हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 108 ☆ अमरकंटक का भिक्षुक – 1 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी – “अमरकंटक का भिक्षुक”। )

☆ संस्मरण # 108 – अमरकंटक का भिक्षुक – 1  ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

साँवला रंग, पांच फीट के लगभग ऊंचाई, दुबली पतली काया, आखों में बहुत थोड़ी रोशनी और उमर इकहत्तर वर्ष, ऐसे एक जूनूनी व्यक्ति से मेरा परिचय हुआ मार्च 2020 के प्रथम सप्ताह में। वे भोपाल एक कार्य से आए थे और हमें फोन कर बोले कि ‘डाक्टर एच एम शारदा ने आपसे मिलने को बोला था, कब और कहाँ मुलाक़ात हो सकती है।’ मैं तब शासकीय मिडिल स्कूल खाईखेडा में स्मार्ट क्लास को बच्चों को समर्पित करने के कार्यक्रम  में व्यस्त था सो शाम को पांच बजे का समय मुलाक़ात हेतु नियत हुआ। वे समय से पहले ही आ गए और प्रतीक्षारत बाहर खड़े थे। प्रेम से मिले और अपने भोपाल आने की व्यथा-कहानी सुनाते रहे। बीच-बीच में बैगा आदिवासियों की भी चर्चा करते, अपने अमरकंटक में आ बसने की कहानी सुनाते, गरीबों के बारे में अपनी प्रेम और करुणा व्यक्त करते रहे। मैं तो दिन भर का थका हारा था सो चुपचाप सुनता रहा। जब जाने लगे तो मुझे आमंत्रित किया कि पोंडकी आश्रम जरूर आएँ ऐसी ‘दादा’ शारदा की भी इच्छा है। उनकी सरलता, विनम्रता  और महानता का एहसास तब  हुआ, जब जाते जाते उन्होंने हाथ जोड़े और अचानक मेरे चरणों की ओर झुक गए। मैं अचकचा गया, और गले लगाकर कहा कि ‘दादा आप उम्र में बड़े हैं ऐसा क्यों कर रहे हैं ?’ उन्होंने उतनी ही विनम्रता से उत्तर दिया ‘आप बच्चों के लिए काम करते हैं, ‘दादा’ शारदा ने आपकी बहुत तारीफ़ की थी, मेरी बैगा बच्चियों के लिए भी आप अमरकंटक आइये।’

उनके आमंत्रण को अस्वीकार करना मुश्किल था, पर कोरोना संक्रमण ने बाधित कर दिया और फिर मुहूर्त आया जब  डाक्टर एच एम शारदा ने बताया कि ‘पोंडकी आश्रम’ में एक हाल के निर्माण हेतु भूमि पूजन समारोह 31 अक्टूबर को होना है, शामिल होने जा सकते हैं क्या ?’ मैं तो अवसर की तलाश में ही था, फ़ौरन हाँ कर दी और 29 अक्टूबर 2020 को अमरकंटक एक्सप्रेस में बैठकर 30 अक्टूबर के सुबह सबेरे पेंड्रा रोड स्टेशन उतर गया। आश्रम से जीप आई थी लेने और जब मैं पांच बजे सुबह पहुंचा तो वे कृशकाय बुजुर्ग बाट जोहते बैठे थे, प्रेम से मिले और दिन भर के प्रोग्राम के बारे में बताया, दस बजे नाश्ता करने के बाद फर्रीसेमर गाँव चलेंगे, तब तक आप आराम कीजिए, कहकर चले गए। 

नींद तो आखों से गायब थी और जैसे ही सूर्योदय हुआ, मैं अतिथि गृह से बाहर निकल कर आश्रम में चहल कदमी करने लगा। दूर एक निर्माणाधीन बरामदे में वे दिख गए, मिस्त्रियों द्वारा किये गए  काम का मुआयना कर रहे थे। मैं उनके पास पहुँच गया, फिर क्या था, उन्होंने पूरा आश्रम घुमाया। स्कूल के पांच कमरे और एक प्राचार्य कक्ष उन्होंने, भारत सरकार के आदिवासी कल्याण मंत्रालय, दक्षिण पूर्व कोयला परियोजना व जनसहयोग से, थोड़ी थोड़ी राशि एकत्रित कर बनवाये हैं। दक्षिण पूर्व कोयला परियोजना  के एक महाप्रबंधक ने आर्थिक सहयोग का आश्वासन दिया था, लेकिन अचानक उनका स्थानान्तरण हो गया तो नीचे फर्श का काम अटक गया। इसी काम को ठेकेदार ने पूरा करने का आश्वासन इस शर्त के साथ दे दिया कि ‘जब रुपया आ जाये तो दे देना’ और उन्होंने ने भी ईश्वर के भरोसे हाँ कह दी। आश्रम में भारतीय जीवन बीमा निगम और दक्षिण पूर्व कोयला परियोजना के सहयोग से दो भवन बनाए गए हैं जिनमे एक सौ छात्राएं निवास करती हैं। मदनलाल शारदा फैमली फ़ाउंडेशन ने, छात्रावास की निवासिनी छात्राओं के लिए दस पलंग व दो अति आधुनिक शौचालय बनवाकर आश्रम को दिए हैं। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि फ़ाउंडेशन के कर्ता-धर्ता डाक्टर शारदा उनसे आजतक प्रत्यक्ष नहीं मिले हैं, केवल फोन पर चर्चा हुई है, और सहयोग कर रहे हैं। जयपुर के एक जैन परिवार ने अपनी माता स्वर्णा देवी की स्मृति में चिकित्सालय हेतु भवन बनवाकर दिया है और होम्योपैथिक व एलोपैथिक दवाइयों के मासिक खर्च की प्रतिपूर्ति किशनगढ़, राजस्थान के श्री डी कुमार द्वारा की जाती हैं। भारतीय स्टेट बैंक अमरकंटक व पूर्व सांसद मेघराज जैन ने एक-एक एम्बुलेंस दान दी है, जिसका प्रयोग पैसठ ग्रामों में निवासरत विलुप्तप्राय बैगा जनजाति के आदिवासियों को चिकित्सा सुविधा प्रदान करने में होता है। स्कूल के सामने स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा एक मंदिर में स्थापित है और समीप ही छात्राओं के भोजन हेतु हाल व रसोईघर है। कुछ निर्माण कार्य चल रहे हैं, श्री फुन्देलाल सिंह द्वारा प्रदत्त विधायक निधि (75%) व जनसहयोग (25%) से एक हाल निर्माणाधीन है, जिसका उपयोग व्यवसायिक गतिविधियों के प्रशिक्षण हेतु होगा और यहाँ हथकरघा, सिलाई-कढाई आदि की मशीनें  स्थापित की जाएँगी ताकि आदिवासियों को  स्वरोजगार उपलब्ध हो सके। पांच गायों की गौशाला है, फलोद्यान है, साग-सब्जी का बगीचा है, जिसके उत्पाद छात्राओं के हेतु हैं। यह सब कुछ जनसहयोग  से हुआ है। और इसको मूर्तरूप दिया है पांच फुट के दुबले-पतले डाक्टर प्रबीर सरकार ने जो 1995 में जेब में 1040/- रुपया लेकर यहाँ आये थे और ‘माई की बगिया’ में एक झोपडी में रहकर आदिवासियों की सेवा करने लगे। इसीलिये स्वामी विवेकानंद के इस भक्त को मैंने ‘अमरकंटक का भिक्षुक’ कहा है। वे जब चर्चा करते हैं तो स्वामीजी के अमृत वचन भी सुनाते रहते हैं, आप भी आत्मविभोर होकर पढ़िए :

“नाम, जश, ख्याति, प्रतिपत्ति, पद, धन, सम्पत्ति, सबकुछ केवल कुछ दिन के लिए है। वह व्यक्ति सच्चा जीवन बिताता है जो दूसरे के लिए अपना जीवन समर्पण करता है।”

पुनश्च :- मैं तीन दिन पौंडकी में रुका, तीन गाँव और उनके तीन मोहल्ले देखे, सेवा कार्य किया, आश्रम के आयोजनों में भाग लिया, डाक्टर साहब, उनके वालिटियर्स, प्रणाम नर्मदा युवा संघ के युवाओं से व ग्रामीणों से चर्चा की। यह अनुभव विलक्षण ही है ऐसा मेरा मानना है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ बाल कविता: फलों की सौगात ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

 ☆ बाल कविता: फलों की सौगात  ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी 

भेंट गरमी की कितनी – लीची जामुन आम

लाल काले नारंगी – खाना है बस काम !

 

जौनपुर से लुढ़क चला पीला सा खरबूज

लाल दिल लिये है खड़ा वो काला तरबूज।

 

खट्टा तो है फालसा। कहा, “नमक लो डाल।”

“खट्टे मीठे स्वाद है”, बोली जीभ, “कमाल !”

 

काटो कच्चे आम, लो हरा पुदीना पीस

चट् खाओ खूब चटनी खटपन में भी बीस !

 

अटकी गले में गुठली ? दादाजी नाराज

दाँत नहीं है आम को कैसे खायें आज ?

 

ओ. के.! पानी चाहिए ? आयेगी बरसात।

सर का पारा क्यों चढ़ा ? है इतनी सी बात !

 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो:9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (36 – 40) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

नगर अयोध्या के बड़े मंदिर के आराध्य।

सब देवों ने की कृपा उस पर अमित अगाध।।36।।

 

सूख न पाई वेदिका उसके पहले आप।

सागर तट तक, अतिथि का पहुंचा तेज प्रताप।।37।।

 

गुरू वशिष्ठ के संग-संग, वीर अतिथि के बाण।

कौन था ऐसा लक्ष्य जो हो न सके संधान।।38।।

 

बैठ धार्मिक सजग सब सभासदों के साथ।

धर्मोचित सब वादियों के सुनते थे वाद।।39।।

 

सुन भृत्यों की प्रार्थना उचित नियम अनुसार।

याचित फल भी शीघ्र ही करते थे स्वीकार।।40।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रेम… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रेम… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे  

प्रेम द्यावे प्रेम घ्यावे

धन्य देणारा घेणारा

प्रेम प्रवाह अथांग

ऐलपैल सांधणारा !

 

मोत्यापवळ्यांचा जणू

प्रेम पाऊस अंगणी

ओलाचिंब भाग्यवंत

लाखातून एक कोणी !

 

नौका शापीत जीवन

प्रेम दर्याचा किनारा

काळोखात दीपस्तंभ

प्रेम ध्रुवाचा इशारा !

 

प्रेम मृत्युंजय श्रद्धा

प्रेम चंदेरी कहाणी

दोन क्षणांचे जीवन

प्रेम दिक्कालाची लेणी !

 

प्रेम जीवनाचे मर्म

प्रेम रेशमाची वीण

दुनियेच्या बाजारात

प्रेम ओळखीची खूण !

 

प्रेम दिलासा अश्रूंचा

प्रेम वाळूरणी झरा

जीवनाच्या मातीतला

प्रेम कोहिनूर हिरा !

 

प्रेम शीतल चंद्रम

प्रेम उरीचा निखारा

जेथे याज्ञिक आहुती

प्रेम एक यज्ञ न्यारा !

 

प्रेम विधात्याचा ठेवा

प्राणपणाने जपावा

गाभाऱ्यात नंदादीप

नित्य तेवत ठेवावा !

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 131 ☆ निवांत क्षण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 131 ?

☆ निवांत क्षण… ☆

(वृत्त- पृथ्वी)

कसे उमलणे फुलास कळते नसे आरसा

कुणा समजले तुरूंग बनली कशी नर्मदा

तुला जमतसे स्वतःत रमणे सदासर्वदा

 

फुले बहरती तशीच सुकती असा जीव हा

मला  समजले तुला उमगले  तरी दूर का

तुझे परतणे असे  बहरणे नसे हा गुन्हा

असेच जगणे निखालसपणे मिळे ना पुन्हा

 

कशात असते कुणास मिळते इथे शांतता

परी बरसते उगा तरसते मनी भावना

सदैव करते तुझ्याच करिता अशी प्रार्थना

तुलाच सगळी सुखे अन मला मिळो आर्तता

 

 जगात असते असेच गहिरे अथांगा परी

मनी विलसते तिथेच फुलते  जपावे तरी

नसे कळत का तुला चिमुकल्या मनाची व्यथा

मिळेल जर ना निवांत क्षण तो हवा एकदा

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आधार… ☆ सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी ☆

सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ आधार… ☆ सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी ☆

आधार हा शब्द इतका सोपा आहे का? कोणाचा आणि कशाचा आधार वाटावा हे प्रत्येकाच्या नजरेतून आणि विचारातून वेगवेगळा असू शकतो. म्हणजे त्याची व्याख्या करणे कठीण आहे ना. पण आधार वाटावा ही भावनाही खूप सुखद आहे. ते मला जास्त भावते. प्रत्येकाला आधार हा हवा असतो पण स्वतःचा अहंम आड येतो. काहीजण खरच मान्य करतात की खरच आधार हा माझ्यासाठी खूप मोठे काम करतो माझ्या आयुष्यात. पण अशी ही काही लोक असतात त्यांना आधार हवा असतो पण त्यांना तो दाखवायचा नसतो. समोरून आधाराचा हात आला तरी तिथे त्यांचा अहंम आड येतो. अशी लोक मला खूप केविलवाणी वाटतात आणि मग त्यांच्यासाठी जिव कळवळतो पण ते ही त्यांना कळत नाही. हे असे का व्हावे हे कळत नाही पण असे असू नये असे माझे निर्मळ मत आहे. हे मान्य आहे की आपल्या कमकुवत बाजूचा लोक गैरफायदा घेतील ही पण मनात एक भीती असते. पण त्यावेळेला हे तरी विचारात घेण्यासारखे असते की आधार देणारा हात कोणाचा आहे. आणि प्रत्येक वेळेला आधारासाठी पुढे आलेला हात हा काही स्वार्थ मनात ठेऊनच आधार देत नसावा. त्याच्या मागे त्याचे निर्मळ मन न दिसावे ही खंत आहे. आणि कदाचित आधाराला पुढे येणारा हात हा मैत्रीचा असू शकतो किंवा त्याला पण तुमच्यातला चांगुलपणाची जाणीव असावी म्हणून पुढे येत असेल? खूप मोठे प्रश्न चिन्ह आहे माझ्या मनात???

आधार हा खूप गोष्टीं मधून मिळू शकतो. तो शब्दातून मिळतो, स्पर्शातून मिळतो किंवा निव्वळ नजरेच्या एक कटाक्षात पण आधार असतो. किती छान भावना आहे खरं तर ही… सोपी निर्मळ निस्वार्थी… ज्याला आपली गरज आहे त्याच्या पाठीशी नाहीतर त्याच्या सोबत राहणे आणि त्याच्या बरोबरीने त्याला साथ देणे.

प्रत्येक वेळेला पैसा हाच आधाराचा मुद्दा नसतो ना? नुसते…. मी आहे ना…. हे शब्द ही खूप समाधान देऊन जातात. मनातला एक कोपरा त्याने चिंब भिजून जातो… ओलावा वाढतो… मनाची ताकत वाढवतो.

आधार घेणे किंवा मागणे हे कमीपणाचे असूच शकत नाही. खूप निर्मळ संवेदना आहे ही जी एकाच्या मनात दुसऱ्या बद्दल निर्माण होते. आधार देणारा हा मनाने खंबीर असतो पण प्रत्येक वेळेला नाही होत असे. समोरच्यावर जीव ओवाळून टाकताना आधार देणारा हा मनाने खचला असला तरी त्या समोरच्या माणसाला आधार देतोच ना…

आधार या भावनेला वयाचे बंधन नसतेच मुळी. आपल्या लहान बाळाच्या प्रांजळ नजरेचा त्याच्या स्पर्शाचा ही आपल्याला कधी कधी आधार असतो जगण्याची उमेद देतो. आपण पण तो आधार खूप प्रामाणिक पणे मान्य करायला शिकायला हवे.

खऱ्या मित्र मैत्रिणीच्या मैत्रीला पण आपण आधारच म्हणतो ना… राधेला कृष्णाच्या बासरीच्या सुरांचा आधार मान्य करतो… वारकऱ्याला वारी मध्ये विठ्ठलाच्या भक्तीचा आधार असतो. बुडत्याला काठीचा आधार अशी म्हण पण मराठीत आहेच की… अशी किती पैलू आहेत आधार या शब्दाला.

देव आहे की नाही हा मुद्दा मला इथे मांडायचा नाहीये तो विषयच नाहीये माझा कारण मी कामालाच देव मानते आणि त्याच्याशी खूप प्रामाणिक राहते. हीच माझी देवाबद्दल श्रद्धा आहे. प्रत्येकाला कोणत्या ना कोणत्या रूपाने तो देव सापडतो आणि त्याची श्रद्धा पण तो मनात बाळगत असतो. मग ही श्रद्धा म्हणजेच आधार आहे का? हा विचार माझ्या मनात रुंजी घालतोय आणि असे वाटते खरंच ही देवावरची कामावरची श्रद्धा म्हणजे पणआधारच आहे. आपण  त्या देवावर कामावर विश्वास ठेवतो आणि जगणे आनंदी व्हावे म्हणून आपण नकळत किंवा जाणून बुजून त्याचा आधारच घेत असतो.

© सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बांगडीचं लेणं… ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

 

? जीवनरंग ❤️

☆ बांगडीचं लेणं … ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆ 

पाण्यांचे दोन हंडे भरले. गॅसवरून कुकर खाली ठेवला आणि चपात्या लाटायला घेतल्या. घरच काम आवरून आज हौसाच्या घरी जायचं होतं.

” शांता….हायस का घरात? पोरीला बांगड्या घालायच्या हायती.”

आतून काम करत शांताने विचारले “गीता कवा आली.”

” झाल आठ दिस.उद्या सासरी जाणार हाय.लई काम पडल्यात बघ. ये की बी.. गी, बी… गी”

नव्या नवलाईन गीता रंगीबेरंगी बांगड्याकडे बघत होती.कधी एकदा नवीन बांगड्या घालते असे झाले होते.गोऱ्यापान हातात कोणत्या बांगड्या शोभून दिसतील? माझा हात बघून धनी काय म्हणतील? सगळ्या साड्यांनवर कोणत्या रंगाच्या बांगड्या चांगल्या दिसतील.मॅचिंग   बांगड्या पण घ्याव्यात काय? असे किती तरी विचार तिच्या मनात आले.पदराला हात पुसत शांता आली ” कशी…..हायस पोरी?”

“बरी हाय”

” कंच्या बांगड्या आवडल्या तुला ?”बांगड्या दाखवत गीता म्हणाली ”  या घाला “

” त्यो इड तुज्या मापाचा नाय.तुला आठराने गाळा लागतोया.थांब दावते.”लाल, पिवळ्या,हिरव्या,निळ्या किती तरी सुंदर सुंदर बांगड्या समोर ठेवल्या.हिरवा कापकाटा तिला पंसत पडला.तिच्या मनासारखा हिरवागार रंग.शांताने बांगड्या उजव्या हाताच्या दोन बोटात पकडून टिचकी मारून ती पिचकी नाही ना हे पाहिले.पिचकी बांगडी बाजूला काढली. निवडलेल्या बांगड्या डाव्या हाताच्या करंगळीत घेतल्या गीताचा हात हातात घेतला.हिला बांगड्या चढवायला जरा पण त्रास होणार नाही. “काय…..लोण्यावाणी मऊ सुत हात हायती.असाच राहू दे.”

” ते नशिबात पायजे बघ.पोरीच्या जातीला काम काय चुकली नायत.कामाच्या रगाड्यात  हात निबरढोक होतोया.आता…माज्या हाताला कोण हात म्हणल का?”

” हे…मातुर…खरं हाय.तुजा हात लयी व्दाड हाय.बांगड्या घालताना लयी कळ सोसतीस बघ तू.आडव हाड हाय.सव्वा दोनचा गाळा बी दाबून भरावा लागतोया.”

” शेतात राबल्यावर गड्या सारखाच हात व्हायचा की.काय बी म्हण…. बांगड्या बीगर हाताला सोभा नाय.बांगडीला एकदा पाणी मुरल का वरीसभर बांगडी हलत नाय.मागल्या वरशी भरलेल्या बांगड्या अजून कश्या हायती बघ.”

बांगड्या भरुन झाल्यावर गीताने शांताबाईंना नमस्कार केला.त्यांनी तिची ओटी भरली.तोंडात साखर घातली प्रेमाने मिठी मारली.

” शांता आता वटी कश्याला?”

” लेक हाय माजी,पैल्यादा घरला आल्या,तशीच पाठवू व्हय ?तू लयी शानी हायस,गप बस.पोरी समद्यांना धरून रा.सुखी हो.”

” तुजा आशिर्वाद पुका जायाचा नाय बघ.घरला येवून जा.येतो आमी.”भरल्या मनाने दोघी बाहेर पडल्या.

माज्या आशिर्वादाचे काय मोल? माजच नशिब मला लिव्हता आल नाय.दुसऱ्याच म्या काय लिव्हणार? आज इस वरीस झाली ऐकली झगडत्या.तीस वरसामाग लगीन करून घरात आले.तवा काय व्हत इथ.एक मोकळा जापता.मायलेकर दोघच राहायची.पुढल्या अंगाला एक दार ,मागल्या अंगाला एक दार मागल्या दाराच्या अंगाला जोडून न्हानी.पाण्याचा एक बॅरल,एक बादली,एक खुटी.बाजूच्या भितीला चूल.त्याच्या जवळ एक लाकडी शेलफ,त्यावर चार भांडी.अन् पतऱ्याच चार मोठ डब.झाला संसार.चुलीवर चार भाकऱ्या थापल्या, का सासू भाईर बांगड्या घालाया जाया मोकळी‌.डोसक्यावर बांगड्यांची बुट्टी घेवून गावोगाव फिरायची.सिधा बांघून आणायची, तेल मीठ आणून माय लेकरं जगायची.आडावरन नाय तर बोरिंगवरन पाणी भरायची,धून  धुवायला नदीवर जायची.लयी सोसायची.लेकाला जपायची.म्या घरात आले.मला लयी अवघडल्या वाणी व्हईत व्हत.सासू म्हणाली दोघं बी जोडीनं डोंगराई देवीला वटी भरून या. पाया पडून या.देवीला जाताना गाव बघितला.धन्यानी शाव,भजी खायाला घेतली.सगळा डोंगूर हिरवागार व्हता.गार वारा झोंबत व्हता.पदूर वाऱ्यावर उडत व्हता.चढताना माजा पाय सरला तवा धन्यानी हात धरला.अजून काय पायजे ? देवी पावली मला. देवीची वटी भरली.माजी अडचण त्यांस्नी सांगितली.धन्याच्या संगतीत दिस कवा मावळला कळल नाय.

उजडायच्या आत आमा दोघींच्या अंगुळा व्हायच्या.धन्याच्या माग लागून घरात एक पारटीशन घातलं. भाकरी बांघून धनी शेतावर कामाला जात.सासूबाईपण बांगड्या घालाया भाईर जायी.म्या दिसभर ऐकली घरात.कटाळा यायचा. नंतर म्या बी सासूसंग जाया लागले.माज म्हायार गरीब.तकड कोनबी बांगड्या घालत नव्हत.बांगड्या घालताना त्या हुभ्या धरायच्या का आडव्या हे बी ठाव नव्हत.मग बांगड्याचा इड कसा कळणार? सासुबाई पटापटा बांगड्या भरायच्या.म्या बघत बसायची.इसकटलेल्या बांगड्या गोळा करायची,माळा बांधायची,फुटक्या काचा गोळा करायची,सिधा बांधून घ्यायची.लय भारी वाटायच.एक दिस सासूबाई म्हणाल्या   “शांता तू बांगड्या भर बघू.”

पैल्यादा चार दोन बांगड्या चढवल्या,दोन चार फुटल्या, हाताला लागल्या,रगत आलं.तवा सासूबाईनी हाताला धरून शिकवलं.हात कसा धरायचा,माप कस बघायचं, बांगड्या कश्या चढवायच्या . हळूहळू जमू लागल.मग म्या बी तयार झाले.आमी दोघी मिळून बाजारला,जत्रला जावू लागलो.दोन पोरं झाली.संसार वाढला.

खेडेगावात निवडणुका म्हणजी जीव का परान.लयी लगबग असे. त्यात धनी सरपंचाच्या घरी जात येत व्हते.सरपंचाच्या मरजीतल माणूस.रोज रातच्याला उशीरा यायच.म्या बडबड करी.कवा कवा तंटा बी व्हायचा.इस वरसा मागच्या निवडणुकीन माज घात केला. आयुश ढवळून गेलं. एक दिस प्रचाराला धनी गेले ते गेले.कुठ गायब झालं कुणास ठाव.पोराचा दोसरा काढून सासून हातरून धरलं. म्या लय वाट बघितली धनी काय आलं नायत.एकली म्या काय काय करणार? सासूबाईच्या जीवावर पोरं सोडता येत नव्हती.भाईर बांगड्या घालाया जाता येत नव्हत.घरातला सिधा बी संपत आला व्हता.खचून कसं चालेल?पायटीशन पुढ दुकान टाकल.गावातल्या बाया घरातच बांगड्या भराया येत.पोटाला चिमटा लावला पोरांना शिकवलं,मोठ केलं.

पोरीच लगीन लावून दिल.पोरान तिकडं शहरात आपल्या मरजीन लगीन केलं.त्याच्या घरात त्यो सुखी हाय.अजून काय पायजे.आजपातुर हे कळलं नाय,धनी एकाएकी गेलं कुठं ?पर मन म्हणतया ते नक्की परत येत्याल.पोर आपापल्या घरात.म्या मातुर ऐकली हाय.आज लयी आठवण येत्या.सगळा चितरपटच डोळ्या म्होर आला.म्या ऐकली काय मनाशी बोलत बसले.हौसाची नातं मोठी झाल्या, बांगड्या भराया बोलीवलया .तवा जाया पायजे.

हौसाच्या घरातून शांता आली तेव्हा घरात मुलगा, सून आले होते.बांगड्या ठेवून, नेहमीच्या सवयीने पत्र्याचे डबे खाली घेतले त्यात आणलेला सिधा ठेवायला लागली तेव्हा मुलगा म्हणाला “आई आता थांब हे सगळं कशासाठी बांगड्या घालतेस? कशाला सिधा गोळा करतेस?तुला काही कमी आहे का? चल माझ्या सोबत,एकटी कुठे राहणार? बांगड्याचे दुकान बंद कर.”

” हे बोलाया सोपं हाय पोरा.ही लक्षीमी हाय माजी.या बांगड्या व्हत्या, हा….सिधा व्हता, म्हणून तुमास्नी जगवल.म्या जगले.हे नुसतं डाळ, तांदूळ,पिठ,गुळ नाय, माज जीवन हाय.तुज्या आजीन बाला जगिवल,म्या तुमाला जगिवल,हा सिधा नाय, मान हाय….मान.कासारनीचा मान.तुला नाय कळायच ते पोरा.म्या इथच राहणार.”

” हेच खाऊन मी मोठा झालो.माहित आहे मला.किती कष्ट केलेस तू ,ते ही मला माहित आहे.म्हणूनच म्हणतोय बस कर. हे चल माझ्या सोबत.”पोराचा इशय टाळण्यासाठी ती सूनेला म्हणाली ” बांगड्या बिगर हात मुंडा दिसतोया.सोन्याच्या बांगड्या मद्यी चार हिरव्या बांगड्या घाल.झाक दिसतील.ये पोरी म्या घालते बांगड्या.”

“आ हो….आई या काचेच्या बांगड्या सांभाळन जिकिरीचे असतं.घरात काम करताना, आॅफिसात काम करताना अडचण होते.सारखा आवाज करतात त्या.मग मन डिस्टर्ब होत.लिंक तुटते.काम करताना बांगड्या सारख्या पुढे पुढे येतात.स्वयंपाक करताना बांगडी फुटली तर केवढ्याला पडेल.मी आॅफिस मधून आल्यावर अंगठी,कानातले,बांगडी,टिकली काढते.झोपताना मंगळसूत्र टोचते ते ही काढते. मग मोकळं मोकळं कसं छान वाटते.तसे ही सणासुदीला, समारंभाला बांगड्या चांगल्या दिसतात.तिथ फक्त मिरवायच असतं ना.मी एक तरी बांगडी घालते, किती तरी बायका एक ही बांगडी घालत नाहीत.आता ही ओल्ड फॅशन  झाली आहे.

” बर बाई तुजी मरजी.बांगड्या नग तर नग.म्या काय बोलणार?म्या पडले अडाणी.पर एक सांगते ‘म्हटल तर सूत नाय तर भूत’असत बघ.आपल्या मनावर असत सगळं”शांताबाई मनात म्हणाली तुज म्हणन बी खरं असल पोरी. या….. बांगड्या,कुकू, मंगळसूत्र यांची तुला अडचण व्हत असल, ही फाशन जुनी असल,पर यांनी माज आयुश सावरलं.जगण्याची उमेद दिली.बांगडीचं लेणं लेते.दुसऱ्याला देते.त्याच्या जोरावर गेली इस वरीस या खेडेगावात पाय रोवून टिकून हाय.इबरतीन जगते.कपाळावर कुकू अन् गळ्यात डोरल असल तर कुणाची वाकडी मान करून बघण्याची हिंमत होत नाय.सासू माग घर हुभ केलं,नवरा परागंदा झाला तरी डगमगले नाय.पोरास्नी शिकवून मोठ केल.कपाळावरच कुकू बघून, आज बी कासारीन बाय म्हणून हक्कान बोलीवत्यात,सवाष्णीचा मान देत्यात.तो या कुकवाच्या जोरावर.बांगड्या म्हणजे निसती काच नाय.बंधन नाय.बायाबापड्यांची ताकद हाय.ती वळकता आली पायजे.मग बांगडी घातली काय नाय घातली काय?बांगडी मनाला बळकटी देते, ती घेता आली पायजे.हे लेणं लेता आलं पायजे म्हंजी जीवनाचा तीर गाठता येतो.हे मला उमगल पर सुनेला कवा उमगणार देणार ? म्या सुनेला कस सांगणार?

 

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

संपर्क – इंदिरा अपार्टमेंट बी-१३, हिराबाग काॅनर्र, रिसाला रोड, खणभाग, जि.सांगली, पिन-४१६  ४१६

मो.९६५७४९०८९२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २१ – भाग ६ – कॅनडा ऽ ऽ राजा सौंदर्याचा ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २१ – भाग ६ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ कॅनडा ऽ ऽ  राजा सौंदर्याचा ✈️

व्हॅ॑कूव्हरच्या पश्चिमेकडील पॅसिफिक महासागराच्या किनाऱ्यावरील स्टॅन्ले पार्क एक हजार एकरवर पसरला आहे.( मुंबईच्या शिवाजी पार्कचा विस्तार सहा एकर आहे ) इथे कृत्रिम आखीव-रेखीव बाग-बगीचे नाहीत .नैसर्गिकरित्या पूर्वापार जशी झाडं वाढली आहेत तसाच त्यांचा सांभाळ केलेला आहे. अपवाद म्हणून तिथे केलेली गुलाबाची एक बाग फारच देखणी आहे. नाना रंग गंधांच्या॑॑ हजारो गुलाबांनी या बागेला एक वेगळे सौंदर्य, चैतन्य लाभले आहे.

दुसऱ्या दिवशी व्हॅ॑कूव्हर पोर्टला जायला निघालो. वाटेत दोन्ही बाजूंना गव्हाची प्रचंड मोठी शेती आहे. शिवाय बदामाची झाडं, स्ट्रॉबेरी, ब्लूबेरी, चेरी यांचेही मोठ मोठे बगीचे आहेत. गाईड म्हणाला की ही सर्व शेती तुमच्या भारतातून आलेल्या शिख कुटुंबियांच्या मालकीची आहे.  शंभराहून अधिक वर्षांपूर्वी ही पंजाबमधील शीख कुटुंबे ब्रिटिशांबरोबर शेतमजूर म्हणून इथे येऊन स्थिरावली आहेत. धाडस, मेहनत व स्वकर्तृत्वाने त्यांनी हे वैभव मिळविले आहे. आज अनेक शीख बांधव कॅनडामध्ये उच्च पदावर कार्यरत आहेत. तसेच अनेक जण सिनेटरही आहेत.

या धनाढ्य शिखांपैकी बहुतेकांचा स्वतंत्र खलिस्तानला  सक्रिय पाठिंबा होता. खलिस्तान चळवळीच्या वेळी कॅनेडियन विमानाचा झालेला (?) भीषण विमान अपघात, पंजाबमधील अतिरेक्यांच्या निर्घृण कारवाया, त्यांच्याशी प्राणपणाने लढणारे आपले पोलीस अधिकारी, सुवर्ण मंदिरातील ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’,  जनरल वैद्य यांची तसेच इंदिरा गांधी यांची हत्या आणि त्यानंतरचा इतिहास सर्वश्रुत आहे. अजूनही हा खलिस्तानचा ज्वालामुखी धुमसत असतो आणि भारत सरकारला तेथील घडामोडींवर डोळ्यात तेल घालून लक्ष ठेवावे लागते.

आता कॅनडामध्ये दिल्लीपासून तामिळनाडूपर्यंत अनेक प्रांतातले लोक विविध उद्योगधंद्यात विशेषतः हॉटेल बिझिनेसमध्ये कार्यरत आहेत. टोरांटो, व्हॅ॑कूव्हर अशा मोठ्या विमानतळांवर फ्लाईट शेड्युल ‘गुरुमुखी’मधून सुद्धा लिहिलेले आहे. तसेच हिंदी जाहिरातीही लावलेल्या असतात.

व्हिसलर माउंटन, व्हॅ॑कूव्हर, बुशार्ट गार्डन्स

व्हॅ॑कूव्हर पोर्टहून व्हॅ॑कूव्हरच्या दक्षिणेला असलेल्या व्हिक्टोरिया आयलंडवर जायचे होते. त्या अवाढव्य क्रूझमध्ये आम्ही आमच्या बससह प्रवेश केला. एकूण ६०० मोटारी व २२००  माणसे आरामात प्रवास करू शकतील अशी त्या महाप्रचंड क्रूझची क्षमता होती. बसमधून बोटीत उतरून लिफ्टने बोटीच्या सहाव्या मजल्यावर गेलो.अथांग सागरातून बोट डौलाने मार्गक्रमण करू लागली. दूर क्षितिजावर निळसर हिरव्या पर्वतरांगा दिसत ंहोत्या. देशोदेशींचे प्रवासी फोटो काढण्यात गुंतले होते. बोटीवरील प्रवासाचा दीड तास मजेत संपला. बोटीतील लिफ्टने दुसऱ्या मजल्यावर येऊन आमच्या बसमधून व्हिक्टोरिया आयलंडवर उतरलो.

पॅसिफिक महासागराच्या या भागाला strait of Juan de fuca असे म्हणतात. सागरी सौंदर्य आणि इतिहास यांचा वारसा या बेटाला लाभला आहे. पार्लमेंट हाऊस, सिटी हॉल ,म्युझियम या इमारतींवर ब्रिटिश स्थापत्यशैलीची छाप आहे. राणी व्हिक्टोरियाचा भव्य पुतळा पार्लमेंटसमोर आहे. गहू, मका, अंजीर, स्ट्रॉबेरी अशी शेतीही आहे.

बेटावरील बुशार्ट गार्डनला पोहोचलो. ५० एकर जमिनीवर फुलविलेली बुशार्ट गार्डन्स जेनी आणि रॉबर्ट बुशार्ट यांच्या अथक मेहनतीतून उभी राहिली आहे. देशोदेशींचे दुर्मिळ वृक्ष, फुलझाडे, क्रोटन्स आहेत. मांडवांवरून, कमानींवरून सोडलेले वेल नाना रंगांच्या, आकाराच्या फुलांनी भरलेले होते. मोठ्या फ्लॉवरपॉटसारखी फुलांची रचना अनेक ठिकाणी होती. गुलाबांच्या वेली, तऱ्हेतऱ्हेची कारंजी, कलात्मक पुतळे यांनी बाग सजली आहे. देशी-विदेशी पक्ष्यांसाठी घरटी तयार केली आहेत. इटालियन गार्डन, जपानी गार्डन, देशोदेशींच्या गुलाबांची सुगंधी बाग असे पहावे तेवढे थोडेच होते. अर्जुन वृक्ष, अमलताशची (बहावा ) हळदी रंगाची झुंबरं, हिमालयात उगवणार्‍या ब्लू पॉपिजची झुडपे भारताचे प्रतिनिधीत्व करत होती. २००४ मध्ये या बागेचा शतक महोत्सव साजरा झाला. दरवर्षी लक्षावधी प्रवासी बुशार्ट गार्डनला भेट देतात. आजही या उद्यानाची मालकी बुशार्ट वंशजांकडे आहे.

व्हॅ॑कूव्हरपासून दीड तासावर असलेल्या व्हिसलर पर्वताच्या पायथ्याशी गेलो. तिथून एका गंडोलाने ( केबल कार ) व्हिसलर पर्वत माथ्यावर गेलो. व्हिसलर पर्वतमाथ्यावरून ब्लॅक कॉम्बो या पर्वतमाथ्यावर जाण्यासाठी दुसर्‍या गंडोलामध्ये बसलो. गिनिज बुकमध्ये नोंद असलेली, १४२७ फूट उंचीवरील आणि ४.५ किलोमीटर अंतर कापणारी ही जगातील सर्वात जास्त लांबीची व सर्वात उंचीवरून जाणारी गंडोला आहे. या गंडोलामधून जाताना खोलवर खाली बर्फाची नदी, हिरव्या पाण्याची सरोवरे, सुरूचे उंच वृक्ष, पर्वत माथे, ग्लेशिअर्स असा अद्भुत नजारा दृष्टीस पडला. ब्लॅककोम्ब पर्वतमाथ्यावर बर्फात खेळण्याचा आनंद लुटला. परत येताना काळ्या रंगाचे व सोनेरी रंगाचे अस्वल दिसले. पर्वतमाथ्यापर्यंत गंडोलातून सायकली नेऊन पर्वतउतारावरून विशिष्ट रस्त्याने सायकलिंग करत  येण्याच्या शर्यतीत तरुण मुले-मुली उत्साहाने दौडत होती. येताना उंचावरुन कोसळणारा शेनॉन फॉल बघितला.

जगामध्ये कॅनडा आकाराने दुसऱ्या नंबरवर ( पहिला नंबर रशियाचा ) आहे.९९८४६७० चौरस किलोमीटर क्षेत्रफळ कॅनडाला लाभले आहे. एकूण क्षेत्रफळापैकी ५४ % भाग हा घनदाट जंगलांनी व्यापलेला आहे.साधारण अडीच कोटी लोकसंख्या असलेल्या कॅनडाचा चार पंचमांश भाग अजूनही निर्मनुष्य आहे. कॅनडाच्या उत्तरेकडील अतिथंड बर्फाळ विभागात एस्किमो लोकांची अगदी थोडी वस्ती आहे. पण हा बर्फाळ भाग खनिज संपत्तीने समृद्ध आहे. शिवाय तेथील भूगर्भात खनिज तेलाचे व नैसर्गिक वायूचे प्रचंड साठे आहेत. पूर्वेकडे अटलांटिक महासागर, पश्चिमेकडे पॅसिफिक महासागर, उत्तरेकडे आर्किक्ट महासागर व दक्षिणेकडे अमेरिकेची सरहद्द आहे. दोन देशांना विभागणारी जगातील सर्वात लांब आंतरराष्ट्रीय सीमारेषा ही कॅनडा आणि अमेरिकेच्या दरम्यान असून तिची लांबी ८८९१ किलोमीटर आहे. जगातील सर्वात मोठी किनारपट्टी कॅनडाला लाभली आहे. सामन, ट्राऊट, बास, पाईक असे मासे प्रचंड प्रमाणात मिळतात. त्यांची निर्यात केली जाते. लेक ओंटारिओ,लेक एरी, लेक ह्युरॉन अशी ३६०० गोड्या पाण्याची सरोवरे समुद्रासारखी विशाल आहेत. प्रचंड प्रमाणात जलविद्युत निर्मिती होते व अमेरिकेला पुरविली जाते.

ॲसबेस्टास, झिंक, कोळसा, आयर्न ओर, निकेल, कॉपर,सोने, चांदी अशी सर्व प्रकारची खनिजे व धातू मिळतात. अर्धीअधिक जंगले फर, पाईन, स्प्रुस अशा सूचीपर्णी वृक्षांनी भरलेली आहेत. जगभरातील न्यूज प्रिंट पेपर व इतर पेपर्स बनविण्यासाठी मोठ-मोठ्या वृक्षांचे ओंडके तसेच पेपर पल्प यांचा कॅनडा सर्वात मोठा निर्यातदार आहे.

मेपल वृक्षाचे, हाताच्या पंजासारखे लाल पान हे कॅनडाचे राष्ट्रीय चिन्ह आहे. या मेपल वृक्षाच्या चिकापासून बनविलेले मेपल सिरप लोकप्रिय आहे. काळी अस्वले, कॅरिबू,मूस,एल्क,जंगली कोल्हे,गोट्स जंगलात सुखेनैव भटकत असतात. क्यूबेक,  नोव्हा स्कॉटिया, न्यू फाउंड लॅ॑ड असे पठारी विभाग सर्वोत्तम शेती विभाग आहेत. उत्पादनापैकी ८० टक्के गहू निर्यात केला जातो. प्रचंड मोठी कुरणे व धष्टपुष्ट गाईगुरे यांच्या प्रेअरिज आहेत.

कॅनडामध्ये जगातल्या वेगवेगळ्या २०० देशातील ४५ वंशाचे लोक राहतात. स्थलांतरित चायनीज लोकांचा पहिला नंबर आहे तर भारतीय वंशाचे लोक तिसऱ्या नंबरवर आहेत. भारतीय डॉक्टर्सना सन्मानाने वागविले जाते. गेली बावन्न वर्षे  ओटावाजवळ राहात असलेले, मूळचे बडोद्याचे असलेले डॉक्टर प्रकाश खरे – न्यूरॉलॉजिस्ट व डॉक्टर उल्का खरे- स्त्रीरोगतज्ञ यांची या प्रवासात हृद्य भेट झाली. इथल्या बहुरंगी संस्कृतीमुळे सर्वांच्या चालण्या-बोलण्यात एक प्रकारची खिलाडू वृत्ती आहे.

समृद्ध, संपन्न, विशाल कॅनडा बाहेरून जसा देखणा आहे तसंच त्याचं अंतरंगही देखणे आहे याची प्रचिती आली. कॅनडाचे तरुण पंतप्रधान जस्टिन त्रुडो यांनी सीरीयामधून येणाऱ्या निर्वासितांसाठी कॅनडाचे दार उघडले. येणाऱ्या निर्वासितांना समाजात सामावून घेण्यासाठी सर्वसामान्य नागरिकांना पुढे येण्याचं आवाहन केले. या आवाहनाला कॅनेडियन नागरिकांनी भरभरून प्रतिसाद दिला. कॅनडात आता अनेक कुटुंबे एकत्र येऊन सिरीयन कुटुंबाचे पालक बनतात. वर्गणी काढून निर्वासितांच्या घरांचं भांडं, कपडेलत्ते याचा खर्च करतात. त्यांच्या मुलांच्या शिक्षणाची जबाबदारी उचलतात. त्यांना इंग्लिश शिकायला, स्थानिक संस्कृती समजावयाला मदत करतात. आपल्या मुलांना निर्वासित कुटुंबातील मुलांबरोबर मैत्री करण्यासाठी प्रोत्साहन देतात . आळीपाळीने आपल्या घरी बोलावितात. अशी मदत करणाऱ्या इच्छुकांची संख्या एवढी मोठी आहे की सर्वच्या सर्व सीरीयन निर्वासितांना कोणत्या ना कोणत्या कुटुंबाचा आधार मिळाला आहे.

आज सर्व जगभर द्वेषावर आधारित समाजनिर्मिती करण्याचा प्रयत्न स्वतःची राजकीय पोळी भाजण्यासाठी केला जात आहे. अशा वेळी निरपराधी लोकांना जिवाच्या भीतीने आपला देश, घरदार, माणसे सोडून परागंदा व्हावे लागते. युक्रेनचे ताजे उदाहरण आपल्यापुढे आहेच. आपली सारी मूळं तोडून टाकून लहान मुले, स्त्रिया यांच्यासह दुसऱ्या देशात आसरा घेणे हे अपार जीवघेणे दुःख आहे . कॅनेडियन नागरिकांनी मानवतेला लागलेला काळीमा पुसण्याचा केलेला हा प्रयत्न निश्चितच कौतुकास्पद आहे.

भाग-६ व कॅनडा समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ईद मुबारक….आणि म्हैशाळवेसचा अब्दुल्ला…! ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ ईद मुबारक….आणि म्हैशाळवेसचा अब्दुल्ला…! ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

मिरजेतल्या किल्ल्याच्या कमानीतून म्हैशाळ वेसेकडे जाणाऱ्या रस्त्याच्या बाजूला अब्दुला चाचाचं लाकडी फळ्यांचं सुबक असं दुकान होतं.दुकानाच्या मागेच त्याची वखारही होती. तिथून जरा पुढच्या वळणाला असणाऱ्या झोपडपट्टीत आम्ही रहायचो.त्याच्या दुकानातून आम्ही कधी कधी वरक्या तर कधी गोळ्या विकत घ्यायचो.वखारीतनं जळण घेऊन जायचो. उंचपूरा,गोरापान आणि देखणा असणारा अब्दुल्ला अजूनही आठवतो.त्याचा लांबलचक सदराही त्याच्यासारखाच असायचा.

त्याची आठवण ईद दिवशी नेहमीच येत राहते. बकरी ईदच्या दिवशी अब्दुलाच्या घरी बकरं कापलं जायचं. त्याची खबर आमच्या झोपडपट्टीत पोहचायची. आम्ही गल्लीतली पोरं भगुलं घेऊन अब्दुल्लाच्या घरी जायचो.अब्दुल्ला मूठ मूठभर मटण प्रत्येकाच्या भगुल्यात द्यायचा. मटण बघून तिथच तोंडाला पाणी सुटायचं.कावळ्या कुत्र्यांना जपत आम्ही असं जिथं तिथं मिळणारं मूठ मूठ मटण घरी घेऊन यायचो.असं मूठ मूठभर मिळालेल्या डल्ल्यांनी झोपडपट्टीतली ईद हरखून जायची.कधी कधी अब्दुल्लाच्या घरातनं शिरकुरमा पण मिळायचा.तो ही आम्ही तांब्यातनं, कुणी भगुल्यातनं घरी न्यायचो.अब्दुला असं प्रत्येकाला भरल्या अंतकरणानं दानत देऊन पाठवायचा.     

आमच्या झोपडपट्टीत अशी प्रत्येक सणाला मज्जा असायची. कधी बिर्याणी आणि घट्ट जिगरीचा सुगंध झोपडपट्टीत दरवळत रहायचा. आमच्या झोपडीच्या पुढच लैलाभाभीची झोपडी होती.तिचीही आम्हा भावंडावर विशेष माया होती. नेहमी स्वच्छ व नीटनेटकी राहणारी गव्हाळ रंगाची,सुबक नाकेली आणि सडपातळ असणारी लैलाभाभी.तिच्या कडूनही या दिवसात काय बाय मिळत रहायचं.चोंगे,रोट आणि गुलगुल्यानं; तर कधी मलिद्यानं असं ज्या त्या सणात मिळणाऱ्या पदार्थांनी आमची पोटं गच्च भरायची. डोल्यांच्या दिवसात तडतडणाऱ्या ताशात दंगून जायचो. आमच्या झोपडीच्या पुढेच कत्तलीच्या रात्रीचा खेळ असायचा.अठरापगड जाती धर्मांच्या सणांनी  आमची झोपडपट्टी अशी घट्ट बांधली गेली होती. ‘सलाम अलेकुम ‘, ‘रामराम ‘ आणि  ‘जयभिम’ च्या वातावरणात लहानपणी वावरताना एकोपा जपलेली माणसं जिथं तिथं मोठ्यामनानं हसतमुखी आणि समाधानी भावनेनं आमच्या झोपडपट्टीत नांदत होती.

…… लहानपणी ईद दिवशी आमच्या झोपडपट्टीतली पोटं भरणाऱ्या अब्दुल्लाची आठवण आजही कधी त्या भागातून जाताना येते.अब्दुल्लाच्या वखारीतनं ढलप्याचं जळण आणि चहासाठी वरक्या घेऊन जातानाचे दिवस आठवत राहतात. अब्दुल्लानं दिलेल्या मूठ मूठभर मटणाची आणि शिरकुरम्याची आठवण येत राहते. आता अब्दुल्ला काय करतो.. कसा दिसतो माहीत नाही. पण उंचपुऱ्या, गोर्‍यापान आणि देखण्या अशा अब्दुल्लाचा चेहरा मात्र विसरता म्हणता विसरता येत नाही. अशा या माणसातला माणूस म्हणून भावलेल्या- अब्दुल्लाला मनापासून सलाम अलेकुम म्हणत दुवा द्यावासा वाटतो…….!

(माणसातली माणसं….. संग्रहातून)

© प्रा.अरुण कांबळे बनपुरीकर..

बनपुरी ता.आटपाडी जि.सांगली

मो ९४२११२५३५७

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मातृ दिवस विशेष – ओ माँ, प्यारी माँ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ मातृ दिवस विशेष – ओ माँ, प्यारी माँ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(नभछोर में आज सायं /एक साल पहले)

जन्म होते ही जिसे सबसे पहले बच्चा देखता है वह उसकी माँ होती है , प्यारी प्यारी माँ । पिता तो सूचना मिलने पर बाद में प्रवेश करता है उसके जीवन में । सबसे बड़ी सुरक्षा माँ की गोदी में महसूस करता है । पिता को भी कई बार इंकार कर देता है । माँ ही पहली शिक्षिका ।

मुझे अपना बचपन याद है । स्कूल के लिए तख्ती चमका कर देती थी । स्कूल से लौटने पर हिंदी की खूबसूरत लिखावट बनाती थी । इसलिए स्कूल काॅलेज तक मेरी लिखावट की प्रशंसा होती रही । दैनिक ट्रिब्यून में एक बार यूनियन की कोई सूचना टाइप न हो पाई तो मेरे पास आए कि लिख दो ।आपकी लिखावट टाइप से ज्यादा अच्छी है तो माँ बहुत याद आई । पिता नहीं रहे छोटी उम्र में । मैं ही भाई बहनों में सबसे बड़ा । माँ हर मुसीबत में कहती हऊ फेर यानी कोई चिंता की बात नहीं । यह हऊ फेर मेरे जीवन का मंत्र है । सब समस्या इस हऊ फेर से हल हो जाती है ।

शिवाजी मराठा की माँ जीजाबाई ने क्या कम रोल निभाया उनके जीवन में ? जीजाबाई जैसी माँ सबको नसीब नहीं होती और सब बच्चे शिवाजी मराठा नहीं बनते ।

आज माँ दिवस है । हम इसे अंग्रेजी स्टाइल में मदर्स डे कह कर मनाते हैं । सब विदेशी स्टाइल । वेलेनटाइन डे । वसंत पंचमी नहीं मनाते उतनी धूमधाम से । क्रिसमस पर खुश । नववर्ष पर खुश । विक्रम संवत भूल जाते हैं । माँ हमारी हिंदी भाषा और हम अंग्रेजी माँ के गुणगान करते नहीं थकते । भाषाएं जितनी सीख लें कोई बात नहीं पर मौसी के लिए माँ को भूल जाओ । यह तो बड़ी चिंता कि बात हुई न । हिंदी भाषी का मजाक उड़ाओ और अंग्रेजी भाषा वाले को गले लगाओ । यह तो बहुत चिंता की बात ।

आज माँ दिवस पर माँ को याद कीजिए । माँ ने क्या क्या सिखाया, उसका शुक्रिया कीजिए । माँ सिर्फ खुशी में खुश होती है । बदले में कोई गिफ्ट नहीं माँगती। बस । गद्गद् हो जाती है मानो उसकी तपस्या पूरी हो गयी हो ।

मुझे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी से कथा संग्रह एक संवाददाता की डायरी पर सम्मान पुरस्कार मिला तो पहुंचा नवांशहर अपने घर । माँ की खुशी का कोई पारावार नहीं था । पूरे मोहल्ले में लड्डू बांटने गयी ।

कुछ नहीं माँगा अपना लिए । माँ देती ही देती है । कभी बदले में कुछ माँगती नहीं । सबकी माँएं ऐसी ही ममतामयी होती हैं । पर हम लौटाना भूल जाते हैं । प्लीज । माँ दिवस को सिर्फ मनाने की बात न कीजिए । माँ को सम्मान दीजिए । माँ हमारे लिए सबसे पहले भाग कर दरवाजा खोलती है जबकि हम वृद्धावस्था में उसके लिए दरवाजे बंद कर देते हैं और मोक्षाश्रम छोड़ आते हैं । माँ का ऋण कब उतारोगे भाई ?

माँ हुदी ए माँ
ओ दुनिया वालेयो…

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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