हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 75 – पानीपत… भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 75 – पानीपत… भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

हमारे मुख्य प्रबंधक जी विक्रमादित्य के सिंहासन सदृश्य मुख्य प्रबंधक कक्ष में स्थापित सिंहासन पर बत्तीस पुतलों की शंकास्पद नजरों को उपेक्षित कर विराजमान हो गये. उनका ताजा ताजा प्रमोशन उन्हें टेम्प्रेरी अतिरिक्त आत्मविश्वास भी दे रहा था और आत्मप्रवंचना भी. उनकी यह सोच कि तुम, याने पुतले, बत्तीस हैं तो क्या हम तो “आठ अठैंया चौंसठ” वाले राजा हैं. इस आठ अठैंया चौंसठ का फारमूला उन कैडरलैस जवानों के लिये हैं जिनका हर आठ साल में प्रमोशन सुनिश्चित रहता है. आठ साल का अंतराल, ये क्रास होने नहीं देते और इनका लक्ष्य और सफर हमेशा सहायक से सहायक महाप्रबंधक की मंजिल तक पहुंचने का होता है. तो इनके पास अभी बहुत समय था आखिरी मंजिल तक पहुंचने का. जो पास में नहीं था या नहीं थी वह थी मुखरता. सिंहासन की प्राथमिक चुनिंदा शर्तों में से एक मुखर होना भी आवश्यक होता है. अगर आप अपनी खुशी, अपना दुख, अपना गुस्सा, अपनी निराशा, अपनी अपेक्षायें प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त नहीं कर पाते तो जाहिर है कि टीम के साथ कम्युनिकेशन कैसे होगा. फिर टीम मेंबर मुखर होंगे और अपनी अपेक्षायें, अपनी फरमाइशें, अपनी तकलीफें, टीम लीडर के ऊपर थोपेंगे. जब आप खामोश होते हैं तो ये खामोशी आपसे आपके कंधों की उपयोगिता, आपकी आंखों की अभिव्यक्ति भी छीन लेती है. हर टीमलीडर के कंधो की उपयोगिता, टीम को भावुकता के क्षणों में, निराशा के लम्हों में महसूस होती है.

अभिनेता संजीव कुमार और अभिनेत्री जया भादुड़ी बहुत सशक्त अभिनेता थे जो अपनी भावप्रवण आंखों से फिल्म “परिचय” के चुनिंदा दृश्य और एक पूरी फिल्म “कोशिश” सजीव कर सके. उनकी बोलती आंखों ने संवाद के बिना ही संवेदनशीलता और कम्युनिकेशन की उस ऊंचाई को स्पर्श किया जिसे दोहराना नामुमकिन सा ही लगता है. पर सामान्यत: ये गुण हर किसी में नहीं होता और वैसे भी बात सिर्फ तीन घंटे की फिल्म की नहीं होता. ये पूरी जीवन शैली, पूरे व्यक्तित्व की होती है. तो बात जब राजा या लीडर के पद पर काम करने की हो तो मुखरता की उपेक्षा नहीं की जा सकती. हमारे ग्रुप में भी बहुत सारे मान्यवर सदस्य हैं जिन्होंने प्रबंधन और संघ के महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को वहन किया है. वे इस मुखरता को बहुत अच्छे से जानते होंगे. ये मुखरता, कुरुक्षेत्र के अर्जुन के महत्त्वपूर्ण अस्त्रों में से एक के समान वांछित होती है. इसे चालू भाषा में कहना हो तो ऐसे भी कहा जा सकता है कि “आप कुछ बोलो तो सही “: ‘यस सर यस सर’ कहने वाले तो आपके चारों तरफ मौके की तलाश में उम्मीद लगा कर बैठे हैं या सही शब्दों में खड़े हैं. अगर मुख्य प्रबंधक जी आप नहीं बोल पाते तो फिर ये लोग किसी दूसरे को ढूंढेंगे जो कुछ बोले तो ये “यस सर यस सर” कह पायें. इसके अलावा भी हम लोगों में यह लोकोक्ति बहुत प्रसिद्ध है कि “बच्चा अगर रोयेगा नहीं तो मां तो दूध भी नहीं पिलायेगी. बैंक की भाषा में अगर कहा जाये तो शाखा के प्रबंधक या मुख्य प्रबंधक जब तक रोयेंगे नहीं, सॉरी जब तक कुछ मांगेगे नहीं तो नियंत्रक सर, कहाँ कुछ देने वाले.

ये मुखरता का अभाव बहुत गैप बना रहा था. स्टाफ चाहता था कि उसके और कस्टमर के बीच में बॉस की मुखरता एक पुल बने, कस्टमर की अपेक्षाएं थीं कि सर हमारी परेशानियों का निदान करें, परेशान करने वाले स्टाफ को नसीहत दें, मन लगाकर सामान्य से भी अधिक काम करने वाले कारसेवक उनसे तारीफ के दो शब्द सुनना चाहते थे, परेशान करने वाले चाहते थे कि कम से कम डांटें तो, ताकि हम अपनी कलाकारी का मजा ले सकें और यूनियन के नेता भी यही चाहते थे कि ये कुछ बोलें तो तब तो हम भी इनको बतायें कि हम क्या चीज हैं. पर दिक्कत यही थी कि ये कुछ बोलते ही नहीं थे. जुबान को मुंह में और हाथो को पेंट की दोनों जेबों याने पाकेटों में बंद करके ये तो बुद्ध के समान निर्विकार बने रहते हैं. आंखे भी फरियाद सुनने की एक्टिंग से महरूम नजर आती थीं. जब तक दूसरे बोलते रहते, ये या तो अपने सिंहासन पर गहरी सोच में बैठे रहते और फिर सिर झुकाकर अपने काम में लग जाते. फरियादी कनफ्यूज हो जाता कि उसकी बात सुनी गई या नहीं और उसी मन:स्थिति में बाहर आता जैसे हम लोग मंदिरों में भगवान से कुछ मांगने, प्रार्थना करने के बाद आ जाते हैं. ये बिल्कुल भी निश्चित नहीं होता कि भगवान ने हमारी प्रार्थना सुनी भी है या नहीं और प्रभु से जो मांगा है वो मिलेगा या नहीं. बाद में बैंक के कस्टमर्स भी इनको समझ गये और जब कोई छोटा प्रबंधक ये बोलता कि “अगर आप हमारे समाधान से संतुष्ट नहीं हैं तो जाइये चीफ मैनेजर से मिल लीजिए. तो वाकिफ और अभ्यस्त कस्टमर्स साफ मना कर देते कि सर! हम तो नहीं जायेंगे, जो भी हमारा भला बुरा होगा, होगा या नहीं होगा, सब आप ही करेंगे. अंततः वही जूनियर प्रबंधक गण खुश होकर या दयालु होकर कस्टमर्स की समस्याओं का निदान कर देते. इसे वरदान समझकर और ऊपर वाले (प्रथम तल वाले को नहीं बल्कि ईश्वर को) सादर प्रणाम करते हुये शाखा के निकास द्वार की ओर बढ़ जाते.

नोट :पानीपत का युद्ध जारी रहेगा टेस्ट मैच की गति से. जो प्रशंसा के दो शब्द अभिव्यक्त करने भी हमारे इन्हीं मुख्य प्रबंधक महोदय जैसे कृपण बने हुये हैं या बुद्ध जैसे निर्विकार होने का ढोंग कर रहे हैं उनसे यही कहा जा सकता है कि ये दैनिक भास्कर अखबार नहीं है जो अनजान व्यक्ति सुबह सबेरे दरवाजे पर डाल जाता है. संभावनाओं की पराकाष्ठा उसे ऐ. पी. जे. अब्दुल कलाम भी बना सकती है. हालांकि ये तय है कि मेरे साथ ये नहीं होगा. प्रार्थना मैंने भी की थी पर पता नहीं चला कि भगवान ने सुनी थी या नहीं. नहिंच ही सुनी होगी.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “सावन की कुंडलिया…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ “सावन की कुंडलिया…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

(१)

सावन आया मन रहा,  बूंदों का त्योहार।

मौसम को तो मिल गया, क़ुदरत का उपहार।।

क़ुदरत का उपहार, दादुरों में खुशहाली।

खेतों में मुस्कान, सिंचाई है मतवाली।।

मेघों का उपकार, धरा पर जल है आया।

स्वर गूंजें चहुंओर, आज तो सावन आया।।

(२)

सावन आया द्वार पर, करने सबसे प्यार।

मेघों द्वारा हो रहा, वर्षा का सत्कार।।

वर्षा का सत्कार, स्रोत जल के खुश दिखते।

कविगण में है हर्ष, सभी कविताएं लिखते।।

नाचें वन में मोर, सुखद पावस की माया।

आल्हा की है तान, बंधुवर सावन आया।।

(३)

सावन आया झूमकर, गाता हितकर गीत।

वर्षा रानी बन गई, कृषकों की मनमीत।।

कृषकों की मनमीत, नदी-नाले मस्ती में।

जंगल में है जोश, पेड़ सारे हस्ती में।।

मौसम का यशगान, हवाओं का रुख भाया।

उत्साहित सब लोग, सुहाना सावन आया।।

(४)

सावन आया है चहक, मौसम में आवेग।

मेघों ने हमको दिया, जल का पावन नेग।।

जल का पावन नेग, क्यारियों में रौनक है।

नदियों में सैलाब, बस्तियों में धक-धक है।

राखी का त्योहार, खुशी के पल लाया है।

ख़ूब पले अनुराग, देख सावन आया है।।

(५)

सावन आया ऐ सुनो, सब कुछ है अनुकूल।

आतप के चुभते नहीं, अब तो तीखे शूल।।

अब तो तीखे शूल, शीत की लय है प्यारी।

मौसम रचे खुमार, धरा लगती है न्यारी।।

सबने पीकर चाय, गर्म मुंगौड़ा खाया।

बिलखें ठंडे पेय, जोश में सावन आया।।

(६)

सावन आया मीत सुन, मादक चले बयार।

फिर भी तू क्यों दूर है, सूना मम् संसार।।

सूना मम् संसार, नहीं कुछ भी है भाता।

बांहें हैं बेचैन, एक पल चैन न आता।।

दिल में जागी प्रीति, मिलन का भाव समाया।

आज यही बस सत्य, रसीला सावन आया।।

सावन है नव चेतना, सावन इक उत्साह। 

सावन इक चिंतन नया, सावन है नव राह।। 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 191 ☆ गज़ल ☆ वृत्त – मृगाक्षी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे… ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

? कवितेच्या प्रदेशात # 191 ?

☆ गज़ल ☆ वृत्त – मृगाक्षी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

मला सांगायचे आहे जरासे

इथे थांबायचे आहे जरासे

किती दुष्काळ सोसावा धरेने

अता बरसायचे आहे जरासे

नदीला पूर आल्याचे कळाले

तिला उसळायचे आहे जरासे

कधी बेधुंद जगताना मलाही

जगा विसरायचे आहे जरासे

मिळे सन्मान शब्दांना स्वतःच्या

तिथे मिरवायचे आहे जरासे

मला या वेढती लाटा सुनामी

मरण टाळायचे आहे जरासे

[लगागागा लगागागा लगागा (मृगचांदणी मधून)]

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पश्चात्ताप… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पश्चात्ताप… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

गतीचे प्रामाण्य ,

प्रगतीचे वेग.

मनाचे आवेग,

थोपविले.

नाही जुमानली,

प्रचलित नाती.

हाती आले काय?

अपयश !

होउन खलाशी,

निघालो प्रवासी.

नाैकाही विनाशी,

प्रारब्धाची.

काही व्यथांचे जनक,

बाकी प्रमादांचे बाप.

केला पश्चात्ताप ,

हकनाक .

 

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कावळे मामा… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

 🌸 विविधा 🌸

☆ कावळे मामा… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

नाव विचित्र वाटते ना? पण या मामांचा घेतलेला अनुभव सांगते,मग तुम्हालाही पटेल.तर गंमत अशी झाली परवा ( हे आपले म्हणायचे.शब्दशः घ्यायचे नाही.) घरा बाहेर पडले माझ्याच नादात आणि काही कळण्या पूर्वी एकदम हल्लाच झाला.अचानक डोक्यावर टप टप कशाचे तरी वार होऊ लागले.मी एकदम घाबरुनच गेले.वर बघते तर कावळे महाराज डोक्यावर अजून मार देण्याच्या प्रयत्नात होते.कशीबशी पुढे गेले.मनात नाना विचार.आता कावळा अंगावर आला काही अशुभ घडेल का? इतके विचार आले की मी पार याची डोळा ( मनातच हं ) मरण पण बघितले.पुन्हा घरी आल्यावर हे महाराज स्वागताला हजरच.घरात पण जाऊ देई ना.कुलूप उघडून घरात जाईपर्यंत पाठलाग केला.कशीतरी घरात गेले.नंतर समजले आज हा प्रसाद घरातले,शेजारचे,आमच्या घरा समोरून जाणाऱ्या प्रत्येकाला मिळाला होता.मग जरा निरीक्षण केले तर त्या कावळीणीचे पिल्लू खाली पडले होते.आणि त्याच्या रक्षणासाठी ती आमच्यावर हल्ला करत होती.

मग आधीचे काही दिवस आठवले,थोडे गुगलले आणि सगळे लक्षात आले.काही दिवसांपूर्वी वसंत ऋतूत कोकीळ कुजन चालू असते.तेव्हा हे कावळे घरटे ( झाडाच्या अगदी टोकावर उंच ) तयार करतात.यांची अंडी घरट्यात विराजमान झाली की कावळीणीचे काम असते.त्यात ही कोकीळ जोडी त्यांच्या घरट्या भोवती कर्कश्श ओरडुन त्यांना मागे यायला भाग पाडतात.कोकीळ त्यांना लांब घेऊन जातो.आणि कोकिळा कावळ्याच्या घरट्यात आपली अंडी घालते.जेवढी अंडी घालते तेवढी कावळ्याची अंडी खाली ढकलून देते.नंतर दुसरे घरटे शोधायला निघतात.आणि कावळ्याची जोडी त्या अंड्यांची निगुतीने काळजी घेतात.आमच्याही दारातील अशोकाच्या झाडावर हेच झाले होते.यथावकाश कावळ्याने पिल्लांना उडायला शिकवले.ते पण अगदी बघण्या सारखे होते.पिल्लू घरट्याच्या काठावर येऊन बसले की त्यांची आई पिल्लांना ढकलून देत असे.थोडा वेळ होलपटून ते पिल्लू छान गिरकी घेऊन उडत असे.हे सगळे बघणे मोठीच पर्वणी होती.त्यातच हे कोकीळेचे आळशी पिल्लू होते.त्याला ढकलल्या नंतर ते धप्पकन खाली पडले आणि आम्ही त्याला इजा करू नये म्हणून आपले मामा चे कर्तव्य पार पाडत,हे मामा आम्हाला डोक्यात चोचीने मारत होते.

अखेरीस एक दिवस ते पिल्लू उडाले आणि कावळे मामा कृतकृत्य झाले.ते पिल्लू लांब जाऊन बसले आणि कुहूकुहू करू लागले.

ही पक्ष्यांची गंमत बघताना आश्चर्य वाटून गेले.अवती भोवतीचा निसर्ग किती वास्तविकता दाखवतो.

जसा कावळा दरवर्षी फसतो तसेच आम्ही पण दरवर्षी कावळे मामांचा प्रसाद खातो.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

सांगवी, पुणे

मोबाईल नंबर – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘बासरी…’- भाग ५ ☆ श्री प्रदीप केळुस्कर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ ‘बासरी…’- भाग ५ ☆ श्री प्रदीप केळुस्कर 

(मागील भागात आपण पहिले – ऑपरेशन करणार्‍या डॉक्टरांचे रोज हॉस्पिटलमध्ये फोन येत होते. बापट बाईंची विचारपूस करत असताना त्यांना सोमवारी डिस्चार्ज मिळणार हे कळताच, मी सोमवारी संध्याकाळी पाच वाजता येतो आहे, मी पेशंटला तपासतो आणि मगच डिस्चार्ज द्या असा डॉक्टरांचा निरोप आला. आता इथून पुढे) 

 सोमवार, ८ सप्टेंबर

आज बापट बाईंना डिस्चार्ज मिळणार म्हणून हॉस्पिटलमध्ये पुन्हा सर्व तपासण्या झाल्या, सर्व रिपोर्ट नॉर्मल आले. औषधे, घ्यायची काळजी, आहार याबद्दल सर्व माहिती दिली गेली. सकाळ पासून बापटांचे नातेवाईक भेटून जात होते. शुभेच्छा देत होते. बाई पुन्हा पुन्हा या हॉस्पिटलमधील सर्व डॉक्टर्सना, नर्सेसना, वॉर्डबॉयना धन्यवाद देत होत्या. त्या सर्वांनी बाईंची खूपच काळजी घेतली होती. ऑपरेशन करणारे डॉक्टर पाच वाजता यायचे होते तेव्हा त्या त्यांचे आभार मानणार होत्या.

संध्याकाळचे पाच वाजले आणि हॉस्पिटलसमोर डॉक्टरांची गाडी उभी राहीली. डॉक्टरांची पत्नीपण समवेत होती. दोघ दुसर्‍या मजल्यावरील हार्ट डिपार्टमेंटमध्ये आली. डॉ. रानडे यांनी त्यांचे स्वागत केले. त्यांच्याशी दोन मिनिटे बोलून डॉक्टर आणि त्यांची पत्नी डॉ. रानडेंसह बापट बाईंच्या रुममध्ये आली. रुममध्ये बापट साहेब, त्यांची बहिण, भाचा-भाची सर्वजण होते. डॉक्टर आत आले आणि त्यांनी हळूच खिशातून काहीतरी बाहेर काढले. सर्वजण डॉक्टरांकडे पाहत होते. एवढ्यात डॉक्टरांनी बासरी आडवी करत ओठाकडे नेली आणि बासरीतून मधुर सुर बाहेर पडू लागले. रुममधील सर्व मंडळी डॉ. रानडे, नर्स, वॉर्डबॉय सर्वजण हे काय नवीन डॉक्टरांचं बासरी वादन असं म्हणत असताना, बापट बाई डॉक्टरांचे आभार मानण्यासाठी हात अर्धवट वर घेत असताना बासरी तोंडात घेतलेले डॉक्टर त्यांच्या समोर आले. बाईंच्या डोळ्यासमोर अचानक मालवण, फोकांड्याचा पिंपळ, बासरीसाठी हट्ट धरणारा कृष्णा आठवला आणि तीच बासरी, बासरी तोंडात धरण्याची तीच पध्दत, तसेच वाजवलेले ते सुर कानात पडताच बापट बाई ओरडल्या –

कृष्णा ! कृष्णा !!

रडत रडत डॉक्टर त्यांच्या पायावर कोसळत म्हणाले – होय बाई, मीच तुमचा कृष्णा.

गंगा-जमुना डोळ्यातून वाहणार्‍या बापट बाई त्यांचे तोंड हातात धरत म्हणाल्या, ‘‘कुठे होतास रे बाळा ? वेड्यासारखी आयुष्यभर शोधत राहिले रे कृष्णा ! काही न सांगता गेलास रे बाळा’’

गदगदलेल्या स्वरात डॉक्टर बोलू लागले – ‘‘होय बाई, तुमच्या कृष्णाला क्षमा करा किंवा तुम्ही क्षमा करावी म्हणूनच एवढ्या वर्षांनी तुम्ही याच हॉस्पिटलमध्ये उपचारासाठी आलात. बाई सिनेमात असे योगायोग असतात, भाऊ-भाऊ अनेक वर्षांनी भेटतात, आई मुलाची ताटातुट होते, पुन्हा भेटतात आपण अशा सिनेमांची चेष्टा करतो, पण खरोखरच असा योगायोग माझ्या आयुष्यात येईल असे स्वप्नातही वाटले नव्हते, किती छान योगायोग हा !’’ डॉक्टर रडत रडत पुढे म्हणाले – डॉ. रानडे त्या दिवशी ऑपरेशन करताना पेशंटच्या चेहर्‍याकडे लक्ष गेले आणि मी दचकलोच. माझी आईच ऑपरेशन टेबलावर होती. ज्या हृदयात माझ्याबद्दल प्रेम, वात्सल्य काठोकाठ भरलेलं आहे, तेच हृदय मला फाडायचं होतं. सुरुवातीला माझे हात थरथरु लागले. मी इमोशनल होत गेलो. पण डॉक्टर रानडे तुम्ही मला टोचलत आणि माझ्या लक्षात आलं समोर ऑपरेशन करायचं आहे ते माझ्या आईचं नव्हे पेशंटचं. पेशंट आपलं शरीर आम्हा डॉक्टरावर विसंबून स्वाधीन करतो, त्या पेशंटला मला बरं करायचयं, आणि मग मी सफाईने ऑपरेशन केलं.’’

      बापट बाई आणि त्यांच्या पायाकडे बसलेले शिंदे पाहून इतरांच्या काही लक्षात येत नव्हते. कोण आई ! कोण बाई ? एवढ्यात तिथे बसलेले बापट साहेब पुढे झाले. त्यांनी कृष्णाला ओळखले. ‘‘कृष्णा ! आम्ही किती शोधलं तुला. या तुझ्या बाईंना वेड लागायचं बाकी होतं, तू निदान एखादं कार्ड तरी पाठवायचं, कुठं होतास तू?’’

‘‘मी एक कार्ड पाठवलं होत काका, पण ते कार्ड पत्ता चुकीचा म्हणून परत आलं, मग मी बारावी पास होऊन मेडिकलला अ‍ॅडमिशन मिळाली हे सांगायला मालवणला गेलो होतो तेव्हा तुम्ही मालवण सोडलं होतं.’’

बापट काकांनी बापट बाईंच्या पायाकडे बसलेल्या डॉ. शिंदेना वर उचलल आणि बाईंच्याच बाजूला बसवलं.

‘‘खूप आनंद झाला रे कृष्णा, अवि अमेरिकेला असतो. या पुण्यात हे आणि मी. गेली काही वर्षे मधुमेह आणि प्रेशरने मला त्रस्त केलं. मला कंटाळा येतो रे कृष्णा, एक सारखी मालवणची आठवण येते. आपली शाळा, ते मुख्याध्यापक सामंत, तो सहावीचा वर्ग आणि शेवटच्या बाकावर निश्चल डोळ्यांनी समोर पाहणारा कृष्णा.’’

डॉ. शिंदे बोलू लागले – ‘‘डॉ. रानडे, आज तुम्हाला हा प्रसिध्द हार्टसर्जन डॉ. शिंदे दिसतो तो या माऊलीमुळे. माझी आई मला लहानपणीच सोडून गेली तेव्हा मी सैरभैर झालो होतो. तेव्हा या माऊलीने आपल्या तोंडातला घास मला भरवला. आपल्या मुलासारखंच मला वाढवलं. पण मी एवढा कृतघ्न की यांना न सांगता बाबाबरोबर गावी गेलो. पण बाई, काका माझा नाईलाज झाला हो, मी होतो केवढा जेमतेम अकरा वर्षाचा॰ आमच्या गाववाल्यांनी माझ्या बापाच लग्न ठरवलं आणि माझा बाप हुळहुळला. काही विचार न करता मालवण सोडूया म्हणाला, मी नाही म्हटलं तेव्हा मला बेदम मारलं आणि चार पाच भांडी गोणत्यात घालून एसटी पकडली. या परिस्थितीत मी पोटाकडून दडवून ठेवली ती ही बासरी. फोकांड्याच्या पिंपळाकडे आलेल्या एका बासरी विक्याकडून माझ्या मनात भरलेली ही बासरी या मातेने मला घेऊन दिली. तशीच बासरी यांच्या मुलाला अवि ला पण हवी होती. पण त्या बासरी विक्याकडे अशी एकच बासरी होती, अवि हट्ट करु लागला तेव्हा स्वतःच्या मुलाला अविला दोन चापट्या देऊन ही बासरी मला देणारी ही माझी माता. मालवण सोडताना ती बासरी तेवढी मी बरोबर घेतली.

      आमच्या गावाकडे आल्यानंतर बाबाचे लग्न झाले आणि तो चेकाळलाच. माझ्या नवीन आईला मी नकोच होतो. पुन्हा एकदा दोन वेळच्या खाण्याची पंचाईत. पण बाबाने एक मोठी गोष्ट केली माझ्यासाठी॰ सातार्‍यात रयत शिक्षण संस्थेत नेऊन माझा दाखला दिला आणि आयुष्यात दुसर्‍यांदा मला आधार मिळाला. रयत संस्थेत वसतीगृहात राहिलो आणि शाळेत शिकलो. या संस्थेने मला घडवले. इथेही चांगला अभ्यास केला. शाळेत सतत पहिला येत राहिलो. या सातारा शाळेचे मुख्याध्यापक कदम साहेब यांनी प्रोत्साहन दिले. दहावी, बारावीत बोर्डात आलो आणि या कदम साहेबांमुळे मेडिकलला गेलो. या कदम साहेबांनी आपली मुलगी मला दिली आणि तीच माझी पत्नी डॉ. जयश्री. बाई ही तुमची सून जयश्री.

जयश्री येऊन बाईंच्या बाजूला बसली. बापट बाईंनी जयश्रीला जवळ घेतले. किती गोड सून माझी ! मी अविच्या मागे लागले आहे, लग्न कर लग्न कर, पण अजून तो मनावर घेत नाही. पण कृष्णा तू मला पहिली सून दिलीस.

बाई किती वर्षांनी तुम्ही दिसलात. आज खरं तर हवी तशी चांगली बासरी मी विकत घेऊ शकतो पण आजही रोज नियमितपणे हीच बासरी वाजवतो तुम्ही घेऊन दिलेली. ही बासरी माझ्यासाठी अमूल्य आहे आणि माझ्या आईने ती मला घेऊन दिली आहे.

डॉ. रानडे आणि हा हॉस्पिटल स्टाफ, तुम्हाला कदाचित हा फॅमिली ड्रामा वाटत असेल तर तसे नाही. माझ्या डोळ्यात आलेले हे अश्रू अस्सल आहेत. मोत्यासारखे.

‘‘होय रे कृष्णा, यात खोटेपणा कसा असेल. आणि कृष्णा मी तुझ्यासाठी फार केल असं समजू नकोस, मुख्याध्यापक सामंत म्हणाले होते, ‘‘बाई या पोरक्या पोराची आई होण्याचा प्रयत्न करा, तसा मी प्रयत्न केला.’’

‘‘प्रयत्न केला नाही, आईच झालात तुम्ही बाई.’’

‘‘होय रे कृष्णा, मी आईच तुझी.’’

‘‘तर मग बापट काका, आई तुम्ही आता माझ्या म्हणजे आपल्या घरी यायचं. तसं तुम्हाला या ऑपरेशननंतर डॉक्टरची गरज आहेच. आम्ही दोघंही तुमची काळजी घेऊ आणि आपल्या घरात मला आई बाबा हवेत. जयश्रीला पण सासू-सासरे हवेत. तेव्हा नाही म्हणू नका. आईबाबा आपल्या घरी चला.

‘‘कृष्णा आम्ही येतो तुझ्या बरोबर नाहीतरी आम्ही पुण्यात दोघंच राहून कंटाळलोय, आम्ही आपल्या घरी येऊ आणि कृष्णा, जयश्री माझी एक इच्छा आहे, आपण लवकरच मालवणला जाऊया. मला ती आपली शाळा, तो मालवणचा समुद्र, तो फोकांड्याचा पिंपळ, ते भरड आणि तू शाखेत जायचास ते नारायण मंदिर सर्व डोळे भरुन पहायचं आहे.’’

‘‘होय आई, मला पण मालवणला जायची केवढीतरी घाई झाली आहे. आणि आईबाबा नुसतं मालवणात जायचं नाही, मालवणात आपलं घर बांधायचं.’’

‘‘होय कृष्णा माझी पण इच्छा आहे, आयुष्याची अखेर त्या मालवणात व्हावी. त्या मालवणच्या मातीत माझ्या अस्थी विरघळाव्या.’’

‘‘होय आई, चला आपल्या घरी.’’ 

डॉ. शिंदेनी खूणा करताच बापट बाईंच्या बॅगा, औषधे वॉर्डबॉयने डॉक्टरांच्या गाडीत नेऊन ठेवले आणि डॉ. शिंदे आणि जयश्री शिंदे आई-बाबांना सांभाळत गाडीकडे घेऊन गेले. गाडी सुरु झाली आणि ड्रायव्हरने टेप चालू केली. बाबुजी सुधीर मोघेंचं गाण आळवत होते.  

फिटे अंधाराचे जाळे, झाले मोकळे आकाश….

दरी खोर्‍यातून वाहे, एक प्रकाश प्रकाश….

एक प्रकाश प्रकाश…..

 –  समाप्त –

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ निसर्गरुपे : दुपार… ☆ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे ☆

श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

?मनमंजुषेतून ?

☆ निसर्गरुपे : दुपार…  ☆ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे 

निसर्गाची विविध रूपे मला भावतात. सगळीच रूपे तशी मनोहर असतात. अर्थात तशी दृष्टी तुमच्याजवळ असेल तर तुम्हाला दुपार सुद्धा आवडेल. पौर्णिमेची रात्र तर सर्वांना आवडतेच पण निसर्गावर प्रेम करणाऱ्यांना अमावास्येची रात्र सुद्धा तेवढीच आवडते. पौर्णिमेला पूर्ण चंद्र आकाश प्रकाशमान करतो. समुद्राला भरती येते. रुपेरी चंद्रप्रकाश अवघे विश्व व्यापून टाकतो. कवी, लेखकांच्या प्रतिभेला बहर येतो. पण अमावास्येची रात्रही तेवढीच सुंदर असते. त्यावेळी आकाश म्हणजे जणू चंद्रकळा ल्यालेली एखादी घरंदाज गृहिणी वाटते. चांदण्याची नक्षी तिच्या साडीला जडवलेली असते. हा जरीपट खूप शोभून दिसतो. 

खरा निसर्गप्रेमी कोकिळेवर जेवढे प्रेम करतो, तेवढेच प्रेम कावळ्यावर आणि घुबडावर सुद्धा करतो. अशीच निसर्गाच्या प्रेमात पडलेली व्यक्ती दुपार हे निसर्गाचेच रूप आहे हे समजून त्याचा आनंद घेते. गुलाब, जाईजुई, मोगरा ही फुले मला आवडतातच पण सदाफुली आणि गवतफुलासारखी फुलंसुद्धा मन मोहून घेतात. तेही निसर्गाचेच सुंदर अविष्कार आहेत. 

बहुतेक सगळ्या कवी, लेखकांनी पहाटेच्या वेळेचं रम्य वर्णन केलं आहे. संध्याकाळ आणि रात्रीचंही केलं आहे. पण दुपारचं वर्णन फारसं कोणी केल्याचं वाचनात आलं नाही. सकाळ, संध्याकाळ आणि रात्रीच्या प्रसंगांचं वर्णन करणारी शेकडो गाणी आहेत पण दुपारच्या वेळेवर लिहिलेली गाणी मला कुठे आढळली नाहीत. या अर्थानं दुपार  म्हणजे ‘ अनसंग हिरोईन ऑफ द डे ‘ असं म्हणायला हरकत नाही. आता तुम्ही मला एखाद्या वेळी विचारलं की पहाट, सकाळ, दुपार, संध्याकाळ, रात्र या दिवसांच्या वेळांना तुम्ही स्त्रियांचीच उपमा का देता आहात ?तुमचा प्रश्न बरोबर आहे. पण आपल्या मराठीत आपण हे शब्द स्त्रीलिंगीच वापरतो ना ! ती रम्य पहाट, ती प्रसन्न हसरी सकाळ, ती दुपार, संध्याकाळ, रात्र वगैरे. ‘ ती ‘ ऐवजी एखादा पुल्लिंगी शब्द वापरून पहा बरं. तो पहाट, तो सकाळ,तो रात्र वगैरे…  सगळी मजा गेली ना ! 

कधी कधी फोनवर बोलणारी ती बाई अशा शब्दांची फार गल्लत करते, त्या वेळी असं वाटतं की ही समोर असती तर काही तरी सांगता आलं असतं. आपण एखाद्या व्यक्तीला फोन केला आणि त्या व्यक्तीनं फोन उचलला नाही तर बऱ्याच वेळा असं ऐकायला मिळतं. ‘ ज्या व्यक्तीला आपण फोन केला आहे, तो व्यक्ती आपला फोन उचलत नाही किंवा उत्तर देत नाही. आता ‘ व्यक्ती ‘ हा शब्द सुद्धा स्त्री लिंगीच वापरला जातो. मग ‘ तो ‘ व्यक्ती कशाला ? पण जाऊ द्या विषय दुसरीकडेच चालला. आपल्या मूळ विषयाकडे येऊ या. 

तर पहाटेचा आणि सकाळचा उल्लेख आधीच्या लेखात आपण पहाट म्हणजे अल्लड तरुणी आणि त्यानंतरची सकाळची वेळ म्हणजे वेणीफणी, गंधपावडर करून आलेली सुस्नात तरुणी असा केला. त्यानंतर जेव्हा सकाळचे अकरा वाजण्याचा सुमार होतो, तेव्हा दुपारचे वेध लागू लागतात. आता सकाळच्या या तरुणीचे रूपांतर तीस चाळीस वर्षांच्या गृहिणीत झालेलं असतं. तिला घरच्यांची काळजी असते. सकाळपासून आपापल्या कामात मग्न असलेल्या आपल्या पतीला, मुलाबाळांना भूक लागली असेल, याची जाणीव होऊन ती स्वयंपाकाला लागलेली असते. दुपारी साडेबारा एकच्या सुमारास ती त्या सगळ्यांना मोठया प्रेमाने बोलावते आणि जेवू घालते. 

इथे दुपार येते ती आईचे रूप घेऊन. आई जशी आपल्या मुलांची काळजी करते,त्यांना वेळच्या वेळी खाऊपिऊ घालते, तशीच दुपार दमलेल्या, थकलेल्याना चार घास भरवते. आणि चार घास खाल्ल्यावर म्हणते, ‘ अरे लगेच नको लागूस कामाला. जरा अंमळ विश्रांती घे ना. ‘ त्या दुपारच्या कुशीत काही क्षण माणसे विश्रांती घेतात, ताजीतवानी होतात आणि पुन्हा आपल्या कामाला लागतात. गाई, गुरं सुद्धा एखाद्या झाडाखाली विश्रांती घेताना दिसतात. 

सकाळ आणि संध्याकाळ यांच्या मधली वेळ म्हणजे दुपार. शेतकरी, कष्टकरी, मजूर हे सगळे सकाळपासूनच कामाला जुंपलेले असतात. दुपारी ते एखाद्या झाडाच्या सावलीत बसतात. आपल्या सोबत जी काही चटणी भाकरी आणली असेल ती खातात, दोन घोट पाणी पितात. आपल्या बरोबरच्या व्यक्तींशी गप्पा, हास्यविनोद करतात आणि ती ऊर्जा सोबत घेऊन पुन्हा आपल्या कामाला लागतात. या अर्थानं दुपारी ही एक प्रकारची ‘ होरेगल्लू ‘ आहे. ती मनावरचा ताण कमी करते.

जसा ऋतू असेल किंवा जसं हवामान असेल, तशी दुपारची रूपं वेगवेगळी असतात. ग्रीष्मातली दुपार अंगाची लाही लाही करते. कधी कधी तर वाराही बंद असतो. डोंगरावरील, जंगलातील झाडं एखाद्या चित्रासारखी स्तब्ध असतात. अशा वेळी दुपार तुम्हाला सांगते, ‘ बाबारे, बस थोडा. अंमळ विश्रांती घे. उन्हात विनाकारण फिरू नकोस. ‘ ती जणू सांगत असते, ‘ जरा विसावू या वळणावर…’  दुपार आहे म्हणून तर थोड्या वेळाने तुला हवीहवीशी वाटणारी सांज येईल, रात्र येईल आणि पहाटही उगवेल. थोडा धीर धर. 

वसंतातली दुपार त्या मानाने जरा प्रसन्न असते. वसंत हा तर कवी, लेखकांचा आवडता ऋतू. मुबलक फळे, फुले उपलब्ध असतात. झाडांना नवी पालवी फुटलेली असते. दसरा दिवाळीला आपण जसे नवीन कपडे परिधान करतो, तशी वसंत ऋतूत निसर्गाचीही दिवाळी असते. जुनी पालवी टाकून देऊन झाडं नवीन पालवी धारण करतात. गुलाबी, पोपटी, हिरवी अशी विविध रंगछटा असलेली पानं दृष्टीस पडतात. या ऋतूत झाडांना मोहर आलेला असतो. त्याचा मंद दरवळ सगळीकडे पसरलेला असतो. या ऋतूत निसर्ग भरभरून रूप, रस आणि गंध प्रदान करतो. अशा ऋतूतली दुपारही छान वाटते. ऊन असतेच पण शीतल वाऱ्याच्या लहरी अंगावर जणू मोरपीस फिरवतात. उन्हाची तलखी कमी करतात.

वर्षा ऋतूतली दुपार बऱ्याच वेळा ढगांच्या छायेनं आच्छादलेली असते. अशा वेळी उन्हाचा तडाखा जाणवत नाही. वर्षा ऋतूत सकाळी आणि संध्याकाळी बऱ्याच वेळा हमखास पाऊस असतोच. पण दुपारही कधी कधी पाऊस घेऊन येते. पावसात भिजलेलं तिचं हे रूप आल्हादकारक वाटतं. दुपारी कधी कधी सोसाट्याचा वारा सुटतो. ‘ नभ मेघांनी आक्रमिले ‘ असेल तर अशा वेळी ऊन सावलीचा आणि ऊन पावसाचा लपाछपीचा खेळ सुरु असतो. निसर्गाच्या कॅनव्हासवरचं चित्र सारखं बदलत असतं. अशा वेळी तुमच्यात दडलेला रसिक, कलाकार या निसर्गचित्राला दाद देतो. 

अशी ही दुपारची विविध रूपं. तऱ्हेतऱ्हेची आणि मजेमजेची. सकाळ, संध्याकाळ आणि रात्रीसारखीच मनमोहक रूपे. तिलाही भेटू या. तिचंही स्वागत करत राहू या. तिला म्हणू या… 

‘ हे दुपार सुंदरी, तू अवश्य ये 

येताना तू नेहमीच चारदोन निवांत क्षण घेऊन येतेस. 

दिवसाच्या धामधुमीत तू आम्हाला चार घास प्रेमाने भरवतेस. 

विश्रांती देऊन ताजेतवाने करतेस. 

तू ये. तू अवश्य ये. तुझं स्वागत आहे. ‘

©️ श्री विश्वास विष्णु देशपांडे 

चाळीसगाव.

 प्रतिक्रियेसाठी ९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ अमूल डेअरी, न्यूझीलंड आणि – I too had a dream… ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

श्री मकरंद पिंपुटकर

🌈 इंद्रधनुष्य 🌈

☆ अमूल डेअरी, न्यूझीलंड आणि – I too had a dream… ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆

“मॅडम, थोडं स्पष्ट बोलतो, राग मानू नका. पण सगळे हिंदुस्तानी एकाच वेळी जर हिंद महासागरात नुसते थुंकले जरी ना, तरी तुमचं अख्खं न्यूझीलंड पाण्यात बुडून जाईल. हे ध्यानात ठेवा आणि आम्ही काय करायचं आणि काय नाही, हा शहाणपणा आम्हाला शिकवू नका.” 

न्यूझीलंडच्या एका राजनैतिक अधिकाऱ्याला, बहुधा प्रत्यक्ष राजदूताला हे परखड बोल सुनावले होते अमूलचे तत्कालीन सर्वेसर्वा डॉ. व्हर्गीस कुरियन यांनी… 

प्रसंग होता दिल्लीतील एका कार्यक्रमातील… 

कुरियन यांनी तेव्हा नुकतीच अमूलची सूत्रे हाती घेतली होती, आणि जास्तीत जास्त दुधावर प्रक्रिया (milk processing) करण्यासाठी ते धडाक्यात कामाला लागले होते. स्वाभाविकच, भारत आणि भारतीय ज्यांच्या उत्पादनांची मोठी बाजारपेठ होती, अशा बड्या देशांच्या पोटात दुखू लागलं होतं. 

त्या संदर्भातच, कोणी न विचारताच, न्यूझीलंडच्या एका अधिकारी महिलेने, कुरियन यांना अनाहुत सल्ला दिला होता – ” भारतासारख्या देशाने दुग्ध प्रक्रियेसारख्या तांत्रिक आणि किचकट क्षेत्रात शिरण्याचे दु:साहस करू नये. स्वित्झर्लंड, न्यूझीलंडसारख्या तज्ञ मंडळींकडे ही जबाबदारी सोपवलेली आहे आणि ती निभावण्यास तेच समर्थ आहेत.”

कुरियन यांची सहनशक्ती संपली आणि त्यांनी त्या महिलेला तडकाफडकी सुनावले. 

हे असं सुनावणं ही सोपी गोष्ट नव्हती.

न्यूझीलंड त्याकाळी दुग्ध  उत्पादन व दुग्ध प्रक्रिया क्षेत्रात अव्वल होता. त्यांचे तंत्रज्ञान अद्ययावत होते. उत्पादन, प्रक्रिया आणि तंत्रज्ञान या सगळ्याच क्षेत्रांत भारताचे स्थान कुठेच नव्हते. स्वातंत्र्यप्राप्तीनंतर भारताला दुधाची भुकटी (milk powder) पुरवणाऱ्या देशात न्यूझीलंड अग्रेसर होता. 

उन्हाळ्यात, जेव्हा दुधाचे उत्पादन कमी झालेले असते, तेव्हा दुधाची कमतरता भासू नये म्हणून, भारतातील अनेक राज्यांत दुधापासून मिठाई बनवण्याला कायद्याने मनाई होती, एका राज्यातून दुसऱ्या राज्यात दूध पाठवण्यास मनाई होती. 

न्यूझीलंडची तांत्रिक श्रेष्ठता वादातीत होती. स्वतः कुरियन कॉमनवेल्थ देशांतील कोलंबो प्लॅन शिष्यवृत्ती अंतर्गत न्यूझीलंड येथील मॅस्सी विद्यापीठात  Plant Design and Dairy Engineering  शिकले होते.

या पार्श्वभूमीवर अशा दादा देशाला ललकारणं हा कदाचित निव्वळ वेडेपणाच होता. 

पण कुरियन यांनी हे आव्हान स्वीकारले. ” एक दिवस असा येईल की भारत न्यूझीलंडला दुग्धजन्य पदार्थ निर्यात करेल,” आपल्या ” I, too, had a dream ” असे या आत्मचरित्रात ते लिहून ठेवतात.

कुरियन निव्वळ दिवास्वप्नं पाहणारे नव्हते. बोलून मग – “अरे बापरे, हे मी काय बोलून बसलो ?” – असा विचार करणारे नव्हते, विचार करून बोलणारे होते. ते कामाला लागले.

१९७० साली भारतात ‘Operation Flood – white revolution ‘ – दुग्धक्रांती – सुरू झालं. भारतातील दूध आणि प्रक्रिया केलेले दुधाचे पदार्थ यांचे उत्पादन लक्षणीयरीत्या वाढू लागलं. 

दुधासाठी आयातीवर अवलंबून असलेला भारत, आता नुसता स्वयंपूर्ण झाला नव्हता, तर जगात सर्वात जास्त दूध निर्माण करणारा देश झाला होता, दूध उत्पादने निर्यात करणारा देश झाला होता.

— आणि २००९ साली, भारताने न्यूझीलंडला दुग्धजन्य पदार्थ निर्यात करायला सुरुवात केली. 

दुग्ध प्रक्रिया ही आता न्यूझीलंडची मक्तेदारी राहिली नव्हती. 

कुरियन यांनी पाहिलेले हे स्वप्न, त्यांच्या हयातीतच, पूर्ण झाले होते.

ता. क.:  २०१७ साली, आपले “अमूल” न्यूझीलंडच्या क्रिकेट संघाचे प्रमुख पुरस्कर्ते (sponsorer) झाले. “Third world country आहात, दुग्ध प्रक्रियेच्या नादी लागू नका” असं ज्या न्यूझीलंडने भारताला सांगितलं, त्याच भारताच्या “अमूल” चा लोगो न्यूझीलंडच्या खेळाडूंच्या T Shirt वर अभिमानाने झळकू लागला. अमूलच्या श्रेष्ठतेवर शिक्कामोर्तब झालं.

© श्री मकरंद पिंपुटकर

चिंचवड

मो ८६९८०५३२१५   

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “पाऊस वेगवेगळ्या प्रदेशातला…” ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ “पाऊस वेगवेगळ्या प्रदेशातला…” ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

गोव्याचा पाऊस गोव्याच्या दारूसारखा आहे.

जशी गोव्याची दारू भरपूर पितात, पण चढतच नाही.

तसा पाऊस भरपूर पडतो पण  दिसतच नाही.

 

कोल्हापूरचा पाऊस. घरजावयासारखा.

घुसला की मुक्कामच.

राहा म्हणायची पंचाईत आणि

जा म्हणायचीपण पंचाईत…

 

अन मुंबईचा पाऊस

प्रेयसीच्या बापा व भावा सारखा ..

कधी येऊन टपकेल

धो धो आपल्याला धुऊन निघून जाईल सांगता येत नाही.

 

पुण्याचा पाऊस बायकांसारखा.

त्या चिडल्या की धड स्पष्ट बोलत नाहीत.

नुसती दिवसभर पिरपिर चालू .

पाऊस पण धड रपरपा पडत नाही. दिवसभर पिरपिर रिप रिप भुरभुर चालू असते. नुसता वैताग!

 

कोकण चा पाऊस

लग्न झाल्यावर संसारात गुंतून जातो तसा

एकदा सुरवात झाली की शेवटपर्यंत धो धो धो धो धो धो पडतो …

 

खानदेशातील पाऊस म्हणजे लफडं!

जमलं तर जमलं नाहीतर सारंच  हुकलं !     

 

बेळगावचा पाऊस सात जन्म मिळालेल्या अनुभविक बायको सारखा…!

प्रेमाची रिमझिम, आपुलकीच्या धारा

व वरून वर्षाव करत असतात मायेच्या गारा..

 

संग्राहिका : सौ उज्ज्वला केळकर 

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘बिटवीन द लाईन्स’ (एकांकिका संग्रह)  – डाॅ. मिलिंद विनोद ☆ परिचय – श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ ‘बिटवीन द लाईन्स’ (एकांकिका संग्रह)  – डाॅ. मिलिंद विनोद ☆ परिचय – श्री अरविंद लिमये ☆

जगण्याचा नाट्यपूर्ण वेध ! – बिटवीन द लाईन्स (एकांकिका संग्रह)

लेखक : डॉ. मिलिंद विनोद. 

प्रकाशक : नवचैतन्य प्रकाशन, मुंबई.               

डॉ. मिलिंद विनोद यांचा ‘बिटवीन द लाईन्स’ हा दहा एकांकिकांचा संग्रह. या सर्वच एकांकिका,नोकरी व्यवसायानिमित्त लेखकाचे विविध परदेशांमधील प्रदीर्घकाळचे वास्तव्य त्याच्या अनुभवांचा पैस विस्तारित करणारे ठरल्याचा प्रत्यय देणाऱ्या आहेत.

या एकांकिका विषय-वैविध्य आणि आशय  यादृष्टीने लक्षवेधी आहेत. तसेच त्यातून डाॅ.मिलिंद विनोद यांची सूक्ष्म निरीक्षण शक्ती, जगण्यातली विसंगती न् कालातीत तसेच कालपरत्त्वे बदलणाऱ्या प्रश्नांचे बोचरेपण अधिकच तीव्र करीत असल्याचेही जाणवते.

‘मा सलामा जव्वासात’ व ‘वेसोवेगल सिनकाॅप’ अशी वरवर अनाकलनीय तरीही अर्थपूर्ण शीर्षकांसारखीच ‘बिटवीन द लाईन्स’ , ‘विजिगिषा’ यासारखी सुबोध वाटणारी बाकी एकांकिकांची शीर्षकेही रसिकांची उत्सुकता वाढवणारी आणि या एकांकिकांचे वेगळेपण अधोरेखित करणारीही आहेत.

‘मा सलामा जव्वासात’ आणि ‘विजिगिषा’ या एकांकिकांमधील नाट्य अनुक्रमे दुबई व अमेरिकेच्या पार्श्वभूमीवर आकाराला येते. ‘मा सलामा जव्वासात’ मधील जीवनसंघर्ष अस्वस्थ करणारा आहे. आपलं कुटुंब, आपला देश यापासून दूर परदेशी कामधंद्यासाठी जाऊन तिथे वर्षानुवर्षे असह्य कष्टप्रद आयुष्य व्यतीत करावं लागलेल्या मजूर- कामगारांचं उध्वस्त भावविश्व आणि त्यांच्या आयुष्याच्या वाटचालीतला भ्रमनिरासांती व्यथित करणारा अखेरचा प्रवास वाचकांच्या मनाला चटका देऊन जातो !

‘विजिगिषा’ ही एका सत्यघटनेवर आधारलेली, ‘अॅराॅन’ नावाच्या इंजिनिअरच्या, एका अनपेक्षित वळणावर सुरु झालेल्या घुसमटीमधील उलघालीचा नाट्यपूर्ण वेध घेणारी एकांकिका आहे.

या दोन एकांकिकांचा हा ओझरता परिचयसुध्दा इतर एकांकिकांचा कस आणि जातकुळी यांचा अंदाज येण्यास पुरेसा ठरावा असे वाटते.

इतर सर्व एकांकिकांची पार्श्वभूमी भारतीय असून त्यांच्या आशय-विषयांचं वेगळेपणही गुंतवून ठेवणारे आहे. अर्थशून्य अशा निरस मराठी मालिकांचं उपरोधिक चित्रण (‘टी आर पी’ अर्थात ‘थर्ड रेटेड पब्लिक’), गीतरचना,संगीत आणि गायन यापैकी कोणती कला श्रेष्ठ असा पेच पडलेला नायक आणि  गीतकार,संगीत-दिग्दर्शक आणि गायिका या रुपात त्याच्या सहवासात आलेल्या तीन स्रियांपैकी  कुणा एकीची निवड करावी हा त्याला पडलेला प्रश्न (‘त्रिधा’ द म्युझिकल), सरोगेट मदरची मानसिक ओढाताण, अस्वस्थता, दुःख आणि परिस्थितीशरणता (ओव्हरी मशीन), दयामरणाचा प्रश्न (वेसोवेगल सिनकॉम), संगीतप्रेमींची कालानुरुप बदललेली अभिरुची आणि त्यामुळे जुन्या संगीताचा वारसा प्राणपणाने जपू पहाणाऱ्या एका बुजूर्ग कलाप्रेमीची होणारी मानसिक कुतरओढ (रुखसत विरासत), विडी-कामगार स्त्रियांचं शोषण (पॅसिव स्मोकर), ‘वेड (अन)लाॅक’ मधे विभक्त जोडप्याला अनपेक्षित अल्पसहवासात झालेला हरवलेल्या प्रेमाचा साक्षात्कार, ‘बिटवीन द लाईन्स’ मधलं समाजापासून तुटलेलं किन्नरांचं वेदना आणि वैफल्यग्रस्त जगणं…..! ही या संग्रहातील एकांकिकांची ओझरती झलक !!

या सर्व एकांकिकांचं सादरीकरण अर्थातच दिग्दर्शक, कलाकार, तंत्रज्ञ या सर्वांचाच कस पहाणारं ठरणार असलं, तरी लेखक-दिग्दर्शकाच्या योग्य समन्वयातून तयार होणाऱ्या या एकांकिकांच्या रंगावृत्ती प्रेक्षकांना उत्कट नाट्यानुभव देण्यास पूरक ठरतील असा विश्वास वाटतो.

पुस्तक परिचय – श्री अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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