हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #143 ☆ सहनशक्ति बनाम दण्ड ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सहनशक्ति बनाम दण्ड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 143 ☆

☆ सहनशक्ति बनाम दण्ड

‘युगों -युगों से पुरुष स्त्री को उसकी सहनशीलता के लिए ही दण्डित करता आ रहा है, ‘ महादेवी जी का यह कथन कोटिश: सत्य है, जिसका प्रमाण हमें गीता के इस संदेश से भी मिलता है कि ‘अन्याय करने वाले से अधिक दोषी अन्याय सहन करने वाला होता है’, क्योंकि उसकी सहनशीलता उसे और अधिक ज़ुल्म करने को प्रोत्साहित करती है। इसलिए एक सीमा तक तो सहनशक्ति की महत्ता स्वीकार्य है, परंतु उसे आदत बना लेना कारग़र नहीं है। इसलिए मानव में विरोध व प्रतिकार करने का सामर्थ्य होना आवश्यक है। वास्तव में वह व्यक्ति मृत के समान है, जो ग़लत बात को ग़लत ठहरा कर विरोध नहीं जताता। इसके प्रमुखत: दो कारण हो सकते हैं– आत्मविश्वास की कमी और असीम सहनशीलता। यह दोनों स्थितियां ही भयावह और मानव के लिए घातक हैं। आत्मविश्वास से विहीन मानव का जीवन पशु-तुल्य है, क्योंकि जो आत्मसम्मान की रक्षा नहीं कर सकता; वह परिवार, समाज व देश के लिए क्या करेगा? वह तो धरती पर बोझ है; न उसकी घर-परिवार में इज़्ज़त होती है, न ही समाज में उसे अहमियत प्राप्त होती है। अत्यधिक सहनशीलता के कारण वह शत्रु अर्थात् प्रतिपक्ष के हौसले बुलंद करता है। परिणामत: समाज में आलसी व कायर लोगों की संख्या में इज़ाफा होने लगता है। प्राय: ऐसे लोग संवेदनहीन होते हैं और उनमें साहस व पुरुषत्व का अभाव होता है।

नारी को सदैव दोयम दर्जे का प्राणी स्वीकारा जाता है, क्योंकि उसमें अपना पक्ष रखने का साहस नहीं होता और वह शांत भाव से समझौता करने में विश्वास रखती है। इसके पीछे कारण कुछ भी रहे हों; पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक या उसका समर्पण भाव– सभी नारी को उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देते हैं, जहां वह निरंतर ज़ुल्मों की शिकार होती रहती है। पुरुष दंभ के सम्मुख वह प्रतिकार व विरोध में अपनी आवाज़ नहीं उठा सकती। इस प्रकार पुरुष उस पर हावी होता जाता है और समझ बैठता है कि वह पराश्रिता है; उसमें साहस व आत्म-विश्वास की कमी है। सो! वह उसके साथ मनचाहा व्यवहार करने को स्वतंत्र है। इस प्रकार यह सिलसिला चल निकलता है। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार अर्थात् विवशता बन जाते हैं और उसके जीने का मक़सद व उपादान बन जाते हैं, जिसे वह नियति स्वीकार अपना जीवन बसर करती रहती है।

यदि हम उक्त तथ्य पर दृष्टिपात करें, तो नियति व स्वीकार्यता-बोध मात्र हमारी कल्पना है, जिसे हम सहजता व स्वेच्छा से अपना लेते हैं। यदि व्यक्ति प्रारंभ से ही ग़लत बात का प्रतिरोध करता है और अपने कर्म को अंजाम देने से पहले सोच-विचार करता है, उसके हर पहलू पर दृष्टिपात करता है– शत्रु के बुलंद हौसलों पर ब्रेक लग जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं, 2007 में प्रकाशित स्वरचित काव्य-संग्रह की अंतिम कविता की पंक्तियां– ‘बहुत ज़ुल्म कर चुके/ अनगिनत बंधनों में बाँध चुके/ मुझ में साहस ‘औ’ आत्म- विश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ जी हाँ! यह संदेश है नारी जाति के लिए कि वह सशक्त, सक्षम व समर्थ है। वह आगामी आपदाओं का सामना कर सकती है। परंतु वह पिता, पुत्र व पति के बंधनों में जकड़ी, ज़ुल्मों को मौन रहकर सहन करती रही, क्योंकि उसने अंतर्मन में संचित शक्तियों को पहचाना नहीं था। परंतु अब वह स्वयं को पहचान चुकी है और आकाश की बुलंदियों को छूने में समर्थ है। आज की नारी ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो/ आसमान को’ में झलकता है उसका अदम्य साहस व अटूट विश्वास, जिसके सहारे वह हर कठिन कार्य को कर गुज़रती है और ऐलान करती है कि ‘असंभव शब्द का उसके शब्दकोश में स्थान है ही नहीं; यह शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में पाया जाता है।’

परंतु 21वीं सदी में भी महिलाओं की दशा अत्यंत शोचनीय व दयनीय है। वे आज भी पिता, पति व पुत्र द्वारा प्रताड़ित होती है, क्योंकि तीनों का प्रारंभ ‘प’ से होता है। सो! वे उनके अंकुश से आजीवन मुक्त नहीं हो पाती। घरेलू हिंसा, अपनों द्वारा उसकी अस्मिता पर प्रहार, फ़िरौती, दुष्कर्म, तेज़ाब कांड व हत्या के सुरसा की भांति बढ़ते हादसे उनकी सहनशक्ति के ही दुष्परिणाम हैं। यदि बुराई को प्रारंभ में ही दबाकर समूल नष्ट कर दिया जाता तो परिदृश्य कुछ और ही होता। महिलाएं पहले भी दलित थीं, आज भी हैं और कल भी रहेंगी। उनके अतीत, वर्तमान व भविष्य में कोई परिवर्तन संभव नहीं हो सकता; जब तक वे साहस जुटाकर ज़ुल्म करने वालों का सामना नहीं करेंगी।

वैसे यह नियम बच्चों, युवाओं व वृद्धों सब पर लागू होता है। उन्हें आगामी आपदाओं, विषम व असामान्य परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए, क्योंकि हौसलों के सम्मुख कोई भी टिक नहीं सकता। ‘लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती/ कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ सोहनलाल द्विवेदी जी इस कविता के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि यदि आप तूफ़ान से डर कर व लहरों के उफ़ान को देख कर अपनी नौका को बीच मंझधार नहीं ले जाओगे तो नौका कैसे पार उतर पाएगी? संघर्ष रूपी अग्नि में तप कर ही सोना कुंदन बनता है। इसलिए कठिन परिस्थितियों के सम्मुख कभी भी घुटने नहीं टेकने चाहिएं तथा मैदान-ए-जंग में मन में इस भाव को प्रबल रखने की दरक़ार है कि ‘तुम कर सकते हो।’ यदि निश्चय दृढ़ हो, हौसले बुलंद हों, दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। नैपोलियन बोनापार्ट भी यही कहते थे कि असंभव शब्द मूर्खों के शब्द कोश में होता है। इस नकारात्मक भाव को अपने ज़हन में प्रविष्ट न होने दें –’जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि तथा नज़रें बदलते ही नज़ारे बदल जाते हैं और नज़रिया बदलते ज़िंदगी।’ यदि नारी यह संकल्प कर ले कि वह अकारण प्रताड़ना सहन नहीं करेगी और उसका साहसपूर्वक विरोध करेगी, ‘तो क्या’ और अब मैं तुम्हें दिखाऊँगी कि ‘मैं क्या कर सकती हूं।’ उस स्थिति में पुरुष भयभीत हो जायेगा और अपने मिथ्या सम्मान की रक्षा हेतु मर्दांनगी नहीं दिखायेगा। धीरे-धीरे दु:ख भरे दिन बीत जायेंगे व खुशियों की भोर होगी, जहाँ समन्वय, सामंजस्य ही नहीं; समरसता भी होगी और ज़िंदगी रूपी गाड़ी के दोनों पहिए समान गति से दौड़ेंगे। 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

14 जुलाई 2022.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ‘है’ और ‘था’ (चार शब्दचित्र) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – ‘है’ और ‘था’ (चार शब्दचित्र) ??

[1]

‘है’ और ‘था’

देखें तो

दोनों के बीच

केवल एक पल थमा है,

‘है’ और ‘था’

सोचें तो एक पल में

जीवन और मृत्यु का

अंतर कटा है।

(रात्रि 3:22 बजे 22 मई 2019)

[2]

‘है’ और ‘था’

देखें तो

सम्बंधों से साँसों तक

अहम खड़ा है,

‘है’ और ‘था’

सोचें तो

मुनादी करते

समय सबसे बड़ा है।

(रात्रि 3:34 बजे 22 मई 2019)

[3]

‘है’ और ‘था’

देखें तो

बंद मुट्ठी में

अनादि-अनंत की

संपदा गड़ी है,

‘है’ और ‘था’

सोचें तो

मुट्ठी खुलने पर

बस इक पल की

संपदा मिली है।

(रात्रि 3:55 बजे 22 मई 2019)

[4]

‘है’ और ‘था’

वर्तमान इक दिन

अतीत हो जाएगा,

अतीत रूप बदल कर

फिर लौट आएगा,

बहुरूपिया समय

नाना स्वांग रचता है

‘है’ और ‘था’ बन कर

मनुष्य को ठगता है।

(प्रातः 4: 04 बजे 23 मई 2019)

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #142 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 142 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … ☆

चलते – चलते थकें नहीं, बस इतनी सी आस।

सर पर इतना बोझ है, तनिक नहीं अहसास।।

 

सुख – दुख जीवन में बहुत, रहते अक्सर खास।

जिम्मेदारी का हमें,  होता   है    अहसास।।

 

करते है हम कामना, बदले कभी न भाव ।

सेवा करना धर्म है, आए नहीं दुर्भाव।।

 

परेशानी है जीवन में, जीवन इसका नाम।

चलना है रुकना नहीं,  नहीं करना आराम।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #130 ☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं आपकी  “एक बुन्देली पूर्णिका। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 131 ☆

☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सीख बड़न की सुनतै नइयां

लाख  बताओ  गुनतै  नइयां

 

खूब   पेर  रए माँ-बाप   खों

उनखों कछु समझतई नइयां

 

ऐ की ओ खों ओ की ऐ  खों

काम भलो कछु करतै नइयां

 

परे   फेर   में    राजनीति  के

दिमाग  नहचूँ  उतरतै  नइयां

 

धरो   रुपैया     खूब    फूंकते

उनसें  कबहुँ  जुडतई   नइयां

 

वोट  बेंच  कें  दारू  पी   गए

इनखों  तननक शरमै  नइयां

 

मेंगाई   जा  सांस  न   ले  रईं

“संतोष” निहचें गिरतै  नइयां

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ पहला पोपट! ☆ श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ☆

श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल

(युवा साहित्यकार श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल जी लखनऊमें पले बढ़े और अब पुणे में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। आपको बचपन से ही हिंदी और अंग्रेजी कविताएं लिखने का शौक है। आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य पहला पोपट!)

 ☆ व्यंग्य ☆ पहला पोपट! ☆ श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ☆

बात उन दिनों की है जब हम नये-नये पुणे शहर में आये थे, उम्र भी उतनी थी की अधिक जानकारी नहीं थी और न ज़रुरत।

नौकरी महाराष्ट्र में लगी थी तो  मराठी भाषा से दो-चार होना भी स्वाभाविक था। एक बार यूँ ही बातों बातों में एक मित्र ने कहा कि “बहुत पोपट हो गया”, और उत्सुकता वश हमने पूछा कि यह क्या होता है?  समय के आभाव के कारण मित्र ने कहा की बाद में बताएंगे। और फिर सभी इस बात को भूल गए।

एक बार येरवड़ा से पुणे स्टेशन जाने के लिए बस में चढ़े ! हमेशा की तरह बहुत भीड़ थी, पर कुछ ऊपरवाले का आशीर्वाद और कुछ शरीर का लचीलापन कि हमें सीट मिल गई।

जो पुणे नहीं आते जाते उनको बता दूँ कि, बस की सीट मिलना,  लोकसभा की सीट मिलने जितना मुश्किल नहीं होता, न ही शादीशुदा पुरुष को अपने ही घर में टीवी का रिमोट मिलने जितना मुश्किल होता है। पर अपने आप में एक छोटी मोटी उपलब्धि के रूप में तो गिना ही जा सकता है। पर कामयाबी पा लेना एक बात होती है, और उसपे टिके रहना दूसरी। ठीक अगला स्टॉप आते ही एक वृद्धा बस में चढ़ी और नैतिकता के कारण हमने अपनी सीट उनको दे दी।

आगे का वाकया सुनाने से पहले एक और जानकारी देना चाहते हैं। जब बात मराठी की आती है तो उन दिनों हमे मराठी का सिर्फ एक वाक्य ही आता था :

“मला मराठी येत नाही”।

महिला ने सीट मिलने की ख़ुशी में हमे मराठी में धन्यवाद दिया, हमने भी मुस्कुरा के स्वीकार कर लिया। अभी एक मिनट भी नहीं गुज़रा था कि उन्होंने फिर से हमारी ओर देख कर कुछ मराठी में कहा, न समझ में आने पर भी हमने हाँ की मुद्रा में सर हिला दिया। ऐसे ही दो स्टॉप और गुज़र गए परन्तु वह मेरी ओर देख कुछ न कुछ मराठी में कहती रही।

बस आगे बढ़ी और कुछ जगह होने पर मैंने एक दूसरी सीट लपक ली, परन्तु लपकने में अधिक फुर्ती न दिखा पाने के कारण विन्डो सीट जाती रही। उस पर एक युवती बैठ गई। मुझे लगता है अलग से बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि विंडो सीट, आम सीट मिलने से बड़ी उपलब्धि है। परंतु इससे पहले कि हम अपनी छोटी सी हार का शोक मना पाते, वृद्धा ने फिर से हमारी ओर देखा और मराठी में एक और गद्यांश सा पढ़ दिया।  इस बार हमसे रहा न गया, और मित्रो द्वारा सिखाया मंत्र हमने पढ़ दिया :-

“मला मराठी येत नाही।”

वे बड़ी ज़ोर से हसीं और उन्होंने हिंदी में कहा, “आप के बगल में मेरी बेटी बैठी है मैं उससे बात कर रही हूँ।”

मुझे लगा कि शायद पहले भी उनकी बेटी मेरे बगल में ही खड़ी थी। मजे की बात है कि  उसने अपनी माँ की किसी बात का कोई ज़वाब नहीं दिया। पर बस में किसी को सफाई देने से कोई फायदा नहीं होने वाला था,  हमारा मज़ाक तो उड़ चुका था।

राहत की बात यह थी कि अगला स्टॉप पुणे स्टेशन आ चूका था, और अजीब स्थिति से बचने के लिए हमने भी भागने में कोई देरी न दिखाई।

बाद में मराठी के जानकार मित्र ने बताया कि इसी को “पोपट होना” कहते हैं।

© केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल

पुणे मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सहयोग ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सहयोग ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

संकल्प, बल और बुद्धि में एक दिन विवाद हो रहा था। प्रत्येक को अभिमान था कि उसके बिना सफलता की प्राप्ति असंभव है। विवाद समाप्त होने नहीं आ रहा था। बिना किसी योग्य निर्णायक के फैसला कैसे हो? खैर तीनों इस बात पर राजी हुये कि विवेक से इस विषय पर उसका अभिमत जाना जाय। जो वह कहे उसे मान लिया जाय। तीनों विवेक के पास जाकर उन्होंने उससे अपना निर्णय देने की प्रार्थना की। विवेक ने सोचा कि यदि वह किसी एक का नाम लेगा तो उस पर पक्षपात का आरोप लग सकता है और शेष दो आक्रोशित हो सकते हैं। इसलिये उसने प्रत्यक्ष प्रयोग विधि से सबको अपने निर्णय को मान्य कराने का सोचा। वह तीनों को साथ ले गांव में गया। गली में खेलते हुये बालक दिखे। विवेक ने एक को बुला उसे एक टेढ़ी छोटी लोहे की छड़ और वजनदार हथोड़ा दिखाकर जो उसने प्रयोग के लिये साथ रख लिया था, पूछा क्या वह हथौड़े से टेढ़ी छड़ को सीधी कर सकता है? बालक ने खेल समझकर कोशिश की। हथौड़ा वजनदार था इससे वह उसे उठा न सका। इच्छा होते भी बल या शक्ति की कमी के कारण काम न हो सका। आगे बढऩे पर एक श्रमिक एक पेड़ की छाया में लेटा हुआ दिखा। विवेक ने उसे वह टेढ़ी छड़ और हथौड़ा दिखाकर पूछा क्या वह उस छड़ को ठोंककर सीधी कर सकेगा। श्रमिक ने कहा- यह भी क्या कोई बड़ी बात है? पर चूंकि वह भोजन करके थोड़ा विश्राम कर रहा था इसलिये उसने कहा उसका उस समय परिश्रम करने का मन नहीं है। बाद में कर देगा। काम न होने से वे सब और आगे गये। खेत की ओर जाता हुआ एक हष्ट-पुष्ट किसान दिखा। उसके पास पहुंचकर विवेक ने तीनों के समक्ष उससे वह छड़ और हथौड़ा (धन) दिखाकर पूछा कया वह उस छड़ को सीधी कर सकने की कृपा करेगा। उसने कहा- भैया ये भी भला क्या कोई बड़ी बात है? उसने छड़ को वहीं जमीन पर रखकर, मन से उस पर पूरी ताकत से प्रहार किया पर छड़ सीधी न होकर जमीन में धंस गई और धूल उड़ी जो सहसा किसान की आंख में लगी। कार्य सम्पन्न न हो सका क्योंकि किसान ने कार्य संपादित करने के लिये बुद्धि का सही उपयोग नहीं किया। यदि कोई पत्थर या कड़े धरातल पर छड़ को रखकर पीटा जाता तो छड़ सीधी हो गई होती। तीनों प्रकरणों को दिखाकर विवेक ने बताया कि पहले प्रकरण में बालक में बल की कमी थी, दूसरे प्रकरण में श्रमिक में क्षमता तो थी पर संकल्प की कमी थी और तीसरे प्रकरण में किसान में सही बुद्धि की कमी थी। इससे छोटी सी छड़ सीधी नहीं हो सकी। तीनों घटनाओं की विवेचना से तीनों- संकल्प, बल और बुद्धि की समझ में आ गया कि सफलता पाने में किसी एक का विशेष महत्व नहीं है वरन् तीनों के सहयोग और समन्वय का महत्व है। न कोई बड़ा है न छोटा। सभी तीनों समान रूप से महान हैं। सभी को सम्मिलित रूप से श्रेय दिया जाना उचित है। किसी को अपना अभिमान नहीं होना चाहिये। निर्णय को तीनों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, विवाद समाप्त हो गया।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २९ जुलै – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई-अभिव्यक्ती – संवाद ☆ २९ जुलै – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

निर्मलकुमार फडकुले

निर्मलकुमार फडकुले हे मराठीतील संत साहित्याचे गाढे अभ्यासक, ललित लेखक व आस्वादक समीक्षक होते. सोलापूर येथे जन्मलेल्या फडकुले यांनी ‘लोकहितवादी: काल आणि कर्तृत्व’ हा प्रबंध सादर करून डाॅक्टरेट प्राप्त केली. लेखनाबरोबरच ते एक उत्तम वक्तेही होते.

त्यांनी काही काळ नांदेड येथे प्राध्यापक म्हणून काम केले. नंतर सोलापूर येथील संगमेश्वर महाविद्यालयात मराठी विभाग प्रमुख म्हणून जबाबदारी स्विकारली व तेथूनच निवृत्त झाले.

फडकुले यांची साहित्य संपदा:

अमृतकण कोवळे,आनंदाची डहाळी,काही रंग काही रेषा,चिंतनाच्या वाटा,परिवर्तनाची चळवळ,मन पाखरू पाखरू,संतकवी तुकाराम -एक चिंतन,संत वीणेचा झंकार इत्यादी.

संपादित साहित्य :

अमृतधारा, चिपळूणकरांचे तीन निबंध, आदित्य आणि शुभंकर नियतकालिके, प्रबोधनातील पाऊलखूणा, रत्नकरंड श्रावकाचार, ज्ञानेश्वरी प्रथमाध्याय.

फडकुले यांनी आपल्या व्याख्यानांतून डाॅ.आंबेडकर,म.फुले,स्वा. सावरकर, ना.सि.फडके, प्र.के.अत्रे इत्यादी व्यक्तिंचे कार्य ओघवत्या भाषेत विषद केले आहे.

सोलापूर येथील भैरूरतन दामाणी पुरस्कार त्यांना प्रदान करण्यात आला होता. 1986मध्ये नाशिक येथे झालेल्या अस्मितादर्श साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते .

वयाच्या 78 व्या वर्षी 29/7/2006 ला त्यांचे निधन झाले.

☆☆☆☆☆

सखाराम हरी देशपांडे

शिरवळ येथे जन्मलेल्या स.ह.देशपांडे यांनी सर परशुरामभाऊ महाविद्यालयातून बी.ए.पूर्ण केले.नंतर मुंबई विद्यापीठात अर्थशास्त्रात  एम्.ए. व डाॅक्टरेट संपादन केली.

राष्ट्रवाद आणि हिंदुत्व हा त्यांच्या अभ्यासाचा विषय होता.त्याचबरोबर कृषी अर्थशास्त्र या विषयांत त्यानी अध्यापन व लेखन केले आहे.

भारतीय एकात्मता केंद्र, ज्ञानप्रबोधिनी पुणे या संस्थेचे ते काही काळ प्रमुख होते. ग्रामायन, पुणे चे ते संस्थापक सदस्य होते. सातव्या मराठी अर्थशास्त्र परिषदेचे ते अध्यक्ष होते. लेखनाबरोबरच त्यांनी आदिवासी आणि दलित समाजात सहकारी शेती चे उपक्रम राबविले.

स.ह.देशपांडे यांचे साहित्य:

अमृतसिद्धी भाग 1 व 2

आर्थिक प्रगतीचे रहस्य:भारतीय शेती

आर्थिक विकासाच्या पाय-या

काही आर्थिक,काही सामाजिक

किबुटझ:नवसमाज निर्मितीचा एक प्रयोग

दुभंग,

भारताचा राष्ट्रवाद

हिंदुत्व आणि राष्ट्रीयत्व

हिंदुत्वाची  फेरमांडणी  इत्यादी.

29/07/2010 रोजी वयाच्या 86 व्या वर्षी त्यांचे निधन झाले.

श्री.निर्मलकुमार फडकुले व स.ह.देशपांडे यांच्या स्मृतीस अभिवादन.🙏

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श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : विकिपीडिया, मराठीसृष्टी.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – ई-अभिव्यक्ती (मराठी) – दिवाळी अंक ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

ई-अभिव्यक्ती (मराठी) – दिवाळी अंक

🕯  संपादकीय निवेदन 🕯

दारात रांगोळी, पहाटेच्या आंघोळी

अक्षरांची मांदियाळी, अशी असते दिवाळी

मराठी माणसाच्या मनात दिवाळीची चाहूल लागते ती फराळाच्या वासाने आणि दिवाळी अंकांच्या चर्चेने !

दिवाळी अंक म्हणजे महाराष्ट्राच्या सांस्कृतिक आणि साहित्यिक परंपरेचे प्रतिकच आहे. दिवाळी अंकात साहित्य प्रकाशित होणे हे प्रत्येक साहित्यिकाचे स्वप्न असते आणि चोखंदळ रसिक वाचकही दिवाळी अंकांची आतुरतेने वाट पहात असतात. असाच एक दर्जेदार दिवाळी अंक प्रकाशित करण्याचे ई-अभिव्यक्ती (मराठी) ने ठरवले आहे. साहित्यिकांनी आपली स्वतःची अप्रकाशित साहित्यकृती आमचेकडे पाठवून हा अक्षरसोहळा संपन्न करावा यासाठी हे आवाहन :

साहित्य पाठवताना खालील नियम विचारात घ्यावेत:

  1. दिवाळी अंक पीडीएफ किंवा ई बुक पद्धतीने काढण्यात येईल.
  2. प्रत्येक साहित्यिकाला कोणत्याही एका साहित्य प्रकारातील एकच रचना पाठवता येईल.
  3. अंकात कथा, ललित लेख, कविता, कविता रसग्रहण, चित्रकाव्य आणि पुस्तक परिचय या साहित्य प्रकारांसाठी साहित्य स्विकारले जाईल.
  4. कविता जास्तीत जास्त 20 ओळींची व चित्रकाव्य जास्तीत जास्त 12 ओळींचे असावे. अन्य सर्व साहित्य प्रकारातील लेखन जास्तीत जास्त 1500 शब्दांपर्यंत असावे. सर्व साहित्य व्हाट्सएप्प किंवा मेल ने वर्ड्स फॉर्मेट मध्ये पाठवावे.
  5. चित्रकाव्य साठी संपादक मंडळाकडून दोन चित्रे दिली जातील. त्यावर आधारितच काव्य असावे.
  6. साहित्य स्वतःचे व अप्रकाशित असावे. तसेच साहित्य दिवाळी अंकासाठी पाठवत आहे असा स्पष्ट उल्लेख केलेला असावा.
  7. साहित्य निवडीचे सर्व अधिकार संपादक मंडळाकडे असतील.
  8. तांत्रिक कारणामुळे दिवाळी अंकात समाविष्ट न झालेले दर्जेदार साहित्य ई अभिव्यक्ती च्या दैनंदिन अंकात घेतले जाईल.
  9. आपले साहित्य दि.15 ऑगस्ट 2022ला संध्याकाळी सात पर्यंत आमचेकडे पोहोचेल अशा बेताने पाठवावे.त्यानंतर आलेल्या साहित्याचा दिवाळी अंकासाठी विचार केला जाणार नाही याची कृपया नोंद घ्यावी .
  10. ही सेवा निःशुल्क आहे. साहित्यिकास मानधन दिले जाणार नाही.
  11. आपले साहित्य हे धार्मिक, राजकीय किंवा अन्य कोणत्याही विवादास्पद विषयापासून अलिप्त असावे. सामाजिक सलोखा बिघडणार नाही याची काळजी घ्यावी.
  12. साहित्य पाठवताना खालील व्यवस्था विचारात घेऊन त्यानुसारच साहित्य पाठवावे
  13. कथा, पुस्तक परिचय सौ. उज्ज्वला केळकर यांचेकडे पाठवावे. संपर्क: 9403310170 किंवा Kelkar1234@gmail.com
  14. ललित लेख सौ. मंजुषा मुळे यांचेकडे पाठवावे. संपर्कः 9822846762 किंवा msmulay@gmail.com
  15. कविता, रसग्रहण, चित्रकाव्यः सुहास पंडित यांचेकडे पाठवावे. संपर्क: 9421225491 किंवा soorpandit@gmail.com

सदर निवेदन आपण माहितीसाठी अन्य साहित्यिकांना व समुहांना पाठवू शकता. 

चला, सर्वांच्या सहकार्याने, दर्जेदार साहित्य निर्मिती करून  दिपावलीचा आनंद द्विगुणीत करूया.

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #135 ☆ नाती जपूया…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 135 – विजय साहित्य ?

☆ नाती जपूया… ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

आद्य गुरू मायबाप

स्थान त्यांचे अंतरात

नाती जपूया प्रेमाने

भावस्पर्शी काळजात …१

 

आज्जी आजोबा घराचे

सौख्य समृध्दी दालन

तत्त्वनिष्ठ संस्कारांचे

ध्येयवादी संकलन … २

 

काका, काकू, मामा,मामी

आत्या मावशीचा बोल

कधी धाक , कधी लाड

भावनांचा समतोल …३

 

मित्र मैत्रिणीचे नाते

काळजाचा गोतावळा

सुख दुःख समाधान

असे उरी कळवळा …४

 

नाते बंधु भगिनींचे

वैचारिक छत्रछाया

घास अडतसे ओठी

धावतसे प्रेममाया … ५

 

नाते सहजीवनाचे

लेणे सासर माहेर

नाती जपूया प्रेमाने

देऊ काळीज आहेर…६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पड होऊन पाऊस… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

? कवितेचा उत्सव  ?

⛈️ पड होऊन पाऊस…  सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆ 

धरती अन आभाळाचे

हे केवढे अंतर

नभा भरलेपणाचा

आता सोसवेना भार

 

अरे बरस बरस

गच्च भरलेल्या धना

न्हाऊ घाल धरीत्रीला

आता विरह सोसेना

 

नको दाऊ उगा ताठा

तुझ्या पुरूषपणाचा

तुझा थेंब थेंब येथे

अरे लाखाच्या मोलाचा

 

स्रुष्टी देवतेला तुझे

आता वरदान हवे

हिरवेगार सौभाग्याचे

वस्त्र पांधरू दे नवे

 

तुझे सौभाग्याचे देणे

हाच तुझा बडिवार

ताण किती दावणार

 

जरी गळामिठी नाही

तरी भिजव अधर

बीज अंकुरण्यासाठी

दे ना थोडासा आधार

 

अरे माता ही जगाची

पुत्रवती तिची कुस

पुत्र औक्षवंत होण्या

पड होऊन पाऊस

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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