हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पारकी अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पुराने समय में गर्मी की छुट्टियों में यात्रा करना बड़ा कठिन कार्य होता था। ट्रेन की नब्बे दिन अग्रिम टिकट सुविधा का लाभ लेकर टिकट किसी गर्म कोट की जेब में संभाल कर रखने के चक्कर में पच्चीस प्रतिशत राशि से डुप्लीकेट टिकट खरीदने पड़े थे। क्योंकि कोट ड्राई क्लीन करने के लिए, बिना जेब टटोलने पर देने के कारण हमारे हाथ मोटे वाले सोट्टे से पिताश्री द्वारा तोड़ ही डाले गए थे।

आज तो किसी भी पल टैक्सी, हवाई यात्रा की व्यवस्था ऑन लाइन उपलब्ध हों गई हैं।बस पैसा फेंको और तमाशा देखो। जयपुर से सबसे पहले टैक्सी (एक तरफ शुल्क) से दिल्ली की रवानगी की गई। नब्बे के दशक डिलक्स बस में यात्रा करना अमीर परिवार के लोग करते थे या बैंक / सरकारी कर्मचारी प्रशासनिक कारण से यात्रा कर रहे होते थे। विगत दिनों टैक्सी यात्रा के समय बसों का कम दिखना और टैक्सियों का अधिक चलन को हमारी प्रगति का पैमाना भी माना जा सकता हैं।

करीब तीन सौ किलोमीटर के रास्ते में दोनों तरफ सौ से अधिक अच्छे बड़े होटल खुल चुके हैं। इन होटलों में खाने के अलावा अनेक दुकानें भी हैं। जहां पर कपड़े, ग्रह सज्जा और अन्य आवश्यकताओं का सामान उपलब्ध हैं। बच्चों के मुफ्त झूले इत्यादि भी राहगीर को आकर्षित करते हैं। कई होटलों में दरबान आपकी कार का दरवाज़ा खोल/ बंद करने के बाद बक्शीश की उम्मीद से रहता हैं। मुफ्त कार की सफाई भी राहगीर को वहां रुकने की इच्छा प्रबल कर देती हैं। टैक्सी ड्राइवर को मुफ्त भोजन देकर होटल वाले इस खर्चे को यात्री द्वारा खरीदे गए भोजन के बिल में ही तो जोड़ कर अपनी लागत निकाल लेते हैं। सभी  व्यापार करने वाले इस प्रकार की रणनीति अपना कर ही सफल होते हैं।

हमारे टैक्सी चालक ने भी तीव्र गति से हमें दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय विमानतल पर समय पूर्व पहुंचा दिया। अब लेखनी बंद कर रहा हूँ, सुरक्षा जांच के बाद अगले भाग में मिलेंगे।

क्रमशः… 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ चिन्तन का अर्थ ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ चिन्तन का अर्थ ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

चिन्तन का अर्थ है किसी एक विषय पर गम्भीरता से गहन सोच विचार करना। मनुष्य छोटे बड़े जो भी कार्य करता है, उसके पहले उसे सोचना, विचारना अवश्य ही पड़ता है, क्योंकि जो भी काम किया जाता है, उसके भले या बुरे कुछ परिणाम अवश्य होते हैं। भले उद्देश्य को ध्यान में रखकर जो कार्य किये जाते हैं, उनके परिणाम अच्छे होते हैं और कर्ता को भी उनका हित लाभ होता है किन्तु इसके विपरीत जो कार्य किये जाते हैं उनका परिणाम अहितकारी होता है और कर्ता के लिये अपयशकारी होता है। अत: नीति नियम यही है कि हर काम को करने से पहले उसकी रीति और परिणाम को ध्यान में रख विचार किया जावे। विचार से ही योजना बनती है और योजनाबद्ध तरीके से ही कार्य संपन्न होता है। ऐसा कार्य वांच्छित फलदायी होता है। चोर, डाकू, लुटेरे भी सोच विचार कर दुष्टता के अनैतिक कार्य करते हैं। समझदार अन्य लोगों की तो बात ही क्या है।

चिन्तन या सोच विचार का जीवन में बड़ा महत्व है। विचार से ही कर्म को जनम मिलता है। कर्म ही परिणाम देते हैं। अत: जो जैसा काम करता है वैसा ही फल पाता है। इसीलिये कहा है- ‘जो जैसी करनी करे सो वैसो फल पाय’। परन्तु फिर भी दैनिक जीवन में बहुत से लोग विचारों को जो महत्व देना चाहिये वह नहीं देते। इसी से बहुत सी बातें बिगड़ती हैं। आपसी बैरभाव, विद्वेष और लड़ाई झगड़े बिना विचार के सहसा किये गये कार्यों के परिणाम हैं। जो व्यक्ति जितना बड़ा और प्रभाव क्षेत्र उसका जितना विशाल होता है उसके द्वारा किये गये कार्यों का प्रभाव भी उतने ही विशाल क्षेत्र पर पड़ता है। उसका परिणाम भी एक दो व्यक्ति या परिवार तक ही को नहीं भोगना पड़ता वरन आने वाली पीढिय़ों को सदियों तक भोगना पड़ता है। हमारे देश में काश्मीर की समस्या ऐसे ही सहसा बिना गंभीर चिन्तन के उठाये गये कदम का ही शायद दुखदायी परिणाम है।

कर्म ही मनुष्य के भाग्य का निर्माता है। व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसा ही करता है। जो जैसा करता है वैसा ही बनता है और वैसा ही फल पाता है, जो उसके भविष्य को बनाता या बिगड़ता है। इसलिये कहा है- ‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।’ एक क्षण की बिना विचार किये कार्य के द्वारा घटित घटना न जाने कितनों के धन-जन की हानि कर देती है। छोटी सी असावधानी बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं को जन्म दे देती है और अनेकों को भावी पीढिय़ों के विनाश के लिये पछताते रहने को विवश कर जाती है।

इसलिये विचार या चिन्तन को उचित महत्व दिया जाना चाहिये। सही सोच विचार से किये जाने वाले कार्यों से ही हितकर परिणामों की आशा की जा सकती है। तभी व्यक्ति परिवार, समाज और राष्ट्र का उद्धार संभव हो सकता है। विचार ही समाज या देश के विकास या विनाश की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। इतिहास इसका प्रमाण है। एक नहीं अनेक उदाहरण हैं, जहां शासक के उचित या अनुचित विचारों ने संबंधित देश के भविष्य को नष्ट किया या सजाया संवारा है। भारत के इतिहास से सम्राट अशोक इसका एक प्रमुख और सुस्पष्ट उदाहरण है। जिसके एक चिनतन ने कलिंग प्रदेश में प्रचण्ड युद्ध और विनाश के ताण्डव को जन्म दिया और युद्ध की विभीषिका से तंग आकर जब उसने अपने कृत्यों पर पुनर्विचार किया तो उसके नये चिन्तन ने उसे शांति का अग्रदूत बनाकर बौद्ध धर्म का अनुशासित महान अप्रतिम प्रचारक बना दिया।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ऋतूचक्र… ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ऋतूचक्र… ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

पाने सुवर्ण होऊन

तरुतळी विसवली

वर हासतात फुले

रत्नझळाळी ल्यालेली

 

आज हसतात फुले

उद्या माती चुंबतील

हसू शाश्वताचं त्यांचं

रस फळांचा होईल.

 

रस जोजवेल बीज

बीज तरु अंकुरेल

पाना फुलांचा सांभार

वृक्ष समर्थ पेलेल.

 

पुन्हा झडतील पाने

फुले मातीत जातील

फळ जोजावेल बीज

बीज वृक्ष प्रसवेल.

© सौ. श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #148 ☆ स्वाद त्याचा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 148 ?

☆ फांदीवरचा काटा…

कळी उमलली गुलाब थोडा फुलला होता

तारुण्याच्या भाराने तो कलला होता

 

मला भावला रंग गुलाबी सौंदर्याचा

तोच रंग मग डोळ्यानेही टिपला होता

 

गुलाब पाहुन सुचल्या होत्या दोनच ओळी

त्या ओळींचा छानच झाला मतला होता

 

गजलेने या कौतुक केले जसे सखीचे

केसामधला गुलाब तेव्हा खुलला होता

 

स्वागत करण्या हात जरासे पुढे धावले

फांदीवरचा काटा तेव्हा डसला होता

 

प्रतिभेच्या ह्या किती पाकळ्या तुझ्या भोवती

त्या प्रतिभेने गुलाब केवळ नटला होता

 

तुझा भास अन् समोर नव्हते कोणी माझ्या

सुगंधात त्या तुझा चेहरा लपला होता

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तारा…भाग – 11 ☆ सुश्री मिनाक्षी देशमुख ☆

? विविधा ?

☆ तारा… अंतिम भाग – 11 ☆ सुश्री मिनाक्षी देशमुख ☆

लक्ष्मणाची समजूत घालण्यासाठी तारा त्याच्यासमोर येऊन म्हणाली, “राजकुमार ! येवढे रागवण्याचे कारण काय? आपल्या आज्ञेचे कोणी उल्लंघन केले का? कोण आज्ञेच्या अधीन नाही? शुष्क वनात वणवा पेटला असतांना आत कोण बरं प्रवेश करेल ?” ताराचा संयमपूर्ण आवाज व स्वरांतील माधुर्य, सांत्वनपूर्ण वागणूक, आणि बोलणे ऐकून लक्ष्मणाचा अर्धा राग कमी झाला. स्वतःला सावरत, तो ताराला म्हणाला, ” देवी ! सुग्रीवाचे हित पाहतेस? तो फक्त उपभोगांत दंग झाला आहे. एकमेकांना सहाय्य करण्याची केलेली प्रतिज्ञा, रामकार्याची आठवण तो विसरला. त्याच्या धर्माचा असा लोप झालेला तुला दिसत नाही का? या कार्याचे तत्व, महत्त्व तू चांगल्याप्रकारे जाणतेस ! अशा परिस्थितीत आम्ही काय करावे? सांग ना !” 

तारा शांतपणे लक्ष्मणाची समजुत काढत म्हणाली, “कुमार ! ही वेळ क्रोध करण्याची नाही. सुग्रीवाच्या मनात श्रीरामाला मदत करण्याची तीव्र इच्छा आहेच. परंतु अनेक वर्षांपासून कौटुंबिक जीवनाला पारखे झाले असल्यामुळे त्यातच ते गुंग झाल्यामुळे थोडा विलंब झाला खरा ! धर्म व तपस्या यात पारंगत असणारे मोठमोठे ऋषीमुनी देखील मोहाच्या अधीन होतात. आम्ही तर शेवटी वानरच ना ! परंतू त्यांना त्यांची चूक कळली आहे . पश्चातापदग्ध झालेत ते . हनुमानाच्या सल्ल्याने त्यांनी सर्व वानरसेना एकत्रित करण्याची आज्ञा दिलेली आहे. रामकार्यासाठी लाखो वानरसैन्य एकत्र जमा होत आहेत.”

ताराच्या बोलण्याने लक्ष्मण थोडा शांत झाल्यावर दोघेही सुग्रीवाकडे गेले. सुग्रीवाला पाहून लक्ष्मणाचा संताप उसळून आला व तो म्हणाला, ” सुग्रीवा ! ज्या मार्गाने वाली गेला, तो मार्ग अजून बंद झालेला नाही. रामाचा बाण तयार आहे.” सुग्रीवाला लक्ष्मणाने असे अपमानकारक बोलणे, तारासारख्या मानी स्रीला सहन होणे शक्य नव्हते. कणखरपणे ती म्हणाली, ” कुमार लक्ष्मणा, सुग्रीव राजे आहेत, त्यांच्याशी अशा तर्‍हेने बोलणे योग्य नाही. सुग्रीवांचा स्वभाव दांभिक, क्रूर, असत्यवादी, कुटील, कृतघ्न नाही. जिथे विश्वामित्रासारखे समर्थ ऋषीसुध्दा मोहापासून दूर जाऊ शकले नाहीत, मग आम्ही तर साधारण वानर ! रघुनंदन कृपाळु आहेत. आपण सुध्दा सत्वगुणसंपन्न आहात. असं क्रोधाच्या अधीन होणं बरोबर नाही.”

ताराच्या बोलण्याने लक्ष्मण शांत झाला. सुग्रीव, हनुमानाच्या मदतीने आणि सर्वांच्या सहकार्याने राम-लक्ष्मणाने  मोठे सैन्य घेऊन लंकेवर स्वारी केली. रावणाशी मोठे युध्द होऊन रावणाचा वध झाला. प्रभू रामचंद्रांना सीता परत मिळाली. विमानातून सर्वजण जातांना सीतेला प्रत्येक स्थळांची श्रीराम माहिती देत होते. सीतेच्या इच्छेनुसार तारा व काही स्त्रियांना मोठ्या आदराने विमानात बसवून घेतले. अयोध्येमध्ये या सर्वांचे भव्य स्वागत झाले. रामाचा राज्याभिषेक झाला.

तारासारख्या वानर जातीतील स्त्रीचा सत्कार सीतेने मोठ्या  प्रेमाने केला. ताराचे सतीचं वाण काही वेगळंच होतं. ती एक थोर राजमाता, कुशल राजनीतिज्ञ, दूरदर्शी, समंजस व सर्वांना सोबत घेऊन चालणारी एक महान स्त्री होती. पतीच्या निधनानंतर खचून न  जाता मोठ्या धैर्याने  परत उभी राहून तिने राज्याची घडी नीट बसवली, स्थिर ठेवली.

अशा या ताराला कोटी कोटी प्रणाम…!!!

!! समाप्त !!!

संकलन – सुश्री मिनाक्षी देशमुख   

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ प्रारंभ – भाग-5 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ प्रारंभ – भाग-5 ☆ श्री आनंदहरी

रंजना आपल्याच विचारात मग्न होती. स्वप्नांच्या झुल्यावर झुलत सासरच्या घरात पाऊल ठेवले होते.. आनंदांत स्वप्नांच्या झुल्यावर झुलत असताना ध्यानीमनी नसताना झुला तुटावा आणि सारी स्वप्नेच तुकड्या तुकड्यात विखरून पडावीत अशी तिची अवस्था झाली होती.. दुःख आणि रिक्ततेने मन व्यापून गेले होते. कुणाशी बोलावे, काही करावे असे वाटत नव्हते. डोळ्यांतले अश्रूही आटून गेले होते. जीवनात जे घडले होते ते धक्कादायक होते. त्या धक्क्यातून अजूनही तीच नव्हे तर सारे घरच पूर्णपणे सावरले नव्हते. ती स्वतःच्याच विचारात असताना आत्याबाई मागे येऊन कधी उभ्या राहिल्या होत्या हे तिच्याही लक्षात आले नाही. आत्याबाईंनी हळूच तिच्या खांद्यावर हात ठेवला तशी ती दचकली.

स्वतःला सावरण्याचा, आवरण्याचा प्रयत्न करीत तिने मागे वळून पाहिले. आत्याबाईना पाहताच ती म्हणाली,

“आत्याबाई तुम्ही? “

“व्हय मीच…”

तिच्याजवळ बसत तिच्या पाठीवरून मायेने हात फिरवत आत्याबाई म्हणाल्या,

“पोरी, लै इचार करून नगं तरास करून घेऊस. आगं, जाळणाऱ्या, पोळणाऱ्या उन्हाचा इचार करीत बसण्यापरीस म्होरं येणाऱ्या मिरगाचा इचार करावा माणसानं.. रातीच्या अंधाराचा इचार करण्यापरीस उजाडणाऱ्या दिसाचा इचार करावा..”

पुढं हसत हसत म्हणल्या,

“मी तरी किती येडी बाय हाय बग, अडाणी असून बी तुज्यासारख्या कालीज शिकलेल्या पोरीला शिकवाय लागलीया..ही म्हंजी रेड्याने द्यानेस्वराला द्यान शिकीवल्यावानी झालं बग..”

“तसे काही नाही हो आत्याबाई ..”

स्वतःला सावरत काहीतरी बोलायचे म्हणून रंजना म्हणाली.

“तसं न्हायतर मग कसं ? आगं, परपंच काय येकल्या बाईचा आस्तुय व्हय ? तिनं म्हायेर सोडायचं, नवऱ्याच्या घरला इवून ऱ्हायाचं.. नमतं घिऊन माजं.. माजं म्हणीत परपंचा करायचा.. समदं खरं पर नवऱ्यालाच नगं वाटत आसंल तर ? त्येलाच बायकुची काय किंमत वाटत नसंल तर.? ..तरीबी बाईनं लोकं काय म्हंतीली ह्येचा इचार करून गप ऱ्हायाचं ? आगं गोठ्यात बांदल्यालं मुकं जनावरबी कवा कवा शिंगं उगारतं ..”

“पण आत्याबाई…”

“आजूनबी तुजा पण हायच म्हण की.. आगं शिकल्याली हाईस, पायावं हुभी ऱ्हा… काळ बदलल्याला हाय ही ध्येनात ठयेव…”

रंजनाला समजवताना आत्याबाईंना त्यांचं पुर्वायुष्य आठवले. लग्न होऊन सासरी आल्यावर त्यांना पहिला धक्का बसला तो नवरा दारुडा असल्याचे समजल्यावर.. सासू सासरे चांगले होते. आपल्या नशिबात हेच होते असे म्हणून त्यांनी ‘ पदरी पडलं पवित्र झालं ‘ म्हणत दिवस ढकलायला सुरवात केली.. पण  त्याचा उलटाच परिणाम झाला.. नवऱ्याने त्यांचं अवसानच घेतलं. आल्या दिवसाला दारू पिऊन त्यांना, त्यांच्या आईबापाला लाखोली वाहत मारझोड होऊ लागली.. एके दिवशी त्याला थांबवायला मध्ये पडलेल्या सासूलाही एक दोन तडाखे बसलेले पाहिल्यावर मात्र ते सहन न होऊन त्यांनी नवऱ्याच्या हातातील टिकारणे हिसकावून घेऊन त्याची दारू उतरेपर्यंत झोडपले आणि पूर्ण शुद्धीवर आल्यावर त्याला सांगून माहेर गाठले. नंतर स्वतःच्या चरितार्थासाठी नवऱ्याच्या नावावरची थोडी जमीन लिहून घेतली आणि काडीमोड देऊन माहेरातच राहू लागल्या होत्या. तेंव्हापासून मात्र  ‘ जे आपल्या वाट्याला आलं ते दुसऱ्या कुणाच्या वाट्याला येऊ नये म्हणून त्या झटत राहिल्या होत्या..

स्वतःच्या साऱ्या आयुष्याचा पट क्षणार्धात आत्याबाईंच्या नजरेसमोरून तरळून गेला तसे त्या म्हणाल्या,

“उगं डोळं गाळत बसू नगं .. उठ.. मानसानं रडत न्हाय तर लढत जगायचं आस्तं..  आगं, आमी अडाणी.. तरीबी कवा रडलो न्हाय आन तू येवडी शिकल्याली रडत बसलीयास व्हय ?”

आत्याबाई बराचवेळ तिला समजावत होत्या, तिच्याशी बोलत होत्या. थोडया वेळाने त्या तिला घेऊन खाली आल्या. रंजनाच्या आईने चहा ठेवला. चहा पिता पिता आत्याबाई दादांना आणि रंजनाच्या आईला म्हणाल्या,

“ह्ये बगा, पोरगी येवडी शिकल्याली हाय, उगा पंखाखाली घिऊन तिच्या पंखांस्नी दुबळं करू नगा. माजी भाची हाय नाशकात, येका कंपनीत म्यानेजर हाय. तिज्यासंगं मी बोलल्ये. रंजना तिच्या पायाव हुबी  ऱ्हाऊदेल ..तिला लावून देऊया भाचीकडं.. दोन दिसात जाऊंदेल. “

“अहो पण..”

“उगा मोडता घालू नगासा.. जगण्याची लडाई ज्येची त्येनं लडायची असती… अडीनडीला आपुन हावोतच की.. पर तिला जाऊंदेल.  ह्यो भाचीचा नंबर हाय . तिच्यासंगं तुमीबी बोला आन रंजीलाबी बोलू देत. रंजे, परवा येरवाळी निघायचं बग.. येकली जातीस का संगं याला पायजेल?”

रंजनाच्या पाठीवर हात ठेवत आणि दादांकडे भाचीचा फोन नंबर लिहिलेला कागद देत आत्याबाई म्हणाल्या.

दोन दिवसांनी सकाळच्या बसने रंजना निघाली तेंव्हा बसला बसवून द्यायला आत्याबाईही आल्या होत्या. रंजनाच्या चेहऱ्यावर मिश्र भाव होते पण त्यातूनही आत्मविश्वास दिसत होता. बसमध्ये बसण्याआधी ती आई-दादांच्या पाया पडली. आत्याबाईंच्या पाया पडायला वाकली तशी आत्याबाईंनी उचलून जवळ कुशीत घेतले आणि पाठीवर हात ठेवला. त्या काहीच बोलल्या नाहीत.

पण बसमध्ये बसल्यावर खिडकीतून रंजनाने हात हलवत बाहेर आत्याबाईकडे पाहिले. त्यांचे डोळे म्हणत होते..

“येणाऱ्या कोणत्याही प्रसंगात न डगमगता लढत रहा, सुखात रहा.आनंदात रहा.!”..

बस निघाली तरी रंजनाला निशब्द आत्याबाईच्या बोलक्या डोळ्यांची निशब्द सोबत जाणवत होती. बस पुढे पुढे जात होती.. खिडकीतून बाहेर बघताना तिच्या मनात आले, ‘ आपले जीवन म्हणजे एखाद्या अनघड दगडासारखंच असतं.. शिल्पकार जसा एखाद्या अवघड दगडातून नकोसा भाग काढून बाजूला टाकून एखादे सुंदर शिल्प घडवतो  तसेच हे जीवन घडवायचं असते. ‘…

तिने तिच्या अनघड जीवनातून नकोसा भाग काढून टाकायला प्रारंभ केला होता.

समाप्त

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “सोन्याची गट्टी फू”… भाग-1 – सुश्री शीतल श्रीधर माडगूळकर ☆ सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ “सोन्याची गट्टी फू”… भाग-1 – सुश्री शीतल श्रीधर माडगूळकर ☆ सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

गदिमांचे आपली आई बनुताई यांच्यावर विलक्षण प्रेम होते. आई बनुताई खूप छान ओव्या रचत असत. पपा आपल्या कवितेला आईच्या ओव्यांची दुहिता (लेक) म्हणायचे. ते म्हणत, “आईच्या गीतगंगेतली कळशी घेऊनच मी मराठी शारदेचे पदप्रक्षालन करीत असतो.” आईंना दासबोध, करुणाष्टके, मनाचे श्लोक तोंडपाठ होते. त्या सकाळी तुळशीकट्ट्यावर खूप सुंदर रांगोळी रेखाटत असत.

माझा मुलगा आणि त्यांचा पणतू सुमित्र याच्यावर आईंचे विलक्षण प्रेम होते. त्यांच्यातले अर्धे डाळिंब आवर्जून त्याच्यासाठी राखून ठेवलेले असे. त्याच्या जन्मामुळे त्यांना काशीयात्रेचे पुण्य मिळाले अशी त्यांची भावना होती. मला त्या म्हणायच्या, “किती गुणी पोर आहे ग! असे पोर दररोज एक घरात जन्मले तरी चालेल.” मला या त्यांच्या बोलण्याची खूप गंमत वाटायची.

दररोज सकाळच्या कोवळ्या उन्हात त्या पंचवटीच्या मागच्या अंगणात काठी घेऊन फेऱ्या मारत. मग तुळशी कट्ट्यावर बसून आम्हाला पालेभाजी निवडून देत, किंवा ताक घुसळून छान ताजे लोणी काढून देत.

एके दिवशी त्या असच काठी हातात धरून मागच्या अंगणात फेऱ्या मारत होत्या. माझ्या सासूबाई विद्याताई तिथेच व्हरांड्यात चटईवर बसून भाजी चिरून देत होत्या. मी स्वयंपाकघरात सकाळचा नाश्ता बनवत होते.

तो सव्वा वर्षाचा होता त्यावेळी.. आपल्या दोन्ही आज्यांच्या संगतीत सुमित्र आपल्या लाल जीपगाडीत बसून, पायडल न मारता पायांनी ती छोटी जीप चालवत होता.

थोडा वेळ गेला आणि एकदम सुमित्रचे जोरात कळवळणे आणि मोठ्या आवाजात रडणे मला ऐकू आले. मी धावत मागच्या अंगणात गेले….. पपा खोलीत निघून गेले होते.. ताईंनी सुमित्रला जवळ घेतले होते आणि त्या त्याच्या लाल झालेल्या गोऱ्यापान, गोबऱ्या गालांवर हळुवार फुंकर घालत होत्या…. मला काहीच कळेना… नंतर कळले की आई अंगणात काठी घेऊन फेऱ्या मारत असताना सुमित्र त्याची जीप जोरात चालवत होता आणि अगदी त्यांच्या पायाजवळ नेऊन थांबवत होता… पपांनी त्याला दोनतीनदा सांगितले, “सोन्या, असे करू नकोस.” त्यांचे नेहमी सर्व ऐकणाऱ्या सुमित्रला त्या दिवशी कसला चेव चढला माहिती नाही, त्यांचे न ऐकता तो परत परत तसेच करत राहिला. मग मात्र पपांचा संताप अनावर झाला. अनवधानाने त्यांनी त्याच्या एक जोरात कानशिलात दिली. पपांचे हात जरी गाद्या बसवल्यासारखे मऊ होते तरी मुलांना मारताना मात्र त्यांना खूप लागत.

सुमित्रच्या गोऱ्या, गोबऱ्या गालावर चार बोटे उठली होती…. त्याला जवळ घेऊन मी शांत केले. इतक्या छोट्या नातवाला आपण मारले याचे पपांनाही खूप वाईट वाटले. ते बराच वेळ खोलीत झोपून राहिले. नीट जेवलेही नाहीत.

मी सुमित्रला नंतर समजावून सांगितले की, ‘पपा आजोबांना सांग की मी परत असे करणार नाही.’ त्याला हेही सांगितले की अशी पणजीआजीच्या अंगावर गाडी नेलीस तर चालताना घाबरून तिचा तोल जाऊन ती पडली असती आणि तिला खूप मोठा बाऊ झाला असता. मग मात्र तो घाबरला आणि मला ‘सॉरी’ म्हणाला. पण पपांच्या जवळ जाऊन माफी मागायला काही तयार होईना.

जवळजवळ दिवसभर तो त्यांच्या जवळपासही फिरकला नाही. आडून आडून हळूच पपांकडे बघत होता. संध्याकाळी पपा फिरून आले. आल्या आल्या सुमित्रला जोरात हाक मारली, 

“सोन्याss”, तो सगळं विसरून आपल्या लाडक्या आजोबांकडे पळत पळत गेला. त्याला कडेवर घेऊन त्याच्या अस्पष्ट झालेल्या गालांवरच्या वळाची पापी घेऊन पपांनी त्याला कुरवाळले… आणि त्याच्या आवडीचे एक मोठे जेमच्या गोळ्यांचे पाकीट त्याला दिले…

त्याने आपल्या बोबड्या स्वरात पपांना विचारले, “आता पलत मला नाही ना मालनाल? मी अशे कलनाल नाही पलत.” 

यावर पपा त्याचा पापा घेऊन मोठ्या प्रेमभराने म्हणाले, “नाही ले माझ्या लाज्या…” 

मला त्या दोघांचे प्रेम बघूनच डोळ्यांत अश्रू आले… पपांना कोणीतरी विख्यात ज्योतिषांनी सांगितले होते की, तुम्ही ज्या दिवशी गाडी घ्याल त्या दिवशी तुमच्या आईला गमवाल. खेळण्यातली जीपगाडी पण आपल्या आईला चुकून लागली तर..?  हा विचारही त्यांच्या हळव्या कविमनाला सहन झाला नव्हता…

क्रमशः…

  – सुश्री शीतल श्रीधर माडगूळकर

संग्राहिका – सुश्री सुलू साबणे जोशी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ स्वामी विवेकानंदांची महासमाधि ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?इंद्रधनुष्य?

स्वामी विवेकानंदांची महासमाधि ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ 

४ जुलै १९०२ या दिवशी स्वामीजींनी पार्थिव देहाचा त्याग करून स्वधामी प्रयाण केले.

त्यांनी त्या अखेरच्या दिवशीही शिष्यांना व्याकरण कौमुदी, वेदांत सूत्रे शिकवली होती.

त्यांनी बरेच दिवस अगोदर आपल्या शिष्याला दिनदर्शिका आणायला सांगितली. त्यातील शुभयोगांचा बारकाईने अभ्यास करून त्याच दिनदर्शिकेवरील ४ जुलै या दिवसावर खूण करून ठेवली.

त्यांच्या महाप्रयाणापूर्वी काही दिवस अगोदर त्यांनी आपल्या सर्व शिष्यांसाठी सहभोजन आयोजित केले होते. त्यांनी स्वतः स्वयंपाक करून या लाडक्या शिष्यांना आणि गुरूबंधूंना आग्रह करून जेवायला वाढले होते. सगळ्यांचे भोजन होत आल्यावर स्वामीजी बाहेर जाऊन या सर्वांच्या हातावर पाणी घालण्यासाठी हातात भांडे घेऊन उभे राहिले होते.

मार्गारेट नोबल अर्थात् स्वामीजींची मानसकन्या भगिनी निवेदिता स्वामीजींनी तिच्या हातावर पाणी ओतताना म्हणाली, ” स्वामीजी, येशू ख्रिस्ताच्या जीवनातील अंतिम भोजनाचा जो प्रसंग आहे, तेव्हा स्वतः येशूने आपल्या भक्तांच्या हातावर भोजनानंतर पाणी घातले होते. मला त्याची आठवण आली. “

त्यावर स्वामीजी म्हणाले, ” होय मार्गारेट ,हा अगदी तसाच प्रसंग आहे. “

स्वामीजींनी देह ठेवल्याचे समजताच भगिनी निवेदितेला त्यांच्या या बोलण्याचा अर्थ उमगला, आणि तिच्या आक्रोशाला काही सीमाच राहिली नाही.

स्वामीजींच्या पार्थिवाचे अंतिम दर्शन घेताना तिच्या असे मनात आले, की स्वामीजींची अंतिम आठवण म्हणून त्यावेळी त्यांनी परिधान केलेल्या पवित्र वस्त्राचा एक तुकडा आपल्याला मिळेल का ? तिने तसे विचारल्यावर त्याला नकार मिळाला.

ती शोकाकूल वातावरणात स्वामीजींची आई भुवनेश्वरी देवी आणि सारदा माताजी यांच्या शेजारी बसून मंत्रोच्चारात केल्या जाणाऱ्या अंतिम संस्कारांचे निरीक्षण करीत होती. थोड्याच वेळात भडकलेल्या अग्नीने स्वामीजींचे पार्थिव आपल्या कवेत घेतले.जोराचा वारा आला, आणि त्या अग्निच्या ज्वालांमधून त्या वा-याने उडालेला स्वामीजींच्या काषाय वस्त्राचा एक तुकडा भगिनी निवेदितेसमोर येवून पडला. तिने अनावर झालेल्या अश्रुधारा आवरत तो पवित्र वस्त्राचा तुकडा स्वामीजींची अखेरची आठवण म्हणून उचलला आणि तो मरेपर्यंत प्राणपणाने सांभाळला.ती म्हणते,

“स्वामीजींनी माझ्या प्रत्येक धर्मजिज्ञासेचं समाधान केलं, माझ्यावर पूर्ण कृपा केली, आणि देह ठेवल्यावरही माझी अगदी क्षुल्लक इच्छाही तत्परतेने पूर्ण करीत त्यांच्या देहातीत अस्तित्वाचे प्रमाण दिले.”

मार्गारेट नोबल जन्मभर लिहिलेल्या प्रत्येक पत्राच्या अखेरीस स्वतःचे नाव लिहिताना Sri Ramkrushna Vivekananda’s Bhagini Nivedita असे मोठ्या प्रेमाने लिहित असे.

पुढे रामकृष्ण मठाने स्वामीजींचे समग्र वाङ्मय प्रकाशित केले, त्यावरील अभिप्राय देताना भगिनी निवेदिता लिहिते, 

“या भारतात जेव्हा एखादे निरागस बालक आपल्या आईला विचारेल” आई, हिंदू धर्म म्हणजे काय गं ? त्यावेळी ती अगदी नि:शंकपणे आपल्या अपत्याला सांगेल, की बाळा स्वामीजींचे जीवन म्हणजे मूर्तिमंत हिंदू धर्म आहे. तू स्वामीजींचे समग्र वाङ्मय वाच, तुला हिंदू धर्माचे आकलन होईल.”

आपण सारेच परम भाग्यवान आहोत, की स्वामीजी आपल्या आध्यात्मिक उन्नतीसाठी खूप मोठा वैचारिक वारसा मागे ठेवून गेले आहेत.स्वामीजी भारतीयांना म्हणतात, ” तुम्हाला किमान बाराशे वर्षे पुरेल इतके विचारधन मी तुमच्यासाठी मागे ठेवले आहे. उठा,जागे व्हा, आणि ध्येय प्राप्तीपर्यंत क्षणभरही विसावू नका.”

प्रत्यक्ष ईश्वरी साक्षात्कार होणं हेच जीवनाचे एकमेव ध्येय आहे.

स्वामीजींच्या पुण्यतिथीनिमित्त त्यांना कृतज्ञ प्रणाम. त्यांची दैवी तेजस्विता त्यांच्याच कृपेने आपणा सर्वांच्या जीवनातही प्रकाशित होवो, आणि तेजस्विता येवो, हीच प्रार्थना.

संग्राहक : – सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ वसा ई-साक्षरतेचा… सुश्री अनुज्ञा बर्वे ☆ प्रस्तुती – सुश्री स्नेहलता गाडगीळ☆

सुश्री स्नेहलता दिगंबर गाडगीळ

 

?  वाचताना वेचलेले  ? 

☆ वसा ई-साक्षरतेचा… सुश्री अनुज्ञा बर्वे ☆ प्रस्तुती – सुश्री स्नेहलता गाडगीळ☆

श्रावण महिन्यातल्या कहाण्या ऐकणं ही पर्वणी असे माझ्या लहानपणी !

तशा ढंगात आधुनिक कथुली लिहिण्याचा हा एक प्रयत्न– यंदाच्या श्रावणमासारंभानिमित्ताने —-

फार फार वर्षांपूर्वीची गोष्ट !

(२१व्या शतकात आठेक  वर्षापूर्वीची म्हणजे फार फार्रच!  राईट?)

आटपाट सहनिवासात एक कुटुंब रहात असे. त्यातले राजा -राणी नि दोन राजपुत्र आधी अगदी आनंदाने रहात. जसजसे राजपुत्र राजाच्या पावलावर पाऊल टाकून  शिक्षणात यशस्वी होत गेले, तसतसे ते राजाच्या मर्जीत राहू लागले आणि…..

ई-युगात  राणी मात्र हळुहळु मागे पडत गेली (खरंतर मागासलेली ठरली), नि त्या त्रिकुटाची नावडती झाली.

यथावकाश, शिक्षणाच्या मोहिमेसाठी राजमान्यतेने दोन्ही राजपुत्रांनी देशांतर केलं.

राजा नि राजपुत्रांचं त्रिकुट ई-संवादा ने आणखी घट्ट जोडलं गेलं.

राणी मात्र नावडतेपणाने दुरावत गेली.

राजपुत्र मोहिमेवर गेल्यानंतरच्या पहिल्या श्रावणात तिनं पुत्रांच्या क्षेम-कल्याणासाठी व्रतवैकल्यं

करायचं योजलं. त्यातल्या देवांच्या कहाण्यां मधून राणीला प्रेरणा मिळाली नि तिनं वसा घेतला-

स्वत:साठीही !

सर्वप्रथम राणीने आपल्या खाजगी ठेवी तून वशासाठी लागणारं एकमेव साहित्य, (अगदी पारंपरिक कहाण्यातल्या एक मूठ साहित्यासारखं) म्हणजेच स्मार्टफोन खरेदी केला. देवांच्या कहाण्यांनी प्रेरित झालेल्या राणीला पतिदेव सहाय्य करतील असा भरवसा नव्हताच मुळी !

त्यामुळे—सहनिवासात राहणाऱ्या नि रोज सायंवॅाक घेणाऱ्या एका नवयौवना उमेशी जवळीक साधली.

उमेनंही, राणीला सखी म्हणून स्वीकारलं.

नंतर श्रावणातल्या दर सोमवारी सहनिवासाच्या कट्ट्यावर ह्या सखी-पार्वतीच्या जोडीनं चौसोम (४ सोमवारची) योजना आखली. राणीनं, ई-तंत्र-संथा घ्यायचं निश्चित केलं.

पहिल्या सोमवारी काय घ्यावं?—-

मुठीतल्या मोबाईलला मनोभावे नमस्कार करून राणीने संपूर्ण मोबाईल-कार्य नि ई-जोडणी आत्मसात करून घेतली ,— उमे कडून !

मग दुसऱ्या , तिसऱ्या , चौथ्या सोमवारी उमेच्या समक्ष सहाय्याने, ई-मेल, व्हाट्सअप, फेसबुकमध्ये लक्ष वाहिलं राणीने !!—’ उतणार नाही मातणार नाही । घेतला वसा टाकणार नाही ।। ’  हे ब्रीद वाक्य ठेवून राणीने उपासना सुरूच ठेवली.

राजपुत्रांना पहिल्यांदा ‘मेल’ करून ई-धक्का देत देत हळूहळू राणी ई-स्मार्ट तर झालीच, –

पण…

आत्तापर्यंत ‘राजपुत्र’ हीच दुनिया असलेल्या राणीच्या कक्षा रुंदावल्या नि ती संपूर्ण जगाशी जोडली गेली.

वसा फळाला आला . — * राजा आणि राजपुत्रांची* कमालीची आवडती झाली राणी !

(जसा जसा वसा परिपक्व होत गेला तसा तसा  राणीचा नेट पेमेंट शॅापिंगवरचा दहशतवादी  वरचष्मा राजाच्या नजरेत भरू लागला.)

नेटचे निर्मळ मळे, गुगलचे तळे,

फेसबुकचा वृक्ष, व्हाट्सअप-इन्स्टाग्रामची देवळे रावळे.

मुठीतला मोबाईल मनी वसावा. संपूर्ण ई-साक्षर व्हावं —

संपूर्णाला काय करावं? ॲानलाईन अल्पदान करावं.—

ही बोटाच्या टोकावर उत्तरं असणारी कहाणी सुफळ संपूर्ण

हा वसा कुणी घ्यावा ? –काळाबरोबर राहू इच्छिणाऱ्या कुणीही घ्यावा –नि घेतला वसा टाकू नये.

लेखिका : अनुजा बर्वे

संग्राहिका  : स्नेहलता गाडगीळ

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 98 – गीत – मुखर जलज सा रुप… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – मुखर जलज सा रुप…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 98 – गीत –मुखर जलज सा रुप✍

मुखर जलज सा रुप

मुग्ध मधुप सा मेरा मन।

 

तुमसे पहले जीवन मरू था

तुम्हें देखकर मेघ पधारे

गंध छंद में बँधकर आई

बँधे गीत के वंदन वारे

ओ मेरी साधों की संगिनी

तुम हो सगुण शेष है निर्गुण।

 

जीवन था निर्जीव शब्द सा

दिया तुम ही ने अर्थ उजाला

तुमने ही जलती तृष्णा को

संयम के साँचे में ढाला ।

तुमने ही मन किया नियंत्रित

तेरा मन है मेरा दरपन।

 

मुखर जलज सा रुप

मुग्ध मधुप सा मेरा मन।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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