हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 121 ☆ ।।मुक्तक।। ☆ ।। बहुत ही लाजवाब है जिंदगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 121 ☆

।।मुक्तक।। ☆ ।। बहुत ही लाजवाब है जिंदगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

जरा प्यार का अफसाना है ज़िंदगी।

हर रंग   को    समेटे  कोई तराना  है      जिंदगी।।

ज़िंदगी इम्तेहान लेती  है हमें मजबूत बनाने लिए।

मिलकर जिओ खुशी गम का याराना है जिंदगी।।

[2]

मन हार कर कभी भी  कोई जीत पाता नहीं है।

बिना संघर्ष के ख्याति कभी कोई  लाता नहीं  है।।

मत इंतज़ार करते रहो कुछअच्छा करने के लिए।

बात एक जान लो कि कल कभी आता नहीं है।।

[3]

बहुत सस्ती हैं खुशियां   बसती इसी जहान में।

मत खोजो उन्हें दूर कहीं     किसी   मुकाम में।।

छोटी-छोटी खुशियां ही बन जाती जाकर बडी।

बस सोच हो आपकी  अच्छी हर एक काम में।।

[4]

जान लो जरूर मेहनत का हमें फल  मिलता है।

देर से सही पर   आज नहीं तो कल मिलता है।।

कोई मुश्किल नहीं ऐसी जिससे पार न पा सकें।

कोशिश से ही हर समस्या का    हल मिलता है।।

[5]

यूँ जिओ कि जैसे कोई सुनहरा ख्वाब है जिन्दगी।

हर मुश्किल सवाल का लिए जवाब है  जिन्दगी।।

जो दोगे वही ही    लौट कर आएगा  जिन्दगी में।

यूँ समझ लो कि बहुत ही लाजवाब है जिन्दगी।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ पिता… ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

श्री आशीष गौड़

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का साहित्यिक परिचय श्री आशीष जी के  ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्द शब सुलगते  ख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी कविता  पिता…

☆ कविता ☆ पिता… ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

इन दो शब्दों में भ्रमांड समा जाता है ।

 

सर्जन से समकालीन तक

बिंब से प्रतिबिंब , पिता हरपल साथ रहता है ॥

 

गोद में लिये श्वेत अंबर तले,

पिता हमें अनंतता सिखाता है ।

 

ममता की आकाश गंगा का अनर्गल यायावर बन,

कंधे को भरोसा , कदम बढ़ाना सिखाता है ।

 

स्कूल का पहला बस्ता दिला, माँ की ओट में खड़े ।

हमारे स्वावलंबी कदमों की ताल पे अपने होने का एहसास दिलाता है ।

 

बहिर्मुखी बकवाद में सच परखना ,

परस्पराधीनता से स्वाधीनता की राह दिखाता है ।

 

हमारी हर उस चोट पे , जहां माँ बिलखती है ।

वहीं हमें परिस्थिति अवलोकन सिखाता है ॥

 

जीवन में आश्रित से स्वाश्रित तक का सफ़र ।

पिता हमें चीत से बोध कराता है॥

 

माँ और पिता के बीच का परस्पर यह फ़र्क़

पिता हँस के टाल जाता है ॥

 

माँ से की गई अटखेली में दिलचस्पी ना दिखाता।

हमारी बकैती का पूरा ब्योरा रखता है ॥

 

अस्तित्व की जित्तोज़हद में उगलते मार्तंड से बचाता।

पिता हर उन परछाइयों में देव बन रहता है ॥

 

हर बच्चे का पहला हीरो , वह पहला शक्तिमान।

एक सुदृढ़ निरापद , हमारे हर उस मूल सिद्धांत की बुनियाद होता है ॥

 

पिता , माँ के पीछे लिखा ।

हमारे हर सार का अर्थ , एक निरंकारी भ्रं रहता है ॥

©  श्री आशीष गौड़

वर्डप्रेसब्लॉग : https://ashishinkblog.wordpress.com

पॉडकास्ट हैंडल :  https://open.spotify.com/show/6lgLeVQ995MoLPbvT8SvCE

https://www.instagram.com/rockfordashish/

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 186 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – परेशानियों से परेशान हो न… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “परेशानियों से परेशान हो न…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 186 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – परेशानियों से परेशान हो न… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

रोता है क्यों तू, मुसीबत में रो न परेशानियों से परेशान हो न ।

 

कही कोई है ऐसा जिसे घेर करके परेशानियों ने सताया नहीं है?

नहीं जानता मैं कि दुनियों में है कोई, परेशानियों जिसने पाया नहीं है।

कहाँ तक हो कोई परेशान इनसे ये हैं हर जमाने के हर-एक के साथी-

रहेंगे ये हम तो चले जायेंगे कल, ये दो दिन इन्हें आँसूओं से भिगों न ॥१।

रोता है क्यों तू —

 

सदा रात औ’ दिन तो होते रहे हैं, होते हैं अब भी औ होते रहेंगे

न बदला चलन इस जमाने का, बस लोग ऐसे ही हँसते औं रोते रहेंगे ।

अँधेरे में ही तो जला दीप करते, विहँसती है बाती औ कट रात जाती-

यही जिन्दगी है लगा ही रहा है, यहाँ हर एक घर कभी हँसना या रोना ।२।

रोता है क्यों तू –

 

ये दुश्मन नहीं हैं सखा हैं तुम्हारे, तुम इनसे डरो मत, गले तो लगाओ

इन्हें आसरा दो, सहारा लो इनका, इन्हें अपनी राहों का साथी बनाओ ।

अगर तुम डरे ये डरायेंगे तुमको, जो होगा वो सब लूट लेंगे तुम्हारा

डरे बिन इन्हें अपना साथी बना लो, इन्हें रहने को साथ दो एक कोना ।३।

रोता है क्यों तू

 

परेशानियों खुद परेशान है ये तो बस चाहती है सहारा-तुम्हारा

जो इनको निभा साथ ले सीख इनसे, कभी वह रहेगा न जीवन में हारा ।

ये जितनी बुरी है, भली भी है उतनी ही, देतीं जगा आत्मविश्वास भारी

जो इनकी सहज भावना को समझ लें, ये दे जायेगीं कुछ इन्हें कुछ न होना ।४।

रोता है क्यों तू —

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार भोपाल में भवभूति अलंकरण से सम्मानित  – अभिनंदन ☆ प्रस्तुति – श्री जयप्रकाश पाण्डेय ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार भोपाल में भवभूति अलंकरण से सम्मानित  – अभिनंदन ☆ प्रस्तुति – श्री जयप्रकाश पाण्डेय

मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के नीलम जयंती समारोह का भव्य आयोजन मायाराम सुरजन भवन, भोपाल में प्रदेश अध्यक्ष श्री पलाश सुरजन जी के  रचनात्मक नेतृत्व में सम्पन्न हुआ। 

इस अवसर पर साहित्य सम्मेलन का प्रतिष्ठित भवभूति अलंकरण  वर्ष 2024 के लिए सुविख्यात व्यंग्यकार/कथाकार डॉ कुंदन सिंह परिहार, जबलपुर को हिंदी साहित्य सम्मेलन भोपाल के ‘नीलम शब्द उत्सव’ के गरिमामय समारोह में प्रदान किया गया।

कवि, कथाकार, कलाविद श्री प्रयाग शुक्ल, ‘लमही’ के संपादक श्री विजय रायहिंदी साहित्य सम्मेलन  के अध्यक्ष श्री पलाश सुरजन ने डॉ परिहार का सम्मान करते हुए शाल श्रीफल एवं चैक प्रदान किये। उल्लेखनीय है कि इस प्रतिष्ठापूर्ण अलंकार के निर्णायक मंडल में श्री राजेश जोशी, डॉ उर्मिला शिरीष तथा डॉ निरंजन श्रोत्रिय शामिल थे।

देश भर से आए रचनाकारों के बीच ख्यातिलब्ध कवि चिंतक श्री प्रयाग शुक्ल ने अपने उद्बोधन में कहा कि – ‘साहित्य,संस्कृति का यह विराट अनुष्ठान है जिससे जुड़कर हम सब खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।नाम में ही बहुत कुछ रखा है।सम्मेलन के पुरस्कारों के नाम हमारी विरासत के प्रतीक हैं।’ 

डॉ परिहार को भवभूति अलंकरण मिलने की खुशी में माध्यम साहित्यिक संस्था जबलपुर ईकाई के सचिव श्री जय प्रकाश पाण्डेय, कहानी मंच के श्री रमाकांत ताम्रकार, विवेचना के श्री हिमांशु राय, प्रलेस के श्री तरुण गुहा नियोगी के अलावा ‘जबालि व्यंग्यम परिवार‘ एवं संस्कारधानी की अनेक संस्थाओं की ओर से बधाई और शुभकामनाएं।

प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर

💐 ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से डॉ कुंदन सिंह परिहारजी को इस विशिष्ट सम्मान के लिए हार्दिक बधाई 💐

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “पार…” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “पार…” ☆ सौ राधिका भांडारकर 

(वृत्त – वनहरिणी :: मात्रावृत्त -८,८,८,८)

हृदयामध्ये साठवलेली घुसमट सगळी काढून टाक

गोंधळलेल्या अविचारांचा  सारा गुंता उसवून टाक…

*

संसाराचा डाव मांडला नकोच हेका हट्ट बावळा

उगा मनाला सतावणारी  अढी आतली मोडून टाक….

*

सांगितले मी एक स्वतःला  नीट जपावे अस्तित्वाला*

मुक्त मनाने पावलातल्या बंधन बेड्या तोडून टाक….

*

आशंकेला नकोच जागा कल्लोळ नको संदेहाचा

स्वच्छ शुद्ध त्या प्रेमाचा अन् बंध मनाचा जोडून टाक..

*

खूपच झाले खपणे आता परस्परांना जपुया सारे

कष्ट पुरे..  विश्रांतीसाठी  पार एक तू बांधून टाक…

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नीट… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ. सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

☘️ नीट  डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

शासनवृत्ती नीट नसेल तर

नीट कशी नीट असेल ?

भ्रष्टाचार आणि घोटाळ्यात

नीट यावेळी अव्वल दिसेल.

*

ज्यांच्या हाती आरोग्य दोरी

त्यांची अडचण नीट सुटेना

शासन दरबारी अनागोंदी

टांगती तलवार नीट हटेना !

*

व्यवस्थेतून घडतात डॉक्टर

मानसिकता नीट असेल का ?

त्यांच्याप्रती नीट वर्तनाची

अपेक्षा तेवढी सुटेल का ?

*

त्यातूनही ते नीट घडतील

रुग्णसेवेची कास धरतील 

देवदूत म्हणून रुग्णांमनी

मानवतेचे मंदिर बांधतील..!

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ गुळभेंडी… ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

सौ. सुचित्रा पवार

☆ गुळभेंडी… ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

नाव वाचून कुणाला तर वाटेल की हा भेंडीच्या भाजीचा गोड प्रकार असावा पण ग्रामीण भागातील लोक चटकन ओळखतील की हे झाड आहे. होय! पिंपळासारखी पण तळहाता एवढी रुंद, साधारण हृदयाच्या आकाराची पाने असणारे, रंगीबेरंगी फुलांचे आणि पिंपळासारखी घनदाट सावली देणारे गुळभेंडीचे झाड. लहानपणीचा आमचा सवंगडी.

उत्तर दक्षिण दरवाजे असणाऱ्या आमच्या कौलारू घराच्या प्रवेशद्वाराजवळ आत येताना उजवीकडे गुळभेंडीचे झाड आणि डावीकडे विलायती चिंचेचे झाड होते. घरात प्रवेश करण्या अगोदर भल्या मोठ्या अंगणातून  पायवाट होती अगदी अंगणाच्या मधोमध. अंगण या पायवाटेने दुभागले होते. दोन्ही बाजूला हिरवाई आणि मध्ये पाऊल वाट जी कट्टयाशी येऊन थांबायची. घराच्या समोर जवळ जवळ बारा बाय बाराचा दगड, माती मुरूम टाकून ठोकून ठाकून गुळगुळीत केलेला, सडा सारवण केलेला सुरेख कट्टा अन मग घर अशी रचना होती. अंगणातून घराकडे येताना दगडी पायऱ्या, नंतर कट्टा आणि मग घरासमोर एक पायरी व मग प्रवेश असे स्वरूप होते. हिरवाईत लपलेल्या एखाद्या चित्रातल्या कौलारू घरासारखेच आमचे घर होते त्यामुळं रस्त्यावरून येणाऱ्या जाण्याऱ्या लोकांना ते आकर्षित करायचे. भलं मोठं अंगण, त्याला काट्यांचे कुंपण, भली मोठी वेगवेगळी झाडं, फुले, वेली, भाज्या, गवत आणि भिरभिरणारी विविध रंगी फुलपाखरे!पावसाच्या पाण्यावर आमचं अंगण असं हिरवंगार दिसायचं. तर असंच एकदा आईने कुठूनतरी, मला वाटते मामाच्या गल्लीतून गुळभेंडीचे एक मजबूत दोन हात लांबीचे खोड आणले. एक छोटासा खड्डा खणून त्यात ते खोड लावलं आणि वर शेणाचा गोळा ठेवला. दररोज थोडं थोडं पाणी घालत राहिलो आणि एक दिवस इवलासा एक अंकुर बाहेर दिसला. लवकरच त्याचे रूपांतर पोपटी छोट्या पानात झाले. मग दुसरा तिसरा असे करत पाठोपाठ अंकूर फुटत राहिले. पावसाळ्यात मग छोट्या छोट्या फांद्या फुटत गेल्या आणि बघता बघता त्याचे उंच रोप झाले. त्या रोपाचं पुढं डेरेदार झाड झालं, बुंधा भक्कम झाला आणि भक्कम दाट सावली पडू लागली. शेतातून लांबून येणारे जाणारे वाटसरू बरेचदा झाडाखाली क्षणभर बसून पुढं जात. पावसात झाडाचा आडोसा घेत. उन्हातान्हाचे भारे घेऊन येणाऱ्या बायका चवळी, उडीद, मुगाच्या वेलींचे, गवताचे भारे झाडाखाली टाकून विश्रांती घेत. चेहऱ्यावर साचलेला घाम पदराने पुसत. तांब्याभर पाणी पीत, थकवा गेल्यावर मग भारा उचलून वाटेला लागत. अशी आईची न रस्त्यावरून येणाजाणाऱ्या बायकांची ओळख झाली. मग त्यातल्याच एकजणीला युक्ती सुचली. आमच्या शेळ्या बघून गावातील परटीन मावशी म्हणाल्या, “ही वज इतक्या लांब डोक्यावरन नेस्तोवर हितच झाडाखाली बसून आम्ही शेंगा तोडून घरी नेतो आणि वेल खातील तुमच्या शेळ्या. ” आईने पण होकार दिला. मग दरवर्षी त्या मावशी अशीच युक्ती करून डोक्यावरील भारा झाडाखाली टाकत. सावलीला बसून शेंगा तोडून भार हलका करून जात. अशा प्रकारे गुळभेंडीने अनोळखी माणसे जवळ आणली. भिकारी आकारी आला तर तिथंच सावलीत बसून आणलेलं सगळं शिळं पाकं मन लावून खायचा, त्याचे जेवून होईतोवर आम्ही त्याचे निरीक्षण करत असू. जेवल्यावर आम्हाला तो पाणी मागायचा पाणी पिऊन वाटेला लागायचा.

गुळभेंडीचा  हिरवा आणि पिकला पाला, फुले जनावरे खात. पावसाळ्यात दावणीला चिकचिक झाली की ती जागा वारसांडेपर्यंत म्हस गुळभेंडीला बांधत असू. उन्हाळ्यात उन्हाचा तडाखा वाढला की थंडगार सावली म्हणून सावलीत म्हस बांधायची. म्हस बोडून घ्यायची असल्यावर पण तिथेच बांधत असू कारण दावणी जवळ म्हस बोडली की थोडे तरी केस तिथंच राहणार आणि परत जनावरांच्या पोटात जाणार.

कावळ्या- चिमण्यांचे तर हक्काचे झाड होते गुळभेंडीचे. पर्णसंभार जास्त असल्याने पानात लपणे त्यांना सोपे असायचे. बरेचदा कावळे तिथं घरटे बांधायचे. बरेचदा इकडून तिकडून चोचीत काहीतरी घेऊन तिथं फांदीवर बसून निवांत खात राहायचे. त्यावेळी हमखास कावळा आणि कोल्ह्याची गोष्ट आठवायची. गुळभेंडीचे किती प्रकार आहेत?मला माहित नाही पण  दोन प्रकारची गुळभेंडी मी पाहिली आहे. एक रुंद पानांची आणि एक लांबट हृदयाच्या आकाराच्या पानांची. याचे खोड खरबरीत असते. लाकूड टणक आणि टिकाऊ असते त्यामुळं छपराला मेडकी करायला एकदम उपयोगी.

गुळभेंडीची फुले एकदम पिवळीजर्द आकर्षक असतात. सुकली की ती तांबूस होतात. गुळभेंडीच्या लंबगोल कळ्या आम्ही खेळायला घेत असू. कळीचा लांब देठ तोडून छोट्याश्या देठाला गर्रकन फिरवून गोल गोल भोवऱ्यासारखे फिरवायचो. दुसरी एक मज्जा करायचो. भोवऱ्याचा पाठीमागील देठ हळूच काढून मधला दांडा अलगद उपसायचो, तो ओलसर पिवळा असायचा, त्या रंगांच्या टिकल्या कपाळावर लावायचो. गंधाची बाटली म्हणून त्या भोवऱ्याचा  उपयोग करायचो. फुलं गळून गेली की त्यातून फळे येत त्याला टेंभर म्हणतात. ती टेंभरं सुकली की वाऱ्याने खाली पडायची. जनावरानी तुडवून किंवा गाडीखाली येऊन ती चिरडायची आणि त्यातून अंगावर मलमल असलेले चॉकलेटी बी बाहेर निघायचे. ते आकर्षक बी उगीचच वेचत बसायचो. बरेचदा त्या पानांची पिपाणी करून वाजवायचो. असं हे गुळभेंडीचे सर्वांगाने उपयुक्त आणि बहुगुणी झाड आमच्या सवंगड्यासारखंच होतं. त्याच्या घनदाट सावलीत तासनतास मातीत खेळत बसायचो.

परवा वाचनात आलं की गुळभेंडीची पानं, फळं औषधी आहेत. तसेच ते पंचप्लक्ष पैकी एक आहे. (१. वड, २. पिंपळ, ३. पिंपरी, ४. औदुंबर५. पारोसा पिंपळ अर्थात गुळभेंडी. )आणि मला गुळभेंडीने थेट आमच्या अंगणात सोडले. तिथून थेट मामांच्या परड्यात सोडलं. मामांच्या परड्यात तरी गुळभेंडीचा केवढा मोठा विस्तार होता!मामांच्या परड्यात चिंचेची न गुळभेंडीची सावली दिवसभर हटायची नाही त्यामुळं सगळ्यांची जनावरं रात्रंदिवस तिथंच बांधलेली असायची. आजीसुद्धा कायम त्या सावलीत बसलेली असायची. अजूनपर्यंत ते डेरेदार झाड परड्यात होतं. आता मात्र  प्रत्येकाचे वेगवेगळे संसार आणि गुराढोरासाठी अडचण वाटायला लागल्याने ते तोडले.

आमच्याही अंगणातले कधीच तोडले, हेच की आकर्षक घर बांधायला!

आमच्या आई-वडिलांना शेतीची हौस होती म्हणून त्यांनी रोजगार करत आपलं अंगण शेतासारखं जपलं. अंगणात उगवलेल्या प्रत्येक झाडाला आपलंसं केलं, त्याला हवं तसं मुक्त वाढू दिलं, ते बाभळीचे असो की लिंबाचे, भेदभाव नाही केला की त्यांचा द्वेष सुद्धा. म्हणूनच की काय झाडांचे ते प्रेम माझ्या मनाच्या तळात झिरपत झिरपत गेलं. प्रत्येक झाडाचं ऋण आज मोठं झाल्यावर कळत आहे. ती झाडं तिथं नाहीत पण आठवणी जिथं तिथं सांडलेल्या, त्या मात्र कितीही गोळा केल्या तरी ओंजळ भरत नाही.

रस्त्यावर एखादे गुळभेंडीचे झाड दिसले की  म्हणूनच मला किती आनंद होतो म्हणून सांगू!(तुम्ही म्हणणार त्यात काय आनंद होण्यासारख?)पण तुम्हाला कळणार नाहीच माझ्यातलं आणि झाडातलं ते गूढ हळवं नातं!!

© सौ.सुचित्रा पवार 

तासगाव, सांगली

8055690240

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ क्लेप्टोमॅनिया — भाग-१ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? जीवनरंग ❤️

☆ क्लेप्टोमॅनिया — भाग-१ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

सुरुचीला आई  रागावत होती ,अग सुरुची,हे काय आणलं आहेस खिशातून घरी? कोणाची बाहुली आहे ही? सुरुची गप्प  उभी होती.  “ ममा, रागावू नकोस ना ग..  मला ही खूप आवडली.. शेजारच्या माहीची आहे ही.  मला खूप खूप आवडली ग पण  मी चोरी नाही केली.”   हे बघ  सुरुची,तू चोरी नाही ना केलीस? मग आता माहीच्या घरी जा आणि तिला म्हण,सॉरी माही!   ही तुझी बाहुली  .मी चोरली नाहीये पण मला खूप घ्यावीशी वाटली.  घे ही परत.  मला माफ कर..  सुरुची,हे तू तिच्या घरी जाऊन तिला म्हणालीस तरच मी तुला माफ करीन.”  सुरुची तशीच उभी राहिली. आपली आई आपल्याला घरात घेणार नाही हे तिला चांगलंच माहीत होतं.. 

हळूहळू चालत सुरुची माहीच्या घरी गेली.  “माही,ही घे तुझी बाहुली..मला खूप आवडली म्हणून मी खेळायला घरी नेली ग, पण मी चोरली नाही.”   माहीने सुरुचीचे भरून आलेले डोळे पुसले. “सुरुची, मला माहीत आहे ग,तुला ही बाहुली खूप आवडली होती,पण अशी न विचारता न्यायची नाही हं.  मी दिली असती तुला खेळायला. आपण सख्ख्या मैत्रिणी ना? असं कोणालाही न विचारता वस्तू  नेणं बरोबर नाही सुरुची.”   गंभीरपणे माही सांगत होती.   सगळं विसरून दोघी पुन्हा खेळायला लागल्या.. तो प्रसंग  सुरुची , तिची आई विसरून गेल्या.

सुरुची खूप हुशार, गुणी मुलगी. आईवडिलांची एकुलती  एक मुलगी. खूप  प्रयत्न करूनही सुरुचीच्या आईला सुरुचीनंतर दुसरं मूल झालंच नाही. सुरुची त्यांची अत्यंत लाडकी.

सुरुचीला अत्यंत विख्यात शाळेत प्रवेश मिळाला आणि माही आणि सुरुची एकाच स्कूल बसने शाळेत जाऊ लागल्या. हळूहळू बस मधून मुलांच्या तक्रारी येऊ लागल्या.  आज मिहिरची कंपास बॉक्स गेली  उद्या शिरीषचे पेन सापडत नाही..  ह्या तक्रारी शाळेत प्रिंसिपल कडे गेल्या.  माहीने सुरुचीला विचारलं,”सुरुची,या मुलांच्या अशा तक्रारी आल्या आहेत.  मला खरं सांग,हे सगळं तू तर नाही ना घेतलंस?” सुरूचीने आपलं दप्तर माही समोर पालथं केलं.  या सर्व वस्तू इकडे तिकडे विखुरल्या. शिरीषचं पेन,मिहिरची कंपास बॉक्स  सगळं दिसलं  माहीला.  सुरुची स्तंभित होऊन उभी होती.हे आपणच केलं आणि कसं आणि कधी,हे तिला समजेचना. ”माही,मी मुद्दाम नाही ग हे करत.  पण मला एखादी गोष्ट हवीशी वाटली की ती घेण्याची तीव्र इच्छा मला होते.  मग ती घेतल्याशिवाय मला चैनच पडत नाही.. मी ती घेते आणि मग दुसऱ्याच क्षणी मला ती नकोशीही होते. मग मला आठवत पण नाही,की मी हे कधी केलं आणि का केलं”.

सुरुची हुंदके देऊन रडायला लागली. माही आणि तिची आई सुरुचीच्या घरी गेल्या..  सुरुचीचे आईवडील हे ऐकून स्तंभित झाले आणि ही गोष्ट वाटते इतकी साधी नाही हेही त्यांच्या लक्षात आले.  दुसऱ्या दिवशीच सुरुचीला बाबांनी त्यांच्या फॅमिली डॉक्टरकडे नेले. डॉक्टर म्हणाले,हा क्लेप्टोमॅनिया  नावाचा मानसिक आजार आहे.  हा का होतो,याचे उत्तर नाही.. ही मुलं किंवा माणसं चोरी करण्याच्या हेतूने हे करतच नाहीत.  ज्या क्षणी ते हे करतात त्याच क्षणी ते हे विसरून जातात आणि ती उर्मी  नाहीशी होते.  बरं हे लोक रोजही असं करत नाहीत. मला वाटतं, सुरुचीला क्लेप्टोमॅनिया असावा. मी माझ्या चांगल्या मित्राकडे ,जो सायकीएट्रिस्ट आहे त्याच्याकडे हिला न्यायचा सल्ला देईन.  “ दरम्यान तुम्ही  प्रिंसिपलनाही भेटा.  त्यांना सत्य परिस्थिती सांगा. या लहान मुलीवर याचा विपरीत परिणाम होता कामा नये. एरवी किती हुशार मुलगी आहे ही!   तुम्हीच सांगितलंत ना,शाळेत ही सतत पहिली असते म्हणून?”   डॉक्टरांनाही या निरागस मुलीबद्दल वाईट वाटले.   बाबा प्रिंसिपलना भेटले .  त्यांनी शांतपणे सगळं ऐकून घेतलं आणि सांगितलं, “मिस्टर मोघे, काळजी करू नका. ही गोष्ट तुमच्या माझ्यातच राहील. वस्तू गेलेल्या माझ्या ऑफिसमध्ये तुम्ही आणून देत जा आणि आम्ही त्या ज्याच्या त्याला परत करू.  यात कुठेही सुरुचीचे नाव येणार नाही याची काळजी आपण घेऊ.”.  बाबांकडचे मनोविकार तज्ञांचे रिपोर्ट्स बघत प्रिंसिपल बाबांशी बोलत होते. त्यांनाही या मुलीबद्दल वाईट वाटलं.  कधीतरी मुलांच्या तक्रारी येत . कधी किरकोळ गोष्टी नाहीशा होत पण त्या सापडत देखील दुसऱ्याच दिवशी.. ही गोष्ट फक्त माहीलाच माहीत होती.  माही आणि सुरुचीची मैत्री इतकी घट्ट हाती की शाळा संपेपर्यंत ही गुप्त गोष्ट कोणाला समजली नाही आणि सुरुचीचे शाळेतले स्टार स्टुडन्ट हे स्थानही अबाधित राहिलं.

मुली मोठ्या झाल्या.. कॉलेज मध्ये जाऊ लागल्या.  सुरुचीच्या ग्रेडस् अत्यंत उत्तम होत्या.  माहीसुद्धा अतिशय जिनिअस होती. दोघींची मेडिकलला जाण्याची तीव्र इच्छा होती. सुरुची माही ला म्हणाली,”माही, मी नियमाने सगळी औषधे घेते, पण मला माझ्या वस्तू घेण्याच्या जबर उर्मीवर मात करता येत नाही ग.  मी चांगली  डॉक्टर कशी होऊ शकेन ग माही?”

सुरुचीच्या आणि माहीच्या डोळ्यातून अश्रू वाहू लागले. ”का नाही होणार तू चांगली डॉक्टर सुरुची? मी कायम तुझ्याबरोबर आहे आणि असेन.  हा आजार हा तुझा दोष नाहीये ..तरी हे बरंच कंट्रोल मध्ये तू आणलं आहेसच. ध्यान,  प्राणायाम साधना योग करून.. होईल सगळं मस्त ग.” त्या वर्षी दोघीनी जीव तोडून अभ्यास केला. . परीक्षा संपल्या आणि दोघीनी जरा चार दिवस कुठेतरी  विश्रांतीला जायचं ठरवलं.

माहीच्या मावशीचं पानशेत जवळ मस्त फार्म हाऊस होतं तिकडे ती आग्रहाने बोलावत होती.. सुरुचीच्या आईनं माहीला सांगितलं,”माही,तू आहेस म्हणूनच मी सुची ला पाठवते आहे ग. नाहीतर काय होईल ?” काकू नका काळजी करू.  मी सतत आहे सुरुची जवळ लक्ष ठेवून.. हसत हसत म्हणाली,” ही माझी लिपस्टिक तेवढी नेते हं.  कालच सुरूचीने नेली होती..तिनेच सांगितलं मला..” पण हल्ली हे खूप खूप कमी झालंय काकू सुरुचीचे ..खूप महिन्यांनी हे होतं कधीतरी आणि ते सुरुचीच्या लक्षात  आलं की ती माझ्याजवळ आणून देते. किती हो गुणी मुलगी आहे सुरुची.  देवाने हा असला दुर्मिळ आजार या सोन्या सारख्या मुलीला का द्यावा?” माहीच्या डोळ्यात पाणी आलं.. 

— क्रमशः भाग पहिला 

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆– ‘‘माझा व्यायाम शाळेतील पहिला (आणि बहुधा शेवटचा) दिवस !!’’ ☆ पद्मश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर ☆

पद्मश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ ‘‘माझा व्यायाम शाळेतील पहिला (आणि बहुधा शेवटचा) दिवस !!’’ ☆ पद्मश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर ☆

(…नुकताच जागतिक योग दिन साजरा झाला ..  त्यानिमित्त….एक सुरम्य आठवण …) 

आधीच मला व्यायामाचे वेड! (?) त्यात वेळ न मिळाल्याचे कौतुक! त्यामुळे गेली कित्येक वर्षं सर्वांनी सांगून, समजावूनही, मला व्यायाम किंवा ‘योग’ नावाची गोष्ट, मुद्दामहून कधीच करायचा योग आला नव्हता! शिवाजी पार्कला राहत असताना, घरासमोरच्या समर्थ व्यायामशाळेत रोज सकाळ-संध्याकाळ, शेकडो मुलं झरझर मल्लखांब करताना, व्यायाम करताना पाहून मला खूप कौतुक वाटे. आपणही असेच सुटसुटीत असावं, असं वाटे!

अलीकडेच मी व्यायामशाळेचे प्रमुख, शिवछत्रपती जीवन गौरव पुरस्काराने सन्मानित असलेल्या श्री. उदय देशपांडे सरांनी केलेल्या विनंतीमुळे , व्यायामशाळेची विश्वस्त आणि आजीव सभासदही झाले. मी विचार केला, ‘चला, आपणही हातपाय हलवून पाहूया’, आणि मला कोण स्फूर्ती आली!!

तो सुदिन म्हणजे ७ जुलै…. माझा वाढदिवस! प्रत्येक वाढदिवसाचा निश्चय, हा नव्या वर्षातल्या पहिल्याच दिवशी करतात, तशा संकल्पासारखा – मोडणाऱ्या मनोऱ्यांसारखाच असतो, हे मला ठाऊक असूनही, मी पहाटे ६ वाजता व्यायाम शाळेत हजर झाले. तिथली उत्साही मंडळी उशा, चादरी  घेऊन आली होती , तसे मी काहीच नेले नव्हते. प्रशिक्षक मॅडमनी ‘शवासना’पासून सुरुवात केली….. आणि इथेच तर खरा गोंधळ झाला…!

सर्वांनी शरीरे जमिनीवर झोपून सैल सोडली. मॅडमच्या सांगण्यानुसार, पायाच्या बोटापासून प्रत्येक जण डोळे मिटून, लक्ष केंद्रित करत होता. नंतर बराच वेळ काय चालले होते, हे मला कळलंच नाही. काही वेळाने मी दचकून डोळे उघडले, आणि पाहते तो काय?…. आजूबाजूला रंगीबेरंगी कपड्यातले बरेच पाय….. हवेत लटकताना दिसले!! मी तर पुढच्या कुठल्याही सूचना ऐकण्यापूर्वीच कुंभकर्णासारखी ठार झोपले होते तर!! नेहमीप्रमाणे ताबडतोब स्वप्नही सुरू झाले होते… कुठे दगडावरही मेली छाऽऽन झोप लागण्याची ही माझी जुनीच सवय! माझा हा अवतार पाहून, प्रशिक्षक मॅडम मला शेवटी म्हणाल्या, “अहो, सॉरी हं.. तुम्ही इतक्या छान झोपी गेलात ते पाहून आणि सेलेब्रिटी म्हणून तुम्हाला कसं उठवू? असं झालं मला!” हे ऐकून तर मला वरमल्यासारखंच झालं. पण गालातल्या गालात हसूही फुटलं! 

त्यामुळे ‘शवासन’, हा माझ्यासाठी एकमेव सर्वांगसुंदर व्यायामाचा आणि परमेश्वरी कृपाप्रसादाचा प्रकार आहे, असं मी आजवर मानत आलेय!!!

©  सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ काय आहे सावित्री ? ☆ सुश्री विनिता तेलंग ☆

सुश्री विनिता तेलंग

? इंद्रधनुष्य ?

☆ काय आहे सावित्री ? ☆ सुश्री विनिता तेलंग ☆

सावित्री आहे भारतीय स्त्रीच्या प्रखर आत्मभानाचे,भारतीय युवतीच्या अपार संघर्षशील वृत्तीचे प्रतीक.

सावित्री आहे आपल्या इतिहासातील एक लखलखती तेजस्विनी,जी स्वतःच्या ईप्सितापासून तसूभरही ढळली नाही.सावित्री माणसाच्या मनातली ती तीव्र अभीप्सा आहे जी आपले उच्च ध्येय प्राप्त करण्याकरता मृत्यूवरही मात करते.

मानवजातीच्या कल्याणाकरता पित्याने केलेली तपश्चर्या, त्याचे तेजस्वी फलित असलेल्या कन्येचे डोळस संगोपन, तिच्या मनात त्याच उदात्त ध्येयाची रुजवण आणि तिच्याकडून त्याला मिळालेला उत्कट प्रतिसाद म्हणजे सावित्री.

सावित्री दैवी गुणसंपदेचा अविष्कार.

सावित्री स्वयंनिर्णयाचा अधिकार.

सावित्री स्वातंत्र्याचा उद्गार.

 

सावित्री ईश्वरदत्त प्रेमाचा स्वीकार.

सावित्री क्रूर नियतीचा अस्वीकार.

सावित्री तडजोडीला नकार.

 

सावित्री कठोर कर्माचा आचार.

सावित्री अतूट निष्ठेचा व्यवहार.

सावित्री योगाचा ओंकार.

 

सावित्री मानवी प्रगतीचा विचार.

सावित्री साहचर्याचा उच्चार.

सावित्री निसर्गस्नेहाचा प्रचार.

 

सावित्री मानवी पूर्णतेला होकार.

सावित्री आदिमायेचा अवतार.

सावित्री उत्क्रांतीचा आधार.

भारतातील प्रगत विचारांचा पुरावा आहे सावित्री.कन्येला पुत्राप्रमाणेच सुशिक्षित करून,तिला वर निवडीचे स्वातंत्र्य देऊन एकटीला वर संशोधनाला पाठवणारे मातापिता..

तिच्या निवडीचे आयुष्य केवळ एक वर्ष आहे हे कळल्यावरही तिच्या निर्णयाच्या पाठीशी उभे राहणारे..

तिच्या वनात रहाण्याला आक्षेप न घेता,ढवळाढवळ न करता तिच्या संघर्षाला दुरून पाठबळ देणारे.

सावित्रीच्या मनातही काही केवळ सुस्वरूप तरुणाशी विवाह करून सुखाने राहण्याची मर्यादित इच्छा नव्हती.तिच्या मनात होते एक भव्य,अमर्याद स्वप्न. ते साकार करण्यात तिला साह्य करेल असा जोडीदार तिने डोळसपणे निवडला. त्याचे भविष्य समजल्यानंतरही तिने प्रत्यक्ष नियतीशी लढायचे ठरवले

आणि ती जिंकली !

काय केलं तिनं त्यासाठी? 

तिनं जे केलं ते पतिसेवा,व्रतवैकल्ये, उपासतापास, वडाखालचा ऑक्सिजन याच्यापार पलीकडचं आहे.

Women empowerment,

liberal thoughts,

manifestation,

law of attraction,

goal setting,

parenting…… अशा अनेक आधुनिक संकल्पनांच्या पार पुढे गेली आहे सावित्री.

मानवाकरता तिनं दीर्घायुष्याचं वरदान मिळवलं यमाकडून.आणि त्याकरता यमाकडून मानवजातीकरता आणला योग..महायोगी श्रीअरविंद यांना या कथेतील दिव्यत्व जाणवले आणि त्यांनी या कथेला एका उच्च आध्यात्मिक दृष्टीने आपल्या सावित्री या इंग्रजी महाकाव्यातून मांडले.

ही नवी दृष्टी स्त्रियांनाच नव्हे समस्त मानवजातीला आत्मभान देणारी आहे. 

लेखिका : विनिता तेलंग 

© सुश्री विनिता तेलंग

सांगली. 

मो ९८९०९२८४११

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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