हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 109 ☆ स्कूल की बड़ी बहनजी – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी – “स्कूल की बड़ी बहनजी”)

☆ संस्मरण # 109 – स्कूल की बड़ी बहनजी – 2  ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

वर्ष 1995 की गर्मियों में जब चौंतीस वर्षीया अर्थ शास्त्र में स्नातकोत्तर और बीएड की उपाधिधारी युवा रेवा रानी घोष ने अखबार में एक विज्ञापन देखा तो अपनी जन्म स्थली रांची को छोड़कर सुदूर आदिवासी अञ्चल में आदिवासियों की सेवा करने चली आई । यह संकल्प जब उन्होंने अपने पिता जोगेश्वर घोष और माता भवानी घोष को बताया तो घर में तूफान उठना स्वाभाविक था । ऐसे में वह विज्ञापन जब बड़ी बहन छविरानी घोष ने देखा तो वह आनंद से उछल पड़ी। विज्ञापन देने वाले डाक्टर प्रवीर सरकार, रामकृष्ण मिशन रांची के स्वामी गंभीरानन्द जी के द्वारा दीक्षित थे और इस प्रकार  उनके गुरु भाई थे। बहन ने माता-पिता को समझाया कि ‘रेवा समाज सेवा की इच्छुक है, यदि उसका विवाह कर भी दिया तो भी वह अपने संकल्प के प्रति समर्पित रहेगी और ग्रहस्थ जीवन के प्रति न्याय नहीं कर सकेगी उसे जाने दें ।‘ और इस प्रकार 02.02.1962 को रांची वर्तमान झारखंड में  जन्मी एक युवती अपने नाम के अनूरुप रेवा अञ्चल की आदिवासी बालिकाओं की बड़ी बहनजी बनकर अमरकंटक आ गई ।

मैंने जब उनसे माँ सारदा कन्या विद्यापीठ के आरंभ की कहानी जाननी  चाही तो वे भूतकाल में खो गई । वर्ष 1996 में जब यह विद्यालय शुरू हुआ तो पहला ठिकाना लालपुर गाँव का एक कच्चा मकान बना । लाल सिंह धुर्वे की इस झोपड़ी में कोई दरवाजा न था । आसपास के गांवों से पंद्रह  बच्चियाँ लाई गई, जिनमे से अधिकांश अत्यंत पिछड़ी आदिवासी आदिमजनजाति   बैगा समुदाय की थी । कच्ची झोपड़ी में डाक्टर सरकार और रेवारानी घोष इन्ही बच्चियों के साथ रहते और रात में बारी-बारी से चौकीदारी करते ताकि छात्राएं भाग न जाए। बाद में जब टीन का दरवाजा लग गया तो रतजगा कम हुआ पर दिन तो और भी मुश्किल भरे थे । पहली दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली बालिकाओं को माता-पिता की याद आती और वे दरवाजा खोलकर भाग देती, तब डाक्टर सरकार के साथ बहनजी भी कक्षा में पढ़ाना छोड़ उस बालिका के पीछे दौड़ लगाते और उसे पकड़ कर वापस पाठशाला में ले आते । अबोध बालिकाएं कभी रोती, कभी मचलती और हाथ पैर फटकारती । उन्हें प्यार से समझा बुझाकर स्कूल में रोके रखना दुष्कर कार्य था । शुरुआत के दिन मुश्किल भरे थे, फिर एक और शिक्षक प्रवीण कुमार द्विवेदी आ गए, तब बच्चों को दिन में सम्हालना सरल हो गया ।

छोटी-छोटी बालिकाओं का पेट भरना भी एक बड़ी समस्या थी । डाक्टर सरकार सदैव इसी जुगाड़ में लगे रहते कि किसी तरह कहीं से धन मिले तो अनाज खरीदें।  अक्सर उतनी धान नहीं मिल पाती की बच्चों को भरपेट भोजन कराया जा सके ।  और ऐसे में कभी भात तो कभी पेज से काम चलता । पेज बैगा आदिवासियों का प्रिय पेय है, इसे पकाने मक्का, कोदो,कुटकी, चावल को कूट-पीसकर हँडिया में डाल चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है और एक या दो घंटे बाद जब यह भलीभाँति सिक जाता है तब उसमें पर्याप्त ठंडा पानी डाल कर उसे पिया जाता है । अकेला चावल गले न उतरता, दालें खरीदना तो आर्थिक स्थिति में संभव नहीं था । ऐसे में चावल को खाने के लिए पकरी की भाजी का प्रयोग होता । पकरी, पीपल जैसा ही वृक्ष है और पतझड़ के बाद जब नई कपोलें इसमें आती तो उन्हें उबालकर सब्जी के रूप में खाया जाता । कसैले स्वाद वाली पकरी की भाजी खाने में बैगा कन्याएं तो सिद्धहस्त थी पर रेवा इसे बमुश्किल गुटक पाती। 

अक्सर यह होता कि चावल इतना पर्याप्त न होता कि सबका पेट भरा जा सके। ऐसे में बालिकाएं भोजन पकाने के बर्तन की तांक-झांक करती और जब हँडिया को खाली देखती तो अपनी थाली में से एक एक मुट्ठी अन्न  निकाल देती । यही पंद्रह मुट्ठी अन्न डाक्टर सरकार और बड़ी बहनजी का उदर पोषण करता । 

विद्यालय के दिन फिरे, भारत सरकार के आदिमजाति कल्याण मंत्रालय के संज्ञान  में डाक्टर सरकार का यह प्रकल्प आया । केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों की संयुक्त टीम ने लालपुर की झोपड़ी में संचालित विद्यालय का  निरीक्षण किया और फिर भवन निर्माण हेतु अनुदान स्वीकृत किया । लेकिन एक बार फिर  प्रारब्ध के आगे पुरुषार्थ हार गया । समीपस्थ ग्राम भमरिया में भवन निर्माण का काम शुरू हुआ। नीव बनते ही कुछ स्वार्थी तत्वों ने भोले भाले आदिवासियों को भड़काने में सफलता पाई और डाक्टर सरकार को  ग्रामीणों के तीव्र, कुछ हद तक हिंसक विरोध का सामना करना पड़ा। इन विकट  परिस्थितियों में पोड़की के गुलाब सिंह गौड़ ने अपनी जमीन भवन निर्माण हेतु दी और जब 2001 में विद्यालय  भवन बन गया तो थोड़ी राहत मिली । सभी बच्चे और कर्मचारी उस भवन में रात्रि विश्राम करते और सुबह उसी जगह बच्चे पढ़ते । बाद में जनसहयोग से कर्मचारी आवास, छात्रावास, अतिथिगृह आदि निर्मित हुए।

मैंने पूछा भवन आदि बनने के बाद तो समस्या खत्म हो गई होगी । रेवारानी घोष कहती हैं कि कठिनाइयाँ बहुत आई पर बाबूजी (डाक्टर सरकार) अनोखी मिट्टी के बने थे । एक बार तो लगातार तीन साल तक केंद्र सरकार से अनुदान नहीं मिला । बच्चों को भोजन की व्यवस्था किसी तरह उधार और दान की रकम से चलती रही पर कर्मचारियों को वेतन नहीं दिया जा सका। सभी लोग बाबूजी के साथ खड़े रहे और जब अनुदान की रकम आई तो बाबूजी ने पुराना हिसाब चुकाया, उन लोगों को भी बुला-बुलाकर बकाया वेतन दिया गया जो स्कूल छोड़ कर अन्यत्र चले गए थे । 

मैंने कहा आप स्थानीय लोगों से जनसहयोग क्यों नहीं लेती। वे कहती हैं कि यहाँ के मूल निवासी अत्यंत गरीब हैं, उनके खुद के खाने का ठिकाना नहीं रहता, ऐसे में उनसे आर्थिक सहयोग की अपेक्षा करना अमानवीय होगा । हाँ अक्सर विद्यालय में सार्वजनिक कार्यक्रम होते रहते हैं तब यहाँ के आदिवासी सेवा कार्य में पीछे नहीं रहते।

मैंने कहा कि जब आप युवा थी और उच्च शिक्षित थी तो सरकारी नौकरी कर घर बसाने की इच्छा नहीं हुई ।  वे कहती हैं कि रामकृष्ण मिशन से मानव सेवा की जो शिक्षा मिली थी उसको निभाना ही लक्ष्य था। कभी भी अपने इस निर्णय पर पछतावा नहीं हुआ। ऐसा कहते हुए उनकी आँखों में चमक आ गई ।

उनसे पढ़कर अनेक आदिवासी बैगा बालिकाएं शासकीय सेवा में हैं और कुछ अल्प शिक्षित इसी विद्यालय में कार्य करती हैं । वे सब अक्सर अपनी मातृ स्वरूपा बहनजी से मिलने सेवाश्रम आती हैं और बहनजी भी कितनी व्यस्त क्यों न हों अपनी इन मुँह बोली बेटियों को गले लगाती है ।       

बच्चों के बीच बड़ी बहनजी के नाम से लोकप्रिय रेवा रानी घोष आज भी कर्मचारी आवास के छोटे से कमरे में रहती हैं । और राम कृष्ण मिशन से मानव सेवा ही माधव सेवा है के जो संस्कार उन्हे मिले थे उसका पालन पूरी निष्ठा, लगन और समर्पण भाव से कर रही हैं । आप उन्हें कभी रसोई घर में भोजन पकाते तो कभी बच्चों को पढ़ाते तो यदाकदा प्राचार्य कक्ष में देख सकते हैं ।                          

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (71 – 75) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

चंद्र उदधि दोनों ही बढ़ हो जाते फिर क्षीण।

पर दोनों से बढ़ अतिथि, रहा सदैव नवीन।।71।।

 

सागरपोषित मेघ ज्यों देता है जल दान।

त्यों याचक दाता बने पा उससे वरदान।।72।।

 

स्तुत्य अतिथि सुन प्रशंसा होता था हियमान।

किन्तु सदा बढ़ता गया उसका यश औं मान।।73।।

 

दर्शन से कर नष्ट अघ, तत्व से कर तम नाश।

उदित सूर्य के गुणों का दिया प्रजा को भास।।74।।

 

चंद्र-किरण से कमल न, रवि से कुमुद विकास।

किन्तु अतिथि के गुणों ने किया शत्रु मन वास।।75।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १८ मे – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १८ मे – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

बाळशास्त्री जांभेकर

बाळशास्त्री गंगाधरशास्त्री जांभेकर (6 जानेवारी 1812 –   18 मे 1846) हे मराठीतील आद्य पत्रकार होते. 6 जानेवारी 1832 रोजी ‘दर्पण’ हे मराठीतील पहिले वृत्तपत्र सुरू करून ते मराठी वृत्तपत्रसृष्टीचे जनक ठरले.

सुरुवातीला घरीच वडिलांकडे त्यांनी मराठी व संस्कृतचा अभ्यास आरंभला.1825 मध्ये मुंबईत येऊन ते बापू छत्रे व बापूशास्त्री शुक्ल यांच्याकडे अनुक्रमे इंग्रजी व संस्कृत शिकू लागले. शिवाय गणित व शास्त्र यातही त्यांनी प्रावीण्य मिळवले.’बॉम्बे नेटिव्ह एज्युकेशन सोसायटी’च्या विद्यालयात ज्ञान कमवून 1834 साली एल्फिन्स्टन कॉलेजात पहिले एतद्देशीय व्याख्याते म्हणून ते नियुक्त झाले.त्यांच्यात पांडित्य व अध्यापनपटुत्व या गुणांचा मिलाफ होता.

बाळशास्त्रींना मराठी, संस्कृत, बंगाली, गुजराती, कानडी, तेलगू, फारसी, फ्रेंच, लॅटिन व ग्रीक या दहा भाषांचे ज्ञान होते.

गणित व ज्योतिष यांत पारंगत असल्यामुळे त्यांची कुलाबा वेधशाळेच्या संचालकपदी नेमणूक झाली.

बाळशास्त्रींना रसायनशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, प्राणिशास्त्र, वनस्पतीशास्त्र, न्यायशास्त्र, मानसशास्त्र, इतिहास या विषयांचे उत्तम ज्ञान होते. म्हणून तत्कालीन सरकारने मुंबई इलाख्याच्या शिक्षण विभागाचे अधिकारी म्हणून त्यांची नेमणूक केली. या काळात त्यांनी मोलाची भूमिका बजावली. त्या काळात पाठ्यपुस्तके तयार करण्याचे कठीण कामही त्यांनी केले.

बाळशास्त्रींनी प्राचीन लिप्यांचा अभ्यास करून कोकणातील शिलालेख व ताम्रपट यांवर शोधनिबंध लिहिले.ते रॉयल एशियाटिक सोसायटीच्या नियतकालिकात प्रसिद्ध झाले होते.

मुद्रित स्वरूपातील ज्ञानेश्वरी त्यांनीच प्रथम वाचकांच्या हातात दिली.

त्यांनी मराठी भाषेत ‘शून्यलब्धी’ हे पहिले पुस्तक लिहिले.

पारतंत्र्य, तसेच अज्ञान, अंधश्रद्धा वगैरेंनी ग्रासलेल्या समाजाचे प्रबोधन करण्यासाठी गोविंद विठ्ठल कुंटे व भाऊ महाजन यांच्या मदतीने त्यांनी ‘दर्पण’ हे मराठीतील पहिले वृत्तपत्र काढले. या वृत्तपत्रात मराठी व इंग्रजी भाषेत मजकूर असायचा. 6 जानेवारी 1832 ते जुलै 1840 अशी साडेआठ वर्षे हे वृत्तपत्र चालले.

यासोबतच त्यांनी 1840 साली ‘दिग्दर्शन’हे मराठीतील पहिले मासिक सुरू केले. भाऊ दाजी लाड, दादाभाई नौरोजी हे त्यांचे विद्यार्थी त्यांना यांत मदत करीत. लोकांची आकलनक्षमता वाढवणाऱ्या या मासिकात ते भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, पदार्थविज्ञान, निसर्गविज्ञान, व्याकरण, गणित, भूगोल, इतिहास वगैरे विषयांवर नकाशे, आकृत्यांसह लेख प्रकाशित करीत. त्यांनी 5वर्षे या मासिकाचे संपादन केले.

जांभेकरांनी ‘बॉम्बे नेटिव्ह जनरल लायब्ररी’ची  स्थापना केली.

विधवांचा पुनर्विवाह व वैज्ञानिक दृष्टिकोन याविषयी त्यांनी विपुल लेखन केले.विधवाविवाहाचा शास्त्रीय आधार शोधून गंगाधरशास्त्री फडके यांच्याकडून त्यांनी त्याविषयीचा ग्रंथ लिहून घेतला.

आजच्यासारखा ज्ञानाधिष्ठित समाज त्यांना दोनशे वर्षांपूर्वी अपेक्षित होता. ते द्रष्टे समाजसुधारक होते.

त्यांनी ‘नेटिव्ह इम्प्रूव्हमेन्ट सोसायटी’ची स्थापना केली. त्यातून ‘स्टुडन्टस लिटररी अँड सायंटिफिक सोसायटी’ला प्रेरणा मिळाली व दादाभाई नौरोजी, भाऊ दाजी लाड वगैरे दिग्गज कार्यरत झाले.

ख्रिस्त्याच्या घरात राहिल्यामुळे वाळीत टाकल्या गेलेल्या एका हिंदू मुलास शुद्ध करून पुन्हा हिंदू धर्मात घेण्याची त्यांनी व्यवस्था केली.

फ्रेंच भाषेतील नैपुण्याबद्दल फ्रान्सच्या राजाकडून त्यांचा सन्मान झाला होता.

1840 मध्ये त्यांना ‘जस्टिस ऑफ पीस’करण्यात आले.

6जानेवारी हा त्यांचा जन्मदिवस. याच तारखेला त्यांनी ‘दर्पण’ प्रकाशित करायला सुरुवात केली. म्हणून महाराष्ट्रात 6जानेवारी हा ‘पत्रकार दिवस’म्हणून साजरा केला जातो.

बाळशास्त्री जांभेकरांच्या स्मृतिदिनानिमित्त त्यांना आदरांजली.🙏

☆☆☆☆☆

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, विकीपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 132 ☆ काहूर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 132 ?

☆ काहूर… ☆

माझ्या मनीचे काहूर

कुणा सांगू सईबाई

असे एकाकी हा जीव

जशी अंगणात जाई

 

जशी अंगणात जाई

अंगोपांगी फुलारते

मनी सुगंधाची कळी

अपसूक उमलते

 

अपसूक उमलते

निळे कमळ पाण्यात

गतकाळाचे तरंग

कसे दाटती डोळ्यात

 

कसे दाटती डोळ्यात

जुन्या आठवांचे थवे

भाग्य तेच तेच लाभे

फक्त जन्म नव नवे

 

© प्रभा सोनवणे

१६ मे २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भोंगे… ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ भोंगे… ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

पाहून रंगबिरंगी भोंगे

मन अशांत झाले माझे

जशी मागणी तसे रंग

दुकानदार हे मज सांगे

 

हिरवा तो मशिदीचा

अजान त्यातून वाजे

केशरी तो मंदिराचा

चाळीसा हनुमान गाजे

 

मी विचारले हळूच मग

हिरव्यातून  चालीसा

अन् भगव्यातून अजान

वाजत नाही काहो दादा

 

म्हणे तो रंगात नसते काही

भोंग्या चे तत्व समजून घेई

प्रामाणिक तो असे ध्वनिला

बदलन्या रंग तो माणूस नाही

 

देऊ तुम्हास कोणता भोंगा

दुकानदार मज विचारे भाऊ

केसरी की हिरवा ते सांगा

की लाल निळा रंगवून देऊ

 

म्हणालो मी दे मज भोंगा

बिन रंगाचा जो कुठेही साजे

ज्यातून फक्त नी फक्त

जन गण मन हेच वाजे

© श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

चंद्रपूर,  मो. 9822363911

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?विविधा ?

☆ तो ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

आज मी ज्या विषयाला स्पर्श करणार आहे, हो तुम्ही बरोबरच वाचलेत, स्पर्शच करणार आहे असे मी फार जबाबदारीने म्हणतोय, त्याचे कारण म्हणजे या विषयाचा आवाकाच इतका प्रचंड आहे आणि त्या वरील दोन्ही बाजूने खूपच लिखाण अगोदरच झालेले आहे !

पण म्हणून माझ्या सारख्या, दोन्ही बाजूचे विचार वाचल्यावर, ज्याच्या मनाचा गोंधळ उडालेला आहे, अशा माणसाने त्या विषयी आपले मत व्यक्त करू नये असे थोडेच आहे?

“तो” अस्तित्वात आहे का नाही या विषयावर शतकानुशतके वाद चालू आहेत आणि जिथ पर्यंत मानव जात या पृथ्वीतलावर आहे, तिथपर्यत ते वाद असेच चालू राहतील यात कोणाला काडीचीही शंका घेण्याचे कारण नाही.

“तो”आहे असे मानणारा जो वर्ग आहे त्यांच्या मते, “त्याची” मर्जी असेल तरच झाडावरची पाने हलतात, फुले फुलतात एवढेच कशाला तर  “त्याच्या” मर्जीनेच चंद्र, सुर्य उगवतात अथवा मावळतात, पृथ्वी स्वतः भोवती गोल फिरते, वगैरे वगैरे. 

“तो’ नाहीच असे मानणारा जो वर्ग आहे, ते आपली बाजू मांडतांना विरुद्ध वर्गाची मते,  शास्त्रीय आधार देवून खोडून काढतात !

“त्याच्या” अस्तित्वाबाबतची दोन्ही गटांची मते, एक आहे रे आणि दुसरा नाही रे, आपण जर नीट वाचलीत, ऐकलीत,  तर आपल्या असे लक्षात येईल की ती दोन्ही मते इतकी टोकाची असतात की आपल्यास असे वाटवे की, एकजण उत्तर धृवा वरून बोलतोय तर दुसरा दक्षिण !  या मध्ये माझ्या सारख्या माणसाचा फारच म्हणजे फारच पोपट होतो बुवा  !  म्हणजे कधी उत्तर धृवाचा जे बोलतोय ते खरे वाटाते, तर कधी दक्षिणेचा जे सांगतोय ते पण पटावे !

मी या बाबतीत एक observe  केले आहे की, दोन्ही धृवावरील लोकांचे इतके प्रचंड brain washing झालेले असते, की त्यापैकी कोणीही दुसऱ्या बाजूचे मत ऐकण्याच्या मनस्थितीत कधीच नसतो. फक्त आपापल्या धृवावरुन आपणच कसे बरोबर आहोत, हेच  ओरडून ओरडून सांगत असतो आणि एकमेकास challenge करीत असतो !

हे उत्तर आणि दक्षिण ध्रुववाले आपापल्या विचाराने इतके भारावून गेलेले असतात, की

या दोन्ही गटांना आपला काही लोकांकडून राजकारणासाठी कसा उपयोग करून घेतला जातो आहे, हे त्यांच्या लक्षातच येत नाही म्हणा, अथवा त्या योगे आपल्याला मिळणाऱ्या प्रसिद्धीच्या पुढे ते त्याकडे काणाडोळा करीत असावेत !

पण या सगळ्या गोंधळात, त्या दोन्ही गटांकडे तटस्थपणे पाहणाऱ्या लोकांचा मला फार म्हणजे फार हेवा वाटतो ! हे लोक दोन्ही बाजू अगदी लक्षपूर्वक ऐकल्याचे दाखवतात आणि शेवटी आपल्या जे करायचे आहे तेच करतात !

समजा, आपल्या अत्यंत जवळच्या अशा प्रिय व्यक्तीचे त्याच्या जीवावर बेतणारे,  operation एखाद्या डॉक्टरने आपले कौशल्य पणाला लावून, आठ-नऊ तास खर्च करून, आपल्या त्या प्रिय व्यक्तीचे प्राण वाचवले असतील, तर त्या डॉक्टर मध्ये एखाद्याला “तो” दिसू शकतो !

मला असे वाटत की “तो” कधी कुणाला कुठे दिसेल याचा नेम नाही.  एखाद्याने आपल्याला अत्यंत अडचणीच्या वेळी जर योग्य मदत केली असेल आणि आपले त्या वेळेस जीवावरचे संकट दूर झाले असेल, तर आपण “त्याला” मदत करणाऱ्या माणसात बघतो आणि त्याचे उपकार जन्मभर विसरत नाही !

मग मला प्रश्न असा पडतो की “तो” खरच आहे का नाही आणि असलाच तर त्याचे नेमके रूप काय ? यावर निर्गुण, निराकार असे शब्द आपल्याला ऐकवले जातात ! पण त्याने माझे तरी समाधान होत नाही बुवा !

माझ्या मते आपण जर “त्याला” नीट शोधण्याचा प्रयत्न केला, तर आपल्या रोजच्या जीवनात “तो” आपल्याला ठाई ठाई दिसत असतो, अनुभवायला येत असतो, पण त्या साठी आपली नजर पारखी पाहीजे !

आपल्याला सुद्धा अशी पारखी नजर लाभो हीच सदिच्छा !

© प्रमोद वामन वर्तक

ठाणे.

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ विटी-दाडू – भाग-5 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ विटी-दाडू – भाग-5 ☆ श्री आनंदहरी

सहा महिन्यांपूर्वी राधाबाई रावसाहेबांची अर्धांगिनी वारली. गावाकडे रावसाहेव एकटेच जगत होते. घरा-दारात सर्वत्र राधाबाईंच्या आठवणी वावरत होत्या. . त्या आठवणीसोबतच राहिलेले आयुष्य त्यांना काढायचे होते. मुलगा सोबत घेऊन जाण्यासाठी आला तेंव्हा त्यांना राधाबाईंच्या आठवणींनी भरलेले ते सोडून जायची इच्छा नव्हती पण त्यांचा मुलगा त्यांना तिथे एकटं सोडायला तयार नव्हता.

‘बाबा, आजवर खूप ऐकले तुमचे पण आता नाही. मी काही तुम्हाला एकटे सोडणार नाही इथं… तुम्हांला आमच्यासोबतच राहावे लागेल.’

असे मायेने, काळजीने निक्षून सांगून मुलाने त्यांना आपल्यासोबत आणलेले होते…

पदपथावरून चालता चालता नेहमीप्रमाणेच रावसाहेबांना मुलाचे वाक्य आठवले आणि ‘सोबत’ हा शब्द आठवताच त्यांच्या चेहऱ्यावर उदास हसू तरळुन गेले.

‘सोबत’ याचा अर्थ तरी कळतोय काय त्याला. . ? एकाच छताखाली राहणे म्हणजे सोबत नसते. . त्यांच्या मनात आले आणि त्यांना राधाबाईंची आठवण आली. राधाबाई म्हणाल्या असत्या, ‘अहो, काळ बदललाय.. त्यांचे सगळे राहणीमान बदललंय.. त्यांचे विचार, त्यांच्या सुखाच्या व्याख्या बदलल्यात.. आपण त्यांना समजून घ्यायला नको का?’ 

राधाबाईंचे दुसऱ्याला समजून घेणे  हे नेहमीचेच होते. आधी सासू-सासऱ्यांच्या पिढीला समजून घेतले आणि नंतर सून-मुलाच्या पिढीला. मुलगा जेंव्हा त्याच्याच आयटी क्षेत्रातील  मुलीशी लग्न करतो म्हणाला तेंव्हा रावसाहेबांना वाटले होते राधाबाई काहीसा विरोध करतील पण त्या मुलाला म्हणाल्या होत्या..

‘तुला करावेसे वाटतंय ना मग कर.. कधीतरी वर्षा-सहा महिन्यातून तिला घेऊन चार दिवस इकडे येत जा म्हणजे झाले. आपले गाव, आपले घर, आपली माणसे आपली वाटली पाहिजेत रे…!’  आणि नंतर रावसाहेबांना म्हणाल्या होत्या. ‘आपणच त्यांना समजून घ्यायला नको का?’ 

राधाबाईंचे सगळेच त्यांना पटत होते पण तरीही अलीकडे त्यांच्या मनात उलट सुलट विचार येत होते.

मुलगा हुशार होता. त्याने खूप शिकावे असे त्यांना वाटत होते. . त्यांच्या इच्छेप्रमाणे मुलगा शिकला होता. इंजिनीअर झाला. स्वतःच्या पायावर उभा राहिला. आयटी क्षेत्रात नोकरीही करत होता.  त्यांनी आयुष्यात कधी कल्पनाही केली नव्हती एवढा मोठा पगार त्याला मिळत होता. या साऱ्याचा त्यांना खूप अभिमान होता. पण आज मात्र त्यांच्या मनात खूप वेगळे विचार येऊ लागले होते.. आपण त्याच्या मनात अशा मोठमोठ्या इच्छा, आकांक्षा पेरण्यात चूक तर केली नाही ना? आज मुलगा-सून जे जगतायत त्याला का जीवन म्हणायचे ?  सकाळी जातात ते रात्री कधीही येतात, त्यातही येण्याची निश्चित अशी वेळ नाहीच. ‘दोन डोळे शेजारी आणि भेट नाही संसारी ! ‘म्हणतात तसे यांचे जीवन. एखाद्या मशीन सारखे नव्हे तर अलीकडे रोबोट का काय म्हणतात तसे ते जगतायत. . अगदीच यंत्रमानव होऊन गेलेत. . हे सारे आपल्या संस्काराचेच; खूप शिकावे, मोठे व्हावे या इच्छेचेच फळ आहे काय?

मुलाच्या लग्नानंतर त्याने टू बीएचके फ्लॅट घेतला तेंव्हा राधाबाई सुनेला म्हणाल्या होत्या. . ‘आता नातवंड खेळू दे आमच्या मांडीवर..’ तेंव्हा सून म्हणाली होती, ‘आई, आमचे ठरलंय, कमीतकमी नवा थ्री बीएचके फ्लॅट घेतल्याशिवाय मुलाचा विचार करायचा नाही.. त्याला सगळी सुखे द्यायची आहेत आम्हांला..’ एक स्वप्न पूर्ण झाले की त्याचा आनंद मिळवत राहण्याआधीच पुढच्या मोठ्या स्वप्नाकडे धावायला सुरवात करायची हे का जीवन आहे?

पस्तिशीला आले तरीही अजून मुलाचा विचारही करायला तयार नाहीत ते. . याला काय म्हणायचे?

गेल्या काही दिवसांच्या सवयीने रावसाहेब बागेत येऊन नेहमीच्या बाकावर येऊन बसले तरी त्यांच्या मनातील विचारांचे, आठवणींचे वादळ शमले नव्हते.

राधाबाई गेल्यानंतर ते मुलांसोबत आले होते पण त्यांचे एकाकीपण संपले नव्हते. इथं मुलगा आणि सून स्वतःच्या नोकरीत एवढे व्यस्त होते की त्यांना एकमेकांशी बोलालयलाही वेळ मिळत नव्हता. एखाद्या धर्मशाळेत अनोळखी पांथस्थ मुक्कामाला उतरावेत आणि त्यांच्या जेवढे आणि जसे बोलणे व्हावे तसे किंबहुना त्याहूनही कमीच बोलणे एकमेकांत होत होते. . निवांत बसून एकमेकांशी गप्पा मारणे हा प्रकारच नव्हता. गावाकडे आयुष्य घालवलेल्या रावसाहेबांना ते प्रकर्षाने जाणवत होते, त्या साऱ्याची उणीव जाणवत होती. तशी मुलगा-सून अगदी आपुलकीने, आपलेपणाने जाता येत त्यांची चौकशी करीत होते, त्यांना हवे-नको ते पाहत होते, नाही असे नाही पण गावाकडल्यांसारखा मोकळा वेळ त्यांच्याकडे नव्हता आणि रावसाहेबांकडे न सरणारा मोकळा वेळच वेळ होता. गावाकडे समोरून जाणा-येणारा कितीही घाई-गडबडीत असला तरी हटकून थांबतो. . हाक मारून दोन शब्द बोलून मगच पुढे जातो. . तसला काही प्रकार इथे नव्हता आणि या साऱ्यामुळेच रावसाहेबांचे मन इथं रुजलेंच नव्हते. . त्यांच्या सोबत इथं येऊनही ते काही दिवसातच गावाकडे परतले होते.

क्रमशः…

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ आपण आपली आई… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ.सोनिया कस्तुरे   

परिचय

शिक्षण – BAMS PGDPC

खाजगी वैद्यकीय व्यवसाय व मानसशास्त्रीय समुपदेशक

छंद – वाचन, लिखाण, समतेचा विचार मांडणं, आनंदी जगण्यासाठी करिअर व सहजीवन समुपदेशन

 ? मनमंजुषेतून ?

☆ आपण आपली आई… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

सगळे म्हणत होते तेव्हा

खूप जणांचे फोनही आले..

प्रत्यक्ष भेटून हेच बोलले

मेसेजवर मेसेज मिळाले

आम्ही आई आहोत तुझी

आम्ही आई होऊ तुझी

आई गेली तेव्हा…!

आपल्यालाही खरं वाटू लागतं

आपणही विश्वासून जातो.

प्रत्येक माणसातल्या आईपणावर..!

काही दिवसांनी कळून चुकतं ..

आई माणूस असते पण.. 

माणसं, माणूस होऊ शकतील

पण कुणाची आई होता येईल 

इतकं शक्य आई होणं नसतंच मुळी..!

एवढं अथांग, खोल प्रेम.. 

इतका जिव्हाळा, इतकी काळजी,

इतकं जीवापाड जपणं

सर्वस्व पणाला लावून पिल्लांना वाढवणं

स्वतः  विस्कटली तरी मुलांच जगणं उभं करणं

त्याग समर्पणात आनंदी होणं…!

एखाद्या प्रति कसं शक्य होईल..!

आई ही एकमेवाद्वितीयच..!

केवळ आपली आणि आपलीच..!

या अलौकिक नात्याला पर्याय नसतो..!l

आॕक्सीजनशिवाय गुदमरणं होईल, अगदी तसं..

 

मग ठरवलं—-

 

आपल्यातल्या आईला आपल्यासाठी साद घालायची..!l

आपणच आपली आई व्हायचं..!

स्वतःच्याच केसातून, गालावरुन स्वतः हात फिरवायचा..!

माया माया करत मनातून गोंजारायचं..!

स्वतःच रात्री अंगाई गीत गायचं..!

आपल्याच कुशीत आपण शिरायचं..!

आठवणीच्या हिंदोळ्यावर झुलत राहायचं..!

आपणच आपली आई व्हायचं…!—

 

स्वतःवर मनापासून प्रेम करायचं…!

आपणच आपली आई व्हायचं…!

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ फक्त 155260 हा नंबर करा डायल… ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ फक्त 155260 हा नंबर करा डायल… ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

(केवळ वाचकहितार्थ )

बॅंकेतून अथवा ऑनलाइन व्यवहाराद्वारे  पैसे गेल्यास घाबरू नका; फक्त ‘ १५५२६०’   हा नंबर करा डायल

काही मिनिटांत आपली  रक्कम होल्डवर जाईल

सायबर गुन्हेगाराने फसवल्याचे  कळताच त्वरित १५५२६० या क्रमांकावर कॉल केल्यास सायबर यंत्रणा कामाला लागते आणि अवघ्या सात ते आठ मिनिटांत ट्रान्सफर झालेली रक्कम होल्ड केली जाते. कारण, गुन्हेगार पैसे चोरी करण्यासाठी अनेक खात्यांचा वापर करीत असतात. कॉल येताच संबंधित बॅंक अथवा ई-साइटला अलर्ट केले जाते. त्यामुळे ट्रान्सफर सुरू असतानाच पैसे होल्ड केले जातात.

यंत्रणा काम कशी करते?

हेल्पलाइन क्रमांकावर कॉल येताच नाव, मोबाईल, खाते क्रमांक, पैसे वजा झाल्याची वेळ ही महत्त्वाची माहिती विचारली जाते. त्यानंतर सर्व माहिती  http://cybercrime.gov.in/  या गृहमंत्रालयाच्या संकेतस्थळावरील डॅशबोर्डवर शेअर केली जाते. याकामी आरबीआयचेही सहकार्य मिळत आहे. क्राईम झाल्यानंतर पहिले दोन ते तीन तास अत्यंत महत्त्वपूर्ण असतात. आतापर्यंत अनेक नागरिकांना त्यांचे पैसे परत मिळाले आहेत.

एकप्रकारचे सुरक्षा कवच

http://cybercrime.gov.in/ हे संकेतस्थळ आणि १५५२६० हा हेल्पलाइन क्रमांक म्हणजे एकप्रकारे सुरक्षा कवच आहे. याला ‘इंडियन सायबर क्राईम कोऑर्डिनेशन प्लॅटफार्म’ असेही म्हणतात. याच्याशी जवळपास ५५ बॅंका, ई-वॉलेटस् ,पेमेंट गेटवेज, ई-कॉमर्स संकेतस्थळ आणि अन्य वित्तीय सेवा देणाऱ्या खुप  संस्था जुळलेल्या आहेत.

(अग्रेषित : सायबर क्राईम पेट्रोल) 

(केवळ वाचकहितार्थ)   

प्रस्तुती – मंजुषा सुनीत मुळे 

९८२२८४६७६२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २२ – भाग १ –  जॉर्डन – लाल डोंगर, निळा सागर ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २२ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ जॉर्डन – लाल डोंगर, निळा सागर  ✈️

जॉर्डनला जायचं ठरलं तेंव्हा मध्यपूर्वेतील वातावरण थोडं अशांत होतं. ‘अरब- इस्त्रायल संघर्ष नेहमीचाच’ असे म्हणत आम्ही प्रवासाचा बेत कायम ठेवला. जॉर्डनची राजधानी अम्मान इथे उतरलो. विमानतळावरच आवरून, नाश्ता करून पेट्रा इथे जायला निघालो. रमजान सुरू झाला होता पण प्रवाशांना रमजानची बंधनं नव्हती. चार तासांनी पेट्रा इथे पोहोचलो.

हॉटेलवर जेवून रात्री ‘पेट्रा बाय नाईट’ चा अनुभव घ्यायला निघालो. पेट्राच्या प्रवेशद्वारापासून रस्ता खोलगट, उंच-सखल, खडबडीत होता. रस्त्याच्या दुतर्फा कागदी पिशव्यांमध्ये दगड व वाळू भरून एक- एक मेणबत्ती लावलेली होती. आकाशात अष्टमीची चंद्रकोर, सुनसान काळोख, थंड वारा आणि दोन्ही बाजूंना उंच, वेडेवाकडे डोंगरकडे होते. अरुंद घळीत दोन्ही बाजूंचे डोंगरकडे एकमेकांना भेटायला येत तेंव्हा त्यांच्या फटीतून काळसर पांढऱ्या चाफेगौर आकाशाची अरुंद पट्टी दिसत होती. सोबतीला असलेला सिक्युरिटीचा कुत्राही मुकाट चालत होता. पुढे-पुढे रस्त्यावरील कागदी पिशव्या व त्यातील मेणबत्या यांची संख्या वाढू लागली. काळोख अधिकच गहन- गूढ वाटू लागला.अकस्मात ‘खजाना’ समोरच्या प्रांगणात शेकडो मेणबत्या उजळलेल्या दिसल्या. ‘खजाना’ ही इसवी सन पूर्व पहिल्या शतकातील म्हणजे  २३०० वर्षांपूर्वीची टूम्ब अजूनही बरीचशी सुस्थितीत आहे. लालसर दगडांच्या डोंगरातून कोरून काढलेले हे शिल्पकाव्य शंभर फूट रुंद व दीडशे फूट उंच आहे . नेबेटिअन्स म्हणजे भटकी अरबी जमात इथे स्थिरावली.राज्याबरोबरच त्यांनी कला व संस्कृती यांची जोपासना केली.’खजाना’च्या भव्य वास्तूवर ग्रीक, रोमन आणि इजिप्तशिअन संस्कृतीचा प्रभाव आहे.सहा उंच, भव्य दगडी खांबांवर ही लालसर गुलाबी दुमजली इमारत उभी आहे. इसिस या देवतेचा पुतळा, गरुड, नृत्यांगना आणि मधोमध कलशाच्या आकाराचं भरीव दगडी  बांधकाम आहे.

शेकडो मेणबत्त्यांच्या प्रकाशात शंभर एक प्रवासी, खाली अंथरलेल्या जाजमावर बसून शांतपणे अरबी कलावंतांनी सादर केलेल्या अरबी संगीताचा आस्वाद घेत होते.त्यात सामिल झाल्यावर काळाचा पडदा बाजूला करून प्राचीन काळात डोकावून आल्याचा  अनुभव मिळाला.

आज पुन्हा दिवसाउजेडी पेट्राला भेट द्यायची होती. त्यासाठी आज दोघींसाठी एक अशा घोडागाड्या ठरवल्या. आता सकाळच्या उजेडात ते लालसर डोंगर त्यांचे वेगवेगळे आकार स्पष्ट दिसू लागले. कुठे ध्यान गुंफा कोरलेल्या आहेत तर कुठे उंट, अरबी माणूस असं कोरलेलल आहे.डोंगरकड्यांच्या पायथ्याशी जरा वरच्या बाजूला पन्हळीसारखं खोदलेलं आहे. ती पूर्वीची पाणी पुरवठ्याची व्यवस्था  होती. काही दगडांचे रंग हिरवे व निळे होते. पेट्राची गणना  आता नवीन सात जागतिक आश्चर्यात केली आहे. तसंच पेट्राला वर्ल्ड हेरिटेजचा दर्जाही मिळाला आहे. घोडागाडीतून ‘खजाना’पर्यंत पोहोचलो. तिथून पुढे जाण्यासाठी उंटाची किंवा गाढवाची सफारी होती. चालतही जाता येत होतं. अनेक डोंगरातून छोट्या टूम्बस् बांधलेल्या आहेत. पुढे खूप मोठं रोमन पद्धतीचं अर्धवर्तुळाकार दगडी पायऱ्या असलेलं ओपन एअर थिएटर आहे. तिथे ३००० लोकांची बसण्याची व्यवस्था होती. देवळांसारखं बांधकाम, बळी देण्याच्या जागा, रस्त्यांच्या दोन्ही बाजूला उंच, कोरीव, रोमन पद्धतीचे खांब अशी अनेक ठिकाणं बघता येतात. या व्हॅलीच्या शेवटी आठशे पायऱ्या चढल्यानंतर एक मॉनेस्ट्री आहे.आम्ही त्या मॉनेस्ट्रीचे दर्शन पेंटिंगज््मधून घेतले. गाईडने दोनशे वर्षांपूर्वीची डेव्हिड रॉबर्ट्स यांनी काढलेली लिथोग्राफिक पेंटिंग्ज दाखवली. त्यावरून त्या मोनेस्ट्रीची कल्पना आली. निरनिराळ्या अरब टोळी प्रमुखांच्या मीटिंग इथे होत असत. पारंपारिक वेषातले हे पुढारी बंदूक वगैरे हत्यारे बाळगीत. इथे पुढे आलेल्या खडकावर वॉच टॉवर बांधलेला आहे. उंटांचा तांडा बांधण्याची जागाही होती.

‘खजाना’ च्या पुढ्यात अनेक विक्रेते अरबी पारंपारिक कलाकुसरीचे ब्रेसलेट्स, कानातील वगैरे विकत होते. एक विक्रेता अगदी लहान तोंडाच्या काचेच्या गोल बाटलीत तिथली वाळू दाबून भरून त्यात रंगीत वाळू घालीत होता. नंतर त्याने काळा रंग दिलेली वाळू घातली आणि लांबट गाडीने त्या काळ्या वाळूमध्ये उंटांचा काफिला, आकाशात उडणारे पक्षी असं कोरलं.  लालसर वाळू घालून अस्ताचलाला जाणारं सूर्यबिंब काढलं. त्या बाटलीचे तोंड चिकट वाळूने बंद केलं. अनेक हौशी प्रवाशांनी त्या बाटल्या विकत घेतल्या. माणसाच्या रक्तातील कलेची बीजे सनातन आहेत. उपलब्ध साधनांचा उपयोग करून माणूस वेगवेगळ्या कलाकृती घडवत राहतो हे निखळ सत्य आहे.

परत जाण्यासाठी घोडागाडीत बसलो पण आमच्या गाडीचा अरबी, उंचनिंच, तांबूस घोडा अडून बसला.त्याला परतीच्या मार्गावर यायचंच नव्हतं. दोन पावलं टाकली की तो मागे तोंड करून वळण्याचा प्रयत्न करी. मालकाची व त्याची झकास जुगलबंदी चालू होती. माझी मैत्रीण अनघा म्हणाली ‘अगं,  घोड्याच्या मनात आपल्याला इंच-इंच पेट्रा दाखवायचं आहे. आपण सावकाशपणे आजूबाजूला बघत जाऊ.’ बरोबरीच्या गाड्या ठरलेल्या ठिकाणी पोहोचल्यानंतर आम्ही अर्ध्या-पाऊण तासाने परतलो.’अडेलतट्टूपणा’ म्हणजे  काय? याचा  साक्षात अनुभव घेतला.

आज ‘वाडी रम’ इथे गेलो. ‘वाडी रम’ म्हणजे चंद्रदरी. चार मोठ्या चाकांच्या बदाऊनी जीपमधून दोन तासांची सफर होती. डोक्यावर रणरणतं ऊन होतं पण झुळझुळणारा वारा उन्हाची काहिली कमी करीत होता. नजर पोचेल तिथपर्यंत लालसर पांढरी अफाट वाळू पसरलेली होती. त्यात जागोजागी सॅ॑डस्टोनचे उंच, महाकाय डोंगर उगवलेले होते. हजारो वर्षे ऊन, वारा, वादळ यांना तोंड देऊन त्यांचे आकार वेडेवाकडे झाले आहेत. ते पाहून अर्थातच ‘लॉरेन्स ऑफ अरेबिया’ हा भव्य चित्रपट आणि त्यातील पीटर ओ टूल यांची अविस्मरणीय भूमिका आठवली. ब्रिटिश सैन्यात अधिकारी असलेल्या टी. इ. लॉरेन्स यांनी जॉर्डनमध्ये येऊन अनेक नैसर्गिक व मानवी संकटांना तोंड दिलं. सर्व अरब टोळ्यांना एकत्र केलं. त्यावेळी जॉर्डनवर ऑटोमन साम्राज्याचं राज्य होतं.लॉरेन्स यांच्या नेतृत्वाखाली ऑटोमन्सचा पराभव झाला.  पहिल्या महायुद्धानंतर (   १९१८ ) जॉर्डन ब्रिटिशांच्या ताब्यात गेलं. नंतर १९४६ साली जॉर्डनने स्वातंत्र्य मिळवलं. हा सारा इतिहास त्या वालुकामय प्रदेशात घडला होता.

दोन तास वालुकामय डोंगर सफर केल्यावर गाईडने खाली उतरवून एका छोट्याशा टेकडीकडे नेलं. तिथे  लॉरेन्स यांचा अरबी वेशातील अर्धपुतळा कोरलेला आहे. दुसऱ्या बाजूला त्यांना साथ देणाऱ्या प्रिन्स फैजल हुसेन यांचाही अर्धपुतळा कोरलेला आहे. नंतर एका बदाऊनी तंबूमध्ये गेलो. हे परंपराप्रिय अरब लोक वाळवंटात तंबूत राहणंच पसंत करतात. उंट व  शेळ्या- मेंढ्या पाळतात. तो तंबू लांबट- चौकोनी आकाराचा होता. त्याला काळपट हिरव्या रंगाची घोंगडीसारखी जाड कनात होती. जमिनीवर सुंदर डिझाईनची जाडसर सतरंजी होती. ‘ही सतरंजी मी स्वतः मेंढीच्या  लोकरीची विणली आहे’ असं तिथल्या अरबी माणसाने  सांगितलं. मधल्या लाकडी टेबलावर कशिदा कामाचे अरबी ड्रेस, औषधी वनस्पती, धातुचे दागिने वगैरे विकायला ठेवले होते. आम्हाला साखर व दूध नसलेला, हर्बस् घातलेला छान गरम चहा मिळाला.

तिथून अकाबा इथे गेलो. अकाबा हे जॉर्डनच्या दक्षिणेकडील तांबड्या समुद्रावरील बंदर आहे. रस्ते स्वच्छ व सुंदर आहेत. आधुनिक इमारती, मॉल्स, बागा, कारंजी अशी शहराची नवीन रचना उभारण्याचे काम चालू होते. समुद्राचं नाव ‘रेड सी’ असलं तरी पाणी झळझळीत निळं, पारदर्शक आहे. इथे यांत्रिक होडीतून दोन तासांची सफर होती. होळीच्या तळाला मोठी हिरवट काच बसलेली होती. दूरवर समुद्रात अवाढव्य मालवाहू बोटी उभ्या होत्या. पलीकडले लालसर डोंगर फॉस्फेट रॉकचे होते. एका बोटीत फॉस्फेट रॉक भरण्याचं काम चालू होतं.

थोड्याच वेळात होडीच्या तळातील काचेतून निळाईतला खजिना दिसायला लागला. असंख्य प्रकारची, सुंदर रंगांची कोरल्स दिसायला लागली. त्यातून जाड्या सुतळीसारखे काळसर रंगाचे साप, छोटे छोटे काळे, सोनेरी, लालसर रंगाचे मासे झुंडीने फिरत होते. निळे, जांभळे, पिवळट पांढरे, अशा अनेक रंगांचे व आकाराचे कोरल्स होते. कमळाचे ताटवे फुलावे अशी हिरव्या, शेवाळी रंगाची असंख्य कोरल्स होती. उंच जाडसर गवतासारखी कोरल्स समूहाने डोलत ,’डोला रे डोला’  नृत्य करीत होती. काही कळ्यांसारख्या कोरल्सची तोंडं एकाच वेळी उघडत मिटत होती. काही फणसासारखा आकारांचे, शेवाळी रंगाचे मोठे कोरल्स होते. निसर्गनिर्मित, पाण्याखालची अद्भुत सृष्टी पाहून मजा वाटत होती. माणसांची बेपर्वा वृत्ती इथेही दिसत होती. या प्रवाळांबरोबरच असंख्य प्लास्टिक बाटल्या,पेयांचे कॅन्स,दोऱ्या,रबरी नळ्या अशा अगणित वस्तू समुद्राने पोटात घेतल्या होत्या. एवढंच नव्हे तर एक बुडालेले जहाज आणि दुसऱ्या महायुद्धानंतर निकामी झालेला एक रणगाडादेखील समुद्राच्या पोटात होता. समुद्रजीव ( कोरल्स ) इतके समजूतदार की त्यांनी जहाजावर, रणगाड्यावर आपल्या वसाहती स्थापन केल्या होत्या आणि बाकीच्या भंगाराकडे दुर्लक्ष केलं होतं. समुद्रात लाल रंगाची कोरल्ससुद्धा आहेत आणि  समुद्राभोवतीचे डोंगर लालसर रंगाचे आहेत म्हणून कदाचित या निळ्या-निळ्या  समुद्राला ‘रेड सी’ म्हणत असावेत.

जॉर्डन भाग–१ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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