हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 15 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 15 ??

लोकपरंपराओं, लोकविधाओं- गीत, नृत्य, नाट्य, आदि का जन्मदाता कोई एक नहीं है। प्रेरणास्रोत भी एक नहीं है। इनका स्रोत, जन्मदाता, शिक्षक, प्रशिक्षक, सब लोक ही है। गरबा हो, भंगड़ा हो,  बिहू हो या होरी, लोक खुद इसे गढ़ता है, खुद इसे परिष्कृत करता है। यहाँ जो है, समूह का है। जैसे ॠषि परंपरा में सुभाषित किसने कहे, किसने लिखे का कोई रेकॉर्ड नहीं है, उसी तरह लोकोक्तियों, सीखें किसी एक की नहीं हैं। परंपरा की चर्चा अतीतजीवी होना नहीं होता। सनद रहे कि अतीत के बिना वर्तमान नहीं जन्मता और भविष्य तो कोरी कल्पना ही है। जो समुदाय अपने अतीत से, वह भी ऐसे गौरवशाली अतीत से अपरिचित रखा जाये. उसके आगे का प्रवसन सुकर कैसे होगा? विदेशी शक्तियों ने अपने एजेंडा के अनुकूल हमारे अतीत को असभ्य और ग्लानि भरा बताया। लज्जित करने वाला विरोधाभास यह है कि निरक्षरों का ‘समूह’, प्राय: पढ़े-लिखों तक आते-आतेे ‘गिरोह’ में बदल जाता है। गिरोह निहित स्वार्थ के अंतर्गत कृत्रिम एकता का नारा उछालकर उसकी आँच में अपनी रोटी सेंकता है जबकि समूह एकात्मता को आत्मसात कर, उसे जीता हुआ एक साथ भूखा सो जाता है।

लोक का जीवन सरल, सहज और अनौपचारिक है। यहाँ छिपा हुआ कुछ भी नहीं है। यहाँ घरों के दरवाज़े सदा खुले रहते हैं। महाराष्ट्र के शिर्डी के पास शनैश्वर के प्रसिद्ध धाम शनि शिंगणापुर में लोगों के घर में सदियों से दरवाज़े नहीं रखने की लोकपरंपरा है। कैमरे के फ्लैश में चमकने के कुछ शौकीन ‘चोरी करो’(!) आंदोलन के लिए वहाँ पहुँचे भी थे। लोक के विश्वास से कुछ सार्थक घट रहा हो तो उस पर ‘अंधविश्वास’ का ठप्पा लगाकर विष बोने की आवश्यकता नहीं। खुले दरवाज़ों की संस्कृति में पास-पड़ोस में, मोहल्ले में रहने वाले सभी मामा, काका, मामी, बुआ हैं। इनमें से कोई भी किसीके भी बच्चे को अधिकार से डाँट सकता है, अन्यथा मानने का कोई प्रश्न ही नहीं। इन आत्मीय संबोधनों का परिणाम यह कि सम्बंधितों के बीच  अपनेपन का रिश्ता विकसित होता है। गाँव के ही संरक्षक हो जाने से अनैतिक कर्मों और दुराचार की आशंका कम हो जाती है। विशेषकर बढ़ते यौन अपराधों के आँकड़ों पर काम करने वाले संबोधन द्वारा उत्पन्न होने वाले नेह और दायित्व का भी अध्ययन करें तो तो यह उनके शोध और समाज दोनों के लिए हितकर होगा।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #137 ☆ ख्वाब में कितना मीठापन… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक भावप्रवण रचना “ख्वाब में कितना मीठापन…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 137 – साहित्य निकुंज ☆

☆ ख्वाब में कितना मीठापन… 

वादा करके किधर गये

उससे क्या तुम मुकर गये।

 

बीत गई है सदिया सारी

दिन इंतजार में गुजर गए ।

 

ख्वाब में कितना मीठापन

आँख खुली तो बिखर गये।

 

जिनके चेहरे पर मुखौटा

वे सारे ही चेहरे उतर गये।

 

तुमसे सारी ही है उम्मीदे

उनके सब चेहरे सवंर गये।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #126 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “संतोष के दोहे… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 126 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

एक रँग एक रूप हैं, पर हैं नाम अनेक

इश्क़, मुहब्बत, प्यार, वफ़ा, लगे प्रेम पर नेक

 

बहता दरिया प्रेम का, जिसका ओर न छोर

शीतल करता दिल वही, किये बिना कुछ शोर

 

चढ़िए मंज़िल इश्क़ की, पहली सीढ़ी नैन

कदम कभी रुकते नहीं, कभी न आता  चैन

 

व्हाट्सऐप पर कहें, अपने दिल की बात

फेसबुक पर दिखा रहे, झूठे सब जज्बात

 

दिखतीं इंस्टाग्राम पर, मन मोहक तसवीर

कितनी सच्ची-झूठ हैं, खींचें कौन लकीर

 

जाने कैसे पनपता, यह मायाबी प्यार

आया सोशल मीडिया, ले कर नव उपहार

 

लिवरिलेशन प्यार बढ़ा, रहा न नीति विचार

मात-पिता दर्शक बने, खूब हुए लाचार

 

बदल गए अब मायने, प्यार हुआ बदनाम

मर्यादाएं भंग हुईं, करते खोटे काम

 

मुख से जो बोले नहीं, करे नैन से बात

समझें बस प्रेमी सभी, कहे बिना जज्बात

 

सच्चे प्रेमी यूँ रहें, जैसे जल में मीन

बिछुरत ही तडफें सदा, प्राण गए ज्यूँ छीन

 

प्रेमी ऐसे मिल रहे, जैसे हल्दी चून

इक दूजे में खो गए, ख़ुशियाँ होती दून

 

मीठा लगता शहद सा, पहला पहला प्यार

खुशी मिले “संतोष” सँग, हर्षित हों सब यार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ ‘वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड लंदन’ द्वारा ‘साहित्य संगम संस्थान’ से प्रकाशित ‘अविचल प्रभा ई पत्रिका’ सम्मानित ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

प्रधान सम्पादिका – अविचल प्रभा ई पत्रिका

? वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड लंदन द्वारा साहित्य संगम संस्थान से प्रकाशित अविचल प्रभा ई पत्रिका सम्मानित ?  

नई दिल्ली, साहित्य संगम संस्थान, नई दिल्ली द्वारा जबलपुर मध्यप्रदेश में 18 जून 2022 को आयोजित महाकाव्यमेध वार्षिकोत्सव में संस्थान द्वारा प्रकाशित अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका के नशा मुक्ति विशेषांक को वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड लंदन के सम्मान से सम्मानित किया।

जबलपुर के होटल दत्त रेजीडेंसी में आयोजित महाकाव्यमेध सम्मान समारोह एवं वार्षिकोत्सव की संयोजिका छाया सक्सेना ने राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी डॉ. राजेश पुरोहित को बताया कि अविचल प्रभा के नशा मुक्ति विशेषांक को यह सम्मान तिथि भल्ला, जनरल सेकेट्री, वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड के कर कमलों से प्रदान किया गया।

पत्रिका के इस अंक में 1021 रचनाकारों की नशामुक्त समाज पर केंद्रित रचनाओं को शामिल किया गया है ।

इस सत्र में मंचासीन मुख्य अतिथि, आचार्य भानुप्रताप वेदालंकार, कार्यक्रम अध्यक्ष, राजवीर सिंह मन्त्र, विशिष्ट अतिथि, एड.नरेन्द्र दत्त, कविराज तरुण सक्षम, डॉ. राजेश कुमार पुरोहित,डॉ. छगनलाल गर्ग विज्ञ, चंद्रपाल दादा रहे।

? ई-अभिव्यक्ति की ओर से इस अभूतपूर्व उपलब्धि के लिए अविचल प्रभा ई पत्रिका के सभी सदस्योंको हार्दिक बधाई ?

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 3 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

वनयात्रा में ही एक अन्य सुन्दर प्रसंग आता है जहां ग्रामीण स्त्रियां नारि सुलभ उत्सुकता से सीता जी ने प्रश्न करती हैं और सीता जी ने बिना शब्दों का उपयोग किये भारतीय मर्यादा की रक्षा करते हुये उनसे पति का नाम लिये बिना नारि की स्वाभाविकता शील को रखते हुये केवल अपने सहज हावभाव से उन्हें राम और लक्ष्मण से उनका क्या संबंध है बताती हैं-

ग्राम्य नारियां पूंछती हैं-

कोटि मनोज लजावन हारे, सुमुखि कहहु को आंहि तुम्हारे।

सुनि सनेहमय मंजुल वाणी, सकुची सिय मन महुँ मुसकानी॥

सीता जी के उत्तर को कवि यूं वर्णन करता है-

तिन्नहिं बिलोकि विलोकत धरनी, दुहुं सकोच सकुचत बरबरनी।

सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी, बोली मधुर वचन पिकबयनी॥

सहज सुभाय सुभग तन गोरे, नाम लखनु लघु देवर मोरे।

बहुरि बदन बिधु लोचन ढाँकी, प्रियतन चितई भौंह कर बाँकी।

खंजन मंजु तिरीछे नयननि, निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सयननि।

भई मुदित सब ग्राम वधूटी, रंकन्ह राय रासि जनु लूटी।

ग्राम वघूटियों ने सीता जी को प्रसन्न हो ग्रामीण भाषा और वैसी ही उपमा में आशीष दिया-

अति सप्रेम सिय पाँय परि, बहुविधि देहिं असीस।

सदा सोहागनि होहु तुम्ह, जब लगि महि अहि सीस॥

कितना भोला और पावन व्यवहार है जो तुलसी ने संकेतों का उपयोग कर प्रस्तुत किया है।

इसी प्रकार हनुमान जी के माँ जानकी की खोज में लंका पहुंचने पर जो उनके लिये सर्वथा नयी अपरिचित जगह थी, उन्हें न तो राह बताने वाला कोई था और न सीता जी का पता ही बताने वाला था। तुलसीदास जी ने शब्द संकेतों व चित्रित चिन्हों से राम भक्त विभीषण को पाया जिसने माता सीता जी तक पहुंचने की युक्ति बताई और पता समझाया। वर्णन है-

रामायुध अंकित गृह शोभा बरनि न जाय।

नव तुलसिका वृन्द तहं देखि हरष कपिराय॥

लंका निसिचर निकर निवासा, इहां कहां सज्जन कर वासा।

मन महुँ तरक करै कपि लागा, तेही समय विभीषण जागा।

राम-राम तेहिं सुमिरन कीन्हा, हृदय हरष कपि सज्जन चीन्हा।

एहि सन हठ करहहुं पहिचानी, साधुते होई न कारज हानि॥

इस प्रकार कठिन समय में संकेतों से कथा को मनमोहक रूप दे आगे बढ़ाया है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ दिंडी… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

? कवितेचा उत्सव  ?

☆ दिंडी…   सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆ 

दिंड्या चालल्या चालल्या

पंढरीच्या  वाटेवर

 वाट पहाते माऊली

 उभी तिथे विटेवर

 

  टाळ चिपळ्यांचा नाद

  सारा पावित्र्याचा वास

  वारकऱ्यांच्या पोटाला

  देई  माऊलीच घास

 

 मुखी विठ्ठल विठ्ठल

पाय तालावर  पडे

डोईवरची तुळस

भेटीलागी मन वेडे

 

 काळ्या ढगातून कधी

 विठू झरझर झरे

  पंढरीच्या वाटेवर

  विठूमय शेतशिवारे

 

 विठ्ठलाचा नामधोष

 नीत्य कानावर येतो

 वारकऱ्यांच्या वेषात

 मज सावळा भेटतो

विठ्ठल विठ्ठल  एकनाथ नामदेव तुकाराम 🙌

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #130 – ☆ संत तुकडोजी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 130 – विजय साहित्य ?

☆ संत तुकडोजी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

इंगळे कुलात | संत तुकडोजी |

माणिक बंडोजी | महाराज ||. १

 

माऊली मंजुळा | वडील बंडोजी |

गुरू आडकोजी | यावलीत || २

 

ग्राम विकासाचा| घेऊनीया ध्यास |

विवेकाची कास | पदोपदी || ३

 

स्वयंपूर्ण खेडे | सुशिक्षित ग्राम |

ग्रामोद्योग धाम | आरंभीलें || ४

 

सार्थ समन्वय | ऐहिक तत्त्वांचा |

पारलौकीकाचा | उपदेश || ५

 

खंजिरी भजन | राष्ट्रसंत मान |

संस्कारांचे वाण | तुकडोजी || ६

 

व्यसना धीनता | काढलीं मोडून |

घेतली जोडून | तरुणाई || ७

 

शाखोपशाखांचे | गुरू कुंज धाम |

सुशिक्षित ग्राम | सेवाव्रत || ८

 

नको रे दास्यात | नको अज्ञानात |

नारी प्रपंचात | पायाभूत || ९

 

कुटुंब व्यवस्था | समाज व्यवस्था  |

राष्ट्रीय व्यवस्था | शब्दांकित || १०

 

नको अंधश्रद्धा | सर्व धर्म एक |

विचार हा नेक | रूजविला || ११

 

कालबाह्य प्रथा | केलासे प्रहार |

विवेकी विचार | अभंगात || १२

 

एकात्मता ध्यास | केले प्रबोधन |

दिलें तन मन | अनुभवी || १३

 

लेखन विपुल | कार्य केले थोर |

राष्ट्र भक्ती दोर | तुकडोजी || १४

 

कार्य अध्यात्मिक | आणि सामाजिक |

साहित्य वैश्विक | ग्रामगीता || १५

 

कविराज लीन | टेकविला माथा |

तुकडोजी गाथा | वर्णियेली || १६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ निसर्गायन – खेड्यामधले घर कौलारू ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

? विविधा ?

☆ निसर्गायन – खेड्यामधले घर कौलारू ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

निसर्ग जेवढा आपल्या डोळ्यांनी आपल्याला बाहेर दिसतो, तेवढाच तो मनामनात खोलवर रुजलेला असतो. आपलं बालपण  गेलं, त्या ठिकाणच्या आठवणी या बहुतांशी निसर्गाशी निगडित असतात. कोणाला आपल्या गावातली नदी आठवते, कोणाला आपली शेत, त्या शेतातली झाडं , त्या झाडांशी निगडित असलेल्या अनेक आठवणी असं हे निसर्गचित्र तुमच्या आमच्या मनात पक्कं रुजलेलं असतं . ती  झाडं , ते पशुपक्षी तुमच्या आमच्या मनाच्या आठवणींचा एक कप्पा व्यापून असतात. आपल्याकडे निरनिराळ्या समारंभाचे फोटो काढलेले असतात. त्याचे विविध अल्बम आपण आठवणी म्हणून जपून ठेवतो. पण कधी कधी या फोटोंमधले रंग फिके होऊ लागतात. चित्र धूसर होतात. पण मनामधला निसर्ग मात्र पक्का असतो. त्याचे रंग कधीही फिके होत नाहीत. उलट जसजसे वय वाढत जाते,  तसतसे ते रंग गडद, अधिक गहिरे होत जातात. त्याचा हिरवा रंग मनाला मोहवीत असतो. 

तुम्ही कामानिमित्त शहरात राहायला गेलेले असा, लॉकडाऊन मुळे घरात अडकलेले असा, तुमचा फ्लॅट, तुमचं घर छोटं असो की मोठं, तुमच्या मनात बालपणाचा तो निसर्ग ठाण मांडून बसलेला असतो. कोकणातून मुंबईत कामानिमित्त येणारे चाकरमानी, खेड्यापाड्यातून कामानिमित्त मुंबई पुण्याला स्थायिक झालेली माणसं ही सगळी वर्षातून एकदा तरी आपल्या गावी जायला मिळावं म्हणून केवढी आसुसलेली असतात. त्यांचं गाव, त्या गावातला निसर्ग त्यांना बोलावत असतो. त्याची ओढ असते. आणि तिथे गेल्यावर काय होतं  ? जणू जादू होते. शहरामध्ये दररोजच्या कामाने त्रासलेला तो जीव, तिथे गेल्यानंतर ताजातवाना होतो. जणू जादूची कांडी फिरते. काय विशेष असते त्या गावात असे ? पण ते विशेष त्यालाच माहिती असते, ज्याने तिथे आपले बालपण घालवलेले असते.   कवी अनिल भारती यांची ‘ खेड्यामधले घर कौलारू ..’ ही रचना पहा. किती साधे आणि सोपे शब्द.. ! पण त्यातला गोडवा किती कमालीचा…! मालती पांडे यांनी गायीलेलं हे गीत आपल्यापैकी बऱ्याच जणांनी ऐकलंही असेल. 

आज अचानक एकाएकी 

मानस तेथे लागे विहरू 

खेड्यामधले घर कौलारू. 

पूर्व दिशेला नदी वाहते 

त्यात बालपण वाहत येते 

उंबरठ्याशी येऊन मिळते 

यौवन लागे उगा बावरू 

माहेरची प्रेमळ माती 

त्या मातीतून पिकते प्रीती 

कणसावरची माणिक मोती 

तिथे भिरभिरे स्मृती पाखरू 

आयुष्याच्या पाऊलवाटा 

किती तुडविल्या येता-जाता 

परि आईची आठवण येता 

मनी वादळे होती सुरु. 

अगदी साधे सोपे शब्द. पण त्या शब्दात ताकद केवढी ! जणू तुम्हाला त्या वातावरणात घेऊन जातात ते शब्द.

शब्द आपल्याला वाटतात तेवढे साधे नसतात. त्यांना आठवणींचा गंध असतो. पहिल्या पावसाने माती ओली होते. एक अनामिक पण हवाहवासा वाटणारा गंध आपल्यापर्यंत पोहचवते. जसं आपण म्हणतो, फुलाला सुगंध मातीचा, तसाच मातीलाही स्वतःचा एक सुगंध असतो. तो सुगंध आणतात त्या पावसाच्या धारा. जसा मातीला गंध असतो, तसाच शब्दांनाही गंध असतो. आणि तो गंध अनेक आठवणी आपल्यासोबत घेऊन येतो. 

वरच्या कवितेतलं दुसरं कडवं नदीशी संबंधित आहे. कुणीतरी असं म्हटलंय की ज्याच्या गावात नदी असते, त्याचं बालपण समृद्ध असतं . आणि ते खरंच आहे. नद्यांना केवढं मोठं स्थान आपल्या जीवनात आहे ! प्रत्येकाच्या गावातली नदी छोटी असेल किंवा मोठी, पण तिच्याशी त्याच्या अनेक आठवणी निगडित असतात. गंगा, यमुना, सरस्वती या नद्यांची नुसती नावं घेतली तरी त्यांच्याशी संबंधित अनेक गोष्टी आपल्याला आठवतात. कुठेतरी लग्नात गुरुजींनी म्हटलेले मंगलाष्टक आठवते. कुठे अलाहाबादचा त्रिवेणी संगम आठवतो. तसंही ज्याच्या त्याच्या गावातली नदी ही त्याच्यासाठी गंगेसारखीच पवित्र असते. जेव्हा लोक नासिकला जातात आणि गोदावरीत स्नान करतात, किंवा तिथे जाऊन येतात, तेव्हा मी गोदावरीवर गेलो होतो असं म्हणत नाहीत. मी गंगेवर गेलो होतो असंच म्हटलं जातं . 

या कवितेचं तिसरं कडवं बघा. गावाकडची ओढ का असते लोकांना ? तर ‘ माहेरची प्रेमळ माती..’ ही माती केवळ अन्नधान्य पिकवीत नाही. त्या मातीतून प्रीती म्हणजेच प्रेमही पिकतं. शेतातल्या कणसांना जे दाणे लागतात, ते माणिक मोत्यांसारखे मौल्यवान आहेत. आणि त्याच्याशी कवीच्या स्मृती निगडित आहेत. स्मृतींचं पाखरू जणू तिथं घिरट्या घालत असतं . आणि शेवटचं कडवं तर अप्रतिमच. आयुष्यात आपण सुख दुःखाच्या, संकटांच्या अनेक पाऊलवाटा तुडवतो. पण त्याचं फार काही वाटत नाही आपल्याला. पण जेव्हा आईची आठवण होते, मग ती आपली आई असो वा काळी आई म्हणजे शेती, तिची आठवण आली की मनात वादळे सुरु होतात. मन तिच्या आठवणीने आणि ओढीने बेचैन होते. 

असा हा निसर्ग आपल्याला समृद्ध करीत असतो. त्याच्यात आणि आपल्यात एक अतूट नातं असतं . खरं म्हणजे आपणही निसर्गाचाच एक भाग असतो. पण आपलं अलीकडंच जीवनच असं काही झालं आहे, की ते नातं तुटायची वेळ जणू काही येते. आणि माणसाच्या जीवनातून निसर्ग वजा केला तर, काहीच शिल्लक राहणार नाही.

मला कधी कधी भीती वाटते ती पुढच्या पिढीची. जी शहरातून राहते आहे. आणि निसर्गाच्या या सुंदर वातावरणाला आणि अनुभवाला पारखी होते आहे. याचा बराचसा दोष आमच्याकडेही जातो. आम्ही लहानपणी जी नदी पाहिली , अनुभवली ती आता आम्ही आमच्या मुलांना, भावी पिढीला अनुभवायला देऊ शकू का ? आम्हाला जसा निसर्गाचा लळा लागला, तसा त्यांना लावता येईल का ? त्यांच्या चार भिंतीच्या पुस्तकी शिक्षणात निसर्ग शिक्षणाला स्थान असेल का ? पुस्तकातल्या माहितीवर जशी आम्ही त्यांची परीक्षा घेतो, तशी त्यांना निसर्गज्ञान, निसर्ग अनुभव देऊन घेता येईल का ? त्यांना जंगलं , प्राणी, पक्षी हे अनुभवायला देता येतील का ?  मोबाईल, टीव्ही, सिनेमे, पुस्तके यांच्यापलीकडेही एक वेगळे जग अस्तित्वात आहे याची जाणीव आम्हाला त्यांना करून देता येईल का ? सध्या तरी या प्रश्नांची उत्तरे नकारार्थी आहेत. त्यासाठी वेगळे स्वतंत्र प्रयत्न करावे लागतील. अन्यथा पर्यावरण दिवस, वसुंधरा दिन इ साजरे करून आपण आपल्या मनाचे समाधान फक्त करून घेऊ. 

© श्री विश्वास देशपांडे

चाळीसगाव

९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ काना मात्रा वेलांटी….भाग – 3 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? जीवनरंग ❤️

काना मात्रा वेलांटी….भाग – 3 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सुरुचीसाठी आदर्श निबंध  लिहायला हवा.असे मी ठरवते आता पुढे..)

सुरुचीच्या आणि माझ्या वयातलं अंतर! ती उमलणारी बालिका आणि माझे पक्व मन.खऱ्या खोट्यातून गेलेली मी. जागोजाग धुक्कळ पसरलेले. पण तरीही मला हे अंतर पार करून तिच्या लेव्हल पर्यंत जायला हवेच.

ऑफिसातला हाही दिवस माझा नेहमी प्रमाणे गेला. कामात गुंतलेला.मिलवानीची  चार्जशीट तयार झाली. रमीला काटदरे येऊन गेली. वाटत होती तेवढी ती लेचीपेची नव्हती. चांगली संतुलित आणि कणखर दिसली.

लंच टाईम जरा हलकाफुलका रिकामा गेला.

सुरेंद्र पांडे भविष्य पहायचा. तो सहज म्हणाला

” मॅडम आज मी तुमचा हात पाहतो.”

तशी स्टाफशी   माझी रिलेशन्स खेळीमेळीची आहेत. कधी कामापुरते वाद-विवाद होतात. वातावरण उष्ण आणि गढूळ होते. पण पुन्हा उडालेला धुरळा जमिनीवर बसतो आणि हवा मोकळी स्तब्ध शांत होते.

सुरेंद्र ला मी हात दाखवला.

” हं बघा.

त्यांनी माझा हात उलटासुलटा करून पाहिला. सांगितलं मात्र काहीच नाही. शेवटी मीच कंटाळून म्हणाले,

” अरे! काहीतरी सांग. वाईट असलं तरी चालेल मला.”

” मॅडम तुम्ही फार चांगल्या आहात!पण तुम्हाला चंद्रबळ कमी आहे. त्यामुळे मानसिक सौख्य कमी. तुम्ही सगळ्यांसाठी झटता. पण तुमच्या कृतीचे सगळीकडेच चुकीचे अर्थ निघतात.  पण आयुष्याच्या उत्तरार्धात तुम्ही बऱ्याच अध्यात्मिक बनाल.”

” का कोण जाणे! पण थोडीशी मी डिप्रेस्ड झाले. क्षणभर मनात आलं सुरेंद्र ला खरंच कळत असेल का काही .थोडेसे त्यांनी बरोबर हे सांगितले. पण मनाला बजावलं. आपण बुद्धिवादी आहोत.  one must master our stars या विचारांचे आहोत. मनाची अशी घसरगुंडी होता नये.

पुन्हा केबिनमध्ये गेले. उगीचच माझीच केबिन मला नव्यासारखी आणि परकी वाटू लागली. भिंतीवरचे गांधी, नेहरू, सुभाषचंद्र बोस ,इंदिराजींचे फोटो कोपर्‍यातली पृथ्वी, टेबलावरच्या ग्लास मधून दिसणारी कॅलेंडर्स,मॅथेमॅटिकल टेबल्स, कुणाकुणाचे पत्ते, वुमन मॅगझीन मधले माझ्या मुलाखतीचे कात्रण. पण त्या सर्व नीरस, रंगहीन कागदामध्ये एक चित्र होतं! विस्मयाने काढलेले.  अनेक रंगांनी रंगवलेलं. एक घर होतं. पक्षी होते. उंच झाडे होती. दोन समांतर रेषा घरापासून निघालेल्या.ती एक वाट होती. दूर दूर जाणारी. या टोकापासून त्या टोकापर्यंत.

संध्याकाळची वेळ.  दिवस संपत आल्याची चाहूल देणारी.

ऑफिस ते घर. परतीचा प्रवास. पुन्हा घराचे विचार. सकाळचं विस्मयाचं ठणठणीत बोलणं आठवलं.

” तुला वेळच नसतो  आमच्याशी बोलायला.”

आजचा दिवस मात्र चांगलाच समजायचा. नाही तर रोज काही ना काही कारणावरून ऑफिस मधून परतायला उशीर होतोच. आज ऑफिसर्स कोआॅर्डीनेशन मिटींगला जाण्याचे टाळले म्हणून. पुढल्या सेशनला  चंद्रमणी बोलेलंच काहीतरी. नोकरी करणाऱ्या स्त्रियांविषयी त्याला फारच राग आहे. म्हणजे तसं आपण कधीही मिटिंग चुकवत नाही पण आज सकाळीच सुरुची ला प्रॉमिस केले होते . तिचा निबंध आज लिहून दिलाच पाहिजे.

मी कोण होणार.?

अजून काही ठरलं नाही. स्कूटरवरून जाताना समोरून चेहऱ्यावर येणारा वारा कसा सुखद वाटत होता! हा वारा, ही गती, मला फार आवडते. मनातल्या विचारांना एक ठेका देते.. आज काय झालं असेल ते असो, पण उद्या नक्की चांगलं होईल असा आशावाद निर्माण करते. आज सिग्नल पाशी ही थांबावं लागलं नाही. समाधान वाटलं. तेवढाच वेळ वाचला.

घरी आले तेव्हा सुरुची खेळायला गेली होती.  विस्मयाला अमृता घेऊन गेली होती. काय केले टेस्ट मध्ये कोण जाणे! बहुतेक नीट केली असणार. तसा व्हेरी गुड रिमार्क असतोच तिला. तारा ही सर्व आवरून माझीच वाट पाहत होती. मी वाॅश  घेतला. हाऊस गाउन चढवला. ताराने गरम चहा आणून दिला. तो घेतला. हातात वही पेन्सिल घेऊन बसले. सुरुची येईपर्यंत काहीतरी मुद्दे काढून ठेवू या. सुरूची चा निबंध चांगला झालाच पाहिजे.

टेबलवर वही होती सुरूचीची . शेवटच्या पानावर पेन्सिलीने काहीतरी लिहिले होते.

मी कोण होणार? डॉक्टर, इंजिनियर, पत्रकार, पुढारी, समाजसेविका, गायिका की चित्रकार? नको रे बाबा!! यापैकी मला काहीही व्हायचे नाही.  मी सांगू? मला कोण व्हायचंय?

आई …

एक चांगली आई . म्हणजे विद्वान  नव्हे. ऑफिसात जाणारी आई नव्हे. मला मुलांवर कधीही न चिडणारी, सदैव प्रेमाने वागणारी, मुलांशी खेळणारी, गप्पा मारणारी, हसरी, खेळणारी आई व्हायचे आहे. श्यामच्या आई सारखे. रात्री झोपताना गाणं म्हणणारी. गोष्टी सांगणारी. आई होणं किती महान आहे! जिच्या हाती पाळण्याची दोरी, ती जगाते उद्धारी! या जगातली चांगली आईच कुठेतरी हरवलेली आहे.

पुढच्या ओळी मला दिसल्साच नाहीत. माझे डोळे पाण्याने डबडबले. ही माझी अकरा वर्षाची मुलगी विचार करू शकते? तिच्या बाल मनातून ओघळलेले नैसर्गिक भाव!  शब्द चुकले असतील. काना, मात्रा वेलांट्या कुठेकुठे राहिल्या होत्या. चुका शुद्धलेखनाच्या होत्या. पण विचार प्रामाणिक आणि निडर होते. आयुष्याला ही असेच व्याकरण असते का? काना मात्रा वेलांट्या  तिथेही  असतात कां? जशा त्या शब्दाला आकार देतात, अर्थ देतात. त्या चुकल्या तर शब्दाचा उच्चार बदलतो. शब्द बेढब, अर्थहीन बनतो. सुरुची चे शुद्धलेखन सुधारण्याचा मला अधिकार आहे का? तिचे विचार पुस्तकी नव्हते.  ते सहजस्फूर्त  होते. भावनिक कुपोषणामुळे निर्माण झालेला तो विद्रोह होता. एका चौकटीतल्या सुंदर चित्रातला न दिसणारा,तो एक प्रमाण  चुकलेला आकार होता. तो टिपून घ्यायला एखाद्या कलाकाराची दृष्टी हवी. डोळे झाकले म्हणून दोष जात नाहीत. जे एखाद्याला सुंदर दिसतो ते दुसऱ्याला तसं दिसेलच असं नाही. सुरुची ने लिहिलेल्या त्या ओळी वाचून मी एकदम पराभूत झाले. मी कोण होणार होते, कोण झाले, मला काय मिळालं ?

धपकन सुरूची ने माझ्या गळ्यात हात घातले.

“मम्मी केव्हा आलीस? आणि मी लिहिलेलं तू वाचलंस मम्मी? मी असंच लिहिलं. गंमत म्हणून. मला वाटलं म्हणून. आय डोंट मिन ईट मम्मी! आय लव यु व्हेरी मच! मेरी अच्छी मम्मी! चल आपण परत लिहूया. फेअरबुकमधे असं काही लिहून चालणार नाही.  दुसरं काहीतरी लिहूया.

मग मी सुरुचीचा एक पापा घेतला.

“नको काय हरकत आहे हेच लिहिलं तर? हे छान आहे. खूप सुंदर लिहिले आहेस तू. तेवढे काना, मात्रा, वेलांट्या कुठे कुठे विसरली आहेस.. तेवढं दुरुस्त कर…..

समाप्त

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ One liner Geeta ☆ संग्राहक – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?इंद्रधनुष्य?

One liner Geeta ☆ संग्राहक – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ 

One liner Geeta.

हिंदू धर्मात मुलांना लहानपणापासून आपला धर्मग्रंथ गीता शिकवला जात नाही हे सत्य आहे.

त्यावर एका काकांनी लिहिले आहे. पण नुसतीच टीका न करता त्यांनी एक सोल्युशनही देण्याचा प्रयत्न केला आहे.

फक्त हे सोल्युशनच पुरेसे नाही हे मला मान्य आहे. पण आताच्या इंग्रजी मिडीयमच्या मुलांना गीतेत नक्की आहे तरी काय हे प्रत्येक चॅप्टरचे सार इंग्रजीत एका वाक्यात देण्याचा प्रयत्न केला आहे. गीता तत्वज्ञानाची तोंडओळख म्हणा ना.

☆ ☆ ☆ ☆ 

मला सांगा, दूरदर्शन मालिका सर्वसामान्य कुटुंबाकडून बघितल्या जातात. त्या मालिकेत गीतेचे नाव सुद्धा नसते . शाळेत गीता शिकवली जात नाही . कॉलेजात अर्थ समजावला जात नाही. खाजगी क्लासेस मध्ये गीतेचा अंतर्भाव नाही. 

तरुणपणी संसाराची सुरुवात करण्यापूर्वी गीता अभ्यासणार नाही . वयाच्या ४०/५० व्या वर्षी भविष्याच्या तरतुदीमध्ये व्यस्त .

संपूर्ण आयुष्य असेच निघून जाते . 

वाचकहो, मी तुम्हाला कसे समजावून सांगू ? गीतेशिवाय पर्याय नाही. आपणच आपल्या पायावर दगड मारून घेत आहे .

आजच्या ४०  वय असलेल्या मुलाला/ मुलीला विचारा , त्याला गीतेतील एका तरी श्लोकाचा अर्थ माहित आहे का ?

मी तुम्हाला  १८ अध्यायांचे सार सांगणारी १८ वाक्ये देतो  – इंग्रजी मध्ये देतो – One liner Geeta. 

करताय त्याचा प्रसार ?

प्रत्येकानी ४  दिवसात त्याला

किमान १०० फॉरवर्ड करा .

सगळ्या महाराष्ट्रात काय पण सर्व भारतभर पसरवा.

☆ One liner Geeta.

Chapter 1 – Wrong thinking is the only problem in life .

(चुकीचा विचार ही जीवनातील एकमात्र समस्या आहे)

Chapter 2 – Right knowledge is the ultimate solution to all our problems .

(सार्थ आणि पूर्ण ज्ञान हा सर्व समस्ये वरील अंतिम उपाय आहे)

Chapter 3 – Selflessness is the only way to progress and prosperity .

(निस्वार्थ हा प्रगती आणि उन्नतीचा उत्तम मार्ग आहे)

Chapter 4 – Every act can be an act of prayer .

(प्रत्येक कर्म ही एक प्रार्थना समजून करा)

Chapter 5 – Renounce the ego of individuality and rejoice the bliss of infinity .

(आत्मगौरवामधील अहम् चा त्याग करून अनंतातील अमर्याद आनंदात सहभागी व्हा)

Chapter 6 – Connect to the higher consciousness daily.

(नेहमी उच्च चेतनेशी एकरूप रहा)

Chapter 7 – Live what you learn .

(जे शिकाल त्याचे तसेच आचरण करा)

Chapter 8 – Never give up on yourself .

( स्वतः माघार घेऊन हार मानू नका)

Chapter 9 – Value your blessings .

(तुम्हाला लाभलेल्या आशिर्वादाची कदर करा)

Chapter 10 – See divinity all around .

(तुमच्या सभोवतालच्या देवत्वाची प्रचिती घ्या)

Chapter 11 – Have enough surrender to see the truth as it is.

(सत्याच्या प्रचितीसाठी स्वतःला समर्पित करा)

Chapter 12 – Absorb your mind in the higher.

(उच्च विचारसरणीत अंतर्भूत रहा)

Chapter 13 – Detach from Maya and attach to divine .

(मायावी जालापासून दूर रहा आणि देवत्वाशी जवळीक साधा)

Chapter 14 – Live a life- style that matches your vision.

(तुमच्या विचारांशी जुळेल अशीच जीवनशैली आचरणात आणा)

Chapter 15 – Give priority to Divinity .

(देवत्वाला अग्रक्रम द्या)

Chapter 16 – Being good is a reward in itself .

(सृजनशीलता हे एक वरदान आहे)

Chapter 17 – Choosing the right over the pleasant is a sign of power .

(आनंदाचा हक्क हे एकप्रकारे शक्तीचे दर्शक आहे)

Chapter 18 – Let go, let us move to union with God .

(ईश्वराशी तद्रुप होण्यासाठी पुढाकार घ्या)

(Introspect on each one of this principle)

(वरील सर्व विचारांचा परिचय करून घ्या)

|| ॐ तत् सत् ||0

संग्राहक : – सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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