(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ आलेख – धर्म स्थापना के लिए ईश्वर के अवतार… ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
श्रीकृष्ण मुख से निकला वेदामृत ही ‘गीता’…
धर्म क्या है ? धर्म की हानि होने पर उसकी पुनर्स्थापना के लिए ईश्वर को समय-समय पर अलग-अलग रूपों और नामों से क्यों प्रकट होना (जन्म लेना) पड़ता है ? क्या द्वापर युग में परमेश्वर ने ही भगवान श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होकर ‘वेदों’ में निहित ‘धर्म’ का ज्ञान गीता के माध्यम से अर्जुन को दिया था ? इसे समझने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि वेद क्या हैं ? और वेदों में क्या है ? वास्तव में ‘धर्म’ शब्द बहुत व्यापक अर्थ समेटे हुए है। विविध शक्तिपुंजों / ईश्वर पर श्रद्धा-भक्ति, उपासना-आराधना, पूजा-पाठ तो धर्म है ही, सद्गुण, सदाचरण, न्याय, अहिंसा, कर्त्तव्य तथा बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का मार्ग भी मनुष्य का परमधर्म है। यह तमाम जानकारी वेदों में निहित है। वेद शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘विद’ से हुई है। वेद का अर्थ है ‘ज्ञान के ग्रन्थ’। विद् से ही विद्या, विद्वान और ज्ञान शब्द बने। आत्मोत्थान-समाजोत्थान के लिए ‘वेद’ सनातन मार्ग दर्शक हैं। ‘वेद’ श्रीनारायण का दिया हुआ दिव्य ज्ञान है। जब-जब ईश्वर इस सृष्टि को रचता है तब-तब परमेश्वर के द्वारा इस ज्ञान का प्रादुर्भाव ब्रह्मा के हृदय में होता है। ब्रह्मा ही सृष्टि के प्रथम देव हैं। इनसे यह ज्ञान ऋषियों-गुरूओं को और फिर शिष्यों तथा समाज को पहुँचता आया है। सम्भवतः इसी कारण वेदों को ‘श्रुति’ भी कहा जाता है। महर्षि भगवान व्यास ने इस ज्ञान को लिपिबद्ध किया। वेद-ज्ञान को चार भागों में बांटा गया, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों के तत्व ज्ञान को वेदांत या उपनिषद कहते हैं। चारों वेदों सहित ‘गीता’ में भी योग शब्द का प्रयोग मुख्यतः संयोग, प्रयत्न, सिद्धि और विशिष्ट शक्ति के रूप में किया गया है।
शक्ति की उपासना-साधना और ज्ञान से प्राप्त सामर्थ्य का दुरूपयोग भी सदा से होता आया है। शक्ति सम्पन्न लोग जब निरंकुश होकर समाजोत्थान के मार्ग से विचलित हो जाते हैं और वेदों द्वारा वर्जित अथवा वेद विरूद्ध कार्य करते हुए सामाजिक व्यवस्था तहस-नहस कर अत्याचार-अनाचार और अराजकता की हदें पार कर देते हैं, तब समाज को अनीति की पोषक निरंकुश शक्तियों से मुक्त कर पुनः धर्म और सुनीति की स्थापना के लिए प्रभु को जन्म लेना पड़ता है। द्वापर युग में निर्मित इन्हीं परिस्थितियों के समाधान के लिए परम प्रभु को श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लेना पड़ा। श्रीकृष्ण ने कंस सहित अनेक अत्याचारी राजाओं और उनके अनुचरों को समाप्त किया। भौमासुर का वध कर सोलह हजार राजकुमारियों को मुक्त कराया। निर्वस्त्र नहाती युवतियों को मर्यादा का पाठ पढ़ाया। अनेक प्रयत्नों के बाद भी जब कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध (महाभारत) होना निश्चित हो गया तब श्रीकृष्ण ने स्वयं शस्त्र न उठाने की बात कहते हुए अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया। युद्धभूमि में अर्जुन जब विपक्ष में खड़े स्वजनों को देखकर विचलित हो गया और क्षत्रिय धर्म-कर्त्तव्य भूलकर उसने युद्ध से इन्कार करते हुए अपने शस्त्र रख दिए तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो वेद सम्मत उपदेश दिए वही गीता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को तरह-तरह के उदाहरणों से धर्म का मर्म बताकर समझाते हैं कि धर्मनीति, अधिकार और कर्त्तव्य का पालन करते हुए युद्ध से भी पीछे नहीं हटना चाहिये।
‘अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सड्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।।’
(यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।)
सनातन धर्म में भाग्य को प्रधानता नहीं दी गई है। वेद, उपनिषद और गीता तीनों ही कर्म (प्रयत्न) का महत्व बताते हुए इसे कर्त्तव्य मानते हैं। यही पुरुषार्थ है। धर्म और नीतिशास्त्रों में बताया गया है कि कर्म के बिना गति नहीं। वैदिक मान्यताओं के अनुरूप ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ।’ मनुष्य जो भी अच्छा-बुरा अर्थात् पुण्य व पाप कर्म करता है उस कर्म का फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कर्म को प्रधान मानते हुए लिखा है – ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करे तो तस फल चाखा।’ वेदों, शास्त्रों, पुराणों सहित सभी ग्रन्थों में ईश्वर प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं। इनमें सबसे ऊपर कर्म को रखा गया है, द्वितीय ज्ञान और तृतीय भक्ति व उपासना। विराट ईश्वर के अवतार श्रीकृष्ण ने भी ‘गीता’ में उन्हें प्राप्त करने के यही तीन मार्ग बताए हैं। ऋग्वेद भी कहता है ‘सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् ।’ साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर पूर्वज चले हैं।
जीवन में कर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। हमें फल प्राप्ति की चिंता न करते हुए कार्य करते रहना चाहिये। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है –
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’
यहाँ श्रीकृष्ण जी के कथन में यह निहित है कि यदि हम लक्ष्य या उद्देश्य प्राप्ति के लिये कर्म करते जाएंगे तो उसका फल तो हमें मिलना ही है। अतः कर्म करें, फल प्राप्ति को लेकर निश्चिंत रहें। कहा गया है कि ‘बुद्धिः कर्मानुसारिणी’ अर्थात बुद्धि भी कर्म का अनुसरण करती है। जब बुद्धि और कर्म का योग होता है तो सफलता अवश्य प्राप्त होती है।
उपनिषद के अनुसार ‘शरीरमाद्यां खलु धर्मसाधनम्।’ शरीर सभी धर्मों/दायित्वों को पूरा करने का साधन है। इसी को कृष्ण गीता में कहते हैं –
‘नियंत कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि चते न प्रसिद्धयेद कर्मणः।।’
(तू शास्त्र अनुसार कर्त्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।)
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं –
‘न मे पार्थस्ति कर्त्तव्यं जिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।’
(हे अर्जुन मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्त्तव्य है और न ही कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में रत रहता हूँ।)
वेदों में वर्णित ‘यज्ञ’ शब्द की श्रीकृष्ण जी ने गीता में विस्तृत सरल व्याख्या कर जीवन में यज्ञ और हवन की सार्थकता बताई है – भगवान श्रीकृष्ण ने पूजन रूप, परमात्मा रूप, आत्म रूप, संयम रूप, इन्द्रिय रूप, तपस्या रूप, योगरूप सहित द्रव्य संबंधी यज्ञ, स्वाध्याय रूप ज्ञान-यज्ञ का उल्लेख किया है। उन्होंने ज्ञान-यज्ञ को सभी यज्ञों से महत्वपूर्ण बताते हुए कहा है कि –
‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।
अर्थात् इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। इस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा को पा लेता है।
श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में वेद विधानों को इस तरह मान्य किया है –
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्र्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान।।’
तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोमरस को पीने वाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।
परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने सत्पुरुषों को आश्वासन एवं दुर्जनों को चेतावनी देते हुए गीता में कहा है –
‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम्धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।।’
(हे भारत ! जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का बोलबाला बढ़ता है, तब-तब मैं धर्म के उत्थान के लिए लोगों के सम्मुख साकार रूप में प्रकट होता हूँ।
‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।’
(साधु/सज्जन पुरुषों (लोगों) का उद्धार करने के लिए, पाप / दुष्कर्म करने वालों का विनाश करने और धर्म को अच्छी तरह से स्थापित करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।) (यहाँ धर्मसंस्थापनार्थाय का अर्थ वेदों में वर्णित धर्म-ज्ञान ही है।)
श्रीमद्भगवद्गीता के इन श्लोकों में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से पूरे संसार के समक्ष समय-समय पर अपने जन्म लेने का कारण और अपनी असीमित शक्ति को भी दर्शा दिया है।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक अति सुंदर व्यंग्य – “धनिया जैसे संगी साथी”।)
☆ व्यंग्य – धनिया जैसे संगी साथी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
हमारे साथ एक भैया जी काम करते थे सब लोग उन्हें ‘हरी धनिया’ कहते थे, उन्हें पता ही नहीं होता है कि शाखा में क्या चल रहा है। हर काम को टालने की आदत,और जब काम सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता तो उनके अंदर श्रेय लेने की हड़बड़ी मच जाती। बाॅस के केबिन जाकर मक्खन लगाते हुए कहते इतनी आसानी से सब काम बढ़िया निपट गया। साथ वाले मंद मंद मुस्कुराते, और कहते ‘हरी धनिया’ में यही तो खासियत होती है कि सब्जी बन जाने के बाद उसे परोसने के समय डाला जाता है,और फिर सब्जी के सारे स्वाद का श्रेय उसे मिल जाता है। एक दिन बाॅस ने हमसे पूछ लिया कि तुम्हारे साथी को ‘हरी धनिया’ कहकर सब लोग क्यों चिढ़ाते हैं, तो हमने बाॅस को सब्जी बनने के बाद हरी धनिया का रोल समझाया तो साहब ने जोरदार ठहाका लगाया, और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। फिर धनिया महराज ने उन्हें जूता सुंघा कर कुर्सी में बैठाया।
एक दूसरी शाखा में एक चतुरा मिला। केवल नाम के लिए चुटकी भर काम में हाथ डालता था और साहब के हाथ में चाटुकारिता की हींग लगाकर गोपनीय रिपोर्ट में सबसे ज्यादा अंक प्राप्त कर लेता था।
अपन तो हर शाखा में अदरक की तरह कूटे जाते थे और जब शाखा की रेटिंग सुधर जाती या बाॅस का प्रमोशन हो जाता तो अपन को चाय जैसे छानकर बाहर ट्रान्सफर कर दिया जाता। अपनी ईमानदारी के कारण हम न हरी धनिया बन पाए, न हींग बने, न टमाटर…
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हुस्न और इश्क “।)
अभी अभी # 95 ⇒ हुस्न और इश्क … श्री प्रदीप शर्मा
ऐ हुस्न ज़रा जाग, तुझे इश्क जगाए ! और अगर हुस्न नहीं जागे, तो इश्क क्या करे। बस, ठंडी आहें भरे। हुस्न जब सोता है, बड़ा मासूम होता है। जागता है, सीधा आईने के पास जाता है। आइना नहीं, हुस्न नहीं। आईने की कोई सूरत नहीं होती, हुस्न को अपनी ही सूरत पर गुमान होता है, गुरूर होता है। हुस्न को यकीन है, आइना झूठ नहीं बोलता।
अगर हुस्न जाग जाए, और इश्क सो जाए, तो इश्क को कौन जगाए। हुस्न एक आग है, जिसमें वह खुद नहीं जलता। सुबह का सूरज उसी हुस्न की एक आग है। वह एक ऐसा आफताब है, जिसे देख कुदरत अंगड़ाई लेती है। इश्क जाग उठता है। इश्क सुबह के सूरज की इबादत करता है। फूल खिलते हैं, कलियां मुस्कुराती हैं, भंवरे गुनगुनाते हैं। हुस्न का जलवा ही सूर्योदय है। ।
जैसे जैसे सूरज आसमान पर चढ़ता है, उसका हुस्न परवान चढ़ता है। वह तपकर आग का गोला हो जाता है। हमने जलवा दिखाया तो जल जाओगे। आप उस जलवे से आंख नहीं मिला सकते। हुस्न की आग से नज़रें मिलाई नहीं जाती, नजर झुकाकर भी इश्क किया जाता है।
हुस्ने जाना इधर आ, आइना हूं मैं तेरा। इश्क हुस्न को परदे में रखना चाहता है, उसे पूजना चाहता है। उसके हुस्न को किसी की नजर ना लगे, उसे ताले में बंद करना चाहता है। घूंघट के पट खोल रे, तुझे पिया मिलेंगे। जो हुस्न आग है, आफताब है, पाक साफ है, क्या उससे नज़रें मिलाना इतना आसान है। ।
बाल कृष्ण ने मिट्टी क्या खाई, माता यशोदा ने गुस्से में जो नंदलाला का मुंह खोला, तो होश खो बैठी। वहां कृष्ण की लीला थी या जलवा था। माया अपना काम कर गई। यशोदा जान तो गई, लेकिन किसी को बताने की स्थिति में भी नहीं रही।
अर्जुन ने भी देखा था सारथी नटवर श्रीकृष्ण के हुस्न का जलवा कुरुक्षेत्र में, जब वह शस्त्र छोड़, शरणागत हो गया था।
कृष्ण का विराट स्वरूप जब सामने आया तो होश उड़ गए। ।
हुस्न से चांद भी शरमाया है।
सूरज अगर आग है तो चंद्रमा शीतलता का प्रतीक ! चंद्रमा की अपनी कोई रोशनी नहीं। सूरज की ही परछाई है वह। ये जमीं चांद से बेहतर नजर आती है हमें। चांद से बेहतर ही है यह जमीं, क्योंकि यहां सूरज की रोशनी है, जीवन है, प्राण है, प्रेम है, शांति है। जहां भी तेज है, ओज है, रोशनी है, प्रकाश है, सब सूरज का ही जलवा है। हुस्न के कई रूप हैं, कई रंग हैं। कोई सच्चा आशिक ही उसको पहचान पाता है।
सुंदरता में प्रेम है, भक्ति है, समर्पण है। सब में रब तो बाद में होगा, क्यों न सब रब में ही समा जाए। पहले किसी से दिल तो लगे, फिर शुरू हो दिल्लगी। हुस्न का जलवा हो, तो हम भी कर लें बंदगी ;
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# भरोसा… #”)
पैंजण या शब्दाच्या उच्चारातच एक मधुर छुमछुम जाणवते. या शब्दाबरोबर मनात जणू अमृतधाराच बरसतात.
पैंजण हा एक तीन अक्षरी अनुनासिक शब्द. पण तो ओठावर येता क्षणीच निसर्गातली संपूर्ण रसमय रुणझुण घेऊनच अवतरतो. पैंजण या शब्दात लाडीक भाव आहेत. लडिवाळपणा आहे, वात्सल्य आहे, गुलाबासारखा बाल पावलांचा स्पर्श आहे, एक मधुर ठेका आहे. पैंजण या शब्दात गुलकंदाचा रस आहे. आणि एक लाजरा बुजरा, हळुवार, गुदगुल्या करणारा, गोड शृंगारही आहे. त्या शृंगारात भक्ती आहे आणि कामातुरताही आहे.
मराठी भाषेत शब्दांचे भांडार अथांग आहे. त्यातलाच हा एक तीन अक्षरी शब्द, पैंजण. मधुर रसात घोळूनच तो ओठावर येतो. पैजण या शब्दात जसा नाद आहे तसाच त्यात अंतरातला लपलेला साजणही आहे. त्याला प्रीतीची ही रुणझुणाती चाहूल कळावी म्हणूनच हे पैंजण.
पैंजण हा एक स्त्रियांचा अलंकार. भारतीय स्त्री ही नखशिखांत अलंकारांनी मढलेली असते. तसे गोठ, पाटल्या, चपलाहार,ठुशी,वज्रटीक, बाजूबंद, एकदाणी, या काहीशा अहंकारी, रुबाबदार,प्रदर्शनीय अलंकारात तसे पाहिले तर पैंजण हा पायातला अगदीच चतुर्थ श्रेणीतला अलंकार म्हणावा लागेल. एकतर पायातला म्हणून चांदीचा. हलका, जरासा नाजूकच. चांदीच्या नक्षीदार साखळीत लटकवलेले चांदीचे छोटे किणकिणणारे नूपुर. पण पावलावर हे घुंगुरवाळे चढवले की त्या पावलांचं रूपच पालटतं. नुसतं रूपच नव्हे तर चालही बदलते. या चालीलाही एक खट्याळ, लडिवाळ, गोडवा प्राप्त होतो.अलौकिक सौंदर्य देतात हे पैंजण. आणि मग कुणा प्रेमिकाच्या तोंडून सहज उद्गार येतात,
” आपके पाव देखे, बहुत हसीन है, इन्हे जमीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जायेंगे”… क्या बात है!
पैंजण हा शब्द इतका गोजिरा आहे की तो लहान बाळाच्या पावलांशी एक निरागस नातं जोडतो. नुकतंच पावलं उचलायला लागलेलं बाळ पायात पैंजण घालून दुडदुड चालू लागतं तेव्हा ती हलकी छुमछुम इतकी कर्णमधुर वाटते की कितीही कामात गुंतलेली माय असो, ती नाजूक छुमछुम ऐकून धावत आपल्या बाळाला उचलून घेते आणि त्याचे वात्सल्याने असंख्य पापे घेते. या मायेच्या दृश्यात त्या पैंजणांची छम छम एका लडिवाळ भूमिकेत असते. त्यावेळी ती माय कौसल्या असते आणि ते बाळ पायी पैंजण घालून राजवाड्यात दुडदुडणार्या रामा सारखंच असतं.
पैंजण हा शब्द कधीकधी पार यमुना तिरी घेऊन जातो. नटखट कान्हा आणि बावरी राधा यांच्या प्रणयात पैंजणांची एक कोमल भूमिका आहे. प्रेमाचं ते पार्श्वसंगीतच म्हणा ना.
। पायी पैंजण पैंजण वाजती।
।ही राधा गौळण हरीला लाजती।।
एका अद्वैत प्रेमाचं आणि भक्तीचं दर्शनच जणू या राधेच्या पायातले पैंजण करून देतात. या शब्दाबरोबर राधा— कृष्णाची प्रणय रंगात दंग झालेली मूर्तीच डोळ्यासमोर येते. त्या रुणझुण नादाबरोबर कृष्णाच्या बासरीचे सूरही कानात घुमायला लागतात.
कधी कधी प्रेमाचे काही उडते भाव या पैंजणात जाणवतात.
“चाळ माझ्या पायात
पाय माझे तालात
नाचते मी तोऱ्यात मोरा वाणी रे
काय तुझ्या मनात
सांग माझ्या कानात
गोड गोड गुपित तुझ्या मनी रे ..”
किती बोलतात हे पैंजण! किती भाव किती रस ते व्यक्त करतात!
वास्तविक पैंजण, नूपुर, चाळ, घुंगुर, हे सारेच एकधर्मीय पद आभूषणे. पदालंकार. त्यांचे संबंध पदन्यासाशी.त्यांचे नाद जरी वेगळे असले, त्यांच्या रुणझुणतेची, छन-छनीची पट्टी जरी वेगळी असली तरी नातं पदन्यासाशीच, पावलांच्या तालाशीच. पण तरीही त्यांची घराणी वेगळी आहेत. घुंगुर म्हटले की ते थेट आपल्याला मैफलित घेऊन जातात.
” राजसा जवळी जरा बसा” किंवा “पाडाला पिकलाय आंबा” नाहीतर,
“ठाडे रहियो ओ बाँके यार” अशा गाण्यांची आठवण करून देतात.त्यांचं सख्य ढोलकीशी किंवा सारंगीशी. पण पैंजण कसे अंगणातले वाटतात. प्राजक्ताच्या फुलासारखे ते हळुवार टपटपतात. हरित पर्णातून एखादी हलकी झुळूक यावी तसा त्यांचा नाद भासतो. पैंजण नादात एक स्निग्धता जाणवते, मार्दव आणि माधुर्याचा अनुभव येतो. पैंजण झुळझुळणाऱ्या नदीची आठवण देतात. किनाऱ्यावर हलकेच चुबकणाऱ्या लाटेसारखे ते असतात. पैंजणात तांडव नसते, क्रोध नसतो, थयथयाट नसतो, वादळ नसते. पैंजणांची रुणझुण केतकीच्या बनात नेते. अलगद हळुवार मोरपिसासारखी ती कानाशी हुळहुळते.
भराभर डोंगर चढून जाणारी, नाभीच्या खाली गुडघ्यापर्यंत घट्ट वस्त्र लपेटलेली एखादी आदिवासी शिसवी कांती असलेली कातकरीण दिसली की माझी नजर तिच्या भेगाळलेल्या पावलांवर जाते आणि तशातही त्या रापलेल्या,तुकतुकीत, काळ्याभोर पावलांवरचे छुम छुमणारे पैंजण कसे एखाद्या प्रेमळ सखी सारखे मला भासतात. पायातलं ते बंधन न वाटता प्रेमाने गोंजारणारं ते साधन वाटतं. शिवाय पैंजणाला धनवान, श्रीमंत, गरीब, गळीत असा भेदभाव नसतो. ते कुणाचीही पावलं खुलवतात.
हे सगळं लिहीत असताना मी माझ्या पावलांकडे सहजच पाहिलं, आता तिथे थंडीपासून रक्षण करणारे लोकरीचे मोजे होते. आणि मग सहज मनात आलं, खरंच पैंजण म्हणजे मूर्तिमंत बालपण. पैंजण म्हणजे हिरवाईचे तारुण्य. एक सुरेल छन छना छन, सप्तसूरातला लटका शृंगारच जणू!
“हे बघ दहा पोळ्या झाल्या की गॅस, ओटा स्वच्छ पुसून घ्यायचा… तो खरकटा ओटा आवडत नाही मला… आणि आता इकडे ये हॉलमध्ये… हे बघ हे सगळं फर्निचर स्वच्छ पुसायचं, झाडू, फारशी ठरल्याप्रमाणे करायची आहेच…” काकु तिला सगळं तावतावाने सांगत होत्या. ती मात्र हरखली होती. एवढं सुंदर घर असतं.. किती प्रसन्न वाटतंय इथे, अगदी आपल्या घरी आजी विठ्ठलाची पूजा करायची तेंव्हा वाटायचं तसंच…. गावाकडून येऊन पहिल्यांदाच कामाला लागणार होती ती….”
गावी आजी वारली, मग आजोबांनी त्यांच्या बहिणीकडे पोर आणून सोडली. काहीतरी शिवणकाम शिकवू म्हणाले, पण उरलेल्या वेळात माझ्या ओळखीच्या घरी काम आहे असं बहिणीने सांगितल्यावर आधी आजोबांनी विचारलं, “चिऊ कामं करशील का बेटा..? तशी पोळ्या फार छान करते चिऊ” म्हणत आजोबांनी डोक्यावर हात फिरवला.
चिऊ म्हणाली, “आवडलं तर करेल.”
आत्याआजी हसून म्हटली होती, “काय आवडलं तर? काम की माणसं..?”
चिऊ म्हणाली होती, “घर.. घर आवडायला पाहिजे मला..”
आताही चिऊला ते आठवलं.. घर खरंच छान आहे. एक वेगळाच विश्वास वाटतोय आपल्याला, एक वेगळी प्रसन्नता… नेमकी कशाने?.. चिऊने मनाला विचारलं आणि परत त्या ईशान्य कोपऱ्यात बघितलं… तो आताही मस्त हसत होता… ‘मी आहे’ असं डोळ्यांनी विश्वासाने सांगत होता…
चिऊचे त्याच्याकडे बघून आताही डोळे भरून आले… तेवढ्यात त्या काकु म्हणाल्या, “बघ तुला नक्की जमतील ना ही कामं? मला उद्यापर्यंत सांग. मी सध्या दुसरी बाई बघत नाही….”
त्याच्याकडे बघतच आणि त्याला हात लावायचा प्रयत्न करत चिऊ काकूंना “हो, जमतील” असं म्हणाली.
तेवढ्यात काकु एकदम ओरडल्या, “ए, त्या विठ्ठलमूर्तीला कशाला हात लावतेस… आमच्या सासूबाईंना नाही आवडत त्याला कोणी हात लावलेलं…. “
काकूंच्या आवाजाने चिऊ एकदम घाबरली. पटकन विठ्ठल मूर्तीजवळून तिने हात बाजूला केला… अजूनही तिला वाटत होतं, ही मूर्ती आपण खुप बघितलेली….
तेवढयात काकूंच्या सासुबाई आल्या परडीत फुलं घेऊन… काकु म्हणाल्या, “आई ही आपली नवी मोलकरीण… अजून नक्की ठरवायची बाकी आहे, पण तिला घर आवडलं तर येईल म्हणाली. तिची आत्याआजी….”
सासुबाई हसत म्हणाल्या, “अगबाई, हो का?.. घर आवडलं म्हणजे नेमकं काय गं? घराचा रंग, घराचं रूप, घराचा दिखावा, घरातली माणसं, घरातला पैसा…. नेमकं काय आवडायचं आहे गं तुला.?”
आजीच्या प्रश्नावर चिऊ हसत म्हणाली, “आजी, ते असं दिसणाऱ्या वस्तूत नसतं…. ते असं जाणवतं…. असं छान, प्रसन्न वाटतं… ते मला आवडायला हवं..”
आजी हसून म्हणाली, “अगंबाई बरीच हुशार आहेस गं,.. चैतन्य म्हणायचं आहे तुला….?”
चिऊला आवडला तो शब्द. ‘चैतन्य’. चिऊ लगेच म्हणाली, “हो, अगदी बरोबर आजी, चैतन्य.. जे आपल्या भक्तीभावाने त्या घरात निर्माण झालेलं असतं… माझ्या आजीकडे होतं ते. आजी गेली आणि सगळं हरवलं” म्हणत चिऊने डोळे पुसले.
“उद्या येते” सांगून चिऊ निघाली…. निघताना चिऊ परत त्याच्याकडे पाहात होती. ही मूर्ती का आपल्याला आपलीशी वाटते..? मनातलं चैतन्य का वाढवत आहे ही… अगदी मंदिरातला विठोबा आठवतोय. अगदी असाच हुबेहूब, ज्याच्या समोर आपण लहानाचं मोठं झालो… ज्याच्या नक्षी खांबाला एका हाताने धरत गोलगोल फिरत आपण खुप खुप खेळलो, तो विठ्ठल असायचा आपल्यावर लक्ष ठेवून… अगदी तसाच हा इथेही आला की काय आपली काळजी घ्यायला…? चिऊच्या मनात अनेक प्रश्न उभे राहिले… निघताना ती आजीला म्हणालीच, “आजी मी विठ्ठलाच्या पाया पडू…”
आजीने मानेनेच होकार दिला… आजी त्या विठुरायला हार करण्यात दंग झालेली होती….
आज चिऊ आली कामावर… घरात जरा गडबड जाणवली… काकु येऊन म्हणाल्या, “आजी पडल्या गं काल… आता बऱ्या आहेत. तू तुझ्या पोळ्या करून मग झाडू फारशी कर…”
चिऊने मानेनेच हो म्हंटल. पटापट पोळ्या आटोपल्यावर तिने झाडून घेतलं. हॉलमध्ये ती सारखी त्याच्याकडे बघत होती. डोळ्यातले भाव खुप ओळखीचे… पण गळ्यातला हार सुकलेला…
चिऊ पटकन आजीच्या खोलीत गेली. आजीने तिला बघितलं आणि म्हणाली, “अरे चिऊ, आलीस का? बघ माझ्या मेलीचं काय झालं…. आषाढी एवढी जवळ आली… वारीला निघायचं होतं तर इथेच पाडलं मला विठोबाने… आणि आता तर घरातल्या विठूची सेवा करता यायची नाही… डॉक्टरांनी चालायला नाही सांगितलं…”
चिऊने नेमका विषय पकडला. म्हणाली… “आजी, तुमची हरकत नसेल तर मी करू का सेवा… मला नाहीतरी माझ्या गावाची, म्हणजे पंढरीची आठवण येतच आहे…”
आजी म्हणाल्या, “अगबाई, तू तर ह्याच्याच गावची… बघ तुला वेळ असेल तर कर हो सेवा… तेवढाच माझ्या विठुला आनंद होईल. नाहीतर तसं कोणी त्याला हातही जोडत नाही या घरात.”
चिऊचं काम आता वाढलं होतं… सगळं आवरून झालं की चिऊ बागेतील फुलं तोडून आणायची, त्याचा सुंदर हार करायची. नाजूक जाई, जुईच्या कळ्या आणि मध्ये एक पिवळा सोनचाफा असा सुंदर हार असायचा त्याच्या सेवेत… त्याला उगाळून चंदन टिळा लावायची… तुळशीच्या मंजुळांचा हार असायचा गळाभरून… स्वच्छ घसलेली चांदीची समई तेवत असायची, त्याच्या चेहऱ्यावरचे भाव तेजस्वी करत…
चिऊ अगदी रमून जायची ह्या सगळ्यात. पण रोज पूजा करताना…. त्याला स्नान घालताना ती मूर्ती तिला खुप आपलीशी वाटायची…. त्याची बोटं, त्याचं नाक, डोळे… ती परत परत त्यावरून हात फिरवायची. त्याचा तो मुकुट… त्यातली एकेक लयदार रेष…. तिला वाटायचं, ही आपल्या अगदी परिचयाची…. ती तल्लीन होऊन पूजा करायची विठ्ठलाची…
आजी सुखावून जायची रोजची पूजा बघून…. कधीकधी आजी गमतीत म्हणायची, “अगं मी बरी झाल्यावर हा विठ्ठल माझी पुजा आवडून घेतो की नाही काय माहित? चिऊ तू इतकी सुंदर पूजा करतेस… जणू काही तो तुझा हक्काचा विठ्ठल आहे….”
चिऊ म्हणाली, “आजी खरं सांगु, खऱ्या पांडुरंगाला बघत मी लहानाची मोठी झाले… पण ह्या मूर्तीला बघून खुप समाधान मिळतं, मला ही मूर्ती अगदी माझी वाटते. का कुणास ठाऊक, हिच्याशी माझं नातं आहे असं वाटतं…”
चिऊ बोलत होती तेवढयात काकूंनी हाक मारली, “अग चिऊ, तुझी आत्याआजी आलीये बोलवायला तुला…. आज पूजा राहू दे. तुझे गावाकडचे आजोबा आलेत भेटायला… जा तू घरी, आज मी बघेल पूजेचं….”
आजीला जरा वाईटच वाटलं, कारण आजीला सूनबाईची पूजा माहीत होती. निव्वळ उरकण्याचा कार्यक्रम असायचा. चिऊ मात्र अगदी मनलावून पूजा करायची त्यामुळे आजी खुश होती पण नेमकं आज एकादशीला चिऊच्या हातची पूजा नाही. आजी अस्वस्थ झाली….
चिऊ पण जरा हिरमुसली, आज एकादशी आणि नेमकी आजच आपण ह्याची पूजा करायची नाही…. चिऊ म्हणाली, “आत्याआजीला सांगून येते मी मला थोडावेळ लागेल, तुम्ही पुढे व्हा असं….”
चिऊ बाहेर आली तर चिऊचे आजोबा काकूच्या सासऱ्यांशी बागेत बोलत उभे होते…. चिऊ म्हणाली, “आजोबा तुम्ही ह्यांना ओळखता?”
चिऊचे आजोबा म्हणाले, “अगं फार जून नातं आहे ह्यांच्याशी विठ्ठलाने जोडलेलं.”
काकूंनी ते ऐकून सगळ्यांना घरात बोलवलं…. आजोबा चिऊच्या आजोबांना घेऊन घरात आले आणि आजीला म्हणाले, “अहो,ओळखलं का कोण आहेत हे.”
आजीने नीट निरखत एकदम आश्चर्य व्यक्त केलं, “अगबाई तुम्ही..?”
चिऊला कळेचना नेमकं काय सुरू आहे. ह्यांची ओळख काय ?
आजोबा म्हणाले, “ताई आमचा पांडुरंग कसा आहे हो….?
आजी हसत म्हणाली, “तुमचा पांडुरंग तुमच्याच नातीच्या हाताने सगळं करून घेतो आणि प्रसन्न हसत उभा राहतो…. तो बघा.”
आजीच्या खोलीतून ती प्रसन्न विठ्ठलमुर्ती बघून आजोबांचे डोळे पाण्याने डबडबले… त्यांनी आपले थरथरते हात जोडले.
चिऊला शेवटी राहवेचना. ती म्हणाली, “मला कळतच नाही ए आजोबा, हा आपला विठ्ठल म्हणजे?मला सांगा ह्या मूर्तीसोबत आपलं नातं काय आजोबा.”
तेवढ्यात काकूने चहा आणला… चहाचा एकेक घोट घेत आजोबा भूतकाळात हरवत बोलू लागले…. “तुझ्या बापाला मूर्ती घडवायचं वेड लागलं. कर्ज काढून मूर्ती बनवायचा कारखाना सुरू केला… कधी गणपती, मारुती, देवी.. अश्या अनेक मूर्ती त्याच्या हातून त्या घडायला लागल्या… पण विठ्ठल मूर्ती काही त्याने घडवली नाही… लग्न झालं आणि तुझी आई निस्सीम विठ्ठल भक्त… तू पोटात असताना तिने तीन महिन्यात तुझ्या बापाच्या मदतीने हा विठ्ठल हट्टाने घडवला… मूर्ती बघून जो तो भारावून जायचा… कितीतरी जणांनी मूर्ती मागितली पण आम्ही दिली नाही…
तुझ्या जन्माच्या वेळी तुझी आई गेली. माझा लेक सैरभैर झाला… ह्या विठ्ठलावर खुप रागावला… मूर्ती चंद्रभागेत टाकतो म्हणाला…. रागारागात घराबाहेर पडला… काळ आला होता… तो ही अपघाताने गेला…” एवढं बोलून आजोबा रडायला लागले… “परिस्थिती हलाखीची झाली. कर्जासाठी बँकेची लोकं चकरा मारायला लागले…. तू लहान. तुला पोसण्यासाठी मी आणि आजी हतबल झालो… ह्या विठुरायाला घेऊन भजन म्हणत पैसे गोळा करायला लागलो… पोटाची भाकरी तर हरवली होती आणि आता छप्पर जायची वेळ आली….
हे साहेब धावून आले ग तेंव्हा…. जप्तीला ह्यांना बँकेने पाठवलं. ह्यांनी सगळं बघितलं आणि विठुरायावर सौदा करून सगळं मोकळं करून टाकलं…. विठुला निरोप देताना आजी आणि मी तर रडलोच, पण त्याहीपेक्षा तू आकांत केला होता…. कारण बिन मायबापाचं लेकरू त्या माऊलीच्या अंगाखांद्यावर मोठं व्हायला लागलं…. ज्या मायबापाने तू पोटात असताना ही मूर्ती घडवली त्या मूर्तीने जणू तुला प्रेम द्यायला स्वतःला निर्माण केलं असं वाटत होतं.. विठू गेला पण घर वाचलं… खरंतर हे साहेब काहीच देऊ नका म्हणत होते, पण तुझ्या आजीनेच मूर्ती समोर ठेवली….”
काकूंचे सासरे म्हणाले, “हो, तशीही माझी बायको विठ्ठल भक्त. मग मला वाटलं, तिला आवडेल ही मूर्ती. आणि मुख्य म्हणजे तुमचं छत माझ्याकडून ह्या विठ्ठलाला वाचवायचं असेल… मी बँकेत पैसे भरून टाकले.. त्या बदल्यात तुमच्या चेहऱ्यावरचा आंनद आणि हा हसरा विठू मला मिळाला…..”
चिऊ उठून विठूच्या पायाशी जाऊन ओक्साबोक्शी रडायला लागली…. “माऊली तुझं माझं नातं खरंच जन्मापासूनचं ग म्हणूनच मला इथे भेटलीस….”
आजीने चिऊला जवळ बोलवलं. तिच्या डोक्यावरून हात फिरवला…. “रडू नकोस चिऊ, अगं मी आयुष्यात एवढया वाऱ्या केल्या… यावेळी विठूची वारी चुकली असं वाटलं, पण आता वाटतं, त्याने ती मुद्दाम चुकवली…. ह्या नात्याला पुनर्जन्म मिळायचा होता…. आता हा विठुराया तुझाच… तूच त्याची पूजा करायला रोज ये, आणि तुझ्या लग्नात हीच तुला भेट…. कारण तुझं आणि त्याचं नातं पाठीराख्याचं आहे… ते असंच टिकव….”
कालचीच पूजा असलेली विठाई आताच्या या घडवून आणलेल्या सोहळ्याने अधिकच हसरी दिसत होती…. जणू पाठीराख्याचं नातं टिकवायला पुन्हा नव्याने सज्ज झालेली…
☆ सुहास्य तुझे मनास मोही… भाग -1 ☆ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे ☆
अशी कल्पना करू या की बाजारात आपण फेरफटका मारायला गेलो आहोत. एका दुकानात तऱ्हेतऱ्हेचे मुखवटे विक्रीस ठेवले आहेत. काहींचा चेहरा हसरा आहे, काही रागट आहेत, काही रडके आहेत, काही उदास दीनवाणे आहेत तर काही भयंकर किंवा भेसूर वाटताहेत. असे वेगवेगळे भाव त्यांच्या चेहऱ्यावर आहेत. आपल्याला सांगितले की तुम्ही यातून तुम्हाला जो आवडेल तो चेहरा निवडा. आपण सगळे कोणता चेहरा किंवा मुखवटा पसंत करू ? तुमचे उत्तर अगदी बरोबर आहे. हसतमुख असलेला मुखवटा कोणीही हसत हसत पसंत करील. आपल्या जीवनातही असेच आहे. हसतमुख, सुहास्य मुखावर विलसत असलेली व्यक्ती सर्वांना हवीहवीशी वाटते. काही काही लोक अगदी प्रतिकूल परिस्थितीतही आनंदी राहतात तर सगळे काही अनुकूल असूनही काहींच्या चेहऱ्यावर कायम बारा वाजलेले असतात.
आमचे एक नातेवाईक होते. त्यांचा चेहरा नेहमी गंभीर असे. त्यांच्या शेतात आमचाही वाटा असणारी काही आंब्याची सामाईक झाडे होती. वर्षातून एकदा आंबे आल्यानंतर ते माणसं लावून उतरवावे लागत. असे आंबे उतरवून ते त्यांच्या घरी बैलगाडीने घेऊन येत. मग आम्ही त्यांच्याकडे जाऊन त्यांना उतरवण्याचा आणि आणण्याचा जो काही खर्च आला असेल तो देऊन आंबे घरी आणत असू. आंबे कधी येतात आणि काकांचा निरोप कधी येतो याची आम्ही वाटच पाहत असू. तर आंबे उतरवले की काका आमच्या घरी ते सांगायला येत असत. अर्थात ते कशासाठी आले आहेत याची आम्हाला अजिबात कल्पना नसायची. ते माझ्या वडिलांपेक्षा वयाने मोठे असल्याने त्यांना नावाने हाक मारत. हाश हुश्श करीत घरात प्रवेश करीत. आधी मला हाक मारून, ‘ विश्वास, पाणी आण. ‘ असे म्हणत. मी पाणी दिले की, ‘ विष्णू कुठे आहे ? ‘ अशी माझ्या बाबांच्या संदर्भात विचारणा करीत असत. मग वडील समोर आले की, ‘ विष्णू, अरे आंबे आले आहेत खेड्यावरून. ते घेऊन जा बाबा. ‘ तोपर्यंत आम्ही सगळे मानसिक तणावात असायचो. आम्हाला वाटायचे की काका काहीतरी गंभीर बातमी घेऊन आले आहेत. पण आंबे आले आहेत ही तर आनंदाची बातमी असायची. पण एवढी आनंदाची बातमी देखील ते अत्यंत गंभीरपणे सांगायचे. मग लक्षात आले की अरे हा तर यांचा स्वभावच आहे. मग मनातल्या मनात त्यांचे नाव गंभीरराव ठेवले होते.
Smile and the world smiles with you असे एक छान इंग्रजी वाक्य आहे. तुम्ही हसलात तर जग हसेल. तुम्ही जसे असाल तसेच जग तुम्हाला वाटेल. लहान मुलं किती आनंदी असतात ! त्यांच्याकडे पाहिले की आपल्यालाही आनंद वाटतो. आनंदही एखाद्या व्हायरस सारखा असतो. तो सभोवताली पसरत जातो. भोवतालच्या माणसांना आपल्या आनंदात सामील करून घेतो. अशा वेळी चेहऱ्यावर गंभीरतेचा मास्क लावायचा नसतो. त्यात सामील व्हायचे असते. लहान मुलं खूप आनंदी का असतात यामागील कारणाचा आपण कधी विचार केला आहे का ? त्याचे कारण आहे ती दिवसातून अनेक वेळा खळखळून हसतात. त्यांना काही कारण लागत नाही. ते हसतात म्हणून आनंदी असतात. आणि आनंदी असतात म्हणून हसत राहतात.
जसजसे आपले वय वाढते तसतसे आपले हसणे कमी होत जाते. पण हे तितकेसे खरे नाही. आपले हसणे कमी होत जाते म्हणून आपले वय वाढत जाते. सदैव हसतमुख असणारी माणसे वयाला पराभूत करतात. वय ही त्यांच्यासाठी फक्त एक संख्या असते. आपण जेव्हा एखाद्या मंदिरात जातो तेव्हा तेथील देवाच्या मुद्रेवरचे प्रसन्न भाव पाहून आपलेही मन आनंदित होते. परमेश्वर आनंदस्वरूप आहे. म्हणूनच परमेश्वराच्या मूर्ती कायम प्रसन्न असतात. श्रीकृष्णाचे वागणे बोलणे कसे होते हे आपण प्रत्यक्ष तर पाहिले नाही पण आतापर्यंत त्याच्याबद्दल जे काही वाचले, मालिकांमध्ये पाहिले, त्या सगळ्यात त्याच्या प्रसन्न आणि हसतमुख व्यक्तिमत्वाचा प्रभाव आपल्यावर पडतो. संकटांना सुद्धा हसतमुखाने सामोरे जा ही आपल्या राम कृष्ण आदी देवांनी दिलेली आपल्याला शिकवण आहे. आपण नेमकी तीच विसरतो.
साधना, तपश्चर्या करणाऱ्या मंडळींच्या, साधू संतांच्या मुखावर एक विलक्षण तेज आणि प्रसन्नता विलसत असते. त्यांची मुद्रा कायम आनंदी असते. कारण हा आनंद आतून एखाद्या फुलासारखा उमलून आलेला असतो. वृत्ती आनंदी असली की आपला चेहरा ती आपोआपच दर्शवतो. चेहरा हा मनाचा आरसा आहे. मन स्वच्छ तर चेहरा स्वच्छ. चेहऱ्यावर मुखवटे लावून फिरणारांची गोष्टच वेगळी. त्यांच्याबद्दल मी बोलत नाही. पण शरीराच्या स्वच्छतेसाठी जसा साबण आवश्यक तसाच मनाच्या निर्मळतेसाठी हास्ययोग आवश्यक. परमेश्वराने हास्य ही मानवाला बहाल केलेली देणगी आहे. इतर कोणत्याही प्राण्याला ती नाही. गोष्टीतले प्राणीच फक्त हसतात.
समोरच्या ओळखीच्या व्यक्तीला पाहून तर आपण स्मितहास्य करतोच पण अनोळखी व्यक्तींच्या संपर्कात आल्यानंतरही आपण जर सुहास्य मुद्रेने त्यांना सामोरे जाऊ शकलो तर संबंधात एक मोकळेपणा, नैसर्गिकपणा येतो. काही व्यक्ती हसण्यातही काटकसर करतात. मोजून मापून हसतात. कोणी कोणी तर चेहऱ्यावरची गंभीरतेची इस्त्री मोडू देत नाहीत.
— म्हणून ‘ एखादी तरी स्मितरेषा…’ असे म्हणावे लागते.
☆ अर्वाचीन काळातील पंचकन्या… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆
आपण प्रातःकालीन प्रार्थनेमध्ये पंचकन्यांचा उल्लेख करतो. त्यामध्ये अहिल्या, तारा, द्रौपदी, सीता, मंदोदरी, या पुराणकालीन स्त्रियांना वंदन करतो. या सर्वांचे ऐतिहासिक पौराणिक महत्त्व आपण जाणतो. इतिहासाचा विचार केला की अर्वाचीन काळातील जिजाऊ, अहिल्यादेवी होळकर, राणी लक्ष्मीबाई, कित्तूरची राणी चन्नम्मा तसेच ताराराणी या पंचकन्या- पंचराण्या- मला आठवतात. या आदर्श असणाऱ्या स्त्रियांविषयी लिहावं असं मनात आलं, ते आज जिजाऊंची पुण्यतिथी आहे त्यानिमित्ताने !
आपल्या महाराष्ट्रालाच नाही तर संपूर्ण देशाला ललामभूत असणारे छत्रपती शिवाजी महाराज यांच्या जिजाऊ या मातोश्री–आई कशी असावी याचे उत्तम उदाहरण इतिहासाने दिले आहे. शौर्य, धैर्य, सहनशीलता, मातृप्रेम या सर्व गुणांचा समुच्चय जिच्यात आढळतो ती जिजाऊ माउली ! तिने शिवबाला घडवलं ! रामायण, महाभारत डोळसपणे समजावून सांगितले. स्वधर्म, स्वराज्याचे बीज मनात रुजवले आणि सर्व संकटांना तोंड देऊन तिने आपल्या लाडक्या शिवबाला वाढवले. शिवरायांचा राज्याभिषेक झाल्यानंतर काही दिवसातच जिजाऊ आईसाहेबांचे निधन झाले. त्यांच्या मनातील इप्सित कार्य पूर्ण झाले होते. शांतपणे त्या मृत्यूच्या स्वाधीन झाल्या. शिवरायांची आई ही महाराष्ट्राची कन्या, शहाजीराजांची पत्नी अशी लोकोत्तर स्त्री इतिहासात अमर झाली !
पुण्यश्लोक अहिल्याबाई होळकरही दुसरी आदर्श राणी अहमदनगर जिल्ह्यातील चौंडी गावा- -जवळील लहानशा खेड्यात शिंदे घराण्यात त्यांचा जन्म १७२५ साली झाला. मल्हारराव होळकरांनी त्यांना सून म्हणून पसंत केले आणि त्यांच्या मुलाशी, खंडेरावांशी त्यांचे लग्न करून दिले. परंतु लग्नानंतर काही काळातच खंडेरावांचा मृत्यू झाला. त्यावेळी अहिल्याबाई सती जाण्यास निघाल्या. परंतु मल्हाररावांनी त्यांना सती जाण्यापासून परावृत्त केले. त्यानंतर अहिल्याबाई लष्करी, मुलकी शिक्षण शिकल्या. मल्हाररावांचा विश्वास त्यांनी सार्थ करून दाखवला. पूर्व माळव्यातील जिल्हे त्यांच्या ताब्यात होते. पती, सासरे आणि मुलगा यांच्या निधनानंतर इंदोर सोडून त्यांनी महेश्वर येथे राजधानी हलवली. माळवा प्रांत सुखी समृद्ध कसा होईल याकडे लक्ष दिले. त्यांची न्यायव्यवस्था चोख होती. त्यांनी अनेक लोकोपयोगी कामे केली. मोठ्या नद्यांवर घाट बांधले. धर्मशाळा उभ्या केल्या. पाण्याचे हौद, विहिरी यांची कामे तीर्थस्थळी करून दिली. होळकरांची दौलत सांभाळली.अशा ह्या पुण्यवान अहिल्याबाई होळकर यांचा १३ ऑगस्ट १७९५ रोजी मृत्यू झाला..
पुण्यवान राणी म्हणून गणली जाणारी तिसरी राणी म्हणजे राणी लक्ष्मीबाई! एकोणिसाव्या शतकातील झाशी या संस्थानची लक्ष्मीबाई राणी होती. १८५७ च्या ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी विरुद्धच्या उठावात ती सहभागी होती. क्रांतिकारकांची स्फूर्ती देवता होती ! सातारा जिल्ह्यातील मोरोपंत तांबे यांची लाडकी मुलगी मनकर्णिका ही राणी लक्ष्मीबाई म्हणून आपल्याला माहित आहे ! घोडेस्वारी करणे ही तिची आवड होती. युद्धशास्त्रामध्ये निपुण होती. थोर कर्तृत्व व नेतृत्व असणारी होती झाशीची राणी. पुरुषप्रधान संस्कृती असणाऱ्या समाजाने दुर्लक्षित करू नये म्हणून ती पुरुषी पोशाखात वावरत असे. दामोदर हा लक्ष्मीबाईंचा दत्तक मुलगा होता. त्याच्यासह प्रशासन, सैन्य, कल्याणकारी कामे यांची राणीने चांगली व्यवस्था लावली. तात्या टोपे, नानासाहेब पेशवे यांच्या सहकार्याने इंग्रजांशी युद्ध केले. अशी ही झाशीची राणी इंग्रजांशी युद्ध करताना मृत्युमुखी पडली.
स्वराज्य सौदामिनी ताराराणी ही या पंचराण्यांमधील चौथी राणी ! ही हंबीरराव मोहिते यांची कन्या होती. घोडे स्वारी, तलवारबाजी यामध्ये कुशल, असामान्य व्यक्तिमत्व असणारी,अशी ताराराणी ही राजाराम महाराजांची पत्नी होती ! संभाजीच्या वधानंतर राजाराम महाराजांनी कर्नाटकात जाताना महाराष्ट्राचा कारभार ताराराणीच्या हाती सोपवला. काही काळ बंद असणारी वतनदारी पद्धत ताराराणी यांनी सुरू केली.लोकोपयोगी कामे केली. राजाराम महाराजांच्या आज्ञेनुसार त्या गुप्तपणे जिंजीला पोहोचल्या आणि राजारामांसह महाराष्ट्रात आल्या. सततची दगदग, प्रवास यामुळे सिंहगडावर असताना राजारामाचा मृत्यू झाला. त्यानंतर ताराबाईंनी स्वतःच्या मुलाला- शिवाजीला राज्याभिषेक करवला. सरदारांच्या मदतीने औरंगजेबाला सळो की पळो करून सोडले. शत्रूच्या कैदेतून सुटून आल्यावर शाहू राजांनी सातारा येथे स्वतःला राज्याभिषेक करून घेतला. महाराणी ताराबाईंनी कोल्हापूर ची गादी सांभाळली.. माणसे जपली, नव्याने जोडली. ताराबाईंचे कार्य खूप महान होते ! दहा डिसेंबर १७६१ रोजी ताराबाईंचा मृत्यू झाला. कवी परमानंद यांचे पुत्र देवदत्त म्हणतात…..
दिल्ली झाली दीनवाणी ! दिल्लीशाचे गेले पाणी ,
ताराबाई रामराणी, भद्रकाली कोपली !
अशी ही ताराराणी !
पंचराण्यांच्या मालिकेतील पाचवी राणी म्हणजे कित्तूरची राणी चन्नम्मा….
२३ ऑक्टोबर १७७८ रोजी बेळगाव जिल्ह्यातील कापशी गावी, राणी चन्नम्मांचा जन्म झाला. लहानपणापासून तिरंदाजी, अश्वारोहण, तलवारबाजी या मर्दानी खेळांची त्यांना आवड होती.. कित्तूरचे राजा मल्ल सज्जा देसाई यांच्याशी तिचा विवाह झाला. राजा आणि राजपुत्राच्या अकाली निधनानंतर तिच्या दत्तक पुत्राला तिने गादीवर बसवले. परंतु ब्रिटिशांनी हे दत्तक पुत्र नामंजूर केले व कित्तूर ताब्यात घेण्याचा प्रयत्न केला. त्यामुळे चिडलेल्या राणीने स्वतःचे मोठे सैन्य उभे केले आणि कित्तूर ताब्यात घेण्याचा प्रयत्न करणाऱ्या इंग्रज कलेक्टर थॅकरला तिच्या सैन्याने मारले. पण हा लढा फार काळ चालला नाही. इंग्रजांनी तीन डिसेंबर १८२४ रोजी राणी चन्नम्माला पकडले. ब्रिटिशांविरुद्ध आपल्या हक्कासाठी लढणाऱ्या या राणीचा २१ फेब्रुवारी १८२८ रोजी मृत्यू झाला. आपल्या इतिहासातील ही एक महत्त्वाची राणी होती, जिने इंग्रजांविरुद्ध लढा देण्याचा प्रयत्न केला !
अर्वाचीन काळाच्या इतिहासातील या पाच राण्या म्हणजे ‘ पंचकन्या ‘ आपल्याला नक्कीच गौरवास्पद आहेत !