English Literature – Articles ☆ Young Entrepreneur in the Book Publishing Industry – Divya Trivedi, Founder, Kitab Writing Publications ☆

Ms. Divya Trivedi

☆ Young Entrepreneur in the Book Publishing Industry Kitab Writing Publications Founder Divya Trivedi ☆

I am amazed with the dedication of Ms. Divya Trivedi who published 1500+ books in less than 1 year while my recently published book अभिमन्यु कौन?. It was an awesome experience. I wish may God bless her to fulfill her wishes to spread goodness, spread happiness.) 

 – Hemant Bawankar

Divya Trivedi is the Founder and CEO of Kitab Writing Publication. Her hobbies are writing, singing, and cycling. She eventually started her writing journey on 9th November 2020. And she published her first book titled “The beauty of quotes” on 4th of April 2021. As a writer, Divya Trivedi was always curious about how publishing companies are printing and listing the books. Like the processes behind it, what makes a publication at best, the processes of start-up, what kind of impact it creates in the reader’s community, etc.

After learning and getting to know everything one by one, she decided to start her publication, not for anything else but just to Spread Goodness Spread Happiness around the world through books. And she also started working under publications from 10th of May 2021. Divya Trivedi’s dream was to Spread Goodness and Spread Happiness. That’s why she started a publication named SGSH Publication. SGSH publication was started on 30th October 2021 founded by Miss Divya Trivedi. She worked really hard to establish a well-known publication with a good mission like SGSH but later she realised publication is a business and in business sometimes we have to be strict, we have to be bold, we have to say Truth. But with SGSH name she was uncomfortable working in publication, so she decided to Change the SGSH Publication to Kitab Writing Publication on 4th of March 2023. Till now, she has published 300+ solo books, 200+ anthologies and 1000+ books printed by her publication which is not possible without her constant and dedicated efforts from her side. Divya Trivedi aims no matter what always stay real and honest with customers. She wants to achieve this only with sincerity, honesty, and hard Work. She knows there are thousands of Publications, many even at top positions, but for Kitab Writing Publication she aims not just to provide publishing services but also she tries to provide writers Motivation and to Spread Truth. She is following one of her quotes “Pain also gives you pleasure when you love what you are doing.”

She has recently been awarded multiple and prestigious titles mentioned below:

  1. Best publication of the year 2022 from Incredible Indian Awards
  2. National book of records
  3. Fastest growing publication in 2023 from World wide book of records
  4. Asia’s Top 100 Entrepreneur 2023
  5. Indian archiver forum and many more Google articles, magazine.

She publishes books and anthologies. Her publication is unique because of her Honesty, Hard Work and consistent efforts. In her opinion, earning money from the business is a little easy but when she has authors coming to her again and approaching her to publish their write-ups with full happiness and satisfaction is what makes her unique. Each of her team members are very happy to work. More than a work and for money, they too are inspired by the mission of the publication and work for that. So not just the founder herself but every last member of her team is working for the same motto and writers are happy. She just sees this publication as the Best Publication in this world and also, she sees herself as a Best Motivational Speaker for writers and Best Entrepreneur in the world. With her constant dedication she is going to reach the skies beyond the limit with flying colors. Her journey was a bit up and down, but setting up this publication is one of the best choices she has ever made.

Courtesy – Ms. Divya Trivedi,

Founder, Kitab Writing Publications  

 5C, 507 Navin Shankrman Shibir, Magathane, Borivali East, Mumbai, Maharashtra 400066.

Mob.  075069 94878

Email – [email protected] 

Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 264 ⇒ गुमशुदा की तलाश… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश।)

?अभी अभी # 264 ⇒ गुमशुदा की तलाश… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक समय था, जब समाचार पत्रों में यदा कदा ऐसी तस्वीरें छपा करती थीं, जिनके साथ यह संदेश होता था, प्रिय विनोद, तुम जहां भी हो, घर चले आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की ज़रूरत हो बता देना।

लाने वाले को आने जाने के किराए के अलावा उचित इनाम दिया जाएगा। इनमें कुछ ऐसे वयस्क महिला पुरुष भी होते थे जो मानसिक रूप से विक्षिप्त होते थे, और घर छोड़कर चले जाते थे।

तब किसी का अपहरण अथवा किडनैपिंग सिर्फ फिल्मों में ही होता था। मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चे या तो मेलों में गुम होते थे, अथवा उन्हें डाकू या गुंडे उठाकर ले जाते थे, और वे बड़े होकर डॉन या फिर डाकू बन जाते थे।।

तब ना घर में फोन अथवा मोबाइल होता था और ना ही कोई संपर्क सूत्र। घर भी भाई बहनों और रिश्तेदारों से भरे भरे रहते थे। खेलने कूदने की आउटडोर गतिविधि अधिक होती थी। स्कूल के दोस्तों के साथ साइकलों पर पाताल पानी और टिंछा फॉल जैसी प्राकृतिक जगह निकल जाते थे। सर्दी, गर्मी, बारिश, कभी साइकिल पंक्चर, देर सबेर हो ही जाती थी। परिवार जनों की चिंता स्वाभाविक थी। लेकिन वह उम्र ही बेफिक्री और रोमांच की थी।

गुमने और खोने में फर्क होता है। जो गुमा है उसके वापस आने की संभावना बनी रहती है। गुमना एक तरह से गायब होना है, कुछ समय के लिए बिछड़ना है। कई बार ऐसा होता है, हम खोए खोए से, गुमसुम बैठे रहते हैं। हमें ही नहीं पता, हम कहां गायब रहते हैं, अचानक कोई हमें सचेत करता है, और हम अपने आप में वापस आ जाते हैं।।

हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है, जो हमसे जुड़ा हुआ है, चल – अचल, जड़ – चेतन। रिश्ते बनते हैं, बिगड़ते हैं, कभी कोई काम बनता है, तो कभी कोई काम बिगड़ता भी है। खोने पाने के बीच जीवन निरंतर चलता रहता है। किसी चीज की प्राप्ति अगर उपलब्धि होती है तो किसी का खोना एक अपूरणीय क्षति। जेब से पर्स का गिरना, चोरी होना या खोना तक हमें कुछ समय के लिए विचलित कर सकता है।

कभी कभी तो जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब किसी के अचानक चले जाने से समय रुक जाता है, ज़िन्दगी ठहर जाती है, एक तरह से दुनिया ही लुट जाती है।

होते हैं कुछ ऐसे इंसान भी, जो खोने पाने के बीच, मन को एक ऐसी स्थिति में ले आते हैं, जहां जो खो गया, वह आसानी से भुला दिया जाता है, और जो मिल गया, उसे ही मुकद्दर समझ लिया जाता है। मिलने की खुशी ना खोने का ग़म, क्या एक ऐसा भी कोई मुकाम होता है।।

सदियों से इंसान की एक ही तलाश है। वह सब कुछ पाना तो चाहता है, लेकिन कुछ भी खोना नहीं चाहता। उस लगता है, पाने में खुशी है, और गंवाने में गम। उसकी चाह, चाहत बन जाती है, जब कि हकीकत में हर चाह का पूरा होना मुमकिन नहीं। चाह में चिंता है, बैचेनी है, दिन रात का परिश्रम है, आंखों में नींद नहीं सिर्फ सपने हैं।

और पाने के बाद उसके खोने और गुम हो जाने का भय। ताले चाबी, लॉकर, सुरक्षा, key word, पासवर्ड, OTP, सेफ्टी अलार्म, सीसीटीवी, और सिक्योरिटी गार्ड। लेकिन जो आपसे ज़िन्दगी तक छीन सकता है, उससे आप क्या क्या बचाओगे। साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय तो आज की तारीख में अतिशयोक्ति होगी लेकिन जो है वह पर्याप्त है का भाव ज़रूरी है। बस सुख चैन कोई ना छीने, हमारी स्वाभाविक खुशियां कहीं गुम ना हो जाए। दुनिया में आज भी नेकी कायम है। अमन चैन भी, थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 98 ☆ मुक्तक ☆ ।। हर धड़कन हिंदी, हिन्द, हिंदुस्तान चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 98 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। हर धड़कन हिंदी, हिन्द, हिंदुस्तान चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हर रंग से हमें  रंगीन   हिंदुस्तान चाहिये।

खिलते बाग बहार सा गुलिस्तान  चाहिये।।

चाहिये विश्व में  नाम  ऊँचा  भारत  का।

विश्व गुरु भारत का ऊँचा सम्मान चाहिये।।

[2]

मंगल चांद को  छूता भारत महान चाहिये।

अजेयअखंड विजेता सा हिंदुस्तान  चाहिये।।

दुश्मन नज़र उठा कर देख भी ना   सके।

हर शत्रु का  हमको काम तमाम  चाहिये।।

[3]

हमें गले  मिलते राम और रहमान चाहिये।

एक   दूजे के लिए प्रणाम सलाम चाहिये।।

चाहिये हमें मिल कर रहते हुए सब लोग।

एक दूजे के लिए दिलों में एतराम चाहिये।।

[4]

एक सौ पैंतीस  करोड़  सुखी अवाम चाहिये।

कश्मीर कन्याकुमारी प्रेम का पैगाम चाहिये।।

चाहिये  विविधता  में एकता शक्ति दर्शन।

अपने देश का सम्पूर्ण संसार में यशोगान चाहिये।।

[5]

पुरातन  संस्कार मूल्यों का गुणगान चाहिये।

हर  भारतवासी चेहरे पर गर्व मुस्कान चाहिये।।

चाहिये गौरव अभिमान अपने देश भारत पर।

हर धड़कन हिन्दी, हिन्द का ही पैगाम चाहिये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 161 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बलिदानी वीरों की याद…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “बलिदानी वीरों की याद। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बलिदानी वीरों की याद” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

वतन पर मिटने वालों की लगन जब याद आती है

तो मन हो जाता भारी, साँस दुख में डूब जाती है।

 *

मिटाकर अपनी हस्ती देश को जिनने दिया जीवन

उन्हें सब याद करते, माँ सिसक आँसू बहाती है।

 *

हमेशा आँधी-तूफानों से जो लड़ते रहे भरसक

उन्हें श्रद्धा सुमन की भेंट हर बस्ती चढ़ाती है।

 *

लड़े बेखौफ आगे बढ़ सहे सौ वार दुश्मन के

समर की यही गाथाएँ अमर उनको बनाती हैं।

 *

सुरक्षित स्वर्ण पृष्ठों पर उन्हें इतिहास रखता है

जिन्हें निस्वार्थ जीवन औ’ मरण की रीति आती है।

 *

जिन्होंने जान दी अपनी विजय की भोर लाने को

सदा जनता उन्हीं की वीरता के गीत गाती है।

 *

दिवस, मेले औ’ प्रतिमाएँ सजायी जाती उनकी ही

जिन्हें आदर से मन मंदिर में जनता नित बिठाती है।

 *

उन्हीं के त्याग ने हमको बनाया आज जो हम हैं

विदग्ध’ उनकी विमल स्मृति हमें जीना सिखाती है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्वप्न अधुरे राहिले… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

 

☆ स्वप्न अधुरे राहिले… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

हात तुझा हाती होता,

राहून गेले चालणे !

साथ तुझी हवी होती,

जमले नाही थांबणे !… १

*

स्वप्नात थवा उंच गेला,

उडून नील आभाळी !

पहात बसले येथे,

भग्न स्वप्नं भूतकाळी !… २

*

अधुऱ्या  स्वप्नांची माला,

गात होती माझ्या मनी!

गीत ते संपले कधी,

कळले नाही जीवनी !… ३

*

आक्रंदणाऱ्या रे मना,

दु:ख जगी दाऊ नको !

हसतील तुज सारे,

अगतिक  होऊ नको!.. ४

*

जे मिळाले आजवर,

जपेन ते अंतरात !

आयुष्य सारे  त्यावर,

पेलेल  खंत मनात !…. ५

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “वर्षाऋतू…” ☆ श्री वैभव चौगुले ☆

श्री वैभव चौगुले

? विविधा ?

☆ “वर्षाॠतू…” ☆ श्री वैभव चौगुले ☆

खूप प्रेम करतोय मी निसटणा-या वर्षाऋतूवर! रेत मुठीतून निसटून जाते. तसे हे वर्ष अखेर निसटून जाताना मला दिसत आहे. पण या वर्षअखेर मी शून्य होणार आहे. हे माझ्या मनाला सांगून ठेवले आहे. कारण दान देत रहावे. पुण्य कमवत रहावे. कर्म चोख आणि वचन निभवावे. असाच फंडा माझ्या जीवनाचा मी करून ठेवला आहे. सुखाला दु:ख आणि दु:खाला सुख टिकून देत नाही. हे मी खूपदा अनुभवले आहे. म्हणुन सुखदु:खाची नाळ माझ्या संयममय संघर्षाशी बांधून ठेवली आहे.

वेळ आहे. निघून जाणार! हे शेवटी अटळ सत्य! भावनांच्या हिंदोळ्यावर! किती स्वप्नझुले झुलताना मन हसते. चोरपावलांनी आलेल्या आधार शब्दलहरीवर हरेक झुला गगनाला भिडतो! वारा झोका देत असताना सांजवेळी बासरीची धून मारव्यासोबत समीप होऊन माझ्या मनाला साद घालते. वसुंधरेने नेसलेला हिरवा शालू, आभाळाच्या ललाटी दिसणारा सोनेरी टिळा! पाहत पाहत, नववधुचा शृंगार दवबिंदुंचा साज पांघरून इंन्द्रधनुच्या रंगात रंगून जाताना!  माझे मन हरकून जाते. मनाच्या पैलतिरावर उन्मळून आलेल्या माझ्या भावना! मला आता कित्येक प्रश्न विचारू लागतात.

माझ्या खांद्यावरचे ओझे कुणीतरी उचलले! आणि मी मुक्तमोकळा श्वास घेत आहे. हे कल्पनेत नाहीतर! सत्यात उतरत पूर्ण झालेले स्वप्न! खरचं माझे हसून स्वागत करते. मी दिलखुलासपणे पाहत असतो. मी दिले काय? आणि मिळाले काय? याचा हिशोब मला सरते वर्ष देईलच! यात शंका नाही.

मी पूजा करतो. ती वर्षाऋतुची मूर्ती मंदिरातून गहाळ झाली. हे नियतीने दाखवून दिले. तेव्हा मी चोराला दोष दिला नाही. तर मीच ती मूर्ती कोरीव, सुभक आणि सुंदर घडवली. याचा मला खूप अभिमान वाटतो. यात चोराचे काही चुकले असेल! असे मला वाटत नाही. मग ती मूर्ती मनमंदिरी असो, वृंदावनी असो की एखाद्या नदी किनारी कदंबाजवळ असो! त्या मूर्तीसाठी शृंगाराची लेणी मी कोरून ठेवलेली आहेत. नवरसातले अमृत! मी माझ्या काळजात लपवून ठेवले आहे. फक्त मला या वर्षाऋतुसाठी गंधाळायचं आहे. इतकेच समजते! मनातून असा पाझर बाहेर येईपर्यत, अश्रू वाट अडवतात. अश्रूही अमृतमय होऊन जातात. मी एकदा अश्रू चाखून पाहिले आहेत. चव खारटचं! कोणता सागर त्या नयनरम्य परिसरामध्ये उसळत आहे! की वास्तवास आहे. मला अजून कळाले नाही. की त्या सागराचा किनारा कोणता? की किनाराच नाही. कसं सगळं समभ्रमीत ?

मी समर्पीत केलेले हरेक क्षण! माझा हेवा करतात. या वर्षाऋतूवर प्रेम करत असताना! मी खूप गोष्टींचा त्याग केला. या त्यागलेल्या गोष्टीशी तसा माझा कोणता घनिष्ठ सबंध नाही. नव्हता! म्हणून माझ्यापासून दुरावलेल्या गोष्टींची मला कधी साधी आठवणही येत नाही. आणि कधी येणारही नाही. एक ऋतू मनाला भावल्यानंतर नवे ऋतू, दहा दिशा अन् सहा सोहळ्यांच्या भ्रमीष्ठ भानगडीत कधी मी पडलो नाही. पडणारही नाही.

पतझड सावन बसंत बहार

एक बरस के मौसम चार मौसम चार

पांचवा मौसम प्यार का इंतजार का…

असे गुनगुनणारे माझे मन! नेहमी वर्षाऋतुच्या वाटेवर नजर रोखून असते. वचनबध्द, साचेबंध असलेले! माझे मन जरी थोडेफार हेकेखोर, गर्विष्ठ असले तरी ते दगाफटका करणारे नाही. याची खात्री मला आहे. शब्दांनी आधार मिळतो. पण कर्तव्याचं आणि जबाबदारीचे ओझे मात्र कमी होत नाही. त्याला समोर येऊन! हातभारच लावावा लागतो. मनानी करावे गुन्हे! अन् शरीराने भोगावी शिक्षा! हा न्यायनिवाडा मला मान्य नाही. ओंजळीतल्या सरींना! मी खाली पडून देणार नाही. की माझ्या जीवनरेखा कुणाला पुसून देणार नाही. ज्या भावनांनी मी चित्र रेखाटले. ज्या वैभवमय रंगांनी मी चित्र रंगवले. ते चित्र मी कोणत्या प्रदर्शनात मांडणार नाही. त्या वैभवमय झालेल्या चित्राला जगण्यासाठी लागणारा श्वास माझ्या श्वासातूनच देत राहीन! रोज नव्याने रंग भरत राहीन! या चित्राची जागा मनाच्या खोल कँनव्हासवरच  असेल आणि राहील.

जुन्या विचारांची पाने झडून गेल्यानंतर! चैतन्यमय विचारांच्या नवपालवीचे स्वागत करायला! मी सज्ज होणार आहे. ऋतुच्या मनराईतून प्रेमफुलांच्या कळ्या उमलू लागतात. तेव्हा मनभावनांच्या सुगंधी उत्कंटतेला आवर मला घालता येत नाही. हे तितकेच खरे आहे. चोरीला गेलेली मूर्ती पवित्र राहील! कारण तिच्या चरणी मी रोज सत्यफुले वाहिली होती. म्हणतात मूर्ती निर्जीव असते. पण मी माझ्या वर्षाऋतूमध्ये जीव ओतला आहे. त्यामुळे माझ्या भावनांची जाण नक्कीच वर्षाऋतुला असणार कदाचित! गतवर्षाऋतुची कात टाकताना! माझा ऋतू मी वसंतास बहल करेन!  मग तो ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत की शिशिर असो! ऋतू सूर्यावर आणि महिने चंद्रावर ठरतात!  निसर्गाची किमया कुणाला माहीत नाही. वर्षाऋतुचा खेळही असाच! हा खेळ सावल्यांचा! यामधल्या सावल्यांना मुखवटे नसले तरी भावना मात्र मी ओळखत असतो. सावल्यांच्या लपंडावामध्ये नेहमी वर्षाऋतूवर का डाव येतो! हे कळत नाही. की ती टाईमप्लीज म्हणून डाव अंगावर ओढून घेते. हे ही समजत नाही.

पण माझे ऋतू आणि महिने माझ्या स्वाभिमानावर आणि माझ्या वेळेवर, परतीच्या क्षणांवरच  ठरत असतात.. किंभवना मी ठरवत असतो. आणि वर्षाऋतुचा शृंगार करण्यास शिंपल्यातले मोती वेचून भावस्पर्शाच्या ओंजळीत साठवत असतो. वर्षाऋतुच्या प्रतीक्षेत….!!!!!!!

© श्री वैभव चौगुले

सांगली

मो 9923102664

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दमलेल्या बाबाची गोष्ट… – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ दमलेल्या बाबाची गोष्ट… – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

नवरा ऑफिसमध्ये गेला आणि माझी आवराआवर सुरू झाली. आज अंथरुणं पांघरूणं धुवायला काढायची असं मी म्हणत होते, एवढ्यात मोबाईल वाजला म्हणून मी फोन घेतला, कन्येचं नाव दिसलं म्हणून मी खुश झाले. गेल्या महिन्याभरात किमान दहा स्थळांचे फोटो मी पाठवले होते. तिचे एवढे फोन आले पण कुठल्या स्थळाबद्दल तिने होकार कळवला नव्हता. पण माझा अंदाज होता एक दोन दिवसात ती निश्चित कळवेलच, कदाचित त्यासाठीच तिचा अचानक फोन असेल ह्या उत्सुकतेने मी फोन उचलला.

“मग काय, आज सकाळी सकाळीच फोन, म्हणजे भारतात सकाळ गं, नाहीतर तुझा रात्रीचा फोन ठरलेला. हाच फक्त सकाळी आला. आईशीच काही बोलायचे का? कुठला फोटो आणि कुठलं स्थळ तुला पसंत सांग लवकर?” 

“अगं आई, त्या करताच मी फोन केला. तू मला एवढ्या स्थळांचे फोटो पाठवू नकोस, माझ्या लग्नाची तयारी पण करू नकोस, आम्ही लग्न ठरवलंय. ‘

लग्न ठरवलं हे ऐकून माझा श्वासच अडकला. “अगं आम्ही म्हणजे कोणी?”

“मी आणि जॉन ने. “

मी घाबरून किंचाळले, “अगं कोण हा जॉन?”

“अग आई, मागे मी तुला फोटो पाठवलेला ना जॉनचा. “

“अगं असे तुझ्या मित्र-मैत्रिणींचे फोटो तू नेहमीच पाठवतेस, माझ्या कसं लक्षात राहील जॉन कोण आणि  कोणता ते. “

“अगं जॉन, जॉन विली त्याचं नाव, पॉप गायक आहे तो. “

” केवढा धक्का दिलास तू अमिता, मी तुझ्याकडून अशी अपेक्षा केली नव्हती, तुझ्या बाबाला आता केवढा धक्का बसेल माहिती आहे? आणि काकांना मावशी ना काय सांगू गं मी?” 

मी रडू लागले. फोन बंद करून खुर्चीत बसले. केवढ्या अपेक्षा या मुलीकडून ठेवल्या होत्या आम्ही? तिच्या लग्नाच्या तयारीसाठी काय काय जमवत होते मी. तिचा बाबा तर तिच्या बाबतीत खूपच सेन्सेटीव्ह, एकुलती एक मुलगी, त्यात पहिल्यापासून हुशार. तिच्या बाबाला गर्व होता की आपल्यासारखी हुशार म्हणून.

नोकरीच्या निमित्ताने अमेरिकेत गेली पण आज ना उद्या भारतात परत येईल ही आशा आम्हाला होतीच. तिची आता तिशी जवळ आली तशी आम्हाला आता जास्त काळजी वाटायला लागली. कुठून कुठून तिच्यासाठी स्थळं येत होती, त्यातील चांगल्यात चांगलं स्थळ तिच्यासाठी आम्ही निवडणार होतो पण….

मला माझ्यापेक्षा माझ्या नवऱ्याची, अरुणची जास्त काळजी वाटायला लागली. मी निदान रडून तरी दाखवीन, तो बाहेरून दाखवायचा नाही पण आतल्या आत कोसळून जाईल. एकुलत्या एक मुलीसाठी आयुष्यभर झटतोय, अजून उमेदीने व्यवसाय वाढवतोय, या वयात आठवड्यातून एकदा तरी दुसऱ्या शहरात व्यवसायासाठी धावतोय, कुणासाठी हे सर्व?

मी दिवसभर कॉटवर झोपून राहिले. काही करायची इच्छाच मला होईना, एवढी एवढी छोटी अमिता, शाळेत जाणारी अमिता, टेनिस खेळायला जाणारी अमिता, इंजिनीरिंग ला जाणारी अमिता आणि पोस्ट ग्रॅज्युएशन साठी अमेरिकेत जाणारी अमिता मला आठवत राहिली. अमेरिकेत जायला माझा विरोध होताच पण तिच्या बाबाचा तिला पाठिंबा होता.

सायंकाळी अरुणला कसं सांगायचं याचा मी विचार करत होती, कदाचित तिने बाबाला फोन केला पण असेल, मी तिचा फोन कट केला तसा बाबा फोन कट करणार नाही, तो शांतपणे तिचं म्हणणे ऐकून घेईल, आतून कोसळेल पण बाहेर दाखवणार नाही. मला माझ्या नवऱ्याची अरुणची पद्धत माहिती होती. तॊ जेव्हा जास्त टेन्शनमध्ये असेल तेव्हा जास्त हसेल, गडबड करेल. आपलं टेन्शन दुसऱ्याला दाखवणार नाही. आतल्या आत आपणच ते सहन करील.

आज रोजच्या पेक्षा लवकर अरुण घरी आला. येताना माझ्या आवडीचे गुलाब जामुन घेऊन आला. तेव्हाच मी ओळखले याला सर्व कळले आहे. माझा तणाव घालवण्यासाठी याने मुद्दाम गुलाबजामून आणलेत. हाच तो माझी जास्त चेष्टा करेल, गमती जमती सांगेल. मनातल्या मनात रडत असेल पण बाहेर दाखवायचा नाही.

माझ्या हातात गुलाबजाम देऊन तो म्हणाला, “चल आज कुठेतरी फिरून येऊ”.

“आज एवढा खुशीत का, लाडक्या लेकीचा फोन आलेला दिसतो. “

“हो ना, तिनं लग्न ठरवलंय म्हणे, जॉन बरोबर. “

“मग झापलं नाहीस तिला, का खूप आनंद झाला जॉन बरोबर लग्न ठरवले म्हणून, एवढे गुलाबजामून आणलेस म्हणून विचारले. “

“विरोध करून काही उपयोग नसतो गं, उगाच आपल्या मुलीच्या मनातून आपण उतरतो, ती आता तिशीची झाली, तिचे बरे वाईट तिला कळते. “

“म्हणून काही उघड्या डोळ्यांनी आपण लग्न लावून द्यायचं? मी आई आहे तिची, कोण कुठला तो जॉन, ना ओळखीचा ना पाळखीचा, आपल्या मुलीच्या शरीराचा मनाचा तो मालक होणार, आपण उघड्या डोळ्यांनी बघत राहायचं?”

” मग काय करू शकतो आपण? तिने लग्न करू का हे विचारलेले नाही, तिने याआधीच त्याच्याशी लग्न केले आहे ना”

“काय म्हणतोस?” मी किंचाळत विचारले.

“होय, तिने त्याच्याशी रजिस्टर लग्न केले आहे, दोन महिन्यापूर्वी. “

“आणि ती आता आम्हाला सांगते? आपली मुलगी एवढी परकी होते?”

“हे असंच असतं, तिला तिचा साथीदार मिळाला की तिचे आई-वडील पण परके होतात, तेव्हा तिला कसलाही विरोध न करता त्यांना आशीर्वाद देणे हेच योग्य”.

“पण अरुण, मी दुखावले गेले आहे रे, माझ्या मुलीकडून मलाही अपेक्षा नव्हती. मी तिला माफ करू शकणार नाही”.

“काय करू शकतो आपण? आपण तिला मोठ्या मनाने माफ करायला हवे, आपल्याला आपल्या मुलीला गमवायचे नसेल तर आपण तिला माफ करायलाच हवे”.

“पण तिने या आधीच लग्न करून ती मोकळी झाली, आणि ही गधडी आत्ता सांगते लग्न केले म्हणून? आपले संस्कार कुठे कमी पडले का? आणि आम्ही आमच्या नातेवाईकांना काय सांगायचे? तिने दोन महिन्यापूर्वी लग्न केले म्हणून? माझी आई काय म्हणेल? माझ्या बहिणी, भाऊजी, तुझे गावचे भाऊ, काय उत्तर द्यायचे त्यांना?”

“उत्तर हे द्यावेच लागेल, लग्न याआधी झाले हे कळवायचे नाही कुणाला, मी अमित शी बोलतो, तिला म्हणतो तुम्ही दोघेही भारतात या, आपण त्यांचे परत इथे लग्न लावूया, एखादे रिसेप्शन ठेवूया, त्याला सर्वांना बोलऊया, आणि एक लक्षात ठेव, people’s memory is always short, कोणाला फारसे आठवणार पण नाही काही दिवसांनी. “

मी जेवण न करता उशीत डोकं खुपसून रडू लागले, अरुण येरझाऱ्या घालत होता. त्याच्या मनात केवढा कल्लोळ माजला असेल याची मला कल्पना होती. काही वेळानंतर अरुण फोनवर बोलल्याचे मला ऐकू येत होते.. निश्चितच तो अमिताशी बोलत असणार.

सकाळी अरुण मला म्हणाला, पुढील महिन्यात अमिता आणि जॉन भारतात येत आहेत. आपल्या जवळच्या नातेवाईकांसाठी आणि मित्रमंडळी साठी परत एकदा त्यांचे लग्न करू. दुसऱ्या दिवशी लग्नाचे रिसेप्शन ठेऊ. आपल्याला उसना उत्साह दाखवावाच लागेल. “

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ रामायण… ☆ श्री सुनील काळे ☆

श्री सुनील काळे

? मनमंजुषेतून ?

☆ रामायण… ☆ श्री सुनील काळे 

माझ्या लहानपणी दर श्रावण महिन्यात आमच्या पाचगणीच्या घरी वर्षातून एकदा सत्यनारायणाची पुजा असायची. या संपूर्ण महिन्यात एका धार्मिक ग्रंथाचे रोज रात्री जेवणानंतर अध्यायवाचन व्हायचे. माझे वडील जरा धार्मिक वृत्तीचे असल्याने त्यांनां फार उत्साह असायचा. एकत्र कुटूंब पद्धतीने आम्ही राहायचो. त्यामुळे कुटुंबातील सदस्यांची संख्या भरपूर होती. त्यावेळी जेवणानंतर सगळेच्या सगळे एकत्र बसायचे. कान देऊन माना डोलवत सगळे ऐकत राहायचे. वडील प्रत्येक ओळ वाचली की सर्वानां अर्थ समजून सांगायचे. दरवर्षी कधी हरिविजय, रामायण किंवा नवनाथांच्या कथांचा अध्याय लावला जायचा. त्या प्रत्येक अध्यायावर पहिल्या पानावर ब्लॅक ॲन्ड व्हाईट पेनने काढलेली रेखाचित्रे असायची. मी चित्रे पहात बसायचो. कधी कधी पाचगणीच्या लायब्ररीत चांदोबा किंवा अमर चित्रकथेची कॉमिक्स वाचायला मिळायची. ग्रंथपाल असलेले कमरुद्दीनचाचा आम्हा लहान मुलानां ती पुस्तके  फुकट वाचायला द्यायचे. त्यासाठी एक वेगळे कपाट विद्यार्थी वाचनालयात ठेवलेले असायचे.

बालवयात हाताने काढलेली ती रेखाचित्रे पाहून मी आचंबित व्हायचो. ती चित्रे पाहणे, त्याच्या कॉपी करणे, त्यांचा संग्रह करणे याचे नंतर वेडच लागले. पण आपणही कधी कॉमिक्स करू असे त्यावेळी जराही वाटले नाही.

पुण्यात अभिनव कला महाविद्यालयात शिकत असताना विद्यार्थी सहाय्यक समिती व महानगरपालीकेच्या घोले रोडवरच्या आंबेडकर वसतिगृहात राहत होतो. त्या रस्त्यावर नेहमी येणे जाणे व्हायचे. कोणी तरी सांगितले अमर चित्रकथा या कॉमिक्स कंपनीची पुस्तकातील चित्रे काढणारे चित्रकार प्रताप मुळीक या रामचंद्र सभामंडपाच्या गल्लीतच राहतात. मग एकदा मोठा धीर एकवटून त्यांच्या पहिल्या मजल्यावरच्या घरी गेलो. मला कामाची गरज तर होतीच पण त्यापेक्षा प्रताप मुळीक दिसतात कसे हे पाहण्याची उत्सुकता खूप होती. अतिशय शांत स्वभावाचे, उंच, सडपातळ शरीरयष्टी, पँट व पांढरा झब्बा घातलेले, बुल्गानिन दाढी व डोक्यावर उलट्या दिशेने फिरवलेले केस व मिस्किल हास्य असलेले मुळीक सर पहिल्याच भेटीत आवडले. आणि त्यांनी कसलीही अट न ठेवता त्यांच्या मुलाच्या मिलींद मुळीकच्या परस्पेक्टीव्ह रेंडरींगच्या कामासाठी स्टुडिओत येण्याची व काम करण्याची परवानगी देखील लगेच दिली.

प्रताप मुळीक एक अफाट अलौकीक बुद्धीचे व्यक्तिमत्व आहे हे लवकरच लक्षात आले. त्यांचा मानवी शरीरशास्त्र व पौराणिक चित्रकथा काढण्यासाठी लागणाऱ्या सर्वच क्षेत्रातील व्यासंगाचा आवाका फार मोठा आहे हे लक्षात आले. उदा. पुरातत्व विभागातील वस्तूंचा, इमारतींचा, यथार्थदर्शनशास्त्राचा (परस्पेक्टीव्हचा ) ऐतिहासिक वस्तूंचा, तलवारी पासून त्या त्या काळातील प्रत्येक बारीकसारीक गोष्टींचा, प्राण्यांचा, घोडागाडी ते अत्याधुनिक गन्स, रेल्वे, जीप्स, वाहने, झाडे, डोंगरदऱ्या, आभुषणे, वेशभूषा यांचा इतका प्रचंड अभ्यास होता की कॉमिक्सचे स्क्रिप्ट आले की दोन तीन तासातच त्यानां संपूर्ण कॉमिक्सची चित्रे डोळ्यांसमोर दिसत व त्याच्यां मुक्त फटकाऱ्यांच्या शैलीत राम, कृष्ण, बुद्ध, येशू, महावीर, वेगवेगळे संत, महंत, छत्रपती शिवाजी महाराज, अनेक थोर साधुपुरुष, महाराणाप्रताप ते शुजा, इन्स्पेक्टर विक्रम, नागराज, अमिताभ, अशी अनेक दृश्य अदृश्य सजीव, निर्जिव काल्पनिक व वास्तव पात्रे कागदावर पेन्सिलने उमटत. कधी आकाशातून, कधी डोंगरावरून, कधी समोरून, कधी खूप खालून दिसणारी वेगवेगळया प्रतलांवरची त्यांनां चित्ररेखाटने सहज करताना पाहून  पाहणाऱ्या आमच्यासारख्या नवशिक्या चित्रकारांचा मेंदू बधीर व्हायला लागायचा. वाटायचे किती काम करायला पाहीजे. सतत रेखाटने करायला हवीत. समोर दिसते ते  दृश्य मग ते घर, ऑफीस, शाळा, इमारती, दुकाने, रेल्वेस्थानके, बसस्टॉप, झाडे, डोंगर जेजे समोर दिसेल तशी सतत रेखाटने करण्याची सवयच लागली. हात बंद असला तरी मेंदू व स्मरणशक्ती कधी बंद पडू देऊ नका असे बाबा नेहमी सांगायचे. त्यांचा मुलगा मिलिंद साधारण आमच्या वयाचा तो त्यानां बाबा म्हणायचा म्हणून आम्हीसुद्धा त्यांनां बाबा म्हणायचो. स्त्री असो वा पुरुष नुसती ॲक्शन महत्वाची नसते, नुसती शरीराची ठेवण महत्वाची नसते तर माणसे बोलतात कशी ? त्यांचे हातापायाची, बोटांची पेरे, पंजाची ठेवण कशी बदलतात यावर लक्ष द्यावे प्रत्येक चेहरा बोलतो तो नीट पहा असे ते शांतपणे सांगत. मानवी भावभावनांचा अभ्यास करून माणसाचे सुख, दुःख, राग, हास्य, आनंद, क्रौर्य, त्रास अशा भावना चेहऱ्यावर दिसल्या पाहिजेत, प्रत्येक अँगलने त्याचे निरिक्षण करायला पाहिजे यावर त्यांचा भर असे. माणसाची उंची व त्यांच्या आजूबाजूच्या सर्वांचा पोशाख वेगवेगळा असला पाहिजे. समोरचा माणूस साधू असला तर त्याचा सात्विक भाव चेहऱ्यावर आला पाहिजे, दुष्ट वृत्तीचा, गुंड माणूस दाखवायचा असेल तर त्या व्यक्तिरेखेच्या पोशाखातून, त्याच्या ॲक्शनमधून त्याचे कॅरेक्टर दिसले पाहीजे त्यासाठी माणसांचे सतत निरिक्षणे करत राहा असे ते सांगत, पौराणिक मालीकांमध्ये कर्णभूषणे, गळ्यातील हार, हातातली अंगठी असो वा कपाळावरील गंध असो त्याकडे लक्ष द्या. तलवारीची रचना, रथ, त्यांचे घोडे, बैलगाडी, वाघ, सिंह यांचे डोळे त्यातील भाव चित्रात दिसले पाहिजेत अशा अनेक छोट्या गोष्टी स्टुडीओमध्ये रेखाटन करताना ते सांगत असत. ते आमच्यासाठी एक ऋषितुल्य व्यक्तिमत्व होते.

आपणही कॉमिक्स क्षेत्रात काम करायचे असे मी ठरवले होते. त्यासाठी रात्ररात्र जागून शिवाजीनगरच्या बसस्टॉपवर आम्ही काही मित्रमंडळी स्केचिंग करत असायचो. पण माझे दुर्देव असे की शिकत असतानाच त्यानां हैदराबाद येथील मोठ्या कॉमिक्स बनवणाऱ्या कंपनीने बोलावून घेतले व प्रताप मुळीक सहकुटूंब हैदराबादला काही वर्षांसाठी शिफ्ट झाले व आमचा कॉमिक्स शिकण्याचा अभ्यासही थंडावला.

१९८७-८८ साली अभिनेता अरुण गोविल, दिपिका यांची रामानंद सागर दिग्दर्शक व निर्माते असलेली ‘ रामायण ‘ ही सिरियल टिव्हीवर खूप प्रसिद्ध झाली, खूप गाजली. त्या कलाकारांना घेऊन अमर चित्रकथा या कंपनीने एक कॉमिक्स केले होते. त्यावेळी मी देखील माझ्या अभ्यासासाठी मुळीकांचे एक हस्तलिखित कॉमिक्स तयार केले होते. त्या संपूर्ण कॉमिक्सची रेखाटने, त्याची कॅलिग्राफी, त्याचे मुखपृष्ठ, अगदी वेळ देऊन मन लावून करताना प्रचंड आनंद मिळाला होता. आज तीन तपानंतर ते हस्तलिखित, हस्तचित्रित, रोटरींग पेनने सुलेखन केलेले  कॉमिक्स बाहेर काढले कारण त्याचा विषय होता ‘ रामायण ‘.

आज वाईला बाजारात गेलो होतो. सगळीकडे रांगोळ्या, भगवे झेंडे, गुढया, लहान मुलांच्या रामायणातील वेशभूषा, रामाची गाणी ऐकून व फेसबुकवरच्या अनेक चित्रकारांची रामायणावरील चित्रे पाहून मी केलेल्या सुनील कॉमिक्सची व मूळ चित्रकार प्रताप मुळीक बाबांची खूपच आठवण आली.

छतीस वर्षांपूर्वीचे एक हस्तलिखित कॉमिक्स माझ्या वडीलांची व प्रताप मुळीकांची आठवण करून गेले.

आता ती ध्यासाने पछाडलेली निरागस ध्येयवेडी माणसे काळाच्या पडद्याआड गेली.

आता उरल्या फक्त त्यांच्या आठवणी…. ‘ रामायण ‘ कॉमिक्सच्या रुपात…….

© श्री सुनील काळे

संपर्क – 32, निसर्ग बंगला, मेणवली रोड, स्वप्नपूर्ती मंगल कार्यालयाजवळ, मु .पो. भोगाव, ता. वाई, जि.सातारा – ४१२८०३. 

मेल : [email protected]

मोब. 9423966486, 9518527566

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ अनोखी पहल — कणादकुमार अमर – ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

श्री मकरंद पिंपुटकर

🌈 इंद्रधनुष्य 🌈

☆ अनोखी पहल — कणादकुमार अमर – ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर

आपल्या रोजच्या आयुष्यात चहाच्या टपरीपासून, भाज्यांच्या ठेल्यापासून, सायकलच्या दुकानांत अनेक ठिकाणी आपण शाळकरी मुलांना कामं करताना बघतो, घरकाम – धुणीभांडी करणाऱ्या मुलींना बघतो. चुकचुकतो, या मुलांनी शाळेत जायला पाहिजे म्हणतो, आणि मग तो विचार, ते चिंतन डोक्यातून काढून टाकतो आणि आपापल्या कामाला लागतो.

२०१६ साली, प्रयागराज (अलाहाबाद) मधील मोतीलाल नेहरू नॅशनल इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी MNNIT मधील कणाद कुमार अमर या विद्यार्थ्यानेही ही अशी कामं करणारी मुलं पाहिली. मात्र इतरांसारखा तो कोरडा हळहळला नाही, त्याच्या डोक्यात चक्रं फिरू लागली.

त्याच्या ओळखीच्या या मुलांना तो भेटला. या मुलांना, त्यांच्याच वस्तीत – ‘नया गाव’ इथे, रोज संध्याकाळी तासभर तरी अभ्यासाला पाठवा, अशा त्याने त्या मुलांच्या आई वडिलांना विनवण्या केल्या.

“तुम्ही आमची मुलं पळवून नेणार आहात” पासून “धंदे के टाईम खोटी मत करना” पर्यंत अनेक उत्तरं मिळाली.

खूप मिनतवाऱ्या केल्यावर पंधरा विद्यार्थी मिळाले. कणाद आणि त्याचे पाच मित्र, त्यांचं कॉलेज संपल्यावर, नया गाव वस्तीत जाऊन या मुलांना शिकवू लागले. कॉलेज सांभाळून, इथं येऊन शिकवणं काहींना दगदगीचं वाटू लागलं – असे काही जण गळले, काही नवे स्वयंसेवक जोडले गेले. आणि कणादची ही ‘अनोखी पहल’ नया गावमध्ये रुजू लागली.

पण कणादला एवढ्यावरच थांबायचं नव्हतं. त्याला या उपक्रमाची व्याप्ती वाढवायची होती. वस्तीमध्ये एका वेळी आणखी विद्यार्थ्यांना शिकता येईल अशी जागा नव्हती. कॉलेज सांभाळून वस्तीपर्यंत शिकवायला येणं स्वयंसेवकांना धावपळीचं होत होतं.

मार्ग काढण्यासाठी कणाद सरळ जाऊन MNNIT च्या डायरेक्टर डॉ. राजीव त्रिपाठी यांना भेटला.

एरवीच्या तरुणाईच्या अनास्थेबद्दल निराश होणाऱ्या डॉ त्रिपाठी यांना कणादची संकल्पना, निर्धार भावला. त्यांनी संध्याकाळी ६ नंतर, MNNIT मधील वर्ग संपल्यावर, MNNIT मध्ये या मुलांना शिकवण्यास परवानगी दिली.

या परवानगीने दोन गोष्टी छान झाल्या. नया गावमधील भरपूर विद्यार्थ्यांना शिकवता येणार होतं आणि कॉलेजच्या स्वयंसेवकांना मुलांना शिकवण्यासाठी दूर जाण्याची गरज नव्हती. शे दीडशे विद्यार्थी या “अनोखी पहल”चा फायदा घेऊ लागले.

संध्याकाळची वेळ व्यवसायाच्या दृष्टीने गडबडीची आणि म्हणून महत्त्वाची. या वेळेला या शाळकरी मुलांची व्यवसायात जास्त मदत लागे. त्यामुळे पालक संध्याकाळी मुलांना शिकायला पाठवायला नाखुश असत. कणादने यावरही मार्ग काढला. दुपारी १२ ते २ या वेळात, जेव्हा MNNIT ला जेवणाची सुट्टी असे, त्या वेळात कणाद नया गावमध्ये जाऊन अशा मुलांना शिकवू लागला.

MNNIT मधील वर्ग रात्री ८ पर्यंत चालत. मग इतक्या उशीरा मुलं, विशेषतः मुली घरी कशा येणार अशी पालकांना काळजी होती. पुन्हा कणादने या विद्यार्थ्यांसोबत घरापर्यंत येण्याची जबाबदारी घेतलीही आणि निभावलीही.

कॉलेजला सुट्टया लागल्या. या मुलांचं शिक्षण चालू ठेवण्यासाठी कणाद MNNIT लाच राहिला. “अनोखी पहल” सुरू राहिली.

सगळं छान रुळू लागलं होतं, ‘अनोखी पहल’चे विद्यार्थी चांगले गुण मिळवू लागले होते. निव्वळ शिक्षणच नव्हे तर उत्तर प्रदेशातील कडाक्याच्या थंडीला तोंड देण्यासाठी या मुलांसाठी मायेची उब आणि तशाच उबदार लोकरी कपडयांची सोय करण्यात आली होती. या विद्यार्थ्यांसाठी ‘अंत्योदय’ उपक्रमाअंतर्गत क्रीडास्पर्धा, शैक्षणिक स्पर्धा (निबंधलेखन, quiz, काव्यलेखन आदि) आयोजित केल्या जाऊ लागले होते, सणवार साजरे केले जाऊ लागले होते…

… आणि करोना आला.

‘अनोखी पहल’चा चमू हटला नाही. डटून राहिला. शक्य तेवढ्या विद्यार्थ्यांना ऑनलाईन घेऊन त्यांनी हा ज्ञानयज्ञ सुरू ठेवला. ‘अनोखी पहल’ आता MNNITचा अधिकृत उपक्रम झाला होता. संस्थेचे चार प्राध्यापक यात मदतीसाठी नेमले होते.

आता करोनाचे संकट गेले आहे. ‘अनोखी पहल’ जोरात, जोमात आणि जोशात सुरू आहे. विद्यार्थी उत्तमोत्तम यश संपादन करत आहेत, काही जण तर स्पर्धा परीक्षा उत्तीर्ण करून खुद्द MNNIT मध्ये उच्च शिक्षण घेत आहेत.

कणाद स्वस्थ बसलेला नाही, फक्त इथल्या उपक्रमाच्या यशावर संतुष्ट नाही. मिर्झापूर, उत्तर प्रदेश आणि IIT, खरगपूर  इथेही त्याच्या संवादातून आणि प्रेरणेतून हे उपक्रम यशस्वीरीत्या  सुरू झाले आहेत.

“हे असं फुटकळ पाच पन्नास विद्यार्थ्यांना शिकवून काय असा मोठा तीर मारला ?” असं काठावर बसून सल्ला देणारे, उंटावरून शेळ्या हाकणारे काहीजण विचारतीलही – त्यावर एक खूप छान कथा वाचली होती.

एका तलावाच्या काठावर काही मासे पाण्याबाहेर पडले होते, पाण्याअभावी तडफडत होते. एकजण एक एक करून ते मासे पुन्हा पाण्यात टाकत होता. दुसऱ्याने त्याला विचारलं, “अरे, इथे इतके मासे पडले आहेत. असे पाच पंचवीस मासे परत पाण्यात टाकून काय मोठा फरक पडणार आहे ?” 

पाण्यात पुन्हा दिमाखात पोहणाऱ्या एका माशाकडे पहात पहिला उत्तरला, ” त्या माशाला नक्की फरक पडला आहे. “

कणादच्या ‘अनोखी पहल’ ला हार्दिक शुभेच्छा.

© श्री मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड

मो ८६९८०५३२१५   

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “आणि मला दुर्गा सापडली…” – लेखिका :डॉ. स्मिता दातार ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ “आणि मला दुर्गा सापडली…” – लेखिका :डॉ. स्मिता दातार ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

सिक्किमजवळच्या पेलिंगला नेमकी आमच्या यांची कॉन्फरन्स घोषित झाली. नवरात्राचे दिवस. यांच्या आग्रहामुळे मला जावंच लागलं. मनात मात्र घरचं नवरात्र हुकल्याची हुरहुर होती.

आमची गाडी त्या दिवशी सारखा त्रास देत होती. गाडीच्या ड्रायव्हरच्या मावशीचं घर रस्त्यावरच होतं. वळणावळणाच्या त्या रस्त्यावर एका घराशेजारी गाडी थांबली. घरासमोर बरीच  मुलं  खेळत होती. लहान -मोठी, गोबर्‍या लाल गालांची, बसक्या नाकाची.

गाडीचा आवाज ऐकून एक मध्यमवयीन बाई बाहेर आली आणि आमच्या  ड्रायव्हर भीमला म्हणाली, ‘ताबा तस खै ?’ कसा आहेस ? भीमने आमची ओळख करून दिली. ही कुंती, माझी मावशी. जरा कुरकुरणार्‍या गाडीची डागडुजी  करायला भीम गाडी घेऊन गेला.

कुंती अगदी चारचौघींसारखी दिसत होती. सिक्कीमी बायकांचा  गुडघ्यापर्यंत येणारा बाखू  तिने घातलेला. कान लोंबेपर्यंत, कानाची पाळी फाकवणारे कानातले झुमके, अकाली पडलेल्या सुरकुत्या आणि चेहेर्‍यावर हसू. तिचं वय असेल सहज पन्नाशीला आलेलं. पण कुंती गरोदर होती. या वयाची बाई गरोदर बघून मला धक्काच बसला. एक बारकं  मूल तिच्या कडेवर होतं. एक पाठीशी झोळीत बसून तिच्या मागून वाकून मिचमिच्या डोळ्यांनी  आमच्याकडे बघत होतं. इतक्यात झोपडीतून नुकतीच चालायला लागलेली, नीट चालणारी पण शेंबूड पुसणारी आणखी दोन तीन पाठोपाठची मुलं बाहेर आली. कुंतीनं आमचं स्वागत केलं. तिने हाक मारल्यावर झोपडीच्या मागच्या उतारावर शेतात काम करणारा एक चौदा पंधरा वर्षांचा मुलगा धावत आला आणि आम्हाला बसायला त्यानं एक बाक आडवा केला. कुंतीला तोडकं  मोडकं  हिन्दी येत होतं. पण तिथल्या एका मुलाला  नीट हिन्दी येत होतं. त्याच्या मदतीने आमचा संवाद सुरू झाला.

माझ्या चेहर्‍यावरचं आश्चर्य बघून कुंतीनेच संभाषणाची सूत्र हातात घेतली. “दीदी, ही सगळी माझीच मुलं. ”  “तुझी म्हणजे, तुझी स्वत:ची?” मी उडालेच. “हो. माझी, माझ्या पोटची. ” “पण.. आपला कायदा आहे ना.. दो या तीन.. ”  कुंतीला या प्रश्नांची अपेक्षाच असावी. “हो, आहे ना कायदा. आणि मुलांची संख्या वाढवली तर सरकारवर त्यांचा बोजा टाकायचा नाही, हे ही ठाऊक आहे. माझी मुलं आणि आम्ही स्वावलंबी आहोत. आम्ही आमच्या शेतात राबतो, पिकवतो. रोज कमावतो, रोज खातो. साठवून ठेवायला मात्र आमच्याकडे पैसे नाहीत. “

त्यापुढे कुंतीने जे सांगितलं, ते या पृथ्वीतलावरचं वाटलंच नाही मला.

कुंती आणि दोरजा, तिचा नवरा, दोघं पेलिंगच्या कष्टकरी लेपचा जमातीतले. हिमालयाच्या  निसर्गरम्य पहाडात हातावर पोट  असलेलं त्यांचं कुटुंब. दोरजा सैन्यासाठी लाकूडफाटा सीमेवर पोचवण्याचं काम करायचा. कुंती गावातल्या बायकांबरोबर लाकडं गोळा करायला जायची. देशाला आपली तेवढीच मदत. कुंती कधी दोरजासोबत मिरची-भाकरी सैनिकांसाठी पाठवायची. त्यांचा मोठा मुलगा राम, विसाव्या वर्षीच सैन्यात भरती झाला. कुंतीला त्याचं  कोण अप्रूप. सगळ्या गावाला तिने त्याचा गणवेष कौतुकाने फिरून दाखवला. दाजूमुळे ( मोठा भाऊ )  आणि घरातल्या देशप्रेमी वातावरणामुळे धाकट्या दोघांना ही सैन्यात जायचे वेध लागलेले. राम काश्मीर सीमेवर तैनात असताना, अवघ्या बावीसाव्या वर्षी  त्याला वीरमरण आलं. हिमालयातला बर्फ वितळेल, असा कुंतीचा शोक चालला होता. तिला मुलगा गेल्याचं दु:ख होतंच. पण मुलाची देशसेवा अर्ध्यावर राहिली, याची तिला जास्त खंत होती.

कुंतीच्या धाकट्या दोघांनी दाजूचं स्वप्न पूर्ण करण्याचं ठरवलं आणि कुंतीने आपला निर्णय दोरजाला सांगितला. मला देशासाठी लढणारे सैनिक निर्माण करायचे आहेत. नाहीतरी माझ्यासारखी स्त्री देशाची सेवा कशी करणार ? दोरजाने आधी तिला समजावलं. नातेवाईकांना वाटलं ती वेडी झालीये. पण नंतर दोरजाला कुंतीच्या ठाम निर्णयाचा अंदाज आला. मुलांच्या लष्कर भरतीत कुंतीच्या संगोपनाचाच वाटा होता. दोरजाला फक्त कुंतीच्या प्रकृतीची काळजी वाटत होती. कुंती म्हणाली, “दोरजा, तू फक्त साथ दे. आपण कष्ट करू, मुलांना स्वावलंबी बनवू. त्यांना देशासाठी घडवू आणि देशालाच अर्पण करू. मला शक्य आहे तोपर्यंत मला हे करू दे. ” दोरजा म्हणाला, “पण एखाद्या मुलाला हे पटलं नाही तर. ” ” ज्याला नाही पटणार, तो दोन वर्ष  देशसेवा करून नंतर आपलं  आयुष्य जगू शकतो. माझ्या दुधाचं हे मुलांवर असलेले कर्ज त्यांनी फेडावं, असं  सांगेन मी त्यांना. “आणि कुंतीच्या घरात वर्ष दोन वर्षात पाळणा हलू लागला.

“चांगल्या  कामाला निसर्गही साथ देतो, दीदी. माझं  वय काय ठाऊक नाही. पण अजून तरी कूस फळतेय. मुलांना अंगाई म्हणून मी  देशाचीच गाणी गाते. माझी मुलं ही फार गुणी आहेत. माझं ऐकतात. आमच्यासारखंच देशाचं  प्रेम त्यांनाही आहे. ” मध्यंतरी भीमाची बहीण वारली. तिच्या नवर्‍याने दुसरं लग्न केलं. पोटच्या पोरांना परकं  केलं. “मी म्हटलं, आण त्यांना इकडे. आता माझ्या पिल्लांसोबत  तिचीही मुलं  वाढताहेत. पण  अट त्यांनाही तीच. सैन्यात भरती व्हायचं. मुलांना  तायक्वांडोचं शिक्षण, रोज पहाडात दौड लावायचा सराव सक्तीचा केलाय मी. “ती परत हसली. “सैन्यात नंबर लागायला हवा ना, म्हणून जरा सक्ख्त आई झालेय. ” कुंती एकीकडे दोन मुलींना आणि एका मुलाला, सैनिकांसाठी भाकर्‍या कागदात बांधायला सांगत होती. दोरजाची गाडी सीमेकडे जायला निघेल म्हणून ती त्यांना घाई करत होती. शेतातल्या भाज्या आणि मिरच्यांचा वानवळा ही सोबत जायचा होता.

हिमालयाच्या कुशीतल्या, बर्फाळ पहाडावर, एक निरक्षर आई, आपलं  मातृत्व देशाला अर्पण करत होती. त्यासाठी तिनं  स्वत:चं शरीर पणाला लावलं होतं. मला माझीच  लाज वाटली.

पण माझं नवरात्र हुकलं नव्हतं. आज  मनात चांगल्या विचारांची  घटस्थापना झाली होती.

कुंती हसली. तिच्या सुरकुत्या मला विलक्षण सुंदर दिसल्या. माझी दुर्गा  माझ्यासमोर होती.

लेखिका :डॉ. स्मिता दातार

संग्राहिका – सौ उज्ज्वला केळकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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