हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मुट्ठी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मुट्ठी ? ?

समय को

मुट्ठी में रखने का

सूत्र पता होने का

जिसे भ्रम रहा,

कालांतर में ज्ञात हुआ,

वह स्वयं सदा

समय की मुट्ठी में

बंधा रहा…!

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 5:59 बजे, 20 मार्च 24

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। 🕉️

💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 316 ⇒ झोली भर दे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “झोली भर दे।)

?अभी अभी # 316 ⇒ झोली भर दे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आप जब बाजार सौदा खरीदने जाते हैं, तो झोला लेकर जाते हैं, कीमत चुकाते हैं, झोला भरकर घर ले आते हैं, लेकिन जब मंदिर में ईश्वर से कुछ मांगने जाते हैं, तो अपनी श्रद्धानुसार पत्रं पुष्पम् समर्पित कर झोली फैला देते हैं। ईश्वर आपकी मुराद पूरी कर देता है, आपकी झोली भर देता है। कहा जाता है, आप उसके दर पर भले ही खाली हाथ जाओ, वह आपको कभी खाली हाथ वापस नहीं भेजता, आपकी झोली भरकर ही भेजता है।

यह पूरी तरह आस्था का मामला है। हर सवाली वहां भिखारी बनकर ही जाता है। दुनिया के सभी ताज, टोपी और पगड़ी वाले को हमने उसके आगे झुकते देखा है, और जो नहीं झुका, उसे बिगड़ते, बर्बाद होते भी देखा है। सीना छप्पन का हो, अथवा ताज हीरों का, उसकी चौखट पर कोई सर रगड़ता है तो कोई नाक।

उसकी किरपा हो तो मालामाल और उसका कोप हो तो सब ख़ाक।।

आखिर क्या होती है यह झोली और इसे कैसे फैलाया जाता है। मैं जब अपनी मां के साथ मंदिर जाया करता था, तो मां कुछ देर के लिए भगवान के सामने आंख बंद कर, अपना आंचल फैला देती थी। मैं घर आते वक्त पूछता था, मां आपने भगवान से क्या मांगा ? मां ने कभी जवाब नहीं दिया, लेकिन मुझे आज महसूस होता है, जिस मां के आंचल में मुझे जिंदगी की सारी खुशियां मिली हैं, मां ने झोली फैलाकर मेरे लिए वो खुशियां ही मांगी होंगी, क्योंकि मां ने अपने लिए भगवान से कभी कुछ नहीं मांगा।

किसी मां के पास साड़ी है तो किसी बहन के पास दुपट्टा। वह उसे जब ईश्वर के सामने फैलाती है, तो वह झोली बन जाती है। इधर झोली फैलाई, उधर मुराद पूरी हुई। मैं जब भी मंदिर गया हूं तो यंत्रवत् मेरी आंखें बंद हो जाती हैं और हाथ भी जुड़ जाते हैं लेकिन मेरे पास फैलाने के लिए कोई झोली नहीं होती। आंख खोलता हूं, पंडित जी प्रसाद देते हैं, मैं उसे श्रद्धा से ग्रहण कर, रूमाल फैलाकर उसमें बांध लेता हूं। मेरे लिए वही मेरी झोली है। भगवान का वह प्रसाद ही उनकी मुझ पर कृपा है। मुकेश का यह एक गीत गुनगुनाता मैं उसके दर से खुशी खुशी घर आ जाता हूं ;

बहुत दिया देने वाले ने तुझको।

आंचल ही न समाये तो क्या कीजे।।

झोली से बचपन याद आ गया। गांव में सहपाठियों के साथ खेलना, खेत में, अमराई में घुस जाना। पत्थर फेंककर अमियां तोड़ना, कमीज की नन्हीं सी जेब, छोटे छोटे हाथ। मजबूरन कमीज को ही झोली बनाते और जितनी कच्ची कच्ची केरियां झोली में समातीं, लेकर भाग खड़े होते।

इच्छाएं बढ़ती गईं, झोली बड़ी होती चली गई। झोली नहीं, चार्टर ऑफ डिमांड्स हो गई। देने वाले का क्या है, वह तो जिसे देना होता है, छप्पर फाड़कर भी दे ही देता है।

कभी दूसरे के लिए भी झोली फैलाकर देखें, कितना सुख मिलता है। वैसे इस सनातन प्रार्थना में झोली फैलाकर यही सब तो मांगा गया है उस सर्व शक्तिमान से ;

सर्वे भवन्तु सुखिनः

सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 268 ☆ आलेख – लंदन से 4 – मिस्टर सोशल के फेसबुक अपडेट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख लंदन से 4 – मिस्टर सोशल के फेसबुक अपडेट

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 267 ☆

? आलेख लंदन से 4 – मिस्टर सोशल के फेसबुक अपडेट ?

मिस्टर सोशल सोते, जागते, खाते, पीते, मीटिंग में हों, या किसी के घर गए हों, टीवी देख रहे हों या वाशरूम में हों, कोई उनसे बात कर रहा हो या वे किसी से रूबरू हों, वे सदा मोबाइलमय ही रहते हैं । मोबाइल ही उनकी लेखनी है, मोबाइल ही बजरिए फेसबुक उनकी प्रदर्शनी है ।

गुड मॉर्निंग दोस्तों ( बिस्तर पर पड़े पड़े) उनका पहला अपडेट आया ।

सुबह नींद देर से खुली, सूरज पहले ही ऊग आया था, पड़ोसी के मुर्गे की बांग तो सुनाई नहीं दी शायद वह भी आज देर तक सोता रह गया, या क्या पता कल रात उसके जीवन का अंत हो गया हो।

टूथ पेस्ट खत्म हो गया है, आफिस में व्यस्तता इतनी है कि लाना ही भूल जाता हूं। आज तो बेलन चलाकर सीधे टूथ ब्रश पर बचा खुचा पेस्ट निकाल कर काम चला लिया है। शाम को याद से लाना होगा। ( ब्रश करने के बाद चाय पीते हुए )

नाश्ते में उबले अंडे, केवल सफेद भाग और स्प्राउट। आफ्टर आल हेल्थ इज वेल्थ । ( नाश्ते की टेबल से)

तैयार होने के बाद उन्होंने स्वयं को मोबाइल के सेल्फी मोड में निहारा, और एक क्लिक कर लिया । सेल्फी चेंप दी … रेडी फार आफिस ।

तीन मित्रों और बास के मिस्ड काल थे, बातें कर लीं । व्हाट्स एप भी चैक किया,संपर्क में बने रहना चाहिए। नो क्मयूनिकेशन गैप इन लाइफ ।

(आफिस जाते समय कार से)

 टिंग की आवाज हुई एक मेल का नोटिफिकेशन था । उन्होंने बिना विलंब मेल खोला, अरे वाह प्रकाशक ने उनकी आगामी किताब के कवर पेज के तीन आप्शन भेजे थे । तुरंत उन्हें फेसबुक पर पोस्ट करते हुए लिखा । शुभ सूचना, नई किताब का कवर भेजा है प्रकाशक ने।आप ही बताएं किसे फाइनल करूं ?

इसके बाद जब तक कार चौराहे के लाल सिग्नल पर खड़ी रही उन्होंने फटाफट अपनी सुबह से की गई पोस्ट पर आए लाइक्स और कमेंट पर इमोजी के जरिए सबको रिस्पांस किया । सबसे ज्यादा कमेंट सेल्फी वाली पोस्ट पर थे । कुछ मातहत और संपर्क के लोग जिनके काम उनके पास अटके थे, ने गुड मॉर्निंग से लेकर अब तक के सारे पोस्ट लाइक किए थे । वे लोग जैसे उनके फेसबुक कास्ट का इंतजार ही करते रहते हैं कि कब वे कुछ पोस्ट करें और वे लाइक और कमेंट करें । शेयर करने जैसे पोस्ट उनके कम ही होते हैं, क्योंकि उन्हें जमाने से अधिक आत्म प्रवंचना पसंद है। वे सोशल प्लेटफार्म पर शिक्षा लेते नहीं देते हैं।

आफिस पहुंचने से पहले वे सर्फिंग करते हुए दस बीस अनजाने फेसबुक के दोस्तों को लाइक्स भी बांट देते हैं, जन्मदिन पर बधाई दे देते हैं । यह सोशल बोनी कहलाती है, क्योंकि सद्भावना प्रतिक्रिया में ये लोग भी उनकी पोस्ट लाइक्स करते ही हैं, जो पोस्ट की रीच को रिच कर उन्हें टेकसेवी बनाती है।

जब यह सब निपट गया, और फिर भी आफिस टाइम ट्रैफिक जाम के चलते उन्हें कार्यालय पहुंचने में विलंब लगा तो उन्होंने खिड़की से नजर बाहर घुमाई, और सीधे फेसबुक पर उनकी कविता जन्मी…

ट्रैफिक में रेंगती हुई कार

कार के अगले दाहिने कोने पर

ड्राइवर, स्टीयरिंग संभाले हुए

पिछले बाएं कोने पर

गद्देदार सीट पर मैं

विचारों की कश्मकश

लक्ष्य बड़े हैं

फेसबुक दोस्त महज पांच हजार हैं

और मुझे अपने विचार पहुंचाने हैं

सारी दुनियां में

हर हृदय तक

उन्हें लगा एक अच्छी कविता बन चुकी है। बिना देर किए उन्होंने रचना फेसबुक पर चिपका दी । साथ में एक तुरंत लिया हुआ ट्रैफिक का फोटो भी । कमेंट आने शुरू हो गए। जब त्रिवेंद्रम से सुश्री स्वामीनाथन का लाइक आया तो उन्हें आभास हो गया कि वास्तव में रचना बढ़िया बन गई है। उन्होंने रचना कापी की और एक भक्त संपादक को अखबार के रविवारीय परिशिष्ट के लिए, फोटो सहित मेल कर दी । साथ ही अपनी आगामी किताब के कलेवर के लिए भी डाक्स में सेव कर ली ।

आफिस आ गया था, वे मुस्कराते हुए कार से उतरे और सोशल मीडिया से रियल लाइफ में एंटर हो गए ।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #38 ☆ कविता – “इंसान…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 39 ☆

☆ कविता ☆ “इंसान…☆ श्री आशिष मुळे ☆

इंतज़ार मे दोनों बैठें है कब से

के मै कुछ बन जाऊ

कहता है मेरा ज़मीर मुझसे

इंसान हूँ इंसान ही रहने वाला हूँ

 

कहता है एक खामोशी से

के तू जानवर है

कहे दूसरा जोरों से

नहीं तू तो दिव्य है

 

वैसे तो मुझमें ये दोनों बसते है

लेकिन वो मै नहीं हूँ

बसता है विवेक भी मुझमें

कहता है हरपल के मै आदमी हूँ

 

मुझे जानवर बनना पड़ता है

दिव्य कुछ करने के लिए

कभी दिव्य भी बन जाता हूँ

बस रोजी रोटी के लिए

 

मगर ना मै जानवर हूँ

ना मै दिव्य हूँ

जानवरों की दिव्य दुनिया का

मै तो बस एक इंसान हूँ

 

मै तो बस एक इंसान हूँ

जानवरों को भी पालता हूँ

मै तो बस एक इंसान हूँ

राह दिव्यों को भी दिखाता हूँ

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #163 – आलेख – अजंता एलोरा से संख्यात्मक रूप से समृद्ध धामनार की गुफाएं ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – अजंता एलोरा से संख्यात्मक रूप से समृद्ध धामनार की गुफाएं)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 163 ☆

☆ आलेख – अजंता एलोरा से संख्यात्मक रूप से समृद्ध धामनार की गुफाएं ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

प्राचीनकाल में मालवा प्रांत शिक्षा, दीक्षा और धर्म का प्रचार का सबसे बड़ा व प्रभावी केंद्र रहा है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग वाला रास्ता प्राचीन काल में व्यापारियों का भारत में व्यापार करने का प्रमुख मार्ग रहा है। इसी मार्ग की चंदनगिरी पहाड़ी पर धम्मनगर बसा हुआ था। यह वही इतिहास प्रसिद्ध धम्मनगर है जहां एक ही शैल को तराश कर धर्मराजेश्वर मंदिर, ब्राह्मण, बौद्ध और जैनन गुफाएं बनी हुई है।

संख्यात्मक दृष्टि से देखें तो अजंता एलोरा और धम्मनार की गुफाओं में सर्वाधिक गुफाएं यहीं धम्मनगर में स्थित है। दिल्ली मुंबई मार्ग के रास्ते में शामगढ़ रेल मार्ग से 22 किलोमीटर दूर स्थित चंदवासा गांव है। इसी गांव से 3 किलोमीटर अंदर जंगल में धम्मनगर जिस का वर्तमान नाम धमनार है, स्थित है। यहां के जंगल में स्थित चंदनगिरी पहाड़ियों के 2 किलोमीटर हिस्से में गुफाएं फैली हुई है।

इतिहासकार जेम्स टाड़ सन 1821 में यहां आए थे। तभी उन्होंने अश्वनाल की आकृति की श्रृंखला में बनी 235 गुफाओं की गणना की थी। तभी से यह दबी, छुपी और पर्यटन आकाश से विलुप्त हुई गुफाएं अस्तित्व में आई है। चूंकि ये गुफाएं चंबल अभ्यारण व आरक्षित वन क्षेत्र में होने से यहां ठहरने, खाने-पीने और आवास की व्यवस्था नहीं होने से यह पर्यटन क्षेत्र में विकसित नहीं हो पाई।

इसी कारण से इस क्षेत्र की अधिकांश गुफाएं रखरखाव के अभाव में खंडहर में तब्दील हो गई है। इतिहासकार जेम्स फर्गुसन ने यहां आकर गुफाओं की गणना की थी। उन्हें यहां की 170 गुफाएं महत्वपूर्ण लगी। इसी के बाद पुरातत्व विभाग ने इनकी गणना की। जिनकी संख्या 150 से अधिक निकली। इनमें से 51 गुफाओं को पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित किया है।

जैसा कि पूर्व में बताया गया है यह क्षेत्र चंबल अभ्यारण में होने से यहां पर सुबह से शाम तक ही गुफाओं के दर्शन करने के लिए आया जा सकता है। यदि आप भूले-भटके संध्या के समय आ गए तो आपको 22 किलोमीटर दूर शामगढ़ जाकर विश्राम व खानपान आदि का लुफ्त उठाना पड़ेगा।

गुफाओं की संख्या व इतिहास की दृष्टि से देखें तो धम्मनगर की गुफा संख्या की दृष्टि से अजंता-एलोरा से सर्वाधिक ठहरती है। चूंकि अजंता की गुफाएं 200 से 600 ईसा पूर्व में निर्मित हुई थी। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित चित्रण और बारीकी शिल्पकार की गई है। वहीं एलोरा की गुफाएं पांचवी से सातवीं शताब्दी के बीच निर्मित हुई थी, जिनमें से 17 हिंदू धर्म की गुफाएं, 12 बौद्ध धर्म की गुफाएं तथा 5 जैन धर्म की गुफाएं पाई गई है। इस तरह एलोरा में 34 गुफाएं विश्व धरोहर घोषित की गई है।

चूंकि कालक्रम के अनुसार अजंता से चौदह शताब्दी बाद धम्मनार की गुफाएं निर्मित हुई है। यह आठवीं और नौवीं शताब्दी में निर्मित गुफाएं हैं। जबकि अजंता की गुफाएं 200 से 600 ईसा पूर्व में निर्मित हुई थी। उन्हीं की तर्ज, शैली, वास्तुकला और उसी तरह के एक शैल पर उत्कीर्ण करके बनाए गई हैं। इसलिए उनसे संख्या में ज्यादा होने के कारण उनसे उत्कृष्ट थी।

इसकी उत्कृष्टता को कई कारणों से समझा जा सकता है। एक तो यहां भी परंपरा के अनुसार ब्राह्मण धर्म गुफाएं हैं। इसके लिए धर्मराजेश्वर का मंदिर लेटराइट पत्थर को तराश कर बनाया गया है। फर्क इतना है कि अजंता-एलोरा का कैलाश मंदिर दक्षिण भारती द्रविड़ शैली में बना हुआ है जबकि धर्मराजेश्वर का मंदिर उत्तर भारतीय नागरिक शैली में उत्कीर्ण है। दोनों मंदिरों में मुख्य मंदिर के साथ-साथ 7 लघु मंदिर हैं। यहां पर द्वार मंडप, सभा मंडप, अर्ध मंडप, गर्भ ग्रह और कलात्मक उन्नत शिखर जो कलशयुक्त है, उत्कीर्ण हैं।

दूसरा इसे व्यापारक्रम से भी समझा जा सकता है। यहां समुद्र मार्ग से व्यापार करने वाले व्यापारी इसी मार्ग से गुजरते थे। उनके लिए यहां ठहरने, विहार करने और विश्राम की उत्तम व्यवस्था थी। इस दौरान वे धर्म की शिक्षा-दीक्षा के लिए भी समय निकाल लिया करते थे।

प्राचीन काल में धर्म के प्रचार-प्रसार, शिक्षा-दीक्षा, विहार-आहार और पूजा-पाठ, प्रार्थना-अर्चना आदि कार्य प्रमुख केंद्र था। यहीं से विभिन्न प्रांत, प्रदेश, देश, विदेश में धर्म के प्रचार-प्रसार, शिक्षा-दीक्षा के लिए अनुयाई जाते-आते थे। इस कारण भारत की ह्रदय में स्थित होने से यह स्थान संपूर्ण भारत के लिए महत्वपूर्ण केंद्र था।

गुफाओं की समृद्धि के आधार पर देखें तो यहां की गुफाओं में बौद्ध धर्म, जैन धर्म से संबंधित धर्म की शिक्षा का चित्रण, भित्ति पर शिल्पकारी और गौतम बुद्ध की प्रतिमाएं विभिन्न मुद्रा में ऊपरी उकेरी गई है। यहां बुद्ध की बैठी, खड़ी, लेटी, निर्वाण, महानिर्वाण शैली की कई प्रतिमा लगी हुई है। इन गुफाओं में स्तुप, चैत्य, विहार और महाविहार की उत्तम व्यवस्था थी।

इसके लिए यहां उपासना गृह, पूजा स्थल, अर्चना के कक्ष तथा ध्यान केंद्र के लिए उपयुक्त स्थान बने हुए हैं। यहां पर निर्माण मुद्रा में बैठी गौतम बुद्ध की बड़ी-बड़ी मूर्तियां उकेरी गई है। इस जैसी मूर्तियां अजंता-एलोरा में भी देखी जा सकती है।

यहां की गुफाओं में से सात नकाशीदार गुफाएं हैं। इन 51 क गुफाओं में स्तुप, चैत्य, मार्ग और आवास बने हुए हैं। शैल उत्कीर्ण खंभे, लंबा-चौड़ा दालान, आवास श्रृंखला, ध्यान केंद्र, उपासना केंद्र, पूजा-अर्चना स्थल की एक लंबी श्रृंखला है।

इसके बारे में कहा जाता है कि जब ओलिवर वंश का शासन था तब यहां शिक्षा का बहुत बड़ा केंद्र मालव में था। उस समय पूरे मालवा प्रांत में उल्लेखनीय शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी। यहां पर उत्कृष्ट वास्तु व भवनकला, पच्चीकारी व पत्थर पर मीनाकारी के उत्कृष्ट शिक्षा-दीक्षा, पूरी वैज्ञानिक रीतिनिति व योजना को मूर्त देकर दी जाती थी। इसी समय यहां के राष्ट्रकूट शासन ने हिरण्यगर्भ यज्ञ किया था। जिसने बौद्ध धर्म के अनुयाई जो पूर्व में हिंदू धर्म से धीरे-धीरे बौद्ध धर्म में पर दीक्षित हुए थे उन्हें ब्राह्मण धर्म में परिवर्तित किया गया था।

चूंकि एलोरा की 17 हिंदू गुफा, 12 बौद्ध गुफा, 7 जैन गुफा कालक्रम अनुसार हिंदुओं के बौद्ध धर्म से जैन धर्म के क्षेत्र में विकसित होने हुए आगे बढ़ने की कथा कहती है। वहां हिरण्यगर्भ यज्ञ की बात सही प्रतीत होती है।

वैसे धम्मनगर की गुफाएं विश्व की उत्कृष्ट बौद्धविहार की गुफाएं, धर्म की उपासना का केंद्र, शिक्षा-दीक्षा के महत्वपूर्ण स्थल के साथ प्राचीन व्यापारी मार्ग का महत्वपूर्ण स्थान थी। इसमें दो राय नहीं है। आप यहां इंदौर, भोपाल, उदयपुर से हवाई जहाज से होकर शामगढ़ पहुंच सकते हैं। मंदसौर से 75 किलोमीटर दूर शामगढ़ से 22 किलोमीटर तथा चंदवासा से 3 किलोमीटर जंगल में स्थित इस स्थान पर बस व निजी साधन द्वारा आप सकुशल आ सकते हैं।

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-01-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 197 ☆ बाल कविता – आओ मुर्गी आओ जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 197 ☆

बाल कविता – आओ मुर्गी आओ जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

आओ मुर्गी आओ जी।

अपने बच्चे लाओ जी।।

दाना लाए गेहूँ , मक्का

खूब मजे से खाओ जी।।

 *

नाम हमारे राम , राधिका

अपना नाम बताओ जी।।

 *

पेट भरे जब दाना खाकर

अपने गीत सुनाओ जी।।

 *

कहाँ गए हैं मुर्गे राजा

उनकी बाँग सुनाओ जी।।

 *

क्या उड़ सकतीं खुले गगन में

उड़कर हमें दिखाओ जी।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शुक्राची चांदणी… ☆ मेहबूब जमादार ☆

मेहबूब जमादार 

? कवितेचा उत्सव ?

शुक्राची चांदणी… ☆ 🖋 मेहबूब जमादार

मी पाहतोय तेथे अजुनीआहे शुक्राची चांदणी

आपले अढळ स्थान  ठेऊन आहे शुक्राची चांदणी

*

कित्येक शतकांच्या आठवणी काळ सांगून गेला

त्या काळांचा इतिहास  सांगते  शुक्राची चांदणी

*

सूर्य उगवतो मावळतो आणि अंधार पडतो

अंधार पडता  पुन्हा उजळते शुक्राची चांदणी

*

गतकालांचे दाखले विझले  पडद्याआड गेले

आपले आकाश भेदून आहे शुक्राची चांदणी

*

आले गेले बरेच अन काळाच्या स्मृतीत गेले

आपले नांव  राखून आहे शुक्राची चांदणी

© मेहबूब जमादार

मु. कासमवाडी,पोस्ट -पेठ, ता. वाळवा, जि. सांगली

मो .9970900243

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ वसंतोत्सव…सृजनाचा उत्सव… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

🌸 विविधा 🌸

☆ वसंतोत्सव…सृजनाचा उत्सव… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

वसंत ऋतू म्हणजे सौंदर्य

वसंत म्हणजे आनंद. वसंत म्हणजे सृजन, वसंत म्हणजेचैतन्य. फाल्गुनातच वसंतऋतूच्या पाऊल खुणा दिसू लागतात. वसंत ऋतू,साऱ्या ऋतूंचा राजा.तो येतो ते हातात जादूची छडी घेऊनच.

शहरी वातावरणात राहणारे आपण निसर्गा च्या या सौंदर्याच्या जादूला नक्कीच भुलतो. शिशिरातील पानगळीने, तलखीने सृष्टीचे निस्तेज उदालसेपण आता संपणार असते. कारण ही सृष्टी वासंतिक लावण्य लेऊन आता नववधू सारखी सजते. वसंत राजाच्या स्वागतात दंगहोते.कोकिळ आलापां वरआलाप घेतअसतो.

लालचुटुक पालवी साऱ्या वृक्षवेलींवर डुलत असते.उन्हात चमकताना जणू फुलांचे लाललाल मणी झळकत असल्याचा भाह होतो.चाफ्याच्या झाडांमधून शुभ्रधवल सौंदर्य उमलत असते.

आजून जरा वेळ असतो, पण कळ्यांचे गुच्छ तर हळुहळू दिसायला लागतात.फुलझाडांची तर गंधवेडी स्पर्धाच सुरु असते.केशरी देठांची प्राजक्त फुले, जाई, जुई चमेली, मोगरा, मदनबाण, नेवाळी, सोनचाफा अगदी अहमहमिकेने गंधाची उधळण करत असतात.

* वसंतोत्सव *

सृष्टी लावण्यवती झाली

वसंतोत्सवात अशी रंगली 

घालते जणू सुगंधाचे उखाणे. ‌

या सुगंधी सौंदर्याला रंगांच्या सुरेख छटांनी बहार येते.फार कशाला घाणेरीचीझुडपं.लाललाल आणि पिवळ्या,केशरी पांढऱ्या, जांभळ्याआणि गुलाबी अशा विरुद्ध रंगांच्याछटांच्या फुलांनी लक्षवेधी ठरतात.पळस पांगारा फुललेले असतात. बहावातर सोनपिवळी कळ्याफुले लेवून अंगो पांगी डोलतअसतो. वसंत ऋतूचेहक्का चे महिने चैत्र, वैशाख. पण खरा तो रंगगंधानी नहातो चैत्रात. कारणफुलांच्या,मोहोरा च्यागोड सुगंधा बरोबर फळातील मधुरसही असतो.म्हणूनच हाखऱ्या अर्थाने मधुमास.  वसंतऋतू चैतन्याचा. कुणासाठी काहीतरी करण्याचा. नर पक्षी मादीला आकर्षित करण्याच्या खटपटीत. सुगरण पक्षी आपली कलाघरटी बांधून प्रदर्शित करतात आणि मादीला आकर्षित करतात. काही नर पक्षी गातात, काही नाचतात.  इकडंझाडं, वेली फुलोऱ्यात रंगून ऋतूराजा चे स्वागत करण्यात मश्गु लअसतात.साऱ्या सृष्टी तच हालचाली, लगबग.

वसंत ऋतूचे हक्काचे महिने चैत्र, वैशाख. पण खरा तो रंगगंधानी न्हातो चैत्रात.  कारण फुलांच्या, मोहोराच्या गोड सुगंधा बरोबर फळातील मधुरस ही असतो.म्हणूनच हा मधुमास. निसर्गाचा मधुर आविष्कार.म्हणून तर चैत्र मास “मधुमास” होतो.

त्यातच कालपर्यंत शुकशुकाट असलेल्या झाडांवरलहान, मोठी, सुबक, बेढब, लांबोडकी, गोल घरटी दिसू लागतात.नव्या सृजनाची तयारी. साधारण पणे वसंतोत्सव हा वसंत पंचमी पासून साजरा केला जातो.

… वसंतोत्सव हा सृजनाचा उत्सव. वसंतो त्सव अमर वादाचेही प्रतीक आहे. वसंताची पूजा करणारा जीवनात कधीही निराश होत नाही. वसंतोत्सव म्हणजे निसर्गाचा उत्सव आहे. निसर्ग एरवीही सुंदर असतोच, पण वसंतात त्याचे रूप काही औरच असते. आपल्या जीवनातही तारूण्य हा वसंत ऋतूच असतो. त्याचप्रमाणे वसंत ही निसर्गाची युवावस्था आहे.

आपण निसर्गाच्या जवळ गेले पाहिजे. त्यातून ताणतणाव विसरून निर्भेळ सुखाची प्राप्ती होईल.निसर्ग निर्व्याज असतो.त्याला षड्रिपुंचा  वारा लागलेला नसतो. तो आपल्याला नवचैतन्य देतो.

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ का गं तुझे डोळे ओले? – भाग – 3 ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? जीवनरंग ❤️

का गं तुझे डोळे ओले– भाग – 3 ☆ श्री अरविंद लिमये

पूर्वसूत्र : “असं म्हणाला..?”त्या बोलल्या आणि एकदम हसतच सुटल्या. त्यांचं हसणं खरं की खोटं निमाला चटकन् समजेचना.

स्वतःला सावरण्यासाठी जवळ केलेल्या या खोट्या हसण्याच्या एवढ्याशा धक्क्यानेही कमलाबाईंच्या चेहऱ्यावरचा तो मुखवटा तडकून गेला…! ) इथून पुढे — 

“भांडण म्हणजे पैशावरून हो”अगदी सहजपणे जवळच्या माणसाला सांगावं तसं कमलाबाई मनाच्या पार तळातलं बोलू लागल्या….,

“घरात तान्ही नात आहे माझी.याचीच मुलगी.सून ओली बाळंतीण आहे. कधी दुधातुपाला चार पैसे लागले तर जवळ नकोत माझ्या? याला कां म्हणून घ्यायचे दारू ढोसायला?

इतके दिवस मी कमावतेय. खातेय, खाऊही घालतेय. पण हे पिणं म्हटलं की डोकं सणकतंच बघा माझं.ंँनंअहो, स्वैपाककामांची एक दोन घरं  धरून रहावं म्हटलं,तरी याने मला आजपर्यंत दहा घरं फिरवलंय. असे प्रत्येक ठिकाणी खरे-खोटे निरोप सांग, हातउसने पैसे घे, सुरूच याचं. माझ्या जीवावर याची चैन. लपवून तरी कुणापासून आणि किती दिवस ठेवायचं? एक काम सुटलं की मग दुसरं घर असंच सुरू आहे बघा.

पण आता मात्र हे गुडघे दुखतायत. लांबचं थोडसं अंधुक दिसायला लागलंय. मधेच कधीतरी चक्कर येते. असं कांही झालं,की मी मोठ्या आशेने मुलाकडे बघते. उगीचच वाटत रहातं, हा विचारेल, ‘ आई काय होतंय गं?’ हा एकुलता एकच मुलगा आहे वहिनी माझा आणि त्याच्याकडून माझी एवढीच अपेक्षा. पण हा?..हा सतत आपल्याच तंद्रीत!”

“कमलाबाई…पण हा..”

”हा माझा असून असा कसा, असंच ना?”

कमलाबाईंनी रोखठोक प्रश्न विचारला. शांतपणे नजर वर उचलून निमाकडे पाहिलं. पहात राहिल्या. त्या नजरेला अचानक विलक्षण धार आली.ती धारसुध्दा क्षणभर पाणावली. म्हणाल्या,

“सांगू..? तो थेट त्याच्या वडलांच्या वळणावर गेलाय.”

निमाला धस्स झालं.

कमलाबाईंनी या एकाच वाक्यात आपल्या फाटक्या संसाराची सगळी चित्त्तरकथा तिच्यासमोर एका क्षणात रेखाटलेली होती!

“ते काय करतात सध्या?”

“खोकत पडून असतात. उमेद होती तेव्हाही अंग मोडून फारसं काही करायचे नाहीतच. अतिशय आळशी, मुलखाचे हेकट, तुसडे आणि तिरसट. लग्न करून संसार थाटला पण संसाराची काळजी कशी ती नव्हतीच. घरी राबायला आणि संसाराची काळजी करायला मी होतेच की. त्यांची हक्काची ‘बाई’ आणि या पोराची हक्काची ‘आई’ म्हणून घरात आणि घराबाहेर मी राबतच राहिले. लग्नानंतर एकंदर रागरंग बघून बरोबर आठव्या दिवशी हे पोळपाट लाटणं हातात धरलं ते अजून सुटलेलं नाहीय. मुलगा लग्न करून संसाराला लागला तरीही सुटलेलं नाही..!

माहेरीही गरिबीच होती. फक्त एकच वेळ कसंबसं खायला मिळायचं. पण तो घास सुखाचा होता. रात्री पाठ टेकायला फाटकं कांबळंच असायचं, पण त्यावर सुद्धा शांत झोप लागायची. इथं सासरी येताना ती गरिबी पाठराखीणी सारखी आलीच पण तो सुखाचा घास मात्र तिथंच राहिला आणि ती शांत झोपसुद्धा!”

“पण हे इतकं सगळं सोसूनही तुम्ही…”

“मी तिथं कां रहातेय हेच ना? फक्त सूनेसाठी! एरवी जीव अडकून पडावा असं दुसरं कांही आता शिल्लकच नाहीये. पण सूनेच्या काळजीने जीव पोखरतो. आता तिच्यासाठी राबायचं. तग धरून रहायचं. लग्न झालं की पोरगा सुधारेल म्हणून मीच पुढाकार घेऊन त्याचं लग्न केलं. तिला या घरात आणली.’लग्न करून  आपला नवरा कुठं सुधारला होता?’ हा रोखठोक प्रश्न मायेपोटी तेव्हा माझ्या मनाला शिवलाच नव्हता. आज ती चूक उमगतीय.आता ती निस्तरायची. जन्मभर निस्तरत रहायची. सुनेला पाहिलं की मला लग्नानंतरची ‘मी’ आठवते. माझी परवड, माझे हाल आठवतात.

हा रात्री अपरात्री ढोसून घरी येणार, तिच्या अंगावर हात टाकणार,अर्वाच्य बरळत रहाणार, तेव्हा मधे पडून त्याला अडवायला मी तिथे नको? मग सगळं सोडून मी जाऊ कुठं न्  कशी? सून म्हणून राहू दे, पण आपल्याच पुढाकारामुळे या फुफाट्यात येऊन पडलेल्या एका बाईला ‘बाई’ म्हणून तरी मीच सांभाळून घ्यायचं नाही तर कुणी?

बाहेरच्या कामांनाही यायची तिची तयारी आहे. मला घरी बसा, आराम करा म्हणते.पण माझ्या पोराच्याच अंगात माज आहे. ‘माझी बायको दुसऱ्यांच्या घरी कामाला जाणार नाही’ असं  म्हणतो. आजवर आई फिरत होती इतकी घरं त्याचं त्याला सोयरसुतक नाही..”

काम आवरेपर्यंत कमलाबाई असंच काही ना काही बोलत राहिल्या. काम आवरलं तसा आपला चेहरा पदराने खसखसून पुसला.त्या चेहऱ्यावरचा तडकून गेलेला तो मुखवटा व्यवस्थित सांधून टाकला आणि छान समाधानी हसल्या.

“अहो, संसार म्हणजे हे असंच. बाईमाणसाचा जन्म आपला. कुठं काय तर कुठं काय सुरु रहाणारच. पण म्हणूनच आपण खंबीर रहायचं. घरात आता एकमेकीला सांभाळायला आम्ही एकीला दोघी आहोत. छान बेस चाललंय”.

त्या गेल्या. त्या गेल्या आणि निमाला उगीचच आपली शक्ती कुणीतरी काढून घेतल्यासारखं अशक्त वाटायला लागलं. तिचा नवरा आणि केदार रिकाम्या ताटांसमोर ताटकळत बसून होते.

” संपलं ‘कमलपुराण’? वाढाs आताs” नवरा खेकसला.

दुःख कोळून पिणाऱ्या आणि तरीही हसतमुख रहाणाऱ्या, वयाने याच्यापेक्षा कितीतरी मोठ्या अशा कमलाबाईंच्या जीवघेण्या व्यथेचा  आपल्या नवऱ्याकडून झालेला हेटाळणीयुक्त एकेरी उल्लेख निमाला खटकला.तिने नजर वर उचलून रागाने त्याच्याकडं पाहिलं. तिला त्याचा चेहरा पूर्वी कधीही न पाहिलेल्या, एका कोपऱ्यात खोकत पडून राहिलेल्या कमलाबाईंच्या नवऱ्याच्या चेहऱ्यासारखाच भासू लागला आणि तिच्या नजरेतून त्याच्याबद्दलचा तिरस्कार एकाएकी भरभरून वाहू लागला.

“आईs,वाढ की गं लवकर” 

तिने त्रासून केदारकडे पाहिलं. पानावर बसूनसुद्धा त्याचं डोकं हातातल्या कॉमिक्समधेच होतं. तिने पुढे होत जे पुस्तक खसकन् ओढून घेतलं आणि दूर भिरकावून दिलं.

“काय झालं..?” तिच्या नवऱ्याने त्रासिकपणे विचारलं. ती जळजळीत नजरेने त्याच्याकडेच पहात राहिली. वाढायला सुरुवात करावी म्हणून नवऱ्यानं स्वतःचं ताट पुढं सरकवलं. काहीही न बोलता तिनं स्वतःपुरतं वाढून घेतलं आणि अन्न पुढे केलं.

“मला उशीर होतोय.तुम्ही घ्या आपापलं.आणि त्यालाही वाढा” तिचा आवाज तिच्याही नकळत चढला होता. नवरा पहातच राहिला.

‘सुनेला सांभाळून घ्यायला त्या घरी कमलाबाई होत्या आणि त्यांना सांभाळायला त्यांची सून. या घरात कमलाबाई मीच आणि त्यांची सूनसुध्दा मीच.’….हा विचार मनात येताच निमाचे डोळे एकाएकी भरून आले..

“काय झालं..?” नवऱ्यानं अनपेक्षित हळुवारपणे विचारलं. पण..? काही न सांगता हा कधी आपलं दुःख समजूनच घेऊ शकत नाही हेच तर तिचं दुःख होतं!नवऱ्याचा ‘काय झालं?’हा प्रश्न तिला  कवितेतल्या त्या चिमणीला पिंजऱ्यातल्या पोपटाने विचारलेल्या ‘कां ग तुझे डोळे ओले?’  या प्रश्नासारखाच वाटत राहिला! ‘माझे डोळे ओले कां? हे न सांगता राहू दे, पण सांगून तरी याला समजणाराय का?’.. मोठ्या आशेने तिने मान वर करून नवऱ्याकडे पाहिले. तो..? तो खाली मान घालून शांतपणे भुरके मारत जेवत होता!आता कधीही रडायचं नाही या निर्धाराने निमाने आपले डोळे स्वच्छ पुसून कोरडे केले. पण ते तिच्याही नकळत आतआतून ओलावतच राहिले..!

— समाप्त — 

©️ अरविंद लिमये

सांगली

(९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ प्राक्तन…. ☆ सौ. जस्मिन रमजान शेख ☆

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☆ प्राक्तन…. ☆ सौ. जस्मिन रमजान शेख ☆

प्राक्तनाच्या हातमागावर अनुभवाचा धोटा उजवं अन् डावं करत एकसारखा धावत होता. कधी हा रंग कधी तो…., दोरा कधी वर कधी खाली, कधी मागून पुढे कधी पुढून मागं, अनेक रंगांचे, अनेक प्रकारचे धागे एकमेकांत गुंफून   आयुष्याचं एक वस्त्र तो विणत होता.ते सुंदर बनेल की कुरुप हे त्याचं त्यालाच माहीत नाही. फक्त विणत रहायचं, धावत रहायचं येवढंच त्याला माहीत ! बाकी सगळ रहस्यच! 

आवडता रंग हाती आला की गडी जाम खूश! मग हव तसं, हव तिथं तो रंगवून घ्यायचा, अनेक दोऱ्यात माळून सुंदर नक्षीकाम करून घ्यायचा. त्याला आवडेल तसं दोरा वर खाली हलवायचाआणि त्यातून निर्माण झालेल्या चित्राकडे,  आपल्याच निर्मिती कडे गौरवाने पहात रहायचा. वाटायचं हे क्षण असेच  रहावेत. हा आनंदाचा रंग कायम आपल्याच हातात रहावा. दुःखं,संकटं, विघ्न अशी छिद्रे आपल्या वस्त्राला नकोच. सौंदर्य नष्टच होईल  ना मग! इतरांनी आपलं वस्त्र बघितलं की नेहमी वाह वाहच केली पाहिजे असंच त्याला वाटायचं! 

पण शेवटी नियतीच ती! उचललेला चहाचा पेला ओठांपर्यंत पोहोचायच्या आधी कोणती अन् किती वादळ उठवेल सांगण कठीण! आयुष्य नावाचा खेळ असाच असतो ना! खेळ अगदी रंगात येतं अन् अचानक एका छोट्याशा चुकीनं सर्वस्व उद्धवस्त होतं. जणू काही त्या धोट्याच्या हातात नासका, कुजका, तुटका धागा येतो अन् सुंदर विणलेल्या कापडाला भली मोठी भोकं पडत जातात. कधी एकमेकांत गुंतलेले धागे निसटू लागतात, कधी घट्ट बसलेली वीण उसवू लागते, तर कधी धागेच एकमेकांना तोडू लागतात. 

किती विचित्र! वेळ बदलली की धाग्यांचे रंग सुद्धा बदलत जातात. जवळचे कोण, लांबचे कोण हे लक्षात यायला लागतं. काल पर्यंत अगदी मिठी मारुन बसलेले धागे झटक्यात लांब पळतात. जवळ कोण नसतच अशावेळी . सहाजिकच मोठं छिद्र निर्माण होणारच की तिथं!  वेळच तशी येते ना. आणि मग हा आयुष्याचा खेळ नकोसा होऊन जातो. कारण अगदी जवळच्या धाग्यांनी सुद्धा साथ सोडलेली असते. स्वतः होऊन असेल किंवा नियतीचा घाला असेल तो. पण छिद्र पडलेलं असतं हे मात्र नक्की! अशा वेळी काय करावं सुचत नाही. पुन्हा तोच तुटलेला दोरा बांधून घ्यावा म्हटलं तर धोट्याला माग कुठं जाता येतं. तो पुढेच पळणार. 

मागचं बदलता येत नाही अन् पुढचं रहस्य उलगडत नाही. एकच पर्याय हाती असतो. फक्त धावत राहणं, पळत राहणं,आलेला प्रत्येक क्षण अनुभवत राहणं..बस्स..! 

अशा वेळी कधी कधी कोणाचा आधाराचा धागा आपल्या वस्त्रातील छिद्राला सांधण्याचा प्रयत्न करत असतं. पहिल्या सारखं साफाईदारपणा नसतो त्याच्यात, ओबडधोबड का होईना, पण छिद्र झाकलं गेलं याचंच समाधान!

काहीतर खूप मोठं गमावल्याची सल कायम सलत राहते पण खूप काही चांगल अजून शिल्लक आहे याची आस सुद्धा लागून राहते. हीच तर खरी मेख आहे या प्राक्तन नावाच्या रहस्याची! हे रहस्य उलगडण्यासाठी, आयुष्याचं एक सुंदर वस्त्र विनण्यासाठी हा अनुभवाचा धोटा कायम धावत राहणंच योग्य आहे.  आपण फक्त त्रयस्तासारखं त्या आयुष्यरुपी वस्त्राकडे पहात रहायचं, संकटाच्या वेळीपण मन शांत ठेवून आलेल्या प्रत्येक क्षणाचा स्वीकार करायचा, कारण त्यामुळेच मार्ग सापडत जातं, हवं ते गवसतं आणि महत्त्वाचं म्हणजे भविष्य बदलत जातं.

म्हणूनच या प्राक्तनाच्या हातमागावर अनुभवाचा धोटा उजवं अन् डावं करत एकसारखा धावत असतो. कधी हा रंग कधी तो………नेहमी सारखंच………

© सौ. जस्मिन रमजान शेख

मिरज जि. सांगली

9881584475

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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