मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

प्रस्तावना-

गुरुदेव रवींद्रनाथ टागोर यांना गीतांजली साठी नोबेल पारितोषिक मिळाले. एक तत्त्वज्ञ, महाकवी यांची, गंगेच्या किनारी नीरव शांततेत, निसर्गाची अनेक अद्भुत रुपे पहात फिरताना तरल सर्वव्यापी काव्यनिर्मिती म्हणजे गीतांजली. प्रेम, समता आणि शांती यांचा संदेश देणारी. इंग्रजी भाषेतील गीतांजली मा. ना. कुलकर्णी यांच्या वाचनात आली. इंग्रजी भाषेवर त्यांचे प्रभुत्व होते तसेच त्यांना साहित्याची आवड होती. संत साहित्याचे वाचन, चिंतन, मनन करत असत. टागोरांची गीतांजली त्यांना निसर्गरुपी ईश्वराशी तादात्म्य पावणारी कविता वाटली. त्यांना मिळालेले ज्ञान, तो आनंद, इतरांना मिळावा म्हणून त्याचा मातृभाषेत भावानुवाद केला, जो पुस्तक रुपाने प्रसिद्ध झाला. ई- अभिव्यक्ती – मराठी मध्ये या कविता क्रमशः प्रसिद्ध होत आहेत, ह्यासाठी सर्व संपादक मंडळाला मी कृतज्ञता पूर्वक धन्यवाद देते.

☆  गीतांजली भावार्थ

१.

हे नाजूक भांडे तू पुन्हा पुन्हा रिते करतोस,

आणि नवचैतन्याने पुन्हा पुन्हा भरतोस

 

ही बांबूची छोटी बासरी

दऱ्याखोऱ्यांतून तू घुमवितोस

तिच्यातून उमटणारे नित्यनूतन संगीत

तुझेच श्वास आहेत.

 

तुझ्या चिरंतन हस्त स्पर्शाने

माझा चिमुकला जीव आपोआपच

मर्यादा ओलांडतो

आणि त्यातून चिरंतन बोल उमटतात

 

माझ्या दुबळ्या हातात न संपणारं दान ठेवतोस,

युगं संपली तरी ठेवतच राहतोस,

आणि तरीही ते हात रितेच राहतात

 

तुझी किमया अशी की,

मला तू अंतहीन केलेस !

 

२.

मी गावं अशी आज्ञा करतोस यात

केवढा माझा गौरव

नजर वर करून तुला पाहताना

माझं ह्रदय उचंबळून येतं

बेसूर जीवन मुलायमपणे एका

मधुर संगीतानं फुलून येतं

आणि सागरावर विहार करणाऱ्या

समुद्र पक्ष्याप्रमाणं

माझी प्रार्थना पंख पसरते

 

माझं गाणं ऐकून तू सुखावतोस

तुझ्या सान्निध्यात एक गायक म्हणूनच

मला प्रवेश आहे

 

ज्या तुझ्या अस्पर्श पावलांना

माझ्या दूरवर पसरणाऱ्या गीतांच्या पंखांनी

मी स्पर्श करतो,

गाण्याच्या आनंद तृप्तीने मी स्वतःला विसरतो

 

– मा. ना.कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

फोन नंबर – 7387678883

 

©️ सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 78 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 78 –  दोहे ✍

पाषाणों पर फूल हैं, फूलों में रस गंध।

हमें प्रेरणा दे रहे, रच लो  नेह निबंध।।

 

गिरते पड़ते चढ गए, विजित हुई चट्टान।

वानर नर को दे रहे, अपना संचित ज्ञान।।

 

पाषाणों की गोष्ठी चर्चा में प्रस्ताव ।

क्या मानव अब हो गया, धधका हुआ अलाव।।

 

शीला संतुलन सिखाती, हमको जीवन योग।

अपनाकर तो देखिए ‘सम्यक’ योग प्रयोग।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 80 – “तिस पर बेबस हलवाहा…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “तिस पर बेबस हलवाहा…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 80 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “तिस पर बेबस हलवाहा…”|| ☆

टूट गया बल्ली का मूढ़ा

सिर पर लटक रहा।

तिस पर छप्पर कोने में

नलके सा टपक रहा ।।

 

गीला हुआ नाज पीपे में

है फफूंद उपजी ।

वह भी तो सड़ गई

कटोरे की बासी सब्जी ।

 

तिस पर बेबस हलवाहा

घर आता ही होगा-

जो भूखा बैलों पर गुस्से में

लठ पटक रहा ।।

 

इधर दुधारू गाय

दूध देने से मुकर गई ।

जिसकी भरपाई करने

को लेना पड़े नई।।

 

तो, पैसों के लिये राम-

कलिया जब बैंक गई –

अहसानो का बोझ

बैंक-अधिकारी पटक रहा।

 

है गरीब की बड़ी परिच्छा

कर्जे में जीना ।

सेल्फास खा मरा

अकिंचन अपना रमदीना।

 

हर किसान अब दुखी

दिखाई देता है सबको-

जो कर्जे के निराकरण

को गोली गटक रहा।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

07-02-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 26 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 26 ??

पुस्तक मेला- वाचन संस्कृति के प्रचार में  राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की बड़ी भूमिका है। पाठकों तक स्तरीय पुस्तकें पहुँचाने के लिए न्यास, देश के विभिन्न शहरों में पुस्तक मेला का आयोजन करता है। इन मेलों के माध्यम से लेखक, प्रकाशक और पाठक के बीच एक सेतु बनाता है।

हरेला मेला- उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल में हरेला मेला वर्ष में  तीन बार क्रमश: चैत्र, श्रावण एवं अश्विन में लगता है। इनमें श्रावण माह में ‘भीमताल’ नामक स्थान पर लगने वाले  मेले का विशेष महत्व है। इस मेला में सहभागियों द्वारा  पौधारोपण भी किया जाता है। पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन में सक्रिय जनसहभागिता का ऐसा उदाहरण शायद ही विश्व के किसी मेले में देखने को मिलता हो।

कृषि मेला- भारत कृषि प्रधान देश है। विशेषकर ग्रामीण अंचलों में कृषि मेला का विशेष महत्व है। इन मेलों का आयोजन प्राय: सरकार द्वारा किया जाता है। किसान को स्थानीय मिट्टी की वैज्ञानिक जानकारी देना, इस तरह की मिट्टी में किस तरह की फसल अधिक हो सकती है, फसल के लिए कौनसे बाजार उपलब्ध हैं, इन सब की जानकारी सामान्यतः इनमें दी जाती है।  किसानों को उनके खेत के लिए मृदाकार्ड या सॉइलकार्ड देना इन मेलों का एक महत्वपूर्ण उपक्रम है।

पोषण मेला- सरकारी मेला आयोजन के अंतर्गत गाँवों, कस्बों या छोटे शहरों में  समुचित पोषण और स्वास्थ्य के प्रति जागृति के लिए लघु मेलों का आयोजन किया जाता है। राष्ट्रीय पोषण मिशन के अंतर्गत गर्भवती, धात्री, शिशु व किशोरियों में पोषण के महत्व के प्रति जागृति के लिए पोषण मेला लगाया जाता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 127 ☆ “घायल चिड़िया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता  “घायल चिड़िया”।)  

☆ कविता # 127 ☆ “घायल चिड़िया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

यूक्रेन-रूस की जंग में,

रूसी बम से घायल,

खून से लथपथ, 

बेबस सी चिड़िया , 

सुबह से मुंडेर पर, 

टप टप खून बहाती, 

बैठी सोच रही है, 

घर के मालिक काश! 

तू भी ऐके 47 रखता, 

तो इतनी देर तक, 

ये तेरी टूटी मुंडेर पर, 

 मुझे बैठना न पड़ता, 

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 71 ☆ # बेबस पिता हूँ # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# बेबस पिता हूँ #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 71 ☆

☆ # बेबस पिता हूँ # ☆ 

यह कैसा समय आ गया?

जो रिश्तों को खा गया

संबंध गौण हो गये

हम मौन हो गये

वो कहते रहे

हम सुनते रहे

जीना अभिशाप हो गया

बोलना तो पाप हो गया

किससे करें फरियाद

क्यों मैं होठों को सीता हूँ 

मैं खामोश हूँ

क्योंकि मैं एक बेबस पिता हूँ।

 

बच्चे कहते हैं

आपने अलग क्या किया

जो सब करते हैं

वो ही तो आप ने किया

मैंने कहा-

पढ़ाया लिखाया, काबिल बनाया

वो बोले- वो आपका फ़र्ज़ था

मैंने कहा-

अच्छी परवरिश दी

वो बोले-

बाप बने हो तो

आप पे हमारा यह कर्ज़ था

मैंने कहा-

तुम्हारी शादी ब्याह किया

वो बोले-

आप को खेलने को

नाती पोते चाहिए थे

मैंने कहा-

छोटा सा उपवन सजाया

वो बोले-

ताकि बुढ़ापे को सुरक्षित कर सको

आपने सब कुछ अपने लिए किया

बस हर बार हमारा इस्तेमाल किया

मै कैसे कहूँ कि

मैं कैसे जीता हूँ

क्योंकि मैं एक बेबस पिता हूँ।

 

अब तो ताने, उलाहने

हर रोज सुनता हूँ

बची हुई जिंदगी के

हार मे उसे बुनता हूँ

अब जीवन के

इस पड़ाव पर कहाँ जाऊँगा 

परिवार को छोड़

खुशियाँ कहाँ से लाऊँगा  

बस जीना है,

इसलिए जीता हूँ 

हाँ ! भाई

मैं एक बेबस पिता हूँ  /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (61 – 65) ॥ ☆

सर्गः-13

सरयू जिसके तट गड़े यूपस्तंभ अनेक।

अयोध्या में इक्ष्वाकु नृप हुये एक से एक।।61अ।।

 

अनके पुण्य-प्रताप से होकर अधिक पवित्र।

धारण करती जल मधुर अमृत सदृश विचित्र।।61ब।।

 

सिकता मय तट मुझे तो दिखता गोदी रूप।

जल माता के दूध सा कोसल हित अनुरूप।।62।।

 

बरसों बाद प्रवास से लौटे मुझको आज।

माँ कौशल्या सा तरल स्नेहित देती हाथ।।63।।

 

उड़ती दिखती शाम सी तामवर्ण की धूल।

इससे लगता मिलन को आये भरत अनुकूल।।64।।

 

पितु-आज्ञा-पालक भरत देंगे वह व्यवहार।

जैसा लक्ष्मण ने मैं जब लौटा राक्षस मार।।65अ।।

 

तुम्हें सुरक्षित था मुझे लौटाया साभार।

राज लक्ष्मी भी सौंपेंगे भरत भी उसी प्रकार।।65ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ७ मार्च – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  ७ मार्च -संपादकीय -सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

प्रभाकर ताम्हणे

प्रा. प्रभाकर ताम्हणे हे प्रसिद्ध लेखक होते.’पुनर्मीलन’, ‘रात्र कधी संपू नये’, ‘जीवनचक्र’ आदी कादंबऱ्या त्यांनी लिहिल्या असल्या, तरी ते गाजले विनोदी कथाकार  म्हणून. ‘सुपरस्टार ‘ हे त्यांचे एक पुस्तक.

त्यांनी अनेक हिंदी, मराठी चित्रपटांची कथा, पटकथा, संवाद लिहिले.त्यापैकी काही चित्रपट :

मराठी :आम्ही दोघं राजा -राणी’,’छक्के-पंजे’, ‘दीड शहाणे’,’एक धागा सुखाचा ‘ इत्यादी.

हिंदी : ‘बीवी ओ बीवी’, ‘लव्ह मॅरेज’ इत्यादी.

7 मार्च 2000 रोजी त्यांचे निधन झाले.

त्यांच्या स्मृतिदिनानिमित्त त्यांना नम्र अभिवादन. ??

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : शिक्षण मंडळ, कऱ्हाड, शताब्दी दैनंदिनी

इंटरनेट: मराठीसृष्टी, सिनेस्तान

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हायकू… ☆ श्री शरद दिवेकर

श्री शरद दिवेकर

संक्षिप्त परिचय..

नाव – शरद दिवेकर

वय – ६० वर्षे

महाराष्ट्र शासनाच्या विक्रीकर विभागातून सेवानिवृत्तीनंतर महाराष्ट्र शासनाच्याच महाराष्ट्र राज्य कौशल्य विकास सोसायटीत कार्यरत आहे.

संगीत श्रवण, साहित्य वाचन व साहित्य लेखनाची आवड आहे. कथा, कविता, ललित, हायकू, स्फुट असे साहित्य प्रकार हाताळलेले असून भाषांतर करायची देखील आवड आहे.

? कवितेचा उत्सव ?

☆ हायकू… ☆ श्री शरद दिवेकर ☆

मध्यंतरी साहित्यातील ‘हायकू’ हा प्रकार समजला. त्याची रचना पुढीलप्रमाणे असते. तीन ओळीत आशय मांडणी;

अक्षरांची संख्या – पाच, सात आणि पाच व यमक जुळायला हवं.

 

[ ०१ ]

सुख तुडुंब

ते चौकोनी कुटुंब

खुशनशीब

 

[ ०२ ]

तू अन्नपूर्णा

ती चव काय वर्णा

तू परिपूर्णा

 

[ ०३ ]

हुंदका आला

जीव गलबलला

पाठवणीला

 

[ ०४ ]

साहित्य, कला

जो तो लिहिता झाला

वाचता झाला

 

[ ०५ ]

आता सरावा

हा वैशाख वणवा

वरूण यावा

 

[ ०६ ]

सोनसळी ती

तिची कोमल कांती

मोहवते ती

 

©  श्री शरद दिवेकर

कल्याण

मो 70457 30570, ईमेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 72 ☆ जगू पुन्हा बालपण… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 72 ? 

☆ जगू पुन्हा बालपण… ☆

जगू पुन्हा बालपण, होऊ लहान लहान

मौज मस्ती करतांना, करू अ,आ,इ मनन.!!

जगू पुन्हा बालपण, आई सोबती असेल

माया तिची अनमोल, सर कशात नसेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, मना उधाण येईल

रात्री तारे मोजतांना, भान-सुद्धा हरपेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, शाळा भरेल एकदा

छडी गुरुजी मारता, रड येईल खूपदा..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, कैरी आंब्याची पाडूया

बोरे आंबट आंबट, चिंचा लीलया तोडूया..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, नौका कागदाची बरी

सोडू पाण्यात सहज, अंगी येई तरतरी..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, नसे कुणाचे बंधन

कधी अनवाणी पाय, देव करेल रक्षण..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, माय पदर धरेल

ऊन लागणार नाही, छत्र प्रेमाचे असेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, कवी राज उक्त झाला

नाही होणार हे सर्व, भाव फक्त जागवीला..!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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