(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “माता की ममता पर अंधड़…”।)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य “इस अंजुमन में आपको आना है बारबार… ”।)
☆ शेष कुशल # 29 ☆
☆ व्यंग्य – “इस अंजुमन में आपको आना है बारबार… ”– शांतिलाल जैन ☆
किसी भी अस्पताल में सबसे कठिन समय वो नहीं होता जब आप दर्द से बेपनाह कराह रहे होते हैं, वो होता जो डॉक्सा द्वारा छुट्टी कर देने का निर्णय दिए जाने और फायनली डिस्चार्ज टिकट हाथ में आ जाने के बीच गुजरता है. जमानत हो जाती है, ऑर्डर की कॉपी जेल अधिकारी तक नहीं पहुंच पाती. छुट्टी हो जाती है डिस्चार्ज टिकट बिलिंग काउंटर तक नहीं पहुंच पाता. अस्पताल के गेट की मजबूती जेल-गेट से कम नहीं होती श्रीमान. आप समय से बाहर आ सकें के प्रयास में आपका अटेंडेंट बदहवास काउन्टर-दर-काउन्टर भटकता है और आप हाथ पर लगे कैनुला को बेबसी से देखते हुए हर थोड़ी देर में पत्नी को फोन पर बताते हो बस कुछ ही देर में घर पहुँच जाएंगे, खाना मत भेजना. ‘कुछ देर’ का मतलब मिनिमम साढ़े छह घंटे तो होता ही है.
ताज़ा हादसा अपन के साथ हुआ. दादू आठ दिन से अस्पताल में भर्ती था और अपन उसकी तीमारदारी में लगे थे. राउंड पर आए डॉक्सा ने सुबह नौ बजकर तेरह मिनिट पर लंबे लंबे चार्ट पर निगाह मार कर, नर्स से चाइनीज लेंग्वेज़ में कुछ पूछा. नर्स ने मंगोलियन भाषा में जवाब दिया. मुझे पक्का यकीन है कि डॉक्सा ने जो कहा वो नर्स नहीं समझी और नर्स के कहे को समझने की जरूरत डॉक्सा ने नहीं समझी. जो भी हुआ, डॉक्सा ने कहा – ‘आज आपकी छुट्टी कर देते हैं’. अंधा क्या चाहे श्रीमान – दो आँखें. दादू का बस चलता तो वो सीढ़ी से उतरने का धैर्य भी नहीं रखता, खिड़की से कूद कर घर चला जाता. फिलवक्त दादू सातवें आसमान पर था और अपन उसके साथ थे. फौरन से पेश्तर बेटे को मोबाइल पर कहा कि वो कार लेकर हमको लिवाने आ जाए. सामान भी रहेगा चद्दर, पतीली, चम्मच, बची दवाईयां, सक्कर की पुड़िया, बिस्कुट का पूड़ा और आधी घिसी हुई साबुन की बट्टी. दस हज़ार रुपयों के खून से सराबोर दो जंगी काली डरावनी एमआरआई की तस्वीरें, धमनियों और किडनियों से बहे अलग अलग द्रवों की जांच रिपोर्टें.
नादां थे हम जो पंद्रह मिनट में अस्पताल छोड़ देने की उम्मीद पाल बैठे थे. अभी तो दास्तां-ए-डिस्चार्ज शुरू हुई थी, कुछेक ट्रेजिक मोड आने बाकी थे. साढ़े ग्यारह बज चुके थे और डिस्चार्ज किए जाने का आदेश उसी फ्लोर के नर्सिंग स्टेशन तक भी पहुंचा नहीं था. दादू सातवें से उतरकर पांचवें आसमान पर आ गया था. मैं नर्सिंग स्टेशन पर खड़ा था और वे मेरी तरफ देख भी नहीं रही थीं. इन आठ दिनों में ही मैंने जाना कि आँकड़े भरने, रिकार्ड रखने और उसी में तल्लीन रहने में हमारे अस्पतालों ने भारतीय सांख्यिकीय संस्थान से बाज़ी कैसे मार ली है. जब जब मैं नर्स को बुलाने जाता वे मरीजों की फ़ाईल्स में शरीर का तापमान, खून का दबाव, शकर की मात्रा और यूरिन का आऊटपुट जैसी जानकारी दर्ज़ करने में इस कदर तल्लीन होती कि मुझे चाबी से काउन्टर का टॉप पर तीन बार खट-खट करना पड़ता. जीडीपी और मुद्रास्फीति के आंकड़ों को दर्ज़ करनेवाले अर्थशास्त्रियों को नर्सिंग स्टॉफ से सीखना चाहिए – डाटाशीट कैसे फ़िल-अप की जाती है. नर्सें सुनिश्चित करतीं कि मरीज को इंजेक्शन लगे न लगे उसके लगाए जाने की इंट्री चार्ट में जरूर हो. वहाँ खड़े एक जूनियर डॉक्टर ने पुष्टि की – यस इनको डिस्चार्ज देना है. कहा– आप अपने रूम में बैठिए हम पर्चा डॉक्सा से साईन करवाके काउन्टर पर भिजवाते हैं. और डॉक्सा ? वो अब तक ओटी में प्रवेश कर गए थे. वहाँ से बाहर कब निकलेंगे ये नजूमी का तोता ही बता सकता था जो आज अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर बैठा नहीं था. दादू पाँचवे से तीसरे आसमान पर उतर आया.
इस बीच एक सफाईकर्मी महिला ने रोजाना से बेहतर पोंछा मारा. मुंह में अतिरिक्त मिश्री घोलकर पूछा – ‘बाबूजी छुट्टी हो गई आपकी.’ उसने बताया कि उसकी शिफ्ट खत्म होने वाली है और वो घर जानेवाली है. शेष दादू की समझ पर छोड़ा गया कि वो अपनी जेब से आरबीआई गवर्नर का हस्ताक्षर किया हुआ वो पत्र उसे सौंप दे जिस पर लिखा हो ‘मैं धारक को पचास रूपये अदा करने का वचन देता हूँ’. पेमेंट सक्सेसफुल का मेसेज रिसीव्ड हुआ.
दादू के हाथ में कैनुला उसके अस्पताल का बंदी होने की पहचान थी जिससे वो जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहता था. चेची विवश थी, कैनुला हटाने का ग्रीन सिग्नल उसे अभी मिला नहीं था. दादू कभी कैनुला की टोपी घुमाता कभी उसके बाहर निकल आए खून की बूंदों से चिंतित होता. उसके आसपास का हिस्सा सूज़ गया था. वो दिल बार बार खड़ा करने की कोशिश करता जो बार बार बैठा जा रहा था. पथराई आँखों से कभी घड़ी की ओर देखता कभी छत के पंखे को. जेल होती तो सुरंग खोदकर भागा जा सकता था, कमरा नंबर 407 से फरार होने की गेल न थी. न ही बेडशीट पंखे में बांधकर आत्महत्या कर लेने कोई गुंजाईश थी.
पैथ-लैब, कैथ-लैब, पल्मोनरी, एक्स-रे विभाग, मेडिकल शॉप, केंटीन का मेरी-गो राउन्ड झूला था जिसमें नो-ड्यूज पाने की गरज से मैं गोल-गोल घूमता रहा. मेन गेट में घुसते ही बायीं ओर बने मंदिर में से गणेशजी मुझे कभी अनुनय, कभी गुस्सा, कभी खीज, तो कभी शब्दशः बाल नोचते हुवे देखते रहे मगर कुछ कर न सके. वे मरीजों को शीघ्र स्वस्थ होने का आशीर्वाद तो दे पा रहे थे मगर स्टॉफ से इफिशियंसी से काम करवा पाना उनके भी बस का नहीं था. मैंने पूछा – प्रभु, कैशलेस होने का मतलब सिर के केश का लेस होते जाना तो नहीं होता ना!! प्रभु इस पर तो चुप्पी साध गए लेकिन उन्होने मुझे धीरे से समझाया कि यहाँ उनकी टेरेटरी मंदिर तक ही सीमित है – शेष पूरे परिसर में केवल आदरणीया लक्ष्मीजी का ही आदेश चलता है.
अस्पताल की पूरी कोशिश थी कि ओरिजिनल मरीज भले ही डिस्चार्ज होकर घर चला जाए मगर उसके अटेंडेंट को वे हायपर टेंशन, एङ्क्साईटी, उच्च रक्तचाप के केस में रोक कर एडमिट कर सकें. हमारा वार्ड चौथी मंज़िल पर था, बिलिंग काउंटर धरातल पर. और लिफ्ट ? केवल मरीजों और डॉक्टरों के लिए थी. ऊपर नीचे होने में सांस फूल जाती, धड़कने असामान्य आवाज़ करने लगती, बीपी बढ़ने लगता, घुटने पिराने लगते थे. तीन बार मैं बिलिंग काउन्टर पर क्लियर करके आया था कि हमारा कैशलेस तो है ही, बीस हज़ार एक्सट्रा जमा है. हर बार काउन्टर पर कोई नया शख्स होता हर बार मैं उसे पूरी रामायण सुनाता. आखिरी में वो मुझसे पूछता सीता राम की कौन थी ?
दादू अंतिम ढाई आसमान भी नीचे उतर आया. उसकी पॉज़िटिविटी ही उसे बचाए हुवे थी. सिस्टम की बेदिली में भी उसने कुछ पॉज़िटिव खोज लिया था. उसने बताया कि दूसरी विंग में आज सुबह मृत घोषित किए गए आत्मारामजी सहगल जीवित हो उठे हैं. पहचान की गफलत में यमदूत से आत्मा ले जाने में मिस्टेक हो गई थी. चित्रगुप्त के पॉइंट-आउट करते ही यमदूत जब वापस लौटा तो पाया कि सर्टिफिकेट जारी किए जाने में हो रही देरी से डेड-बॉडी अभी तक अस्पताल में ही पड़ी है. उसने राहत की सांस ली और सहगल साहब की आत्मा फिर से उसी शरीर में रोपकर चला गया.
बहरहाल, हमारे पुण्य कर्म का उदय हुआ. अभी शाम के पाँच बजने में दस मिनिट कम हैं. कैनुला निकाल दिया गया है. जो सुबह सातवें आसमान पर थे अब सड़क पर हैं. हमसे ज्यादा समझदार तो बेटा निकला. सुबह ही उसने कह दिया था – पापा आप तो ओला कर लेना या ऑटो ले लेना. ऑफिस से उसकी एक दिन की छुट्टी बच जो गई है.
और आप श्रीमान ! दास्तां-ए-डिस्चार्ज पूरी हुई मानकर मत चलिएगा… आनेवाले सप्ताहों में कई चक्कर लगाने पड़ेंगे – कुछ जाँचे बाहर भेजी हैं उनकी रिपोर्ट आनी बाकी है, पक्का बिल लेना है, सील लगवाना है, क्लेम फॉर्म में निकली क्वेरीज के जवाब लिखवाना है. सो शेष कथा फिर कभी…
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य – चौपाल चर्चा – “साइकिल के बहाने”।)
☆ व्यंग्य # 147 ☆ चौपाल चर्चा – “साइकिल के बहाने” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
हमारी चौपाल चर्चा के फूफा ने जब से सेकेंड हैंड साइकिल खरीदी है, तब से साइकिल चर्चा में रही आती है। साइकिल जिनसे खरीदी है वे भी पुराने मित्र हैं, जब भी साइकिल पर चर्चा चलती है वे चुपके चुपके मुस्कराते रहते हैं, पर मुस्कराने का राज नहीं बताते। एक साथी का सोचना है कि फूफा ठगे गए हैं क्योंकि आजकल ऐसे कोई साइकिल खरीदता नहीं और इतनी पुरानी साइकिल कबाड़ी भी कबाड़ के भाव लेता है, फूफा अपने आपको होशियार समझते हैं, हर बात में खुचड़ करने का उनका स्वभाव है, कुछ लोग उन्हें अरकाटी कहते हैं, ठगे जाने पर भी सामने वाले को वे बुद्धू समझते हैं।
सब लोग फूफा को खुश करने के लिए साइकिल की झूठी तारीफ करते रहते हैं। एक दिन अचानक साइकिल का अगला चका फूट गया, टायर और ट्यूब फट गये, साइकिल पर और साइकिल सवारी करने वाले पर तरह तरह की बहस होने लगी। ऐसे समय में छकौड़ी को अपनी साइकिल याद आ गई, जिसमें वो कालेज पढ़ने जाता था। साइकिल में तीन डण्डे होते थे, नीचे वाले डण्डे में दो हुक लगे रहते थे जिसमें हवा भरने का पम्प फंसा रहता था। उस समय साइकिल में हवा भरने में बड़ा मजा आता था। अब तो न वे पम्प रहे न वैसी साइकिल रही, उस समय छकौड़ी की साइकिल गरीबी रेखा की साइकिल कहलाती थी, जिसमें बाकायदा फटे टायर में गैटर डाल दिया जाता था।
चौपाल में साइकिल चर्चा चल रही थी कि अचानक मुन्ना ने देश की अर्थव्यवस्था पर चिंता जाहिर कर दी तो फूफा डांटने लगे, कहने लगे बीच में मत बोला करो। मामू अड़ गए कहने लगे आज की चर्चा साइकिल और अर्थव्यवस्था पर होनी चाहिए।
बीच में गंगू ने एक जोरदार प्रश्न दाग दिया,
“क्या साइक्लिंग अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक है…?”
प्रश्न हास्यास्पद जरूर है परन्तु सत्य है !
“एक साइकिल चलाने वाला देश की चरमराती अर्थव्यवस्था में कितनी मदद करता है”?
सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे। जिस भाई ने साइकिल बेची थी उसने शर्माते हुए जबाब दिया – “साइकिल चलाने वाला कभी मंहगी गाड़ी नहीं खरीदता, वो कभी लोन नहीं लेता, वो गाड़ी का बीमा नहीं करवाता, वो तेल नहीं खरीदता, वो गाड़ी की सर्विसिंग नहीं करवाता, वो पैसे देकर गाड़ी पार्किंग नहीं करता, और वो मोटा (मोटापा) नहीं होता।”
गंगू बोला – “ये सत्य है कि स्वस्थ व्यक्ति अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं है,क्योंकि:-
-वो दवाई नहीं खरीदता,
-वो अस्पताल या चिकित्सालय के पास नहीं जाता,
-वो राष्ट्र के GDP में कोई योगदान नहीं देता ।”
दोस्तों के बीच मजाकिया बहस करने में सबको मजा आ रहा था, कुछ लोग साइकिल सवारी के और फायदे बताने को तैयार हुए पर अचानक पीछे से एक सांड आया और उसने अपने सींगों में साइकिल फंसाकर सड़क के उस पार फैंक दी। चौपाल चर्चा में बैठे सब लोग डर कर इधर उधर भाग गए। फूफा बड़बडाते हुए बोले- “लगता है साइकिल गलत मुहूर्त में ले ली। फूफा डरे डरे कभी सांड को देखते और कभी टूटी साइकिल को…”
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# पानी के रंग… #”)
पाप क्या है और पुण्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर आज भी अनेकों के पास नहीं है, क्योंकि उनकी बुद्धि में इसकी अवधारणा स्पष्ट नहीं है। सामान्यत: व्यवहार में सच बोलना भगवान का भजन-पूजन करना, तीर्थाटन करना, दान देना, पुण्य के कार्य हैं और झूठ बोलना, चोरी करना, अन्य प्राणियों को सताना, अपने निर्धारित कर्तव्यों को न करना पाप है। परन्तु जो प्राय: नित्य देखने में आता है वह इसके विपरीत है। सच बोलना पुण्य कार्य होते हुये सच प्राय: कम ही लोग बोलते हैं और अन्यों का सताना पाप कार्य होते हुये भी अधिकांश लोग मछली, मुर्गी, बकरी को मारकर मांसाहार से अपना पेट भरते हैं। समाज में सात्विकता और सदाचार के दर्शन कम होते हैं, जबकि अत्याचार और दुराचार सर्वत्र परिव्याप्त दिखता है। ऐसा क्यों है? इसका एक मुख्य कारण तो शायद यह है कि मनुष्य के अधिकांश क्रियाकलाप स्वार्थ और सुख की प्रेरणा से संचालित होते हैं और दूसरा यह कि वर्तमान वैज्ञानिक युग में जीवन की आपाधापी में वह अपनी संवेदनायें खो चला है। बुद्धिवादी मनुष्य तत्काल लाभ के कार्यों को प्राथमिकता देने लगा है। वह मानने लगा है कि पुण्य की श्रेणी में परिभाषित कार्यों का लाभ तुरंत तो नहीं मिलता दिखता क्या पता भविष्य में मिले न मिले।
सुदूर अतीत के धर्मप्राण समाज को पाप-पुण्य की मान्य अवधारणाओं ने स्वानुशासित रखने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। धीरे-धीरे अशिक्षा और अज्ञानवश आडम्बरपूर्ण परिपाटियों ने स्थान ले लिया और वर्तमान युग से शिक्षा के प्रभाव से तथा पश्चिमी हवा के प्रवाह से हमारी मान्यताओं में भारी परिवर्तन ला दिये हैं। तर्कशील समाज प्राचीन परिपाटियों को तोडक़र कुछ नया करने में अपना बड़प्पन समझता है और पुरातन मान्यताओं को पिछड़ापन मानने लगा है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है कि-
‘सभी पुराना बुरा है, सभी नया अवदात
अति नवीनता कर रही आज कई अपघात॥’
वास्तव में पाप-पुण्य की व्याख्या समय और दृष्टिकोण सापेक्ष्य हैं। एक ही कार्य उद्देश्य की भिन्नता से एक परिस्थिति में पाप हो सकता है। जबकि दूसरी परिस्थितियों में पुण्य। उदाहरणार्थ एक व्यक्ति अपने हित के लिये यदि किसी का कत्ल कर देता है तो वह पाप है। कानून भी स्वार्थवश की गई हत्या को जुर्म करार देता है और उसका दण्ड फांसी है। किन्तु दूसरी परिस्थिति में एक ही व्यक्ति समाज या देश हित में आक्रमणकारी अनेकों शत्रुओं की हत्या करता हैं, तो वह पुण्य है। शासन उसे परमवीर चक्र से पुरस्कृत कर सम्मानित करता है। कार्य एक ही है हत्या, किन्तु भिन्न परिस्थितियों में एक पाप है और एक पुण्य। इससे स्पष्ट है कि पाप या पुण्य की भावना उद्देश्य मूलक है। देशकाल के अनुरूप है और जन सामान्य के हित में है। साथ ही समाज को नैतिक और अनुशासित आचरण करने में मार्गदर्शक है। प्रत्येक को अपने और अनुशासित आचरण करने में मार्गदर्शक है। प्रत्येक को अपने कर्तव्यों और दायित्वों का बोध सरलता से इसके माध्यम से दिया जाता रहा है।
प्रत्येक व्यक्ति द्वारा जीवन में अन्य व्यक्तियों तथा समस्त सृष्टि के साथ क्या किया जाना क्या उचित है और क्या अनुचित है, इसकी व्याख्या कर धर्म उचित शिक्षा देता है। कर्तव्य का ही दूसरा नाम धर्म है। प्रत्येक धर्म जनकल्याण के लिये है। इसीलिये हमारे धार्मिक ग्रंथों में पाप-पुण्य की बड़ी सरल और सटीक व्याख्या की गई है-
‘परोपकारं पुण्याय, पापाय परपीडऩम्’
अर्थात् पुण्य पाने के लिये परोपकार करो, दूसरों को पीड़ा देना पाप होता है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इसी बात को बोलचाल की भाषा में कहा है-
परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥
इस सरल मंत्र को आत्मसात कर यदि जीवन में इस पर सब अमल करें तो विश्व में सर्वत्र सुख-शांति और समृद्धि हो तथा सारे झगड़े समाप्त हो जायें।
☆ विचार–पुष्प – भाग 27 – परिव्राजक – ५ . मातृभाषा ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
स्वामीजी आणि अखंडांनंद आता वैद्यनाथला पोहोचले होते. कारण ते एक धार्मिक क्षेत्र होत आणि ते अखंडानंदांनी पाहिलं नव्हतं. रस्त्यात लागणारी धार्मिक स्थळांना ते आवर्जून भेट देत असत. तिथे एक ब्राम्ह्समाजी नेते राजनारायण बोस यांची भेट घेतली. स्वामीजी त्यांना ओळखत होते. त्यांचं वय बरच म्हणजे चौसष्ट होतं. पाश्चात्य संस्कृतीचा त्यांच्यावर मोठा प्रभाव होता. महर्षि देवेन्द्रनाथ टागोर यांना ते गुरु मानत. मिशनर्यांच्या धर्मप्रसाराला पायबंदची चळवळ, विधवाविवाह सारखी सामाजिक सुधारणा चळवळ यात त्यांचा सहभाग होता. बंगाल मध्ये देशभक्तीची जाणीव उत्पन्न होण्यासाठी त्यांनी खूप प्रयत्न केले होते. युवकांमध्ये राष्ट्रीयत्वाची आणि देशभक्तीची भावना निर्माण करण्यासाठी त्यांनी एक संस्था पण काढली होती. इंग्रज आपल्या देशावर राज्य करतात ते आपल्या कल्याणसाठी नव्हे तर त्यांच्या देशाचे ऐश्वर्य वाढावे म्हणून, म्हणून त्यांना हुसकावून लावण्यासाठी बळाचा वापर करायला काय हरकत आहे असं त्यांचं मत होतं.
त्यांच्या कुटुंबातच राष्ट्रावादाची परंपरा होती. जगप्रसिद्ध, महायोगी श्री अरविंद घोष यांची आई म्हणजे राजनारायण यांची कन्या होती. क्रांतिकारक कन्हैयालाल दत्त यांच्या बरोबर ऐन तारुण्यात हसत हसत फाशी गेलेला सत्येन्द्रनाथ बोस हा त्यांचा पुतण्या होता. देशभक्तीच्या या परंपरेमुळे त्यांची काही मते ठाम होती. जसे की, आपण आपला पोशाख करावा. आपल्या भाषेतच बोलावे. आपले शिष्टाचार आपण सांभाळावेत. आपण आपले भारतीय खेळच खेळावेत. यावर त्यांचा बारीक कटाक्ष असे. त्यांच्या संस्थेत कोणी एखादा इंग्रजी शब्द वापरला तर त्याला एक पैसा दंड भरावा लागे. त्यांचा हा स्वाभिमान स्वामी विवेकानंदांना माहिती होता म्हणून, इथे त्यांची भेट घेताना स्वामीजींनी अखंडानंदांना आधीच सांगून ठेवले होते की, आपल्याला इंग्रजी येतं हे त्यांना अजिबात कळू द्यायचं नाही.
त्या काळात बंगालमधल्या सुशिक्षितांमध्ये इंग्रजी शब्द वापरण्याची खूप मोठी खोड लागली होती. इतकी की आपल्या मातृभाषेत त्यांना कोणत्याही विषयावर धड विचार प्रकट करता याचे नाहीत आणि धड इंग्रजीत सुद्धा नाहीत. भाषेची दैन्यावस्थाच होती.
त्यामुळे राजनारायण यांच्याबरोबर झालेल्या गप्पांमध्ये स्वामीजींनी एकही इंग्रजी शब्द येऊ दिला नाही. राजनारायण यांना वाटले की ही संन्यासी मुलं, इंग्रजी कुठल येणार त्यांना? अशाच समजुतीत ते होते. या प्रसंगात अखंडानंद आणि स्वामीजींची मस्त करमणूक झाली होती. ही समजूत करून देण्यात आपण यशस्वी झालो असे दोघांनाही वाटले. पुढे स्वामीजींची किर्ति ऐकून राजनारायण यांना स्वामीजींची भेट आठवली आणि आश्चर्य वाटले की, “केव्हढा चमत्कार आहे हा, इतका वेळ ते माझ्याशी बोलले, पण त्यांना इंग्रजी येतं अशी शंका क्षणभर सुद्धा मला आली नाही. खरोखरच हा विलक्षण चतुर माणूस असला पाहिजे.” खरच स्वामीजींचं केव्हढं प्रसंगावधान होतं.निश्चय होता.
धार्मिक सामाजिक आणि राजकीय क्षेत्रात ज्यांनी आयुष्यभर तपश्चर्या केली त्या राजनारायण यांना स्वामीजींना वैद्यनाथला भेटावसं वाटलं कारण, ब्राह्म समाजात देशभक्तीचे विशेष महत्व नसताना सुद्धा ,राज नारायण ब्राह्म समझी असूनसुद्धा त्यांनी तरुणांमध्ये स्वाभिमान आणि देशभक्तीची भावना निर्माण करण्याचा सातत्याने प्रयत्न केला होता. हेच वेगळेपण स्वामीजींना भावलं होतं. आपल्या प्रवासात अशा व्यक्तींचीही आवर्जून भेट घेणं हा त्यांचा उद्देश असायचाच. प्रवासात अशी अनेक प्रकारची माणसे त्यांना भेटत. नव्हे स्वामीजीच त्यांना आवर्जून भेटत.
समोरच्या व्यक्तीबद्दल आदरभाव असणं किंवा त्यांना किमत देणं हा स्वामीजींचा गुण कसं वागायचं ते शिकवणारा आहे. राजनारायण यांची स्वदेशी बद्दलची आणि मातृभाषेबद्दलची भावना हे राष्ट्र प्रेमाचं उदाहरण आहे. देशाभिमानाचं उदाहरण आहे त्यामुळे स्वामीजींना ते मनापासून आवडलं होतं असं वाटतं.
मातृभाषेची दैन्यावस्था हा विषय तर आताही आहे. आपण रोजचं पाहतोय, ऐकतोय. पु.ल देशपांडे यांनी उपहासाने म्हटलं होतं, ‘आपल्या मदरटंग मध्ये आपल्या फिलिंग चांगल्या एक्स्प्रेस करू शकतो’. हा गमतीचा भाग सोडला, तर आज रोज अनेक वार्तापत्र झडताहेत वाहिन्यांवर. इतकी मोठी आपत्ती आणि इतकी घाई आहे की आंतर्राष्ट्रीय स्तरावर जाहीर झालेले शब्दच जसेच्या तसे वापरतोय. मराठी भाषा इंग्रजी शब्दांनी समृद्ध झाली आहे असेच म्हणावे लागेल. त्यात लॉक डाउन, हॉटस्पॉट, व्हायरस, सोशल डिस्टन्स या शब्दांनी तर सामान्य लोकांना काहीच कळत नाहीये असं वाटतं काही काही वेळा. ‘लॉकडाउन’ या शब्दाचा नेमका अर्थ समाजाला स्वत:च्या मातृभाषेत उमगत नाहीये. म्हणूनच याही परिस्थितीत ते कळत नसल्याने बाहेर नेहमीप्रमाणेच फिरत आहेत. जागतिक पातळीवरच्या अशा संसर्गजन्य साथीच्या सूचना, माहिती, आपल्या मातृभाषेत सोप्या शब्दात सांगितली, समजून सांगितली, तर निदान कळेल तरी. तरच ते गंभीरपणे या सगळ्याकडे बघतील. मातृभाषा हृदयाची भाषा.
वालीच्या मरणाचे दुःखाने सुग्रीवाला, अंगद व ताराला शोकावेग आवरेनासा झाला. अखेर श्रीराम त्यांचे सांत्वन करण्यास पुढे आले. श्रीरामाची तेजस्वी मूर्ती पाहुन तारा हात जोडून म्हणाली, ” रघुनंदना ! आपण अप्रमेय जितेंद्र आहात. आपली किर्ती जोपर्यंत सूर्य-चंद्र आहेत तोपर्यत राहील. आपण क्षमाशील, पराक्रमी, बलवान, संयमी, सत्शील, दीनांचा कैवारी, ऐश्वर्यसंपन्न आहात, म्हणून माझी एक विनंती पूर्ण करावी ! ज्या बाणाने आपण वालीचा वध केला त्याच बाणाने मला मारुन मुक्ती द्यावी. स्रीहत्येचे पातक आपल्याला लागणार नाही, कारण मी व वाली एकच आहोत, आमचा आत्मा एकच आहे. वालीबरोबर मला समर्पण करुन त्याला माझं दान केल्यास मी माझ्या पतीजवळ जाऊन त्यांच्याबरोबर स्वर्गात सुखाने राहीन.”
ताराचा विलापयुक्त विचार ऐकून श्रीराम सद्गदित होऊन म्हणाले, “देवी ! तू वीरपत्नी, वीरमाता, महासती आहेस. तू एवढी विदूषी असूनसुध्दा मृत्युविषयी असे विपरीत विचार कसे करू शकतेस? विधात्याने या जगाचे काही नियम केलेले आहेत. तोच या जगाची रचना करतो. तोच पोषण करतो व संहारही तोच करतो. त्याच्या नियमांचे उल्लंघन कोणीही करु शकत नाही. वालीला वीरमरण, श्रेष्ठगती मिळाली आहे . त्याच्याबद्दल शोक न करता पुढील कर्तव्याची जाणीव ठेव ! अंगदसारख्या शूर, पराक्रमी, सद्गुणी पुत्राला राज्यावर बसवून राज्याची धुरा निष्कंटकपणे चालव. त्यातच तुझे कल्याण आणि मोक्ष आहे. विधात्याची ही आज्ञा समजून कार्य कर !”
“तू खर्या अर्थाने महासती आहेस. तू थोर पतिव्रता असल्याने वालीनंतर राज्याचे शकट हाकण्याचे नवे सतीचे वाण घेऊन हे कार्य सिध्दीस नेणे तुझे परम कर्तव्य आहे.”
श्रीरामांच्या सांत्वनपर शब्दांनी व उपदेशाने ती शांत झाली. धीराने अश्रू आवरुन अंगदला व सुग्रीवला धीर दिला. वालीचा अंत्यसंस्कार सम्राटाच्या इतमाला अनुसरुन साजरा केला.
वालीनंतर सुग्रीवचा राज्याभिषेक करुन त्याला राज्यावर बसविले. त्याची पत्नी रुमा त्याला परत मिळाली. तारा खऱ्या अर्थाने “राजमाता” झाली. प्रजेचे हित व कल्याण कसे होईल याबद्दल ती सतत दक्ष असे.
सुग्रीवाच्या राज्यभिषेकानंतर चार महिने पावसाळा असल्यामुळे रामकार्यात मदत करणे अशक्यच होते. परंतु या दिवसांमध्ये सुग्रीव ऐषारामात तुडुंब डुबून गेला, रामकार्याचा त्याला संपूर्ण विसर पडला. सतत अंतःपुरात राहून मदिरा व मदिराक्षीच्या पूर्ण आहारी गेला. राम अत्यंत अस्वस्थ व अशांत झालेले पाहून लक्ष्मणाचा संताप अनावर झाला. धनुष्याचा टणत्कार काढीतच तो सुग्रीवाकडे येऊन त्याला ललकारु लागला. लक्ष्मणाचा भयानक रोष पाहून सर्व वानरसैन्य व स्वतः सुग्रीवदेखील भयभीत होऊन घाबरले. लक्ष्मणाला शांत करण्यासाठी सुग्रीवाने ताराला पुढे पाठविले. तारा अतिशय सावध, धीरगंभीर होती. ती अत्यंत कर्तव्यदक्ष असून सगळीकडे बारीक लक्ष ठेवून होती.
क्रमशः…
संकलन – सुश्री मिनाक्षी देशमुख
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈