हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #239 – 124 – “अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले,…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले…” )

? ग़ज़ल # 124 – “अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

रोशनदान  नहीं  अंधेरों की बात कर,

तू मत सियासी सियारों की बात कर।

*

झुलस ले तू मई की तपती दुपहरी में,

बाद उसके मस्त फुहारों की बात कर।

*

अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले,

तब तू ख़ुशबू ओ गुलज़ारों की बात कर।

*

ख़ुद तू कितना बरहम है इन हैवान से,

मत रोज बिकते अख़बारों की बात कर।

*

बेशुमार दर्द पलता रक्काशा के दिल में,

तू मत घुँघरू के झंकारों की बात कर।

*

सुनसान  कमरे में  बैठा  क्या  सोचता,

बाहर निकल मत अंधियारों की बात कर।

*

आतिश ज़मीन पर ज़िंदगी भरपूर जी ले,

ना  आसमान पर  सितारों की बात कर।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – केंद्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  केंद्र ? ?

खींचकर एक वृत्त

बीचोंबीच बिठा दी गई औरत

घोषित कर दिया गया उसे केंद्र,

बताया गया,

वृत्त, केंद्र के इर्द-गिर्द घूमता है,

भूल गए ताली बजानेवाले हाथ

राउंडर की नोक पर

छिदने-गुदने से बनता है केंद्र,

वृत्त की परिधि छोटी-बड़ी

करता है परकार

केंद्र की नाभि पर होकर सवार,

हाँ, परकार के कृत्य का

विवश, मूक माध्यम भर बनता है केंद्र,

केंद्र आनंदित है

परिधि को विस्तृत कर दिया गया है,

केंद्र दमित है

परिधि को लगभग समेट दिया गया है,

अपने ही वृत्त में कैद औरत

आजीवन मनाती रहती है जश्न

मिलती-छिनती आज़ादी का,

उस रोज़ कोई मंच से कह रहा था

देखो हम इंसानों ने

औरत को कितनी आज़ादी दी है,

जरा मुझे बताना भाई

औरत इंसान नहीं होती क्या?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 378 ⇒ सनातन में संशोधन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सनातन में संशोधन ।)

?अभी अभी # 378 ⇒ सनातन में संशोधन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सनातन कोई संविधान नहीं, जिसमें संशोधन किया जा सके। संविधान के निर्माता होते हैं,  वह लिखित में होता है, इसलिए समय और परिस्थिति के अनुसार उसमें संशोधन किया जा सकता है। सनातन के साथ ऐसा कुछ नहीं। जो सत्य है, वही सनातन है। सनातन शब्द सत् और तत् से मिलकर बना हुआ है। हमारे देश में वैदिक धर्म का इतिहास बहुत पुराना है। जो शाश्वत है, वही सनातन है।

जो सत्य है, शाश्वत है, वही सनातन है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता को धर्म से लिंक करना बहुत जरूरी है, क्योंकि हिंदू धर्म के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही इस सृष्टि के जन्मदाता, पालक और संहारक हैं।।

हमने पहले राजनीति को धर्म से लिंक किया और फिर धर्म को सनातन से लिंक कर दिया। जिस तरह आपके बैंक अकाउंट को आधार और पैनकार्ड से लिंक करना जरूरी है, उसी तरह धर्म का राजनीति और सनातन से लिंक करना भी उतना ही जरूरी है।

आज सनातन से सत्य गायब है, क्योंकि उसे धर्म और राजनीति से जोड़ दिया गया है। जो सत्य है वह सनातन नहीं, जो सनातन है वही सत्य है।

आपने सुना नहीं,  सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं।।

वैसे भी आजकल सत्य को कौन परेशान कर रहा है।

सारे मनोरथ जब झूठ के सहारे पूरे हो रहे हों, तो सत्य को परेशान नहीं किया जाता। हमने फिर भी सत्य को सम्मान देने के लिए उसे राम नाम से जोड़ दिया है। राम नाम सत्य है, और यह निर्विवाद सत्य है।

हमें जब भूख लगती है, तो हम सच की सौगंध खा लेते हैं, थाने में हमें सच उगलवाना आता है। सच उगलवाने के लिए हमने मशीन भी इजाद की है।

पद और गोपनीयता की शपथ तो हमने कई बार खाई है, जब जब भी दल बदला है, पार्टी बदली है।।

सत्य सनातन नहीं, सनातन धर्म ही सत्य है। बस इसे राजनीति से लिंक करवाना जरूरी है। उसी से धर्म की रक्षा संभव है, सनातन सुरक्षित है। हमने सनातन में सिर्फ इतना संशोधन जरूर कर दिया है,  सत्य सनातन नहीं, सनातन धर्म ही सत्य है। जाओ सत्य, तुम आजाद हो..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 117 ☆ मुक्तक – ।।हर धड़कन में हिंदी हिंदुस्तान चाहिए।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 117 ☆

☆ मुक्तक – ।।हर धड़कन में हिंदी हिंदुस्तान चाहिए।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हर रंग से भी हमें रंगीन हिंदुस्तान चाहिए।

खिले बागों   बहार सा  गुलिस्तान चाहिए।।

चाहिए विश्व में नाम   ऊँचा भारत      का।

विश्व   गुरु   भारत   का  सम्मान   चाहिए।।

[2]

मंगल चांद को  छूता भारत महान चाहिए।

अजेय  अखंड विजेता  हिंदुस्तान  चाहिए।।

दुश्मन नजर उठा  कर देख भी  न    सके।

हर शत्रु का   हमको   काम तमाम चाहिए।।

[3]

हमें गले मिलते राम और रहमान   चाहिए।

एक दूजे के लिए  प्रणाम  सलाम चाहिए।।

चाहिए हमें मिल कर रहते हुए सब    लोग।

एक दूजे के लिए दिलों में एतराम चाहिए।।

[4]

एक सौ पैंतीस करोड़ सुखी अवाम   चाहिए।

कश्मीर से कन्याकुमारी प्रेम पैगाम चाहिए।।

चाहिए विविधता में एकता का शक्ति दर्शन।

सम्पूर्ण विश्व में राष्ट्र का  यशो  गान चाहिए।।

[5]

पुरातन संस्कार मूल्य का  गुणगान चाहिए।

हर भारतवासी के चेहरे पर मुस्कान चाहिए।।

चाहिए गर्व और  गौरव   अपने भारत का।

हर धड़कन में  हिन्दी हिंद का पैगाम चाहिए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 179 ☆ ३० मई -पत्रकार दिवस विशेष >> पत्रकार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “अभी भी बहुत शेष है। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ३० मई -पत्रकार दिवस विशेष >> पत्रकार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जनतांत्रिक शासन के पोषक

जनहित के निर्भय सूत्रधार

शासन समाज की गतिविधि के विश्लेषक जागृत पत्रकार

 

लाते है खोज खबर जग की देते नित ताजे समाचार

जिनके सब से , सबके जिनसे रहते है गहरे सरोकार

जो धडकन है अखबारो की जिनसे चर्चायेे प्राणवान

जो निगहवान है जन जन के निज सुखदुख से परे निर्विकार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

चुभते रहते है कांटे भी जब करने को बढते सुधार

कर्तव्य पंथ पर चलते भी सहने पडते अक्सर प्रहार

पर कम ही पाते समझ कभी संघर्षपूर्ण उनकी गाथा

धोखा दे जाती मुस्काने भी उनको प्रायः कई बार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

आये दिन बढते जाते है उनके नये नये कर्तव्य भार

जब जग सोता ये जगते है कर्मठ रह तत्पर निराहार

औरो को देते ख्याति सदा खुद को पर रखते हैं अनाम

सुलझाने कोई नई उलझन को प्रस्तुत करते नये सद्विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

जग के कोई भी कोने में झंझट होती या अनाचार

ये ही देते नई सोच समझ हितदृष्टि हटा सब अंधकार

जग में दैनिक व्यवहारों मे बढते दिखते भटकाव सदा

उलझाव भरी दुनियाॅ में नित ये ही देते सुलझे विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

सुबह सुबह अखबारों से ही मिलते हैं सारे समाचार

जिनका संपादन औ प्रसार करते हैं नामी पत्रकार

निष्पक्ष और गंभीर पत्रकारों का होता बडा मान

क्योंकि सब गतिविधियों के विश्लेषक सच्चे पत्रकार

कर्तव्य परायण पत्रकार

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ वन के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

☆ – वन के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

वन जब तक, तब तक यहाँ, हवा मिलेगी ख़ूब।

वरना हम सब पीर में, जाएँगे नित डूब।।

*

वन का रहना है हमें, सुख का नव संसार।

रहे सुखद परिवेश तब, जीवन का आधार।।

*

वन हरियाली, चेतना, देता जो उल्लास।

मिलती हैं साँसें हमें,  सतत् मिले नव आस।।

*

मिलतीं औषधियाँ हमें, वन-उपजें भी ख़ूब।

जीवों का विचरण वहाँ, उगती कोमल दूब।।

*

वन तो खुशियों को रचे, लाता मंगल गान।

करता वन जीना सदा, बेहद ही आसान।।

*

वन में मंगल हो रहा,  खुशियों का पैग़ाम।

वन ने ही जग को दिए, नवल-धवल आयाम।।

*

वन से रौनक, पर्यटन, नैसर्गिक शुभगान।

फल, पत्ते हैं पेड़ सब, उपयोगी सामान।।

*

वन से ही है प्रकृति नव, वन से ही वनराज।

धर्म रचे वन में गए, हर्षित हुआ समाज।।

*

वन से ही लकड़ी मिले, पौराणिक इतिहास।

तपसी जीवन वन रचें, अधरों पर नव हास।।

*

पर्यावरण सुधारना, वन का चोखा काम।

जीवन की गतिशीलता, है देवों का धाम।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मराठी दोहे…. अर्थात (जीवन तत्त्वज्ञान) ☆ प्रेमकवी दयानंद ☆

प्रेमकवी दयानंद

? कवितेचा उत्सव ?

मराठी दोहे…. अर्थात (जीवन तत्त्वज्ञान) ☆ प्रेमकवी दयानंद

सागर जरी,आहे थोर

तरी, तो खारट, नाही गोड

पण,खारट मीठाशिवाय

अन्न, लागत नाही गोड….

चंद्र, किती शीतल, सुंदर, पण

त्याला पाहण्यासाठी, रात्र यावी लागते

सूर्य, चैतन्य-प्रकाश घेऊन येतो, जेव्हा, पहाट होते….

पाना-फुलांनी, बहरलेला वृक्ष

नेहमी, सुंदरच दिसतो

तेथेच असते, पाखरांची वस्ती

जो वठलेला ,सुकलेला,त्याच्या जवळ,नसते कोणी

बिचारा, एकटाच असतो….

हातावर नक्षीसाठी, मेहंदीचे पान, जेवणासाठी केळीचेच,

गुलकंदासाठी, गुलाबाच्याच पाकळ्या,

दस-याला असतो, झेंडूला मान

सावळी तुळस, पूजेत पवित्र, प्रत्येकाचे, वेगळे स्थान….

पाय कुरुप म्हणून, मोर रडत नाही,

आकाशी मेघ येता, पिसारा फुलवून नाचतो,

बेडकाला, रंग रुपाचे काय??

पाऊस येता, तोही आनंदाने खर्जात गातो……

गुन्हा करायला लावते, मानवा,

वेगवेगळी भूक

वागण्यात मानवाची, होऊ नये अशी चूक

सद्गुरु, असावा जीवनी, यासाठीच एक

सन्मार्ग दाखविणारा, तोच असतो निसर्गासम, परोपकारी नेक….

ही नदीमाता, वाहून नेते सारा,

कचरा आणि घाण

तिच्याकाठीच असते, सुपिक

जमिन छान,

ही भूमाताच सर्वांना, अन्न देऊन जगविते,

माफ करुन सर्वांना, अखेर पोटात घेते…

नदीच्या तीरी, असतात तीर्थक्षेत्र,

तेथेच जुळते, भक्तीभावाचे बंध मैत्र,

आप, उदक, जल, तीर्थ किती

पाण्याची रुपे, किती अर्थ

असावे, पाण्यासम परोपकारी,

जीवन करावे सार्थ…

स्वतःच्या सुखासाठी, प्राण्यांना राबवतो, मारतो, माणूस किती स्वार्थी, अन् लोभी आहे

पशु-पक्ष्यांचा, काही विचार नाही मनात,

त्याला वाटते, हा देश फक्त, माझाच आहे……

रंग पांढरा तो पवित्र, अन् काळा तो कसा म्हणता?? आहे

अपवित्र,

अरे, काळा दगड, मंदिराचा

तोच आहे, विठ्ठलाचा, या येथल्या मातीचा,

तोच रंग रातीचा, तोच जलभरल्या  मेघांचा, कुहूचा  कोकिळेचा….लताचा सर्वत्र…..

भजनात भाव आहे, कीर्तनी

सुंदर आख्यान,

जरी देवाचिये व्दारी तू ,आहे कोठे, तुझे ध्यान??

हातात माळ आहे, मुखाने

घेतोस हरिनाम,

पण,मन भटकते चौफेर, तेथे काय करणार,राम…???…

वृक्षमित्र पुरस्कारासाठी, पक्षी,

झाडे लावत नाहीत

निसर्ग नियमानुसार, जगतात

उगाच, तक्रार करीत नाहीत

वृक्षाजवळ नसतो,भेदभाव

सर्वांनाच,जवळ घेतात

उन, वारा, पाऊस सहन

करुन, पुन्हा नव्याने बहरतात..

© प्रेमकवी दयानंद

संपर्क – तावरे काॅलनी.सातारा रोड.पुणे

मो 9822207068

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ जीवन जगण्याची कला : अध्यात्म – भाग १ ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’ ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

🔅 विविधा 🔅

☆जीवन जगण्याची कला : अध्यात्म – भाग १ ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

भारतीय संस्कृती ही खूप पुरातन आहे. बऱ्याच परदेशी प्रवाशांनी वर्णन केल्याप्रमाणे आपला देश सर्वच क्षेत्रात नुसता प्रगतीपथावर नव्हता तर प्रगतीच्या शिखरावर होता असे म्हटले तर वावगे होणार नाही. इथे सोन्याचा धूर निघायचा असे वर्णन केलेले आढळते. लोकं काठीला सोने बांधून काशियात्रेला जात असत. सर्वच क्षेत्रांत भारत सर्वोच्च स्थानावर होता. जगाच्या पाठीवर अनेक संस्कृतींचा उदयास्त झाला. यासर्व कालप्रवाहात एकमेव संस्कृती टिकून राहिली ती म्हणजे भारतीय संस्कृती !!!  चौदा विद्या आणि चौसष्ट कलांचा उगम आणि विकास इथेच झाला. या सर्व कला म्हणजे भारताने जगाला दिलेली सर्वात मोठी देणगी आहे. त्याकाळात भारताने नुसती भौतिक प्रगती केलेली नव्हती तर आध्यत्मिक क्षेत्रात सुद्धा परमोच्च स्थिती प्राप्त केली होती. मानवी जीवनाचा विकास फक्त मनुष्याच्या भौतिक गरजा भागवून होत नाही हे आपल्या ऋषीमुनींनी जाणले होते. त्यामुळे त्यांनी मनुष्याच्या भौतिक गरजांसोबत त्याच्या मनाचाही सखोल अभ्यास केला. आपल्याकडील सर्व ऋषीमुनी उत्तम मानसशास्त्रज्ञ होते. त्यांनी आपल्या संस्कृतीची जडणघडण पूर्णपणे निसर्गानुकूल (ecofriendly) आणि मानवी मनाच्या विविध कंगोऱ्यांचा अभ्यास करुन केली. भौतिकसुबत्ता किंवा अमर्याद भौतिकसुख हे काही मानवी जीवनाचे अंतिम साध्य असू शकत नाही हे त्यांनी त्या पद्धतीने जगून समजून घेतले. नुसत्या अमर्याद भौतिक गरजा पूर्ण करण्याच्या स्पर्धेमुळें अमेरिकेची अवस्था काय झाली आहे आपल्याला ज्ञात आहे. जोपर्यंत मनुष्याचे मन शांत होत नाही तोपर्यंत तो कधीच खऱ्या अर्थाने सुखी होऊ शकत नाही, हे आपल्या पूर्वजांनी जाणले. आणि जसा रोग तसे औषध या उक्तीनुसार त्यावर उपाय शोधला. उपाय शोधणे कोणीही करु शकेल पण मानवी जीवनाचा अभ्यास करुन त्याप्रमाणे आदर्श जीवनचर्या आखणे आणि तो समाजातील सामान्य मनुष्याच्या जीवनाचा अविभाज्य भाग होणे हे लिहायला, ऐकायला सामान्य वाटले तरी हे जनमानसात रुजविणे फार अवघड होते. पण आपल्या पूर्वजांनी तेही करून दाखविले. तसेच संवर्धितही केले. थोडक्यात दैनंदिन जीवन जगताना मनःशांती मिळवायची असते हे त्यांनी विसरायला लावले आणि अशी जीवनपद्धती विकसित केली की त्या पद्धतीने मनुष्याची आपसूक मनशक्ती वाढून मन:शांतीचा नकळत लाभ होईल. याविशिष्ट जीवनपद्धतीला त्यांनी ‘अध्यात्म’ असे नाव दिले.

अध्यात्म ही खरं तर भारतीय जीवनपद्धती (आचारपद्धती) आहे, जीवनकला आहे. हजारो वर्षांची राजकीय गुलामगिरी जरी संपली असली तर सांस्कृतिक गुलामगिरीचा पघडा जनमानसावर अजून आहे असे ठळकपणे जाणवते. सध्याची आपली जीवनपद्धती ना धड भारतीय आहे ना पूर्णपणे विदेशी. सरमिसळ झालेल्या संस्कृतीत आपण सर्व अजब पद्धतीने आपले जीवन जगत आहोत. आपले सोडायला मन धजावत नाही आणि पाश्चात्यांचे पूर्ण स्वीकारता येत नाही. अशी द्विधा मनःस्थिती आपली सर्वांची कमीअधिक प्रमाणात आहे. प्रत्येकाला जीवनात आनंद हवा आहे, पण आज माझ्या जवळ आनंद आहे किंवा मी आनंदी आहे असे स्वतःहून, मनःपूर्वक  छातीठोकपणे म्हणणारा मनुष्य शोधावा लागेल अशी परिस्थिती आहे. यावर एकच उपाय आहे तो म्हणजे आपल्या जीवन पद्धतीची पुनर्रचना करणे. यात आपल्याला कोणतेही कर्म बदलायचे नसून फक्त दृष्टिकोन बदलायचा आहे. कोणत्याही नवीन तंत्रज्ञानाची इथे गरज नाही. दृढनिश्चय मात्र नक्कीच हवा. पूर्वी लोक असेच जगत होते, त्यामुळे त्यांच्या जीवनात ‘आनंद’ होता.

आज मात्र प्रत्येक जण आनंदाच्या शोधात आहे. सकाळी उठल्यापासून रात्री झोपेपर्यंत मनुष्याचा ‘आनंदा’चा शोध सुरु आहे. मनुष्य सकाळी झोपेतून जागे झाल्यापासून ते रात्री झोपेपर्यंत अनेक गोष्टी करीत असतो. त्यातील बऱ्याचशा गोष्टीत तो कमीअधिक प्रमाणात यशस्वी देखील होतो तर काही गोष्टीत तो अपयशी ठरतो. दिवसभरात त्याच्या आयुष्यात सुखदुःखाचे, जयपराजयाचे अनेक प्रसंग येतात, त्याला मानापमान सहन करावा लागतो.

दिवसभरातील प्रेम, माया , मोह,  जिव्हाळा, आपुलकी, तिरस्कार, हेवा, मत्सर, राग, द्वेष अशा विविध भावभावनांच्या हिंदोळ्यावर आपले मन सावरण्याचा मनुष्य आटोकाट प्रयत्न करीत असतो. भावनांच्या हिंदोळ्यावर मन स्थिर ठेवणे हे अतिशय कौशल्याचे काम नसले तरच नवल !!!

कोणतीही गोष्ट कुशलतेने करायची असेल तर ते कौशल्य आत्मसात करणे क्रमप्राप्त ठरते. काही माणसे जगायचे म्हणून जगत असतात. काही मरत नाहीत म्हणून जगत असतात. काही माणसे दुसऱ्यासाठीच जगत असतात. तर मोजकी माणसे काही विशिष्ट उद्दिष्ट डोळ्यासमोर ठेऊन फक्त त्या विशिष्ट उद्दिष्टासाठी जगत असतात. सर्वांचे ‘जगणं’ हे एकच असले तरी प्रत्येकाच्या जगण्याचे मूल्य मात्र भिन्न भिन्न असते आणि असे होणे स्वाभाविक आहे. स्वाभाविक त्यांच्या जीवनाची यशस्वीताही वेगवेगळी असते. दुसऱ्याला त्रास देण्यासाठी जगणे याला आपल्याकडे ‘विकृती’ असे म्हणतात. स्वतःसाठी जगणे याला ‘प्रकृती’ असे म्हणतात तर दुसऱ्यासाठी जीवन जगणे याला ‘संस्कृती’ असे म्हणतात. सर्व संतांनी मानवी मनाचा जितका अभ्यास केला तितका अभ्यास खचितच दुसरा कोणी केला असेल. आत्म्याने गर्भवास पत्करल्यापासून गर्भावासाचा त्याग करेपर्यंत त्या आत्म्यास त्याच्या ‘स्व’स्वरूपाचे ज्ञान असते. पण एकदा का त्याने या नश्वरजगात प्रवेश केला (मनुष्याचा जन्म झाला) की मनुष्य देवाला तू कोण आहेस असा प्रश्न विचारु लागतो. ‘सोहं’ म्हणणारा आत्मा ‘कोहं’ असे म्हणू लागतो. संत असे सांगतात की देहबुद्धीमुळे मनुष्य आपल्या ‘स्व’स्वरूपाला विसरतो आणि देहदु:खात बुडून जातो. देहबुद्धीमुळेच त्याला सुख दुःख आणि आनंद यातील सूक्ष्म फरक लक्षात येत नाही आणि मग ज्याच्यात्याच्या सुखदुःखाच्या (मिथ्या) कल्पनेप्रमाणे  मनुष्य आयुष्यभर नुसता भरकटत राहतो. बरेच वेळेस ह्या भरकटण्यालाच सामान्य मनुष्य सुख समजतो आणि सुज्ञ लोकं त्यास ‘भ्रम’ असे संबोधतात.

देहसोडून जाईपर्यंत अर्थात मृत्यूपर्यंत मनुष्य सुखच शोधीत असतो. पण खरंच त्याला सुख मिळतं ? त्याला समाधानाचा लाभ होतो ? आज आपल्या आजूबाजूला किंवा आपल्या मित्रांपैकी एखादा मित्र मैत्रीण सुखी आहे, समाधानी आहे असे आपल्याला जाणवतं का ? मित्रांचे सोडून देऊया, पण एकांतात बसल्यावर आपण सुखी आहोत, समाधानी आहोत असे आपल्याला क्षणभर तरी वाटते ? या प्रश्नाचे खरे उत्तर ‘नाही’ असेच द्यावे लागेल, हो न? खरंतर आपले सर्वांचे मनःपूर्वक अभिनंदन केले पाहिजे. आपल्या सर्वांच्या चेहऱ्यावर मला मोठे प्रश्नचिन्ह दिसत आहे की हा माणूस काहीही घडलेले नसताना आमचे का अभिनंदन करीत आहे. आपली शंका रास्त आहे. कारण समोरील मनुष्याचे कौतुक करण्याची संधी आपल्याला अनेक वेळेस अगदी विनासायास उपलब्ध होत असते, परंतु  आपण आपल्याच सुखदुःखात इतके गुरफटून घेत असतो की ते आपल्या लक्षात येतच नाही. आता मूळ मुद्यावर येतो. आपले कौतुक करायला हवे कारण आपण मनातल्या मनात तरी कबूल केले आहे की आपण एखादवेळेस दुःखी नसू पण सुखी आहोत असेही नाही. आपण आता एक गृहपाठ  करुया. गृहपाठ म्हणण्यापेक्षा आपण त्याला मनोपाठ असे म्हणूया. कारण आपल्याला तो आताच म्हणजे लगेच आणि आपल्या मनातल्या मनातच करायचा आहे. आपण सुखी का नाही ? आपल्याला समाधान का मिळाले नाही याची काही उत्तरे शोधण्याचा आपण प्रयत्न करुया. मी अवघड प्रश्न विचारत नसल्यामुळे कोणालाही आपले उत्तर प्रगट करावे लागणार नाही. असो. तर आता आपण आपले उत्तर मनात शोधले असाल. आपण शोधलेली सर्व उत्तरे अगदी बरोबरच आहेत. त्यामुळे आपल्याला शंभर पैकी शंभर गुण मिळालेले आहेत. आपण सर्व विशेष प्राविण्यासह उत्तीर्ण झालेले आहात. तरीही एक प्रश्न अनुत्तरीतच राहिला आहे. सर्व प्रश्नांची उत्तरे बरोबर देऊनही आपण समाधानी का  नाही? आपण आनंदी का नाही? आपण सुखी का नाही? आपण जगतोय की जगवले जातोय ? की नाईलाजाने दिवस ढकलतोय ? हे जीवन आपल्यासाठी नक्की काय आहे? जीवनाचा खरा अर्थ काय ? असे अनेक प्रश्न आपल्याला याआधी पडले असतील ? या सर्व प्रश्नांची उत्तरे आपल्याला अध्यात्मात मिळू शकतात.

हा जगातला सर्वात चांगला शब्द म्हणजे आनंद. कारण आनंद सर्वांना हवा आहे. मुख्य म्हणजे आनंद या शब्दाला विरुद्धार्थी शब्दच नाही. सामान्य मनुष्य यामध्ये सुद्धा थोडी गफलत करतो. तो सुख आणि आनंद यांची बरेचवेळेस सरभेसळ करतो. सुखदुःख हे कशावरतरी अवलंबून असू शकते किंवा अवलंबून असतेच. पण आनंद हा पूर्णपणे स्वतंत्र आहे. याच्यावर कोणाचे बंधन नाही. खरंतर आनंद आपल्या हातात असायला हवा. माझा आनंद माझ्या हातात! सुखदुःख स्थितीरुप आहे तर आनंद वृत्तीरूप आहे. मनुष्याला कुठेही कधीही कसाही, अगदी जिथे आहे तिथे, आनंद मिळू शकतो. गंमत अशी आहे की आनंद मिळण्यासाठी सर्वात मोठी आणि एकमेव आडकाठी आपली स्वतःचीच असते. कारण ‘आज रोख उद्या उधार’ या धर्तीवर आपण आनंद सुद्धा ‘उद्यावर’ टाकत असतो. अमुक गोष्ट झाली की मला आनंद मिळेल, नोकरी मिळाली की आनंद मिळेल, नोकरीत बढती मिळाली की आनंद मिळेल, अमका मनुष्य भेटला की आनंद मिळेल, अमुक व्यक्ती आयुष्याची जोडीदार म्हणून लाभली तर आनंद मिळेल, असे कितीक ‘तर’ आपण आपल्या आनंदाच्यामागे जोडतो आणि आपला आनंद उधारीवर ठेवतो, एका अर्थाने जगणंच उद्यावर टाकतो. बाहेरील जगात आनंद आहे असे समजून मनुष्य आनंद बाहेर शोधत राहतो. चुकीच्या जागी एखादी गोष्ट शोधली तर ती आपल्याला कशी मिळणार ? त्यामुळे आपण सतत रडगाणं गात असतो. वर्तमानकाळ ही आपल्याला मिळालेली सर्वात मोठी देणगी आहे. रोज २४ तासांमध्ये स्वतःसाठी किमान एक तरी गोष्ट करायला हवी. उदा. आरशातला निवांत क्षण स्वतःला द्या, स्नानाच्या, जेवणाच्या वेळेचा आनंद लुटा. स्वतः गाणं म्हणा.  मग आज आत्ता ताबडतोब अगदी याक्षणी उपलब्ध काय असेल तर तो फक्त आनंद !!  आयुष्यातील प्रत्येक क्षण जगण्याचा प्रयत्न करुया. प्रत्येक क्षणाचा सन्मान राखत त्याचे पावित्र्य जपणे, हीच जीवन जगण्याची कला आहे. सामान्यपणे आपण दुसऱ्यांवर हक्क गाजवायचा प्रयत्नात असतो, खरंतर आपण आपल्या आयुष्यातील प्रत्येक क्षणावर राज्य करायला पाहिजे. क्षणावर राज्य करणे म्हणजे तारतम्याने विवेकाने प्रत्येक गोष्टीला प्रतिक्रिया न देता ‘प्रतिसाद’ देणे. आजपर्यंत जी लोकं यशस्वी झाली आहेत त्यांनी कधीही आपल्या आयुष्यातील प्रत्येक क्षणांना प्रतिक्रिया दिलेली नाही तर विवेकाने ‘प्रतिसाद’ दिला आहे.

यशापयश हे सुद्धा सुखदुःखासारखे सापेक्ष आहे. अमुक मार्क मिळविले, अमुक महाविद्यालयात प्रवेश मिळाला, नामांकित कंपनीत गलेलठ्ठ पगाराची नोकरी मिळाली, परदेशात जाता आले, मोठ घर बांधता आले, महागडे वाहन विकत घेता आले किंवा एखादे स्वप्न सत्यात आणता आले तर आपण यशस्वी झालो आणि यामधील मोजक्याच गोष्टी करता आल्या किंवा यातील काहीच जमलं नाही तर मी अपयशी झालो. ही दोन्हीही वाक्ये अर्धसत्य आहेत.  जोपर्यंत आपण हिंमत हरलेलो नाही तोपर्यंत आपण अपयशी असूच शकत नाही. जीवनातील यश हे नेहमी कोणते शिखर पार केले यापेक्षा ते पार करताना किती अडथळे आले यावर ठरत असते आणि ठरायलाही हवे. एखादं वेळेस लौकिक दृष्ट्या मनुष्याला अपयश येऊ शकते. पण या सर्व घडामोडीत, धबडग्यात ‘मनुष्य’ म्हणून आपले मूल्य वाढविणे हे सुद्धा यशस्वी होणेच होय. एका वाक्यात यश म्हणजे काय सांगायचे असेल तर खालील प्रमाणे सांगता येईल. “मरावे परी कीर्ती रूपे उरावे।” तसेच यशाची आणिक एक सोपी व्याख्या आहे. ‘आपल्याला लौकीक जीवनात किती यश मिळालं यापेक्षा आपल्याला दुसऱ्यांना यश मिळविण्यासाठी किती मदत करता आली’.

समाधान नावाची कोणतीही वस्तू बाजारात मिळत नाही. ज्याला स्वतःला नक्की काय हवे आहे हे योग्य वेळी कळते, तो ते मिळवण्याचा आटोकाट प्रयत्न करतो, कधीकधी तो गोष्ट मिळतेच असे नाही. पण तरीही आपण पुरेसे कष्ट घेतले, योग्य ते प्रयत्न केले असे समजून ही माणसे नवीन जोमाने परत कार्यरत होताना दिसतात. यश मिळालं नाही तर रडत न बसता केलेल्या प्रयत्नातून अमुक एक गोष्ट शिकता आली याचेही त्यांना समाधान असते. कोणतेही काम उरकण्यापेक्षा त्यांचे कामाच्या परिपुर्णतेकडे जास्त लक्ष असते.

“मन करा रे प्रसन्न, सर्व सिद्धीचे कारण।”

किंवा

“रण जिंकून नाही जिंकता येत ‘मन’।

‘मन’ जिंकल्याशिवाय नाही जिंकता येत रण।।”

आधुनिक विज्ञान असे सांगते की जी गोष्ट जितकी सूक्ष्म असते ती अधिक शक्तिशाली आणि नियंत्रित करण्यासाठी जिकिरीची असते. अणुबाँब किंवा अणुशक्ती ही याची उत्तम उदाहरणे आहेत. मानवी मन यापेक्षा सूक्ष्म असते. अणू प्रयोगशाळेत तरी दाखवता येईल पण मनाचा थांगपत्ता लागणे अतीमुश्किल !!

म्हणून कोणतेही संत असोत, त्यांनी सर्वप्रथम उपदेश आपल्या मनाला केला असावा. नुसता उपदेश केला नाही तर मनाला प्रसन्न करुन घेण्याचे विविध मार्ग त्यांनी आपल्यासाठी सहज उपलब्ध  करुन दिले आहेत.  मुळात मन प्रसन्न का करायचे ? याचा आधी विचार करायला हवा. मला जीवनाकडून नक्की काय हवे आहे? मनुष्य म्हणून माझा जन्म झाला असेल तर मनुष्य म्हणून माझे काही विहित कर्तव्य असलेच पाहिजे. जगात कोणतीही गोष्ट कारणाशिवाय घडत नाही असे विज्ञान सांगते, तर माझा जन्म झाला याला काहीतरी प्रयोजन नक्कीच असणार.? मनुष्य म्हणून आपण सर्व सारखे असलो तरी आपण एकाच कारखान्यात उत्पादीत केलेले एकाच वजनाचे, एकाच सुगंधाचे ‘साबण’ नाही. त्यामुळे प्रत्येकाचे जीवनध्येय वेगवेगळे असणे स्वाभाविक आहे. ते जीवनध्येय शोधणे आणि त्यानुसार आचरण करणे हे मनुष्याचे आद्यकर्तव्य असले पाहिजे. पण मनुष्य देहबुद्धीच्या अधीन जाऊन ‘आहार, निद्रा,भय आणि मैथुन’ यालाच आपल्या जीवनाची इतिकर्तव्यता मानतो आणि

“पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं” याच चक्रात फिरत राहतो.

आतापर्यंत आपण सामान्य मनुष्य कसा वागतो, त्याचे दुष्परिणाम काय होतात, त्यामुळे मनुष्याचे कसे नुकसान होते हे आपण पाहिले. प्रत्येकाला आनंद / समाधान हवे आहे पण ते का मिळत नाही हे सुद्धा आपण पाहिले. आता तो कसा मिळवायचा ते आपण पाहूया.

सर्वप्रथम आपले एकमत आहे ना की आपल्याला आपल्या जीवनात आनंद हवा आहे. सर्वाना मान्य असेल तर आपण पुढे जाऊ. धन्यवाद.

क्रमशः…

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

थळ, अलिबाग

मो. – ८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दोन लघुकथा : १) चिमूटभर आपुलकी… २) टेडी बेअर ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

श्री मकरंद पिंपुटकर

🌸 जीवनरंग 🌸

☆ दोन लघुकथा : १) चिमूटभर आपुलकी… २) टेडी बेअर ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर 

१) चिमूटभर आपुलकी… 

रोजच्याप्रमाणेच आजही तो घाईघाईत कामावर निघाला. आणि दोनच मिनिटांत घरी परतला. बेल वाजल्यावर आईने दार उघडलं, तिला वाटलं – हा बहुधा डबा, किल्ली, पाकीट काहीतरी विसरला धांदरटपणे. 

पण तो घरात शिरलासुद्धा नाही. दारातूनच आईला म्हणाला, “मी निघालो तेव्हा तू आंघोळीला गेली होतीस. तुला टाटा केला नव्हता, म्हणून परतलो. टाटा. चल, मी पळतो!” म्हणत तो परत गेला पण. 

आज त्याची रोजची ९:१३ चुकणार होती. पण त्याच्या आईच्या चेहऱ्यावर आज दिवसभर हसू राहणार होतं.

🌸

आज ऑफिसासाठी डबा भरताना, तिनं एका छोट्या डबीत लिंबाचं लोणचं घेतलं होतं. तिच्या ऑफिसमधली स्मिता परवा दुसऱ्या कोणाला तरी सांगत होती, तिला सध्या लोणचं खावंसं वाटत होतं म्हणून. 

🌸

आज तो ऑफिसहून घरी येताना, गरमागरम बटाटेवडे घेऊन आला होता. त्याचे निवृत्त वडील चाळीतल्या त्यांच्या घरासमोरील व्हरांड्यात बसले होते. याने त्यांना ते वडे देऊ केले. 

हा शाळकरी असताना, त्याचे वडील ऑफिसमधून येताना, कधीकधी, त्याच्यासाठी असंच काहीतरी चटकमटक आणायचे. त्यांना ते आठवलं आणि मोतीबिंदू झालेले त्यांचे डोळे चष्म्याआडून लुकलुकले. 

🌸

त्याच्या गिरणीत – कंपनीत हडताळ चालू होता. खर्च भागवताना तो मेटाकुटीला आला होता. बायकोशी त्याचं यावरूनच बोलणं चाललं होतं. एवढ्यात त्यांचा दुसरीतला मुलगा आपली पिगी बँक घेऊन आला, त्याला दिली आणि म्हणाला, 

“बाबा, हे घ्या. माझ्याकडे चिक्कार पैसे आहेत!”

🌸

लेकीच्या कॉलेजमध्ये आज ‘साडी डे’ होता. हिने आज तिच्या आईची आठवण असलेली तिची सर्वात लाडकी साडी लेकीला दिली.

🌸

ऑफिसमध्ये तो तसा कडक शिस्तीचा बॉस म्हणून ओळखला जाई, पण चहा पिऊन परतताना तो रोज वॉचमनसाठी चहा घेऊन येई, हे कोणालाच ठाऊक नव्हतं.

🌸

त्याचे वडील रस्त्यावरील एका अपघातात अचानक वारले. हा जेमतेम कॉलेजमधून बाहेर पडलेला. दोन वर्षांपूर्वी ज्या मित्राशी भांडण झाल्याने अबोला धरला होता, तो आला, आणि पैशाचं एक पाकीट त्याला देऊन गेला, 

“राहू देत, लागतील,” म्हणाला. 

🌸

आज ती एक नवी रेसिपी ट्राय करत होती. Sugar free टॅब्लेटस् घालून मिठाई करत होती. सासूबाईंना मधुमेह असल्याने, कालच एका बारशाला तिने त्यांना गोडधोड खाऊ दिलं नव्हतं.

🌸

माहेरी असताना लाडकं शेंडेफळ म्हणून खूप नखरे होते तिचे. आज ती आई झाली होती, लेकाला सर्दी झाली होती. रात्री झोपला की शेंबडानं नाक चोंदायचं लेकाचं. त्याला कडेवर उभं धरून, ही रात्ररात्र बसून रहायची. 

आज तिचा वाढदिवस होता. हा ऑफिसमधून येताना एक मस्त सुवासिक गजरा घेऊन आला तिच्यासाठी, आणि नाटकाची दोन तिकिटं!

🌸

या धकाधकीच्या जीवनात, सुख मिळवण्यासाठी दरवेळी वारेमाप पैसा खर्च करायची गरज नसते. ही ‘चिमूटभर आपुलकी’ पुरते, घेणाऱ्यालाही आणि देणाऱ्यालाही!

लेखक :  मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड, पुणे

 

२)  टेडी बेअर …

माने हवालदारांची नुकतीच पुण्यातील मंडईजवळच्या शुक्रवार पेठ पोलीस चौकीत बदली झाली होती. शरीर विक्रयासाठी – वेश्या व्यवसायासाठी बदनाम असलेल्या बुधवार पेठेला लागून असलेली ही पोलीस चौकी. 

तरुण, तडफदार इन्स्पेक्टर भोसले स्टेशन इन् चार्ज आहेत, शिस्तीला कडक आहेत, असं त्यांच्याविषयी माने बरंच काही ऐकून होते.

माने कामावर रुजू झाले अन् भोसल्यांना त्यांनी नियमाबरहुकूम एक कडक सॅल्युट ठोकला. नमस्कार चमत्कार झाले, प्रथमदर्शनीच भोसल्यांबद्दल मान्यांचं चांगलं मत झालं. 

आणि आज ते भोसल्यांच्या बरोबर जीपने राऊंडला निघाले होते. भोसले साहेब जीपमध्ये पुढच्या सीटवर, जाधव ड्रायव्हरच्या शेजारी डावीकडे बसले होते आणि माने मधल्या रांगेत जाधवच्या मागे. 

काही कामासाठी भोसल्यांनी पॅसेंजर सीटसमोरचा कप्पा उघडला आणि मान्यांना त्यात दोन तीन टेडी बेअर (सॉफ्ट टॉईज) दिसले. मान्यांना आश्चर्य वाटलं. काल काहीतरी कारणाने त्यांनी साहेबांच्या टेबलाचा ड्रॉवर उघडला होता, त्यातही दोन टेडी बेअर होते, थोडे वेडेवाकडे पडले होते ते मान्यांनीच नीट करून ठेवले होते. 

साहेबांचं लग्न झालं असावं आणि त्यांना छोटी मुलं असावीत असं मनातल्या मनात म्हणत मान्यांनी मान डोलावली. 

“माने, तुमचं निरीक्षण चांगलं आहे, पण निष्कर्ष चुकीचा आहे,” आरशातून भोसले सरांनी आपल्याला कधी पाहिलं हे मान्यांना उमगलंच नाही. 

“म्हणजे माझ्याकडे टेडी बेअर असतात, हे खरं. पण माझं अजून लग्न झालेलं नाही, त्यामुळे मला मुलं असण्याचा प्रश्नच नाही,” भोसले म्हणाले, जाधव ड्रायव्हर खुदकन हसले आणि साहेबांनी आपलं मन कसं काय वाचलं याचं मान्यांना आश्चर्य वाटलं. 

पण मग साहेब या खेळण्यांचं करतात तरी काय असा प्रश्न मान्यांना सतावू लागला. जाधवांना विचारलं, तर “कळेल तुम्हाला योग्य वेळी,” असं त्यांनी काहीतरी गूढ सांगितलं. 

एक या टेडी बेअरचं गूढ आणि आठवड्यातून एक दोनदा तरी बुधवारातल्या वेश्या वस्तीतल्या कोणी ना कोणी बायका साहेबांच्या केबिनमध्ये यायच्या आणि त्यांना पाच मिनिटं तरी भेटून जायच्या – हा काय प्रकार आहे हे दुसरं अशी दोन रहस्यं मान्यांच्या डोक्याला भुंगा लावून होती. 

आज सकाळी सकाळीच माने मोटारसायकलने भोसले सरांना घेऊन निघाले होते, अप्पा बळवंत चौकातून येऊन, फरासखाना चौकीला उजवीकडे वळून गाडी मंडईकडे वळली, आणि तेवढ्यात शाळेत जाणाऱ्या एका मुलाला पाहून भोसल्यांनी मोटासायकल थांबवायला सांगितली. ते गाडीवरून उतरले, खिश्यातून एक चॉकलेट काढून त्या मुलाला दिलं, त्याच्या अभ्यासाची चौकशी केली, आणि निघताना गाडीवर टांग मारून बसताना विचारलं, “आणि आमचा छोटू कसा आहे ? मजेत आहे ना ? शाळेत येतो ना तुझ्याबरोबर ?”

त्या मुलाच्या चेहऱ्यावर एक सुंदर हसू फुललं, त्याने दप्तरात हात घालून एक टेडी बेअर बाहेर काढला. 

“मी नेहमी त्याला माझ्या बरोबरच ठेवतो. तुम्ही म्हणालात ना की एकटा राहिला की भीती वाटते त्याला म्हणून. तो आता माझा बेस्ट फ्रेंड आहे.” मुलानं मोठ्या अभिमानानं आणि आत्मविश्वासानं सांगितलं. गडगडाटी हसून, त्या मुलाच्या पाठीवर शाबासकीची थाप देऊन भोसल्यांनी गाडी पुढे घ्यायला सांगितली. 

पोलीस चौकीत आल्यावर सरांच्या पाठोपाठ माने केबिनमध्ये आले. त्यांना बसायची खूण करत भोसले त्यांना सांगू लागले. “माने, मी जेव्हा सब इन्स्पेक्टर म्हणून डिपार्टमेंटला रुजू झालो, तेव्हापासून हा टेडी बेअरचा सिलसिला सुरू झालेला आहे. हे मला माझ्या आईने दिले आहेत. आई स्वतः आपल्या हाताने हे टेडी घरी बनवते. 

मी तिला तेव्हा म्हटलंही की, आई, अग हे काय माझं वय आहे का टेडी बेअरशी खेळायचं ? अग मी आता पोलीस सब इन्स्पेक्टर आहे.

तेव्हा तिच्या अनुभवांचं पोतंडं उघडत तिनं मला सांगितलं. “बाळा, या दोन वाक्यांत तुझ्या तीन चुका झाल्या आहेत. पहिलं म्हणजे आईसाठी मूल नेहमीच लहान असतं. दुसरं म्हणजे टेडी बेअरशी खेळण्याचा वयाशी काही संबंध नसतो. आणि तिसरं म्हणजे, हे टेडी तुझ्यासाठी नाहीतच मुळी. 

तुझ्या कामात तुला जेव्हा कोणी बावरलेला, घाबरलेला, उदास, निराश दिसेल, तेव्हा तू एक टेडी त्या व्यक्तीला दे. त्या टेडीचा सांभाळ करायला सांग, कोणाला तरी आपल्या आधाराची गरज आहे हे भावना त्या माणसाला जगण्याचं उद्दिष्ट देऊन जाईल. 

आणि मग हा प्रघातच झाला. दर दहा पंधरा दिवसांनी महिन्याने आई आणखी टेडी पाठवते. आणि आपल्या कामाचं स्वरूपच असं आहे की असे दुःखी कष्टी आपल्याला भेटतातच. 

लहान मुलंच काय, पण या वस्तीत राहणाऱ्या माता भगिनीसुद्धा आपल्या स्वतःसाठी किंवा त्यांच्याबरोबर राहणाऱ्या अन्य कोणासाठी हे टेडी घेऊन जातात. 

आपल्या टेडीने कोणाला तरी मदत होत आहे ही भावना आईला सुखावून जाते, आणि तिनं केलेले टेडी सांभाळताना या सगळ्यांना आनंद मिळतो. 

आपण केवळ पोस्टमनचं निमित्तमात्र काम करत राहायचं,” भोसले सर पुन्हा गडगडाटी हसले. आणि यावेळी मान्यांनी सरांना जो कडक सॅल्युट मारला, तो फक्त नियमाबरहुकूम नव्हता, त्यात त्यांच्याबद्दल प्रेम – माया आणि आदरही होता.

© श्री मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड

मो ८६९८०५३२१५   

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ते हरवलेले जादुई शब्द — लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? मनमंजुषेतून ?

☆ ते हरवलेले जादुई शब्द —  लेखक – अज्ञात ☆ श्री सुनील देशपांडे

“अल्ला मंतर कोल्हा मंतर

कोल्ह्याची आई कांदा खाई

बाळाचा बाऊ बरा होई”

तुम्हाला आठवतंय, जेव्हा कधी तुम्ही लहानपणी खेळताना पडलात, रडायला लागलात किंवा कोणत्यातरी वस्तूमुळे तुम्हाला लागलं, तर आई/बाबा तुम्हाला जवळ घ्यायचे आणि कोणत्यातरी दिशेला बोट दाखवुन म्हणायचे “काही झाल नाही, तो बघ उंदीर पळाला!” आणि आपणही त्या नसलेल्या उंदराकडे बघत लागलेलं विसरून जायचो आणि पुन्हा खेळायचो किंवा ज्या वस्तूमुळे लागलं त्या वस्तूला आई/बाबा हळूच चापट द्यायचे आणि त्या जागेकडे/वस्तूकडे डोळे वटारून म्हणायचे “हाट रे, आमच्या सोनूला मारतोस काय. . . .” आणि असं म्हटल्यावर आपल्याला ही आनंद व्हायचा, वाटायचं कि आपल्याला कोणी काही केलं तरी त्याला ओरडायला आपले आई-बाबा आहेत आणि आपण ती जखम, ते दुःख विसरून जायचो.

कधी आपल्याला काही चावलं आणि ते आपण आई-बाबांना दाखवायला गेलो की ते त्यावर ‘फूsss’ असं करून फुंकर मारायचे आणि म्हणायचे “काही नाही. . . आता फू  केलंय ना , मग बरं होईल हं ते.”

पण का कुणास ठाऊक जसे जसे मोठे होत गेलो तसं तसं आई-बाबांना या शब्दांची आवश्यकता वाटेनाशी झाली. त्यांनी ते शब्द बोलणं बंद केलं आणि आपणही ते ऐकणं !

मोठं झाल्यावर वाटायला लागल हि काय बालिशपणा होता तो. . . अस फू करून कधी जखम बरी होते का?

पण खरं तर एवढं मोठं होऊनही आपल्याला त्या शब्दांची खरी ताकद कळलेलीच नसते. 

जखम ‘फू’ नी नाही बरी व्हायची . . . . तर त्या हळुवार ‘फू’ मधल्या प्रेम, माया आणि विश्वासाने बरी व्हायची

खरं तर ते शब्द हे आपलं लक्ष त्या दुःखापासून विचलित करण्यासाठी असायचे. त्या शब्दांमुळे आपण दुःख विसरून पुन्हा एकदा दंगा करायला तयार व्हायचो. 

जसे मोठे झालो तसे आपण सो कॉल्ड ‘ओपन वर्ल्ड’ मध्ये आलो. कॉलेज, नोकरी, छोकरी, स्पर्धा, करियर, मान मरातब, पैसा या आणि अशा अनेक गोष्टीनमधें गुरफटत गेलो. रोज अनेक शारीरिक, मानसिक जखमा व्हायला लागल्या, अनेक गोष्टी खुपू लागल्या, धर्मवाद, जातीवाद, राजकारण, व्यसनं, भोंदूगिरी, गरीबी, गुंडगिरी, भ्रष्टाचार, कमिशनखोरी, उच्शृंखलता, दहशतवाद, जीवघेणी स्पर्धा लचके तोडायला लागली. . रोज नवी आव्हान समोर येऊ लागली . . . रोज नव नवीन कृत्रिम गरजांना बळी पडायला लागलो . . . . पण दुर्दैवाने या वेळी “काही झाला नाही, उंदीर पळाला!”, “हाट रे, आमच्या सोनूला मारतोस काय. . . .” अस करून त्या सर्व दुःखांकडे डोळे वटारून बघायला, “फू  केलंय ना , मग बरं होईल हा ते” असं  म्हणून त्या जखमांवर फुंकर मारायला कोणी कोणी नव्हतं.

ते जादुई शब्द हरवले होते आता . . . . कदाचित असते तर हे सारं घडलंच नसतं.

कितीही मोठे झालो तरी त्या ‘बालिश’ वाटणा-या शब्दांचं खरं मूल्य आता कळायला लागलं. . .

ते शब्द फक्त सांत्वन करणारे नव्हते तर सामर्थ्य देणारे होते. आपलं दुःख विसरून जगापुढे पुन्हा दिमाखात उभं राहायला शिकवणारे, आपल्या जखमा विसरून पुन्हा  खेळायला लावणारे शब्द होते ते. वर वर पोरकट वाटणाऱ्या या शब्दांमध्ये प्रेम, माया आणि विश्वास यांचं प्रचंड सामर्थ्य होतं.

कधीतरी वाटतं कि कितीही मोठं झालो आणि कितीही मोठं संकट आल, तरी जर का पुन्हा कोणी “. . . . उंदीर पळाला!”, “हाट रे. . . . ”  “फू. . .” हे शब्द उच्चIरले, तर सारी संकट, सारी दुःखं पळून जातील त्या लहानपणीच्या अदृष्य उंदराप्रमाणे आणि पुन्हा दुसऱ्या दिवशी या नियतीशी दोन हात करायला, पुन्हा एकदा त्या ओपन वर्ल्ड मध्ये दंगा करायला आपण सज्ज होऊ. . . . . 

माणूस कितीही मोठा झाला तरी त्याला कधी ना कधी त्या ‘फु sss’ ची गरज पडतेच. अगदी  आई बाबांना सुद्धा . . . . . 

त्याला/ त्यांना त्याच्या/ त्यांच्या किमान एका विश्वासू माणसाकडून मिळालेली एक ‘फू sss’ नवसंजीवनी देऊन जाते.

जाता जाता वि. वा. शिरवाडकर यांच्या कालातीत कवितेतील एक ओळ आठवते:

“मोडून पडला संसार तरी मोडला नाही कणा, पाठीवर हात ठेऊन फक्त लढ म्हणा. . . “

माझ्याकडून एक फूsssss सर्वांच्या संकट निवारण्यासाठी !!

लेखक : अज्ञात 

प्रस्तुती – श्री सुनील देशपांडे.

नाशिक मो – 9657709640 ईमेल  : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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