हिंदी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ जन्म दिवस विशेष – शिक्षाविद, साहित्यकार ‘विदग्ध’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

☆23 मार्च को जन्म दिवस पर विशेष – शिक्षाविद, साहित्यकार ‘विदग्ध’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

(ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से गुरुवर प्रो.चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” जी को उनके यशस्वी 95 वें जन्म दिवस पर सादर प्रणाम एवं हार्दिक शुभकामनाएं।)

संघर्ष-साधना से भरे सात्विक जीवन के साथ अध्ययन, चिंतन-मनन से प्राप्त परिपक्वता और आभा के तेज से जिनका मुखमंडल सदा दीप्त रहता है उन्हें हम सब कवि-साहित्यकार, अनुवादक, अर्थशास्त्री और शिक्षाविद प्रो.चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” के नाम से जानते हैं । हिंदी, अर्थशास्त्र एवं शिक्षा में स्नातकोत्तर उपाधियां प्राप्त कर आपने साहित्य रत्न की उपाधि भी प्राप्त की । विभिन्न नगरों के विद्यालयों में अपनी विद्वता एवं अध्यापन कौशल से अपने सहयोगियों और छात्रों में विशिष्ट आदर व स्नेह के पात्र रहे प्रो. चित्रभूषण जी केन्द्रीय विद्यालय क्रमांक 1, जबलपुर के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं । वे प्रान्तीय शिक्षण महाविद्यालय जबलपुर से प्राध्यापक के रूप में सेवानिवृत्त हुए।

1948 में देश की प्रतिष्ठित पत्रिका सरस्वती में विदग्ध जी की प्रथम रचना प्रकाशित हुई थी तब से आज तक देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाओं के प्रकाशन का सिलसिला जारी है । आकाशवाणी केन्द्रों एवं दूरदर्शन से भी उनकी रचनाओं का प्रसारण जब-तब होता रहता है । ईशाराधन, वतन को नमन, अनुगुंजन, नैतिक कथाएं, आदर्श भाषण कला, कर्मभूमि के लिए, बलिदान, जनसेवा, अंधा और लंगड़ा, मुक्तक संग्रह, समाजोपयोगी उत्पादक कार्य, शिक्षण में नवाचार, मानस के मोती आदि उनकी चर्चित पुस्तकें हैं । प्रो.चित्रभूषण जी ने भगवतगीता, मेघदूतम एवं रघुवंशम के हिंदी अनुवाद के साथ ही संस्कृत एवं मराठी के अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का हिंदी अनुवाद किया है । सम सामयिक घटनाओं पर निर्भीकता से कलम चलाने वाले गांधीवादी साहित्यकार  “विदग्ध”जी के प्रशंसकों में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी भी शामिल थे । शिक्षा विभाग की अनेक समितियों में पदाधिकारी/सदस्य रहे प्रो.चित्रभूषण जी जबलपुर सहित जिन-जिन नगरों में सेवारत रहे वहां की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के माध्यम से प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने का कार्य भी करते रहे । उन्होंने मंडला में रेडक्रॉस समिति की स्थापना की । छात्र जीवन में हॉकी एवं वालीबॉल के खिलाड़ी रहे विदग्ध जी नई पीढ़ी को संदेश देते हुए कहते हैं कि “नियमित एवं सादा जीवन मनुष्य को शारीरिक-मानसिक व्याधियों से दूर रखता है ।” वे गीता को धर्म विशेष का ग्रंथ न मान कर इसे समस्त मानव जाति का पथ प्रदर्शक मानते हैं । उनके अनुसार जीवन में क्या उचित, क्या अनुचित है यही गीता में बताया गया है ।

ज्ञान-साधना से प्राप्त अनुभवों को आजीवन उदारता पूर्वक समाज को वितरित करते रहने वाले प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” जी को उनके यशस्वी 95 वें जन्म दिवस पर सादर प्रणाम । वे स्वस्थ रहें और वर्षों-वर्षों तक हमें मार्गदर्शन व आशीर्वाद प्रदान करते रहें ।

– प्रतुल श्रीवास्तव

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

(आप प्रो.चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध”  जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित एक पूर्वप्रकाशित आलेख इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं 👉 प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व )

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 7 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 7 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

नायाग्रा 

मंगलवार का दिन था। नायाग्रा शहर के एक आलीशान होटल में जामाता ने पहले से ही तीन दिन के लिए बुक करवा लिया था। अंग्रेजी में लिखते समय तो नियागारा लिखते हैं। शहर का नाम भी नायाग्रा, और उस अनोखे जलप्रपात का नाम भी नायाग्रा। 

नाश्ता करके हम चारों सुबह ही निकल पड़े। रुपाई वहाँ तक जाने आने के लिए कल शाम को ही एक चमाचम फक् सफेद गाड़ी किराये पर ले आया था। क्या नाम है? चार्जर डज् !

हम टोरॉन्टो की ओर चल पड़े। चौड़ी सड़क और उसकी बगल की हरियाली की प्रशंसा कितनी करें? वैसे तो कॉमनवेल्थ नेशन होने के बावजूद कनाडा में दायें से चलने का ही ट्राफिक रूल है। तो जाहिर है ड्राइवर सीट बांयी तरफ होती है। हमारे देश में उल्टा – राइट हैंड ड्राइविंग। यानी कीप लेफ्ट। खैर एक चीज मैं ने देखी – यहाँ हाईवे पर कोई चौराहा नहीं है। बस सीधी सड़क नाक बराबर। अगर कहीं बायें की किसी जगह वापस जाना है, तो पहले दाहिने के मोड़ से आगे जाओ, फिर ब्रिज पार करके इधर आओ।

एक जगह सड़क किनारे ऑनरूट पर गाड़ी थमते ही ……..

‘वो रहीं तीन बुढ़िया। मोटर साईकिल से उतर कर क्या खूब आ रही हैं।’ हम दंग रह गये। वे कॉफी और स्नैक्स वगैरह लेकर और अपनी अपनी बाइक पर सवार हो गयीं। मन में हमारे देश के उम्रदराज मर्द और औरतों के चेहरे उभर आये। बार बार यही सवाल सामने आ खड़ा हो जाता है – हमारे यहाँ हर मायने में यह दुर्दशा क्यों? यहाँ तो जिन्दगी खिलखिलाती है, जबकि वहाँ तो बाल सफेद होने के पहले ही सब कहते हैं,‘अरे अब क्या रक्खा है जिंदगी में ? बस प्रभु जल्द से जल्द उठा लें, तो बड़ी कृपा होगी।’

जबकि हमारे देश का दर्शन तो आनन्द का ही अन्वेषण है। सन्यासियों के सन्यास जीवन के नाम में भी आनन्द शब्द लगे होते हैं – जैसे विवेकानन्द को ही ले लीजिए। फिर गाजीपुर में जन्मे ब्रिटिश जमाने में किसान आंदोलन से जुड़े स्वामी सहजानन्द सरस्वती आदि। वे ऑल इंडिया किसान सभा के प्रथम अध्यक्ष थे (लखनऊ,11अप्रैल,1936)। भारत सेवाश्रम संघ के प्रतिष्ठाता स्वामी प्रणवानन्दजी के नाम में भी तो आनन्द है।

रोज लाखों नही तो हज्जारों अधिकारी एवं नेता जनता के पैसों से इन देशों में आते होंगे। राम जाने उनमें से कितने तयशुदा कार्यक्रमों में भाग लेते हैं, और कितने कुछ सीखने का प्रयास करते हैं ? मादरे हिन्दुस्तान का चेहरा बदलता क्यों नहीं ? किसी वजीरे आ’ला ने कहा था अपनी रियासत की सड़क को किसी नाजनीं सितारे के गालों जैसा बना देंगे। वो सड़क क्या उनकी बेटर हाफ यानी अर्द्धांगिनी के पीहर में बनी है ? तभी उनका श्यालक अपने जीजा को आये दिन ठेंगा दिखाता रहता है?

हमरे बनारस में एक डी एम आये हैं। हाथ में मोबाइल थामे उनकी फोटू प्रायः अखबार में छपती है। जनता के पैसे से दो इंच सड़क पर सवा इंच का डिवाइडर बना दिये। यानी फिलपांव वाले पैरों में चाँदी की पायल! आदमी चले तो कैसे ? कई मुहल्लों में एक तरफ का रास्ता ही गायब है। है तो राहे-खंडहर। फिर हीरो/नेताओं की दादागिरी। आप बायें से चल रहे हैं, अचानक आपके सामने से दनदनाती हुई बाइक आ गयी। यानी उनका आगमन राइट साइड से – मगर राइट एंट्री नहीं, गलत एंट्री। अब आप ? -‘जान प्यारी हो तो हट जा, वरना -!’

वहाँ आये दिन प्रादेशिक सड़क मंत्री अखबार के पन्नों पर अपनी दाढ़ी को बसंत के सूखे पत्तों की तरह बिखेड़ते हुए आविर्भूत होते रहते हैं। वे एकसाथ दो दो दर्जन शिलान्यास के पत्थरों को उद्घाटित कर देते हैं। मगर सड़क? दृष्टि से परे – अदृश्य! वाह रे सिक्सटी फोर्टी का खेल! कितने दुख से अहमद फराज (पाकिस्तान) ने लिखा होगा -‘यही कहा था मेरी आँख देख सकती है/ तो मुझ पर टूट पड़ा सारा शहर नबीना।’

नव उपनिवेशवाद, बाजारवाद, साम्राज्यवाद, समाजवाद, विकासशील देश या तीसरी दुनिया – आप जैसी मर्जी व्याख्या प्रस्तुत कर लें। कनाडा की राजसत्ता भी कोई दूध से धोये तुलसी के पत्तों के हाथों नहीं है। तो फिर क्यों यहाँ हो सकता है, और हमारे यहाँ नहीं ? ज़िन्दगी में सवाल तो ढेर सारे होते हैं मगर उनके जवाबों को कौन ढूँढ़ेगा? और कैसे?

टोरॅन्टो को बांये रखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। दूर से दिख रहे थे टोरॅन्टो का डाउन टाउन। अचानक सामने से आते एक वैन के पीछे देखा तो दंग रह गया। क्या बात है भाई! एक छोटा सा समूचा कॉटेज गाड़ी के पीछे लदा है। वे इसे कहीं प्रतिस्थापित करेंगे और रहेंगे। अच्छा तो बिजली या सीवर कनेक्शन का क्या होता होगा? यहाँ ऐसी ही घरनुमा गाड़ी भी किराये पर मिलती है। आर वी यानी रिक्रियेशन वेहिक्ल। आनंद यान। स्वदेश फिल्म में शाहरूख जिस पर दिल्ली से रवाना हुआ था। एक जगह ब्रिज पर एक माल गाड़ी पर एक दो-कमरेवाला कॉटेज को भी ले जाते देखा। चलायमान संसार।

करीब दो बजे तक हम नायाग्रा पहुँचे। दाहिने फोर्ट ईरी की सड़क। मन में गुदगुदी हुई यह देखकर कि यूएसए पहुँचने के मार्ग का नम्बर है 420 एक्जिट। दूर से दीख रहा है नायाग्रा अॅबजर्वेशन टावर। शहर में घुसने के पहले एक द्वारनुमा बना है, जिस पर एक कट आउट लगा है। उस पर एक युद्ध की तस्वीर। 25 जुलाई, 1814, लुन्डिस लेन बैटल फील्ड की। 

बेस्ट वेस्टन ग्रुप के कॉयर्न क्रॅफ्ट् होटल में हम ठहरनेवाले हैं। तीन बजे तक हमें रूम मिलेगा। सामने श्वेत डज को पार्क कर दिया गया। रूपाई जाकर काउंटर में बात कर आया, ‘चलिए, तब तक सामने के रेस्तोरॉ से लंच कर लें।’

‘ओ.के.। भूख तो लगी ही है।’ हमने लॉबी में सामान रख दिया।

सामने चालीस पचास फीट चौड़ी सड़क। दोनों किनारे फुटपाथ पर जगह जगह गुलजार। हरी हरी घास चारों तरफ से उनकी आरती उतार रही हैं। होटल के सामने एक खंभे पर फूल का गमला लटक रहा है। ताज्जुब की बात है कि पौधों के नीचे खालिस मिट्टी दिखाई नहीं दे रही है। लकड़ी की खुरचनों से उनके नीचे की जमीन ढकी हुई है। पता नहीं मिट्टी बह ना जाये इसलिए या और कोई वजह है? चारों तरफ एक ही नजारा। इनकी देखभाल करता कौन है ? हाँ, किंग्सटन में राह चलते मैं ने एक महिला को अपने मकान के सामने फूलों की क्यारियों पर पानी छिड़कते देखा था। कहीं कोई ग्रास कटर से ही घास काट रहा है। न कहीं पान की पीक की ललामी, न और कुछ। क्या इनकी सड़कों पर गाय, सांड़ या सारमेय आदि नहीं घूमते ? आप कल्पना कर सकते हैं कि काशी में घर के बाहर या सड़क पर ऐसे फूल खिले हों और कितने मांई के लाल हैं जो अपने हाथों का इस्तेमाल न करके आगे बढ़ जाएँ ?

हाँ, हमारे देश में भी अरुणाचल, गोवा या दार्जिलिंग में मैंने घर के बाहर ऐसे ही फूलों को निर्भय होकर खिलते देखा। कोई रावण उन सीताओं को हाथ तक नहीं लगाता है। बस -‘राह किनारे हैं खिले, सेंक लो यार आँख। घर ले जा क्या करोगे ? शुक्रिया लाख लाख!’ दोहा कैसा रहा ?

बिलकुल सामने सड़क पार वेन्डिज रेस्तोरॉ में जाने के लिए हमें पहले बायें काफी दूर तक चलना पड़ा। फिर जेब्रा लाइन से ही पारापार करना। अब लंच की तालिका – मैदे की रोटी में एक टुकड़ा चिकन मोड़ कर चिकन रैप और लंबे लंबे आलू की फ्रेंच फ्राई यानी पौटीन। पता नहीं वर्तनी या उच्चारण ठीक है कि नहीं। शीशे की दीवार के पास ही रुपाई ने हमारा आसन लगा दिया था। बाहर देखा तो कॉयर्न क्रॅफ्ट् वाले फुटपाथ पर ही आगे मैकडोनाल्ड का आउटलेट है। और उसकी बगल में ‘डॉलोरॉमा’ यानी हर माल बीस आना – एक कनाडियन डलार।

नायग्रा में सभी घूमने आते हैं। कार के पीछे साइकिल स्टैंड पर दो तीन साइकिल लाद कर लोग आ रहे हैं। यहाँ रहकर नायाग्रा तक और आसपास वे उसी पर घूमेंगे। बिन मडगार्ड की साइकिल किंग्सटन में भी मैं ने खूब देखी है। लोग हर समय या तो दौड़ रहे हैं, या साइकिल चला रहे हैं। और साइकिल चलाते समय भी अधिकतर लोग हेडगियर या हेलमेट लगाया करते हैं। और एक बात, चाहे दौड़ रहे हों, चाहे साइकिल चला रहे हों, हाथ में या साइकिल के हैंडिल में कॉफी का मग जरूर रहता है।

आते समय सामने से एक चमचमाती नीली बस चली गई। उसके सामने भी साइकिल रखने के स्टैंड बने हैं। इसका नाम है वी गो। यहाँ आये टूरिस्ट भी इनका इस्तेमाल करते हैं।

कॉयर्न क्रॉफ्ट् वापस आकर होटल के बाथरूम में हाथ मुँह धोने पहुँचा। घुसते ही दायें बेसिन, बायें बाथ टब और सामने तख्ते ताऊस यानी कोमोड। वहीं दीवार पर लिखा है :- प्रिय अतिथि, हर रोज हजारों गैलन पानी टॉवेल धोने में बर्बाद होता है। हैंगर पर टॉवेल रहने का मतलब है आप उसे फिर से इस्तेमाल करेंगे। फर्श पर पड़े रहने का मतलब है, उसे साफ करना है। अब आप ही को तय करना है कि धरती की प्राकृतिक संपदाओं को हम कैसे बचायें। धन्यवाद! 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 19 ☆ कविता – वृक्ष की पुकार ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक कविता  “वृक्ष की पुकार”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 19 ✒️

?  कविता – वृक्ष की पुकार —  डॉ. सलमा जमाल ?

रुकती हुई,

सांसो के मध्य,

कल सुना था मैंने,

कि तुमने कर दी,

फिर एक वृक्ष की,

” हत्या “

इस कटु सत्य का,

हृदय नहीं,

कर पाता विश्वास,

” राजन्य “

तुम कब हुए, नर पिशाच ।।

 

अंकित किया, एक प्रश्न ?

क्यों ? केवल क्यों ?

इतना बता सकते हो,

तो बताओ ? क्यों त्यागा,

उदार जीवन को ?

क्यों उजाड़ा,

रम्य वन को ? क्यों किया,

हत्याओं का वरण ?

अनंत – असीम,जगती में

क्या ? कहीं भी ना,

मिल सकी, तुम्हें शरण ? ।।

 

अच्छा होता

तुम, अपनी

आवश्यकताएं,

तो बताते,

शून्य, – शुष्क,

प्रदूषित वन जीवन,

की व्यथा देख,

रोती है प्रकृति,

जो तुमने किया,

क्या वही थी हमारी नियति ?।।

 

शैशवावस्था में तुम्हें,

छाती पर बिठाए,

यह धरती,

तुम्हारे चरण चूमती,

रही बार-बार,

रात्रि में जाग – जाग

कर वृक्ष,

तुम्हें पंखा झलते रहे बार-बार,

तब तुम बने रहे,

सुकुमार,

अपनी अनन्त-असीम,

तृष्णाओं के लिए,

प्रकृति पर करते रहे

अत्याचार ।।

 

हम शिला की

भांति थे,

निर्विकार,

तुम स्वार्थी –

समयावादी,

और गद्दार,

तभी वृद्ध,

तरुण – तरुओं,

पर कर प्रहार,

आयु से पूर्व,

उन्हें छोड़ा मझधार,

रिक्त जीवन दे,

चल पड़े

अज्ञात की ओर,

बनाने नूतन,

विच्छन्न प्रवास ।।

 

किस स्वार्थ वश किया,

यह घृणित कार्य ?

क्या इतना सहज है,

किसी को काट डालना,

काश !

तुम कर्मयोगी बनते,

प्रकृति के संजोए,

पर्यावरण को बुनते,

प्रमाद में  विस्मृत कर,

अपना इतिहास,

केवल बनकर रह

लगए, उपहास ।।

 

काश ! तुमने सुना होता,

धरती का, करुण क्रंदन,

कटे वृक्षों का,

टूट कर बिखरना,

गिरते तरु की चीत्कार,

पक्षियों की आंखोंका, सूनापन,

आर्तनाद करता, आकाश,

तब संभव था, कि तुम फिर,

व्याकुल हो उठते,

पुनः उसे, रोपने के लिए ।।

 

अपना इतिहास,

बनाने का करते प्रयास,

तब तुम, वृक्ष हत्या,

ना कर पाते अनायास ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 101 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 12 – घर में कबहुँ ना मिलैं… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 101 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 12 – घर में कबहुँ ना मिलैं… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (2)

घर में कबहुँ ना मिलैं, नाम मान नौं निद्धि ।

जब ही जाय बिदेस नर, पाय मान अरु सिद्धि ॥

शाब्दिक अर्थ :- प्राय: अपने घर- गाँव में रहकर आदमी को मान-सम्मान और समृद्धि प्राप्त नहीं होती है। जब आदमी अपना घर छोड़कर परदेश चला जाता है, तब उसे वहाँ पर्याप्त मान-सम्मान और सफलता प्राप्त हो जाती है

ऐसा नहीं है कि सजीवन पांडे शुरू से ही विपन्न थे। उनके पिता रामायण पांडे निवासी थे महोबा के और जब सजीवन पांडे 2-3 वर्ष के रहे होंगे तब खेजरा आ बसे। हुआ यों कि रामायण पांडे अपनी पत्नी और बेटे को लेकर तीर्थ यात्रा करने जगन्नाथ पुरी गए। अंग्रेजों के जमाने में दमोह के जंगल बहुत थे व  बड़े घने थे। इमारती लकड़ी के लिए सागौन, साज, सलईया आदि बहुतायत में थे तो हर्र, बहेरा, आँवला, लाख और खैर  जैसी वनोपज़ भी दमोह के जंगलों से निकलती। खेती किसानी के लिए सुनार नदी की घाटी का उपजाऊ काली मिट्टी वाला हवेली क्षेत्र तो दो फ़सली खेती के लिए ब्यारमा घाटी प्रसिद्ध थी। इसी वनोपज़ और खेती से रुपया कमाने की लालच में बहुत से अंग्रेज भी दमोह आ बसे। रामायण पांडे ने दमोह की ख्याति अपने सहयात्रियों से सुनी और  लौटते में अकारण ही दमोह उतर गए सोचा देखते हैं कोई काम धंधा नौकरी  मिल जाये। रात उन तीनों ने स्टेशन के प्लेटफार्म पर गुजारी और सुबह सबेरे स्नान ध्यान कर  धवल धोती व अंग वस्त्र धारण कर अपने उन्नत ललाट  को सुंदर  त्रिपुंड सुसज्जित कर रामायाण दमोह का चक्कर लगाने निकल पड़े। स्टेशन से बाहर निकल उन्होने सीधी सड़क पकड़ी और बस स्टैंड होते हुये बेला ताल के आगे निकल जटाशंकर स्थित शंकरजी के मंदिर  पहुँच गए। जटाशंकर की पहाड़ी व हरियाली ने रामायण का मन मोह लिया और भोले शंकर के मंदिर के सामने बैठ वे सस्वर में लिंगाष्टक स्त्रोतम का पाठ करने लगे। उनके  मधुर सुर व संस्कृत के  उच्चारण से प्रभावित अनेक भक्तगण रामायण पांडे को घेर कर बैठ गए व ईशभक्ति सुन  भाव विभोर हो उठे। भजन पूजन कर रामायण जटाशंकर की पहाड़ी से बाहर निकले ही थे की बेलाताल के पास निर्जन स्थान पर कुछ लठैतों ने उन्हे घेर लिया और अता पता पूंछ डाला।

रामायण बोले कि  भैया हम तो महोबे के रहने वाले हैं और काम धंधा की तलाश में दमोह आए हैं।

लठैतों में से एक ने पूंछा तो इतने सजधज कर जटाशंकर काय आए और ज़ोर ज़ोर से भजन काय गा  रय हते।

घाट घाट का पानी पिये रामायण समझ गए कि दाल में कुछ काला है और उन्होने मधुरता से जबाब दिया भैया हम तो कौनौ काम धन्धा मिल जाय जा प्रार्थना ले के भोले के दरबार में आए हते।

रामायण की बात पर लठैत को भरोसा न हुआ उसने पूंछा कि मंदिरन में पुजारी बनबे की इच्छा तो नई आए।

रामायण ने उन्हे भलीभांति संतुष्ट कर सीधे स्टेशन की ओर रुख किया और दमोह के किसी अन्य मंदिर में पुजारी बनने का सपना छोड़ दिया।

शाम को रामायण ने गल्ला मंडी के ओर रुख किया। रास्ते में वे हनुमान गढ़ी के मंदिर जाना न भूले पर भगवान से मन ही मन प्रार्थना की और उच्च स्वर में हनुमान चालीसा पढ़ने की हिम्मत न जुटा पाये।  गल्ला मंडी में रोजगार के दो ही साधन थे पल्लेदारी जो रामायण के बस की न थी और दूसरी मुनीमी जिसके लिए आढ़तिया अंग्रेजी भाषा का जानकार चाहते थे और अंग्रेजी में तो  रामायण ‘करिया अच्छर भैंस बिरोबर थे। हताश और निराश रामायण अंधेरा होने के पहले ही स्टेशन लौट आए।

दूसरे दिन दोपहर में रामायण ने  स्टेशन के पास स्थित कुछ लकड़ी के टालों की ओर रुख किया। इमारती लकड़ी और वनोपज़ के ठेकेदार जात से खत्री थे और दमोह में  रेल्वे लाइन आने के बाद लखनऊ से आ बसे थे। खत्री ठेकेदार ने रामायण को बड़े अदब से कुर्सी पर बैठा कर पूंछा-

‘प्रोहितजी क्या चाहिये, कहाँ से आना हुआ।‘

‘सेठजी हम महोबे के रहने वाले हैं रोजगार की तलाश में दमोह आए हैं।‘ रामायण ने उत्तर दिया।

‘क्या काम कर सकते हो।‘ ठेकेदार ने पूंछा

‘सेठजी हिन्दी, संस्कृत और गणित का ज्ञान है मुनीमी की नौकरी मिल जाये तो कृपा होगी।‘

‘प्रोहितजी हमारा धंधा तो अंग्रेजों से चलता है, उनसे अंग्रेजी में लिखापढ़ी करने वाला मुनीम चाहिये।‘

‘सेठजी मुझे अंग्रेजी तो बिल्कुल नहीं आती। बच्चों तो पढ़ाने का काम ही दे दो।‘ रामायण बोले

‘प्रोहितजी बच्चे भी अब अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं उन्हे हिन्दी और संस्कृत पढ़ाने से क्या लाभ।‘

‘सेठजी कोई काम आप ही बताओ जो मैं कर सकता हूँ।‘ कातर स्वर में रामायण बोले

‘प्रोहितजी जंगल से हमारा माल आता है वहाँ हिसाब किताब रखने के काम में अंग्रेजी की जरूरत नहीं है। आप वो काम करने लगो। दस रुपया महीना पगार दूंगा पर रहना जंगल में पड़ेगा।‘ ठेकेदार ने कहा। 

 ‘सेठजी मेरा बच्चा छोटा है और पंडिताइन को दमोह में किसके भरोसे छोडुंगा।  मैं तो अब निराश हो गया हूँ। कल वापस महोबा चला जाऊँगा।‘ ऐसा कह कर रामायण बड़े दुखी मन से स्टेशन वापस आ गए।

रामायण स्टेशन पहुँचे ही थे की पंडिताइन का रोना धोना चालू हो गया। बड़ी मुश्किल से उन्होने बताया  ‘तुमाए निकरबे के बाद टेशन मास्टर के दो आदमी आए रहे और धमका के गए हैं की जा जागा खाली कर देओ।‘

रामायण ने पूंछा ‘गाली गलोज तो नई करी।‘

पंडिताइन के सिर हिलाने  पर वे तुरंत ही स्टेशन मास्टर के कक्ष की ओर चल पड़े।

स्टेशन मास्टर के कक्ष की ओर जाते जाते रामायण को बार बार पंडिताइन का रोना याद आ रहा था। हालांकि गाली गलोज की बात पर पंडिताइन ने कुछ स्पष्ट नहीं कहा था फिर भी उन्होने अंदाज़ तो लगा ही लिया कि सरकारी नौकर बिना ऊल जलूल बोले सरकारी फरमान नहीं सुनाते। एक बार तो उनकी इच्छा हुयी कि स्टेशन मास्टर को खरी खोटी सुनाये और उसके दोनों आदमियों की भालिभांति ठुकाई कर दें पर अपनी विपन्नता और परदेश का ध्यान कर उन्होने चित्त को शांत किया, आँखे पोंछी और आगे चल दिये।

स्टेशन मास्टर का नाम गया प्रसाद चौबे है और वे मथुरा के रहने वाले हैं इतना जान रामायण की थोड़ी आशा बंधी और वे दरवाजा खटखटा कर स्टेशन मास्टर के कक्ष में घुसे और सबसे पहले स्वस्ति वाचन कर गया प्रसाद चौबे का अभिवादन किया।

चौबे जी उनके संस्कृत उच्चारण से प्रसन्न हुये और आने का कारण पूंछा। रामायण ने अपनी पूरी व्यथा उन्हे बताई , पर पंडिताइन के साथ हुयी घटना को बड़ी खूबी से छुपा लिया,  और कोई नौकरी देने का आग्रह किया।

‘महराज अभी तो स्टेशन में कोई जगह खाली है नहीं, हाँ एक काम पर आपको रखा जा सकता हैं।‘

‘बताइए साहब बताइए’ थोड़े से आशान्वित रामायण बोले

‘अभी आप स्टेशन में कुछ साहबों के घर पीने का पानी भरने लगो।‘ चौबेजी बोले

‘महराज हम तो पंडिताई करने वाले हैं हमे आप पानी पांडे न बनाओ।‘ रामायण थोड़े अनमने होकर बोले

‘पंडितजी पानी भरने के साथ साथ स्टेशन के बाहर बनी शंकरजी की मड़ैया में पूजा भी करना।‘ 

‘इतने में नई जगह कहाँ गुजर बसर हो पाएगी  साहब।‘ रामायण ने प्रत्युत्तर में कहा

‘अरे भाई महीने के पाँच रुपये हम स्टेशन से दे देंगे और कुछ साहब लोग दे देंगे फिर शंकरजी की मड़ैया में पूजा से कुछ दान दक्षिणा भी मिलती रहेगी।‘ चौबेजी ने आश्वस्त करने की कोशिश करी।

‘हुज़ूर पक्की नौकरी का बंदोबस्त हो जाता तो अच्छा रहता।‘ रामायण ने लगभग चिरौरी करते हुये कहा।

‘पंडितजी अभी पानी भरने का काम करो फिर कभी कोई बड़ा गोरा साहब स्टेशन पर आयेगा तो उनसे पक्की नौकरी की भी बात करेंगे। अंग्रेज साहब भी अच्छी संस्कृत सुन कर खुश हो जाते हैं।‘ चौबेजी बोले

इस बात से रामायण को भविष्य की आशा बंधी और उन्होने हाँ कर दी। अब महोबा के पंडित रामायण पांडे दमोह रेल्वे स्टेशन पर पानी पांडे कहलाने लगे। भजन गाते गाते स्टेशन और दो तीन साहबों के घर पीने का पानी भरते और रेल गाड़ी का समय होने पर शंकरजी की मड़ैया पर बैठ आने जाने वाले यात्रियों आशीर्वाद देते बदले में दान दक्षिणा पाते।

समय बीतता गया और छह माह बाद महा शिवरात्रि आयी। रामायण पांडे ने  दमोह रेल्वे स्टेशन पर पानी पांडे का अपना दायित्व झटपट सुबह सबेरे ही पूरा किया और  शंकरजी की मड़ैया को, पंडिताइन की मदद से,  गाय के गोबर से लीपा, छुई मिट्टी से पोता, फूल पत्ती से सजाया और फिर स्नान कर त्रिपुंड लगा कर शंकरजी की पूजा करने बैठ गये। उनके भजन और मंत्रोच्चारण ने लोगों को आकर्षित किया और देखते ही देखते  भक्तों की अच्छी खासी भीड़  शंकरजी की मड़ैया  पर एकत्रित हो गई और दोपहर होते होते भंडारे की व्यवस्था भी जन सहयोग से हो गई।

दूसरे दिन सुबह सुबह दो तीन ग्रामीण रामायण पांडे से मिलने स्टेशन आ पहुँचे और हिरदेपुर के ठाकुर साहब का बुलौआ का समाचार उन्हे दिया। रामायण पांडे अपना काम निपटा कर जब हिरदेपुर पहुँचे

‘आइये पंडितजी महाराज पायँ लागी’ कहकर ठाकुर साहब ने  रामायण पांडे का स्वागत किया।

रामायण ने भी ‘खुसी  रहा का’ आशीर्वाद दिया, स्वस्ति वाचन किया और बुलाने का कारण पूंछा।

‘पंडितजी महराज ऐसों है की काल हमने आपके दर्शन टेशन पर शंकर जी की मड़ैया पर करे हते। हमाएं इते भी पुरखन को बनवाओं एक मंदर है और उसे लगी मंदर के नाव 10 एकड़ खेती की जमीन। हम चाहत हैं की हमाए पुरखन के मंदर की पूजा पाठ आप संभालो।‘ ठाकुर साहब बड़ी अदब से बोले।

रामायण मन ही मन प्रसन्न होकर बोले ‘जा बताओं आप कौन क्षत्री  हो, पेले हमे मंदर भी दिखा देओ।‘

ठाकुर साहब बोले ‘हम ओरें बुंदेला हैं और महाराजा छत्रसाल ने जब बाँसा पे आक्रमण कर उते के जागीरदार केशव राव दाँगी को हराओ तब जा गाँव हम ओरन के पुरखन की बीरता के कारन बक्शीश में  दओ रहो।‘

रामायण पांडे ने मंदिर का मुआयना किया हामी भरी और लौट कर स्टेशन मास्टर गया प्रसाद चौबे को सारा हाल सुनाया और हिरदेपुर के मंदिर में  पुजारी का काम करने के कारण स्टेशन पर पानी पाण्डे के दायित्व से मुक्ति माँगी। चौबे जी भी खुश हुये। अब रामायण पांडे दो मंदिरों की पूजा करने लगे। 10 एकड़ जमीन से जो आमदनी होती उससे मंदिर का और घर ग्रहस्ती का खर्चा चल जाता। धीरे धीरे रामायण पांडे की ख्याति आसपास के गांवों में भी फैल गई, अच्छी दान दक्षिणा मिलने लगी, पंडिताइन के गले, हांथ  और पैरों में चांदी के आभूषण शोभित होने लगे और उनकी पंडिताई चल निकली। इसलिए भाइयो यह कहावत बहुत प्रचलित है  ‘गाँव को जोगी जोगड़ा आन गाँव कौ सिद्ध।‘

 

 ©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 24 – असहमत और पुलिस अंकल : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ  में असहमत के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)   

☆ कथा – कहानी # 24 – असहमत और पुलिस अंकल : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

पुलिस अंकल जॉनी जनार्दन का ट्रांसफर तो हुआ पर प्रमोशन पर. जाना तो था ही और गये भी पर पहचान वालों को ये भरोसा देकर गये कि चंद महीनों की बात है. बापू ने चाहा तो जुगाड़ लग ही जायेगा भले ही “बापू” बेहिसाब लग जायें. यह बात असहमत द्वारा इस कदर प्रचारित की गई कि टीवी चैनल वालों की ब्रेकिंग न्यूज़ भी शर्म से पानी पानी हो जाय और कम से कम उन तक तो जरूर पहुंचे जो असहमत की तैयार लिस्ट में चमक रहे थे. समय धीरे धीरे हर घाव भर देता है. वो जलवे जो टेंपरेरी रहते हैं और व्यक्ति को गुब्बारे के समान फुला देते हैं, धीरे धीरे अपनी सामान्य अवस्था में येन केन प्रकारेण ला ही देते हैं. असहमत की लिस्ट के चयनित लोग भी सब कुछ हर होली के साथ भूलते गये और उनके और असहमत के संबंध सामान्य होते गये पर फिर भी असहमत के दिल में पुराने जल्वों की कसक बनी रही. पुलिस अंकल का इंतजार होता रहा पर वो आये नहीं और जब आये भी तो जनार्दन अंकल के नये रंग में जो असहमत के मोहभंग के लिए पर्याप्त था. दरअसल ये नया रूप सेवानिवृत्ति के बाद का था जब व्यक्ति माया, मोह, लिप्सा, घमंड जैसी भौतिक सुविधाओं को छोड़कर आध्यात्मिक होने के बजाय छद्म कर्मकांड के पाखंड में उलझता है और धार्मिक होने का भाव और भ्रम पाल लेता है. आध्यात्मिकता की यात्रा, अध्ययन, विश्लेषण, विश्वास, प्रेम, सहभागिता, सरलता और विनम्रता के पड़ाव पार करती है. ये प्रकृत्ति और स्वभाव का बोध है जो जीवन में पल दर पल विकसित होता है, ये ऐसी अवस्था नहीं है जो रिटायरमेंट के बाद प्राप्त होती है. दूसरी स्थिति छद्मवेशी धर्म से जुड़े कर्मकांड की होती है. व्यक्ति अपने सेवाकाल में सरकारी खर्चों और उचित/अनुचित सुविधाओं का उपभोग कर विभिन्न तीर्थों की यात्राओं का आनंद लेता है और रिटायरमेंट के बाद, मोक्षप्राप्ति के शार्टकट “बाबाओं” की शरण लेता है.

आस्तिकता का आचरण अलग होता है, मोक्ष या पापों के प्रायश्चित की प्रक्रिया में शार्टकट नहीं होता. ये जिज्ञासु के धैर्य, समर्पण और आत्मशुद्धि की सतत जारी परीक्षा है, नफरत, अहंकार और असुरक्षा इसमें अवरोधक और पथभ्रष्टता का काम करते हैं. नफरत है मतलब प्रतिहिंसात्मक प्रवृत्तियों का पोषण हो रहा है.

घर बनाने की वह प्रक्रिया जब गृहनिर्माण के कीमत निर्धारण सहित सारे फैसले बिल्डर करता है और बदले में आपको पैसे के अलावा किसी बात की चिंता नहीं करने की लफ्फाजी करता है, ये घर पाने का शार्टकट है. इसी तरह का काम बहुत सारे धर्म गुरु भी करते हैं जो आपको, पाप मुक्ति, आत्मशुद्धि और मोक्षप्राप्ति के छलावे में उलझाते हैं और स्वयं, बिल्डर के समान संपन्नता और विलासिता का उपभोग करते हैं. जनसेवा का साइनबोर्ड दोनों जगह पाया जाता है और भयभीत कर शोषण का फार्मूला भी.

जनार्दन अंकल जब लौटे तो रंग नया था, रूप नया था. भौंहों के खिंचाव की जगह माथे के तिलक ने ले ली थी. शान का प्रतीक मूंछें वापस तरकश में जा चुकी थीं. जब इस बार सपने और योजनाओं के टूटने से दुखित असहमत ने बहुत धीरे से “नमस्ते अंकल” कहा तो प्रत्युत्तर में धुप्पल की जगह, “खुश रहो बच्चा” का खुशनुमा एहसास पाया. चाल ढाल बातचीत का लहज़ा, वेशभूषा सब बदल गया था. बातों के टॉपिक विभाग की खबरों और शहर के असामाजिक तत्वों की जगह, बाबाजी के गुणगान पर केंद्रित हो गये थे.

असहमत की जिज्ञासा और बोलने की निर्भीकता ने फिर जिस वार्तालाप को जन्म दिया वो प्रस्तुत है.

“जनार्दन अंकल, पहले जब आप से मिलता था तो आपकी शान से मुझमें भी साहस और निर्भयता का संचार होता था. पर अब तो आपका ये नया रूप मुझे भी यह अनुभव कराने लगा है कि मैं भी पापी हूँ.”

अंकल की भंवे, भृकुटि बनते बनते बचीं पर अट्टाहास की प्रवीणता का पूरा उपयोग करते हुये कहा “जब जागो तभी सबेरा. बाबाजी ने मुझे सारी चिंताओं से मुक्त कर दिया है. उनकी शरण में जाने से मैं निश्चिंत हूँ कि उनके पुण्य प्रताप से मुझे पापों से मुक्ति मिलेगी, मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होगा. उनके प्रवचनों से मुझे शांति मिलती है वह बिल्कुल वैसी है जो किसी दुर्दांत अपराधी को पकड़ने से मिलती थी. पहले मैं भी इन असामाजिक तत्वों से निपटते निपटते कठोर बन गया था. तर्क कुतर्क को डंडे से डील करता था पर कभी कभी मेरे वरिष्ठों या नेताओं के आदेश मुझे विचलित कर देते थे पर ली गई शपथ और अनुशासन के नाम पर बंध जाता था. अब तो मैं मुक्त हूँ, बाबाजी की शरण ही मेरी अंतरात्मा को शुद्ध करेगी और सन्मार्ग याने मोक्ष की प्राप्ति की ओर। ले जायेगी.”

असहमत ने फ्राड करने वाले बिल्डरों का उदाहरण देते हुये, डरते डरते फिर एक सवाल दाग ही दिया “अंकल, अगर ये बाबाजी भी फ्राड निकले तो क्या होगा?”

जनार्दन अंकल “साले की ऐसी तैसी कर दूंगा, पुलिस की नौकरी से रिटायर्ड हूँ पर अगर मुझे धोखा दिया तो वो ठुकाई होगी कि उसकी सात पुश्तें बाबागिरी का नाम नहीं लेंगी.”

असहमत का आखिरी सवाल, हमेशा की तरह बहुत खतरनाक था जिसका जवाब नहीं था.

“अंकल, बाबाजी तो वो प्रोडक्ट बेच रहे हैं जो उनके पास है ही नहीं.”

शायद इस सवाल के बाद, कुछ और लिखने की जरूरत नहीं है. समझने वाले समझ जायेंगे और नासमझ इस सवाल को ही या भी नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ जायेंगे..

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (61 – 65) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

‘‘मेरी तरफ से पूँछे वे राजा से यह बात।

अग्नि परीक्षा ले मेरी सुन केवल अपवाद।।61अ।।

 

दिया त्याग जो मुझे यह है क्या धर्म-विधान।

या रघुकुल अनुरूप यह हो इसका संधान’’।।61ब।।

 

अथवा मेरे विषय में है यह स्वेच्छाचार।

या मम पिछले जन्मों के पापों का प्रतिकार।।62।।

 

राजलक्ष्मी को छोड़ तुम वन गये थे मम साथ।

इससे पास उसको मेरा छोड़ दिया विश्वास?।।63।।

 

राक्षस पीड़ित थे कभी जिन तपसिन के साथ।

उनको मैंने दी शरण अभय आपके साथ।।64अ।।

 

कृपा आपकी थी बड़ी थी मैं निडर सनाथ।

उन तापस की शरण अब जाऊँ मैं कैसे नाथ?।।64ब।।

 

पलता है मम उदर में अंश तुम्हारा आज।

नहिं तो रखती मैं भला यह जीवन किस काज?।।65।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २३ मार्च – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  २३ मार्च -संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

यशवंत पाठक :

संत साहित्याचे अभ्यासक व लेखक श्री.यशवंत पाठक यांनी मराठी व संस्कृत भाषा घेऊन एम्. ए. केल्यानंतर  ‘कीर्तन परंपरा आणि मराठी साहित्य’ या विषयामध्ये डाॅक्टरेट

संपादन केली.मनमाड येथील महाविद्यालयात प्रदीर्घ काळ अध्यापनाचे काम केले.

धार्मिक विषयावरील लेखनाव्यतिराक्त कथा,कादंबरी,ललित असे विविध प्रकारचे लेखन त्यांनी केले.त्यांच्या साहित्यिक कारकिर्दीत त्यांना अनेक पुरस्कार प्राप्त झाले आहेत.चतुरंग,डाॅ.

निर्मलकुमार फडकुले,संत ज्ञानेश्वर,संत विष्णूदास कवी अशा  पुरस्कारांचे ते मानकरी आहेत.महाराष्ट्र राज्य सरकारचा त्यांना तीन वेळेला साहित्य पुरस्कार प्राप्त झाला आहे.जळगाव येथे भरलेल्या दहाव्या सूर्योदय साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते. तसेच नाशिक येथे 2013मध्ये झालेल्या सावरकर साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

श्री.पाठक निर्मित ग्रंथ संपदा:

धार्मिक–अंतरीचे घाव,कैवल्याची यात्रा,नाचू किर्तनाचे रंगी,निरंजनाचे माहेर,पहाटसरी

कथा– चंदनाची पाखरं,आभाळाचं अनुष्ठान

कादंबरी– ब्राह्मगिरीची सावली, संचिताची कोजागिरी

लेखसंग्रह–आनंदाचे आवार,चंद्राचा एकांत,मोहर मैत्रीचा.

यशवंत पाठक यांचा आज स्मृतीदिन आहे.त्यांच्या स्मृतीस अभिवादन.  🙏

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : विकिपीडिया.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ती, ती, ती, आणि ती सुद्धा ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

⭐ ती,ती,ती आणि ती सुद्धा… ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐ 

शब्दांच्या झुल्यावर

झुलते ती कविता

वृत्तांच्या तालावर 

नाचते ती कविता

 

          भाव मनातले

          जाणते ती कविता

          जखम हृदयात

          करते ती कविता

 

शब्दांशी खेळत

हसवते ती कविता

घायाळ शब्दांनी

रडवते ती कविता

 

          साध्या शब्दांनी

          सजते ती कविता

          वेळी अवेळी

          आठवते ती कविता

 

मनाचा गाभारा

उजळवते ती कविता

जखम बरी करून 

व्रण ठेवते ती कविता

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – (सिंगापूर) +6594708959, मो – 9892561086, ई-मेल – [email protected]

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 124 ☆ तू… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 124 ?

☆ तू… ☆

अशी कशी गं तू..

 

कधी  अशी कधी तशी….

अनाकलनीय वाटत  असतानाच–

समजतेस ,

बीजगणितासारखी,

सुटतेसही पटापट…..

आणि पैकी च्या पैकी मार्कस् मिळाल्याचा आनंद ही मिळवून देतेस……..  

तर कधी मेंदूत भुंगा सोडून देतेस…

अगदी रूक्ष होऊन सांगावंसं वाटतं तुला,

“बाई गं …पण हे सगळं तू मला का सांगते आहेस?”

 

तू आहेस  एक अस्वस्थ जीव…..

तुला काय हवंय हे तुलाच कळत नाही.

तुझं रडणं…तुझं चिडणं…

तुझं हे….तुझं ते….

 

मधेच जाणवतं तू समंजस झाल्याचं….

 

आज  अचानक  आठवली,

काॅलेज मधे  असताना वाचलेली…खांडेकरांची ययाती…

कधी तू देवयानी तर कधी शर्मिष्ठा…..

 

तपासून पहावं म्हटलं तर हाताशी

नसतात कुठलेही संदर्भ ग्रंथ……

आणि तू निसटतेस हातातून  पा-यासारखी…

 

बांधता येत नाही तुला शब्दात…

पण तू नायिका  असतेस……

एका  अद्भुत… गुढ  कादंबरी ची..

जिचा लेखक  अजून जन्माला यायचा  आहे…..

तो पर्यंत युगानुयुगे अशी च बेचैन… अस्वस्थ….कुठल्याही फ्रेममधे न बसणा-या…..

आकर्षक चित्रासारखी ……

तू अशी तू तशी तू कशी गं……

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ‘बाई,बाई’… ☆ सुश्री दीप्ती लेले ☆

?विविधा ?

 ☆ ‘बाई,बाई’… ☆ सुश्री दीप्ती लेले ☆ 

बाई ऽऽ केवढा हा पाऊस सतत कोसळतोय…. बाईऽऽ आणि या विजांची तर आता भीती वाटते”… ही ‘बाई’ कोण बरं? नेहमी हा प्रश्न पडतो मला… या बाईचा पत्ता एकदा शोधून काढायला हवा. गोंधळात पडलात ना? मला असं म्हणायचं आहे की,  तुम्हीच बघा हं… लहान मुलगी असू दे,  तरुणी असू दे किंवा अगदी आजीबाई असू दे,  ‘बाई’ हा शब्द प्रत्येक बाईच्या तोंडी असतोच …आता हेच बघा ना, मी काय म्हटलं, “बाई केवढा हा पाऊस!”  म्हणजे भीती वाटली तरी ‘बाई’ असं म्हटलं जातं आणि “अगंबाई थांबला वाटतं हा पाऊस” असा आनंद झाला तरी ‘बाई’ हा शब्द येतो, म्हणून मी विचारलं ही बाई कोण? 8 मार्च हा जागतिक महिला दिन आणि अशावेळी बाई या शब्दाची थोडीशी गंमत… पाऊस कोसळत असताना आपल्या प्रियकराच्या आठवणीने काळजीनं नायिका काय म्हणते ऐकलं आहेत ना गाणं,  “झिमझिम पाऊस पडे सारखा, यमुनेलाही पूर चढे पाणीच पाणी चहूकडे गं ‘बाई’ गेला मोहन कुणीकडे”

मोठ्या वयाच्या बायका असं “बाई” असं म्हणतात का… तर नाही एखादी छोटीशी चिमुरडी सुद्धा गाण्यातून काय सांगून जाते

“तुझी नी माझी गंमत वहिनी

ऐक सांगते कानात

आपण दोघी बांधूया ग

दादाचं घर ‘ बाई’ उन्हात”

दादाची तक्रार करताना सुद्धा ‘बाई !’ ‘बाई’ शब्दाचा उगम शोधायला गेलो तर काही मिळत नाही. बहुतेक प्रत्येक बाईच्या तोंडी उपजत, नकळतच हा शब्द येत असावा. खूप वर्षांपूर्वी नागपंचमीच्या सणानिमित्त म्हटली जाणारी एक ओवी एका पुस्तकात वाचायला मिळाली… “पंचमीचा सण बाई दणादणा आला मुराळी भाऊ आला बाई जाते मी माहेराला… सासुबाई आत्याबाई तुमच्या लेकाला जेऊ घाला दही साखर भाकरीला मी तर निघाले माहेराला…” बघितलं सख्यांनो बाई हा शब्द किती वेळा आणि किती सहज या ओळीं मध्ये आलाय… अगदी हे गाणं सुद्धा आपण ऐकलं असेलच कबिराचे विणतो शेले कौसल्येचा राम बाई कौसल्येचा राम ….

सख्यांनो लहानपणी खेळलेला भोंडला आठवतोय?

 खिरापत ओळखणं, पाटावरचा हत्ती,  भोवती धरलेला फेर, भोंडल्याची गाणी… अगदी मजा असायची… त्या गाण्यांमध्ये दडलेला हा बाई शब्द हळूच या गाण्यातून कसा डोकावतो बघा… अस्सं माहेर सुरेख बाई खेळाया मिळतं अस्सं सासर द्वाड बाई कोंडूनी मारीतं… म्हणजे बघा माहेरची आठवण काढून भावूक झालं म्हणून बाई आणि सासरची तक्रार करताना राग आला म्हणूनही बाईच… “कठीण कठीण कठीण किती पुरुष हृदय बाई”  आपल्याला या नाट्यपदांची सुद्धा आठवण येते ….असा हा शब्द बाई …कवी आणि गीतकार मग ते पुरुष असले तरी त्यांना सुद्धा बाई शब्द कवितेत, गाण्यात वापरल्याशिवाय राहवलं नाही. केदार शिंदे सारख्या दिग्दर्शकांनं सुद्धा सिनेमाचा  विषय बाईच्या मनातले ओळखता येतं, ऐकू येतं.. असा ठरवला आणि सिनेमाचं नाव ठेवलं “अगंबाई अरेच्या!!”

अगदी ग दि माडगूळकर यांना सुद्धा आपल्या गाण्यांमध्ये , गीतांमध्ये हा बाई शब्द वापरावासा वाटला आणि गाणं तयार झालं

ऐन दुपारी यमुनातीरी खोडी कुणी काढली… गं बाई माझी करंगळी मोडली…

आपल्या मराठी भाषेवर संत आणि धार्मिक वाड़मयाचा पगडा होता आणि अजूनही आहे. पूर्वी भावना व्यक्त करताना कवीला देवाधिकांचा आधार घ्यायला लागायचा असा एक काळ होता. राधाकृष्णा शिवाय या  प्रेम या विषयाला हात घालणं थोडंसं गैर समजलं जायचं. त्यामुळे पूर्वी स्त्रीच्या केशसंभार याविषयी लिहिताना सुद्धा कवी म्हणतात,

कसा गं बाई केला कोणी ग बाई केला राधे तुझा सैल अंबाडा…

हे लिहिता लिहिता अजून एका गाण्याची आठवण झाली ती म्हणजे

“नाही खर्चली कवडी दमडी नाही वेचला दाम बाई मी विकत घेतला शाम”

काय करणार… रेडिओवर RJ म्हणून पंधरा वर्ष आणि त्याहून अधिक असं काम केल्यामुळे कोणताही लेख लिहिताना, काहीही बोलत असताना गाणी आणि बोलणं याची सांगड आपोआप घातली जाते. गाणी आठवायला लागतात भराभर …. आपण रिमिक्सचा जमाना बघितला,  बाई बाई मनमोराचा कसा पिसारा फुलला हे गाणं रीमिक्स झालं आणि तरुणाईला आवडलं …भांगडा पाॅपवर ठेका धरणारी तरुणाई हळूहळू मराठी गाणी सुद्धा ऐकायला लागली …अर्थात ही किती चांगली गोष्ट नाही का!

आपण बघितलं की कितीही आपण माॅडर्न झालो, इंग्रजी भाषा शिकलो, तरी “अगबाई” (अर्थात OMG सारख्या अनेक इतर शब्दांनी किंवा मोबाईलच्या शॉर्ट शब्दांनी हळूहळू ती जागा काबीज केली आहे)  च्या जागी दुसरा कोणताही शब्द पटकन वापरला जात नाही.

 एक छोटीशी आठवण इथे सांगावीशी वाटते आम्ही 10- 12 वर्षांपूर्वी कोकणातल्या एका छोट्याशा घरी गेलो होतो… आमच्या नातेवाईकांकडे…..तेव्हा नुकतेच डिजिटल कॅमेरा नवीन आलेले होते त्या कॅमेराच्या स्क्रिनवर चित्र दिसतं ही गोष्ट नवीन होती.  आम्ही त्या घरातल्या आमच्या छोटुकली चा नाच आणि तिचं गाणं जेव्हा त्याच्यावरती रेकॉर्ड केलं आणि तो स्क्रीन तिने बघितला मात्र… आणि तिने एका विशिष्ट कोकणी स्वरात एक हात कमरेवरती आणि दुसरा हात गालावरती  ठेवून “अग्गेऽऽ बाऽयऽऽ” असं कोकणी विशिष्ट स्वरात म्हटलं तेव्हा आमचे आम्हाला इतकं मस्त वाटलं आणि हसूच आलं.

आपल्या लहानपणी मराठी माध्यमाच्या शाळेत शिकत असताना आपल्याला, दांडेकर बाई, कुलकर्णी बाई, देशपांडे बाई अशी आपल्या शिक्षकांना बाई म्हणण्याची पद्धत होती… अर्थात मध्यंतरीच्या काळात बाई या शब्दाला काही चा वेगळा अर्थ सुद्धा प्राप्त झालेला होता पण तरीही बाई म्हटल्यानंतर मला तरी अजूनही शाळेतल्या बाईच आठवतात.

जुन्या मराठी चित्रपटातले सुप्रसिद्ध व्हिलन निळू फुले यांचा ‘बाई वाड्यावर या’ हा डायलॉग तर इतका प्रसिद्ध झाला की अजूनही आजच्या मोबाईल व्हाट्सअप च्या जमान्यात त्याचे अनेक मिम्स तयार होतात…. मराठी किंवा हिंदी मालिकातून एक बाई दुसर्‍या बाईला कशी छळते, कट कारस्थान करते हे हल्ली भरभरून दाखवलं जातं… प्रत्यक्षात असं होतही असेल मला माहित नाही मुंबईसारख्या ठिकाणी ट्रेनमधून प्रवास करताना एकमेकींशी कचाकचा भांडणाऱ्या बायका प्रसंगाला बायकाच बायकांची मदत करतात हे ही मी डोळ्यांनी पाहिलं आहे….. काय घ्यायचं, काय सोडायचं, कोणाशी कसं वागायचं, नाती कशी जपायची, संवाद कसा साधायचा… घराचं घरपण टिकवायचं नोकरी घर मुलं नातेवाईक या सगळ्यांचा बॅलन्स कसा ठेवायचा या सगळ्या गोष्टी  बायकांना छान जमतात…

असो हे बाई पुराण आता इथेच थांबवते…. वर्षभर बायकांच्या बडबडी वर …त्यांचं शॉपिंग …त्यांची बुद्धिमत्ता याच्यावरती फुटकळ विनोद करणारे आता हा आठवडा मात्र बाईचं कर्तृत्व, तिचा सन्मान,  women empowerment … यावर भरभरून बोलतील, लेख लिहितील, कार्यक्रमांचे आयोजन करतील… पण आपल्या सर्वसामान्य बायकांच्या आयुष्यात मात्र त्याचा काडीमात्रही फरक पडणार नाही…. आपण आपली रोजची कामं, कर्तव्य पार पाडत राहणार आणि अधून मधून आपल्या मैत्रिणींसोबत, आपल्या घरच्यांसोबत आपल्या आयुष्याचा आनंद घेत राहणार…. बरं सगळ्या बायकांना… महिला दिनाच्या शुभेच्छा बरं का!!!

 

© सुश्री दीप्ती सचिन लेले

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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