुर्ची देऊन भांडंभर पाणीही नेऊन दिलं होतं.

“किती दम लागलाय तुला. आता पुरे झालं हं. अगदी देवधर्म आणि नेम झाला तरी शरीर स्वास्थ्यापेक्षा तो महत्त्वाचा आहे कां सांग बघू. खूप वर्ष सेवा केलीस.आता तब्येत सांभाळून रहायचं” बहिण तिला पोटतिडकीने सांगत होती. दोघींचा संवाद अगदी सहज माझ्या कानावर पडत होता.

“सवयीचं झालंय ग आता.नाही त्रास होत.जमेल तेवढे दिवस जायचं. नंतर आराम आहेच की. त्याच्या कृपेनंच तर सगळं मार्गी लागलंय. मग घरच्या कुणी एकानं तरी जायला हवंच ना गं? प्रत्येकाला त्यांचे त्यांचे व्याप आहेतच ना? इथं मी रिकामीच असते म्हणून मी जाते एवढंच” आई म्हणाली.

आईनं आजपर्यत हक्कानं, अधिकारानं आम्हा कुणावर कधीच काही लादलं नव्हतं. आज मावस बहिण आल्याचं निमित्त झालं म्हणून आईच्या मनाच्या तळातलं मला नेमकं समजलं तरी. आई आता थकलीय. घरातल्या कुणीतरी एकानं जायला हवंच तर मग ते मीच हे ओघानंच आलं. कारण तेव्हा माझा मोठा भाऊ बदली होऊन नागपूरला गेला होता. लहान भाऊ अजून शिकत होता. प्रवासाची दगदग आता यापुढे आईला जमणार नाही हे या प्रसंगामुळे मला तीव्रतेने जाणवलं होतं आणि आईचं ते व्रत आता यापुढे आपण सुरु ठेवायचं आणि त्यातून तिला मोकळं करायचं हे त्याचक्षणी मी मनोमन ठरवून टाकलं. त्यानंतरची डिसेंबर १९८३ ची पौर्णिमा दत्तजयंतीची होती.

या पौर्णिमेला नेहमीप्रमाणे आई सकाळीच नृ.वाडीला गेलेली.त्या संध्याकाळी मी बँकेतून परस्परच वाडीला गेलो. दत्तदर्शन घेतलं. हात जोडून मनोमन प्रार्थना केली ,

‘दर पौर्णिमेला निदान एक तप नित्यनेमाने आपल्या दर्शनासाठी येण्याची माझी मनापासून इच्छा आहे. आपला कृपालोभ असू दे. हातून सेवा घडू दे.” अलगद डोळे उघडले तेव्हा आत्यंतिक समाधानाने मन भरून गेलं होतं. अंत:प्रेरणेने पडलेलं दत्तसेवेच्या वाटेवरचं हे माझं पुढचं पाऊल होतं.

घरी हे आईला सांगितलं.आता यापुढे खूप दगदग करून,ओढ करुन तू अट्टाहासानं नको जाऊस.मी जात जाईन असंही म्हटलं.सगळं ऐकून आई एकदम गंभीरच झाली.

“माझ्याशी आधी बोलायचंस तरी..” ती म्हणाली.

” का बरं?असं का म्हणतेस?”

“उद्या तुझी कुठे लांब बदली झाली तर? कशाला उगीच शब्दात अडकलास?”

“नकळत का होईना अडकलोय खरा” मी हसून म्हटलं. ” तू नेहमी म्हणतेस ना, तसंच. सुरुवात तर केलीय. होईल तितके दिवस जाईन. पुढचं पुढं”

आईशी बोलताना मी हे हसत हसत बोललो खरं पण तिच्या बोलण्यातही तथ्य आहेच हे मला नाकारता येईना.

खरंच. देवापुढे हात जोडून मनोमन संकल्प सोडताना माझ्या ध्यानीमनीही नव्हतं की हा आपला बँकेतला जॉब आहे. तो ट्रान्स्फरेबल आहे. कुठेही कधीही बदली होऊ शकेल. तेव्हा काय करायचं? बारा वर्षांचा दीर्घकाळ आपण थोडेच या परिसरात रहाणार आहोत? पुढे नाही जमलं तर?”

या जरतरच्या गुंत्यात मी फार काळ अडकून पडलो नाही. तरीही ही संकल्पसिद्धी सहज सोपी नाहीय याची प्रचिती मात्र पुढे प्रत्येक पावलावर मला येणार होतीच.

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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