मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “देसी डोळे परी निर्मिसी तयापुढे अंधार”… सुमित्र माडगूळकर ☆ संग्राहिका – सुश्री सुप्रिया केळकर ☆ 

? वाचताना वेचलेले ??‍?

☆ “देसी डोळे परी निर्मिसी तयापुढे अंधार”… सुमित्र माडगूळकर ☆ संग्राहिका – सुश्री सुप्रिया केळकर ☆ 

डिसेंबर १९७७…. कोयना एक्सप्रेस धडधडत निघाली होती …

गीतरामायणाचे जनक सीताकांत लाड खिडकीतून बाहेर पाहत होते…. अनेक आठवणी मनात दाटून आल्या होत्या. पंचवटीच्या प्रांगणातील आठवणींनी मन भरून येत होते …गीतरामायणाचे ते भारलेले दिवस..लोकांचा अभूतपूर्व प्रतिसाद…रेकॉर्डिंगच्या शेवटच्या क्षणापर्यंत गदिमांकडून गीत मिळवण्यासाठी झालेली धावपळ.. पंचवटीच्या दारात प्रभाकर जोगांना पाहून “आला रे आला ,रामाचा दूत आला.. आता गाणं घेतल्याशिवाय तो काही जाणार नाही..” असे ओरडणारे गदिमा. 

त्यांच्या समोर हसत खिदळत बागडणारे … गीतांचा तगादा लावल्यावर गदिमांच्यातले लहान मूल म्हणत होते…. 

” गीताकांत स. पाड ,पिडाकांत ग. माड …नाही कशाचीच चाड, मी ही भारलेले झाड…मी ही भारलेले झाड…. “

आपल्या लाडक्या मित्राला शेवटचा निरोप देऊन दोन मित्र सीताकांत लाड व गदिमांचा ‘नेम्या’ (नेमिनाथ उपाध्ये) परतीच्या प्रवासाला निघाले होते.. गदिमांबरोबर लहानपणापासून असलेल्या  ‘नेम्या’ ला प्रत्येक स्टेशनावर आपल्या अण्णाच्याच आठवणी येत होत्या.. रात्री अपरात्री किर्लोस्करवाडीला उतरल्यावर तीन मैल चालत कुंडलचे प्रवास … गारठवणाऱ्या कडाक्याच्या थंडीत उबेसाठी स्मशानात घालवलेल्या त्या भयानक रात्री … तेथे केलेले मुक्काम… शंकराच्या भूमीत गदिमांनी धडाधडा केलेले ‘शिवलीलामृताचे’ प्रवचन.. अगदी आठवणींच्या आधी जाते जिथे मनाचे निळे पाखरु- क्षणार्धात गतस्मृतीत भरारी घेत होते.

‘मिरज’ स्टेशनच्या आधी लांबून काही अस्पष्ट स्वर येते होते… कोणीतरी गात होते …. एकदम खड्या आवाजात…

“उद्धवा अजब तुझे सरकार…. “

एक आंधळा भिकारी गात गात पुढे सरकत होता .. 

गाडीच्या कम्पार्टमेन्टमधे काही कॉलेजियन्सचा ग्रुप रमी खेळत बसला होता … बोचऱ्या थंडीला ‘बुढा मर्कट’ ब्रँडची साथ होतीच… मैफल रंगात आली होती. 

त्यांच्यापैकीच एकजण ओरडला “अरे साल्यांनो,गदिमा सुरु झालाय ! ऐका की !”

या आवाजाने अर्धवट झोपेत असलेला कोपऱ्यातला घोंगडी पांघरून बसलेला म्हाताराही कान टवकारून उठून बसला… 

भिकाऱ्याने खड्या आवाजात परत सुरुवात केली… 

” झाला महार पंढरीनाथ “… 

“एक धागा सुखाचा” …” इंद्रायणी काठी” … भिकारी गात होता …

नेम्या व लाड खिडकीजवळील आपल्या जागेवरून आनंद घेत होते.. पल्लेदार आवाज.. त्यात काहीसे उच्चार दोष. … शब्द – ओळी वरखाली झालेल्या .. 

पण आधीच ‘रम’लेली मंडळी अजून गाण्यात रमून गेली होती.. 

त्या युवकांपैकीच कोणीतरी फर्माइश केली “म्हण .. आणखी म्हण … पण फक्त गदिमांच हं !” 

भिकारी म्हणाला ” त्यांचीच म्हणतो मी साहेब,दुसरी नाही. या लाइनीवर खूप खपतात .. कमाई चांगली होते.. त्यांना काय ठावं, त्यांच्या गीतांवर आम्ही कमाई करतो म्हणून .. “

गरीब भिकाऱ्याचा स्वर थोडा हलल्यासारखा वाटला….आवंढा गिळून भिकारी म्हणाला….

” ते गेले तेव्हा दोन दिवस भीक नाही मागितली साहेब !… ” 

या आंधळ्या गरिबाला कोठून कळले असावे आपला अन्नदाता गेला-रेडिओवरून ?,गदिमा गेले तेव्हा महाराष्ट्रात अनेक घरात त्या दिवशी चुली पेटल्या नव्हत्या .सगळेच शांत होते,डब्यातल्या सगळ्यांनी आपापल्या परीने त्याचा खिसा भरला… तो पुढे सरकत होता… 

गदिमांचा तो आंधळा भक्त गातच होता..

तूच घडविसी, तूच फोडिसी, 

कुरवाळिसी तू तूच ताडीसी

न कळे यातून काय जोडीसी

देसी डोळे परी निर्मिसी तयापुढे अंधार 

विठ्ठला, तू वेडा कुंभार….

हळू हळू त्याचा आवाज परत अस्पष्ट होत गेला.. कोयना एक्सप्रेसची धडधड परत वाढत गेली.. तरुण मंडळी परत आपल्या कामात ‘रम’माण झाली.

म्हटले तर काहीच घडले नव्हते … म्हंटले तर खूप काही घडून गेले होते… 

एका महाकवीच्या हृदयाची स्पंदने …. एका भिकाऱ्याच्या हृदयाची स्पंदने… जणू काही फरक राहिलाच नव्हता… काही दिवसांपूर्वी अनंतात विलीन झालेले ते कोण होते?.. 

सामान्यातल्या सामान्य माणसाच्या हृदयात स्थान मिळवणारा असा महाकवी आता परत होणार नव्हता…

 – सुमित्र माडगूळकर 

संग्राहिका – सुश्री सुप्रिया केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बुकर पुरस्कार से उठे कुछ सवाल … ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ बुकर पुरस्कार से उठे कुछ सवाल … ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

गीतांजलिश्री के हिंदी उपन्यास ‘रेत समाधि’ को मिले बुकर पुरस्कार से कुछ सवाल उठ खड़े हुए हैं जिन पर विचार होना चाहिए। इतना बड़ा पुरस्कार हिंदी उपन्यास पर मिलने पर गीतांजलिश्री चर्चा में आ गयी हैं जैसे कभी अरुंधति राॅय आ गयी थीं -‘गाॅड ऑफ स्माल थिंग्स’ के पुरस्कार से। वैसे तो पुरस्कार छोटा हो या बड़ा चर्चा तो होती ही है। हर पुरस्कार के साथ विवाद या कुछ बहस भी चलती है। गीतांजलिश्री को मिले बुकर पुरस्कार से भी यह चर्चा और बहस चल निकली है कि अनुवाद को पुरस्कार मिला है और जवाब यह है कि आखिर तो हिंदी में और अपने ही समाज के बारे में लिखा गया है। फिर बहस कैसी?  मालगुडी डेज को फिर पसंद कैसे किया? अंग्रेजी अनुवाद न हुआ होता तो क्या पुरस्कार मिलता? गीतांजलिश्री को मिला और उनके लेखन को मिला। हिंदी गौरवान्वित हुई। हिंदी लेखिका का मान सम्मान बढ़ने पर बधाई। फिर किसी प्रकार की बहस कैसी और क्यों?

यदि बहस होनी ही है और जरूरी है तो इस बात पर क्यों नहीं कि पहले से कितने लोगों ने यह उपन्यास पढ़ा है? हिंदी में पुस्तकों के पठन पाठन की परंपरा क्यों नहीं? मैं खुद ईमानदारी से यह स्वीकार करता हूं कि मैंने ‘रेत समाधि’ उपन्यास नहीं पढ़ा है। बल्कि एक समाचारपत्र के संपादक ने फोन पर पूछा था कि क्या मैंने यह उपन्यास पढ़ा है तो मैंने जवाब में इंकार कर दिया उतनी ही ईमानदारी से। पर मन ही मन शर्मिंदा जरूर हुआ कि यार, क्यों नहीं पढ़ा? इतनी किताबें पढ़ता हूं, फिर यही उपन्यास कैसे नहीं पढ़ा? वैसे किस किताब को पुरस्कार मिलने वाला है, मैं कैसे जान सकता हूं? मेरी अपनी किताब ‘महक से ऊपर’ को भाषा विभाग, पंजाब की ओर से सन् 1985 में वर्ष की सर्वोत्तम कथाकृति का पुरस्कार मिला तब मैं अपनी ही पुस्तक के बारे में अनजान था। डाॅ इंद्रनाथ मदान ने पुरस्कारों पर कहा है कि अब कोई ध्यान नहीं देता। पुरस्कार ईमानदारी से दिये नहीं जाते और लोग इनकी परवाह करना छोड़ चुके हैं। हालांकि वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया का कहना है कि पुरस्कार मिलने से रचनाकार और कृति को चर्चा तो मिल ही जाती है। विष्णु प्रभाकर ने भी कहा था कि मैं चयन समितियों में भी रहा लेकिन इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि पुरस्कारों के देने में भेदभाव नहीं होता। कोई सबसे मशहूर पंक्तियां भी हैं कि नोबेल पुरस्कार आलू की बोरी के समान है और मैं इसे लेने से इंकार करता हूं। यानी कोई नोबेल पुरस्कार भी ठुकरा सकता है और कोई छोटे से छोटे से पुरस्कार के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

बुकर पुरस्कार मिलने से यह बात तो जरूर है कि पुस्तक के प्रति पाठकों की रूचि जागृत हुई है और वे पुस्तक मंगवा भी रहे हैं। तुरत फुरत एक संस्करण आ भी गया है जिस पर यह सूचना भी है कि इस उपन्यास को बुकर सम्मान मिला है।

कभी रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि को भी अंग्रेजी में अनुवाद होने पर ही देश को एकमात्र नोबेल मिला था। फिर रेत समाधि को बुकर मिल जाने पर इतना हल्ला क्यों? पुरस्कार मिलने पर बहुत बहुत बधाई और हिंदी ऐसे ही आगे आगे बढ़ती रहे, यही दुआ है। वैसे हमारी देश की इतनी भाषाओं की रचनाएं भी हम अनुवाद से ही समझते हैं और ज्ञानपीठ ऐसी ही अनुवादित पुस्तकों पर मिलते है, तब तो कोई हो हल्ला नहीं मचाया जाता? गीतांजलिश्री निश्चित ही आपने हिंदी को गौरव प्रतिनिधित्व किया है जिसके लिए आप बधाई की पात्र हैं। जिनका काम बहस और सियासत हो, वो जानें…

अपना पैगाम मोहब्बत है

जहां तक पहुंचे…

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 103 ☆ भावना में संभावनाओं का खेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “भावना में संभावनाओं का खेल”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 103 ☆

☆ भावना में संभावनाओं का खेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

कहते हैं मन पर विजय प्राप्त हो जाए तो सब कुछ अपने वश में किया जा सकता है। पर क्या किया जाए यही तो चंचल बन मारा- मारा फिर रहा है। समस्या कितनी भी बड़ी क्यों न हो वो अपने साथ समाधान लेकर चलती है। आज नहीं तो कल व्यक्ति लक्ष्य को हासिल कर ही लेगा बस ध्यान में ये रखना होगा कि हमें सकारात्मक चिंतन करते हुए सबको एक सूत्र में जोड़ते हुए चलना है।

ये सही है कि रहिमन इस संसार में भाँति- भाँति के लोग किन्तु हमें अपनी मंजिल को पाना ही होगा। भावनाओं का महत्व अपनी जगह सही है लेकिन हर जगह इसकी उपस्थित खटकती है। हमको मिलकर आगे बढ़ना होगा। कटीले तारों की बाड़ी बनाकर खेतों की रक्षा की जाती है परन्तु पैदावार बढ़ाने हेतु खाद का सहारा लेना पड़ता है। जीवन के निर्णय भी इन कार्यों से अछूते नहीं हैं। समय- समय पर परीक्षा देनी होती है। एक तरह कुँआ तो दूसरी ओर खाई ऐसे में कुशल खिलाड़ी तेजी दौड़ते हुए कुछ कदम पीछे की ओर करता है फिर पूरे मन से जोर लगाते हुए लक्ष्य की ओर पहुँच जाता है।

ऐसा ही होना चाहिए। कुछ करो या मरो जैसा जज़्बा रखने वालों को मंजिल मिलती है। अनावश्यक मोबाइल पर रोजगार सर्च करने में समय लगाने से बेहतर है किसी स्किल पर कार्य करें।

सफल व्यक्ति कार्य करते नहीं है वे तो टीम  बनाते हैं जो उनके लिए कार्य करती रहती है। टीम को मोटिवेट व विल्डअप करते हुए टीम लीडर स्वयं की पहचान बनाने लगता है। लगातार किसी कार्य को करते रहें अवश्य ही विजयी भवः का आशीर्वाद प्रकृति देने लगती है।

संख्या बल की उपयोगिता को समझते हुए समय- समय पर समझौते भी करने पड़ते हैं क्योंकि समय पर जब सचेत नहीं होंगे तो थोड़े -थोड़े लोग आपस में जुड़कर लकड़ी का गट्ठा बना लेंगे जो एकता और शक्ति दोनों के बलबूते पर बिना दिमाग़ के कार्यों की ओर भी प्रवत्त हो सकता है।समय रखते अच्छे विचारों को एक प्लेटफॉर्म पर सच्चाई व सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा हेतु आगे आना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पर्यावरण विमर्श- 4 – गिलहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – पर्यावरण विमर्श- 4 – गिलहरी ??

गिलहरी,

फल को कुतर-कुतर,

मुँह में दबाती है बीज

फलदार वृक्ष का,

ताकती है चहुँ ओर

टुकर-टुकर..,

लम्बी दौड़ लगाती है,

पोली धरती तलाशती है,

माटी की कोख में

बीज धर आती है,

विज्ञान कहता है-

अपने असहाय भविष्य के लिए

इकट्ठा करती है बीज,

मंदबुद्धि जानवर है,

भूल जाती है..,

आदमी के हाथ,

पेड़ का धड़

सिर से अलग करने के

विशाल यंत्र लिए

आगे बढ़ते हैं,

नन्हीं गिलहरी

सामने अड़ जाती है…,

मैं जानता हूँ

असहाय भविष्य की

निर्वसन धरती

वह देख पाती है, फलतः

बार-बार बीज जुटाती है,

बार-बार दौड़ लगाती है,

बार-बार गर्भाधान कर आती है….

धरती की आँख में

उभरता है चित्र-

बौने आदमी और

आदमकद गिलहरी का..!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 163 ☆ व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 163 ☆

☆ व्यंग्य – कांच के शो रूम में शो ☆

राम भरोसे बड़ा प्रसन्न था। कारण जानना चाहा, तो पता चला कि उसे सूचना का अधिकार मिल गया है। अर्थात् अब सब कुछ पारदर्शी है। यूं तो ’इस हमाम में हम सब नंगे है’, पर अब जो नंगे न हों, उन्हे नंगे करने का हक भी हम सब के पास है।  वैसे झीना-पारदर्शीपन, कुछ कुछ सेक्स अपील से संबंधित प्रतीत होता है, पर यह पारदर्शीता उस तरह की नहीं है। सरकारी पारदर्शिता के सूचना के अधिकार के मायने ये हैं, कि कौन क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, कैसे कर रहा है? यह सब, सबके सामने उजागर होना चाहिये। मतलब ये नहीं कि कोई तो ’राम भरोसे’ हो, और कोई ’सुखी राम’ बन जाये। कोई ’रामसिंग’ हो और कोई ’दुखीराम।’ कोई ’राम लाल’ तो और कोई कालू राम बनकर रह जावे- जब सब राम के बंदे हैं, तो सबको बराबर के अधिकार हैं। सबकों पता होना चाहिये कि उनके वोट से चुनी गई सरकार, उन्हीं के बटोरे गये टैक्स से उनके लिये क्या काला-सफेद कर रही है। सीधे शब्दों में अब सब कांच के घरों में बैठे हैं। वैसे इसका भावार्थ यह भी है कि अब कोई किसी पर पत्थर न उछाले। मजे से कांच की दीवारों पर रेशमी पर्दे डालकर ए.सी. की ठंडी बयार में अफसर बियर पियें, नेता चाहें तो खादी के पर्दे डाल कर व्हिस्की का सेवन कर सकते हैं। रामभरासे को सूचना का अधिकार मिल गया है। जब उसे संदेह होगा कि कांच के वाताकूलित चैम्बर्स तक उसकी आवाज नहीं पहुंच पा रही है, तो यथा आवश्यकता वह, पूरे विधि विधान से अर्जी लगाकर परदे के भीतर का आँखों देखा हाल जानने का आवेदन लगा सकेगा। और तब, यदि गाहे बगाहे उसे कुछ सच-वच जैसा, मालूम भी हो गया, तो कृष्ण के अनुयायी माखन खाने से मना कर सकते हैं। यदि  टी.वी. चैनल पर सरासर कोई फिल्म प्रसारित भी हो जावे, तो उसे फर्जी बताकर, अपनी बेकसूरी सिद्ध करते हुये, एक बार पुनः लकड़ी की कढ़ाई चूल्हे पर चढ़ाने का प्रयास जारी रखा ही जा सकता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘गलती से मिस्टेक (हास्य-व्यंग्य कविताएं)’ – प्रदीप गुप्ता ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है प्रदीप गुप्ता जी  की पुस्तक  “गलती से मिस्टेक (हास्य-व्यंग्य कविताएं)” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गलती से मिस्टेक (हास्य-व्यंग्य कविताएं)’ – प्रदीप गुप्ता ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक: गलती से मिस्टेक

रचनाकार: प्रदीप गुप्ता 

प्रकाशक: निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 37 शिवराम कृपा, विष्णु कॉलोनी, शाहगंज आगरा-20 उत्तर प्रदेश  मो 94580 09531

समीक्षक : ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

किसी के पास हंसने-हंसाने व गुदगुदाने का समय नहीं है – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

आज के जमाने में जब जिंदगी रफ्तार से दौड़ रही है किसी के पास हंसने-हंसाने व गुदगुदाने का समय नहीं है। आज की व्यस्तम जिंदगी में हास्य व्यंग्य की रचनाएं भी कम लिखी जा रही है। ऐसे समय में ‘गलती से मिस्टेक’ हास्य व्यंग्य की कविताओं का संग्रह का प्रकाशित होना ठीक वैसा ही है जैसे तपती दोपहर में वर्षा की ठंडी फुहार या हवा का चलना। जिससे हमें बहुत ही राहत मिलती है।

गलती से मिस्टेक के रचनाकार प्रदीप गुप्ता की यह तीसरी पुस्तक है। जिसका विमोचन अंतरराष्ट्रीय पत्र लेखन मुहिम के सम्मान समारोह में पिछले दिनों सवाई माधोपुर में हुआ था। 

आकर्षित शीर्षक वाली इस पुस्तक- गलती से मिस्टेक, में रचनाकार ने समाज में व्याप्त अव्यवस्था, विसंगतियों, विडंबनाओं, पाखंड, राजनीति आदि पर अपनी कविता के माध्यम से तीखा प्रहार करने की कोशिश की है। रचनाओं में अतिरंजना, विविधता, बिम्ब, व्यंग्य, हास्य आदि के द्वारा कटाक्ष को उभारने की सफल कोशिश की है।

कभी-कभी हम जो बातें सीधे ढंग से व्यक्त नहीं कर पाते हैं उसे हास्य और व्यंग्य द्वारा मारक ढंग से व्यक्त कर देते हैं। इसी को मद्देनजर रखते हुए रचनाकार ने व्यक्ति, जीव, जानवर, भाव, विभाव, परिस्थिति,  स्थितियों, बंद, व्यवस्था, सामाजिक रीतिरिवाज, कार्य-व्यवहार, रीति’नीति आदि पर धारदार व्यंग्य व हास्य कविताएं प्रस्तुत की हैं।

मुझको लगता है कि अब तो बेचारी 

पढ़ाई भी खुद ही शरमा जाएगी।

क्योंकि नेतागिरी भी अब

कॉलेज में पढ़ाई जाएगी।।

गुंडागर्दी, झूठ, बेईमानी और 

गिरगिट की तरह रंग बदलने की कला 

भी वही सिखाई जाएगी ।।

जैसे व्यंग्य व हास्य कविताएं इस संकलन में आकर्षक साज-सज्जा से युक्त सफेद कागज पर त्रुटिरहित मुद्रण के साथ प्रकाशित की गई हैं। कवि की अपनी कविताओं पर अच्छी पकड़ है। वे हास्य-व्यंग्य की रचनाओं को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं।एक सौ पांच पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ₹150 वाजिब है। इस पुस्तक का हास्य-व्यंग्य की दुनिया में भरपूर स्वागत किया जाएगा। ऐसा विश्वास है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-03-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 113 ☆ विश्व पर्यावरण दिवस विशेष – मैं रोज ही पृथ्वी दिवस मनाता हूँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 113 ☆

☆ विश्व पर्यावरण दिवस विशेष – मैं रोज ही पृथ्वी दिवस मनाता हूँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

मैं रोज ही पृथ्वी दिवस मनाता हूँ

मुझे मिलते हैं षटरस

नए पौधे रोपने से

सींचने से

उन्हें बढ़ता हुआ देखकर

हँसता हूँ, मुस्कराता हूँ

मैं घर की छत पर भी पौधे लगाता हूँ

और पार्कों आदि में भी

बाँटता हूँ उन्हें

जो पृथ्वी से करते हैं प्यार

मैं रोपता हूँ नन्हे बीज

बनाता हूँ पौध

पृथ्वी सजाने सँवारने के लिए

पर विज्ञापन नहीं देता अखबारों में

मैं कई तरह के बीजों को

डाल देता हूँ

रेल की पटरियों के किनारे

ताकि कोई बीज बनकर

हरियाली कर सके

मेरे घर के पास भी

साक्ष्य के लिए उगे हैं

बहुत सारे अरंडी के पौधे

जो हरियाली करते हैं

हर मौसम में

 

मेरे यहाँ आते हैं नित्य ही

सैकड़ों गौरैयाँ, बुलबुल, कौए, फाख्ता, कबूतर,

तोते, नन्ही चिड़िया, बन्दर और गिलहरियां आदि

पक्षियों के कई हैं घोंसले

मेरे घर में

गौरैयाँ तो देती रहती हैं

ऋतुनुसार बच्चे

चींचीं करते स्वर और माँ का चोंच से दाना खिलाना

देता है बहुत सुकून

मेरा घर रहता है पूरे दिन गुलजार

सोचता हूँ मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ

जो आते हैं मेरे घर नित्य मेहमान

आजकल तो कोयल भी आ जाती हैं कई एक

मैं सुनता हूँ सबके मधुर – मधुर गीत – संगीत

ऐसा लगता है मुझे कि

यही हैं मेरे आज और कल हैं

मिलती है अपार खुशी

भूल जाता हूँ सब गम, चिंताएँ

और तनाव

 

मैं बचाता हूँ नित्य ही पानी

हर तरह से

यहाँ तक कि आरओ का खराब पानी भी

जो आता है पोंछें के, शौचालय या कपड़े धोने के काम

 

मैं करता हूँ बिजली की बचत रोज ही

पंखे या कूलर से चलाता हूँ काम

नहीं लगवाया मैंने एसी

एक तो बिजली का खर्च ज्यादा

दूसरे उससे निकलीं गैसें कर रही हैं वायु में घोर प्रदूषण

नहीं ही ली कार

चला इसी तरह संस्कार

यही है मेरी प्रकृति और संस्कृति

 

मैं बिजली और पानी की बचत कराता हूँ अपने आसपास भी

समरसेबल के बहते पानी को

बंद कराकर

लोगों को याद नहीं रहता कि

अमूल्य पानी और बिजली की क्या कीमत है

मुझे नहीं लगती झिझक कि कोई क्या कहेगा

बहता हुआ पानी कहीं भी है दिखता

मैं तुरत बंद करता हूँ गली, रेलवे स्टेशन आदि की टोंटियां

और साथ ही जलती हुई दिन स्ट्रीट लाइटों को

 

आओ हम एक दिन क्या

रोज  ही पृथ्वी दिवस मनाएँ

धरती माँ को सजाएँ

करें सिंगार

यही दे रही है हमें नए – नए उपहार

भर रही पेट हर जीव का

पृथ्वी माँ !

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (51-57)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (51 – 57) ॥ ☆

सर्ग-19

 

तपन से उजड़ता हुआ जैसे सर हो, या बुझते हुये दीप की ज्यों प्रभा हो।।51।।

प्रजा हुई शंकित कि नृप हुये हैं रूग्ण पर मंत्रियों ने सदा सब छुपाया।

 

पुत्र प्राप्ति हित जप-अनुष्ठान-रत है, इसी से है दुर्बल, यही नित बताया।।52।।

कई रमणियों का होकर सखा भी अग्निवर्ण पितृऋण से नहीं उबर पाया।

 

क्रमशः सिमटते बुझा प्राण-दीपक, क्षय वैद्ययत्नों को न लाँघ पाया।।53।।     

अन्त्येष्टि करने पुरोहितों को ले साथ सचिवों ने गृहोद्यान में ही जलाया।

 

हुआ क्या था राजा को जिससे गुजर गये,

किसी की समझ में सही कुछ न आया।।54।।

 

कर प्रजा प्रमुखों को एकत्र सचिवों ने उस पट्टरानी को गद्दी बिठाया।

जिसके उदर में था पल रहा शुभ गर्भ नृप अग्निवर्ण का जो बचने न पाया।।55।।

 

आई विपदा के महाशोक से उष्ण जल नेत्र से ढल जिसे तप्त कर भये।

उसी गर्भ को स्वर्णकलशों से झर जल अभिषेक विधि से सुसंतृप्त कर गये।।56।।

 

सावन में बोये गये थोड़े बीजों की रखती है धरती स्वयं ज्यों संजोकर,

त्यों सिंहासनारूढ़ रानी प्रसव की प्रतीक्षा में रत रही शासन चलाकर।

अमात्यों के सहयोग से उसने अपने उस राज्य को आगे ढंग से चलाया।

हुआ एक युग अंत ‘अग्निवर्ण’ के साथ जो अनेकों के कभी मन न भाया।।57।।

इति रघुवंशम्

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #112 – अष्टविनायक…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 112 – अष्टविनायक…! ☆

मोरगावी मोरेश्वर

होई यात्रेस आरंभ

अष्ट विनायक यात्रा

कृपा प्रसाद प्रारंभ….! १

 

गजमुख सिद्धटेक

सोंड उजवी शोभते

हिरे जडीत स्वयंभू

मूर्ती अंतरी ठसते….! २

 

बल्लाळेश्वराची मूर्ती

पाली गावचे भूषण

हिरे जडीत नेत्रांनी

करी भक्तांचे रक्षण….! ३

 

महाडचा विनायक

आहे दैवत कडक

सोंड उजवी तयाची

पाहू यात एकटक….! ४

 

थेऊरचा चिंतामणी

लाभे सौख्य समाधान

जणू चिरेबंदी वाडा

देई आशीर्वादी वाण…! ५

 

लेण्याद्रीचा गणपती

जणू निसर्ग कोंदण

रुप विलोभनीय ते

भक्ती भावाचे गोंदण….! ६

 

ओझरचा विघ्नेश्वर

नदिकाठी देवालय

 नवसाला पावणारा

देई भक्तांना अभय….! ७

 

महागणपती ख्याती

त्याचा अपार लौकिक

रांजणगावात वसे

मुर्ती तेज अलौकिक….! ८

 

अष्टविनायक असे

करी संकटांना दूर

अंतरात निनादतो

मोरयाचा एक सूर….! ९

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जागतिक पर्यावरण दिनानिमित्त – निसर्ग रक्षण ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

सुश्री त्रिशला शहा

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जागतिक पर्यावरण दिनानिमित्त – निसर्ग रक्षण ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

पहिली माझी ओवी गं

निसर्गाचे रक्षण

झाडे, वेली जपुया

खत,पाणी देऊन…

 

दुसरी माझी ओवी गं

वसुंधरेला जपूया

मातीमधल्या अंकुराला

मायेचे शिंपण

 

तिसरी माझी ओवी गं

पाणीसाठा जपूया

नदी,विहीरीमधुनी

कचरा तो काढुया

 

चौथी माझी ओवी गं

पर्यावरणाचे राखण

प्लॅस्टिक चा वापर टाळून

प्राणीमात्रा जगवूया

 

पाचवी माझी ओवी गं

शेत मळे पिकवूया

पाऊस पाणी पडण्यासाठी

एक तरी झाड लावूया

© सुश्री त्रिशला शहा

मिरज 

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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