हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 140 ☆ एकोऽहम् बहुस्यामः  ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 140 ☆ एकोऽहम् बहुस्यामः ?

शहर में ट्रैफिक सिग्नल पर बल्ब के हरा होने की प्रतीक्षा में हूँ। लाल से हरा होने, ठहराव से चलायमान स्थिति में आने के लिए संकेतक 28 सेकंड शेष दिखा रहा है। देखता हूँ कि बाईं ओर सड़क से लगभग सटकर  पान की एक गुमटी है। दोपहर के भोजन के बाद किसी कार्यालय के चार-पाँच कर्मी पान, सौंफ आदि खाने के लिए निकले हैं। एक ने सिगरेट खरीदी, सुलगाई, एक कश भरा और समूह में सम्मिलित एक अपने एक मित्र से कहा, ‘ले।’  सम्बंधित व्यक्ति ने सिगरेट हाथ में ली, क्षण भर ठिठका और मित्र को सिगरेट लौटाते हुए कहा, “नहीं, आज सुबह मैंने अपनी छकुली (नन्ही बिटिया)  से प्रॉमिस की है कि आज के बाद कभी सिगरेट नहीं पीऊँगा।” मैं उस व्यक्ति का चेहरा देखता रह गया जो संकल्प की आभा से दीप्त हो रहा था। बल्ब हरा हो चुका था, ठहरी हुई ऊर्जा चल पड़ी थी, ठहराव, गतिमान हो चुका था।

वस्तुत: संकल्प की शक्ति अद्वितीय है। मनुष्य इच्छाएँ तो करता है पर उनकी पूर्ति का संकल्प नहीं करता। इच्छा मिट्टी पर उकेरी लकीर है जबकि संकल्प पत्थर पर खींची रेखा है। संकल्प, जीवन के आयाम और दृष्टि बदल देता है। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,

कह दो उनसे,

संभाल लें

मोर्चे अपने-अपने,

जो खड़े हैं

ताक़त से मेरे ख़िलाफ़,

कह दो उनसे,

बिछा लें बिसातें

अपनी-अपनी,

जो खड़े हैं

दौलत से मेरे ख़िलाफ़,

हाथ में

क़लम उठा ली है मैंने

और निकल पड़ा हूँ

अश्वमेध के लिए…!

संकल्प अपनी साक्षी में अपने आप को दिया वचन है। संकल्प से बहुत सारी निर्बलताएँ तजी जा सकती हैं। संकल्प से उत्थान की गाथाएँ रची जा सकती हैं।

संकल्प की सिद्धि के लिए क्रियान्वयन चाहिए। क्रियान्वयन के लिए कर्मठता चाहिए। संकल्प और तत्सम्बंधी क्रियान्वयन के अभाव में तो सृष्टि का आविष्कार भी संभव न था। साक्षात विधाता को भी संकल्प लेना पड़ा था, ‘एकोऽहम् बहुस्यामः’ अर्थात मैं एक से अनेक हो जाऊँ। एक में अनेक का बल फूँक देता है संकल्प।

संकल्प को सिद्धि में बदलने के लिए स्वामी विवेकानंद का मंत्र था, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक  मत रुको।

संकल्प मनोबल का शस्त्र है, संकल्प, असंभव से ‘अ’ हटाने का अस्त्र है। उद्देश्यपूर्ण जीवन की जन्मघुट्टी है संकल्प, मनुष्य से देवता हो सकने की बूटी है संकल्प।..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 94 ☆ सॉनेट – दर्पण… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

 

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित सॉनेट – दर्पण… )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 94 ☆ 

☆ सॉनेट – दर्पण…  ☆

दाएँ को बायाँ दिखलाए

फिर भी दुनिया यह कहती है

दर्पण केवल सत्य बताए।

असत सत्य सम चुप तहती है।

 

धूल नहीं मन पर जमती है

सही समझ सबको यह आए

दर्पण पोंछ धूल जमती है।

मत कह मन दर्पण कहलाए।

 

तेरे पीछे जो रहती है

वस्तु उसे आगे दिखलाए

हाथ बढ़ा तो कब मिलती है?

दर्पण हरदम ही भरमाए।

 

मत बन रे मन मूरख भोले।

मत कह दर्पण झूठ न बोले।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-५-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #125 ☆ कविता – सब सूखा सूखा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 125 ☆

☆ ‌ कविता – सब सूखा सूखा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(आज मानव की स्वार्थपरता के चलते पर्यावरण असंतुलन अपने घातक स्तर को पार कर चुका है, परिणाम सूखा, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा जिसका जनक मानव  स्वयं है,  धरती आग का गोला बन धधकती दीख रही है, जिसके चलते पर्यावरणीय विद्रूपता स्पष्ट रूप से  दीख रही है जिसका संदेश रचना कार अपने रचना के माध्यम से  देना चाहता है।)

धरती सूखी अंबर सूखा, सूख गये सब  स्रोत सजल।

आते जाते रहते बादल, देते नहीं मेघ अब जल।

सावन सूखा  सूखी हरियाली, बदला बदला मौसम  निर्जल।

बंजर बांझ हुइ  भूमी,   सूखे पेड़ नहीं है फल ।

आग बरसती अंबर से, धधक रही  बन  दावानल।।

 

उड़ते गिरते पंख पखेरू, और तड़पती मछली।

पानी बिन सावन उदास है, रोती तीज़ अरू कजली।

हरियाली अब खत्म हुई है,  मुरझाए सब फूल।

बगिया में भी उग आए, अब कीकड़ और बबूल।।

 

ताल तलैए सारे सूखे, निर्झरिणी का सूखा स्रोत।

मरते जीव जगत के प्राणी, बिनु पानी के प्यासे लोग।

पेड़ कटे सब दरवाजे के, उजड़ा है चिड़ियों का नीड़।

 रिस्तों में ममता है सूखी, कौन सुने रिस्तों की पीड़।

आंखों के आंसू बनकर पीड़ा, ढुरके बन कर मोती।

 अब भी चेत अरे! ओ मानव, कर ले नेकी की खेती।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (46-53)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (46 – 53) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

जिस आयु में अक्षर ज्ञान भी विधिवत पूरा कोई नहीं पाता।

उस आयु में भी सुन सीख बड़ों से नीति ‘सुदर्शन’ था गाता।।46।।

 

बालक के लघु वक्ष मे स्थान कम देख करते हुये प्रौढ़ता की प्रतीक्षा।

लक्ष्मी लजाती सी छत्र रूप में ही छू उसकों करती थी निज पूर्ण इच्छा।।47।।

 

भुजायें सुदर्शन की थी नहीं धुर सम नहीं धनुष संधान की उनमें क्षमता।

न ही असि उठाया था उसने कभी किन्तु थी राज्य-रक्षा की पूरी सबलता।।48।।

 

समय साथ केवल न ही देह के अंग, विकसित हुये वरन गुण, वृद्धि पाये।

सब शौर्य, औदार्य, कुल-गुण जो थे सूक्ष्म, भी हुये विकसित प्रजा मन को भाये।।49।।

 

पूर्व जन्म में जैसे देखी गई सी सुपरिचित सभी नीति वह समझ पाया।

सुगम बनाते गुरूजनों का कठिन कार्य अर्थ, धर्म, दण्ड, नीतियाँ सीख पाया।।50।।

 

उत्तरार्ध को तान, कस केश, मुड़ बाँयें, जब खींचता कान तक बाण था वो।

अभ्यास करते धनुष साधने का बहुत प्यारा लगता था तब दर्शकों को।।51।।

 

किया प्राप्त यौवन सुदर्शन ने फिर जो कि, प्रमदाओं को मधुर अमृत सदृश है।

जो कल्पतरू का महकता हुआ पुष्प, अनुराग-पल्लव छलकता सा रस है।।52।।

 

सुन्दर अधिक स्वप्न-सुन्दरियों से भी, आनीत सविचों से धार्मिक विद्या से।

धरित्री औ’ धनश्री की बनने सपप्नी, वरण किया कई ने उसे तब प्रथा से।।53।।

अठारहवाँ  सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २९ मे – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई-अभिव्यक्ती -संवाद ☆ २९ मे -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

गणेश प्रभाकर प्रधान – ( २६ ऑगस्ट १९२२ – २९ मे २०१० )

ग. प्र. प्रधान हे समाजवादी विचारवंत, राजकरणी, मराठी भाषेचे लेखक होते. ते १८ वर्षे आमदार होते. २ वर्षे विरोधी पक्षनेते होते. महाराष्ट्र विधानसभेचे ते सभापतीही होते. त्यांनी मराठी व इंग्रजीत विपुल लेखन केले आहे.

साधना साप्ताहिकाचे ते मानद संपादक होते. सानेगुरुजींचे ते वारसदार समजले जातात. विविध सामाजिक चळवळीत त्यांचा सक्रीय सहभाग आसे.

त्यांनी एकूण १४ पुस्तके लिहिली. त्यापैकी मराठीत खालील पुस्तके लिहिली आहेत.

१. आगरकर लेखसंग्रह, २. डॉ. आंबेडकर त्यांच्याच शब्दात, ३. महाराष्ट्राचे शिल्पकार – ना.ग. गोरे ४. माझी वाटचाल, ५. सत्याग्रही गांधीजी, ६. साता उत्तराची कहाणी ७ ओकमान्यांची राजकीय दूरदृष्टी आणि ज्ञानाचे उपासक

याव्यतिरिक्त लेटर टू टॉलस्टॉय, लो. टिळक ए बायोग्राफी इ. इंग्रजीतूनही पुस्तके लिहिली.

‘साता उत्तराची कहाणी’ हे त्यांचे पुस्तक खूप गाजले. ‘डॉ. आंबेडकर त्यांच्याच शब्दात’ या पुस्तकाचे स्वरूप वेगळे आहे. एक तरुण पत्रकार डॉ. आंबेडकरांची मुलाखत घेतो, अशी कल्पना करून त्यांनी हे पुस्तक लिहिले आहे.

पुरस्कार – राज्यशासनाचा वाङ्मय पुरस्कार त्यांना मिळाला आहे.

समीर शिपूरकर यांनी ग. प्र. प्रधानांच्या जीवनकार्याचा आणि आणि समाजसेवेचा परिचय करून देणार्याश लघुपटाची निर्मिती केली आहे.

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

संजय व्यंकटेश संगवई  (२३ डिसेंबर १९५९ – २९ मे २००७ )

संजय संगवई  हे मराठी लेखक, पत्रकार, संपादक, माध्यम तज्ज्ञ , माध्यम चिकित्सक होते. ’अभिव्यक्ती’ या नाशिक इथून प्रकाशित होणार्यार माध्यंविषयक त्रैमासिकाचे ते संपादक होते. ‘माणूस’ साप्ताहिकात त्यांनी विविध सामाजिक, राजकीय विषयांवर तसेच शास्त्रीय संगितावर विपुल लेखन केले आहे. पर्यायी पत्रकारिता ही विकासाभिमुख पत्रकारिता असते, ही संकल्पना, संगवई यांनी आपल्या लेखनातून रुजवली. त्यांच्या मृत्यूनंतर काढलेल्या ‘अभिव्यक्ती’च्या अंकात, ‘सान्यासी माध्यमकर्मी’ असा त्यांचा गौरवास्प्द उल्लेख करण्यात आला आहे.

’नर्मदा बचाव आंदोलनाचे ते पूर्णवेळ कार्यकर्ते होते. त्यांना ह्रदयविकाराचा त्रास होता. त्यावरील उपचारासाठी ते केरळयेथील कोचीला गेले असता तिथेच त्यांचा अंत झाला. 

संजय संगवई यांची पुस्तके –

१. अस्मिता आणि अस्तित्व ( वैचारिक लेख ) २. उद्गार ( वैचारिक लेख ) ३. नद्या आणि जनजीवन – नर्मदा खोर्याैतील लोकांच्या संघर्षाचा ऐतिहासिक दस्तावेज ४. माध्यमवेध ५. कलंदर सुरांच्या स्मृतीची मैफल ( संगीतविषयक )       

संजय संगवई यांना मिळालेले पुरस्कार –

१.    राम आपटे प्रतिष्ठानचा सामाजिक कृतज्ञता निधी पुरस्कार

२.    महाराष्ट्र फाऊंडेशनचा सामाजिक कार्यासाठी पुरस्कार

३.    पर्यायी पत्रकारितेसाठी महानगर पुरस्कार

४.    ४. श्री. ग. माजगावकर कृतीशीलता पुरस्कार

५.    समाज विज्ञान शिक्षण मंडल न्यास – मुंबई तर्फे अस्मिता आणि अस्तित्व या पुस्तकासाठी पुरस्कार

बालवाडी तालुका खानापूर, जि. सांगली येथे त्यांच्या स्मरणार्थ ‘संजय संगवई मंच’

हे चर्चापीठ स्थापन करण्यात आले आहे.

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

चारुता सागर. – (२१ नोहेंबर १९३०)

मोजक्याच कथा लिहूनही, मराठी कथाविश्व समृद्ध करणारे ग्रामीण लेखक म्हणून ज्यांच्याविषयी आदराने म्हंटलं जातं, ते चारुता सागर म्हणजे दिनकर दत्तात्रय भोसले. त्यांचा जन्म सांगली जिल्ह्यातील, कवठे महांकाळ तालुक्यातील मळणगाव इथे झाला. त्यांनी चारुता सागर या नावाने कथा लेखन केले, तर धोंडूबुवा या नावाने कीर्तने केली.

बंगालमध्ये भ्रमंती करताना त्यांनी शरदचंद्र चट्टोपाध्याय यांच्या कादंबर्या् वाचल्या, त्यातील एका कादंबरीतील एका पात्राचे नाव होते, चारुता सागर. त्यांना हे नाव खूपच आवडले म्हणून त्यांनी कथालेखनासाठी हे नाव घेतले. 

१२व्या वर्षी आईच्या दु:खद निधनामुळे व्यथित होऊन त्यांनी घर सोडले. साधू, बैरागी, संन्यासी बनून, रामेश्वर, हरिद्वार, काशी असे फिरत राहिले. वयाच्या २६व्या वर्षी ते पुन्हा गावी परतले. लोणारवाडी या गावात कोंबड्या, बकर्यां च्या मागे फिरणार्याा मुलांसाठी त्यांनी शाळा काढली. पण ती शाळा बेकायदेशीर ठरवून सरकारने ताब्यात घेतली. पुढे त्यांनी लोणारवाडी हे गाव सोडले. नंतर त्यांनी मळणगावला प्राथमिक शिक्षकाची नोकरी केली.

लोणारवाडी या गावात कृष्णा नावाचा मुलगा होता. धुतला तर शर्ट फाटेल म्हणून त्याने अंगातला शर्ट कधी धुतलाच नाही. त्याच्यावर ‘न लिहिलेले पत्र’ ही कथा चारुता सागर यांनी लिहिली. त्यांनी लिहिलेली ती पहिलीच कथा सत्यकथा मासिकात छापून आली. पुढे त्यांच्या बहुतेक सगळ्या कथा सत्यकथेने छापल्या. जी. ए. कुलकर्णी, पु. ल. देशपांडे, हातकणंगलेकर अशी दिग्गज मंडळी त्यांच्या कथांची चाहती होती.  

चारुता सागर यांची पुस्तके –

१. नदीपार, २. नागीण – यात १६ कथा आहेत , ३. मामाचा वाडा – यात १४ कथा आहेत.

पुरस्कार –

१.    चारुता सागर यांच्या ‘नागीण’ या कथेला कॅ. गो.गं लिमये पुरस्कार १९७१ साली मिळाला.

२.    सर्वोत्कृष्ट लघुकथाकाराचा पुरस्कार त्यांना १९७७ साली मिळाला.

जोगवा या राष्ट्रीय विजेत्या चित्रपटाची कथा चारुता सागर यांच्या ’दर्शन’ या कथेवर आधारलेली आहे.

चारुता सागर यांच्या ‘नागीन’, ‘म्हस’ , ‘न लिहिलेले पत्र’, ‘मामाचा वाडा’, ‘पुंगी’, ‘पूल’, ‘दर्शन’, ‘वाट’, ‘नदीपार इ. अनेक कथांचा, श्री. चंद्रकांत पोकळे यांनी कन्नडमध्ये अनुवाद केला आहे.

सध्या ‘चारुता सागर प्रतिष्ठानतर्फे’ दरवर्षी कथास्पर्धा घेतली जाते आणि एका उत्कृष्ट कथेला परितोषिक दिले जाते.

आज, ग. प्र. प्रधान, संजय सांगवई, चारुता सागर यांचा स्मृतिदिन आहे. त्या निमित्ताने या तीनही प्रतिभावंतांना विनम्र श्रद्धांजली. ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्वीकारा वा नाकारा मज… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ स्वीकारा वा नाकारा मज… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

{वृत्त: पादाकुलक}

स्वीकारा वा नाकारा मज

मलंग मी तर चंचल वारा

तुमच्या संगे तुमची नगरी

माझ्या संगे माझा तारा !

 

खुशाल वगळा वस्तीमधुनी

दिशादिशांचा मज परवाना

दरबारी मी चराचराचा

ऋतूऋतूंचा मज नजराणा!

 

एक विश्व मी माझ्यामधले

त्या विश्वाचा मी तर स्वामी

अवघे गोकुळ अंकित तुमच्या

कान्हा वेणू माझ्या धामी !

 

रोज कालच्या क्षितिजावरती

पुन्हा नव्याने उदया येतो

प्राणांची झटकून काजळी

ज्योतिर्मय मी अजून होतो !

 

खळखळ माझी वाहत वाहत

अथांग आता होऊ पाहे

गाज माझिया मौनाचीही

पार तटांच्या जाऊ पाहे !

 

कधितरि माझा अलखनिरंजन

घुमेल तुमच्या अधिराज्यातुन

होइल जागा उरि तुमच्याही

सूर आतला एक विलक्षण !

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पारीजात ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पारीजात… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆ 

आज अचानक, मनात फुलला, वृक्ष पारीजात,

गुपित कानी सांगून जाता, सुगंधित वात ||धृ.||

 

तृषार्त या धरणीवर पडता, पाऊल मेंदीचे,

मनात माझ्या मळे उमलले, ते निशिगंधाचे,

कसा पोहचला? कळले नाही, ताऱ्यांनाही हात ||१||

 

काळे काळे खडक प्रसवले, निर्झर मोत्यांचे,

निनादले कानांशी अवचित, कुजन सरीतेचे,

गंधर्वाचे थवे उतरले, प्रणयगीत गात ||२||

 

आज उराशी घट्ट बिलगले, ते स्वप्नांचे ससे,

माध्यांनीला चंद्र नभीचा, मन पंखावर बसे,

सलज्ज वदना अहा! प्रगटली, संध्या ऋतुस्नात ||३||

 

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सुनू मामी… – भाग-1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?जीवनरंग ?

☆ सुनू मामी… – भाग-1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

सुनुमामी  म्हणजे  आमच्या  सदामामाची  बायको. सुनीता. तिला सुनीता या नावाने कुणीच,  कधीच   हाका  मारल्या  नाहीत. सदा मामा लग्न करून तिला घरी  घेऊन  आला, तेव्हा  घरातल्या  सगळ्यांना  आश्चर्याचा  धक्काच   बसला. आमच्या  गोर्या,पान  राजस रुपाच्या सदामामाची ही असली बायको. हे म्हणजे रेशमी शेल्याची गाठ चिंध्यांच्या वाकळीशी मारल्यासारखं होतं. काळा रंग. किंचित पुढे आलेले दात. जाड ओठ,  रुंद जबडा. फताडं नाक. खरोखर अगदी ध्यानच होतं ते! नाही म्हणायला तिच्या डोळ्यात विलक्षण तेज होतं. बघणार्या च्या डोळ्यात तिने थेट पाहिलं, की बघणार्यायने वरमून खाली बघितलंच पाहिजे.

‘सदामामा एक फुकट्या… आता हिलाही त्याच्याबोबर पोसलं पाहिजे. ‘ घरातल्या बायका बडबडत. कधी एकमेकींशी हळू आवाजात, कधी मोठ्याने हिला ऐकू  जाईल असं. सुनुमामी काहीच बोलत नसे. मान खाली घालून ती फक्त घरातली कामे  करी.  

त्याच्या लग्नाबद्दल घरातल्या बायका-पोरांना कल्पना नव्हती, पण पुरुष माणसांना माहीत  असावं. लग्न झाल्यावर तरी त्याला जबाबदारीची जाणीव होईल. काही तरी कामधंद्याला लागेल, असं वाटलं होतं त्यांना. पण प्रत्यक्षात तसं काहीच घडलं नव्हतं.

सदामामाचा उद्योग म्हणजे गावातल्या रिकामटेकड्या लोकांबरोबर भटकणे. त्यांच्याबरोबर पत्ते कुटणे, घरात आल्यावर बाहेरच्या दिवाणावर पडून अरेबियन नाईटस, हतीमताई, विक्रम वेताळ यासारखी पुस्तकं  वाचणे. घरातल्या पुरुषांनी त्याला कामालालावायचा अनेकदा प्रयत्न केला होता. घरातल्या पेढीवर ठेवला. पण दोनच दिवसात आपल्याला ते बैठं काम जमणार नाही म्हणाला आणि पेढीवर जाणं सोडून दिलं. एका ओळखीच्यांच्या किराणामालाच्या दुकानात समान देण्यासाठी ठेवला, तर तो मालात भेसळ करतो,  मला असला माल देणं जमणार नाही म्हणाला. एका गॅरेजमध्ये   ठेवला, तर असलं काम केल्याने तुमच्या प्रतिष्ठेला बाधा येईल,  म्हणाला. थोडक्यात काय,  तर या ‘जोरूका भाई’ला कामाला लावायचे  सगळे प्रयत्न फसले. शेवटी  पुरुषांनी ठरवलं, घरात दहा माणसं जेवतात, हा अकरावा  जेवेल. लग्नं  झालं, पण सदामामाच्या दिनक्रमात काही बदल झाला नाही.

सुनुमामीचं गाव शिवारी,  आमच्या  गावापासून  पंध्रा-वीस किलो मीटरवर. ती आणि तिचा म्हातारा बाप दोघेच होते एकमेकांना. तीन खोल्यांचं बैठं घर. थोडा जमीन तुकडा. दोघे राबत होते. पोटापुरतं मिळवत होते. म्हातार्या.ला एकच चिंता. मुलीच्या लग्नाची. मुलगी गुणाची, पण लग्नाच्या बाजारात गुणाला कुठली किंमत असायला?  रूप हवं. ते तर आजिबात नाही.

गावातले लोक काहिशा कुचेष्टेनेच सदामामाला विचारायचे, ‘काय सदाभाऊ, लाडू, कधी देणार?’

‘देऊ की…त्यातकाय?’

‘पण कधी? लग्न करायचा विचार आहे नं? की जन्मभर ब्रह्मचारीच रहाणार?’

‘अं… करायचं की लग्न!’

‘कधी?’

‘मुलगा मिळाली की.’

आता नाकर्ता सदा आणि कुरूप सुनीता,  लोकांनी जोडी लावून टाकली. ते सदाकडच्या पुरुषांना विचारायला आले. पुरुषांच्यात मसलत झाली. न जाणो, लग्न झाल्यावर सदामामाला जबाबदारीची जाणीव होईल,’  त्यांना वाटल़ं मग त्यांनी मध्यस्तांवरच जबाबदारी टाकली. मंदिरात लग्न लागलं. ना सनई. ना बँड. सुनीताला कुंकवाचा धनी मिळाला. गोरा-गोमटा जावई बघून म्हातारा खूश झाला. ‘आता मी मरायला मोकळा झालो.’ म्हणाला.

सदा बायकोला घेऊन घरी आला. ही माझी बायको. त्याने घरात सांगितले. माप ओलांडणं नाही. गृहप्रवेशाचा सोहळा नाही.  थट्टा-मस्करी नाही. दहीभात ओवाळणं नाही. नाव घ्यायलासुद्धा कुणी तिला सांगितलं नाही. ती सरळ तशीच घरात आली.

क्रमश: …

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ तुझं संरक्षण..! ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ.सोनिया कस्तुरे   

? मनमंजुषेतून ?

☆ तुझं संरक्षण..! ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

तिच्यावर अत्याचार होतो 

तिच्यावर बलात्कार होतो

ती मारली जाते

जिवंत जाळली आहे 

कुणी मोठी सभा घेत नाही

माणसं गोळा करुन आणत नाही

कुणी “राज” येत नाही 

ना “राणा” धावत नाही

मुके होतात सगळे

पुरोगामी म्हणवणारे 

चळवळीला वाहून घेतल्याचं सांगणारे

विकृतीला ना धडा शिकविला जातो

ना हद्दपार केले जाते

अनेक इथल्या अरुणा शानभाग !

लोक पेटत नाहीत

जाब विचारत नाहीत

देशातील लेकीसाठी 

 “नवनीत” काही घडत नाही.

 भोंग्यासम लेकींचा आक्रोश होतो

कोणालाही हनुमान कधी वाचवत नाही..

कुठे प्रकाश दिसत नाही..

कुणाला काही आठवले असे नाही

हे कळावं तुला, मला, सगळ्यांना

तुझं संरक्षण तुझी जबाबदारी..

तूच हो ढाल आता

तुच तुझी तलवार हो

तुझं संरक्षण तुझी जबाबदारी

मतदाना वेळी हे विसरु नको

तुझं संरक्षण तुझी जबाबदारी—-

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ || देहोपनिषद सिद्ध झाले…. || पद्मजा फेणाणी जोगळेकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

?  वाचताना वेचलेले ? 

☆ || देहोपनिषद सिद्ध झाले…. || पद्मजा फेणाणी जोगळेकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

आज 7 मे.. विदुषी दुर्गाबाई भागवत यांचा स्मृतिदिन! ..मला लाभलेल्या त्यांच्या सहवासातील काही हृदयस्पर्शी आठवणी….

हिरवीकंच साडी, हिरवागार परीटघडीचा ब्लाऊज, मनाचा ठाव घेणारी नजर, ताठ बांधा, छोटासा गोंडस अंबाडा आणि त्यावर हौसेनं माळलेला घमघमीत मोगरीचा गजरा! अहाहा! काय तेजस्वी ते रूप आणि ओजस्वी ती वाणी! आणि तेही वयाच्या ८६व्या वर्षी! या रूपाला पाहण्यास आणि ही लख्ख वाणी ऐकण्यास पार्ल्यातील ‘दीनानाथ नाट्यगृह’ त्यादिवशी चोखंदळ साहित्यिक, संगीतज्ञ आणि रसिकांनी खचाखच ओसंडून वाहात होतं. प्रसंग होता – माझ्या पहिल्यावहिल्या ‘ही शुभ्र फुलांची ज्वाला’ हा कॅसेटचा प्रकाशन सोहळा – या ज्ञानदेवीच्या शुभहस्ते! ही ज्ञानदेवी म्हणजे दुर्गादेवीचा आणि शांतादेवीचा सुरेख संगम! ती स्वतःच ‘शुभ्र फुलांची ज्वाला’ होती! तिच्या येण्यानंच प्रत्येकाच्या मनात उत्साह, आनंद, कुतूहल आणि उत्सुकता भरून वाहात होती! गझल सम्राट जगजीत सिंह यांनाही तिच्या शेजारी बसण्याचं, मोठं अप्रूप वाटत होतं. 

२६ मे, १९९६ हा तो दिवस!  याच दिवशी सकाळी ‘महाराष्ट्र टाइम्स’मध्ये ‘जागविला सुखांत एकांत’ हा ‘शुभ्र फुलांची ज्वाला’ कॅसेटमधील प्रत्येक गाण्याचं, समर्पक रसग्रहण करणारा लेख लिहून, दुर्गाबाईंनी अनेकांना धक्काच दिला होता! प्रकाशनाच्या वेळी त्यांच्यावर झालेल्या गुलाब पाकळ्यांच्या वर्षावानं, बाई आधीच मोहरून गेलेल्या! त्या बोलल्याही अप्रतिम! आणि पूर्व वयात विरघळून जाऊन चक्क ‘केदार’ रागातली बंदिशही  लाजवाब गायल्या! कुठचाही विषय त्यांना वर्ज्य नव्हता! दुर्गाबाई म्हणजे अर्वाचीन काळातली गार्गी – मैत्रेयीच! त्या केवळ साहित्य विदुषीच नव्हे तर दुर्गाबाई म्हणजे अखंड ज्ञानयज्ञ! स्वातंत्र्य सेनानीपासून ते स्वयंपाक, विणकाम, भरतकामापर्यंत कुठल्याही क्षेत्रात दुर्गाबाई अग्रेसर! ज्या क्षेत्रात हात घातला, त्याचं सोनं केलं त्यांनी!

एकदा, बहीण कमला सोहोनींबरोबर त्या एक इंग्रजी चित्रपट पाहत होत्या. त्यातील नायिका, आपण नेहमी घालतो, त्यापेक्षा वेगळया पद्धतीने टाके घालून, स्वेटर विणत होती. हे बारकाईनं निरीक्षण करून, त्यांनी एका व्यक्तीचा एक स्वेटर एका दिवसात तयार होतो, हे स्वतः विणून सिद्ध केलं.. वयाच्या नव्वदीलाही त्यांची कुशाग्र बुद्धी तोंडात बोटंच घालायला लावी! या वयातही नवनवीन गोष्टी करण्याचा आणि शिकण्याचा त्यांचा ध्यास पाहून आश्चर्य वाटे! त्यांच्या ९०व्या वाढदिवसाला, त्यांनी मला भेट दिलेला, त्यांचा आवडता, निवृत्तीनाथांचा एक अभंग मी गायले. त्यावेळी बरीच जाणकार मंडळी तिथं होती. गाणं संपल्यावर, दुर्गा आज्जींनी या ‘नातीचा’ पापा घेतला आणि हातही हातात घेतला. माझे ‘थंडगार’ हात पाहून त्या गोड हसल्या आणि पट्कन म्हणाल्या, – “Cold from outside, Warm from inside… !” 

बाईंनी अनेकांना घडवलं. प्रोत्साहन दिलं, कौतुक केलं. त्या अनेक भाग्यवंतांपैकी मीही एक आहे!

काही वर्षांपूर्वीची गोष्ट… मी इतरांच्या चालीत नवीन बसवलेल्या काही कविता, बाईंसमोर नेहमीप्रमाणं म्हणून दाखवायला गिरगांवात त्यांच्या घरी गेले त्यावेळी त्या म्हणाल्या, “अगं पद्मजा, फार बरं झालं तू आलीस. आज नवलच घडलं! आज शाकंभरी पौर्णिमा. पहाटे, चंद्रबिंब अस्त होताना, माझ्या वडिलांनी, त्यांच्या स्मृतिदिनी मला स्वप्नात येऊन दृष्टांत दिला आणि ‘देहोपनिषद’ माझ्या पुढ्यात आले, ते असे…

|| देहोपनिषद ||

‘आयुष्याची झाली रात, मनी पेटे अंतर्ज्योत ||१||

भय गेले मरणाचे, कोंब फुटले सुखाचे ||२||

अवयवांचे बळ गेले, काय कुणाचे अडले ||३||

फुटले जीवनाला डोळे, सुखवेड त्यात लोळे ||४||

मरणा, तुझ्या स्वागतास, आत्मा माझा आहे सज्ज ||५||

पायघडी देहाची ही, घालूनी मी पाही वाट ||६||

सुखवेडी मी जाहले, ‘देहोपनिषद’ सिद्ध झाले… ||७||

पुढे त्या म्हणाल्या, “आजवरच्या माझ्या कविता, मलाच न आवडल्यानं मी फाडून, जाळून फेकून दिल्या. ही माझी मला आवडलेली एकमेव कविता! याला तू चाल लाव, आणि उद्या माझी दूरदर्शनवर मुलाखत आहे, त्यात तू ते गा!” 

मी प्रथम ते ‘देहोपनिषद’ वाचूनच भांबावले. परंतु दुर्गाआज्जीला नाही म्हणण्याची माझी प्राज्ञाच नसल्यामुळे मी आजवर, कधीही न केलेला संगीत दिग्दर्शनाचा प्रयत्न, परमेश्वरी कृपेनं सफल झाला. त्यांनीच संगीत दिग्दर्शनाची माझ्या ‘मनी’ अंतर्ज्योत पेटवली!

दुसर्‍या दिवशी दुर्गाबाईंनी दूरदर्शनवर “आता ‘नारददुहिता’ माझी कविता सुंदर गाणार आहे,” असं म्हणून माझं मोठ्या मनानं कौतुक केलं, प्रोत्साहन दिलं. त्यानंतर मात्र मला आत्मविश्वास आला आणि मी जवळजवळ दीडशेहून अधिक कवितांना, अभंगांना धडाधड चाली लावत गेले. केवढी भव्य आणि सुंदर दृष्टी दिली मला दुर्गाबाईंनी!!

एकदा सुप्रसिद्ध कवयित्री वंदना विटणकरांना (त्यांच्या लहानपणी) ‘पुण्यश्लोक अहल्याबाई होळकर’ यांच्या विषयी लेख लिहिण्यासाठी कुठेही माहिती मिळेना. तेव्हा दुर्गाबाईंना त्यांनी एशियाटिक सोसायटीच्या भव्य ग्रंथालयात गाठलं आणि दुर्गाबाईंनी तात्काळ त्यांना अहल्याबाईंचे पन्नास एक संदर्भ पूर्ण माहितीसकट दिले. शिवाय, “ग्रंथालयाच्या एका कोपर्‍यात ‘होळकरांची बखर’ बांधून ठेवलीय, ती मुद्दाम वाच.” असंही सांगितलं. हे सर्व सांगण्यात कुठेही गर्वाचा, उपकाराचा लवलेशही नव्हता. उलट, कुणीही न निवडणारा, वेगळा आणि उत्तम विषय घेतल्याबद्दल छोट्या वंदनेचं अभिनंदन आणि कौतुकही केलं. शिवाय दुपारच्या उन्हातान्हातनं आलेल्या या मुलीला प्रेमानं, आपल्या डब्यातली रुचकर चटणी आणि थालीपीठ खाऊ घातलं! त्याची चव वंदनाबाईंच्या जिभेवर अखेरपर्यंत होती. 

दुर्गाबाईंना जसं साहित्याचं प्रेम, तसंच निसर्ग आणि तत्त्वचिंतनाचंही! तत्त्वचिंतक थोरोच्या निसर्गप्रेमामुळं बाईंचं त्यांच्यावर मनस्वी प्रेम! याच थोरोवर इंदिरा गांधींनी केलेली कविता वाचून बाईंनी इंदिरेच्या आतील ‘कलावंताला’ सलाम केला आणि इंदिरा गांधींमुळे  आणीबाणीत भोगाव्या लागणार्‍या हालअपेष्टा विसरून, त्यांच्या अक्षम्य चुकाही माफ करून टाकल्या. केवढं पारदर्शक आणि आभाळाएवढं मन दुर्गाबाईंचं! हाच प्रांजळपणा त्यांच्या लालित्यपूर्ण लेखनातही दिसतो, म्हणून त्यांचं लेखन हे बुद्धीला आणि अंतःकरणाला थेट भिडणारं वाटतं. ते वाचताना त्या प्रत्यक्ष समोर बसून बोलताहेत असंच वाटतं.

त्यांनी सांगितलेल्या दोन गोष्टी मी कधीच विसरणार नाही. एक म्हणजे – ‘रिकामा अर्धघडी राहू नको रे…’ आणि म्हणूनच मला वाटतं, इतक्या विविध विषयांवर त्या प्रभुत्व मिळवू शकल्या आणि दुसरी गोष्ट म्हणजे, ‘कुठलंही काम करताना, त्यात जीव ओतून केल्यास ते  १०० टक्के यशस्वी होतं, त्यात उत्स्फूर्ता आणि उत्कटता मात्र हवी!’ 

७ मे, २००२… दुर्गाबाई निवर्तल्याची बातमी ऐकली आणि काळजात चर्र झालं. त्यांच्या घरी जाऊन त्यांना नमस्कार केला. त्यांच्या सुनेनं – चारुताईनं मला ‘देहोपनिषद’ म्हणायला सुचवलं. शेवटी त्यांच्या पार्थिवाशेजारी बसून, माझ्या या आज्जीच्या डोक्यावरून कुरवाळत कुरवाळत मी ‘देहोपनिषद’ गायले. त्याक्षणी ती नेहमीसारखीच प्रसन्न आणि तेजस्वी दिसली. जणू काही डोळे मिटून तिला आवडणारं देहोपनिषद, ती अत्यंत आनंदानं ऐकत होती.. 

‘देहोपनिषद सिद्ध झाले..’ हीच भावना तिच्या चेहर्‍यावर विलसत होती…

लेखिका – पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

संग्रहिका – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे 

९८२२८४६७६२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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