मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ जपणूक… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ जपणूक… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के 

कितीसे पुढे आयुष्य उरले

असते माहीत झाडालाही 

त्याच्या रूपरंगावरूनही

असते कळत सर्वांनाही 

*

तरी झाड फांदीमार्फत

असते हिरवाई पुरवीत

जोडून आहे जीव देठी

काळजी घेणे खरी रित

*

 थकलो आता गळून पडेल

 म्हणून नाही दुर्लक्ष करीत

 मानवाच्याच जगामधे

 कळेना कुठून आली रित

*

 वृद्धाश्रम संख्या म्हणून

 दिवसेंदिवस वाढत आहे

 कित्ती म्हातारे हतबलतेने

 घराघरातून कुढत आहेत

*

 निसर्गाकडून शिकावं असं

 खुप आहे आजुबाजूला

 फक्त आपली कुवत पाहिजे

 निसर्ग भाषा कळायला

*

 कळणं तस अवघड नाही

 निसर्गाशी समरस व्हावं 

केवळ जमीन अन आभाळ

 थोडं  थोडं कवेत घ्यावं

*

 तेवढं जरी केलं तरीही

 वाळलेलं पान, थकलं मन

 जपेल इवल्या हिरव्याला 

 गिरक्या घेत पडेल नंतर

 जागा नवी पालवी फुटायला

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-22 – आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -22 – आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं….

मित्रो, चल रहा हूँ, यादों की पगडंडियों पर – बिल्कुल बेखबर कि ये मुझे कहां ले जाने वाली हैं पर मैं डरते-डरते चलता जा रहा हूँ। आज पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ की बहुत याद आ रही है, जिसकी कवरेज लगभग छह साल तक की, यानी छह साल तक इस विश्वविद्यालय के हर मोड़ पर अनजाने चलता गया !

सबसे पहले यादों में आ रहे हैं- योगेन्द्र यादव! वही जो पहले चुनाव विश्लेषक रहे डी डी चैनल पर, फिर आप पार्टी में शामिल हुए और इसके बाद ‘ स्वराज’ पार्टी बनाई। आजकल कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के साथ हैं। भारत जोड़ो यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण यात्री रहे !

जिन दिनों मैं पंजाब विश्वविद्यालय कवर करता था, योगेन्द्र यादव विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र में प्राध्यापक थे और विभाग के नोटिस बोर्ड पर कोई न कोई टिप्पणी लिख कर लगा देते ! मुझे बहुत इंटरेस्टिंग लगी यह बात और ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का एक साप्ताहिक स्तम्भ था, हर सोमवार – चंडीगढ़ दर्शन‌’ उसमें हम स्टाफ के लोग चंडीगढ़ की कोई न कोई रोचक घटना देते थे। ‌एक बार मैंने योगेन्द्र यादव की इस तरह की आदत पर

‘चंडीगढ़ दर्शन’ पर छोटी सी टिप्पणी दे दी, जिसके बाद हमारा परिचय हुआ, जो आज तक बना हुआ है। ‌हालांकि योगेन्द्र यादव जल्द ही पंजाब विश्वविद्यालय से दिल्ली चले गये। ‌इनके पिता श्री संग्राम सिंह हरियाणा के बड़े सर्वोदयी नेता थे। पिता के ही पदचिन्हों पर योगेन्द्र यादव भी चले और चलते चलते राजनीति में आ गये। जब कभी हिसार आते हैं, मुझे दिल्ली से चलते समय ही फोन आ जाता है और हमारी मुलाकातें हिसार में ज्यादा हुईं। एक बार अपना कथा संग्रह देते समय हमारे सहयोगी छायाकार मित्र फोटो खींचने लगे तब बोले कि यह दोस्ताना फोटो है और ये पत्रकार से पहले हमारे दोस्त हैं ! वे अपनी जगह राजनीति में टटोल रहे हैं और मैं पत्रकारिता व लेखन में, पर अलग अलग रास्तों के राही दोस्ती की डगर पर चल‌ रहे हैं। सालों साल से ! हम हैं राही अलग अलग दिशाओं के !

पंजाब विश्वविद्यालय के उन दिनों पी आर ओ हुआ करते संजीव तिवारी, जो कम रोचक नहीं थे! उन्होंने बिल्कुल  अपने पीछे एक वाक्य लिखवा रखा था, जिसका भाव यह था कि यदि आप सोचते हैं कि आपके आते ही सब हो जायेगा तो धैर्य रखना सीखिए, सब कुछ आपकी सोच के अनुसार नहीं होगा ! बहुत दिलचस्प ! उन्होंने अपनी ओर से पत्रकारों को आराम की सुविधा भी दे रखी थी। यदि आप आराम करना चाहें तो सामने छोटे से कमरे में जाइये और वहाँ एक बढ़िया वाले तख्तपोश पर आराम कीजिये, चाय या नींबू पानी आ जायेगा ! ऐसा पी आर ओ मैंने फिर कहीं नहीं देखा। ‌हिसार आने के बावजूद जब कभी चंडीगढ़ आना होता तो चलने से पहले तिवारी को फोन लगाता कि एक कमरा बुक करवा दीजिये और कमरा बुक मिलता ! उनकी बहन रत्निका तिवारी सेक्टर दस के गवर्नमेंट गर्ल्ज काॅलेज में संगीत प्राध्यापिका थीं और बहुत ही अच्छी गायिका ! उन्हें जाना बड़ी बेटी रश्मि के चलते क्योंकि वह इसी काॅलेज की छात्रा रही  बीए में। उनके कार्यक्रम जालंधर दूरदर्शन पर भी आते थे। कुछ समय विनीत पूनिया भी पंजाब विश्वविद्यालय के पी आर  ओ रहे, जो आजकल कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं! वे हिसार के गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के छात्र हैं!

इसी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के जिक्र के बिना आगे नहीं बढ़ पाऊंगा ! यहीं पर डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता, डाॅ यश गुलाटी, डाॅ सत्यपाल सहगल, डाॅ परेश और आजकल अपने दैनिक ट्रिब्यून के सहयोगी रहे डाॅ गुरमीत सिंह, डाॅ जगमोहन, डाॅ अतुलवीर अरोड़ा और इन दिनों डाॅ योजना रावत आदि से कुछ कम और कुछ ज्यादा जान पहचान रही ! न जाने कितने साहित्यिकारो को सुनने का अवसर मिला, जिनमें अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा और प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी भी शामिल हैं। इन दोनों के इंटरव्यू जो दैनिक ट्रिब्यून के लिए किये, मेरी ‘ यादों की धरोहर’ पुस्तक में शामिल हैं! भीष्म साहनी की बात नहीं भूली कि आजकल साहित्य कम पढ़ा जाता है और आज जो बुक सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है वह है बैंक की पासबुक !

कितनी ही साहित्यिक गोष्ठियों की कवरेज और कितने ही रचनाकारों को सुनने का अवसर मिला। मुझे डाॅ मेहंदीरत्ता ने कहा कि कमलेश, अब तुम पीएच डी कर लो, मैने बताया कि मेरा सपना डाॅ धर्मपाल ने तोड़ दिया था, दूसरे डाॅ इंद्रनाथ मदान ने बहुत प्यारी सलाह दी थी कि हिंदी में बहुत बड़ी गिनती में डाॅक्टर हो गये हैं और अब कुछ अच्छे कंपाउंडरों की जरूरत है और मैं चाहता हूँ कि तुम पर  पीएचडी हो और यह बात सच साबित हुई, मेरे लेखन पर तीन शोध प्रबंध आ चुके हैं!

खैर! अपने यशोगान के लिए माफी, यह मेरा इरादा बिल्कुल नहीं था ! आज की राम राम!

कल भी पंजाब विश्वविद्यालय ही जाना चाहूँगा ! अभी बहुत प्यारी सी यादें शेष हैं !

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #241 – 126 – “रूखसत वक्त अश्क़ दर पर ठिठके रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल रूखसत वक्त अश्क़ दर पर ठिठके रहे…” ।)

? ग़ज़ल # 126 – “रूखसत वक्त अश्क़ दर पर ठिठके रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

अहबाब ज़ेरे  ख़ाक सुला कर चले गये,

महबूब अश्क़ में  नहला कर चले गये।

*

रुख़सत फ़रमान कब तक अनदेखा करें,

ख़ाक तुम राख में मिला कर चले गये।

*

सालों हमारा रहा बसेरा जिस शजर पर,

बहुत दूर उससे कब्र सज़ा कर चले गये।

*

नहला कर रुख़सत करते हमदम मुझको,

ताबूत में  जन्नत  दिखा कर चले गये।

*

आख़िर बार बिस्तर पर लिटा कर मुझको,

मेरी चिता में  आग लगा  कर चले गये।

*

रूखसत वक्त अश्क़ दर पर ठिठके रहे,

सूराह फ़ातिहा पढ़ हाथ उठा कर गये।

*

इस तरह खेल बेवफ़ाई का ‘आतिश’ हुआ,

इधर नज़र बचा उधर लड़ा कर चले गये।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कोलाहल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  कोलाहल ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

कोलाहल

निपट पहली

संख्या हो

या असंख्येय

हो चुका हो,

कोलाहल

संख्यारेखा के

बाएँ हो या दायें हो,

हर बार

हर समय

कोलाहल की

परिणति

चुप्पी ही होती है,

चुप्पी शाश्वत है

शेष सब नश्वर!

© संजय भारद्वाज  

(2.9.18, प्रातः 6:59 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 392 ⇒ नंगे पाॅंव (Bare foot) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नंगे पाॅंव (Bare foot)।)

?अभी अभी # 392 ⇒ नंगे पाॅंव (Bare foot) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर कुछ विशेष अवसरों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश समय हम पांव में कुछ ना कुछ पहने ही रहते हैं। वस्त्र की तरह जूते चप्पल से भी हमारा चोली दामन का साथ है।

महल हो या कुटिया, अमीर हो या गरीब, पांव में कुछ ना कुछ तो पहने ही रहता है।

द्वापर में जब बचपन के सखा सुदामा द्वारकाधीश श्रीकृष्ण से मिलने उनके महल पहुंचे, तो द्वारपाल गवाह हैं, ठाकुरजी अपने परम मित्र से मिलने नंगे पांव ही दौड़ पड़े। महल कोई हमारे घरों की तरह 2BHK तो नहीं होता। आप जब भी अपने आराध्य को पुकारेंगे, वे इसी तरह नंगे पांव दौड़ते चले आएंगे, आखिर उन्हें भी तो अपने भक्त की लाज बचानी है।।

एक हम हैं, दरवाजे पर घंटी बजी, कोई आया है, हम पहले अपनी अवस्था देखते हैं, यूं ही मुंह उठाकर द्वार नहीं खोल देते, चश्मा, चप्पल, कुर्ता सब तलाशना पड़ता है। यह मामला लाज, शर्म का नहीं, तमीज, तहजीब और एटिकेट्स का है।

हमारे घर में हम नंगे पांव रहें, अथवा नंगे बदन, क्या फर्क पड़ता है। इनवर्टर रहित घर में जब गर्मियों के मौसम में अचानक बिजली गुल हो जाती है, तो शर्ट उतारकर उससे ही पंखा करना पड़ता है। लेकिन जब घर से बाहर कदम रखते हैं, तो कौन नंगे पांव और नंगे बदन जाता है।।

वैसे भी घरों में नंगे बदन की छूट भी केवल पुरुषों के लिए ही है, महिलाओं की अपनी मर्यादा होती है, फिर भी इसकी क्षतिपूर्ति वे, घर से बाहर, फैशन की आड़ में, नंगी बाहें और नंगी पीठ से कर लेती हैं, लेकिन नंगे पांव चलना तो उन्हें भी शोभा नहीं देता।

आपने गालियां तो सुनी होंगी लेकिन भारतीय व्यवहार कोश में नंगी नंगी गालियां भी हैं, सज्जन पुरुष उन्हें शालीन तरीके से भद्दी भद्दी अथवा गंदी गंदी गालियां कहते हैं।

कड़वा सच तो खैर होता ही है, क्या आप जानते हैं, नंगा सच भी होता है। Bare foot की तरह bare truth.

हमें यह बात कभी हजम नहीं हुई कि हमाम में सब नंगे होते हैं। हमें तो हमाम का मतलब ही पता नहीं था, क्योंकि घर में बाथरूम ही नहीं था। एक पत्थर पर बैठकर नहाते थे, और हमाम साबुन बार बार हाथ से फिसल जाता था। मुंह पर साबुन का झाग, टटोलते रहो हमाम, अपनी इज्जत बचाते हुए।

जिस देश में सन् २०१४ तक अधिकांश जनता खुले में शौच जाती थी, वह घर भी नहाकर ही आती थी, नदी नाले, तालाब, कुंए बावड़ी बहुत होंगे उस जमाने में। आपने सुना नहीं ;

मोहे पनघट पे,

नंदलाल छेड़ गयो

रे मोहे पनघट पे ….

हमाम में सब नंगे नहीं होते। यह हमारी भारतीय सनातन संस्कृति को विकृत तरीके से पेश करने का एक कुत्सित प्रयास है, हम इसकी कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं।।

पुराने रसोई घर और चौकों चूल्हों के पास जूते चप्पल नहीं ले जाए जाते थे, और मंदिर में तो कतई नहीं। आज भी गुरुद्वारों और वैष्णव मंदिरों में केवल जूते चप्पल ही नहीं, मोजे पहनकर जाना भी मना है। वैसे हाथ धोकर ही मंदिर और गुरुद्वारे में प्रवेश किया जाता है। नंगे पांव, लेकिन नंगे सिर नहीं। सिर पर कुछ भी, ओढ़नी, टोपी, रूमाल सब चलेगा। रब के आगे मत्था यूं ही नंगे सिर नहीं टेका जाता।

आपने सुना नहीं, राधे राधे बोलो, चले आएंगे बिहारी ! जैसे हैं, वैसे ही दौड़े दौड़े चले आते हैं ठाकुर जी, नंगे पांव। जब किसी आत्मीय का जब द्वार पर स्वागत करें, तो नंगे पांव करें और विदाई भी नंगे पांव ही। कहीं कहीं तो जीवन में सहजता हो, स्वाभाविकता हो, अनन्य प्रेम हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा (बृहत्कथा) – भाग २ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा(बृहत्कथा) – भाग २ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(व्याकरण सहित संस्कृत पढ़ाने के बारे में शर्ववर्मा और गुणाढ्य में शर्तें तो लग गई,) अब आगे…

अब यह शर्त जितना बड़े प्रतिष्ठा का विषय बन गया। शर्ववर्मा ने कुमार स्वामी जी से ‘कातंत्र व्याकरण’ सीखा था।यह वही दैनंदिन कामकाज में सहाय करने वाला व्यावहारिक व्याकरण था। उसकी मदद से शर्ववर्मा ने सचमुच ही राजा को छह महीने में इस तरह से संस्कृत और व्याकरण सिखाया की संस्कृत बोलते वक्त राजा को किसी के सामने शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं थी।

राजा बहुत खुश हुआ। बहुत धन दौलत देकर उसने शर्ववर्मा की पूजा की। उसे नर्मदा तट पर स्थित भृगु- कच्छ (भडोच) देश का राजा घोषित किया।  

केवल वह जल क्रीडा की घटना और उसकी अगली कड़ी– शर्त हारने की घटना, दोनों ने गुणाढ्य के उर्वरित जीवन को उलट पलट कर रख दिया। उसके जिंदगी की दशा और दिशा ही बदल गई। वहाॅंसे उसके जीवन का बुरा दौर शुरू हो गया।

शर्त के अनुसार उसने संस्कृत, पाली, प्राकृत भाषा त्याग दी।मौन धारण कर कर वह विंध्य पर्वत पर जाकर विंध्यवासिनी की पूजा अर्चना में मग्न हो गया। कुछ समय पश्चात वहाॅं के वनवासियों से उसने ‘पैशाची’भाषा सीख ली। यह पैशाची भाषा प्राकृत का ही उपभेद थी।

गुणाढ्य ने वहाॅं बृहत्कथा की रचना की ।सात साल के अथक प्रयासों से  सात लाख छंदों में उसने वह लिखी ।…..वह भी पैशाची भाषा में!….. इसलिए उसका नाम बड्डकहा!  

विंध्याचल के घने जंगल में स्याही या भूजपत्र उपलब्ध नहीं थे।परिणाम स्वरुप मनस्वी गुणाढ्य ने मृत प्राणियों के चमड़े पर खुद के खून की स्याही से यह विशाल कथा लिख डाली। लिखते लिखते वह छंदों का उच्चारण भी करता रहता था।उसे सुनने के लिए वहां सिद्ध विद्याधरों  की भीड़ इकट्ठी होने लगी। उसमें से गुणदेव और नंदी देव उसके शिष्य बन गए ।

सात साल बाद जब बड्डकहा पूरी हो गई तब उसका प्रसार प्रचार किस तरह से किया जाए ,यह सवाल गुणाढ्य के सामने उपस्थित हो गया। उसके शिष्यों के मत के अनुसार सिर्फ सातवाहन नरेश जैसा व्यक्ति ही यह काम कर सकता था। गुणाढ्य को भी यह सलाह अच्छी लगी। फिर उसके दोनों शिष्य राजधानी में

सातवाहन के दरबार में पहुॅंच गए ।उन्होंने  गुणाढ्य के कालजई कृति पर राजा को विस्तार से जानकारी दी।….

…लेकिन सात लाख छंदों(श्लोकों) की इतनी बड़ी पोथी?…. नहीं,बडा पोथा… वह भी जानवरों की खाल पर….. पैशाची जैसे नीरस भाषा में….. और तो और, ….इंसान की लहू से लिखा गया हुआ…. पूरे दरबार में जिसकी बदबू फैल गई थी!….. ऐसे कृति की ओर देखना भी राजा ने मुनासिब नहीं समझा।  शिष्यों के साथ बुरा व्यवहार करकर उनको अपमानित करकर राजा ने उनको वापस भेज दिया ।

राजा के इस व्यवहार से कवि गुणाढ्य बहुत दुखी हो गया। राजधानी के पास की एक पहाड़ी पर उसने अग्नि कुंड बनाया। ऊॅंची उठती आगकी लपटों में उसने  अपने महान कलाकृति का एक के बाद एक पन्ना गाकर फिर उसमें अर्पण करना शुरू कर दिया। उन श्लोकों के गायन में इतनी मधुरता थी, कि पासपडोस के जंगल में रहने वाले पशु पक्षी उसके पास इकट्ठे हो गए ।एक-एक करके पन्ना अग्निकुंड में जलकर भस्म हो रहा था। यह दृश्य देखने वाले शिष्यों के ऑंखों में पानी था… और पशु पक्षी खाना पीना भूल कर ऑंसू भरी ऑंखों से स्तब्ध होकर बड्डकहा का श्रवण कर रहे थे।

इधर सातवाहन के राजमहल में सामिष भोजन के लिए अच्छा मांस उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। क्योंकि सारे पशु पक्षियों की निराहार रहने की वजह से हड्डियां निकल आई थी। शरीर का सारा मांस नष्ट होने लगा था।  प्रयास करने पर इसका कारण ज्ञात हुआ  और उसके साथ ही गुणाढ्य के  काव्य- कथा हवन की बात भी सामने आ गई।सारी बीती बातें राजा को याद आ गई ।उसको बहुत पछतावा हुआ। अपनी गलती  सुधारने के  लिए वह तुरंत उस पहाड़ी पर गया। कितनी भी कोशिश करने पड़े, गुणाढ्य को और उसकी बड्डकहा को बचाने का राजा ने प्रण ही किया था। राजा ने साष्टांग प्रमाण  कर कर गुणाढ्य से क्षमा याचना की। बहुत मिन्नतें की। वहीं बैठकर आमरण अन्न जल त्याग कर मरने का अपना निश्चय बताया। आखिर में गुणाढ्य ने अपने रचनाओं को अग्नि मेंअर्पित करना बंद किया। …लेकिन तब तक कथा का सातवाॅं हिस्सा, सिर्फ एक लाख श्लोक ही बच पाए थे। राजा ने उसके प्रचार प्रसार का वचन दे दिया और गुणाढ्य को उसके अमूल्य साहित्य के साथ सम्मान सहित अपने राजधानी वापस ले आया।

क्रमशः… 

© सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 119 ☆ हाइकु – ।। पत्रकार से ही समाचार ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 119 ☆

☆ हाइकु – ।। पत्रकार से ही समाचार ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

पत्रकारिता

आज की जरूरत

स्पष्टवादिता।

 

[2]

पत्रकार है

कलम का सिपाही

चौकीदार है।

 

[3]

है पत्रकार

शब्दों का जादूगर

राष्ट्र आधार।

 

[4]

ये समाचार

पत्रकार की देन

हर प्रकार।

 

[5]

पत्रकारिता

कभी खुशी या गम

रोज लिखता।

 

[6]

पत्रकारिता

लिखे भविष्य का भी

दूरदर्शिता।

 

[7]

ये पत्रकार

लिखे अच्छा बुरा भी

जो सरकार।

 

[8]

ये पत्रकार

आज स्पष्टवादिता

है दरकार।

 

[9]

ये पत्रकार

गलत सही चुन

झूठ नकार।

 

[10]

पत्रकारिता

सकारात्मकता हो

तो सार्थकता।

 

[11]

पत्रकारिता

यह है चौथा स्तंभ

लोकतंत्र का।

 

[12]

ये पत्रकार

मीडिया का आधार

सुने पुकार।

 

[13]

ये पत्रकार

ये संवाद संचार

आज आधार।

 

[14]

ये पत्रकार

कलम तलवार

है ललकार।

 

[15]

ये पत्रकार

करे   खबरदार

जवाबदार।

 

[16]

पत्रकारिता

हो निष्पक्ष वादिता

यही आहर्ता।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 181 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – हार कैसे मान लूँ मैं ?… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “आदमी कितना भोला है, नादान है…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 181 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – हार कैसे मान लूँ मैं ?… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

साफ दिखती जीत को ही हार कैसे मान लूं मैं ?

आ रहे मुधुमास को पतझार कैसे मान लूं मैं ??

 

हर अँधेरे में उजाले की कहीं सोई किरण है

तपन के ही बाद होता चाँदनी का आगमन है

देखता कुछ, बोलता कुछ, साफ जो कुछ कह न पाता

उस जगत के कथन का एतबार कैसे मान लूं मैं ।। १ ।।

 

आज अपनी जीत को ही हार को भी

जीत का पर्याय ही मैं मानता हूं

अश्रु पूर्वाभास हैं मुस्कान के मैं जानता हूं ।।

शब्द के संदर्भगत निहितार्थ अक्सर भिन्न होते

भाव को शब्दार्थ के अनुसार कैसे मान लूं मैं ।। ३ ।।

 

आज अपनी जीत को ही जगत तो

परिपाटियों को बिना समझे मानता है

जानने औ’ मानने में पर बड़ी असमानता है ।।

सुस्मिता ऊषा के बिखरे कुन्तलों की श्यामता को

अमावस की रात का अंधियार कैसे मान लूं मैं ।।४ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अनमोल तुम है चाँद तारा  ☆ डॉ गुलाब चंद पटेल ☆

डॉ गुलाब चंद पटेल

☆ कविता ☆ अनमोल तुम है चाँद तारा  ☆ डॉ गुलाब चंद पटेल ☆

तुम ही हो चाँद तारा प्यारा है 

तुम ही हो अमर प्यार हमारा है 

*

पर्दा हटते ही चाँद निकल आता है 

उसकी हर अदा हमे दिवाना बनाती है 

*

लोग तुम्हें चाहे दूर से देखते है 

नजदीक से देखने का हक्क हमारा है 

*

बादल का पर्दा हटते ही चाँद दिखता है 

इन्हें देखकर दिल मेरा बहुत धड़कता है 

*

कातिल नजरो से निगाह डाला है 

चाँद तुम पर हक सिर्फ हमारा है 

*

तुम्हें मिलने को चाँदनी रात मन बनाया है 

दिल में हमने तेरे लिए एक स्वप्न सजाया है 

*

तुम्हें बिना देखे चेन नहीं मिलता है 

तुम्हारा स्मित हमे बहुत प्यारा लगता है 

*

तुम्हारी याद रात हमे बहुत सताती है 

खुशिया की लहर हमे सुबह जल्दी जगाती है 

*

चाँद तुम इंतजार बहुत कराता है 

जीवन में प्यार की लहर दौड़ जाती है 

*

चाँद तुम हमे जी जान से प्यारा है 

तेरे संग जिंदगी जीना मकसद हमारा है 

*

कवि गुलाब ने प्यार का पैगाम पहुंचाया है 

चाँद को ही सिर्फ अपने दिल में बसाया है 

© डॉ गुलाब चंद पटेल 

अध्यक्ष महात्मा गांधी साहित्य सेवा संस्था गुजरात Mo 8849794377 <[email protected]>  <[email protected]>

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “भेट… —” ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “भेट…—” ☆  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

घन भरले आभाळ

किती आतुर गंभीर

सानुल्याची वाट पाहे

जणू पोटुशी ती नार ….

 

भार घनांचा वाढता

जणू आता साहवेना

धरित्री एक सखी

देई धीर हळव्या मना …..

 

वृक्ष-लता फुले पाने

सजे सखीचे आंगण

भारावल्या आभाळाला

जणू डोहाळे-जेवण …..

 

आतुर वसुंधरा

आता आभाळ भेटीला

त्या आभाळा घेऊन

आला पाऊस हो आला …

         आला आला पाऊस आला …

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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