(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “देर से बज़्म में आते है…“)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भाव और अभाव“।)
अभी अभी # 96 ⇒ भाव और अभाव… श्री प्रदीप शर्मा
अचानक मुझे टमाटर से प्रेम हो गया है, क्योंकि उसके भाव बढ़ गए हैं। जब इंसान के भी भाव घटते बढ़ते रहते हैं, तो टमाटर क्यों पीछे रहें। हमारे टमाटर जैसे लाल लाल गाल यूं ही नहीं हो जाते। आम आदमी वही जो अभाव में भी सिर्फ टमाटर और प्याज़ से ही काम चला ले।
सभी जानते हैं, An apple a day, keeps the doctor away. एक सेंवफल रोज खाएं, डॉक्टर को दूर भगाएं ! यह अलग बात है, आदमी यह महंगा फल तब ही खाता है, जब वह बीमार पड़ता है। अंग्रेजी वर्णमाला तो a फॉर एप्पल से ही शुरू होती है, बेचारा टमाटर बहुत पीछे लाइन में खड़ा रहता है। ।
हमने भी हमारी बारहखड़ी में टमाटर को नहीं, अनार को पहला स्थान दिया। अ अनार का और आ आम का। एक अनार सौ बीमार ! और आम तो फलों का राजा है, शुरू से ही खास है। बेचारा टमाटर ककहरे में उपेक्षित सा, ठगा सा, ट, ठ, ड, ढ और ण के बीच पड़ा हुआ है। उसे अपनी मेहनत का “फल” कभी नहीं मिला, उसे बस अमीरों के सलाद में स्थान मिला, और हर आम आदमी तक उसकी पहुंच ही उसकी पहचान रही है।
सब्जियों के बीच अच्छा फल फूल रहा था, लेकिन प्याज की तरह उसको या तो किसी की नज़र लग गई, अथवा किसी लालची व्यापारी की उस पर नज़र पड़ गई। अभाव में पहले कोई वस्तु गायब होती है, और बाद में उसके भाव बढ़ते हैं। शायद इसी कारण, आज टमाटर जबर्दस्त भाव खा रहा है। ।
एक समय था, जब टमाटर की एक ही किस्म होती थी। फिर अचानक टमाटर की एक और किस्म बाजार में प्रकट हो गई। यह टमाटर, कम खट्टा और कम रसीला, और कम बीज वाला होता है। सलाद के लिए आसानी से कट जाता है। हमें तो पुराने देसी टमाटर ही पसंद हैं, क्या खुशबू, क्या स्वाद, और क्या रंग रूप। दोनों ही खुद को स्वदेशी कहते हैं, पसंद अपनी अपनी।
पाक कला महिलाओं की रसोई से निकलकर पंच सितारा संस्कृति में शामिल हो गई है। पहले कभी, मेरी सहेली और गृह शोभा के रसोई विशेषांक प्रकाशित होते थे, तरला दलाल और शेफ संजीव कपूर का नाम चलता था।
आज होटलों का खाना महंगा होता जा रहा है, घरों में भी फास्ट फूड और पिज्जा बर्गर पास्ता का प्रवेश हो गया है।।
बिना प्याज टमाटर की ग्रेवी के कोई सब्जी नहीं बनती। घर के मसाले गायब होते जा रहे हैं, शैजवान सॉस का घरों में प्रवेश हो गया है। cheese पनीर नहीं, तो सब्जी में स्वाद नहीं। ऐसे में आम आदमी कभी प्याज के आंसू बहाता है, तो कभी टमाटर को अपनी पहुंच से बाहर पाता है।
आजकल महंगाई के विरुद्ध प्रदर्शन और आंदोलन नहीं होते। महंगाई अब डायन नहीं, हमारी सौतन है। विकास में हमारे कदम से कदम मिलाकर हमारा साथ देती है। अधिक अन्न उपजाओ, अधिक कमाओ। यह असहयोग का नहीं, सहयोग का युग है।।
आम आदमी भी आजकल समझदार हो गया है। वह स्वाद पर कंट्रोल कर लेगा, लेकिन उफ नहीं करेगा। इधर बाजार में महंगे टमाटर, और उधर सोशल मीडिया पर लाल लाल, स्वस्थ, चमकीले टमाटरों की तस्वीरें उसे ललचाती भी हैं, उसके मुंह में पानी भी आता है, लेकिन वह अपने आप पर कंट्रोल कर लेता है। उसने टमाटर का बहिष्कार ही कर दिया है।
वह जानता है, सभी दिन एक समान नहीं होते। आज अभाव के माहौल में जिस टमाटर के इतने भाव बढ़े हुए हैं, कल वही सड़कों पर रोता फिरेगा। कोई पूछने वाला नहीं मिलेगा।
भूल गया वे दिन, जब किसान की लागत भी वसूल नहीं होती थी, और वह तुझे यूं ही खेत में पड़े रहने देता था। आज तुम्हारे अच्छे दिन हैं और उपभोक्ता के परीक्षा के दिन। दोनों मिल जुलकर रहो, तो दाल में भी टमाटर पड़े और बच्चों के चेहरे पुनः टमाटर जैसे खिल उठें।।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 74 – पानीपत… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
नोस्टाल्जिया का अर्थ है अतीत के सुनहरे दौर में खो जाना और वर्तमान को उपेक्षित करते हुये उदासीनता का आवरण पहनना. ये सिंड्रोम नये परिवेश में घुलमिल जाने में अवरोधक बन जाता है और कार्यक्षमताओं में भी कमी आ जाती है. “मैं तो भूल चली बाबुल का देश (पिछली शाखा) पिया का घर (वर्तमान शाखा) प्यारा लगे”, जैसी भावना शनैः शनैः शनि की गति से आ पाती है. ये काल संक्रमण काल कहलाता है पर शाखाओं को टॉरगेट देने वाले ये धैर्य अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें लक्ष्य देने वालों की काल गणना में भी ये संक्रमण काल नहीं पाया जाता.
जिस तरह विदेशी दौरों पर जाने वाली क्रिकेट टीमें अभ्यास मैच और वार्म अप मैंच खेलकर नये माहौल में सहज हो जाती हैं, वैसी सुविधाएं बैंक तो क्या किसी भी कार्यालय/संस्था में नहीं होती. स्थानांतरण की प्रक्रिया में तालमेल का अभाव, आने वाले से पहले ही जाने वाले को मुक्त कर देता है. यहाँ भी ऐसा ही हुआ, जाने वाले पहले ही जा चुके थे, आने वाले एकदम से दौड़ने की मन:स्थिति में नहीं आ पा रहे थे. क्रिकेट का 20-20 मैच भी ऐसा ही होता है, पहले ओवर में ही बाउंड्री या सिक्सर के प्रयास कभी बॉल को बाउंड्री पार भेजते हैं तो कभी बैटर, (पुराना नाम बेट्समैन) को पेवेलियन. शाखा के संचालन में नेतृत्व को, टेस्टमैच के बेट्समैन की तरह परफॉर्म करने के लिये अनुमत करना आदर्श स्थिति मानी जाती है, टाईमबाउंड असाइनमेंट और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में 20-20 मैच की संस्कृति हर संस्था की संस्कृति बन गई है.
आधुनिक युग की इस प्रतिस्पर्धा के दौर में आदर्श स्थिति की जगह मार्केट और विपणनकला ही नीतियों का निर्धारण करते हैं. खरगोश और कछुए की कहानी इस दौर में प्रभावी नहीं है. इस कारण भी जो मैन्युपुलेशन, विंडोड्रेसिंग और चमचागिरी में निपुण होते हैं, वो झूठे कमिटमेंट के जाल में अपने बॉस को मंत्रमुग्ध कर हरेक के लिये “राजा बेटा”का उदाहरण बन जाते हैं. ऐसे उदाहरण हर संस्था की कार्य संस्कृति में पाये जाते हैं.
ये श्रंखला भी क्लासिक टेस्टमैच की गति से ही चलती रहेगी ताकि क्लाइमेक्स की जगह खेल की कलात्मकता का आनंद लिया जा सके. धन्यवाद
☆ साहित्य यांत्रिकी की काव्य गोष्ठी संपन्न ☆ प्रस्तुति – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
भोपाल के साहित्य क्षितिज पर अनेक अभियंता निरंतर हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में बड़ा योगदान कर रहे हैं। रवींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय के संस्थापक श्री संतोष चौबे भी इंजीनियर ही हैं। कविता के हस्ताक्षर श्री नरेश सक्सेना पहचाने हुये नाम है। व्यंग्य में भोपाल के श्रीविवेक रंजन श्रीवास्तव का नाम राष्ट्रीय स्तर पर लिया जाता है।
विगत दिवस साहित्य यांत्रिकी की मासिक काव्य गोष्ठी संपन्न हुई। सृजन साधना में निरंतरता का महत्व सर्व विदित होता है।
वरिष्ठ कवि प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी की अध्यक्षता में गोष्ठी संपन्न हुई।
इंज प्रमोद तिवारी ने सामयिक रचना पढ़ी…
चाहता था जीना
पर वो जी नहीं पाया।
कभी बारिश कभी सूखा।
कभी हरियाली भी आई।
मगर डर हर ऋतु साथ लाई।
गायक एवम् कवि इंज अशेष श्रीवास्तव ने अपनी बात इन शब्दों में रखी…
एक बारिश क्या हुई
सड़कों की कलइ खुल गयी। ।
बुरा वक्त क्या आया
रिश्तों की कलइ खुल गयी।।
इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव ने गजल पढ़ी
रोशनी पे अंधेरे की बात भारी है
शह पे प्यादे से मात भारी है
उसूलों के बल पे कैसे हों चुनाव
सारे सही गलत पे जात भारी है
रवींद्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय वैशाली के कुलाधिपति श्री व्ही के वर्मा ने अपनी रचना इंद्रधनुष पढ़ी।
नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर श्री अजेय श्रीवास्तव ने लोक जीवन से छठ के गीत परआधारित रचना सुनाई…
काँच ही बांस की बहँगिया
बहँगी लचकत जाए—
गा रही है अम्मा
धीरे धीरे, पोपले मुँह से
नदी का झक सफ़ेद आँचल
फैल गया है
अम्मा के बालों में।
अरघ के डूबते सूरज ने
लील लिया है
अम्मा के माथे की बड़ी चमकती बिंदी को
गा रही हैं अम्मा—
केलवा के पात पे उगे का सूरजवा
इंज मुकेश मिश्रा ने अपनी रचना इन शब्दों में रखी…
दुनिया एक बाजार में तब्दील हो गई,
आदमी ग्राहक बनकर रह गया,
डर, नफा या जरूरत दिखाकर,
इंसान इंसान को ठग रहा।
अध्यक्षीय व्यक्तव्य में प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध ने अभियंता रचनाकारों पर केंद्रित इस साहित्यिक आयोजन की भूरि भूरि सराहना की। उन्होंने काव्य पाठ करते हुए कहा…
दुनियां यही धनी निर्धन की लेकिन बंटी बंटी
आपस के व्यवहारों में पर कभी न बात पटी
गोष्ठी के उपरांत सभी ने श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव की ओपन लाइब्रेरी का निरीक्षण किया, अशेष श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तकें डब्बा पुस्तकालय में रखीं।
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ने गोष्ठी का मनहर संचालन एवं कृतज्ञता ज्ञापन किया।
हे वाक्य कोणाचं या बद्दल मी बोलणार नाही. पण आपल्याकडे नावातच सगळं काही आहे. मग त्या नावाचा संबंध कुठेही आणि कसाही असो. अगदी व्यक्ती, वस्तू, प्राणी, अन्न काहीही.
घरात मुल जन्माला आलं की पहिला आणि त्यातल्यात्यात मोठा सोहळा हा नांव ठेवण्याचाच असतो. मग नंतर भलेही घरातले लाडाने त्याला सोन्या, बाळा, छोट्या म्हणत असतील. किंवा वयस्कर त्याला तु रमेशचा का? तु प्रकाशचा का? असं विचारात असतील. पण नंतर तुझं नांव काय? असंच विचारतात.
पीटरसन, सॅमसन असं वडीलांच्या नावावरुनच मुलांचं नांव ठेवण्याची रीत काही ठिकाणी असेल. आपल्याकडे मात्र तसं नाही.
नांव ठेवण्याबद्दल आपला हात आणि काही वेळा तोंड कोणी धरणार नाही. आपल्याकडे मुलांच नांव ठेवण्याचा कार्यक्रम होतोच. पण काही कार्यक्रमांना नांवं ठेवायला सुद्धा आपण मागे नसतो. भलेही मागून म्हणजे कार्यक्रम झाल्यावर नावं ठेवत असलो तरी नांवं ठेवतांना मात्र मागे नसतो.
लग्नात सुध्दा नवरीमुलीचे नांव बदलण्याची पद्धत काही प्रमाणात आहे. यावेळी नांव काय ठेवलं हे कौतुकाने विचारतातच, पण ते घेण्याचा आग्रह देखील होतो. नांव ठेऊन नांव घेण्याची, किंवा नांव घेउन नावं ठेवण्याची सुरुवात इथूनच होत असावी. ठिक आहे आपल्याला आत्ता त्याबद्दल नांव ठेवायचं नाही.
मुलांचीच काय…… आपल्या कडच्या पाळीव प्राण्यांना सुद्धा आपण ठेवलेलं नांव असतं. मग कुत्रा, बैल, गाय, घोडा, मांजर, पोपट यांचा टायगर, सर्जा, कपीला, चेतक असं होतं. आणि त्या ठेवलेल्या नावानेच त्यांना प्रेमाने हाक मारली जाते.
तसच आजुबाजूच्या काही जणांना त्यांच्या दिसण्यावरुन, वागण्यावरून, राहण्यावरुन सुध्दा नावं ठेवतो. पण बऱ्याचदा अशी आपण ठेवलेली नांव प्राण्यांचीच असतात. म्हैस, पाल, बोकड, मांजर, गाढव इ…. या सारख्या नावांनी आपण त्यांचा प्रेमळपणे उल्लेख करतो. जाड्या, बारक्या, काळ्या अशी सुध्दा काही नावं आपण ठेवतो. म्हणजे प्राण्यांची चांगल्या नांवाने आणि माणसांची प्राण्यांच्या नांवाने ओळख आपल्याकडेच असावी.
एकाच देवाला अनेक नांवं आपल्याकडेच असतील. सुर्य, गणपती, विष्णू, हनुमान या सारख्या अनेक देवांना अनेक नावं आहेत. देव कशाला… झाड, तरु, वृक्ष… फुलं, सुमन… जल, पाणी. आभाळ, गगन, आकाश, नभ….. अशी एकाच गोष्टीला अनेक नावं असणारी अनेक उदाहरणं आहेत.
लहानपणी तर समानअर्थी शब्द लिहा…… असा प्रश्न सुद्धा परिक्षेत असायचा.
आपल्या नावामुळे त्या क्षेत्राचं आणि देशाचं नांव मोठं करणाऱ्यांची संख्या आपल्याकडे इतकी आहे की सांगतासुध्दा येणार नाही. आणि अशी असंख्य नांवं प्रत्येक क्षेत्रात आहेत. यात व्यक्ती, वस्तू, निसर्ग, वनौषधी, स्थळ या सगळ्यांचा हातभार आहे. पण ओळखले जातात सगळे नावानेच.
नावाचा प्रभाव आपल्या कडे इतका आहे की आजही काही ठिकाणी काही काम करुन घ्यायचे असेल तर आपण कोणाच्या तरी नावाचा आधार घेतोच.
पण… अरे तो कोपऱ्यावर पानवाला आहे ना…… त्याला माझं नांव सांग तो बरोबर माझं पान देईल……… इतका विश्वास नावात असतो..
ठेवलेलं नांव उच्चारतांना झालेली चूक आपल्याकडे काही वेळा चालते. जसं प्रवीण ला परवीन, प्रमोद ला परमोद, लक्ष्मी ला लक्शमी अशी हाक मारणारे सापडतील. पण कागदोपत्री नावाची अशी चूक चालत नाही. पण तरीही नावाच्या बाबतीत काही वेळा तशी चूक होतेच. आणि नांवातली चूक बदलण्यासाठी खटाटोप करावा लागतो. शुद्ध नावाच्या बाबतीत असलेला हा अशुद्ध पणा सुध्दा आपल्याकडेच असेल.
राजकारणात तर नावाचं महत्त्व विचारु नका. नांव आहे म्हणून गोंधळ, नांव नाही म्हणून नाराजी, नांव बदललं तर विरोध, नावात बदल करण्यासाठी गदारोळ. काही नांव तर फक्त घराण्यामुळे ओळखली जातात. तर काही नावामुळे घराण्याचा मोठेपणा आजही शाबूत आहे. हे सगळं फक्त नावामुळेच होतं.
देश आणि त्यातले भाग यांना नांव बहुतेक सगळ्याच ठिकाणी असतील. पण आपल्याकडे खाद्यपदार्थ सुद्धा भागानुसार ओळखले जातात. जसं पंजाबी डिश, गुजराती थाळी, महाराष्ट्रीयन जेवण, साऊथ इंडियन डिश आणि हे सगळीकडे मिळतात. आज असंख्य पदार्थ नावामुळेच ओळखले, मागवले, आणि खाल्ले जातात. फक्त पदार्थांच्या नावामुळेच बऱ्याच ठिकाणी मेनू कार्ड गरजेपेक्षा जास्त मोठी, लांबलचक वाटतात. या बाबतीत आपण आपल्या सीमा खूप वाढवल्या आहेत. म्हणजे आज छोट्या छोट्या गावात सुद्धा चायनीज सहज मिळतं.
फक्त रोटी या नावाखाली पाच सहा प्रकार, डोसा या नावाखाली पंधरा विविध प्रकारचे डोसे मेनू कार्ड वर पाहिले आहेत. तांदूळ, गहू, आंबा यात चिनोर, कोलम, बासमती, चंदूसी, लोकवन, हापूस, लंगडा, केशर, बदाम अशी अनेक नांवं आहेत.
आंबा यात केशर, बदाम हा प्रकार आहे. पण केशर आणि बदाम यात आंबा हा प्रकार नाही.
जसं खाण्याच आहे तसंच कपड्यांच, वस्तूंचं, दागिन्यांच सुद्धा आहे. पंजाबी ड्रेस, गुजराती साडी, जोधपुरी, पुणेरी पगडी, कोल्हापुरी फेटा, साज, चप्पल.
असं किती आणि काय काय सांगणार. आणि हे सगळे प्रकार नावावरुच ओळखले जातात.
आजही नावावरुन भविष्य सांगणारे, आणि भविष्यात आपले नांव उज्वल करणारे अनेक जण आहेत, आणि होतील.
देशापासून वेशा पर्यंत, खाण्यापासून नटण्यापर्यंत, आणि वस्तू पासून व्यक्ती पर्यंत नावातच खूप काही आहे.
हे तर फक्त नावाचेच आहे. आडनावाचा भाग अजून वेगळाच आहे. पण त्याच्या आड बऱ्याच गोष्टी येत असल्याने त्याचे नाव आत्ता नको………
(मागील भागात आपण पाहिले – सगळेच मोठे होत होते. रिया,तान्यांचेही ग्रॅज्युएशन झाले. त्यांची राहण्याची गावं बदलली. हर्षल ,अमिताही आपापल्या व्यापात गुंतत होते, रुतत होते. ब्रुनोही वाढत होता. पण या सर्व परिवर्तनाचा, बदलांचा ब्रुनोही अत्यंत महत्त्वाचा, जवळचा ,एक कन्सर्नड् साक्षीदार होताच. कम्युनिटीतलं कल्डीसॅक वरचं, मागे दाट जंगल असलेल्या त्यांच्या घराचं मुख्य अस्तित्व म्हणजे ब्रूनोचं भुंकण आणि त्याच्या नाना क्रीडा, सवयी, सहवास हे नि:शंकपणे होतच.
सगळं छान चाललं होतं. मग अचानक काय झालं?- आता इथूंपुढे )
आजकाल ब्रुनोच्या बाबतीत काहीतरी बिनसलं होतं का? त्याच्या वागण्यात काहीतरी नकारार्थी फरक जाणवत होता. त्याला समुपदेशनाची गरज आहे का हाही एक विचार मनात येऊन गेला. अमिता, हर्षल ने त्याच्यासाठी कधीही साखळी वापरली नाही. त्याला कधीही बांधून ठेवले नाही. तो मोकळाच असायचा आणि उत्तम प्रकारे त्याला शिक्षित केलेलेही होते. घरात येणाऱ्या जाणाऱ्यांशी तो क्षणात मित्रत्वाच्या नात्याने वागायचा. येणाऱ्या पाहुण्यांमधले सुरुवातीला बिचकणारे काही थोड्या वेळातच ब्रूनोशी गट्टी करायचे. त्याचं भय कधीच कुणाला वाटलं नाही.
पण काही दिवसापूर्वी तो अचानक घरातून निघून गेला. खूप शोधाशोध करावी लागली.अमेरिकेत पाळीव प्राण्यांसाठीचे कायदे खूप कडक आहेत. सारं वातावरण चिंतातुर झालं.
संध्याकाळी त्याच्या गळ्यातल्या कॉलर वरच्या पत्त्यावरुन कॉपने त्याला घरी आणले. पण कॉपने त्यांना चांगलंच बजावलं. अमेरिकन पेट लॉबद्दल खणखणीत सुनावलं. दंडाची रक्कम वसुल करुन तो निघून गेला.
थोडं चिंतातूर, भयावह वातावरण मात्र नक्कीच झालं. हर्षलने ब्रूनोला चांगलाच दम भरला. पण तो फक्त हर्षल च्या पायाभोवती गुंडाळून राहिला. आणि त्याच्या डोळ्यातून टपकणार्या अश्रूंचा स्पर्श हर्षलच्या पायाला जाणवला.
“काय झालं असेल याला?”
अमिता म्हणाली,” अरे! प्राण्यांमध्येही हार्मोनल बदल घडत असतात. तेही अस्वस्थ बेचैन होतात. त्यांना कळतही असेल पण व्यक्त होता येत नाही ना?”
” म्हणजे आपण कमी पडतो का?”
” कदाचित हो.”
अमिताने एकच शंका काढली,” मला वाटतं तो आजकाल जरा आपल्या बाबतीत पझेसीव्ह झालाय. आपल्या आसपास असलेलं हे इतरांचं कोंडाळं त्याला आवडत नसेल. आपणही सतत कामात. रिया ,तान्याचे दूर राहणे. या साऱ्यांचा त्याच्या मानसिकतेवर परिणाम होतोय. तो थोडा इंट्रोवर्ट होत चाललाय. आतल्या आत घुसमटतोय तो”
” मग याला आपण काय करायचं? त्याला कसं नॉर्मल करायचं?”
” बघूया. वाट पाहूया.”
पण त्या दिवशी मात्र ब्रूनोने कमाल केली.
दरवर्षीप्रमाणे अमिता— हर्षलने थँक्स गिव्हिंगची पार्टी घरी आयोजित केली होती. मस्त तयारी चालू होती. एकीकडे ब्रूनोशी गप्पा आणि एकीकडे पार्टीची सजावट, रचना, खाद्यपदार्थ बनवणे असं चालू होतं.
संध्याकाळी सारे जमले. सगळे मस्त नटूनथटून आले होते. प्रफुल्लीतही आणि एकदम झक्क मूडमध्ये. शिजणार्या टर्कीचा मस्त सुगंध घरात घमघमत होता. गप्पा, गाणी, खाणे,पिणे चालूच होते.
इतक्यात ब्रूनोने संकर्षणच्या आठ वर्षाच्या मुलीवर झडपच घातली. तिला फरफटत त्याने हॉल बाहेर नेलं. ती मुलगी नुसती घाबरून किंचाळत होती. सगळ्यांची धावपळ झाली. अमिता, हर्षलही ब्रूनोला आवरू शकत नव्हते. पण त्या ग्रुप मध्ये एक डॉग ट्रेनर होता. त्याने परिस्थिती झटकन हातात घेतली. आणि अत्यंत कुशलतेने ब्रूनोला ताब्यात घेतलं. सुदैवाने त्या मुलीला काही जखमा झाल्या नाहीत पण तिला प्रचंड मानसिक धक्का बसला होता. ती जोरजोरात रडत होती. “आय हेट ब्रूनो. आय डोन्ट लाईक हिम!”
आणि अर्थातच त्यानंतर पार्टी रंगलीच नाही. आवरतीच घ्यावी लागली. हळूहळू सगळेच परतले. हर्षल, अमिता प्रत्येकाला अजीजीने “सॉरी” म्हणत होते. तसे सारे जवळचेच होते. मित्रमंडळीच होती.
” इट्स ओके रे यार! टेक केअर.” म्हणून सगळे अगदी सभ्यपणे निघूनही गेले. फक्त डॉग ट्रेनर मणी मागे राहून हर्षलला म्हणाला,”नो मोअर रिस्क नाऊ. वेळ आली आहे. तुम्हाला आता कठोर व्हावंच लागेल. तुला अमेरिकन लॉ माहित आहेत ना?”
नाईलाजाने अमिता, हर्षलला तो निर्णय घ्यावा लागला खूप कठीण, अत्यंत, सहनशीलतेच्या पलीकडचा, भावना गोठवणारा पण टाळता न येण्यासारखा तो निर्णय आणि तो क्षण होता. क्षणभर अमिताला वाटलं,” आपण भारतात असतो तर काय केलं असतं?”
पण या प्रश्नाला तसा आता काहीच अर्थ नव्हता.
पेट कम्युनिटी सेंटरवर तिने कळवलं होतं. सर्व कायदेशीर कागदपत्रे भरून झाली होती. व्हेटशी —पशुवैद्याशी तिचं बोलणं झालं होतं. अशा प्रकरणात उशीर चालत नाही. तात्काळ करण्याची ही एक कृती असते. लगेच वेळही ठरली. आजचीच.
सकाळीच हर्षल निघून गेला होता. जाताना अमिताच्या खांद्यावर हात ठेवून तिला फक्त,” बी ब्रेव्ह” एवढंच म्हणाला होता.
सकाळपासून ब्रूनो अमिताच्या पायात घुटमळत होता. अमिताने गराज उघडलं. गाडीत बसायलाही तो तयार नव्हता. अमिताच्या काळजाचे ठोके थाड थाड उडत होते. कसेबसे तिने ब्रूनोला उचलले आणि मागे कार सीटमध्ये त्याला बांधून टाकले. अमिताला एकच आश्चर्य वाटले तो अजिबात भुंकला नाही. खिडकीच्या काचेवर नेहमीप्रमाणे चाटले नाही. संपूर्ण ड्राईव्ह मध्ये अमिताच्या डोक्यात एकच विचार होता.” मी चूक आहे की बरोबर?” तिला इतकंही वाटलं,” मी माणूस कां झाले? अखेर मी माणसांचा कायदा पाळत आहे. माणूस जातीची सुरक्षा मला महत्त्वाची आहे. या देशातलं माझं वास्तव्य मला महत्त्वाचं आहे आणि म्हणूनच मी एका निष्ठावान, प्रामाणिक, निर्मळ, निरागस, निरपेक्ष खर्या प्रेम भावनेला अशा रितीने तिलांजली देत आहे का?”
व्हेटच्या केबिनमध्ये अमिताही ब्रूनो बरोबर आत गेली. व्हेटने इंजेक्शन तयार केले. पण ब्रूनो त्याला अजिबात सहकार्य देतच नव्हता. त्याला आवरणं जमतच नव्हतं. शेवटी अमिताला पहावे ना. तीच म्हणाली,” डॉक्टर! माझ्याकडेच द्या. मीच देते त्याला इंजेक्शन. मीही एक डॉक्टरच आहे.”
वास्तविक हे प्रोटोकॉलच्या बाहेर होते. पण अमिताने ब्रूनोला कुरवाळलं, त्याच्या डोळ्यात डोळे घालून गोंजारलं, मांडीवर घेतलं. ब्रुनोने तिच्याकडे इतक्या विश्वास पूर्ण नजरेने पाहिलं की क्षणभर अमिताचे हात थरथरले. पण मनात ती एवढेच म्हणाली,
” आय एम व्हेरी सॉरी ब्रूनो. परमेश्वरा! मला क्षमा कर.” हळूहळू ब्रूनोच्या शरीरात ते औषध पसरत गेलं आणि तो शांत होत गेला. भयाण शांत, नि:शब्द, निश्चेष्ट.
एक पर्व संपलं. नव्हे संपवलं. एक अध्याय पूर्ण केला आणि एक अनामिक नातं अनंतात विलीन झालं.
घरभर ब्रूनो सोबतचे अनंत क्षण विखुरले होते. कितीतरी, त्याच्या सोबत काढलेली छायाचित्रे. त्याचं ब्लॅंकेट, त्याची गादी, भिंतीवर त्याने फेकलेल्या चेंडूचे डाग. घराच्या कोपऱ्या कोपऱ्यात त्याचं अस्तित्व होतं. ते कसं निपटायचं?
जंगलातल्या झाडावरची ती रंगीत पानगळ बघता बघता अमिताच्या डोळ्यातून अश्रूंच्या धारा ओघळल्या. एक अलौकिक संवेदनांचं, भाव भावनांचं, दिव्य, वर्णनातीत भावविश्व संपून गेलं. आणि पाप पुण्याच्या साऱ्या कल्पना भेदून एक भयाण पोकळी तिच्या जीवनात तयार झाली.
जोशीकाका पुणे महानगरपालिकेतून निवृत्त झाले त्याला चार पाच वर्षे होऊन गेली होती. काकांना ना चित्रपटांची आवड ना टीव्हीवरच्या मालिकांची. त्यामुळे निवृत्तीनंतर ते टाईमपास कसा करतात हा त्यांच्या मित्राला पडलेला यक्षप्रश्न.
“जोशा, लेका तुला ना काही छंद , ना वाचनाची आवड, ना अध्यात्माची. रिटायर झाल्यावर टाईमपास तरी कसा करतोस तू ?”
जोशी काकांना आपल्या मित्राच्या भोचकपणाची आणि नसत्या चौकशा करण्याच्या वृत्तीची चांगली कल्पना होती. त्याच्या डोक्यात एकदा हा कीडा वळवळला आहे म्हणजे त्या शंकेचं निरसन होईस्तोवर तो आपल्याला काही सुखाने जगू देणार नाही हेही त्यांना ठाऊक होतं.
“तुला कालचीच गोष्ट सांगतो,” काकांनी शंकासमाधानाला सुरुवात केली. “मी आणि बायको गेलो होतो पु ना गाडगीळमध्ये. पाचच मिनिटे दुकानात डोकावलो. बाहेर येऊन बघतो, तर दुकानासमोर पार्क केलेल्या गाडीशी ट्रॅफिक पोलीस येऊन ऊभा – हातात पावतीपुस्तक. आम्ही दोघेही कावरेबावरे होत त्याच्याकडे गेलो आणि अजीजीने त्याला सांगू लागलो – “बाबा रे, मोजून पाचच मिनिटे गेलो होतो रे. एक वेळ सोडून दे.”
तशी तो म्हणू लागला, “सगळेजण दर वेळी असंच म्हणतात. आपली चूक कबूल कोणीच करत नाही. हजार रुपयांची पावती फाडावी लागेल. एकदा पावती फाडली म्हणजे पुढच्या वेळी चूक होणार नाही.”
“तसे नाही, आमची चूक समजली आम्हाला. पुन्हा नाही होणार असं. आणि हजार रुपये म्हणजे फार होतात हो. आम्ही निवृत्त कर्मचारी आहोत हो. आमच्या पांढऱ्या केसांकडे तरी बघा.”
“लाखांच्या गाड्या फिरवता, पु ना गाडगीळमध्ये खरेद्या करता, कायदा मोडता आणि तुम्हाला हजार रुपये जड होतात होय ? बरं चला, तुम्ही वयस्कर आहात, म्हणून तुमच्याकडून फक्त दोनशे रुपये घेतो आणि देतो सोडून तुम्हाला या वेळी.”
” ‘त्या दोनशे रुपयांची पावती मिळेल ना ?’ माझा निरागस प्रश्न” – जोशी काका सांगत होते. तशी वस्सकन अंगावरच आला तो हवालदार.
“ओ, पावती हवी असेल तर हजारचीच होईल हो. दोनशेची काही पावती बिवती मिळणार नाही.”
“असं कसं ? पैसे दिल्यावर पावती नको ? सगळं कसं नियमानुसार व्हायला नको का ? सरळ सांग ना, तुला लाच खायची आहे म्हणून.”
माझ्या या बोलण्याने तो एकदम भडकलाच. आणि मग माझंच वाक्य धरून बसला.
“अस्सं म्हणताय काय ? सगळं नियमानुसार व्हायला पाहिजेल काय ? मग होऊनच जाऊ दे. मी म्हटलं म्हातारी माणसं आहेत, जरा सबुरीने घेऊ, तर तुम्ही मलाच अक्कल आणि कायदे शिकवताय ! चला, सगळे नियमच काढतो तुमचे आता.” हवालदाराने रौद्र रूप धारण केले.
… आणि मग तो हात धुऊन गाडीच्या मागे लागला. एक आरसाच तुटलेला आहे, मागची नंबर प्लेटच नीट नाहीये, PUC संपलेलं आहे – तीन चार हजार रुपयांपर्यंत मामला गेला.
हे फारच वाढतंय म्हटल्यावर मी बायकोला म्हटलं – “ तू सांगून बघ, तुझं ऐकतोय का तो ते.”
ती त्याला म्हणाली, “अरे बाळा, तू असं रागावू नकोस. हे काय बोलले ते मनाला लावून घेऊ नकोस. सोडून दे. त्यांच्याकडे लक्ष नको देऊस तू. हे घे दोनशे रुपये.”
पण आता तो हवालदार काही ऐकण्याच्या पलीकडे गेला होता.
“नको मला तुमचे ते दोनशे रुपये. आता पावतीच फाडणार मी.”
मग पुढे पाच दहा मिनिटे हे असंच चाललं, ती त्याची समजूत काढण्याचा प्रयत्न करत होती आणि दुखावला गेलेला तो, पावत्या फाडल्याशिवाय थांबणार नव्हता.” जोशी काका सांगत होते.
“अरे बाप रे ! दोनशे रुपये वाचवायला गेलास आणि हे भलतंच होऊन बसलं. मग काय केलं काय तुम्ही शेवटी ?” – मित्राची पृच्छा.
“मग काही नाही, आमची बस आली, आम्ही त्यात चढलो आणि घरी आलो.”
“आं ? मग गाडी ? तिच्या पावत्या ? दंड ? आणि तो हवालदार ?” मित्राला काहीच उमगेना.
“काय संबंध ? ती गाडी आमची नव्हतीच रे. आम्ही तर बसने आलेलो.…. तू मला विचारलंस – मी टाईमपास कसा करतो, ते मी तुला सांगत होतो. आणि आम्ही बसमध्ये चढलो तेव्हा त्या हवालदाराच्या तोंडावरचे भाव मात्र पहाण्यासारखे होते – आत्ता तुझ्या चेहऱ्यावर आहेत ना, तसेच होते अगदी !”
— जोशी काका निर्विकारपणे म्हणाले आणि आणखी टाईमपास करायला नवीन गिऱ्हाईक शोधू लागले.
☆ इस्रोची “आदित्य एल -१” मोहीम – भाग-२ ☆ श्री राजीव गजानन पुजारी ☆
७.आदित्य एल-१ वरील वैज्ञानिक अभिभार
सूर्याचा सांगोपांग अभ्यास करण्यासाठी या मोहिमेत सात अभिभारांच्या संचाचा समावेश करण्यात आला आहे.
अ )दृश्यमान उत्सर्जन रेषा किरिटालेख (Visible Emission Line Coronagraph- VELC) हा अभिभार प्रभामंडल आणि प्रभामंडलामधील वस्तूमान उत्सर्जनाच्या (Coronal Mass Ejection- CME) गतीशीलतेचा अभ्यास करणार आहे.
हा अभिभार निकट अतिनील (near infra-red) वर्णपटात सूर्याच्या दीप्तीमंडल (photosphere) व वर्णमंडल (chromosphere) यांच्या प्रतिमा घेईल व निकट अतिनील वर्णपटातच सौर विकिरणाच्या (solar irradiance) फेरबदलांची मोजणी करेल.
क,ड ) आदित्य सौरवारे कण प्रयोग (Aditya Solar-wind Particle Experiment- ASPEX) आणि आदित्यसाठीचा प्लाविका विश्लेषक संच (Plasma Analyser Packge for Aditya- PAPA)
हे अभिभार सौर वारे व ऊर्जावान आयन्स (energetic ions) व त्यांचे वितरण (distribution) यांचा अभ्यास करतील.
इ, फ ) सौर निम्न ऊर्जा क्ष किरण वर्णपटमापक (Solar Low Energy X-ray Spectrometer – SoLEXS) आणि उच्च ऊर्जा एल-१ परिभ्रमणीय क्ष-किरण वर्णपटमापक (High Energy L1 Orbiting X-ray Spectroscope अर्थात HEL1OS)
हे अभिभार सूर्यापासून निघणाऱ्या क्ष किरणांच्या उद्रेकांचा विस्तृत क्ष-किरण ऊर्जा श्रेणीत अभ्यास करतील.
ग ) चुंबकीयक्षेत्रमापक (Magnetometer)
हा अभिभार L-१ बिंदूच्या ठिकाणी अंतर्ग्रहीय चुंबकीय क्षेत्र मोजेल.
आदित्य एल – १ वरील सर्व अभिभार संपूर्णपणे स्वदेशी असून ते देशभरातील विविध प्रयोगशाळांद्वारा विकसित केले गेले आहेत. बेंगलोर स्थित भारतीय खगोल भौतिकी संस्थेने VELC उपकरण विकसित केले आहे. पुणे स्थित आंतर विद्यापीठ खागोलशास्त्र व खगोल भौतिकी केंद्राने SUIT हे उपकरण विकसित केले आहे. अहमदाबाद स्थित भौतिक संशोधन प्रयोगशाळेने ASPEX हे उपकरण विकसित केले आहे. विक्रम साराभाई अंतराळ केंद्र, तिरुअनंतपुरमच्या अंतराळ भौतिकी प्रयोगशाळेने PAPA हा अभिभार विकसित केला आहे. बेंगलोर स्थित यू. आर. राव उपग्रह केंद्राने SoLEXS व HEL1OS हे अभिभार विकसित केले आहेत. तर बेंगलोर स्थित इलेक्ट्रो ऑप्टिक्स प्रणाली प्रयोगशाळेने Magnetometer हा अभिभार विकसित केला आहे. हे सर्व अभिभार इस्रोच्या विविध केंद्राच्या निकट सहकार्याने विकसित करण्यात आले आहेत.
८. लॅगरेंज बिंदू–
दोन पिंडांच्या गुरुत्वाकर्षणीय प्रणालीसाठी लॅगरेंजबिंदू असे बिंदू आहेत जेथे एखादी लहान वस्तू ठेवल्यास ती तेथे स्थिर राहते. दोन पिंडांच्या प्रणालीसाठी, जसे की सूर्य व पृथ्वी, अंतराळातील हे बिंदू अंतराळयानाद्वारा कमीत कमी इंधन वापरून ते स्थिर ठेवण्यासाठी वापरले जाऊ शकतात. तांत्रिकदृष्ट्या लॅगरेंज बिंदूला दोन मोठ्या वस्तूंमधील गुरुत्वाकर्षणीय बल हे लहान वस्तूला त्यांच्याबरोबर जाण्यासाठी आवश्यक असणाऱ्या अपकेंद्रीय बलाशी तुल्यबळ असते. द्विपिंड गुरुत्वाकर्षणीय प्रणालीसाठी एकंदर पाच लॅगरेंज बिंदू असतात व ते एल १, एल २,एल ३, एल ४, एल ५ असे ओळखले जातात. एल १ हा लॅगरेंज बिंदू सूर्य पृथ्वी यांच्यामध्ये, त्यांना जोडणाऱ्या रेषेवर असतो व त्याचे पृथ्वीपासूनचे अंतर सूर्य व पृथ्वी यांच्यामधील अंतराच्या एक टक्का एवढे असते.
९.आदित्य एल-१ चे प्रक्षेपण व त्याचे एल-१ पर्यंतचे मार्गक्रमण :–
इस्त्रोद्वारा आदित्य एल -१ मोहिमेचे प्रक्षेपण पीएसएलव्ही प्रक्षेपका द्वारा सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र -शार (SDSC-SHAR) श्रीहरीकोटा येथून ऑगस्ट २०२३ मध्ये केले जाईल. सुरुवातीला अंतराळयान पृथ्वी समीप कक्षेमध्ये (Low Earth Orbit-LEO) स्थित केले जाईल. नंतर कक्षा जास्त लंबवर्तुळाकार (elliptical) केली जाईल. त्यानंतर यानावर असणाऱ्या प्रणोदन प्रणालीचा (propulsion system) उपयोग करून त्याला एल-१ कडे प्रक्षेपत केले जाईल. जसजसे यान एल -१ कडे जात जाईल तसतसे ते पृथ्वीच्या गुरुत्वीय क्षेत्राच्या प्रभावातून (Gravitational Sphere Of Influence) बाहेर पडेल. गुरुत्वीय क्षेत्राच्या प्रभावा बाहेर पडल्यावर पर्यटन टप्पा (cruse stage) सुरू होईल व सरते शेवटी यान एल-१ भोवतालच्या मोठ्या आभासी कक्षेत अंत:क्षेपित केले जाईल प्रक्षेपणापासून ते एल-१ मध्ये अंत:क्षेपित केला जाण्याचा काळ हा चार महिन्यांचा असेल.
१०)अंतराळातून सूर्याचा अभ्यास का करायचा?
सूर्य विविध तरंग लहरींमध्ये प्रकाश उत्सर्जित करीत असतो. त्याबरोबरच तो अनेक ऊर्जा भरीत कण व चुंबकीय क्षेत्र यांचेही उत्सर्जन करीत असतो. पृथ्वी भोवतालचे वातावरण त्याचप्रमाणे तिचे चुंबकीय क्षेत्र सूर्यापासून उत्सर्जित झालेल्या हानिकारक लांबींच्या तरंग लहरी, सौरकण व सौरचुंबकीय क्षेत्र यांसाठी ढाल म्हणून काम करतात. सूर्यापासून निघणारी प्रारणे पृथ्वीच्या पृष्ठभागापर्यंत पोहोचू शकत नसल्यामुळे पृथ्वीवरील उपकरणांद्वारे त्या प्रारणांचा शोध घेता येणार नाही आणि या प्रारणांच्या मदतीने केला जाणारा सूर्याचा अभ्यास करता येणार नाही. परंतु पृथ्वीपासून दूर म्हणजे अंतराळातून निरीक्षण करून या प्रारणांच्या मदतीने सूर्याचा अभ्यास करता येतो. त्याचप्रमाणे सौरवाऱ्याचे कण आणि सूर्यापासून प्रसारित होणारे चुंबकीय क्षेत्र आंतर्ग्रहीय अवकाशातून प्रसारित होताना त्याचे मोजमाप करण्यासाठी पृथ्वीच्या चुंबकीय क्षेत्राचा परिणाम होणार नाही अशा जागेची आवश्यकता भासते. यासाठी सूर्याचा अभ्यास अंतराळातून करणे श्रेयस्कर असते.
११)आदित्य एल-१ मोहीम सूर्याचा अभ्यास करण्यासाठीची परिपूर्ण मोहीम आहे का?
या प्रश्नाचे स्वाभाविक उत्तर ‘नाही’ असेच आहे. हे उत्तर फक्त आदित्य एल-१ साठीच खरे नाही तर इतर कोणत्याही अंतराळ मोहिमेसाठी ते तितकेच खरे आहे. याचे कारण अवकाशात वैज्ञानिक अभिभार वाहून नेणाऱ्या यानाला वस्तुमान, ऊर्जा व आकारमान यांच्या मर्यादा असतात. त्यामुळे यानावर मर्यादित क्षमतेच्या मर्यादित उपकरणांचा संच पाठवता येतो. आदित्य एल-१ च्या बाबतीत सर्व निरीक्षणे लॅगरेंज बिंदू एल-१ या ठिकाणाहूनच केली जाणार आहेत. उदाहरणार्थ सूर्यापासून निघणारी प्रारणे, चुंबकीय क्षेत्र, सौरवारे आदि गोष्टी बहुदैशीक असतात. त्यामुळे यांपासून सर्व बाजूंनी वितरित होणाऱ्या ऊर्जेचे मोजमाप आदित्य एल-१ द्वारा करता येणार नाही. आणखी एक लॅगरेंज बिंदू जो एल-५ म्हणून ओळखला जातो तो पृथ्वीकडे येणाऱ्या प्रभामंडलीय वस्तुमान उत्सर्जन आणि अंतरिक्ष वातावरणाच्या अभ्यासासाठी सुयोग्य बिंदू आहे. तसेच सूर्याच्या ध्रुवबिंदूंचा अभ्यास आपल्या तंत्रज्ञानातील मर्यादांमुळे म्हणावा तेवढा झालेला नाही. सूर्याच्या ध्रुव प्रदेशातील गतिशीलता व चुंबकीय क्षेत्र हे सौरघटनाचक्रे निर्माण होण्यामध्ये महत्त्वाची भूमिका बजावतात असे मानले जाते. आणखी एक महत्त्वाची गोष्ट म्हणजे सूर्याच्या अंतरंगात व त्याच्याभोवती घडणाऱ्या विविध घटनांचा अभ्यास करण्यासाठी विविध तरंगलांबींमध्ये बाहेर पडणाऱ्या सौर प्रारणांच्या ध्रुवीकरणांची निरीक्षणे करणे आवश्यक आहे, जे आदित्य एल-१ करू शकणार नाही.