हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 115 – “साधते हों सगुन…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “साधते हों सगुन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 115 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “साधते हों सगुन” || ☆

इस समूचे दिवस

का आलेख-

ज्यों रहा है लिख ।

समय का मंतिख ।

 

घूप कैसी हो

व कैसी छाँव ।

गली महतो की

रुकें ओराँव ।

 

साधते हों सगुन

देहरी पर ।

तो दिखे पोती

हुई कालिख ।

 

एक ही ओजस्व

का दाता ।

जिसे सारा विश्व

है ध्याता ।

 

शाक पर है वही

निर्भर देवता ।

तुम जिसे समझा

किये सामिख ।

 

इस लगन पर

सब नखत एकत्र ।

करेंगे प्रारंभ

अनुपम सत्र ।

 

पक्ष में होंगी

सभी तिथियाँ |

यही देंगे वर

शुभंकर रिख ।

 

मंतिख = भविष्य वक्ता,

सामिख= सामिष

लगन= लग्न

नखत= नक्षत्र

रिख= ऋषि

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

04-11-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – डर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

बुधवार 9 नवम्बर से मार्गशीष साधना आरम्भ होगी। इसका साधना मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि –  डर ??

मनुष्य जाति में

होता है

एकल प्रसव,

कभी-कभार जुड़वाँ,

और दुर्लभ से दुर्लभतम

तीन या चार,

डरता हूँ,

ये निरंतर

प्रसूत होती लेखनी

और जन्मती रचनाएँ,

मुझे, जाति बहिष्कृत

न करा दें…..!

© संजय भारद्वाज 

(शुक्र. 4 दिस. 2015 रात्रि 9:56 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उड़ान ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 150 से अधिक पुरस्कारों / सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ उड़ान  ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(वाम सवैया)

उड़ान भरें जब भी नभ में पर याद रहे क्षिति छूकर आया ।

हजार जलें जब दीप सदा तम रात घटे तब सुंदर पाया ।।

प्रभास सुदीर्घ सुधीर बने तम धीर धरे उजला घन साया ।

प्रसारित नित्य प्रभाव बना मन  मंदिर शंख सुनाद सुनाया ।।1!!

विनोद विनीत सदैव धरे जग आज सुकाज करे मन सारा ।

सुकांत सुभाष सुभाल रहे हिय देख अमोघ प्रवाहित धारा ।।

जहाँ सदभाव रखें हृद में छल दंभ बिसार कहे मन हारा ।

उड़ान भरें नव शीर्ष चढ़े मग धीरज प्रीति मुकाम सँवारा ।।2!!

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 162 ☆ “चुनाव के बहाने” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय माइक्रो व्यंग्य  – “चुनाव के बहाने”)  

☆ माइक्रो व्यंग्य # 162 ☆ “चुनाव के बहाने” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

जहां हम लोग रहते हैं उसे जवाहर नगर नाम से जाना जाता है। लोग कहते हैं कि जवाहर नगर एक लोकतांत्रिक कालोनी होती है। लोगों का क्या है वे लोग तो ये भी कहते हैं कि किसी भी शहर की नई बस्ती वह गांधी नगर हो या जवाहर नगर लोकतांत्रिक ही हुआ करती है। मुहल्ले में  एक घर शर्मा का है तो बगल में वर्मा का है, तिवारी है, मीणा है, खान है, जैन है, सिंधी है, ईसाई है। धर्म व जाति से परे व मुक्त होकर दो दशक से अधिक हो गये हैं ये सब लोग भाईचारे से रह रहे थे।

अचानक चुनाव आ गये। लोकतंत्र में चुनाव जरूरी हैं और लोकतांत्रिक कालोनियों में चुनाव का अलग महत्व है। मोहल्ले के खलासी लाइन में एक लाइन से बीस घर बने हैं।

चुनाव की घोषणा के बाद से ही हर घर मेंअलग-अलग टीवी चैनल चलने लगे। इन घरों में अलग अलग पार्टी के लोगों का आना जाना बढ़ गया, चैनलों ने और अलग अलग पार्टियों ने मोहल्ले में कटुता इतनी फैला दी  कि हर पड़ोसी एक दूसरे से कोई न कोई बात पर पंगा लेने के चक्कर में रहने लगा । गुप्ता जी ने अपने घर के सामने राममंदिर बना लिया तो पड़ोसी कालीचरण ने गोडसे मंदिर बना लिया।उनके पड़ोसी जवाहर भाई ने अपने घर के सामने गांधी जी का मंदिर बनवा लिया। बजरंगबली दीक्षित जी के घर के सामने पहले से विराजमान थे। गली के आखिरी में हरे रंग का झंडा लहराने लगा था, अचानक हरे कपड़े से लिपटी मजार दिखाई देने लगी थी।आम जनता को थोड़ी तकलीफ ये हुई कि सड़क धीरे धीरे सिकुड़ती गई पर मोहल्ले के एक बेरोजगार लड़के को फायदा हुआ उसकी फूल और प्रसाद की दुकान खूब चलने लगी।गली में अलग अलग पार्टी के लोगों का आना जाना बढ़ गया।फूल माला और प्रसाद की दुकान वाले लड़के की पूछपरख बढ़ गई, उसकी दुकान में सब पार्टी के लोग बेनर पम्पलेट दे जाते,वह चुपचाप रख लेता और रात को सब जला देता। चुनाव हुए रिजल्ट आये और प्रसाद वाली पार्टी जीत गयी। गली की सड़क बहुत सकरी हो गई थी,एक दिन बुलडोजर आया और बजरंग बली को छोड़कर  सड़क के सभी अतिक्रमण हटा दिए, सड़क चौड़ी हो गई, सबने राहत महसूस की,गली के बीसों घरों के लोग मिलने जुलने लगे, भाईचारा कायम हो गया,फूल माला प्रसाद की दुकान घाटा लगने से बंद हो गई। जवाहर नगर वाला बोर्ड दीनदयाल नगर में तब्दील हो गया। सबने चुपचाप देखा और आगे बढ़ गये।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 105 ☆ # पानी के बुलबुले… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#पानी के बुलबुले…#”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 104 ☆

☆ # पानी के बुलबुले… # ☆ 

जिंदगी कैसे कैसे घाव देती है

कहीं धूप तो कहीं छांव देती है

बिखर जाते है जांबाज भी कशमकश में

कहीं कमजोर बाजू तो

कहीं थके पांव देती है

 

कहीं कहीं फूलों की बहार है

कहीं कहीं खुशियाँ हज़ार है

कहीं शूल लिपटें है दामन से

कहीं जीत तो कहीं हार है

 

ठोकरें इम्तिहान लेती है

ठोकरें बुजदिलों के प्राण लेती है

ठोकरें सिखाती है जीने का सलीका

ठोकरें अमिट निशान देती है

 

कौन जाने वक्त कब बदल जाए

खोटा सिक्का भी कब चल जाए

बहुरंगी इस दुनिया में

कोई अपना ही कब छल जाए

 

हम तो अभावों में ही पले हैं

चुभते तानों से ही जले हैं

किससे फरियाद करे यारों

हम तो पानी के बुलबुले हैं/

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ दीप पाजळू या !!☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ” दीप पाजळू या !!” ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

आईबाबांचा लेक लाडका

दीप सर्वांच्या आशेचा असे

भविष्यातील आधार काठी

मानसिक स्वास्थ्य जपतसे ||

 

ज्ञानदीप उजळी जीवना

दूर करूनिया अज्ञानाला

विद्येचे हे पवित्र मंदिर

देतसे आकार आयुष्याला ||

 

स्नेहदीप हा माणुसकीचा

घराघरातून तेवतसे

स्नेहबंध हा मानवतेचा

घट्ट बांधुनिया ठेवीतसे ||

 

मांगल्याचा दीप उजळतो

शांतपणाने देवघरात

चैतन्याच्या लहरी उठवी

प्रसन्नचित्ते चराचरात ||

 

दीपकाचे पूजन करिती

कुटुंब स्वास्थ्य समृद्धीसाठी

विनम्र आवाहन तेजाला

उत्तम आरोग्य सर्वांसाठी ||

 

ज्योतीने पेटवितो ज्योत

दीप करीतसे दीपोत्सव

अखंडतेचे तत्व चेतवी

तिमिरातूनी  प्रकाशोत्सव ||

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अनंताचा मंत्र… ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अनंताचा मंत्र… ☆ श्री आशिष मुळे ☆

दगडा वरती कोरत जावे

कागदा वरती छापत जावे

मना वरती उठवत जावे

लिहिणाऱ्याने लिहीत जावे।

 

बघणाऱ्याने निरखत जावे

जळणाऱ्याने निंदत जावे

हसणाऱ्याने चघळत जावे

लिहिणाऱ्याने लिहीत जावे।

 

भावणाऱ्याने रड़त जावे

जाणणाऱ्याने पारखत जावे

वाचणाऱ्याने शिकत जावे

शिकता शिकता लिहित जावे।

 

लिहिता लिहिता वाटत जावे

वाटता वाटता मरून जावे

मेल्यानंतर अमर व्हावे

लिहिणाऱ्याने लिहीत जावे।

 

कालचक्रात फिरता फिरता

स्मृतिरुपी पसरत रहावे

अंधकार जगी उगवता

ज्ञानप्रकाशे जगी अवतरावे।

 

लिहिणाऱ्याने लिहित जावे

वाचणाऱ्याने शिकत जावे

शिकता शिकता लिहित जावे॥

© आशिष मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 105 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 105 ? 

☆ अभंग… ☆

सोज्वळ नजर, सतत असावी

कधीच नसावी, अमंगल…०१

 

पाहता सहज, प्रेमळ भासावी

नकोच रुतावी, आरपार…०२

 

बोलतांना कधी, क्रोधीत न व्हावे

सहज जपावे, अनुबंध…०३

 

निर्भेळ बोलावे, मुक्तत्वे हसावे

आणि ते कळावे, सकळिक…०४

 

ऐसी व्हावी ख्याती, तुम्ही मितभाषी

न व्हावे दोषी, नजरेत…०५

 

शब्द माझे वेडे, लिहिले वाहिले

पूर्णत्वास नेले, अभंगाला…०६

 

तोडके मोडके, बोल हे बोबडे

गिरविले धडे, हळूहळू…०७

 

कवी राज म्हणे,असू द्यावे भान

आपण सुजाण, कविवर्य…०८

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ४२ – सर्वधर्म परिषदेची तयारी ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ४२ – सर्वधर्म परिषदेची तयारी ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

संपूर्ण भारत भ्रमण करताना स्वामी विवेकानंद यांनी सत्ताधीशांपासून अगदी गरीब माणसापर्यंतचा भारत उघड्या डोळ्यांनी पाहिला. कान उघडे ठेऊन, त्यासर्वांशी त्यांच्या पातळीवरून संवाद साधला. हे सर्व अनुभव यायला वराहनगर मठ सोडून तीन साडेतीन वर्षाचा काळ मध्ये गेला होता. उघड्या आकाशाखाली आणि भव्य समुद्राने घेरलेल्या शिला खंडावर तीन दिवस तीन रात्री राहून चौथ्या दिवशी सकाळी नावेतून काही लोकांबरोबर स्वामीजी किनार्‍यावर परत आले. त्यांच्या भोवती गोळा झालेल्या लोकांनी त्यांना विचारलं, “तीन दिवस आपण त्या खडकावर कशासाठी ध्यानस्थ बसला होता? स्वामीजींनी त्यांना, आपण श्रीरामकृष्ण यांचे शिष्य आहोत हे सांगून, “गेली दोन अडीच वर्षे देशभर फिरत होतो, माझं मनही अनेक विषयांचा विचार करीत होतं. ज्या प्रश्नाचा शोध या सार्‍या भ्रमंतीत मी घेत होतो, त्याचं उत्तर मला त्या खडकावर मिळालं”. हे सांगितलं. स्वामीजींच्या जीवनातली ही सर्वात मोठी घटना होती. आज कन्याकुमारीच्या समुद्रातल्या त्या शिलाखंडाहून चिंतन करून उठलेले स्वामीजी आणि कलकत्त्याहून बाहेर पडलेले स्वामीजी ही दोन रूपं वेगळी होती. हे आतापर्यंतच्या प्रसंगावरून आपल्याला जाणवतेच.

अध्यात्माबरोबरच त्यांच्यातल्या देशभक्तीचा विचार भ्रमण काळात पक्का होत गेला. खरं तर भारत देश पारतंत्र्यात होता, अन्याय अत्याचारांचा सामना करत होता. त्यासाठी अनेक चळवळी सुरू होत्या. पण स्वामीजींच्या मते ही अवस्था तात्पुरती असून आज ना उद्या संपेलच. पण, सर्वसामान्य जनतेची झालेली आजपर्यंतची उपेक्षा थांबवणं हे जास्त महत्वाचं वाटत होतं. त्यांच्या दृष्टीने इंग्रजी सत्ता हे याचं कारण नव्हतं. या उपेक्षेला त्यांच्या दृष्टीने समाजच जबाबदार होता.

बेळगावच्या भेटीपासून त्यांचा रामेश्वर इथं जायचा विचार होता तो त्यांनी वेळोवेळी सांगितला होता. कन्याकुमारीहून ते रामेश्वर इथं जाऊन भगवान शिवाचं दर्शन घेऊन मनाशी केलेला संकल्प पूर्ण केला. तिथून ते पॉन्डिचरीला गेले. तिथे मन्मथनाथ भट्टाचार्य कामानिमित्त आलेले होते. त्यांच्याकडे स्वामीजी थांबले. त्यानंतर काम आटोपून दोघेही मद्रासला परतले, त्यांना घ्यायला मद्रास स्टेशनवर अलसिंगा पेरूमाल आणि त्यांचे मित्र आणि मन्मथनाथांच्या ओळखीचे  काही उच्चशिक्षित स्वागतासाठी हजर होते. दीड महिना स्वामीजी मद्रासला राहिले पण हे वास्तव्य त्यांना भविष्यातल्या कार्यारंभासाठी खूप महत्वाचे ठरले. त्यांना ह्या कामाला मदत करणारी माणसे प्रथम मद्रासलाच मिळाली. ती झोकून देऊन काम करणारी होती.

मद्रासला अनेक ठिकाणी त्यांची व्याख्याने होत होती, भेटी होत होत्या. श्रोत्यांवर त्याचा प्रभाव पडून तरुण वर्ग आकर्षित होत होता. प्रौढ आणि उच्च शिक्षित वर्ग ही आकृष्ट होत होता. तिथल्या एका साप्ताहिकात स्वामीजीन बद्दल लिहून आले. अशी प्रसिद्धी पहिल्यांदाच त्यांना मिळाली होती. एका ठिकाणी त्यांची प्रकट मुलाखत झाली त्यात तर त्यांना, वैदिक धर्माचे स्वरूप, हिंदुधर्मानुसार आदर्श मानवी जीवन, स्त्रीशिक्षण, श्राद्धासारखे धार्मिक विधी, यावरही प्रश्न विचारले लोकांनी. त्यांच्या कडून ऐकलेल्या विचारांच्या प्रकाशात पुढचे आयुष्य चालत राहण्याची जिद्द असणारे तरुण स्वामीजींना मद्रासला भेटले. त्यांना इथे अनुयायी मिळाले. केलेला संकल्प पूर्णत्वास नेण्यासाठीचे पहिले पाऊल मद्रासला पडले होते. त्याला निमित्त झाले होते मन्मथबाबू भट्टाचार्य आणि आलसिंगा पेरूमाल. मंडम चक्रवर्ती आळसिंगा पेरूमाल हे त्यांचं नाव .

म्हैसूरचे असलेले आलसिंगा पेरूमाल मद्रासला एका शाळेचे मुख्याध्यापक होते. वेदांताचे अनुयायी आणि कट्टर वैष्णवपंथी. गरीबी असली तरी ध्येयवादा मध्ये ती आली नाही. त्यांनी मुख्याध्यापक असूनसुद्धा स्वामीजींना अमेरिकेत जाता यावे म्हणून दारोदार फिरून पंचवीस पैशांपासून सामान्य लोकांकडून वर्गणी गोळा केली होती, आयुष्यात काहीतरी करावे असे त्यांना वाटत होते, ते स्वामीजींची भेट झाल्यावर त्याला दिशा मिळाली होती. अलसिंगांनी घेतलेल्या कष्टामुळे स्वामीजी अमेरिकेत जाऊ शकले.

स्वामीजींचा मद्रासला असा मोठा जनसंपर्क झाला होता. ही ख्याती हैदराबादला जाऊन पोहोचली होती. आणि स्वामीजींनी हैदराबादला भेट द्यावी असे एक पत्र आल्याने स्वामीजींनी ते निमंत्रण स्वीकारलं. कमी वेळात इतकी सूत्र हलली, की हैदराबाद स्टेशन वर स्वामीजींना घ्यायला पाचशे माणसे आली होती. दुसर्‍या दिवशी सिकंद्राबादहून शंभर जण भेटायला आली आणि “आमच्या कॉलेज मध्ये एक प्रकट व्याख्यान द्यावे” असा आग्रह केला. विषय होता, ‘पाश्चात्य देशात जाण्यातील माझा उद्देश’. या व्याख्यानाला हजार श्रोते उपस्थित होते. स्वामीजींच्या विवेचनात उदात्तता होती, तात्विक चिंतन होते, देशप्रेम होते, आपल्या मातृभूमीचं पुनरुत्थान आणि वेदवेदांन्तातील उत्कृष्ट तत्वे पाश्चात्य जगासमोर ठेवावीत अशी एक भारतीय धर्मप्रवक्ता म्हणून अमेरिकेला जाण्याची आपली भूमिका आहे, असे या व्याख्यानात स्वामीजींनी सांगितले. इथे दहा बारा दिवस ते राहिले. नुकतीच ते वयाची तिशी पूर्ण करत होते. हैद्राबादला पण सार्वजनिक व्यासपीठावर ते पहिल्यांदाच बोलले होते. सर्वा क्षेत्रातील नामवंत व्यक्तींनी त्यांना आदराची वागणूक दिली. त्यांच्या विचारांचे स्वागत केले. ते पुन्हा मद्रासला परतले.

अमेरिकेला जाण्याच्या संकल्पाला अजून श्री रामकृष्णांचा आदेश मिळत नव्हता, तोपर्यंत त्यांचे निश्चित होत नव्हते. त्यातच एक घटना घडली. त्यांना एकदा रात्री स्वप्न पडलं की आपल्या आईचं निधन झालं. त्यांना आईबद्दल खूप आदर आणि प्रेम होतं. पण घरदार सोडून आल्यामुळे आणि प्रपंचाच्या गोष्टीत अडकू नये म्हणून ते संपर्क ठेवत नसत. पत्रही पाठवत नसत. मन दोलायमान झाले, कलकत्त्याहून काहीतरी कळणे आवश्यक होते. हे त्यांनी मन्मथबाबूंना सांगितलं. मन्मथबाबूंनी मनाचे समाधान व्हावे म्हणून स्वामीजींना एका भविष्य सांगणार्‍या व्यक्तीकडे नेले. त्या सिद्ध माणसाने स्वामीजीची पूर्ण माहिती सांगीतली, धर्मोपदेशाच्या कामासाठी तुम्ही लवकरच कुठेतरी दूरदेशी जाल, तुमच्या बरोबर सतत तुमचे गुरु असतील आणि आई बद्दल विचारले आई कुशल आहे हे ही सांगीतले आणि स्वामीजींचा जीव भांड्यात पडला. मन हलक झालं. थोड्याच वेळात कलकत्त्याहून तार आली, भुवनेश्वरीदेवी कुशल आहेत. मनाचा वारू कसा धावत असतो. संवेदनशील मनात किती आणि कसे विचार येत असतात. त्याचा परिणाम कसा होतो हे स्वामीजींच्या या घटनेवरून दिसतो. हा एव्हढा उद्योग ते देशातील लोकांसाठी करत होते पण आई, जन्मदात्री माता, तिचं स्थान हृदयामध्ये कायम असतं. तिचा विसर जराही पडला नव्हता. हीच ती भारतीय मूल्यं. आज याची पण शिकवण गरजेची आहे.    

आता मन निश्चिंत झालं होतं. दूर जायचे तर गुरुमाता श्री सारदादेवींचा आशीर्वाद घेणं पण आवश्यक होतं. माताजींना पत्र लिहून आशीर्वाद मागितला. अमेरिकेला जाण्याचा संकल्प कळवला. त्यांनी आशीर्वादाचे पत्र पाठवले. हे पत्र मिळाले आणि स्वामीजीचे मन हर्षभरीत झाले. डोळ्यातून आनंदाश्रू ओघळू लागले. कोणाला कळू नये म्हणून स्वामीजी समुद्रावर एकटेच गेले आणि मन शांत झाल्यावर परत आले. तोवर सर्व भक्तगण जमा झाले होते. “माताजींनी आशीर्वाद दिला आहे, आता कोणतीही अडचण नाही. निर्णय ठरला. मी सर्वधर्म परिषदेला अमेरिकेस जाणार”हे जाहीर केले. अनुयायी तर खूप खुश झाले. निधि संकलन कामाला जोरात सुरुवात झाली. आता एकदम दिशाच बदलून गेली. उत्साहाचे वातावरण तयार झाले. पैसे गोळा करण्याचा प्रयत्न अलसिंगा यांच्या पुढाकाराने जोरदार सुरू झाला.

एक दिवस अचानक खेतडीचे महाराज राजा अजितसिंग आणि त्यांचे सचिव जगमोहनलाल स्वामीजींना भेटायला दत्त म्हणून हजर.अजितसिंग यांना मुलगा झाला होता आणि त्याप्रीत्यर्थ त्यांनी एक समारंभ ठेवला होता. त्यासाठी स्वामीजींना आमंत्रण द्यायला स्वत: आले होते.पण आपण ३१ मेला अमेरिकेला जाण्याच्या गडबडीत आहोत त्यामुळे शक्य नाही होणार असे स्वामीजींनी सांगीतले,  जगमोहनलाल यांनी आपण एक दिवस तरी यावे असा आग्रह केला आणि आपण पश्चिमेकडे जाणार आहात हे महाराजांना खूप आवडले आहे . जो काही पैसा लागेल तो महाराज व्यवस्था करतील, आपण फक्त चलावे असे म्हटले.

आतपर्यंत म्हैसूर बंगलोर, हैद्राबाद इथून काही पैसे गोळा झाले होते.म्हैसूरच्या राजांनी पण मोठी रक्कम दिली. स्वामीजींचा खेतडीला जाण्याचं बेत ठरला आता पैसे गोळा करण्याचे प्रयत्न कराची आवश्यकता नव्हती. अलसिंगा आनंदित झाले, स्वामीजींची आर्थिक सोय पूर्ण होणार होती. स्वामीजी सर्वांचा निरोप घेऊन जगमोहनलाल यांच्या बरोबर खेतडीला निघाले. मुंबईहून जहाजाने अमेरिकेला निघण्याचे आधीच ठरले होते. त्यासाठी मुंबईत काही तयारीसाठी स्वामीजी थांबले. तिथे ब्रम्हानंद, तुरीयानंद यांची भेट झाली.स्वामीजींच्या जाण्याची बातमी सगळीकडे पोहोचली.

स्वामीजी खेतडीला समारंभाला पोहोचले. समारंभ थाटामाटात पार पडला. स्वामीजींनी नव्या युवराजांना  आशीर्वाद दिले. या मुक्कामात आणि याआधीही स्वामीजींच्या महाराजांशी घरगुती गप्पा पण व्हायच्या. श्रीरामकृष्ण यांची समाधी घरदारचे पाश तोडून बाहेर पडणे हा इतिहास महाराजांना माहिती होतं. संन्यास घेतला तरी मनाच्या कोपर्‍यात भावंडांची काळजी, आईची मनाची चिंता आणि त्यांचे कसे चालले आहे याचं शल्य त्यांना बोचत होतं हे महाराजांना माहिती होतं. बोलता बोलता मद्रासला आताच पडलेल स्वप्न कदाचित महाराजांना स्वामीजींनी संगितले असेल, महाराज अजितसिंग यांचं मनही द्रवलं. स्वामीजींचे मन किती पोळत असेल या विचारांनी असं अजितसिंग यांच्याही मनात आलं. त्यांनी स्वामीजींना आश्वस्त केलं, “मी तुमच्या मातोश्रींना दरमहा शंभर रुपये पाठवत जाईन. आपण ही चिंता मनातून काढून टाका”. हे उत्स्फूर्त बोलणे ऐकून क्षणभर स्वामीजी आनंदित झाले. नरेंद्रने घर सोडल्यावर सात वर्षानी ही अडचण दूर होणार होती.तेही अजितसिंग यांच्या औदार्यामुळे. पुढे स्वामीजींनी त्यांना पत्र पाठवून म्हटले आहे की, ‘मी जो काही आज या जगत आहे तो तुम्ही केलेल्या सहाय्यामुळे आहे. एका घोर चिंतेतून मुक्त होणं हे मला तुमच्यामुळे शक्य झाले. त्यामुळे मी जगाला सामोरे जाऊ शकलो’. ही मदत अजितसिंग यांच्याकडून १९०१ पर्यन्त त्यांचे निधन होईपर्यंत शंभर रुपये दरमहा मिळत होते. त्यामुळे स्वामीजींची खेतडीची ही भेट महत्वाचीच ठरली होती. 

स्वामीजींची सर्व व्यवस्था करण्यासाठी महाराजांनी जगमोहनलाला यांना त्यांच्या बरोबर मुंबईला पाठवले होते. अमेरिकेला जाताना, अंगावर गुढग्यापर्यन्त पोहोचणारा रेशमी झुळझुळीत भगव्या रंगाचा झगा, कमरेभोवती गुंडाळलेला तशाच रंगाच्या कापडाचा आडवा पट्टा, आणि मस्तकावर केशरी रंगाचा फेटा, हा विवेकानंदांच्या तेजस्वी व्यक्तिमत्वाला शोभून दिसणारा वेष, ही राजा अजितसिंग यांनी दिलेली एक राजेशाही देणगी होती आणि विविदिशानंद चे स्वामी विवेकानंद हे नाव सुद्धा खेतडीच्या अजितसिंगानीच अमेरिकेला जाताना बदलायला लावले होतं.  

मुंबईला मद्रासहून अलसिंगा आले होते, मुंबईला जगमोहनलाल यांनी बाजारात नेऊन स्वामीजींना झगा आणि फेटा यासाठी उत्तम भारीपैकी रेशमी कापड घेतले ,तसेच तुम्ही महाराजांचे गुरु आहात महाराजांना शोभेल अशा राजेशाही थाटात तुमचा प्रवास झाला पाहिजे.म्हणून जहाजाचे आधीचे दुसर्‍या वर्गाचे तिकीट बदलून त्यांनी पहिल्या वर्गाचे तिकीट काढून दिले. आपल्या गुरुच्या व्यवस्थेत काहीही कमी पडू दिले नाही महाराजांनी .

३१ मे या दिवशी विवेकानंद यांनी मुंबई सोडली.पी अँड ओ कंपनीच्या पेनिन्शूलर जहाजातून ते जाणार होते. थेट जहाजपर्यंत सोडायला अलसिंगा आणि जगमोहनलाल गेले होते. भोंगा वाजला, दोघांनी स्वामीजींना साष्टांग नमस्कार केला. दोघांच्याही डोळ्यात आसवं तरळली. स्वामीजी अखेर अमेरिकेला निघाले हे पाहून अलसिंगांना आपल्या कष्टाचे चीज झाल्याचे समाधान झाले. जहाजाने किनारा सोडला. विवेकानंदांच्या जीवनातला एक महत्वाचा टप्पा मागे पडला होता आणि जीवनाच्या नव्या पर्वाला सुरुवात झाली होती.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ चांदण्यांची ओटी… ☆ सुश्री स्वप्ना मुळे ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ चांदण्यांची ओटी… ☆ सुश्री स्वप्ना मुळे (मायी) ☆ 

ती चहाचा कप घेऊन अंगणात झोपाळ्यावर येऊन बसली… आईचा चौदावा कालच झाला होता… आता ह्या घराचं काय करायचं ते सगळं शेजारी असणाऱ्या काकांशी बोलून ती उद्या परत जाणार होती…

काल पर्यंत सगळे घरात येणारे जाणारे असल्याने वेळ गेला. आता मात्र आईची आठवण जास्त तीव्रतेने येत होती. झोपळ्याच्या उजव्या बाजूला पुजेसाठी लागणारी सगळी फुलं होती… कान्हेरी तर किती आवडायची तिला…  म्हणायची, ‘रूप आणि गंध नसला तरी बारा महिने देवाला सेवेत हजर असते ही. फिकट गुलाबी अगदी अंगोपांगी बहरलेली…’ …. मोरपिसासारखा निळा गोकर्ण तर लाडाने गच्चीत चढवून दिला होता तिने…पांढऱ्या चांदण्यांचा  चांदणी पाट टोपलीभर फुलं देतो…  तुळशी तर किती आल्या आहेत… मागे आपण म्हणालो होतो ‘ आई तुळशी काढून टाक. एखादी ठीक आहे ‘,  तर म्हणाली होती, ” माझं ऑक्सिजन हब आहे ते… सकाळचा पेपर मी तिथेच बसून वाचते… आणि सावळ्या विठ्ठलाला गळाभर तुळशीमाळ घातली की छान दिसतो तो… “ 

आईचं फुलांचं, झाडाचं वेड तिला कायम हिरवंगार ठेवायचं. आण्णा गेल्यावर आपण किती म्हंटल होतं- ‘ चल माझ्याकडे रहायला ‘ –पण नाही आली,… घरातल्या वस्तू वस्तू मध्ये ती होती… छोटीशीच खोली आणि हे अंगण… आपलं लग्न, बाळंतपण, बारसे, आपलं दोन लेकरांसोबत माहेरपण, सगळं हौशीने करायची… आपली लेकरे आज एवढे मोठे झाले तरी एक दिवस तरी राहून जायचे सुट्टीत… प्रत्येकाच्या वयाचं होऊन वागता यायचं तिला, म्हणून जावई काय.. आपल्या सासरची माणसं काय, सगळ्यांना हळहळ वाटली आहे तिच्या जाण्यानं…

जाण्याच्या काही दिवस आधी तर बोलली होती आपल्याशी..” ह्या वर्षी अधिकमास आहे… तू जरा निवांत ये गं.. तुझी ऑफिस धावपळ नको… तुला गरम गरम गुळाचे अनारसे खाऊ घालेन.. हातपाय धड आहेत आईचे तोपर्यंत माहेर आहे गं बाई…… या वेळी तुला साडी नाही, तर सुंदर पुस्तकं देणार आहे…. वामनराव गेले, त्यांची गावातली लायब्ररी बंद केली…. तुला आवडणाऱ्या सगळ्या लेखिकांची पुस्तकं घेतली आहेत अर्ध्या किमतीला विकत… तू लग्नाआधी किती जात होतीस तिथे… नंतर मात्र विसरलीस तुझं वाचन वेड, ते काही मला पटलेलं नाही…… 

बायकांनी गुरफटून नाही घ्यायचं.. आपलं अस्तित्व टिकवून संसार करता यावा.. जगण्याला आनंद देणारी आपली आवड जोपासावी….. माझं शिवणकाम, बागकाम मी टिकवण्यासाठी प्रयत्न केले, तू बघत होतीस ना……तुम्हाला तर खूप सुख सोयी आहेत… अगदी नळ उघडला की पाणी , बटन दाबलं की मिक्सर… आम्ही मात्र सगळी कामं करून आवडी टिकवल्या, म्हणून शेवटपर्यंत आनंदी राहू शकलो…. संसार सगळयांना आहे गं, पण त्या सोबत आनंद सापडला तर खरी मजा आहे….” 

” तुझी चिमणी येईल ना धोंड्याला या वेळी ??? ” तिने विचारलं होतं.. त्यावर आपण म्हणालो,

” नाही गं.  १०  वी आहे… क्लास असतील…” 

त्यावर आई म्हणाली होती , “आपल्या ह्या तिसऱ्या पिढीशी बोलायचं आहे मला आता… ती पण आता मोठी झाली आहे.. मागच्या वर्षी आली नाही ती.. तिला सांग आजीने गम्मत ठेवली आहे करून तुझ्यासाठी…तिची पाळीपण सुरू झाली ना ? स्त्रीपणाकडचा प्रवास तिचा, काही गुजगोष्टी करेन तिच्याशी… बघ.. जमलं तर घेऊनच ये..”

ह्या फोननंतर आई गेल्याचाच फोन आला… ती चहाचा कप ठेवायला आत आली.. छोटासा ओटा, देवघर, शिलाई मशिन, सगळीकडे प्रसन्नता होती.. ती सगळीकडे हात फिरवत होती.. मध्येच डोळे झरझर वाहात होते…

तेवढयात रमाबाई आल्या.  ” ताईसाहेब… आजीबाईने निरोप ठेवला होता तुमच्यासाठी…. ती तुमच्यासाठी आणलेली पुस्तकं आणि त्या ट्रँकेत एक ओटी आहे, ती तुमच्या लेकीसाठी ठेवली आहे… आठवणीने घेऊन जा, येते मी..”

तिनं अधाशीपणाने पुस्तकं छातीशी धरली… ती लोखंडी पेटी उघडली.. एका रेशमी कापडात काही तरी बांधलं होतं… तिने पटकन उघडलं, तर त्यात.. छोट्या छोट्या चांदण्या शिवलेल्या होत्या, चमकणाऱ्या कपड्याच्या.. तिला प्रश्न पडला.. हे कापड बघितल्यासारखं वाटतंय ?? 

त्यात एक चिठ्ठी होती,.. तिने उघडली… सुंदर अक्षर आईचं, अगदी मोत्यासारखं.. चिठ्ठी नातीसाठी होती….

‘ प्रिय चिमणे,

तू एकदा तुझा चंदेरी फ्रॉक इथेच विसरून गेली होतीस … नंतर तुला तो लहान झाला म्हणून नकोच म्हणालीस… एकदा गच्चीत झोपलो तर म्हणाली होतीस, “आजी ह्या चांदण्या ओंजळीत घेता आल्या तर…” मला तेंव्हा आवडली तुझी कल्पना… आपल्या स्त्री-आयुष्याशी निगडीत वाटली….. 

तुला आता पाळी आली… स्त्रीच्या पूर्णत्वाकडचा तुझा प्रवास… तुला आजी म्हणून समजवताना तुझ्याच चांदण्यांच्या कल्पनेने तुला समजावणं मला सोपं वाटलं… ह्या चांदण्यांच्या मागे मी काही लिहिलं आहे… आईने तुझ्या ओटीत दिलं कि बघ…’   तिने चांदण्या वळवून बघितल्या… ती चिठ्ठी पुढे वाचू लागली… ‘ सुख, समाधान, दुःख, राग, चैतन्य, हळवेपणा, कठोरपणा… अश्या अनेक चांदण्या आता स्त्रीच्या प्रवासात ओटीत असतात… ह्या सगळ्या सांभाळायच्या… आणि ह्यात सगळ्यात वरती ठेवायची ती शुक्राची चांदणी. तुला आठवते ना आपण आवर्जून बघायचो तिला… चमकदार अशी… त्या चांदणीवर मी लिहिलंय “आनंद”.. काही झालं तरी तो शोधत राहायचा.. प्रत्येक परिस्थितीत.‌‌.. मग बघ सगळ्या चांदण्या ओंजळीत आल्याचा कसा आनंद भेटतो… ‘

तुझी आजी….

(ता. क. — तुझ्या त्या चंदेरी फ्रॉकच्याच शिवल्या आहेत चांदण्या…)

तिला आईचं कौतुक वाटलं. ७५ वयाची आई किती विचारपूर्वक वागते… जगणं सहज सोपं करून सांगते… तिलाही नव्याने स्त्रीपणाचा अर्थ सापडला… डोळे पुसत तिने ती चांदण्यांची ओटी आपल्या पर्समध्ये ठेवली…

©️ सुश्री स्वप्ना मुळे (मायी)

औरंगाबाद

(माझा अशा नवीन कथांचा संग्रह “टांगा” प्रकाशन पूर्व सवलतीत आजच बुक करा 9822875780 ह्या no वर.. धन्यवाद.)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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