1. एक कविता संग्रह उपनिषद का राजस्थानी भाषा में अनुवाद 3. हिन्दी से राजस्थानी शब्दकोष 4. मोनोग्राफ
हिन्दी भाषा में प्रकाशित कृतियां
1. ’’कब आया बसंत’’-2016 (कविता संग्रह) 2. ’’नाक का सवाल’’-2019 (व्यंग्य संग्रह) 3. ’’नन्हे अहसास’’-2019 (काव्य संग्रह) 4. ’’तलाश ढाई आखर की’’-2023 (कहानी संग्रह) 5. ’’फाॅर द सेक आॅफ नोज’’ ’’नाक का सवाल’’ का अंग्रेजी में अनुवाद-2022, ’’अपना अपना भाग्य’’ (राजस्थानी आत्मकथा का हिन्दी में अनुवाद) – 2023. 7. ’’संस्कारों की सौरभ’’ (पत्र शैली में बाल निबंध । पं. जवाहरलाला नेहरु, बाल साहित्य अकादमी, राजस्थान द्वारा प्रकाशित)
हिन्दी में प्रकाशनाधीन कृतियां
1. ’’प्यार की तलाश में प्यार’’ (उपन्यास) 2. एक व्यंग्य संग्रह, ’’अहसासों की दुनिया’’ (काव्य संग्रह) 4. एक काव्य संग्रह
राजस्थानी और हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं / साझा संकलनों में कहानियां, कविताएं, लेख, व्यंग्य, लघुकथाएं, संस्मरण, पुस्तक समीक्षा आदि का लगातार प्रकाशन ।
आकाशवाणी जोधपुर, जयपुर दूरदर्शन से वार्ता, कहानी, कविता, व्यंग्य आदि का प्रसारण । राजस्थानी भाषा के ’’आखर’’ कार्यक्रम (जयपुर) में और जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर, राजस्थानी विभाग के ’गुमेज’ कार्यक्रम में भागीदारी ।
विशेषः-राजस्थानी भाषा की पहली महिला उपन्यासकार एवं दूसरी व्ंयग्यकार ।
यूट्यूब पर ’’मैं बसंत’’ नाम से चेनल ।
पुरस्कार और सम्मान – 50 से अधिक प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार एवं सम्मान से सम्मानित।
☆ कहाँ गए वे लोग # 4 ☆
☆ गुरुभक्त : कालीबाई☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆
राजस्थान के इतिहास में देश सेवा के विभिन्न कार्यों में सिर्फ पुरुष और महिलाओं ने ही अपने नाम दर्ज नहीं करवाए हैं बल्कि बालिकाएं भी किसी क्षेत्र में पीछे नहीं रही हैं, उन्हीं में से एक नाम कालीबाई का है ।
गांव रास्तापाल, जिला डूंगरपुर राजस्थान की पहचान ’अमर शहीद वीर बाला कालीबाई’ के नाम से की जाती है । आदिवासी समुदाय के भील सोमा के घर इसका जन्म जून 1935 ई. में माता नवली की कोख से हुआ जिसने मात्र 12 वर्ष की आयु में 19 जून 1947 को जागीरदारों व अंग्रेजों के शोषण के विरुद्ध बहादुरी की एक शानदार मिसाल कायम कर आदिवासी समाज में शिक्षा की अलख जगाई ।
बलिदान की इस घटना के समय डंूगरपुर रियासत के शासक महारावल लक्ष्मण सिंह थे और वे अंग्रेजों की हुकूमत की सहायता से अपना राज्य चलाते थे । उस समय के महान समाजसेवी श्री भोगी लाला पंड्या के तत्वावधान में एक जन आंदोलन चलाया गया जो समाज में फैली कुरीतियों को मिटाने तथा शिक्षा को बढ़ावा देने का कार्य करने लगा । डूंगरपुर रियासत के गांव-गांव में क्षेत्रियस्तर पर स्कूल खोले गए उनमें भील, मीणा, डामोर और किसान वर्ग के बालकों को शिक्षा दी जाती थी ।
जब महारावल को पता चला तो उन्होंने तथा उनके सलाहकारों ने सोचा कि यदि ये बालक शिक्षित हो गए तो बड़ी परेशानी हो जाएगी क्योंकि ये अपना अधिकार मांगने लगेंगे । इस सोच के चलते लक्ष्मण सिंह ने स्कूल बंद करवाने के लिए सन् 1942 में कानून बनवाया और मजिस्ट्रेट नियुक्त किये । वे जहां-जहां भील, मीणाओं के बालक पढ़ते थे, उन स्कूलों को बंद करवाने लगे इसके लिए पुलिस और सेना की मदद भी ली गई । इसी के तहत रास्तापाल की स्कूल बंद करवाने के लिए एक मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक तथा ट्रक भर कर पुलिस व सैनिकों को उस गांव में भेजा गया ।
रास्तापाल में नानाभाई खांट, गांव के बालकों को अपने घर बुलाकर शिक्षा देते थे। स्कूल में इनका सहयोग देने के लिए गांव के बेड़ा मारगिया के सेंगाभाई भी अपनी सेवा देते थे । स्कूल के सभी खर्च नानाभाई वहन करते थे । राजकीय आदेश के बावजूद भी यहां पढ़ाई जारी थी । 19 जून 1947 को जब पुलिस यहां पहुंची तब दोनों वहां मौजूद थे । पुलिस नै उन्हें मारना शुरु कर दिया । नानाभाई को स्कूल में ताला लगाने को कहा तो उन्होंने इंकार कर दिया । चाबी नहीं देने पर सैनिकों उनको ट्रक के पीछे रस्सी से बांध कर घसीटने लगे । रस्सी का एक सिरा सेंगाभाई की कमर से बंधा था और दूसरा ट्रक से । पुलिस के खिलाफ आवाज उठाने की किसी की भी हिम्मत नहीं हुई । सेंगाभाई अपने लोगों को आवाज लगाते रहे मगर सभी को डर के मारे सांप सूंघ गया ।
तभी अचानक सिर पर घास की गठरी और हाथ में दांतली लिए बिजली की तरह एक 12 वर्ष की बालिका ने अपने अदम्य साहस का परिचय दिया, उस भीड़ को चीरते हुए हुए उसने पूछा कि ये सब किसके आदेश पर हो रहा है ? जब बालिका को सभी बातों का पता चला तो उसने कहा कि सबसे पहले मुझे गोली मारो । और साथ ही वह गाड़ी के पीछे दोड़ पड़ी, उसका खून खौल उठा । पुलिस ने उसे बहुत डराया धमकाया मगर उसने उनकी एक सुनी, अपनी दांतली से उसने रस्सी को एक ही झटके में काट दिया, पुलिस वाले अपनी बंदूकें तानें खड़े थे मगर कालीबाई को गोलियों की कोई परवाह नहीं थी ।
यह तेज और हट देखकर पुलिस को बहुत क्रोध आया । सैनिकों ने उस नन्ही बालिका पर गोलियों की बौछार कर दी । कालीबाई ने अपना जीवन गुरुजी के लिए बलिदान कर दिया । हमेंशा के लिए अमर हो गई । अपने गुरु को बचाकर, उसने गुरु-शिष्य की इस दुनिया में एक अलग पहचान कायम की ।
गुरु-शिष्य के ऐसे अनूठे उदाहरण इतिहास में बहुत कम ही मिलेंगे । नन्ही कालीबाई को शत-शत नमन ।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बुढापे की लाठी…“।)
अभी अभी # 306 ⇒ बुढापे की लाठी… श्री प्रदीप शर्मा
walking stick
गिरधर कविराय ने लाठी में जितने गुण बताए हैं, उसमें उन्होंने न तो बुढ़ापे का जिक्र किया है और न ही किसी दृष्टिहीन व्यक्ति का।
यानी कविवर शायद लठैत किस्म के व्यक्ति रहे हों, अधिकतर प्रवास पर रहे हों और उन्हें कुत्तों से अधिक डर लगता हो। बैलगाड़ी के जमाने में कवियों की दृष्टि भी नदी नालों के आगे नहीं जा पाती थी। लाठी उनके लिए कभी एक हथियार था तो कभी मात्र एक सहारा।
भले ही युग बदल जाए, लेकिन इंसान कुत्ते के पीछे लठ लेकर दौड़ना नहीं छोड़ेगा।
आजकल लाठी का नहीं, छड़ी का युग है। बुढापे की लाठी का उपयोग अब उम्र के हर पड़ाव पर होने लग गया है। लाठी को अगर सहारा कहें तो मन को अधिक सुकून मिलता है। बूढ़े आजकल सीनियर सिटीजन कहलाते हैं और अंधे को तो आप दृष्टिहीन भी नहीं कह सकते, क्योंकि आजकल वे भी दिव्यांग परिवार के सदस्य हो गए हैं। अब इस दुनिया में कोई असहाय, वृद्ध, अपाहिज, मूक बधिर, अथवा सूरदास नहीं।।
कोई व्यक्ति नहीं चाहता, उसे कभी लाठी का सहारा लेना पड़े। पहले घर परिवार ही इतने बड़े होते थे कि बच्चे ही बुढ़ापे की लाठी हुआ करते थे। यह एक ब्रह्म सत्य है, जब बच्चे छोटे होते हैं, तो बड़े ही उनका सहारा होते हैं। बड़ों की उंगली पकड़कर ही तो पहले चलना सीखते हैं और बाद में अपने पांवों पर खड़े हो जाते हैं।
जिस तरह बचपन के बाद जवानी आती है, जवानी के बाद तो बुढ़ापा ही आना है। उंगली वही रहती है, लेकिन कंधे और कमर अब वैसी नहीं रहती। अगर किसी इंसान का सहारा नहीं, तो छड़ी मुबारक। हमें तो लाठी उठाए बरसों बीत गए।
राजनीति में कल जिसके पास सिर्फ लाठी थी, उसने आज भैंस भी पाल ली है।।
जिस तरह दिन और हालात बदलते हैं, उसी तरह बुढ़ापे और लाठी की परिभाषा भी बदल चुकी है। आखिर लाठी क्या है, आलंबन, विकल्प अथवा सहारा ही न ! और बुढ़ापा क्या है, बाल सफेद होना, दांत गिरना और आंखों से कम दिखाई देना। मुझे कम दिखाई देता है तो मैं लाठी नहीं ढूंढता, अपना चश्मा ढूंढता हूं। मेरा चश्मा ही मेरे लिए लाठी है।
बस इसी तरह सफ़ेद बाल की मुझे चिंता नहीं, रोज डाय करता हूं, बत्तीसी बाहर हुई नहीं कि, डेंचर मौजूद है। पेंशन क्या किसी लाठी से कम है। ये सब ही तो मेरे बुढ़ापे की असली लाठी हैं। जिसका पांव नहीं, वहां जयपुर फुट ही बुढ़ापे की लाठी का काम करता है। नाच मयूरी।।
लेकिन इतना सब होने के बावजूद मेरी असली बुढ़ापे की लाठी तो आज भी मेरी धर्मपत्नी ही है। वह कभी मेरा सहारा है तो कभी मैं उसका आलंबन।
कहीं कोई बेटा अपनी मां की लाठी है तो कहीं कोई पोता अपने दादा जी की लाठी।
जीवन के किस मोड़ पर हमें किस लाठी की आवश्यकता पड़ जाए, कुछ कहा नहीं जाता। सहारा लें, तो किसी को सहारा दें भी। लाठी में कर्ता भाव नहीं होता सिर्फ सेवा भाव होता है। लाठी ही सहारा है, सहारा ही ईश्वर है। एक सहारा तेरा।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख ‘स्वर्ग और नरक….’।)
☆ आलेख – स्वर्ग और नरक…. ☆
मेरे विचार….
जिन्दगी जिंदा दिली का नाम है,
मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं,,
सच है, जब तक जिंदगी है, इसे सुख से जियो, मुस्करा कर जियो, हंसते खेलते जिओ, स्वर्ग नर्क मात्र कल्पना है, ऐसा कुछ नहीं है, मृत्यु के बाद की दुनिया किसी ने नहीं देखी है, ना ऊपर कोई स्वर्ग है, ना कोई नर्क है, जिंदगी में अगर सुख है, दुख है, तो वह आपके कर्म की ही देन है, इसलिए जब तक जीवन जीते हो, इसका पूरा आनंद लो, जीवन को, आरामदायक बनाने के लिए, सुख सुविधा एकत्रित करो, और उसके लिए, मेहनत कर अपनी आमदनी बढ़ाओ, जो कुछ कमाओ, उसे अपने लिए और अपने परिवार के लिए खर्च कर दो, अगली पीढ़ियों के लिए बचा कर रखने का कोई औचित्य नहीं है, अगली पीढ़ी आपकी संपत्ति को खर्च करेगी, या नष्ट करेंगी, कोई भरोसा नहीं, ना आप देखने आओगे, इसलिए खुशी में तो खुश रहो, और दुख में भी खुश रहो, आपका अस्तित्व तब तक ही है जब तक आप जिंदा है,, मृत्यु के बाद तो सब मिट्टी है।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# सुबह की सुहानी डगर#”)
☆ वस्तू वस्तू जपून ठेव – १☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆
सकाळी सकाळी रेडिओ लावायची जुनी सवय बऱ्याच जुन्या आठवणी जाग्या करते. आज गाणे ऐकले शब्द शब्द जपून ठेव एकीकडे काम चालू होते. आणि इतके अर्थपूर्ण गाणे ऐकत असताना माझ्या मनातील कसे विचार येतात याचे हसू आले. आणि जपून ठेवलेल्या वस्तू आठवायला लागल्या. आणि कुठे कुठे जीव अडकतो याची गंमत वाटली.
परवा सहज कपाट आवरताना जरा पिवळसर पडलेली कॅरीबॅग सापडली. उघडून बघितले तर रेडिओचे लायसन सापडले. आता असे वाटेल हा काय प्रकार आहे? पण पूर्वी ( मी लहान असताना ) रेडिओ साठी परवाना आवश्यक होता. एका वर्षा साठी १/२ रुपये पोस्टात भरून त्या पुस्तकावर तिकीट लावून आणावे लागायचे. आणि घरात टेबल सारखे मोठे रेडिओ असायचे तो नीट ऐकण्यासाठी ३/४ फूट लांबीची व २/३ इंच रुंदीची तांब्याची जाळी असलेली पट्टी घरात लावावी लागायची. आणि छोटा रेडिओ ( ट्रांझिस्टर ) सायकलच्या हॅण्डलला लावून लोक ऐटीत फिरायचे. आणि ज्याच्याकडे लायसन नसेल तो लपवून ट्रांझिस्टर नेत असे.
हे सर्वच रेडिओ मात्र नवनवीन कपडे घालायचे.
त्यात गृहिणीची कलाकुसर व दृष्टी याची जणू परीक्षा व्हायची. काही जणी तर त्यावर स्वहस्ते भरतकाम करायच्या आणि कौतुक मिळवायच्या.
जी सायकल असणे भूषणावह असायचे त्या सायकलला पण लायसन ( परवाना ) लागायचा. त्या साठी वर्षाला १२ रुपये भरावे लागायचे.ते भरले की एक पितळी बिल्ला मिळायचा. तो सायकलच्या मागे किंवा सीटखाली लावला जायचा. आणि हो, तो बिल्ला चोरीला पण जात असे. पोलिस मामा सायकल स्वाराच्या सायकलचे हॅण्डल पकडुन बिल्ला दाखवायला लावायचे. त्या सायकलला मागच्या चाकाजवळ एक मेटल ची बाटली असायची आणि एक पातळ वायर सायकलच्या नळी वरून सरळ पुढे येऊन सायकलचा दिवा ( हेड लाईट ) प्रकाशमान करायची. काय तो थाट असायचा. त्या सायकलचे इतके लाड असायचे की जमेल तितके सजवले जायचे. रोज प्रेमाने अंघोळ घातली जायची. शोभिवंत सीट कव्हर असायचे. कधी कधी त्याला झुरमुळ्या लावल्या जायच्या. सायकलची मूठ पण सजवली जायची. अगदी एखादी मुलगी सजवावी असे वाटायचे. मधून मधून तिचा रंगही बदलला जायचा. आणि हॅण्डल वर एक सुंदर घंटा आगमन वार्ता देण्यासाठी असायची. तिची पण विविध रूपे बघितली आहेत व आवाज ऐकले आहेत. कोणाची सायकल व स्वारी आली आहे हे ती घंटा आपल्या किणकिणत्या, घणघणत्या किंवा ठणठणत्या स्वरात सांगायची.
मग हळूहळू अनेक कंपन्या आल्या आणि सायकलचे स्वरूप बदलत गेले.
सुरुवातीला ज्यांनी ब्लॅक अँड व्हाईट टि व्ही घेतले होते त्यांना पण लायसन असायचे. नंतर ते बंद झाले. मग टी व्ही सुद्धा नवीन नवीन रुपात आले.
या वस्तूंची प्रगती सांगायची म्हंटले तर प्रत्येकासाठी वेगळे लिहावे लागेल. तर आज या जुन्या वस्तू घरात सापडल्या आणि आपल्या माणसांना सांगावे वाटले.आता या वस्तू अशा आहेत की ठेवल्या तर अडचण आणि फेकल्या तर आठवण मी आपली मधून मधून बाहेर काढते. साफसूफ करते आणि नवीन कॅरीबॅग मध्ये ठेवते. कारण त्यात बालपणीच्या आठवणी आहेत. बाकीच्या आठवणी पुढच्या वेळी बघू..
बा-बापूजींच्या लग्नाचा पंचेचाळीसावा वाढदिवस दिमाखात साजरा झाला.रात्री झोपण्याच्या तयारीत असताना बापूजी म्हणाले “खुश”
“बहोत.”
“एकदम भारी वाटतय.काय पाहिजे ते माग,आज मूड एकदम हरिश्चंद्र स्टाईल आहे“
“सगळं काही मिळालं फक्त एकच..”बांच्या बोलण्याचा रोख समजून बापूजींचा चेहरा उतरला.
“कशाला तो विषय काढलास.आज नको.”
“उलट आजच्या इतका दुसरा चांगला दिवस नाही.”
“तो एक डाग सोडला तर सगळं काही व्यवस्थित आहे.”
“असं नका बोलू.तुम्ही असं वागता म्हणून मग बाकीचे सुद्धा त्याच्याशी नीट वागत नाहीत.”
“त्याची तीच लायकी आहे.थोरल्या दोघांनी बघ माझं ऐकून पिढीजात धंद्यात लक्ष घातलं,जम बसवला,योग्य वेळी लग्न केलं अन संसारात रमले.सगळं व्यवस्थित झालं आणि हा अजूनही चाचपडतोय.”
“उगीच बोलायला लावू नका.तुम्ही हॉस्पिटलमध्ये होता तेव्हा थोरल्यांना दुकानाची जास्त काळजी होती.लोक लाजेस्तव दिवसातून दोनदा भेटून जायचे.दिवसरात्र तुमच्यासोबत फक्त धाकटाच होता.बाकीचे पाहुण्यांसारखे. तेव्हाच थोरल्यांचा स्वार्थीपणा लक्षात आला.हॉस्पिटलचं बिल तिघांनी मिळून भरलं पण नंतर त्या दोघांनी तुमच्याकडून पैसे मागून घेतले.धाकट्यानं मात्र विषयसुद्धा काढला नाही.”
“बापासाठी थोडफार केलं तर बिघडलं कुठं?
“थोरल्यांना पैसे देताना हेच का सांगितलं नाही.”
“ते जाऊ दे.झालं ते झालं”
“का?,ते दोघे आवडते आणि धाकटा नावडता म्हणून ..”
“काहीही समज.”
“उद्या गरजेला तर फक्त धाकटाच आधार देईल हे कायम लक्षात असू द्या.”
“पोरांकडे पैशासाठी हात पसरावे लागणार नाहीत एवढी सोय केलेली आहे”
“प्रत्येक ठिकाणी पैसा कामाला येत नाही.माणसाची गरज पडतेच”
“आज धाकट्याचा फारच पुळका आलाय.”
“पुळका नाही काळजी वाटते.बिचारा एकटाय”
“स्वतःच्या कर्मामुळे.बापाचं ऐकलं नाही की अशीच गत होणार.”
“बिनलग्नाचा राहिला याला तो एकटा नाही तर तुम्ही पण जबाबदार आहात”
“हे नेहमीचचं बोलतेस”
“तेच खरंय”
“काय करू म्हणजे तुझं समाधान होईल”बापूजी चिडले.
“तुमच्यातला वाद संपवा.”
“त्यानं माफी मागितली तर मी तयार आहे..”
“पहिल्यापासून सगळ्या पोरांना तुम्ही धाकात ठेवलं. स्वतःच्या मनाप्रमाणं वागायला लावलं पण धाकटा लहानपणापासून वेगळा.बंडखोरपणा स्वभावातच होता.बापजाद्याच्या धंद्यात लक्ष न घालता नवीन मार्ग निवडला आणि यशस्वी झाला हेच तुम्हांला आवडलं नाही.ईगो दुखवला.याचाच फार मोठा राग मनात आहे.”
“तोंडाला येईल ते बोलू नकोस.मी त्याचा दुश्मन नाहीये.भल्यासाठी बोलत होतो.तिघंही मला सारखेच”.
“धाकट्याशी जसं वागता त्यावरून अजिबात वाटत नाही”
“तुला फक्त माझ्याच चुका दिसतात.पाच वर्षात माझ्याशी एक शब्दही बोललेला नाही.”
“बापासारखा त्याचा ईगोसुद्धा मोठाच…कितीही त्रास झाला तरी माघार नाही.”
“एकतरी गोष्ट त्यानं माझ्या मनासारखी केलीय का?”
“तुमचा मान राखण्यासाठी काय केलं हे जगाला माहितेय.”
“उपकार नाही केले.त्यानं निवडलेली मुलगी आपल्या तोलामोलाची नव्हती.ड्रायव्हरची मुलगी सून म्हणून..कसं दिसलं असतं.घराण्याची इज्जत …..”
“तरुण पोरगा बिनलग्नाचा राहिला तेव्हा गेलीच ना.थोडं नमतं घेतलं असतं तर ..”
“मला अजूनही वाटतं जे झालं ते चांगलं झालं.”
“त्या दोघांचं एकमेकांवर प्रेम होतं.मनात आणलं असतं तर पळून जाऊन लग्न करणं अवघड नव्हतं परंतु केवळ तुमची परवानगी नव्हती म्हणून लग्न केलं नाही.”
“त्यानंतर एकापेक्षा एक चांगल्या मुलींची स्थळ आणली पण..यानं सगळ्यांना नकार दिला.”
“तुम्हा बाप-लेकाचा एकेमकांवर जीव आहे पण पण सारख्या स्वभावामुळे ईगो आडवा येतोय.”
“काय जीव बिव नाही.मुद्दाम बिनलग्नाचं राहून माझ्यावर सूड उगवतोय.आपल्या लग्नाच्या वाढदिवसालाच तो जन्मला तिथूच पणवती लागली”बापूजींच्या बोलण्यावर बा प्रचंड संतापल्या.तोंडाला येईल ते बोलायला लागल्या. बापूजीसुद्धा गप्प नव्हते.दोघांत कडाक्याचं भांडणं झालं.ब्लड प्रेशर वाढल्यानं बा कोसळल्या. आय सी यू त भरती करावं लागलं.बापूजी एकदम गप्प झाले पण डोळ्यातलं पाणी थांबत नव्हतं.एक क्षण बांच्या समोरून हलले नाहीत.
—-
“बा,तुझं बरोबर होतं.शेवटी धाकट्यानंच आधार दिला.मी त्याला माफ केलं.माघार घेतो पण तू रुसू नकोस.लगेच धाकट्याला बोलवं.त्याच्याशी मी बोलतो.आता आमच्यात काही वाद नाही.सगळं तुझ्या मनासारखं होईल.धीर सोडू नकोस.धाकटा कुठायं.त्याला म्हणावं लवकर ये.बा वाट बघातीये.तिला त्रास होतोय.माफी मागतो पण ये.मी हरलो तू जिंकलास.”खिडकीतून पाहत हातवारे करत बोलणाऱ्या बापूजींना पाहून रूममध्ये आलेल्या नर्सनं विचारलं
“काय झालं.बाबा कोणाशी बोलताहेत ”.
“माझ्या आईशी”
“त्या कुठंयेत ”
“आठ दिवसांपूर्वीच ती गेली.तो धक्का सहन न झाल्यानं बापूजी बिथरले.आपल्यामुळेच हे घडलं या ठाम समजुतीनं प्रचंड अस्वस्थ आहेत.काळचं भान सुटलंय.सतत आईशी बोलत असतात. हातवारे,येरझारा आणि असंबद्ध बोलणं चालूयं.मध्येच चिडतात,एकदम रडायला लागतात म्हणून इथं आणलं.आता सकाळपासून सारखं धाकट्या मुलाला भेटण्यासाठी जीव कासावीस झालाय.त्याला बोलाव म्हणून हजारवेळा मला सांगून झालंय”
माझा एक मित्र आहे. अवि नावाचा.आयुर्वेदाचा डॉक्टर आहे तो.आता डॉक्टरच म्हटल्यावर काही ना काही कारणाने त्याच्याकडे जाणे होतेच.
त्याच्याकडे गेले की नेहमीचे दृश्य. पितळी खलबत्त्यात तो औषधे कुटत असतो.बाजुच्या टेबलवर कागदाचे चौकोनी तुकडे मांडून ठेवलेले असतात.साधारण पंचवीस तीस तुकडे.तीन बाय तीन इंचाचे.औषध कुटुन झाल्यावर तो त्या प्रत्येक कागदावर ती पुड टाकत जातो. अगदीच समप्रमाणात. बरोबर शेवटच्या कागदापर्यंत पुरतं ते औषध. समोरच एक लाकडी मांडणी. त्यात छोट्या छोट्या डब्या. औषधांच्याच. एखादी डबी घ्यायची. त्यातील एक एक गोळी प्रत्येक कागदावर ठेवायची. मधुनच पेशंट अजुन काही तरी एखादी तब्येतीची तक्रार सांगतो.
“ठिकेय..देतो औषध त्याच्यातच टाकून”
मग अजुन एखाद्या डबी उघडतो.बारीक चमचाच्या टोकाने कुठली तरी पुड त्या कागदांवर टाकतो.काळी पुड..तपकिरी पुड..लाल गोळी.. पांढरी गोळी.. प्रत्येक कागदावर आहे ना हे बघतो.सगळी औषध योजना मनासारखी झाली याची खात्री पटली की एक एक पुडी बांधायला घेतो.
अगदी कुशलतेने तीन चार घड्या घातल्या की इंचभर लांबीची अगदी घट्ट पुडी तयार होते. एवढ्या पुड्या बांधायला वेळ लागतोच.एकदा मी त्याच्या मदतीला धावलो.माझा व्यवसाय सोनाराचा.सोन्याच्या दागिन्यांच्या पुड्या बांधायची सवय असतेच.तसं अवीला..म्हणजे डॉक्टरांना सांगितलं.
तो म्हणाला..
“अरे बाबा..तुमच्या पुड्या म्हणजे लाखमोलाच्या पुड्या..”
छोटी असते ती पुडी.. मोठा असतो तो पुडा. पण ते बांधणे म्हणजे कौशल्याचेच काम.किराणा दुकानात आता सगळं वाणसामान पैक केलेलं असतं,पण पुर्वी गिर्हाईकाच्या ऑर्डर नुसार बांधुन द्यायचे.राजाभाऊ जोशींचं किराणा दुकान होतं आमच्या गल्लीत. काही आणायला गेलं की ते ,पेपर घेऊन त्याच्या बाजुची पट्टी टर्रकन फाडायचे.ती त्या पेपरवर ठेऊन काट्यामध्ये ठेवायचे.मग रवा,साखर काय असेल ते काट्यामध्ये टाकुन वजन झाले की तो कागद अगदी कुशलतेने उचलुन दोन्ही हात उंचावून त्याच्या घट्ट पुडा बांधायचे.त्यावर एकावर एक दोर्याचे फेरे लपेटायचे..दोर्याचा बंडल दिसायचा नाही.प्रश्न पडायचा की हा दोरा येतोय कुठुन.पण असा छान आणि घट्ट पुडा बांधायचे ना ते..कुठुन कागदाच्या फटीतून रवा साखर बाहेर येण्याची शक्यताच नाही.
कधी चिवडा आणायला जावे.त्याचाही पुडा असाच बांधायचे.फक्त दोऱ्याचे चार पाच वेढे झाले की लाल रंगाचा चतकोर कागदी तुकडा त्यावर ठेवायचे.’कोंडाजी यांचा उत्तम चिवडा’..फेटा घातलेल्या कोंडाजी पहिलवानाचा फोटो.. त्या कागदावरुन पुन्हा दोरा गुंडाळायचे.नाशिक चिवड्याचा हा पुडा अखिल भारतात तेव्हापासून प्रसिद्ध होता.
कितीतरी पुडे आठवतात.कधी संध्याकाळी येताना गजरा आणावा. वेडावून टाकणारा मोगऱ्याचा गंध.हिरव्या मोठ्या पानात ठेऊन त्याची हलक्या हाताने बांधलेली पुडी. आतल्या नाजुक कळ्या कोमेजून जाऊ नाही म्हणून. हळुवारपणे तो खिशात ठेऊन आणायचो.
गुरुवारी एकमुखी दत्ताच्या दर्शनाचा नेम.जाताना रामसेतुजवळच्या पांडे मिठाई कडून पळसाच्या पानात बांधलेले चार पेढे. दत्तापुढे उघडून ठेवलेली ती पुडी. छोटासा गाभारा..धुपाच्या सुगंधाने भरलेला.. आणि भारलेला.सगळी मुर्ती फुलांना झाकुन गेलेली. त्यातून दिसणारा दत्ताचा तो तेजस्वी चेहरा.पाठीमागून येणारा ‘दिगंबरा..दिगंबरा..’ चा गजर..
दोरा न वापरता पुडी बांधणे ही एक कलाच आहे. आमचा व्यवसाय सोनारकामाचा. पुर्वी धर्मकाट्यावर वजन करण्यासाठी जावे लागायचे. म्हटलं तर खुप अवघड काम. तिथे गर्दीत उभं रहायचं..आपला नंबर आला की हळुच पुडी उघडायची..त्यातले सोन्याचे मणी तिथल्या लहान वाटीत टाकायचे..वजन झालं की पुन्हा त्याची पुडी बांधायची.हे सगळं गर्दीत.. उभ्यानेच. एखादा मणी सुध्दा खाली पडता कामा नये.
पण एक गोष्ट नक्की. सोन्याच्या दागिन्यांची पुडी बांधावी तर आमच्या दादांनीच..म्हणजे वडिलांनी.
पेपरचा साधासाच चौकोनी कागद.. त्यावर त्याच आकाराचा गुलाबी कागद. या गुलाबी कागदाची रंगछटा खुपच आगळी. त्यावर सोन्याचा दागिना जेवढा खुलुन दिसतो ना..तेवढा कशावरच नाही. तर त्या गुलाबी कागदावर ठेवलेलं ते गंठण.सोन्याच्या तारेत गुंफलेलं..खाली ठसठशीत मंगळसूत्राच्या दोन वाट्या.अतिशय सुबकपणे एक उजवी घडी..एक डावी घडी घालत दादा त्याची पुडी बांधत. त्यातही एक नजाकत होती.आजकालच्या शेकडो रुपयांच्या ज्वेलरी बॉक्सला मागे सारणारी ती मंगळसूत्राची पुडी.. अवी म्हणतो तश्शीच…. अगदी ‘लाखमोलाची पुडी’