हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 86 ☆ गजल – ’’हिलमिल रहो…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “हिलमिल रहो …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 86 ☆ गजल – हिलमिल रहो …  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

परचम लिये मजहब का जो गरमाये हुये हैं

आवाज लगा लड़ने को जो आये हुये हैं।

उनको समझ नहीं है कि मजहब है किस लिये

कम अक्ल हैं बेवजह तमतमाये हुये हैं।

नफरत से सुलझती नहीं पेचीदगी कोई

यों किसलिये लड़ने को सर उठाये हुये हैं।

मजहब तो हर इन्सान की खुशियों के लिये हैं

ना समझी में अपनों को क्यों भटकाये हुये हैं।

औरों की भी अपनी नजर अपने खयाल हैं

क्यों तंगदिल ओछी नजर अपनाये हुये हैं।

दुनियां बहुत बड़ी है औ’ ऊँचा है आसमान

नजरें जमीन पै ही क्यों गड़ाये हुये है।

फूलों के रंग रूप औ’ खुशबू अलग है पर

हर बाग की रौनक पै सब भरमाये हुये हैं।

मजहब सभी सिखाते है बस एक ही रास्ता

हिल-मिल रहो, दो दिनों को सभी आये हुये हैं।

कुदरत भी यही कहती है-दुख को सुनो-समझो

जीने का हक खुदा से सभी पाये हुये हैं।

इन्सान वो इन्सान का जो तरफदार हो

इन्सानियत पै जुल्म यों क्यों ढाये हुये हैं।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 94 – उपकार किस पर करें? ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #94 🌻 उपकार किस पर करें? 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

🔷 जंगल में शेर शेरनी शिकार के लिये दूर तक गये अपने बच्चों को अकेला छोडकर। देर तक नही लौटे तो बच्चे भूख से छटपटाने लगे उसी समय एक बकरी आई उसे दया आई और उन बच्चों को दूध पिलाया फिर बच्चे मस्ती करने लगे तभी शेर शेरनी आये बकरी को देख लाल पीले होकर हमला करता उससे पहले बच्चों ने कहा इसने हमें दूध पिलाकर बड़ा उपकार किया है नही तो हम मर जाते।

🔶 अब शेर खुश हुआ और कृतज्ञता के भाव से बोला हम तुम्हारा उपकार कभी नही भूलेंगे जाओ आजादी के साथ जंगल मे घूमो फिरो मौज करो। अब बकरी जंगल में निर्भयता के साथ रहने लगी यहाँ तक कि शेर के पीठ पर बैठकर भी कभी कभी पेडो के पत्ते खाती थी।

🔷 यह दृश्य चील ने देखा तो हैरानी से बकरी को पूछा तब उसे पता चला कि उपकार का कितना महत्व है। चील ने यह सोचकर कि एक प्रयोग मैं भी करता हूँ चूहों के छोटे छोटे बच्चे दलदल मे फंसे थे निकलने का प्रयास करते पर कोशिश बेकार।

🔶 चील ने उनको पकड पकड कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया बच्चे भीगे थे सर्दी से कांप रहे थे तब चील ने अपने पंखों में छुपाया, बच्चों को बेहद राहत मिली काफी समय बाद चील उडकर जाने लगी तो हैरान हो उठी चूहों के बच्चों ने उसके पंख कुतर डाले थे। चील ने यह घटना बकरी को सुनाई तुमने भी उपकार किया और मैंने भी फिर यह फल अलग क्यों?

🔷 बकरी हंसी फिर गंभीरता से कहा

🔶 उपकार भी शेर जैसो पर किया जाए चूहों पर नही। चूहों  (कायर) हमेशा उपकार को स्मरण नही रखेंगे वो तो भूलना बहादुरी समझते है और शेर(बहादुर )उपकार कभी नही भूलेंगे।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 3 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

(4)  राम के वनगमन समय राम के सीता को अयोध्या में रुकने के लिए कहने पर सीता उत्तर में कहती हैं-

मै सुकुमार नाथ बन जोगू? तुमहि उचित तप मो कँह भोगू्ï?

प्राणनाथ क रुणायनत, सुन्दर सुखद सुजान-

तुम बिन रघुकुल कुमुद विधु सुरपुर नरक समान।

जिय बिनु देह, नदी बिन बारी, तैसिय नाथ पुरुष बिनु नारी॥

मोहि मग चलत न होइहि हारी, छिनु छिनु चरण सरोज निहारी॥

बार बार मृदु मूरत जोही, लागहि ताप बयार न मोही।

पति के साथ वन जाने का कितना सशक्त किन्तु विनम्र आग्रह है उनका यह।

(5)  गंगा पार करने पर-केवट को उतराई देने के लिए राम के मन के संकोच को देखकर सीता ने-

प्रिय हिय की सिय जानन हारी, मनिमुंदरी मन मुदित उतारी।

पतिहृदय की बात को समझने वाली भारतीय आदर्श नारी ही हो सकती हैं।

(6)  चित्रकूट में पर्णकुटी में रह रहे राम सीता से मिलने जनक जी सपरिवार आते हैं सीता जी मिलती है। पिता भी अपनी ऐसी पतिपरायणा पुत्री पर गर्व से वे कहते हैं

पुत्री पवित्र किए कुल दोऊ, सुजस धवल जनु कह सब कोऊ,

सीता की मर्यादा और शील यहाँ भी दिखता है जब वे रात को माता पिता के पास भी वहाँ रुकने में संकोच करती है-

कहति न सिय सकुचत मन माँही। इहाँ रहब रजनी भल नाहीं॥

(7)  बन यात्रा में ग्राम वासिनी स्त्रियों द्वारा उत्सुकता से उनका परिचय पूछें जाने पर सीता जी का शीलपूर्ण संयत उत्तर देना भारतीय संस्कृति की मर्यादा  का आकर्षक चित्रण है। पूछा जाता है-

कोटि मनोज लजावन हारे, सुमुखि कहहु को आँहि तुम्हारे?

उत्तर में सीता कहती हैं-

सहज सुभाय सुभग तनु गोरे, नाम लखन लघु देवर मोरे

बहुरि बदन बिधु आँचल ढाँकी प्रिय तन चितइ भौंह कर बाँकी॥

(8)  रावण के द्वारा विभिन्न साम-दाम-दण्ड-भेद का प्रयोग करने पर सीता जिस तरह अपने सतीत्व रक्षा में उसे उत्तर देती है वह देखें-

तृण धरि ओट कहत बैदेही, सुमिर अवधिपति परम सनेही,

सुन दशमुख खद्योत प्रकाशा, कबहुकि नलिनी करई विकासा?

सो भुज कंठ कि तब असिघोरा, सुन सठ अस प्रमाण पण मोरा।

पतिवियोग में-

कृस तन सीस जटा एक वेणी, जपत हृदय रघुपति गुणश्रेणी,

इन सबके उपरान्त अपार कष्टों के बाद जब सीता को अग्नि परीक्षा देने के बाद अयोध्या की राजरानी बनने का अवसर मिला, तब वह एक योग्य गृहिणी की भाँति रहती दिखती है-

(9)  पति अनुकूल सदा रह सीता, शोभाखानि सुशील विनीता

निज कर गृह परिचरजा करई, रामचंन्द्र आयसु अनुसरई।

कौशल्या सासु गृह माँही सेवहिं सबहि मान मदनाहीं।

पति के प्रति आस्था विश्वास और निष्ठा की चरम सीमा तो तब है जब एक  धोबी के कथन पर राम ने सीता का परित्याग उस अवस्था में किया जब वह गर्भवती थी। तब भी वन में उन्होंने राम को नहीं अपने भाग्य को दोषी ठहराते हुए अपने को अपनी सन्तान की सुरक्षा की आशा में जीवित रखा और जन्म देकर उन्हें इतना योग्य बनाया कि वे अपने महापराक्रमी पिता श्री रामचन्द्र जी से शक्ति, गुण में, सुयोग्य बन टक्कर ले सकने को समर्थ हो सके। जब वन में कोई अन्य नहीं था तब माता सीता ने ही उन्हें पाल पोस कर उचित शिक्षा दी और भारतीय माता की भूमिका का सही निर्वाह किया।

इस प्रकार सारा जीवन कष्टï सहकर भी सीता जी ने जो भारतीय नारी का आदर्श निबाहा इसी से उन्हें जगतमाता और महासती कहा गया और तुलसी दास जी ने श्री राम के साथ मानस की रचना करने से पूर्व उनकी प्रार्थना इन शब्दों में कर उनकी कृपा और आशीष की कामना की है-

सती शिरोमणि सिय गुनगाथा, सोई गिनु अमल अनुपम पाथा,

जनक सुता जग जननि जानकी, अतिसय प्रिय करुणा निधान की।

ताके युगपद कमल मनावहुँ, जासु कृपा निर्मल मति पावहुँ॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १८ जून – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १८ जून – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

श्रीपाद रामकृष्ण काळे

श्रीपाद रामकृष्ण काळे (8जुलै 1928 – 18 जून 1991) हे एक दशग्रंथी ब्राह्मण, कथालेखक, कादंबरीकार, निबंधकार होते.

देवगडमधील वाडा या लहानशा खेड्यात त्यांचा जन्म झाला.  लिहिणं- वाचणं व भिक्षुकीचं शिक्षण त्यांना घरीच वडिलांकडून  मिळालं. तर उच्चशिक्षित समीक्षकापेक्षाही अधिक संवेदनशील ; पण अक्षरओळख नसलेली आई त्यांना लाभली होती. या दोघांचे संस्कार तीव्र बुद्धिमत्ता, प्रचंड निरीक्षणक्षमता व उत्तम आकलनशक्ती असलेल्या श्रीपादवर होऊन ते शब्दप्रभू झाले.

ते भिक्षुकी करत असत. त्यासाठी अनेक गावांची पायी यात्रा करत असताना त्यांची प्रतिभा कोकणातील लोभस निसर्गलेणे टिपत असे.

विविध वृत्तपत्रे, नियतकालिके, दिवाळी अंक यांतून त्यांनी उत्तमोत्तम लेखन केलं.’पिसाट वारा’, ‘ संचित’, ‘समर्पण’, ‘चकवा’,  ‘दाणे आणि खडे’, ‘नवी घडी नवे जीवन’ इत्यादी जवळजवळ 1200 कथा व 50हून अधिक कादंबऱ्या त्यांनी लिहिल्या. ते अर्थशास्त्रविषयक नियतकालिकाचे संपादक होते.

आकाशवाणी रत्नागिरी केंद्रावर त्यांनी अनेक कथांचे वाचन केले.

काळे यांच्या ‘पिसाट वारा’ या कादंबरीला राज्य पुरस्कार मिळाला. कोमसापने पावसमध्ये त्यांचा भव्य सत्कार केला. त्या कादंबरीची गुजराती, कानडी व हिंदीत भाषांतरे झाली. लोकमान्य टिळक साहित्य पुरस्कार, कविता माधव पुरस्कार इत्यादी पुरस्कारांनी त्यांना सन्मानित करण्यात आले.

विविध साहित्य संमेलनांतून प्रमुख साहित्यिक म्हणून त्यांची उपस्थिती असे.

वाडा लायब्ररीमध्ये अध्यक्ष म्हणून त्यांचे भरीव योगदान होते.

पत्नी इंदिरा काळे यांच्या नावे उत्कृष्ट साहित्यनिर्मितीसाठी त्यांनी ‘कोमसाप’लां आर्थिक देणगी दिली.

आज श्रीपाद काळे यांच्या स्मृतिदिनानिमित्त त्यांना अभिवादन. 🙏

☆☆☆☆☆

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, विकिपीडिया 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆☆ सार्थक ☆☆ सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ ☆

सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

? कवितेचा उत्सव ?

सार्थक ☆ सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ 

इंद्रधनुष्याच्या रंगांनी आज

रंगून गेलंय आभाळ

सार्या रंगांनी फेरच

धरलाय आभाळात

आणि मी उडते आहे

त्या रंगांना पकडायला

कधी मला मिळतात

पंख परीचे

कधी  लाभतात

देवदूतांचे!

आणि मग कधी

मी फेर धरते

त्या इंद्रधनुषी

रंगांसवे, तर

कधी इंद्रधनुष्यावरच

स्वार होते, धरुन

रंगांचीच आयाळ

आणि मग परतते

सारे उडते रंग

गोळा करुन कवेत

माझ्या सार्या स्वप्नांच्या

पूर्ततेचं मिळवून सार्थक!

© सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

संपर्क – 1565, सदाशिव पेठ, ‘लक्ष्मी सदन’, पी. जोग क्लास लेन, पुणे, ४११०३०. मो. 7709014058.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 107 – येऊन जा जरा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 107 – येऊन जा जरा ☆

हा दाह जाळणारा शमवून जा जरा।

ही ओल भावनांची देऊन जा जरा।

 

नाही मुळीच माया माता पिता नसे।

हे बाल्य खेळवाया येऊन जा जरा।

 

नुरलेत त्राण देही वृद्धाश्रमी जरी।

घर आज आश्रयाला ठेऊन जा जरा।

 

झेलून या विषारी नजराच बोचऱ्या।

अबलेस तारणारा होवून जा जरा।

 

भोगीच आज योगी हे मातले अती।

धर्मांध दानवांना ताडून जा जरा।

 

थकलेत राबणारे जोडून हात ही ।

हे पाश सावकारी तोडून जा जरा।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ काल्या आणि पंडी… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

? विविधा ? 

☆ काल्या आणि पंडी… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

काल्या म्हणजे आमच्या घरादाराचं रक्षण करणारा आमचा लाडका ईमानी कुत्रा..अगदी काळ्या कुट्ट रंगाचा… 

म्हणून त्याला आम्ही सगळे काल्याच म्हणतो…काही वर्षापूर्वी गावात उंट घेऊन आलेल्या भटक्या कुटूंबासोबत काल्या आला होता.उंटवाले गेले पण काल्या मागे राहिला.घरातल्या भाकरी तुकड्यावर मोठा झाला आणि घरातला रक्षक सदस्यच बनून राहीला..

तशीच आमची मनी माऊ पंडी…घरभर फिरून पायात लुडबूड करणारी आमची मनी तिला आम्ही सगळेच पंडी म्हणतो. काल्या आणि पंडी दोघांची जाम मैत्री…दोघेही आपल्या आपल्या तोऱ्यात अंगणभर वावरत असतात.

आम्ही गावी गेलो की काल्याला खूप आनंद होतो. काल्या अंगावर झेप घेत कडकडून भेटायला हमखास अंगणात असतोच.त्याचं काळं नूळनूळीत शरीर आणि तशीच वळवणारी शेपटी सारखी हलत असते…आणि पंडी तर म्याऊ म्याऊ करत पायात घुटमळत येत असते.. रात्री आणि दिवसभर कोणीही अनोळखी दिसला तर काल्या गुरगुरला म्हणून समजाच…. रस्त्यावर,अंगणात, झाडाखाली आणि शेडमध्ये ऐटीत बसून जागरूक राहणारा काल्या..तर  अंगणात आणि झाडावर फिरून भक्ष पकडून घरभर मिरवत मट्ट करणारी पंडी…!

सगळ्यांची जेवणावळ बसली की पंडी ताटाभोवती लुडबुडत राहते आणि काल्या दारात शेपटी हलवत जिभळ्या चाटत केविलवाण्या चेहर्‍याने बसलेला असतो.संध्याकाळी अंगणात जागरूक असलेला काल्या आणि शांत झोपलेलं घर असतं.पंडी मात्र पायात घरघरत मस्त झोप घेत राहते…. अंगणातल्या शेळ्या,गाई आणि कोंबड्यांच्या रखवालीची जबाबदारी काल्या घेतो.आणि पंडी घरातली जबाबदारी पार पाडते..कधी कधी चोरून दुध गट्ट्म करताना आईच्या हातचा फटका बसतो तिला.मग दूर जाऊन पाय आणि तोंड जिभेने साफ करत बसलेली असते पंडी….. मोकळ्या वेळात आरामात लोळण घेत पडलेली निरागस वाटते पंडी..पण तशी ती नसते.. पंडी आणि काल्या कधी कधी मजेत खेळत असतात… त्यांच्यातल्या अनोख्या मैत्रीने अंगण खेळकर बनून राहते.पहाटे आम्ही बच्चे कंपनी खडीवर भटकायला निघालो की काल्या आमच्या पुढे असतोच..त्याच्या शिवाय भटकंतीला मजा येत नाही. लहानपणी ‘पदी ‘नावाची कुत्री पण अशीच आठवण ठेवून गेलेली.

अशा मुक्या प्राण्यांनी आणि पक्षांनी गावचे घर अंगण असं सजून नेहमी किलबिलत असतं…सगळेजण घरादाराशी दिवस रात्र गप्पा मारत राहतात.मुक्या प्राण्यांची अशी बोलकी प्रीत काळजात जपून ठेवावी अशीच असते….अशी ही आमची मैत्री गावाकडे गेलो की हमखास एकमेंकांच्या स्वागतासाठी सज्ज असते…!

चित्र – प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

© प्रा.अरुण कांबळे बनपुरीकर

‘काळजातला बाप ‘कार..

मु.पो.बनपुरी ता.आटपाडी जि.सांगली

९४२११२५३५७…

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कागदपत्रे शोधता शोधता… सुश्री निलिमा क्षत्रिय ☆ प्रस्तुती सुश्री नेहा जोशी ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ कागदपत्रे शोधता शोधता… सुश्री निलिमा क्षत्रिय ☆ प्रस्तुती सुश्री नेहा जोशी

कागदपत्रे शोधणे हा घरातील एक अतिशय तणावपूर्ण क्षण असतो. ब-याच घरांमध्ये कागदपत्रे नीटनेटके ठेवण्याची जबाबदारी पुरूष स्वत:कडे घेतात. कारण ते महत्वाचं काम असतं. आणि अशी महत्वाची कामे करण्यासाठी जी कुशाग्र बुद्धी लागते, ती बुद्धी पण त्यांना जन्मत:च असते. बायका काय आपल्या स्वयंपाकपाणी, स्वच्छता, आलं गेलं, नेणं आणणं, पाहुणारावळा, आजारपणं.. अशी क्षुल्लक बिन महत्वाची खाती सांभाळत असतात. कारण त्यांना काय समजतं!!

तर्रर्र.. ज्यादिवशी अचानक एखादं कागदपत्र घरातल्या पुरूषाला हवं असतं..

” इथे टिव्ही पाशी मी दोन पेपर्स ठेवले होेते ते कुठे आहेत? “

” कधी ठेवले होते”?

” परवा नाही का, तुमची भिशी होती, म्हणून मी घाईघाईत गेलो, नंतर ठेवू म्हटलं कपाटात.. “

“बरं मग? “

बाईला आता पुढचा सगळा एपिसोड रंगताना  दिसतो.

“बरं मग काय? सत्यनारायणाची कथा सांगतोय का मी? कागद गेले कुठे ते विचारतोय! भिशी च्या आवराआवरीच्या नादात टाकले नाही ना कुठे केरात बिरात”?

“केरात कशी टाकेन मी? तुमच्या एवढी नाही पण थोडीतरी अक्कल दिलीय देवाने मला पण”!  #सरीवरसरी

“हो,विसरलो होतो,” (कंसात)

“नक्की इथेच ठेवली होती का?”

” नक्की म्हणजे काय, मला आठवतं ना चांगलं. मला एक कळत नाही, दिवस दिवस वस्तू लोळत पडलेल्या असतात, त्या जागच्या हलत नाहीत, पण महत्वाचं काही ठेवलं की लगेच दोन मिनिटात गायब.”

” ठेवायचं ना मग व्यवस्थित लगेच, इथे तिथे टाकून पळायचं, आणि वर्षभराने विचारायचं, मी हे इथे ठेवलं होतं कुठे गेलं”

“सगळ्या घरभर तुझा आणि मुलांचा पसारा असतो, मी एखादा कागद ठेवला तर तो पण नाही रहात घरात नीट”

” बेडवरचा ओला टॉवेल, कपडे बदलल्यावर ‘ळ’ आकारात पडलेला पायजमा वेळच्या वेळी उचलला जातो माझ्याकडून म्हणून तुमचा पसारा दिसून येत नाही…

उडाले असतील ते फॅनने.. काही ठेवलं होतं का त्याच्यावर?”

” हो मग, टिव्ही च्या खाली दाबून ठेवले होते, झालंच तर रिमोट ठेवला होता वर”!

कागदांच्या ठेवणुकीचं इतकं डिटेलिंग ऐकल्यावर आता बिचारी गृहिणीं जरा गांगरते..

“कुठे गेले असतील बरं… थांबा जरा सापडतील. बघते मी…”

अशी जरा पुढची बाजू ढासळायला लागली की गृहस्थांच्या अंगात दहा बुलडोझर ची ताकद संचारते… #nilima_kshatriya

” हज्जारदा  सांगितलंय कागदपत्र फेकत जाऊ नका, माझ्या कामाच्या वस्तूंना हात नका लावत जाऊ.. पण नाही.. ( असा अनेकवचनी आदरार्थी उल्लेख केला की आपोआपच मुलांना पण समज मिळते, आणि ते शक्यतो घरातून काही वेळापुरते अदृष्य होतात, किंवा अभ्यासाला बसतात. )

हा हा लोकप्रभाचा अंक… गेल्या वर्षापासून इथे लोळतोय तो नाही हलला, पण दोनच कागद.. फक्त एकाच दिवसात गायब.. काय जादू आहे..”

खरं म्हणजे लोकप्रभाचा अंक ह्या महिन्याचा असतो, तो दोनच दिवसांपूर्वी आलेला असतो, पण ‘तो वर्षापासून इथे लोळतोय’ ह्या म्हणण्याला आता आडवं लावण्यात अर्थ नसतो, म्हणून गृहिणी नमतं घेत रहाते.. तसतसा गृहस्थांचा बुलडोझर सैरावैरा धावत सुटतो…

“दोन तास तहसील कचेरीत उभं राहून ते पेपर्स मिळवले होते.. सालं कशाचं गांभिर्य म्हणून नाही.. घर आहे की कबाडखाना.. “

आता गृहिणी सशाच्या काळजाने टीव्हीच्या आजूबाजूचा परिसर पिंजत सुटते. सोफ्याच्या खाली, शू रॅकखाली, टीव्हीच्या मागे, करत करत किचन बेडरूम्स.. इतकंच काय फ्रीज, बाथरूम सुद्धा बघून होतात. पण कागद पत्रं.. ‘धरती निगल गयी या आसमां खा गया’.. अशी अवस्था..

तेवढ्यात बुलडोझर डिझेल संपल्यासारखा एकदम लडखडतो. त्याला काहीतरी आठवतं. आणि तो

गृहिणीची नजर चुकवत बाहेर उभ्या ॲक्टीव्हाच्या पोटातून दोन कागद तोंड पाडून घरात आणतो.

आता गृहिणी च्या अंगात पण पोकलेन संचारतो..

“तुम्ही तर टिव्ही शेजारी ठेवले होते कागद, त्याच्यावर रिमोट पण ठेवला होता. मग ते गाडीच्या डिकीत कसे पोहोचले? सगळं घर उलथं पालथं करायला लावलं. स्वत:ला लक्षात रहात नाही आणि घरादाराला नाचवायचं. तेवढंच काम आहे का मला? घरात इकडची काडी तिकडे करायची नाही, मी एकटीनेच गाडा ओढत रहायचा.. ते कार्टे पण मेले तुमच्यावरच पडलेत. का ss ही कामाचे नाहीत. मला खरंच इतका कंटाळा आलाय ना ह्या सगळ्याचा आता. असं वाटतं निघून जावं कुठेतरी लांब.. मी म्हणून टिकले बरं, दुसरी असती ना तर केव्हाच निघून गेली असती. “

पुढील अनर्थ हसण्यावारी टोलवला जातो..

” चहा ठेव पटकन, बँकेत जमा करायचेत कागदपत्रं..

लेखिका : सुश्री निलिमा क्षत्रिय

संकलन : सुश्री नेहा जोशी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ते रवी, मी साधा चंद्र… ☆ श्री सुरेश नावडकर ☆

श्री सुरेश नावडकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ ते रवी, मी साधा चंद्र.. ☆ प्रस्तुती – श्री सुरेश नावडकर ☆

(दिग्गज ज्येष्ठ आणि श्रेष्ठ चित्रकार श्री. रवी परांजपे यांचे दि. ११/६/२२ रोजी दुःखद निधन झाले. त्यांना वाहिलेली ही शब्द – सुमनांजली) 

साहित्य, कला, संस्कृतीचं माहेरघर असलेल्या महाराष्ट्राला, अनेक थोर चित्रकार लाभले आहेत.. एस.एम. पंडित, रघुवीर मुळगावकर, दीनानाथ दलाल, एम.आर. आचरेकर, इत्यादींनी सप्तरंगांवर हुकूमत गाजवून कलाजगतात प्रसिद्धी मिळविली.. या थोर चित्रकारांच्याच पिढीतील ज्येष्ठ चित्रकार, रवी परांजपे यांनी काल आपले ‘ब्रश मायलेज’ गाठले..

मला लहानपणापासूनच चित्रकलेचे आकर्षण आहे. किराणा मालाच्या दुकानातून आणलेल्या सामानाच्या कागदी पिशवीवर एखादे चांगले चित्र दिसले, तर ती पिशवी पाण्यात बुडवून खळ निघून गेल्यावर तो कागद सुकवून जपून ठेवलेली चित्रं, अजूनही माझ्या संग्रही आहेत.. अशाच छंदातून मुळगावकर व दलाल यांची चित्रे, कॅलेंडर्स जमविली. त्याकाळी टाईम्स ऑफ इंडियाच्या धर्मयुग, इलस्ट्रेटेड विकली अशा पाक्षिकात रवी परांजपे सरांची रंगीत कथाचित्रे, पाहिल्याची आठवतात.. 

काही वर्षांनंतर त्यांची चित्रे असलेली ग्रिटींग्ज कार्ड्स पाहिली. काही कॅलेंडर्स, सरांच्या वेगळ्या शैलीमुळे लगेच ओळखू यायची.. वर्तमानपत्रातील व रीडर्स डायजेस्ट या इंग्रजी मासिकातील सरांच्या जाहिराती पाहिल्या की, सरांच्या शैलीचं कौतुक वाटायचं.. अशा ज्येष्ठ चित्रकाराशी कधी संपर्क येईल, असं मला स्वप्नातही वाटलं नव्हतं.. तरीही, तो आला…

माझ्या मोठ्या भावाने, रमेशने अभिनव कला महाविद्यालयातील शिक्षण पूर्ण झाल्यानंतर प्राध्यापक मारुती पाटील सरांच्या शिफारशीवरुन, मुंबईला रवी परांजपे सरांकडे कलाक्षेत्राचा अनुभव घेण्यासाठी जाण्याचे ठरविले.. 

सरांचा स्टुडिओ दादर येथील काॅलेज गल्लीतील, मनाली बिल्डींगमध्ये होता. त्यावेळी सर बिल्डर्सना लागणारी माऊंट साईजमधील बिल्डींगची कलरफुल पर्स्पेक्टिव्ह ड्राॅईंग्ज काढून देत असत. सरांकडे रमेशसारखेच चार असिस्टंट काम करीत असत. 

त्यावेळी परांजपे सरांना भेटायला कधी अभिनेत्री स्मिता पाटील तर कधी हिंदूहृदयसम्राट बाळासाहेब ठाकरे येत असत. मी दोन वेळा रमेशला भेटायला म्हणून, स्टुडिओत गेलो होतो. सर मितभाषी होते. याच दरम्यान सरांकडे काम करणाऱ्या, दिपक गावडे या चित्रकार मित्राशी मैत्री झाली.. जी आजही अबाधित आहे.. 

सहा महिन्यांनंतर रमेशने, सरांकडचा अनुभव घेऊन मुंबई सोडली. १९९० साली, सर पुण्यात आल्यानंतर आम्ही दोघेही सरांना भेटत होतो. सरांची अनेक प्रदर्शने पाहिली. कधी सरांचं प्रदर्शन मुंबईत जहांगीरला असेल तर तेही जाऊन पाहिलं..

वर्तमानपत्रातून आलेले सरांचे लेख वाचत होतो. मोठमोठ्या सांस्कृतिक समारंभांना  सरांची उपस्थिती हमखास असायची. तिथे भेट होत असे..

आठवड्यापूर्वी ज्येष्ठ चित्रकार अनिल उपळेकर यांचा मेसेज आला.. ‘काही दिवसांपूर्वी सर घरात पडले, घोले रस्त्यावरील हाॅस्पिटलमध्ये त्यांना दाखल केलं आहे. आयसीयू मध्ये आहेत..’ हे वाचून मला धक्काच बसला.. 

..काल दुपारी परांजपे सरांच्या कलाप्रवासाने पूर्णविराम गाठला.. दिग्गज चित्रकारांमधील जो एक शेवटचा दुवा होता, तोही निखळला.. दीनानाथ दलालांना, केतकर सर गुरुस्थानी होते.. रघुवीर मुळगावकरांनी, एस.एम. पंडितांना गुरुस्थानी मानलं होतं.. एम.आर. आचरेकरांकडे शिकलेले विद्यार्थी आज यशस्वी चित्रकार झालेले आहेत.. रवी परांजपे सरांची चित्रशैली ही इतरांपेक्षा खूप वेगळी होती.. अशी ही चालती बोलती विद्यापीठं काळाच्या ओघात नाहीशी झाली.. वास्तव चित्रशैली जपणारी पिढी, हळूहळू नामशेष होत आहे.. नवीन पिढीचा कल, हा वास्तव पेक्षा अमूर्त कलेकडे अधिक आहे.. यातूनही वास्तव कला टिकवायची असेल तर, जुन्या पिढीतल्या पंडित, दलाल, मुळगावकर, परांजपे सरांना कदापिही विसरुन चालणार नाही..

सूर्य म्हणजेच रवी, हा स्वयंप्रकाशी व तेजस्वी ग्रह आहे.. तारांगणातील माझ्यासारखे असंख्य ग्रह, हे चंद्रासारखे परप्रकाशी आहेत.. अशा रवीचे थोडे जरी प्रकाशकिरण ज्याच्या अंगावर पडले, तो धन्य झाला.. मीही असाच एक…

ज्येष्ठ चित्रकार रवी परांजपे सरांना, ही शब्दफुलांची भावपूर्ण श्रद्धांजली!!! 

© सुरेश नावडकर

१२-६-२२

मोबाईल ९७३००३४२८४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ पंचांग – टिळक की दाते की – भाग – 2 ☆ श्री मंदार दातार ☆

श्री मंदार दातार 
? इंद्रधनुष्य ?

☆ पंचांग – टिळक की दाते की – भाग – 2 ☆ श्री मंदार दातार ☆

(या प्रमुख सुधारणा होत्या व त्यामुळे सण आणि उत्सव यांच्या तारखांमध्ये फरक पडणार होता ! ) इथून पुढे —-

केरोपंत यांनी इतर अनेक सुधारणाही सुचवल्या. त्यांतील शेवटची, झीटा अक्षराची सुधारणा वगळता बाकी सर्व पुढील काळात स्वीकारल्या गेल्या. पंचांग करणारे सर्वजण आधुनिक गणित शिकलेले नव्हते. त्यांना गणित आधुनिक प्रमाणे (मानके) वापरून करता यावे यासाठी केरोपंतांनी ‘ग्रहलाघवा’च्या धर्तीवर ‘ग्रहगणिताची कोष्टके’ हा ग्रंथ लिहिला. लोकमान्य टिळक हे केरोपंतांचे शिष्य; त्याचप्रमाणे ते गणित, संस्कृत आणि पौर्वात्य विज्ञानाचे अभ्यासक व जाणकार. त्यांनी त्या सुधारणा पंचांगात झाल्याच पाहिजेत आणि ‘आमची पंचांगे फ्रेंच नाविक पंचांगांच्या तोडीची असलीच पाहिजेत’ असा आग्रह धरला व तशा  प्रेरणेने पंचांग सुधारणा घडवून आणल्या. त्या सुधारणा करणे हे सांगली येथे लोकमान्यांच्या अध्यक्षतेखाली 1920 मध्ये झालेल्या परिषदेत सर्वमान्य झाले.

पुढील काळात पंचांग गणित हे आधुनिक साधने वापरून केले जाऊ लागले. गेली काही वर्षे तर संपूर्ण पंचांग हे संगणकाच्या मदतीने मांडले जाते. त्यासाठी लागणारे खगोलीय स्थिरांक आणि गणितीय पद्धती भारत सरकारतर्फे कोलकाता येथील ‘पोझिशनल अॅस्ट्रॉनॉमी’ ही संस्था प्रकाशित करते. त्यामुळे सर्व पंचांगांत एकवाक्यता आढळते. या सगळ्या सुधारणा पंचांगकर्ते हळुहळू स्वीकारू लागले आहेत आणि सर्व पंचांगे गणितीय व खगोलीय दृष्ट्या अचूक आहेत. लोकमान्यांचे ते स्वप्न सत्यात उतरले आहे. त्या अर्थाने प्रसिद्ध होणारी सर्वच पंचांगे ही एका अर्थी ‘टिळक पंचांगे’ आहेत. पंचांगात दर्शवलेल्या तिथी, नक्षत्र, ग्रहांच्या स्थिती, गती; तसेच, सूर्य-चंद्र ग्रहणांच्या वेळा या वास्तविक असून त्यात कोणताही फरक राहिलेला नाही.

मग प्रश्न असा उरतो, की केरोपंत छत्रे यांनी सुचवलेल्या सर्व सुधारणा अंमलात आल्या पण नक्षत्र चक्र आरंभ हा रेवती नक्षत्रातील झीटा ताऱ्यापासून करावा ही सूचना काही सर्वमान्य झाली नाही. लोकमान्य असतानादेखील त्या सूचनेस लोकांचा विरोध होता आणि तो पुढे तसाच राहिला. त्याचे कारण म्हणजे त्या सूचनेचा स्वीकार केला असता तर, ‘अधिक’ महिने मोजण्याच्या पद्धतीत फरक येईल आणि त्यामुळे लोक नवीन कोणत्याच सुधारणा पंचांगात स्वीकारणार नाहीत. त्यामुळे सर्वजण ती सूचना वगळून बाकी सुधारणा करण्यास तयार झाले. त्यांतील अग्रणी म्हणजे व्यंकटेश बापुजी केतकर.

व्यंकटेश बापुजी केतकर यांनी एक आकाशीय बिंदू कल्पिला. तो बिंदू जुन्या सूर्य सिद्धांत नक्षत्र चक्र आरंभाजवळ आहे. चित्रा नक्षत्रातील स्पायका ताऱ्यापासून 180 अंशांवर येतो. त्यामुळे त्या पद्धतीला चित्रा पक्ष असे म्हणतात. त्यामुळे व्यवहारात कोणताच नजरेत भरणारा फरक पडणार नव्हता, त्यामुळेच ती पद्धत सर्वांना मान्य झाली. पुढील काळात रेवती पक्ष आणि चित्रा पक्ष या दोन्ही पक्षांच्या लोकांनी त्यांच्या त्यांच्या पक्षांच्या समर्थनार्थ अनेक पुरावे सादर केले. त्यांचा मुख्य उद्देश पूर्वी झालेल्या वराहमिहीर, आर्यभट्ट; तसेच, इतर सिद्धांत ग्रंथकारांना कोणता नक्षत्र चक्र आरंभ अपेक्षित होता हे सांगणे. परंतु ते पुरावे नि:संदिग्ध नसल्याने कोणताच दावा पूर्णपणे मान्य होऊ शकला नाही. शेवटी, भारत सरकारने स्थापन केलेल्या कॅलेंडर रिफॉर्म कमिटीने चित्रा पक्षास मान्यता देऊन त्या वादावर पडदा टाकला.

असे असूनसुद्धा रेवती पक्षाचे अभिमानी त्यावर आधारित टिळक पंचांग वापरतात. त्या पंचांगानुसार ‘अधिक’ मास, ‘क्षय’ मास यात फरक पडतो आणि त्यामुळे सर्वच नाही पण काही वर्षांत टिळक पंचांगाच्या आणि चित्रा पक्ष पंचांगांच्या सणांच्या तारखांमध्ये फरक पडतो. तो फरक अधिक महिन्याच्या गणनेमुळे पडतो. त्यामुळे काही वर्षी (उदा. सन 2012) टिळक पंचांगानुसार गणपती ऑगस्ट मध्ये बसले आणि दाते पंचांगानुसार सप्टेंबरमध्ये ! तोच प्रकार दिवाळीच्या बाबतीत घडताना दिसतो. मग स्वाभाविक प्रश्‍न हा पडतो की नक्‍की खरे पंचांग कोणते, टिळक की दाते? वास्तविक, दोन्ही योग्यच. आपण मोजण्यास सुरुवात कोठून करतो यावर ते अवलंबून आहे. त्यामुळे गणितीय दृष्टिकोनातून पाहता दोघांत फरक काही नाही. पण पंचांग हे नुसते ग्रहताऱ्यांचे गणित नसून ते धर्मशास्त्राशी जोडलेले आहे. त्यामुळे त्या दृष्टीने अशा विसंगती लोकांमध्ये भ्रम निर्माण करतात. तेव्हा वाद विसरून सर्वांनी एकच प्रमाण मानून धार्मिक आचरण करणे योग्य.

– समाप्त

लेखक : श्री मंदार दातार 

मो. नं.  9422615876

मो  [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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