हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 202 ☆ “पीड़ा का नाम परसाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – पीड़ा का नाम परसाई)

☆ आलेख ☆ “पीड़ा का नाम परसाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

इस वर्ष हिंदी के महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म शती वर्ष है। आप जानते हैं कि हिंदी साहित्य में हरिशंकर परसाई जैसा दूसरा व्यक्ति नहीं हुआ। परसाई के तीखे व्यंग्य बाणों ने सत्ता के अन्तर्विरोधों की पोल खोल दी और अपने युग की राजनीतिक सामाजिक विडंबनाओं को तीखे ढंग से पेश किया। हिन्दी साहित्य में परसाई ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक माने जाते हैं। आजादी के बाद आज तक वे व्यंग्य के सिरमौर बने हुए हैं, 1947 से 1995 के बीच परसाई जी की कलम ने घटनाओं के भीतर छिपे संबंधों को उजागर किया है, एक वैज्ञानिक की तरह उसके कार्यकारण संबंधों का विश्लेषण किया है और एक कुशल चिकित्सक की तरह उस

नासूर का आपरेशन भी किया। वे साहित्यकार के सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहेे और अपनी रचनाओं से जन जन के बीच लोकशिक्षण का काम किया।

तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है – “परहित सरस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई”

परसाई जी जीवन के अंतिम समय तक पीड़ा ही झेलते रहे, यह व्यक्तिगत पीड़ा भी थी, पारिवारिक पीड़ा भी थी, समाज और राष्ट्र की पीड़ा भी थी, इसी पीड़ा ने व्यंग्यकार को जीवन दिया। उनका व्यंग्य कोई हंसने हंसाने, हंसी – ठिठोली वाला व्यंग्य नहीं, वह आम जनमानस में गहरे पैठ कर मर्मांतक चोट करता है, वह उत्पीड़ित समाज में नई चेतना का संचार करता है, उन्हें कुरीतियों, अज्ञान के खिलाफ जेहाद छेड़ने बाध्य करता है, वह सरकारी अमले को दिशानिर्देश देता प्रतीत होता है, यह साहस हर कोई नहीं जुटा सकता। समाज से, सरकार से, मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते हैं, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी । व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लम्बी गाथा है।अब उनके व्यंग्य की परिधि आम आदमी से घूमते घूमते राष्ट्रीय सीमा लांघ अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर स्थापित हो चुकी है। दिनों दिन बढ़ती उनकी लोकप्रियता, चकित करने वाली उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता, उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे। 

जो परसाई की “पारसाई” को जानता है, वही परसाई जी को असल में जानता है, उनके लिखे ‘गर्दिश के दिन’ पढ कर हर आंख नम हो जाती है, हर व्यक्ति के अंदर करूणा की गंगा बह जाती है। ‘गर्दिश के दिन’ पढ़कर एक युवा लेखक ने परसाई के नाम पत्र लिखा, जो उस समय गंगा पत्रिका में छपा था…..

जनाब परसाई जी, 

मैं नया जवान हूं। कुछ साल पहले मैंने लिखना शुरू किया था। मेरी महत्वाकांक्षा थी कि मैं हरिशंकर परसाई बनूंगा पर आपका लिखा “गर्दिश के दिन” पढ़कर और आपके द्वारा भोगे गये घोर कष्टों का वर्णन पढ़कर मैंने यह विचार त्याग दिया है। मैं हरिशंकर परसाई अब नहीं बनूंगा। हरिशंकर परसाई बनना आपको ही मुबारक हो। मैं हमदर्दी भेजता हूं।

परसाई दुनिया के ऐसे अकेले लेखक हैं जिनके जीते जी उनकी “रचनावली” प्रकाशित हुई थी, उनकी रचनाओं में धारदार हथियार करूणा के रस में डूबा रहता था,   उनकी रचनाओं में ऐसा धारदार सच होता है, एक बार उनकी रचना पढकर कुछ लोगों ने उनको इतना पीटा और उनकी दोनों टांग तोड दी, पर वे टूटी टांग लिए जीवन भर लिखते रहे। आजादी के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लोकप्रिय लेखक श्री हरिशंकर परसाई ने अपनी रचनाओं के मार्फत सामाजिक सुधार में अपनी बड़ी भूमिका निभाई है, उनकी रचनाओं को पढ़कर भ्रष्टाचारियों ने भ्रष्टाचार छोड़ा, गिरगिट की तरह रंग बदलने वाली मनोवृत्ति वालों ने अपना स्वाभाव बदला, पुलिस वाले सुधरे, सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था और व्यवहार में कुछ हद तक सुधार हुआ और होता जा रहा है, लाखों लोग उनकी रचनाओं से प्रेरणा लेकर समाज सुधार में लगे हैं। वास्तव में ऐसे समाज सुधारक लोकप्रिय,लोक शिक्षक लेखक भारत रत्न के हकदार होते हैं। परसाई अपने आसपास बिखरे साधारण से विषय को अपनी कलम से असाधारण बना देते थे, उनकी रचनाएं पाठक को अंत तक पकड़े रहतीं हैं। हाईस्कूल के पंडित जी तो सबको मुहावरे और सुभाषित पढ़ाते हैं पर उनकी गहराई में जाकर परसाई जी हंसाते हुए आम आदमी की प्रवृत्तियों को उजागर करते हैं। ऐसी सहज सरल भाषा में जो आमतौर पर सब तरफ हर कान में सुनाई देती है। राजनीति परसाई जी को मुख्य विषय रहा है, राजनैतिक बदलाव की इतनी सारी स्थिति के बाद भी उनकी रचनाएं आज भी सबसे ताजा लगतीं हैं, उनकी घटना प्रधान रचनाएं कहीं से भी बासी नहीं लगती। वाह परसाई,गजब परसाई, हां परसाई …. तेरी गजब पारसाई।

परसाई जी की पहली रचना 1947 में ‘प्रहरी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, और परसाई जी ने अपने सम्पादन में पहली पत्रिका वसुधा 1956 में निकाली थी। कालेज के दिनों से हम परसाई जी के सम्पर्क में रहे और उनका विराट रूप देखा, उनकी रचनाएँ पढ़ी, “गर्दिश के दिन” में भोगे दर्द को महसूस किया।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 125 ⇒ उड़न किस… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उड़न किस।)  

? अभी अभी # 125 ⇒ उड़न किस? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

इस नश्वर संसार में उड़न खटोले से लगाकर उड़न परी और उड़न सिख के बीच इतनी उड़ती उड़ती चीजें हैं, कि इन्हें देखकर एक साधारण इंसान का तो सर ही चकरा जाए। क्या पता, कब कोई एलियन उड़न परी, उड़न तश्तरी से इस धरती पर उतर आए, जिसे देख उड़न दस्ता भी आश्चर्य में पड़ जाए और उसका एक एलियन किस, हमारे धरती के फ्लाइंग किस पर भारी पड़ जाए।

जब एक मक्खी उड़ती हुई, आपके मुंह पर फ्लाइंग किस मारकर उड़ जाती है, तो आप उसका क्या बिगाड़ लेते हो। हमने वे दिन भी देखे हैं जब खटमल हमारा खून चूस रहे हैं, और डैंड्रफ के कारण हम अपना सर खुजा रहे हैं। भला हो, ऑल आउट, काला हिट, मच्छरदानी, पैंटीन शैंपू और लक्ष्मण रेखा का, जो हमें इन उड़ते मक्खी, मच्छर और रेंगती छिपकली, चींटी मकोड़े और कॉकरोचों से हमारा और हमारी बालों की रूसी का भी बचाव करती रहती हैं।।

हर इंसान को उड़ती खबर और उड़ती नज़र से सावधान रहना चाहिए। कोई अच्छी बुरी खबर उड़ते उड़ते कहां पहुंच जाए, कहा नहीं जा सकता। वे दिन हवा हुए, जब उड़ते हुए शांतिदूतों के जरिए प्रेम संदेश और मित्रता संदेश भेजे जाते थे। सरकारी आदेश तो डुगडुगी पीटकर ही सुनाया जाता था। सुनो, सुनो, सुनो ! और सबको सुनना भी पड़ता था।

फिर काम की खबरें भी बेतार के तारों के जरिए भेजी जाने लगी। बेतार की भाषा किसी गागर में सागर से कम नहीं होती थी। शब्द और अक्षरों में कोई भेद नहीं होता था। कई बार तो अर्थ का अनर्थ भी हो जाता था।।

फिर आया सरस्वतीचंद्र का जमाना, जब “फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है“, जैसे संदेश फूलों के जरिए भेजे जाने लगे। किसी भी पुरानी किताब में सूखा, मुरझाया कोई गुलाब का एक फूल कोई भूली दास्तान बयां करता नजर आता था।

हमारे नीरज जी तो फूलों के रंग से, और दिल की कलम से रोज ही पाती लिखते थे।

आज तो स्थिति यह है कि इधर व्हाट्सएप पर संदेश लिखा जा रहा है, और उधर उन्हें उसकी भी खबर प्रसारित हो रही है। किस टाइप का प्रेम संदेश है यह,

जो लिखने से पहले ही बयां होने को लालायित है, उत्सुक है।।

आसमान में उड़ते बादल भी विरही प्रेमियों के दिल का हाल जानते हैं। सावन के बादलों, उनसे ये जा कहो, और ;

जा रे कारे बदरा,

सजना के पास।

वो हैं ऐसे बुद्धू,

कि समझे ना प्यार।।

हमारे आनंद बक्षी जी ने सावन को लाखों का बताया है, और नौकरी को दो टकियाॅं की। ऐसे फुल टाइम फूल, गुलदस्ता और फ्लाइंग किस भेजने वालों से भगवान हम शरीफों को बचाए। हम तो चाहते हैं, इस अधिक मास के सावन में दाल रोटी खाएं, और प्रभु के गुण गाकर कुछ पुण्य कमाएं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 143 ☆ # वो पहले सा प्यार नहीं रहा… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# वो पहले सा प्यार नहीं रहा… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 143 ☆

☆ # वो पहले सा प्यार नहीं रहा#

तुम्हारे वादों पर

इरादों पर

मुझे एतबार नहीं रहा

सच कहूं –

तुम्हें मुझसे

वो पहले सा प्यार नहीं रहा

 

मैं तो आंखें मूंदकर

तुम्हारे हर झूठ को

सच मान बैठा था

तुम्हारी दीवानगी में

दुनिया को ठुकरा कर

गर्व से गर्दन ऐंठा था

अब तुम्हारी बातों में

वो पहले सा इसरार नहीं रहा

तुम्हें मुझसे

वो पहले सा प्यार नहीं रहा

 

हमने खाई थी कसमें

जीवन भर साथ निभाने की

चाहे दर्द हो या खुशी

सदा मुस्कराने की

हाथ क्या छूटा

दिल क्या टूटा

तुम्हारी बातों में

वो पहले सा इजहार नहीं रहा

तुम्हें मुझसे

वो पहले सा प्यार नहीं रहा

 

जिंदगी दे रही

तुमको एक मौका है

साबित करो

यह प्यार है या धोका है

तुम अपने वादों से

मुकर रही हो

कशमकश से

गुजर रही हो

तुम्हारा दिल

शायद मिलने को

वो पहले सा बेकरार नहीं रहा

तुम्हें मुझसे

वो पहले सा प्यार नहीं रहा

 

तुमने ताश के पत्तों से

महल बनाया था

मैंने भी उसे

प्यार से सजाया था

ना तुम रानी बन पाई

ना मैं राजा बन पाया

ना तुम मेरी बन पाई

ना मैं तुम्हारा बन पाया

तुम्हारी आंखों में प्यार का

वो पहले सा खुमार नहीं रहा

तुम्हें मुझसे

वो पहले सा प्यार नहीं रहा/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “सहेलियाँ…” ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता खंडकर

 ☆ कविता  – 💃 “सहेलियाँ” 🦋 ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

हम जब साथ में होते हैं ,

दुनिया अलग बसाते हैं !

यादों के इस सफर में,

बचपन को ढूंढते हैं !

 

छुट्टियों में कितना खेलते,

जंगल के बेर भी खाते,

पढ़ाई से, मैदान से,

किस्से जुड़े  कितने सारे!

 

ठहाके लगाते रहतें हैं ,

‘कितने हम नासमझ थे’,

पेडों पर रहनेवाले,

पिशाचों से कितना डरतें!

 

हँस- हँस के बिदा लेते हैं ,

वादा फिर मिलने का करके,

वर्तमान से मिल लेते हैं ,

उर्जा-उमंग नई लेके!

© सुश्री प्रणिता खंडकर

ईमेल – [email protected] वाॅटसप संपर्क – 98334 79845.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ देश प्रेम काव्य के रंग से मनाया ‘हर घर तिरंगा 🇮🇳 अभियान’ अभियंता कवियों ने ☆ प्रस्तुति – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ देश प्रेम काव्य के रंग से मनाया ‘हर घर तिरंगा अभियान’ अभियंता कवियों ने ☆ प्रस्तुति – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

साहित्य क्षितिज पर भोपाल के रचनाकार अभियंता निरंतर नवाचार करते दिखते हैं। काव्य के रंग से हर घर तिरंगा अभियान मनाने अभियंता कवियों ने साहित्य यांत्रिकी की गोष्ठी आयोजित की।

गायक, कवि अशेष श्रीवास्तव ने गोष्ठी का प्रारंभ करते हुए 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस पर अपने अपने घरों, कार्यस्थलों, मोहल्लों, धार्मिक स्थलों को दीप मालाओं बिजली की सीरीज़, मोमबत्तियों से सजा कर देश के प्रति अपना प्रेम व सम्मान जताने की अपील की। उन्होंने कहा कि…

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अच्छी पर किसमें?

नफ़रत फैलाने में या प्यार फैलाने मे?

घृणा की आग जलाने में या प्रेम से आग बुझाने में?

लोगों को बाँटने में या लोगों को जोड़ने में?

गोष्ठी को आगे बढ़ाया सशक्त कवि श्री अजेय श्रीवास्तव ने, उन्होंने विभिन्न संदर्भ में तिरंगे के महत्व को लंबी कविता में प्रस्तुत किया।

गांधी के शांति पाथ की खोज है तिरंगा

क्रांतिकारी चन्द्र, भगत का जयघोष है तिरंगा

शास्त्री के जय जवान, जय किसान को ले आगे बढ़े

नेता जी के दिल से निकाला ओज है तिरंगा

रवींद्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय वैशाली के कुलाधिपति श्री व्ही के वर्मा ने अपनी रचना पढ़ी …

नया भारत नया भारत

सपनों की उड़ान है

जोश है जुनून है

एक नई पहचान है

वरिष्ठ रचनाकार अभियंता श्री प्रियदर्शी खैरा जी ने

घर शहीदों के हैं मंदिरों की तरह

देहरी पे नज़र बस झुकी रह गई।

तथा पावस पर गजलें पढ़कर मन मोह लिया।

भारतीय रेल में कार्यरत इंजी राकेश प्रहर ने व्यंग्य के प्रहार किए। उनकी देश प्रेम की रचना ने तालियां बटोरी…

देश के अभिमान का, वीरों के सम्मान का,

प्यारा ये तिरंगा वीर, गाथाओं का गान है।

राष्ट्र के निशान पे, आन बान शान पे,

तिरंगे के लिए मेरी, ये जान‌ कुर्बान है।।

गोष्ठी का संचालन कर रहे व्यंग्य, नाटक, काव्य, समीक्षा के बहुविध वरिष्ठ रचनाकार अभियंता विवेक रंजन श्रीवास्तव ने काव्य पाठ करते हुए कहा …

राजनीति रंगों की करते

भावनाओं से खेल रहे जो

जनता ने उनको ललकारा

कोई कतर कर इसकी पट्टियाँ 

बना रहा संकीर्ण झंडियाँ 

सजा उन्हें देगा जन सारा

झंडा ऊंचा रहे हमारा

श्री मुकेश मिश्रा ने अपनी बात रखी और नए जमाने पर कटाक्ष किया…

ओटीपी लेकर मुझे टोपी पहना गया,

चोरी के तरीके कितने आसान हो गये।

गोष्ठी के समापन में श्री प्रमोद तिवारी ने विगत को याद किया …

बूढ़ी दादी नानी के आंचल में वो ठंडी छांव बहुत ,

गोबर से लिपा पुता वो घर देहरी पर दीपक होता था।

आँगन में हाथ बुनी रस्सी की खटिया भी एक होती थी।

होता डुलार भी एक वहां और आले चिमनी होती थी

आंखों में पानी होता था और बोली शीरी होती थी।

सभी ने अभियंताओ के साहित्यिक अवदान को रेखांकित किया। अभियंता रचनाकारों के व्यंग्य, कविता, नाटक संग्रह के प्रकाशन के सिवाय अन्य योजनाओं पर चर्चा हुई। आभार, धन्यवाद ज्ञापन के साथ होटल कान्हा कैसल एमपी नगर में आयोजित यह गोष्ठी संपन्न हुई।

साभार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

संपर्क – ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८  ईमेल – [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माणसंच माणसं… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ माणसंच माणसं… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

माणसं सगळी हुशार असतात

संधी मिळताच डोक्यावर बसतात

भलाबुरा अनुभव घेऊन

नको तिथं फिदीफिदी हसतात

 

माणसं सगळीच संत नसताना

काही उपद्रवी काही परोपकारी असतात

माणसं माणसांना जीव लावतात

मन लाऊन वाचली की सगळीच कळतात

 

कोणी कोणाला जोखत असतात

स्वतःच मोठेपण मिरवून घेतात

हरवत किंवा जिंकत बसतात

वसवत जातात उसवत जातात

 

नखरे करतात हवं तिथं फिरतात

कधी बावरतात कधी सावरतात

काळाला मात्र सारीच घाबरतात

आलाकी सोडून पसार होतात

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 139 ☆ अभंग – मोरपंख धारी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 139 ? 

☆ अभंग – मोरपंख धारी… ☆

मोरपंख धारी, श्रीकृष्ण मुरारी

भक्तांचा कैवारी, घन:शाम.!!

 

अष्टविध युक्त, ब्रह्मचर्य शुद्ध

विशेष विशुद्ध, मनोहर.!!

 

अर्जुन सारथी, कृष्ण दामोदर

झालयां विभोर, मन माझे.!!

 

कवी राज म्हणे, पितांबर धारी

वाजवी बासरी, वनमाळी.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ हिंदुनृसिंह…. स्व. वि. दा. सावरकर ☆ रसास्वाद – सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? काव्यानंद ?

☆  हिंदुनृसिंह…. स्व. वि. दा. सावरकर ☆ रसग्रहण – सुश्री शोभना आगाशे ☆

☆  हिंदुनृसिंह…. स्व. वि. दा. सावरकर ☆

हे हिंदुशक्ति-संभूत-दिप्ततम-तेजा

हे हिंदुतपस्या-पूत ईश्वरी ओजा

हे हिंदुश्री-सौभाग्य-भूतिच्या साजा

हे हिंदुनृसिंहा प्रभो शिवाजीराजा

करि हिंदुराष्ट्र हें तूतें । वंदना

करि अंतःकरण तुज, अभि – नंदना

तव चरणिं भक्तिच्या चर्ची। चंदना

गूढाशा पुरवीं त्या न कथूं शकतों ज्या

हे हिंदुनृसिंहा प्रभो शिवाजीराजा

 

हा भग्न तट असे गडागडाचा आजी

हा भग्न आज जयदुर्ग आसवांमाजी

ही भवानीची ह्या पुन्हा गंजली धारा

ती म्हणुनि भवानी दे न कुणा आधारा

गड कोट जंजिरे सारे । भंगले

जाहली राजधान्यांची । जंगले

परदास्य – पराभवि सारी । मंगले

या जगती जगू, ही आज गमतसे लज्जा

हे हिंदुनृसिंहा प्रभो शिवाजीराजा

 

जी शुद्धि हृदाची रामदास शिर डुलवी

जी बुद्धि पांच शाह्यांस शत्रुच्या झुलवी

जी युक्ति कूटनीतींत खलांसी बुडवी

जी शक्ति बलोन्मत्तास पदतलीं तुडवी

ती शुद्धि हेतुची कर्मी । राहुं दे

ती बुद्धि भाबड्या जिवां । लाहुं दे

ती शक्ति शोणितामाजीं । वाहुं दे

दे मंत्र पुन्हा तो दिले समर्थें तुज ज्या

हे हिंदुनृसिंहा प्रभो शिवाजीराजा

 –  कवी – वि. दा. सावरकर

☆ रसग्रहण – सुश्री शोभना आगाशे ☆

प्रस्तुत कविता स्वातंत्र्यवीर सावरकरांनी ते रत्नागिरी येथे स्थानबद्ध असताना १९२६ मधे लिहिली आहे. (ते शाळकरी असताना लिहिली असा कांही लोकांचा गैरसमज आहे.)

या कवितेत प्रखर बुद्धिमंत सावरकरांनी फारशा प्रचलित नसलेल्या पण चपखल अशा मराठी व संस्कृत शब्दांचा वापर केला आहे. उदा. संभूत, दिप्तितम, चर्ची, गूढाशा, शोणित इ. या कवितेची रचना भूपतिवैभव या मात्रावृत्तात केलेली आहे.

छत्रपती शिवाजीमहाराज हे भारतीयांचे स्फूर्तिस्थान आहेतच पण त्यांच्याविषयी सावरकरांसारखा प्रखर देशभक्त जेंव्हा स्फुर्तीगीत लिहितो तेंव्हा ते महाराजांच्या भवानी तलवारीसारखं तेजःपुंज व धारदार होतं. पं. हृदयनाथ मंगेशकर व गानकोकिळा लता मंगेशकर या द्वयीने हे गीत स्फूर्तिदायक व रोमांचक बनवण्यात मोलाचं योगदान दिलेलं आहे. त्यांचे सूर व संगीत इतकं अर्थवाही आहे की गीत ऐकल्यानंतर कुणीही भारतीय रोमांचित झाल्याशिवाय रहात नाही. या तीन कडव्यांच्या गीताच्या पहिल्या कडव्यात महाराजांचं स्तुतीपर वर्णन करून त्यांना वंदन केलेलं आहे. दुसर्‍या कडव्यात हिंदुस्थानातील सद्यस्थितीचं (त्या काळातलं -१९२६ मधलं) वर्णन केलं आहे आणि तिसऱ्या कडव्यात महाराजांकडं मागणं मागितलेलं आहे. जेणेकरून आपला स्वातंत्र्य लढा यशस्वी होईल.

पहिल्या कडव्यात ते महाराजांचं वर्णन ” हिंदूंच्या शक्तीतून प्रकट झालेलं तेज, हिंदूंच्या वर्षानुवर्षांच्या तपस्येचं फलित म्हणून जन्मलेला तेजःपुंज ईश्वरी अवतार, हिंदुदेवतेचा सौभाग्यालंकार, नरसिंहाप्रमाणे दुष्टांचे निर्दालन करण्यासाठी अवतरलेला प्रभूचा अवतार” असं केलं आहे. आणि ते म्हणतात हे हिंदुराष्ट्र तुला वंदन करीत आहे, चंदनाचा लेप लावून तुझं पूजन करीत आहे, अंतःकरणपूर्वक अभिनंदन करीत आहे. सावरकर म्हणतात, ” माझ्या मनात ज्या गूढ आशा आहेत त्या मी तुला कथन करू शकत नाही. तरी त्या ओळखून, हे नृसिंहाचा अवतार असणाऱ्या शिवाजीराजा माझ्या या इच्छा तू पूर्ण कर. ” ही कविता लिहिली तेंव्हा सावरकर स्थानबद्धतेत असल्यामुळे स्वातंत्रप्राप्तीची इच्छा प्रकट करू शकत नव्हते म्हणून ‘गूढाशा’ हा शब्द वापरला आहे.

दुसर्‍या कडव्यात परकीय आक्रमणामुळे देशाच्या झालेल्या दुरावस्थेचं वर्णन केलं आहे. महाराजांनी निर्माण केलेल्या, जतन केल्या गड किल्ल्यांची अवस्था सांगितली आहे. कुठे तट भंगले आहेत, गड, कोट, किल्ले, जंजिरे भग्न पावले आहेत, राजधान्यांची जंगले झाली आहेत, साऱ्या मंगलगोष्टी परदास्यामुळे पराभूत झाल्या आहेत. महाराजांसारखे वीरपुरूष नसल्यामुळे भवानी तलवारीची धार गंजली आहे. अशातच आई भवानीही आधार देत नाही. अशा या जगात जगणं अत्यंत लज्जास्पद झालं आहे.

तिसऱ्या कडव्यात सावरकर म्हणतात, ” ज्या शुद्ध हृदयाच्या राजाला रामदास स्वामींनी आपलंसं केलं होतं, ज्या बुद्धिमान राजाने विजापूरची आदिलशाही, अहमदनगरची निजामशाही, गोवळकोंड्याची कुतुबशाही, बिदरची बरीदशाही व वऱ्हाडची इमादशाही अशा पाच शाह्यांना ‘त्राहि भगवान’ करून सोडलं होतं, जो राजा कूटनीतीचा युक्तीने उपयोग करून, वेळप्रसंगी तह करून, बलवान शत्रुला गाफील ठेऊन पराभूत करीत असे ; त्या राजाची अंतःकरणाची शुद्धी आमच्या कृतीत उतरू दे. ती बुद्धी माझ्या भाबड्या देशबांधवांना लाभूदे. ती शक्ती आमच्या नसानसातून (रक्तातून) वाहू दे. हे राजा, जो स्वराज्याचा मूलमंत्र तुला समर्थ रामदास स्वामींनी दिला, तो मंत्र तू आम्हाला दे. म्हणजे त्या मंत्रसामर्थ्याने, ती शक्ती व युक्ती वापरून, त्या शुद्धी व बुद्धीच्या योगाने आम्ही हिंदुस्थानचे बांधव परकियांना येथून हुसकावून स्वातंत्र्यप्राप्ती करून घेऊ. “

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ स्वदेशीचा जादू… भाग – ५ ☆ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे ☆

श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

? विविधा ?

☆ स्वदेशीचा जादू… भाग – ५ ☆ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे  

समृद्ध प्राचीन वारसा – ग्रामीण उद्योग

हेमाडपंती मंदिर पाहिल्यानंतर पिंकी आणि राजेश खुशीत होते. त्यातच खूप दिवसांनी उसाचा रस प्यायल्याने त्यांना आनंद झाला होता. गाडी घनदाट अशा अभयारण्यातून जात असल्याने प्रवासाची मजा काही औरच होती. एका ठिकाणी विश्रांतीसाठी जागा पाहून श्यामरावांनी गाडी थांबवली. ते ठिकाण डोंगरापासून अगदी जवळ होते. झाडांच्या गर्द सावलीत मध्यभागी मोकळी जागा होती. समोरच्या बाजूस असलेल्या भव्य डोंगररांगा लक्ष वेधून घेत होत्या. निरनिराळ्या पक्ष्यांचे आवाज कानावर पडत होते. मधूनच झाडांवर असलेली माकडे इकडून तिकडे मजेत उड्या मारीत होती. आपल्या छोट्या पिल्लाला छातीशी कवटाळून माकडिणी सुद्धा झाडांवर उड्या घेत होत्या. ते सगळे पाहून पिंकी आणि राजेशला खूपच गंमत वाटली. त्यांनी आपल्याजवळील बिस्किटे, घरून आणलेल्या नारळाच्या वड्या त्यांना खाण्यासाठी दिल्या.

मोकळी हवा, गर्द झाडी, प्रदूषणरहित आणि शांत वातावरण मन प्रसन्न करीत होते. श्यामरावांनी आपल्याजवळील कॅमेऱ्याने भोवतालच्या निसर्गाचे सुरेख चित्रीकरण केले. आता सगळ्यांनी झाडांच्या सावलीत असलेल्या मोकळ्या जागी सतरंजी टाकून जेवणाचा आस्वाद घ्यायचे ठरवले. सगळ्यांनाच भूक लागली होती. श्यामलाताईंनी घरून निघताना जेवणाची सगळीच तयारी करून घेतली होती. तांबड्या भोपळ्याच्या दशम्या, पोळ्या, वांग्याचं भरीत, शेंगदाण्याची चटणी, घरीच लावलेले मस्तपैकी दही, जोडीला नारळाच्या वड्या असा फर्मास बेत होता. रोज डायनिंग टेबलवर जेवण घेऊन कंटाळलेल्या मुलांना हे वनभोजन फारच आवडले.

श्यामराव म्हणाले, ‘ पिंकी आणि राजेश, जरा नीट ऐका मी काय म्हणतो ते ! आपण परत जाताना आलो त्याच रस्त्याने जायचं की जवळच एक छानसं खेडं आहे, त्या बाजूने जायचं ? तिथे माझा सोपान म्हणून एक मित्र राहतो. त्यालाही भेटता येईल. जाताना तुम्हाला रस्त्याने शेतं पण बघायला मिळतील. ‘ 

‘अहो बाबा, विचारताय काय ? आम्हाला तर ते खेडेगाव, शेती बघायला आवडेलच. आपण तिकडूनच जाऊ. ‘ पिंकी म्हणाली. राजेशने तर आज मज्जाच मज्जा म्हणून टाळ्या वाजवल्या. सगळे गाडीत जाऊन बसले. श्यामलाताईंनी आपल्या मोबाईलमध्ये जुनी गाणी लावली होती. त्यांना जुनी मराठी गाणी खूप आवडायची. ‘ ऐरणीच्या देवा तुला ठिणगी ठिणगी व्हाऊ दे…’ या गाण्याचा व्हिडीओ त्या पाहत होत्या. पिंकी आणि राजेश कुतूहलानं आई काय पाहतेय हे बघत होते. त्या गाण्यातील लोहाराचा भाता, ऐरण मुलं कौतुकानं बघत होती. गाणं संपलं. पिंकी म्हणाली, ‘ आई, हे गाणं किती छान आहे नाही. आणि गाण्यातली माणसं किती साधी आहेत ! ‘ आई म्हणाली , ‘ पिंकी, अग हे गाणं ज्या चित्रपटात आहे, त्या चित्रपटाचं नावसुद्धा ‘ साधी माणसं असंच आहे. ‘

‘अरे वा, किती छान ! ‘ पिंकी म्हणाली.

‘आई, हे गाणं लता मंगेशकर यांनी गायलं आहे ना ? ‘ राजेश म्हणाला.

‘हो, बरोबर आहे राजेश. पण आणखी एक गंमत आहे बरं का ! ‘

‘कोणती गंमत, आई ? सांग ना . ‘ राजेश म्हणाला.

‘अरे या गाण्याचं संगीत ऐकलंस ना ! किती छान आहे. हे संगीत कोणी दिलं माहिती आहे का ?

‘कोणी तरी प्रसिद्ध संगीतकार असतील त्या काळातले, ‘ पिंकी मध्येच म्हणाली.

‘बाळांनो, तुम्हाला आश्चर्य वाटेल पण या गाण्याच्या संगीतकार लतादीदीच आहेत. त्यांनी ‘आनंदघन ‘ या नावाने काही चित्रपटांना संगीत दिलं होतं ‘ श्यामलाताई म्हणाल्या.

तेवढ्यात गाडीने एक वळण घेतले आणि दूरवर गावाच्या खुणा दिसायला लागल्या. थोडं अंतर गेल्यानंतर एका मोठ्या कमानीतून गाडी आत शिरली. एका मोठ्या चिंचेच्या झाडाखाली शयमरावांनी गाडी पार्क केली. या गावात श्यामरावांचा बालमित्र सोपान राहत होता. श्यामराव आल्याचं कळताच सोपान मोठ्या आनंदानं त्यांच्या स्वागतासाठी पुढे झाला. दोन्ही मित्रांची खूप दिवसांनी भेट होत होती. दोघांनीही एकमेकांना घट्ट मिठी मारली.

श्यामराव म्हणाले, ‘ अरे सोपान, ही माझी मुलं. त्यांना एखादं खेडेगाव बघावं असं वाटत होतं. म्हणून  तुझ्याकडे हक्काने आणले त्यांना. त्यांना जरा गावातून फिरवून आणू या. ‘

‘अरे हो पण आधी आपण घरी जाऊ. तुम्ही सगळे फ्रेश व्हा. मग जाऊ की मुलांना गाव दाखवायला. ‘ सोपान म्हणाला.

सोपानच घर म्हणजे एक जुना वाडा होता. दगडी बांधकाम आणि लाकडाचं छत. घरात स्वच्छता, उजेड भरपूर होता. बाहेरच्या उन्हाचा अजिबात ताप जाणवत नव्हता. निर्मलावहिनींनी सगळ्यांना घर दाखवलं. निर्मलावहिनी सगळ्यांसाठी गूळ घातलेलं कैरीचं पन्हं घेऊन आल्या. सगळ्यांच्या छानपैकी गप्पा झाल्या. श्यामलाताई मुलांना म्हणाल्या, ‘ बाळांनो, सोपानकाकांचं घर नीट पाहिलंत का ? ‘

‘हो आई,’  पिंकी आणि राजेश म्हणाले.

‘बाळांनो, तुमच्या एक गोष्ट लक्षात आली का ? सोपानकाकांकडे फ्रिज नाही. ‘ श्यामलाताई म्हणाल्या. ‘ ‘ अग आई, खरंच की. ही गोष्ट लक्षातच आली नाही आमच्या. ‘ पिंकी म्हणाली.

बाळांनो, आता आपण कैरीचं पन्हं घेतलं. किती चवदार होतं ते ! थम्स अप, कोका कोला,पेप्सी यासारखी कृत्रिम शीतपेयं पिण्यापेक्षा घरीच बनवलेलं कैरीचं पन्हं, लिंबाचं सरबत, कोकम सरबत, यासारखी पेयं शतपटीनं आरोग्यदायी असतात. कृत्रिम शीतपेयात मोठ्या प्रमाणावर साखर आणि घातक रसायने असतात. शिवाय फ्रिजपेक्षा माठातील पाणी आरोग्याला अतिशय चांगले असते. ‘

‘व्हय व्हय पोरांनो, तुमची आई सांगते ते बरोबर आहे बरं का. आणि एक सांगतो. आमच्याकडे कोणीच चहा घेत नाही. गोठ्यात गाई आहेत. त्यांचे ताजे दूध असते. घरीच बनवलेलं ताक, दही आम्ही वापरतो. शेतातील ताज्या भाज्या, फळे आम्ही खातो. फ्रिजची गरजच नाही. ‘ श्यामराव हसत हसत म्हणाले, ‘ हे आमच्या सोपानरावांच्या उत्तम तब्येतीचं रहस्य आहे म्हणायचं. ‘

‘व्हय की. श्यामभाऊ आम्ही काही मोठा आजार असला तरच शहरात डॉक्टरकडे जातो. नाहीतर आम्हाला साधी गोळी बी म्हाईत नाय. ‘

मग सोपानकाका म्हणाले, ‘ चला रे मुलांनो. आमचं गाव दावतो तुम्हाला. तुमच्या शहरासारखं मोठं नाही बरं का ! बघा, आवडतं का तुम्हाला. ‘

श्यामराव म्हणाले, ‘ सोपान, अरे आम्ही पण येतो की. आपण सगळेच जाऊ. ‘

श्यामलाताई पण तयारच होत्या. सगळेच निघाले. गावात छोटी छोटी घरं होती. काही मातीची, काही सिमेंटची. काही घरे उंच अशा दगडी ओट्यावर होती. मुलांना मजा वाटत होती. गावाच्या एका कोपऱ्यात रामू लोहार राहत होता. एका उंच दगडी ओट्यावर त्याचे घर होते. मुले तिथे पोहोचली तेव्हा रामू कामच करीत होता. एका हाताने तिथे असलेला भाता खालीवर होत होता. त्याच्या हवेने भट्टीतील निखारे लालभडक फुलले होते. त्या भट्टीत त्याने काहीतरी लोखंडाची वस्तू ठेवली होती. ते सगळं पाहून मुलं काही काळ तिथं थबकली.

सोपानकाका म्हणाले, ‘ हे बघायचं का रे बाळांनो. ‘

पिंकी, राजेश दोघेही एकदम हो म्हणाले. शहरात त्यांना असं काही बघायला मिळत नव्हतं. पिंकीला आईने मघाशी लावलेलं गाणं आठवलं. ती म्हणाली, ‘ आई, आपण त्या गाण्यात पाहिलं, अगदी तसंच आहे ना इथे ! ‘

‘अगदी बरोबर आहे पिंकी. आता तू आणि राजेश बघा ते काका कसं काम करताहेत ते ! ‘ आई म्हणाली.

रामुकाकांनी मग भट्टीतील ती वस्तू बाहेर काढली. ती तापून चांगलीच लाल झाली होती. रामुकाकांनी एका मोठ्या सांडशीत पकडून ती ऐरणीवर ठेवली आणि आपल्याजवळ असलेल्या मोठ्या लोखंडी घणाने ते त्यावर घाव घालू लागले. तसतसा त्या वस्तूला आकार यायला लागला. कोणीतरी आज आपल्याकडे आपलं काम बघायला आलं आहे याचा रामुकाकांना कोण आनंद झाला होता. ‘ पोरांनो, वाईच बसा की. समदं नीट बघा. हेच आमच्या रोजीरोटीच साधन, ‘

‘काका, तुम्ही काय बनवताय ? ‘ राजेशनं विचारलं.

‘पोरा, आता शेतीचा हंगाम सुरु व्हईल. मंग वावरात कामासाठी निंदणीसाठी, कंपनीसाठी विळे, खुरपं लागत्यात. त्येच मी बनवतो आहे आता. शेतीसाठी, बैलगाडीसाठी लागणाऱ्या वस्तू बी बनवतो म्या.बैल, घोडे यांच्या पायामंदी नाल ठोकावी लागते. त्ये बी बनवतो. घरात लागणारी विळी, खलबत्ता, अडकित्ता आणि काय काय समदं बनवतो म्यां. पण आता आमचा धंदा लई कमी झालाय. लोकं मोठ्या गावात जाऊन वस्तू घेत्यात. ‘

मग रामूने आपण बनवलेल्या वेगवेगळ्या वस्तू मुलांना दाखवल्या. मुलं मोठ्या कौतुकानं ते पाहत होती. कारखान्यात बनणाऱ्या वस्तूपेक्षा एखादा कारागीर जेव्हा हाताने वस्तू तयार करतो, तेव्हा त्याला किती मेहनत घ्यावी लागते याची जाणीव मुलांना ते पाहून झाली. राजेश आणि पिंकीच्या मनात खूप सारे प्रश्न होते. श्यामलाताई म्हणाल्या, ‘ बाळांनो, आता सगळं व्यवस्थित बघून घ्या. मग जाताना मी तुम्हाला आणखी छान छान माहिती देणार ! ‘

आपल्या छोट्याशा बागेत काम करण्यासाठी मग श्यामरावांनी त्याच्याकडून एक कुदळ, एक फावडे आणि एक विळा विकत घेतला. रामूलाही खूप छान वाटले.

‘ मुलांनो, झालं का तुमचं समाधान ? आता आपण दुसरीकडे जाऊ. ‘ सोपानकाका म्हणाले.

मग सगळेच सोपानकाकाबरोबर पुढे निघाले. राजेश आणि पिंकीला आता सोपानकाका आणखी काय दाखवतात याची उत्सुकता होती. 

क्रमशः… 

©️ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

चाळीसगाव.

 प्रतिक्रियेसाठी ९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ Hospitalisation – एक असेही जुगाड… ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

श्री मकरंद पिंपुटकर

? जीवनरंग ❤️

☆ Hospitalisation – एक असेही जुगाड… ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

“पारस, मारू एक काम कर ने, ” जुलै महिना चालू होता आणि अहमदाबाद येथील सान्नीध्य हॉस्पिटलच्या डॉ पारस यांना त्यांच्या एका डॉक्टर मित्राचा – जिग्नेशचा फोन आला होता.

“माझे दोन NRI पेशंट आहेत, ते ऑक्टोबर महिन्यात भारतात आहेत आणि त्यांना फुल बॉडी चेकप करायचे आहे. त्यांना एक दिवसासाठी admit करून घे, त्यांच्या रिकाम्या पोटीच्या fastingवाल्या टेस्टस् तू सकाळी करून घे, दुपारी १२ – १ पर्यंत ते रूममध्ये असतील, तोपर्यंत जेवणानंतरच्या टेस्टस् उरकून घे. ते झालं की मग दिवसभर त्यांना काय आपल्या शहरात फिरायचं असेल, त्यांची कामं करायची असतील ती ते करून घेतील, संध्याकाळी – रात्री आले, विश्रांती घेतली की दुसऱ्या दिवशी सकाळी तपासण्यांचे निकाल घेऊन ते डिस्चार्ज घेतील. हो जाएगा ये ?”

यात नाकारण्यासारखं काहीच नव्हतं, रूम्स उपलब्ध होत्या. मित्राने डॉ पारस यांना त्या दोघांचे फोन नंबर पाठवले, पारस यांनी त्या नंबरवर चाचण्यांची नावे, त्यांचे दर, आधी किती वेळ काही खायचं नाही, हॉस्पिटलमधील वेगवेगळ्या रूमचे दर वगैरे सर्व माहिती पाठवली.

पेशंटकडून त्यांची नावं, कोणत्या तारखेला टेस्ट करायच्या, कोणत्या टेस्ट करायच्या, कोणती रूम हवी ही सर्व माहिती व त्यानुसारचे पूर्ण पेमेंट आले, हॉस्पिटल रूम बुक झाली, पेशंटना आणण्यासाठी विमानतळावर अँब्युलन्स पाठवण्याची नोंद झाली, हे सर्व पारस यांनी मित्राला कळवलं आणि पारस यांच्या दृष्टीने तो विषय संपला.

पुढच्या आठवड्याभरात प्रत्यक्ष पेशंटकडून वा डॉक्टर मित्रांमार्फत अशा आणखी दोन तीन admission बद्दलच्या पृच्छा आल्या आणि नंतरही येतच गेल्या. सर्वच चौकशा ऑक्टोबर महिन्यासाठीच्या होत्या, आणि नोंदी नीट तपासल्यावर कळलं की या सर्व चौकशा १५ ऑक्टोबरला admit होण्यासाठीच होत्या.

काही NRI होते तर काही भारतातूनच वेगवेगळ्या गावांतून शहरांतून येणारे पेशंटस् होते. बघता बघता त्या तारखेच्या हॉस्पिटलच्या सर्व रूम बुक झाल्या.

रविवार असल्याने लोकांना सोयीचे असेल असं आधी डॉ. पारस यांना वाटलं, पण देशविदेशातून अनेकांना, तब्बल दोन महिन्यांनंतरच्या एकाच ठराविक दिवशी आपल्या आरोग्याची चिंता का वाटणार आहे हा प्रश्न डॉक्टरांच्या आकलन शक्तीपलीकडचा होता. त्यांच्या डोक्याला या प्रश्नाचा चांगलाच भुंगा लागला. न राहवून, दोन दिवसांनी जेव्हा डॉ. जिग्नेशची त्यांची भेट झाली, तेव्हा त्यांनी हा प्रश्न विचारलाच,

“ए जिग्नेस, आ पंदरमा अक्तूबरनी आ सू वात छे ? दूनियाभरसे आकर उसी दिन लोग admit हो रहे हैं ? मेरा तो उस दिन हॉस्पिटल फुल हो गया है. “

जिग्नेश पारसच्या निरागसतेवर गडगडाटी हसला, म्हणाला, ” पारस, कभी तो मेडिकल जर्नलके अलावाभी कुछ पढा करो. अरे इथे राहूनही तुला जर १५ ऑक्टोबर २०२३ चे दिनमहात्म्य माहीत नसेल तर कसं व्हायचं ?”

पारस, आधी होता त्यापेक्षा जास्त, बुचकळ्यात पडला.

“अक्तुबरसे क्रिकेट वर्ल्ड कप शुरू हो रहा है, पारस, और पंदरा तारीख को अपने शहरमें भारत पाकिस्तान का डे नाईट मॅच है. सारे हॉटेल्स, जो मन मे आए वो रेट्स बता रहे हैं, जो रूम पाच दस हजारका है, उसके लिये पचास हजार – लाख रुपये बोल रहे हैं और लोग उतने पैसे दे भी रहे हैं. “

या सगळ्या प्रकारात कोण्या एका अनामिक सुपीक डोक्यात, या अशा जुगाडाच्या आयडियेची, स्वार्थ आणि परमार्थ एकत्र साधणारी ही कल्पना आली…..

… दुपारी २:३० ते रात्री जवळजवळ १२ पर्यंत सामना असणार. त्यामुळे सकाळच्या वेळात आरोग्याच्या चाचण्या करून घ्यायच्या, झोपण्यापुरते हॉस्पिटलमध्ये यायचं आणि दुसऱ्या दिवशी परत जायचं, तेही हॉटेलच्या दरांपेक्षा अगदीच माफक दरात – जेमतेम दहा हजारांत. मॅच बघणंही होईल आणि हेल्थ चेकअपही……. जिग्नेश सांगत होता, आणि पारस तोंडाचा आ वासून ऐकत होता.

विमानतळावर लोकांना receive करण्यासाठी तऱ्हेतऱ्हेच्या गाड्या येतात, मात्र १५ ऑक्टोबरला अँब्युलन्सने विमानतळ सोडणारे प्रवासी खूपच जास्त असतील असा विचार त्यांच्या मनात आला, आणि ते खुदकन हसले.

© श्री मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड, पुणे.  मो 8698053215

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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