“अगं ऐकलंस का, जरा घोटभर आल्याचा चहा देतेस का ? घसा अगदी सुखून गेलाय !”
“पाणी नाहीये !”
“म्हणजे ? आज पाणी आलंच नाही नळाला ?”
“मी असं कुठे म्हटलं ?”
“अगं पण तू आत्ताच म्हणालीस ना की पाणी नाहीये म्हणून !”
“हजारदा सांगितलं कान तपासून घ्या, कान तपासून घ्या, पण माझं मेलीच कोण ऐकतोय ?”
“आता यात माझे कान तपासायच काय मधेच ? मला नीट ऐकू येतंय आणि तूच म्हणालीस की पाणी नाहीये म्हणून, हॊ की नाही ?”
“हॊ मी म्हणाले तसं, पण नळाला पाणी नाहीये असं कुठं म्हणाले ?”
“बरं बाई, चुकलं माझं !”
“नेहमीप्रमाणे !”
“कबूल ! नेहमीप्रमाणे चुकलं ! तू नुसतंच पाणी नाहीये असं म्हणालीस ! पण चहा पुरतं तरी पाणी असेल ना घरात ?”
“अहो यंदा पावसाने सगळ्यांच्या तोंडच पाणी पळवलंय आणि तुम्हांला आल्याचा चहा प्यायची हौस आल्ये ?”
“अगं येईल तो त्याच्या कला कलाने, त्यात काय एवढं ? आता तरी मला जरा घोटभर चहा देशील का ?”
“अजिबात नाही, आधी मला पाच हजार द्या, नवीन साडी घ्यायला मग करते तुमच्यासाठी आल्याचा चहा !”
“आता हे काय मधेच साडीच काढलयस तू ? अजून कपाटातल्या 10-12 साडया एकदा तरी तुझ्या अंगाला लागल्येत का सांग बरं मला ? आणि त्यात ही आणखी एक नवीन साडी घेणार आहेस आणि ती सुद्धा पाच हजाराची ?”
“अहो कालच आमच्या ‘ढालगज महिला मंडळाने’ एक ठराव पास केलाय आणि त्या नुसारच आम्ही सगळयांजणी ही विशिष्ट डिझाईनची नवीन साडी घालून लग्नाला जाणार आहोत !”
“सध्या तरी लग्नाचा कुठलाच मुहूर्त नाही, मग ही पाच हजाराची विशिष्ट डिझाईनची साडी नेसून तुमचं महिला मंडळ कुणाच लग्न अटेंड करणार आहे, हे कळेल का मला ?”
“अहो मी मगाशी म्हटलं नाही का ? या मेल्या पावसाने गडप होऊन सगळ्यांच्या तोंडच पाणी पळवलं आहे म्हणून ?”
“हॊ, पण त्या मेल्या पावसाचा आणि तुम्ही जाणार असलेल्या लग्नाचा काय संबंध ?”
“सांगते नां, तुम्हांला माहितच आहे आपल्याकडे गावा गावातून, जर पाऊस पडला नाही तर तो पडावा म्हणून, भावला भावलीच किंवा बेडूक बेडकीच लग्न लावतात !”
“हॊ, वाचलंय खरं तसं मी पेपरात, पण अशी अनोखी लग्न लावून खरंच पाऊस पडतो यावर माझा अजिबात विश्वास नाही हं !”
“पण आमच्या महिला मंडळाचा आहे नां !”
“म्हणजे आता तुम्ही पाऊस पडावा म्हणून तुमच्या मंडळात असं बेडका बेडकीच किंवा भावला भावलीच लग्न लावणार की काय ? आणि त्या साठी पाच हजाराची नवीन साडी ?”
“अहो आपल्या मुंबईत कुठे मिळणार बेडूक आणि बेडकी लग्न लावायला ?”
“का नाही मिळणार ? अगं तुम्ही क्रॉफर्ड मार्केटला गेलात तर बेडूक आणि बेडकीच काय, मगर किंवा सुसरीची जिवंत जोडी सुद्धा मिळेल त्यांच लग्न लावायला !”
“मिळेल हॊ पण काही प्राणी प्रेमी बायकांचा त्याला विरोध आहे म्हणून….”
“मग भावला भावलीच लग्न लावा की ?”
“अहो आता आम्ही सगळ्याजणी दिसत नसलो, तरी आज्या झालोय म्हटलं ! मग आम्ही भावला भावलीच लग्न लावलं तर लोकं हसतील नाही का आम्हांला !”
“आता भावला भावली नाही, बेडूक बेडकी नाही म्हणतेस, मग तुमच्या लग्नात नवरा नवरी कोण असणार आहेत ते तरी सांग मला ?”
“नळ आणि बादली !”
“का ssss य ssss ?”
“अहो केवढ्यानं ओरडताय ?”
“नळाच आणि बादलीच लग्न लावणार आहे तुमचं ढालगज महिला मंडळ ?”
“मग, त्याला काय झालं ? आपण शहरात राहातो आणि या दोन गोष्टींचा पाण्याशी अत्यंत जवळचा संबंध आहे हे विसरू नका तुम्ही ! आणि पाऊस जर चांगला झाला तरच आपल्या घरात नळाला पाणी येतं हे पण तितकंच खरं आहे नां ?”
“हॊ खरं आहे तू म्हणतेस ते !”
“नेहमीप्रमाणे !”
“हॊ नेहमीप्रमाणे, पण म्हणून या लग्नाला पाच हजाराची साडी ?”
“अहो मी सुरवातीलाच म्हटलं नाही का, आम्ही सगळ्याजणी या लग्नात विशिष्ट डिझाईन केलेली साडी नेसणार आहोत म्हणून !”
“हॊ, पण म्हणून या अशा लग्नाला पाच हजारची साडी घ्यायची म्हणजे….. !”
“अहो आमची प्रत्येक साडी, प्रोफेशनल साडी डिझाईनर कडून स्पेशली बनवून घेतल्यामुळे त्याची किंमत तेवढी असणारच ना आता ?”
“एवढं कसलं डिझाईन असणार आहे त्या साड्यांवर ?”
“अहो मी आत्ताच म्हटलं नां तुम्हांला, की पाऊस पडावा म्हणून आम्ही आमच्या मंडळात नळाच आणि बादलीच लग्न लावणार आहोत म्हणून ?”
“हॊ ! “
“अहो म्हणूनच आमच्या प्रत्येकीच्या साडीचा रंग जरी वेगळा असला, तरी या लग्नाचा पावसावर इम्पॅक्ट पडण्यासाठी आमच्या सगळ्या साड्यांवर वेगवेगळ्या साईझचे व डिझाईनचे नळ असणार आहेत आणि त्याच्या जोडीला वेगवेगळ्या आकाराच्या आणि रंगाच्या बादल्या पण असणार आहेत !”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा
(इस आलेख को हम देवशयनी (आषाढ़ी) एकादशी के पावन पर्व पर साझा करना चाहते थे। किन्तु, मुझे पूर्ण विश्वास है कि- आपको यह आलेख निश्चित ही आपकी वारी से संबन्धित समस्त जिज्ञासाओं की पूर्ति करेगा। आज के विशेष आलेख के बारे में मैं श्री संजय भारद्वाज जी के शब्दों को ही उद्धृत करना चाहूँगा। –
श्रीक्षेत्र आलंदी / श्रीक्षेत्र देहू से पंढरपुर तक 260 किलोमीटर की पदयात्रा है महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी। मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि- वारी की जानकारी पूरे देश तक पहुँचे, इस उद्देश्य से 11 वर्ष पूर्व वारी पर बनाई गई इस फिल्म और लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। अनुरोध है कि महाराष्ट्र की इस सांस्कृतिक परंपरा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने में सहयोग करें। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। 🙏
भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।
स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।
पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।
पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।
वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।
अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।
अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।
हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार।
वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है-‘ जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’
चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी. की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।
वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-
विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएँ इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँव में 10 लाख वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है। ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
रोजाना 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।
हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
जाने एवं लौटने की 33 दिनों की यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक व्यवहार होता है।
हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं।
हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।
एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘होऽऽ’ का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।
वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है।
वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।
राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।
वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है। प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवणकुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं तो संत जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।
वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है। ‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत……’, हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियाँ अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये ,पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-
कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर
पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर
भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।
भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति भी जुटते हैं। ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।
वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।
आनंद का असीम सागर है वारी..
समर्पण की अथाह चाह है वारी…
वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..
जन्म से मरण तक की वारी…
मरण से जन्म तक की वारी..
जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी……
वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है।
विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में – महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “कोशिशों की कशिश”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 105 ☆
☆ कोशिशों की कशिश☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆
संवेदना की वेदना को सहकर सफ़लता का शीर्ष तो मिलता है पर सुकून चला जाता है लेकिन फिर भी हम दौड़े जा रहे हैं एक ऐसे पथ पर जहाँ के आदि अंत का पता नहीं। अपनी फोटो को अखबारों में देखकर जो सुकून मिलता है क्या उसे किसी पैरामीटर में नापा जा सकता है। अखबारों की कटिंग इकठ्ठा करते हुए पूरी उम्र बीत गयी किन्तु आज तक मोटिवेशनल कॉलम लिखने को नहीं मिला और मिलेगा भी नहीं क्योंकि जब तक विजेता का टैग आपके पास नहीं होगा तब तक कोई पाठक वर्ग आपको भाव नहीं देगा।
माना अच्छा लिखना और पढ़ना जरूरी होता किन्तु प्रचार- प्रसार की भी अपनी उपयोगिता होती है। कड़वा बोलकर जो आपकी उन्नति का मार्ग बनाता वो सच्चा गुरु होता है, बिना दक्षिणा लिए आपको जीवन का पाठ पढ़ा देते हैं। ऐसे कर्मयोगी समय- समय पर राह में शूल की तरह चुभते हैं , ये आप पर है कि आप उसे फूल के रक्षक के रूप में देखते हैं या काँटे की चुभन को ज्यादा प्राथमिकता देकर विकास का मार्ग अवरुद्ध कर लेते हैं।
बातों ही बातों में रवि , कवि, अनुभवी से भी बलवान मतलबी निकला जो अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु कुछ भी कर सकता है, कुछ भी सह सकता है पर सफलता का स्वाद नहीं भूल सकता।
बहुत ही सच्ची और अच्छी बात जिसने भी ये लिखा अवश्य ही वो ज्ञानी विज्ञानी है। ध्यान से चिन्तन करें तो पायेंगे कि जैसी हमारी मनोदशा होती है वैसे ही शब्दों के भाव हमें दिखने लगते हैं यदि मन प्रसन्न है तो सामने वाला जो भी बोलेगा हमें मीठा ही लगेगा किन्तु यदि मन अप्रसन्न है तो सीधी बात भी उल्टी लगती है और बात का बतंगड़ बन झगड़ा शुरू हो जाता है।मजे की बात जब जेब में पैसे की गर्मी हो तो वाणी अंगारे उगलने से नहीं चूकती है। बस सारी हकीकत सामने आते हुए समझौते को नकार कर केवल अपने सिक्के को चलाने का जुनून सिर पर सवार हो जाता है। लगातार कार्य करते रहें तो अवश्य ही मील का पत्थर बना जा सकता है। केवल थोड़े दिनों की चमक में गुम होने से आशानुरूप परिणाम नहीं मिलते। जो भी करें करते रहें। जब समाज के हितों की बात होगी तो राह और राही दोनों मिलने लगेंगे। बस सबको साथ लेकर आगे चलें, लीडर का गुण आगे बढ़ते हुए सारी जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेकर महत्वपूर्ण निर्णयों पर एक सुर से आवाज उठाना होता है।
अंततः यही कहा जा सकता है कि धैर्य रखें, हमेशा सकारात्मक चिन्तन करें। सफ़लता स्थायी नहीं होती अतः कर्म करते रहें और तन मन धन से समर्पित हो सबके मार्ग को सहज बनावे। आप कर्ता नहीं हैं केवल कर्मयोगी हैं कर्ता मानने की भूल ही आपको अवसाद के मार्ग तक पहुँचा देने में सक्षम है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री भावना शर्माजी की पुस्तक “अनहद नाद” की पुस्तक समीक्षा।)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘अनहद नाद’ – सुश्री भावना शर्मा ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
☆ काव्य में गूंजता अनहद नाद – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆
भावों का रेचन ही साहित्य की उत्पत्ति का मूल है। साहित्य अपने भावों को व्यक्त करने के लिए मनोगत प्रवाह को ढूंढ लेता है। यदि मनोगत भाव कथा, कहानी, व्यंग्य, हास्य, कविता, मुक्तक, दोहे, सोरठे के अनुरूप होता है उसी में साहित्य सर्जन की लालसा उत्पन्न हो जाती है। तदुनुरूप रचनाकार की लेखनी चल पड़ती है।
इस मायने में भाव का रेचन यदि काव्यानुरूप हो तो काव्य पंक्तियां रचती चली जाती है। इस रूप में भावना शर्मा की प्रस्तुत पुस्तक अनहद नाद की चर्चा अपेक्षित है। पेशे से शिक्षिका भावना शर्मा एक बेहतरीन शिक्षिका होने के साथ-साथ भाव की अभिव्यक्ति को सशक्त ढंग से व्यक्त करने वाली कवियित्री भी है।
कवि हृदय बहुत कोमल कांत और धीरगंभीर होता है। उन्हें भावना, संवेदनहीन शब्द और करारा व्यंग्य अंदर तक सालता रहता है। यही विद्रूपताएं, विसंगतिया और सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, असंगति उन्हें अंदर तक प्रभावित करती है। तभी अनहद नाद जैसी काव्य पुस्तक सृजित हो पाती है।
प्रस्तुत पुस्तक में 105 कविताओं में कवियित्री ने अपनी पीड़ा को व्यक्त किया है। आपने प्रकृति, जीव-जंतु, मानव, गीत-संगीत, घर-परिवार, मित्र-साथी, दोस्त, लड़का-लड़की, सपने, धुन, भाव-विभाव, चाहत, आशा-निराशा, मौसम, सपने, पशु-पक्षी यानी हर पहलू पर अपनी कलम चलाई है।
ना भूल जाने की कैफियत हूं
ना याद आने का जलजला।
कभी बरसों से पड़ी धूल हूं
कभी रोज का सिलसिला ।।
कवियित्री कहती है-
कभी बात को कभी सवालात को
कभी मुस्कुराहट में छुपे हालात को
समझ जाना मायने रखता है।
भावों की जितनी सरलता, सहजता इन की कविता में है उतनी ही सरलता और सहजता उनकी भाषा में भी है।
उन अधबूनी चाहतों को
मैं यूं आजमाना चाहती हूं।
तेरी अंगुलियों को सहेज कर हाथों में
मैं मुस्कुराना चाहती हूं।।
जैसी सौंदर्य से परिपूर्ण और काव्य से भरपूर इस पुस्तक के काव्य सौंदर्य की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। 130 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹200 वाजिब है । साफ-सफाई, साज-सज्जा व त्रुटि रहित मुद्रण ने पुस्तक की उपयोगिता में वृद्धि की है।
काव्य साहित्य में कवियित्री अपनी पहचान बनाने में सक्षम होगी। यही आशा है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – हरितमा फूल फल लकड़ी और आक्सीजन… ।)
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
इसी प्रकार दूसरा प्रसंग जनकपुरी में पुष्पवाटिका का है, जहां राम-लक्ष्मण गुरु की आज्ञा से पुष्प लेने के लिए जाते हैं। वहां उसी समय सीता जी माता की आज्ञा से गौरि देवि के पूजन को जाती हैं। मंदिर उसी बाग के तालाब के किनारे है। वहां आकस्मिक रूप से राम ने सीता जी को देखा और मोहित हो गये तथा सीता जी ने सखी के कहने पर श्रीराम की एक झलक देखी। उनकी सौम्य सुन्दर मूर्ति को देखकर उन्हें उनके प्रति आकस्मिक रुचि व अनुराग पैदा हुआ। इस सांसारिक सत्य के मनोभावों को कवि ने इन पंक्तियों से भारतीय मर्यादा को रखते हुये कैसा सुन्दर चित्रित किया है? संकेतों का आनंद लीजिये। (आज का उच्छं्रखल व्यवहार जो देखा जाता है उससे तुलना करते हुये देखिये)- राम लक्ष्मण से सीता को देखकर कहते हैं-
तात जनक तनया यह सोई धनुष यज्ञ जेहिकारण होई।
पूजन गौरि सखी लै आई, करत प्रकाश फिरई फुलवाई।
करत बतकही अनुज सन मन सियरूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छवि करइ मधुप इव पान॥
सीताजी ने भी रामजी के दर्शन सखी के द्वारा कराये जाने पर किये-
लता ओट जब सखिन लखाये स्यामल गौर किसोर सुहाये।
देखि रूप लोचन ललचाने हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥
लोचन मन रामहि उर आनी, दीन्हे पलक कपाट सयानी।
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी, कहि न सकहि कछु मन सकुचानी॥
केहरि कटि पटपीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥
देखन मिस मृग विहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छवि बाढ़इ प्रीति न थोरि।
सीता मंदिर में पूजा करके गौरी माता से मन में ही प्रार्थना करती हैं-
मोर मनोरथ जानहु जीके। बसहु सदा उरपुर सबही के।
कीन्हेऊ प्रकट न कारण तेहीं। अस कह चरण गहे बैदेही॥
देवि ने प्रार्थना स्वीकार की-
विनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरत मुसुकानी।
सादर सिय प्रसाद सिर धरऊ। बोली गौरि हरषु हिय भरऊ॥
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजहि मनकामना तुम्हारी।
जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाय कहि।
मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे॥
बिना किसी वार्तालाप के मौन ही मन के भाव बड़ी शालीनता से कवि ने दोनों श्रीराम और सीताजी के व्यक्त करते हुये शुभ-शकुनों के संकेतों से मधुर प्रेमभावों को प्रकट किया है।