(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण गीत –क्षण को क्यों बचा लिया।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 115 – गीत – क्षण को क्यों बचा लिया
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “रिस रही है धूप…”।)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ मार्गशीष साधना🌻
आज का साधना मंत्र – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य–“खंभों पर सवार चापलूसी”।)
☆ व्यंग्य # 164 ☆ “खंभों पर सवार चापलूसी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं । हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)
शहर के बिजली खंभों को देखकर कभी कभी दया आ जाती है, कभी कभी लगता है खंभे न होते तो चापलूसों का जीवन जीना मुश्किल हो जाता। खंभो का मुफ्त उपयोग दो ही प्राणी करते हैं.. एक चापलूस , दूसरे कुत्ते। बड़े घर का कुत्ता जब बंगले के बाहर मेडम के साथ सड़क पर निकलता है तो सड़क पर खड़े बेचारे खंभे पर टांग उठाकर अपनी भड़ास निकाल देता है। सड़क छाप कुत्ते दिन भर इन बेचारे खंभों को सींचने का काम करते रहते हैं पर खम्भों को किसी से शिकायत नहीं होती, वह चिलचिलाती धूप, कुनमुनाती ठंड और बरसते आसमान के नीचे खड़ा खिलखिलाते हुए खुश रहता है।
बिजली के खंभे बहुउपयोगी होते हैं। बिजली के तारों से कसे हुए ये सबके घरों को रोशन करते हैं, इंटरनेट -केबिल कंपनियां भी अपने तार इनके ऊपर लाद देती हैं, बिजली के खंभे चापलूसों के लिए बड़े काम के होते हैं, शहर में नेताओं का आगमन-प्रस्थान हो, नेता जी का जन्मदिन हो, झूठ-मूठ का आभार प्रदर्शन हो, ऐसे सब तरह के फ्लेक्स लटकाने के लिए शहर के बिजली के खंभे चापलूसी करने के लिए काम के होते हैं, एक फ्लेक्स हटता नहीं और दूसरा आकर लटक जाता है। शहर में कोई न कोई नेता आता ही रहता है, खंभों ने लदना सीख लिया है, एक मंत्री हर हफ्ते राजधानी से हवाई जहाज में लद के पत्नी से मिलने आते और चमचों को खबर कर देते, चमचे प्रेस विज्ञप्ति देते लोग चापलूसी करने बैनर खंभों पर टांग देते, हवा से कई बार बैनर आधा लटक जाते फिर मोहल्ले के कुत्ते उसमें लघुशंका करते। बैनर फ्लेक्स लगाने वाले छुटकू नेता कभी कभी सोचते भी थे कि खंभे नहीं होते तो क्या होता ? नगर निगम चाहे तो बैनर फ्लेक्स लटकाने वालों से जुर्माना भी वसूल कर सकती है पर बैनर फ्लेक्स लटकाने वाले छुटकू चिपकू नेता सत्ताधारी पार्टी के चमचे होते हैं इनसे वसूल करोगे तो बात चाचा मामा तक पहुंच जाएगी, और नगर निगम के अफसरों के ऊपर खंभा गाड़ दिया जाएगा।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#खाली हाथ जाना है…#”)
तुलसी साहित्य अकादमी – डॉक्टर शिव मंगल सिंह ‘मंगल’ को प्रथम उस्ताद शंकर लाल पटवा स्मृति सम्मान – अभिनंदन
तुलसी साहित्य अकादमी के तत्वावधान में साहित्य जगत की विभूति डॉक्टर देवेंद्र दीपक के कर कमलों द्वारा उस्ताद शंकर लाल पटवा स्मृति प्रथम सम्मान लखनऊ के डॉक्टर शिव मंगल सिंह ‘मंगल’ को प्रदान किया गया।
डॉक्टर आनंद मोहन ‘आनंद’ द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर संचालित तुलसी साहित्य अकादमी का सम्मान समारोह विगत दिवस गांधी भवन में आयोजित किया गया। जिसमें डॉक्टर आनंद की सहमति से स्थापित प्रथम उस्ताद शंकर लाल पटवा सम्मान लखनऊ के डॉक्टर शिव मंगल सिंह ‘मंगल’ कोप्रदान किया गया।
साहित्य सम्मान स्थापना पूर्वजों की स्मृति को अक्षुण्य बनाने और साहित्य सेवा में योगदान का एक पुनीत कर्तव्य है। इस अवसर पर मुझे भी साहित्यकारों को सम्बोधित करने का अवसर मिला। किसी भी राष्ट्र हेतु साहित्य सेवा सर्वोपरि धर्म है। साहित्य की ताक़त साहित्य और सत्ता के शाश्वत संघर्ष बात से पता चलती है। जिसमें साहित्य कालजयी रूप से विजयी होता है। उदाहरण के लिए तुलसी दास जी को लिया जा सकता है। उनका जन्म 1511 को हुआ था और उन्होंने 111 वर्ष की आयु प्राप्त कर 1623 को देह त्यागी थी। उस काल अवधि में अकबर 1526 से 1605 और जहांगीर 1605 से 1627 तक भारत के सर्व शक्तिमान बादशाह रहे।
आधुनिक युग में गीता प्रेस गोरखपुर रामचरितमानस की एक करोड़ से अधिक प्रतियाँ एक वर्ष में विश्व व भर के श्रद्धालुओं को विक्रय करता है। भारत के प्रायः प्रत्येक हिंदू घर में रामचरितमानस उपलब्ध है। उसी अवधि में लिखित किताबों आइने अकबरी या जहांगीर नामा पुस्तकों का लोगों ने नाम तो सुना होगा परंतु बहुत ही कम लोगों ने किताबें देखी होंगी। रामचरितमानस के साहित्यिक मूल्य भारतीय जीवन के आधार स्तम्भ हैं। आइने अकबरी या जहांगीर नामा के राजनीतिक सिद्धांत इतिहास के विषय तो हैं परंतु उनकी आज के जीवन में कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। यह साहित्य के कालजयी सामर्थ की उपलब्धि है।
हम यदि साहित्य सम्मान स्थापित करते हैं तो देश के साहित्य यज्ञ में हवि देते हैं। इसी धारणा से उस्ताद शंकर लाल सम्मान तुलसी साहित्य अकादमी के तत्वावधान में पिताजी की स्मृति में स्थापित किया गया है। डॉक्टर मोहन तिवारी ‘आनंद’ जी को साधुवाद।
साभार –श्री सुरेश पटवा
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ विचार–पुष्प – भाग – ४४ – ते … पाच आठवडे ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
आलीया भोगासी असावे सादर ! केव्हढा मोठा धक्का? ज्या सर्वधर्म परिषदेत भाग घ्यायला अमेरिकेत आलो ते ध्येय च साध्य होणार नाही? आपल्यासाठी सर्व शिष्यांनी एव्हढी धडपड केली ती सर्व व्यर्थ जाणार? मनातून स्वामीजी नक्कीच खूप अस्वस्थ झाले असतील. आपलीही चूक त्यांच्या लक्षात आली. म्हणजे या विषयीचं अज्ञान जाणवलं. कारण सर्वधर्म परिषद भरवण्याची योजना गेली दोन वर्ष चालू होती. जगातले सर्व प्रमुख धर्म, पंथ,संप्रदाय त्या त्या धर्माच्या विविध संस्था यांच्याशी पत्रव्यवहार चालू होता. त्यामुळे त्या त्या देशासाठी समित्याही स्थापन झाल्या होत्या. एव्हढच काय भारतासाठीही समिति झाली होती. पण याची तिळभरही कल्पना स्वामीजींना आणि त्यांच्या शिष्यांना नव्हती. शिवाय अशी अधिवेशने कशी भरतात,त्याची पद्धत काय असते, हे ही माहिती नव्हते. शिष्यांनाही वाटलं की एकदा अमेरिकेला पोहोचले की पुढचं सगळं आपोआप होईल. या त्रुटी लक्षात आल्या. आणखी एक महत्वाचं कारण होतं, या धर्म परिषदेसाठी केलेल्या भारतीय समितीत परंपरांबरोबर धर्माला विरोध करणारे ब्राह्म समाजाचे आणि सामाजिक सुधारणेचे पुरस्कर्ते होते. की जे स्वामीजींना पण ओळखत होते. त्यांनी महाबोधी समिति आणि जैन समिती च्या प्रतींनिधींना परवानगी दिली होती. भारतातला प्रमुख धर्म हिंदू असला तरी त्याच्या प्रतिनिधित्वाबद्दल विचार केला गेला नव्हता. दुर्दैवच म्हणावं.
परिषदेला अजून वेळ होता तोवर शिकागोतले हे थंडीचे दिवस कसे निघणार?जवळचे पैसे तर भरभर संपत होते. आता सर्वात गरज होती ती पैशांची. थंडीसाठी गरम कपडे घेण्यासाठी शंभर डॉलर्स लागणार होते. स्वामीजी हताश झाले त्यांनी अलसिंगा ना तार केली, ‘सर्व पैसे संपत आलेत उपाशी राहण्याची वेळ आली आहे’. मद्रासला अलसिंगा यांनी भरभर वर्गणी गोळा करून तीनशे रुपये आणि मन्मथनाथ यांनी पाचशे रुपये पाठवले.’ एका दुर्बल क्षणी’ आपण तार केली असे त्यांनी पत्रात म्हटले. पण त्यांचा निर्धार पक्का होता काही झाले तरी मागे हटायचे नाही. परिषदेत भाग घ्यायचाच.
इथली व्यवस्था लागेपर्यंत स्वामीजी वेळ सत्कारणी लावत होते. तिथे जे औद्योगिक प्रदर्शन भरलं होतं ते पहायला रोज जात. ते अवाढव्यच होतं. सातशे एकर जागेवर ते उभं केलं होतं. या कामासाठी दोन वर्ष, सात हजार मजूर काम करत होते. सातशे जखमी झाले, अठरा मृत्यूमुखी पडले. यावरून त्याच्या भव्यतेची कल्पना येते. त्यात वेगवेगळे विभाग होते, रचना सुंदर होती. अडीच कोटीहून अधिक लोकांनी याला भेट दिली होती. यात विज्ञानातील अद्ययावत संशोधन, त्याचा उपयोग, यंत्रे उपकरणे, हे सर्व मांडलं होतं. यातलं मानवाची बुध्दी आणि कर्तृत्व स्वामीजींना आकर्षित करणारं होतं. त्यांना ते आवडलं होतं. ते आठवडाभर रोज बघायला जात.
त्या प्रदर्शनात स्वामीजींना अनेक अनुभव आले. अमेरिकन वृत्तपत्राची नीतीमत्ता कशी याचा अनुभव आला. कपूरथळयाचे महाराज प्रदर्शनात फिरत होते. पहिल्याच दिवशी प्रदर्शनात एक वार्ताहर एका भारतीय माणसाची मुलाखत घेत होता, तो भारतीय लोकांची अवस्था सांगू लागला, दुसर्या दिवशी वृत्तपत्रात ‘ हा महाराज दिसतो तसा नाही ,तो हलक्या जातीचा आहे, हे सर्व राजे ब्रिटीशांचे गुलाम आहेत, ते नैतिकतेने वागत नाहीत असं काही स्वामीजींना उद्देशून सनसनाटी वृत्त दिले, भारतातील एक विद्वान प्रदर्शनास भेट देतो अशी स्तुति करून, ते न बोललेली वाक्ये त्यांच्या तोंडी घातली होती.
त्यांच्या वेषामुळे सर्वांच लक्ष वेधलं जायचं. प्रदर्शन पाहता पाहता एकदा तर मागून कुणीतरी त्यांच्या फेट्याचं टोक ओढलं. स्वामीजींनी मागे वळून इंग्रजीतून आपली नाराजी व्यक्त केली. तसे, सद्गृहस्थ स्वामीजीना इंग्रजी येतं हे ऐकून, वरमून म्हणाले तुम्ही असा पोशाख का करता? कुतूहल म्हणून कुणी विचारलं तर ठीक, पण असा मागून ओढणं हा असभ्यपणाच. प्रदर्शन पाहताना एकदा गर्दीत तर त्यांना मागून ढकललं आणि मुद्दाम धक्का पण मारला गेला होता. असाही अनुभव त्यांना आला. वरच्या वर्गातील सुशिक्षित लोक असे वागतात याचं त्यांना आश्चर्य वाटलं.
बोस्टनला तर आणखीनच वाईट अनुभव. स्वामीजी रस्त्यावरून जात असताना त्यांना आपल्या मागून कुणीतरी येत असल्याचा भास झाला. त्यांनी मागे वळून पाहिले तर, काही मुलांचा आणि मोठ्या माणसांचा जमाव मागून येत असल्याचे दिसले ते पाहून स्वामीजी वेगात चालू लागले, तसे ते ही लोक वेगात आले. क्षणात आपल्या खांद्यावर काहीतरी आदळलं हे कळताच स्वामीजी धावत सुटले आणि अंधार्या गल्लीत नाहीसे झाले. थोड्या वेळाने मागे पहिले तर तो जमाव निघून गेला होता. स्वामीजींनी सुटकेचा निश्वास टाकला. स्वामीजींना लक्षात आली पाश्चात्य देशातली वर्णभेदाची विषमता. समतेचं तत्व पाश्च्यात्यांकडून शिकावं असं भारतात अनेक वर्ष शिकवलं जात होतं. तिथेच हे अनुभव आले. पाश्चात्य संस्कृतीतल्या गुणदोषांची आल्या आल्याच जवळून ओळख होत होती. स्वामीजींवरील हा हल्ला परदेशात झाला होता . इथे प्रकर्षाने आठवण झाली ती नुकत्याच पालघर मध्ये झालेल्या निर्दोष साधूंच्यावरील हल्ल्याची. त्यात त्यांना प्राणास ही मुकावे लागले. जी सर्वसामान्य प्रत्येक माणसाला प्रचंड धक्का देणारी होती. आपल्याच देशात घडलेली ही घटना समता बंधुत्वाबद्दल काय सांगते?
आता विवेकानंदांना आर्थिक अडचण सोडवण महत्वच होतं. बोस्टनला राहील तर स्वस्त पडेल असं कळल्याने ते तिकडे जाण्याचं प्रयत्न करू लागले. स्वामीजी प्रथम जहाजातून व्हंकुव्हरला उतरून शिकागोला जाणार्या कॅनेडियन पॅसिफिक या गाडीत बसले तेंव्हा, स्वामीजिंना भेटलेल्या केट सॅंनबोर्न यांनी पत्ता दिला होता तो बोस्टन जवळचा होता. या पहिल्याच भेटीत ओळख झालेल्या स्वामीजींचं वर्णन करताना त्यांनी म्हटलंय की, “रेल्वेत मी विवेकानंदांना प्रथम पाहिलं, त्यांचे रुबाबदार व्यक्तिमत्व हा पौरुषाचा एक उत्तुंग आविष्कार होता. त्यांचे इंग्रजी माझ्यापेक्षाही अधिक चांगले होते. प्राचीन आणि अर्वाचीन साहित्याशी त्यांचा परिचय होता. शेक्सपियर किंवा लॉङ्गफेलो किंवा टेनिसन, डार्विन, मूलर, आणि टिंडॉल यांची वचने त्यांच्या मुखातून अगदी सहजपणे बाहेर पडत होती. बायबलमधील उतारे त्यांच्या जिभेवर होते. सारे धर्म आणि संप्रदाय याची त्यांना माहिती होती आणि त्या सर्वांविषयीची त्यांची दृष्टी सहिष्णुतेची होती. त्यांच्या सान्निध्यात असणे हेच एक शिक्षण होते”.असा ठसा त्यांच्या मनात पाहिल्याच भेटीत उमटला होता. ही एक चांगली आनंद देणारी बाब होती.
विवेकानंदांनी केट सॅंनबोर्न यांच्याकडे जाण्याचं ठरवलं आणि शिकागोहून रेल्वेने बोस्टनला आले. विश्रांगृहात थांबून त्यांनी आल्याची तार केली त्याला उत्तर आलं की, ‘आजच्या दुपारच्या गाडीने तडक इकडे या’. तिथून त्यांचे घर चाळीस किलोमीटर वर गूसव्हिल इथे होते. त्या स्वता विवेकानंदांना घ्यायला आल्या आणि त्यांना घरी घेऊन गेल्या. इथूनच सुरू झाला त्यांच्यासाठी अनुकूल घटनांचा काळ.
☆ आव्हान ! — (एक सत्यकथा)… भाग – 1 — श्री प्रमोद टेमघरे ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:श्याम सोनावणे ☆
मॅनेजर साहेब केबिनमध्ये, डोके गच्च धरून बसले होते. त्यांच्या अविर्भावाकडे पाहून माझ्या लक्षात आले की, नुकताच वरिष्ठ कार्यालयातून फोन येऊन गेलेला दिसतोय. एक बरे असते, डोके हातात धरले की स्वतःला डोके आहे याची खात्री पटते.
मी बावळट चेहरा करून आत शिरलो. चिंता जास्त असली की साहेबांच्या कपाळावरचे आठ्यांचे आडवे जाळे अधिक विस्तारते. मी त्यांना दुःखी सूर काढून विचारले, ” काय झाले साहेब? “
डबल दुःखी स्वरात साहेब उत्तरले, ” नेहमीसारखे- वरचे साहेब झापत होते. आपल्या शाखेत अजून सहाशे लोन डॉक्युमेंट, ‘टाइमबार’ आहेत म्हणून. ताबडतोब रिन्यू करा म्हणाले.”
ही गोष्ट १९८२ सालची. मी नुकताच बँकेच्या या पेण शाखेत अधिकारी म्हणून बदली होऊन आलो होतो. बँकेने कर्ज दिल्यानंतर, कर्जाच्या कागदपत्रांचे दर तीन वर्षांनी, ‘नूतनीकरण’ करावे लागते. म्हणजे कर्जदाराला प्रत्यक्ष भेटून या कागदपत्रांवर त्यांच्या सह्या घ्याव्या लागतात. अशी सहाशे कर्जदारांची कागदपत्रे ‘मुदतबाह्य’ झाली होती.
तांत्रिक दृष्ट्या हा प्रश्न नक्कीच गंभीर होता. पण वस्तुस्थिती अशी होती की, ही सर्व ‘खावटी’ कर्जे आदिवासी, कातकरी आणि ठाकर जमातीला पूर्वी दिली गेली होती. एका राजकीय समारंभाची ही देणगी होती.
हे सारे कर्जदार, पेणला लागून असलेल्या सह्याद्रीच्या उपरांगातून दुर्गम जंगलात राहत होते. तिथे जायला फक्त डोंगरात चढत जाणारी पायवाट आणि सोबत जाणकार असेल तरच ती पायवाट सापडेल अशी स्थिती. सगळ्या कर्जदारांना भेटायचे तर पन्नास साठ किलोमीटर जंगलात चालत, भटकावे लागणार. कर्जदाराऐवजी वाघाची गळाभेट होण्याची शक्यता जास्त ! त्यामुळे कोणाचीही या कामासाठी जाण्याची हिम्मत नव्हती.
प्रत्येक कर्जदाराच्या कर्जबाकीची रक्कम काही फार मोठी नव्हती. अगदी रुपये तीस पासून दोनशे पर्यंत फक्त. व्याजदर ४%. पण एकूण कर्जदारांची संख्या मोठी होती. त्यामुळे मुदतबाह्य कागदपत्रेही खूप. कागदपत्रांवर पत्ता शोधला तर विराणी कातकरी पाडा, ठाकरपाडा, वाघमारे पाडा, पड्यार पाडा, अशी अनेक पाड्यांची नावे होती.
मी मामलेदार ऑफिसमध्ये जाऊन, गाववार इलेक्शन यादी शोधण्याचा प्रयत्न केला. पण हे पाडे आणि माणसांची नावे काही आढळली नाहीत. (त्यावेळच्या इलेक्शन यादीत हे आदिम मानव भारताचे नागरिकच नव्हते). थोडक्यात, प्रत्यक्ष जाऊन शोध घेणे हाच मार्ग बाकी होता.
पेण परिसरात कातकरी आणि ठाकरं या आदिवासी जमाती जंगलात राहात आहेत. पूर्वी या महाल मिऱ्या डोंगरात, खैराची झाडी विपुल होती. कातकरी आदिवासी या खैराच्या झाडांना बुंध्यावर कोयत्याने खाचा पाडायचे. यातून जो चीक/काथ (खायच्या पानात वापरताच तो), गोळा होईल तो, जवळच्या गावात जाऊन विकायचा. काथ विकणारे हे ‘काथोडी’ म्हणजेच कातकरी.
यांच्यासारखीच आदीम जमात ठाकरांची. ठाकरं डोंगरात अजून दुर्गम भागात वीस- पंचवीस कुटुंबांचे पाडे करून वस्ती करतात. दिवसभर कष्ट करून झाडावरची सुकी लाकडे गोळा करायची, त्याची मोळी बांधायची आणि पेणला येऊन विकायची. मध गोळा करायचा, हरडा, बेहडा, वाघनखी, नरक्या, रानहळद, काळी मुसळी, यासारख्या औषधी वनस्पती गोळा करायच्या आणि गावात येऊन मुकादमाला विकायच्या. हे मुकादम आदिवासींकडून अत्यंत कमी किमतीत या औषधी वनस्पतींची खरेदी करून, औषध कंपन्यांना जास्त किमतीत विकून गब्बर झालेले होते.
ठाकरं डोंगर उतारावर नाचणी पिकवायचे. जंगलातून कंद, फळे, रानभाज्या मिळवायचे. ओहळात बांबूच्या सापळ्यात, नाहीतर लुगड्यात, मासे पकडायचे. अधून मधून घोरपड, रानडुक्कर, भेकर, ससे यांची शिकार करायचे. पेणमध्ये दर मंगळवारी बाजाराच्या दिवशी, ओले काजूगर, बोंडू, जांभळे, तोरण, करवंदे,मध, रानभाज्या आजही ही ठाकरं आणि कातकरी विकतात.
माझे मूळ गाव पेण, त्यामुळे या परिसराची मला माहिती होती. त्यातच, कॉलेजच्या वयात आणि त्यानंतर महाराष्ट्रातील जवळजवळ तीनशे किल्ले भटकलो होतो. जंगलात मुक्काम केला होता. अरण्य वेद, वनस्पतिशास्त्र, याचा थोडाफार अभ्यास होता. पेण परिसरातील, पेणपासून सात-आठ किलोमीटर अंतरावरचा सांकशीचा किल्ला, महाल मिऱ्या डोंगर परिसर, जवळचे सुधागड, धनगड, सरसगड, अवचित गड, तळगड, कर्नाळा, प्रबळगड, माणिक गड, असे सारे किल्ले भटकलो होतो. त्यामुळे नोकरीतले, कागदपत्रे नूतनीकरणाचे आव्हान मी स्वीकारले. सोबतीला कोणीतरी असणे आवश्यक होते.
आमच्या शाखेत भावे म्हणून क्लार्क होता. यूथ होस्टेलमार्फत हिमालयात भटकून आलेला. तो लगेच माझ्यासोबत यायला तयार झाला. पेणमध्ये सहकार खात्यात, वडगावचे ठाकुर पाटील कर्जवसुली अधिकारी होते. माझी त्यांची ओळख होती. तेही सोबत यायला तयार झाले. त्यांनी त्यांच्या शेतावर काम करणार्या, ‘मंगळ्या’ नावाच्या ठाकर जमातीतल्या तरुणाला, पायवाटा शोधणारा माहितगार म्हणून बरोबर घेतले.
मग ठरले. मी साहेबांना सांगितले, “आता तीन-चार दिवस आम्ही या कागदपत्रे नूतनीकरण मोहिमेवर जंगलात जातोय. आमचा संपर्क नसेल. पण मोहीम फत्ते करूनच येऊ.” घरच्यांना कल्पना दिली. चार दिवस पुरेल असा शिधा सोबत घेतला. बँकेत बसून, सहाशे नूतनीकरणाचे सेट, स्टॅम्प पॅड, पावती पुस्तक, कर्जदारांची यादी, सोबत घेतली. सर्वात महत्वाचे म्हणजे, हिंस्र प्राण्यांपासून संरक्षण व्हावे म्हणून, पाटील यांनी त्यांची परवाना असलेली ‘ठासणीची बंदूक’ सोबत घेतली. सर्व तयारी होईपर्यंत दुपार झाली. बँक मॅनेजर साहेबांच्या आशेने भरलेल्या डोळ्यांकडे पाहत, आम्ही पेणचा निरोप घेतला.
वडगावमार्गे सह्याद्रीच्या डोंगरावर पायवाटेने चढायला सुरुवात केली. जंगल सुरु झाले. आजूबाजूला ताम्हण, कुंभा, पळस, पांगारा, उंबर, बहावा, आंबा, जांभूळ, चिंच, काजू, यासारखी वेगवेगळी झाडे, झुडपे आणि रानवेली लागत होत्या. सारा चढ होता, पण हातापायात तरुणाईच बळ होतं, निसर्गाचं वेड होतं, आणि भटक्यांची सोबत होती.
मंगळ्याच्या तीव्र दृष्टीला दूरवर एका उंच झाडावर चढलेले कातकरी दिसले. चला, पंधरा-वीस कातकरी भेटणार म्हणून झपाट्याने त्या दिशेने निघालो. जवळ गेलो तर ते सारे तिथून पळून जाताना दिसले. हाका मारल्या तरी सर्व गायब झाले. अस्वलाच्या अंगावर केस असावे तशी आजूबाजूला गर्द झाडी होती. त्या झाडीत ते गुडूप झाले.
कातकरी आणि ठाकरांना भेटण्याची आमची कामगिरी किती कठीण आहे ते लक्षात आले. आमचे शहरी कपडे, सोबत बंदूक पाहिल्यावर, आम्ही वनखात्याची माणसे आहोत असे समजून ते पसार झाले होते.
उंच कुंभ्याच्या झाडाजवळ पोहोचल्यावर लक्षात आले की, ते घोरपड पकडत होते. कातकरी घोरपडीच्या मागे धावत आले, की ती झाडावर चढते. ती आजूबाजूच्या फांद्यांवर न जाता मधल्या भागातील सरळ शेंड्याकडे चढत जाते. घोरपडीचे हे वैशिष्ट्य आदिवासींना माहीत असते. ते सरळ चढत झाडाच्या शेंड्यापर्यंत जातात आणि तिची शेपटी पकडतात. या शेपटीची गाठ मारली की, घोरपडीला वाटते की, तिला बांधून ठेवले आहे. ती एकाच जागी थांबते. कातकरी मग तिला पकडून तिचे मांस खातात. चरबीचे तेल औषध म्हणून विकतात.
आधाराला एक काठी आणि अपयश हातात घेऊन आम्ही जंगलातून पुढे निघालो. वाटेत मध्येच पळणारा एखादा कोल्हा, ससा आढळत होता. काळोख पडायला सुरुवात झाली. आता आम्ही जंगलातल्या व्याघ्रेश्वराच्या देवळाजवळ येऊन पोहोचलो होतो.
— क्रमशः भाग पहिला
लेखक : श्री प्रमोद टेमघरे, पुणे
प्रस्तुती : मेघ:श्याम सोनावणे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈