☆ जुगार…. (भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆
‘गावातील सद्दीलाल नावच्या व्यक्तीने आत्महत्या केली.’ वर्तमानपत्रात बातमी छापली होती. अनेक तर्हेलने चौकशी सुरू झाली. पत्रकारांची टीम सद्दीलालच्या घरी पोचली. त्यापाकी एकाने सद्दीलालच्या बायकोला विचारले,
‘सद्दीलाल काय करत होते?’
‘जुगार खेळत होते.’
काय? त्याला जुगार खेळण्याचं व्यसन होतं?’
‘होय! जुगारात हरत होते, तरीही पुन्हा पुन्हा जुगार खेळणं सोडत नव्हते.’
‘जुगारात हरल्यावर पैसे कुठून आणत होते?’
‘प्रथम माझे दागिने विकले. मग माझ्या घरातली भांडी-कुंडी गेली. मग जमीन गहाण ठेवून बॅँकेतून कर्ज घेतलं…. मग कृषी सोसायटीतून … मग सवकाराकडून…. जिथून जिथून कर्ज मिळणं शक्य होतं, तिथून तिथून त्यांनी कर्ज घेऊन त्यांनी ते पैसे डावावर लावले.’
‘जुगारात ते नेहमीच हरत होते की कधीमधी जिंकतही होते?’
दोन-चार वर्षात कधी तरी एखादी छोटीशी रक्कम जिंकतही होते.’
दोन-चार वर्षात?
‘होय. कधी गव्हाचा पीक चांगलं यायचं तर कधी कापसाचं.कधी ज्वारी किंवा डाळ, कधी आणखी काही…’त्यामुळे आशा वाटायची. उमेद वाढायची. वाटायचं, एखादं तरी वर्षं असं येईल की घातलेलं सगळं वसूल होईल. पण असं कधी झालं नाही. याच कारणासाठी ….’
‘म्हणजे सद्दीलाल शेती करत होता?…. शेतकरी होता?
‘शेतकरी… शेती हे शब्द आता जुने झालेत साहेब….आता आम्ही याला जुगार म्हणतो. खूप मोठा जुगार…. प्रत्येक वर्षी हजारो रुपयाचं बियाणं खरेदी करायचं, पिकाच्या उमेदीत हजारो रुपयाचं खत मातीच्या हवाली करायचं। झुडपांवर हजारो रुपयांचं औषध मारायचं., पाणी देण्यासाठी हजारो रुपये खर्च करायचे. ढोर मेहनत करायची. अचानक आलेल्या एखाद्या विपत्तीमुळे उभं पीक नष्ट होणं … कधी पीक आलंच तर त्याचे भाव आम्ही नाही, दुसर्यावच कुणी तरी निश्चित करणं… त्यांची मर्जीने… हे सगळं जुगार नाही तर काय आहे?’
पत्रकाराची जीभ टाळूला चिकटली.
मूळ हिंदी कथा – ‘जुआ’ मूळ लेखक – भगवान वैद्य `प्रखर’
अनुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर
संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.- 9403310170
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
स्वातंत्र्यवीर सावरकर यांच्याविषयी अनेक पुस्तकांची निर्मिती झाली आहे.नुकतेच आणखी एक पुस्तक हातात पडले.वीर सावरकर:आठवणी आणि गोष्टी.मागच्या वर्षी म्हणजे 26/02/2021 ला हे पुस्तक प्रकाशित झाले आहे.पुस्तकाचे नाव आणि आकार बघता सहज पाने चाळली.पण मग थोड्याच वेळात पुस्तक वाचून पूर्ण केले.
असे वेगळे काय आहे या पुस्तकात? मुख्य म्हणजे हे एखाद्या चरित्रकारने लिहीलेले सावरकरांचे चरित्र नव्हे.या आहेत सावरकरांविषयी आठवणी व त्यांच्या आयुष्यातील काही गोष्टी,घटना यांची घेतलेली नोंद.या सर्व गोष्टींचे,आठवणींचे संकलन केले आहे श्री.सु.ह.जोशी यांनी.
या पुस्तकात स्वा.सावरकरांचे विचार जसे वाचायला मिळतात तसेच त्यांच्या आयुष्यात त्यांना भेटलेली लहान मोठी माणसे,त्यातून घडणारे त्यांच्या स्वभावाच्या विविध पैलूंचे दर्शन,मतप्रदर्शन,विरोध,साधेपणा,नामवंतांचा सावरकरांविषयी असलेला दृष्टीकोन अशा विविधरंगी पैलूंचे दर्शन घडते.प्रस्तावनेत न.म.जोशी यांनी म्हटल्याप्रमाणे हे नुसते संकलन नाही तर हा सावरकरांच्या वीर चरित्राचा कॅलिडोस्कोप आहे.कोणत्याही वयोगटातील व्यक्तीने वाचावे असे हे पुस्तक आहे.अनेक पुस्तकातील उतारे,वृतपत्रातील वृत्ते,सहवासातील व्यक्तींचे अनुभव असे विविध प्रकार वाचायला मिळत असल्याने पुस्तक रंजक व माहितीपूर्ण झाले आहे.स्वा.सावरकरांना समजून घेण्यासाठी हे पुस्तक उपयुक्त ठरेल यात शंकाच नाही.
परिचय:सौ.बिल्वा शुभम् अकोलकर
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोरोना और भूख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 122 ☆
☆ कोरोना और भूख ☆
कोरोना बाहर नहीं जाने देता और भूख भीतर नहीं रहने देती। आजकल हर इंसान दहशत के साये में जी रहा है। उसे कल क्या, अगले पल की भी खबर नहीं। अब तो कोरोना भी इतना शातिर हो गया है कि वह इंसान को अपनी उपस्थिति की खबर ही नहीं लगने देता। वह दबे पांव दस्तक देता है और मानव शरीर पर कब्ज़ा कर बैठ जाता है। उस स्थिति में मानव की दशा उस मृग के समान होती है, जो रेगिस्तान में सूर्य की चमकती किरणों को जल समझ कर दौड़ता चला जाता है और वह बावरा मानव परमात्मा की तलाश में इत-उत भटकता रहता है। अंत में उसके हाथ निराशा ही लगती है, क्योंकि परमात्मा तो आत्मा के भीतर बसता है। वह अजर, अमर, अविनाशी है। उसी प्रकार कोरोना भी शहंशाह की भांति हमारे शरीर में बसता है, जिससे सब अनभिज्ञ होते हैं। वह चुपचाप वार करता है और जब तक मानव को रोग की खबर मिलती है,वह लाइलाज घोषित कर दिया जाता है। घर से बाहर अस्पताल में क्वारेंटाइन कर दिया जाता है और आइसोलेशन में परिवारजनों को उससे मिलने भी नहीं दिया जाता। तक़दीर से यदि वह ठीक हो जाता है, तो उसकी घर-वापसी हो जाती है, अन्यथा उसका दाह-संस्कार करने का दारोमदार भी सरकार पर होता है। आपको उसके अंतिम दर्शन भी प्राप्त नहीं हो सकते। वास्तव में यही है– जीते जी मुक्ति। कोरोना आपको इस मायावी संसार ले दूर जाता है। उसके बाद कोई नहीं जानता कि क्या हो रहा है आपके साथ… कितनी आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है आपको… और अंत में किसी से मोह-ममता व लगाव नहीं; उसी परमात्मा का ख्याल … है न यह उस सृष्टि-नियंता तक पहुंचने का सुगम साधन व कारग़र उपाय। यदि कोई आपके प्रति प्रेम जताना भी चाहता है, तो वह भी संभव नहीं, क्योंकि आप उन सबसे दूर जा चुके होते हो।
परंतु भूख दो प्रकार की होती है… शारीरिक व मानसिक। जहां तक शारीरिक भूख का संबंध है, भ्रूण रूप से मानव उससे जुड़ जाता है और अंतिम सांस तक उसका पेट कभी नहीं भरता। मानव उदर-पूर्ति हेतु आजीवन ग़लत काम करता रहता है और चोरी-डकैती, फ़िरौती, लूटपाट, हत्या आदि करने से भी ग़ुरेज़ नहीं करता। बड़े-बड़े महल बनाता है, सुरक्षित रहने के लिए, परंतु मृत्यु उसे बड़े-बड़े किलों की ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे से भी ढूंढ निकालती है। सो! कोरोना भी काल के समान है, कहीं भी, किसी भी पल किसी को भी दबोच लेता है। फिर इससे घबराना व डरना कैसा? जिस अपरिहार्य परिस्थिति पर आपका अंकुश नहीं है, उसके सम्मुख नतमस्तक होना ही बेहतर है। सो! आत्मनिर्भर हो जाइए, डर-डर कर जीना भी कोई ज़िंदगी है। शत्रु को ललकारिए, परंतु सावधानी-पूर्वक। इसलिए एक-दूसरे से दो गज़ की दूरी बनाए रखिए, परंतु मन से दूरियां मत बनाइए। इसमें कठिनाई क्या है? वैसे भी तो आजकल सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं… एक छत के नीचे रहते हुए अजनबीपन का एहसास लिए…संबंध-सरोकारों से बहुत ऊपर। सो! कोरोना तो आपके लिए वरदान है। ख़ुद में ख़ुद को तलाशने व मुलाकात करने का स्वर्णिम अवसर है, जो आपको राग-द्वेष व स्व-पर के बंधनों से ऊपर उठाता है। इसलिए स्वयं को पहचानें व उत्सव मनाएं। कोरोना ने आपको अवसर प्रदान किया है, निस्पृह भाव से जीने का; अपने-पराये को समान समझने का… फिर देर किस बात की है। अपने परिवार के साथ प्रसन्नता से रहिए। मोबाइल व फोन के नियंत्रण से मुक्त रहिए, क्योंकि जब आप किसी के लिए कुछ कर नहीं सकते, तो चिन्ता किस बात की और तनाव क्यों? घर ही अब आपका मंदिर है, उसे स्वर्ग मान कर प्रसन्न रहिए। इसी में आप सबका हित है। यही है ‘ सर्वे भवंतु सुखिनः ‘ का मूल, जिसमें आप भरपूर योगदान दे सकते हैं। सो! अपने घर की लक्ष्मण-रेखा न पार कर के, अपने घर में ही अलौकिक सुख पाने का प्रयास कीजिए। लौट आइए! अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर…तनिक चिंतन कीजिए, कैसे ऋषि-मुनि वर्षों तक जप-तप करते थे। उन्हें न भूख सताती थी; न ही प्यास। आप भी तो ऋषियों की संतान हैं। ध्यान-समाधि लगाइए– शारीरिक भूख-प्यास आप के निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाएगी और आप मानसिक भूख पर स्वतः विजय प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे।
आधुनिक युग में आपके बुज़ुर्ग माता-पिता तो वैसे भी परिवार की धुरी में नहीं आते। बच्चों के साथ खुश रहिए। एक-दूसरे पर दोषारोपण कर घर की सुख-शांति में सेंध मत लगाइए। पत्नी और बच्चों पर क़हर मत बरसाइए, क्योंकि इस दशा के लिए दोषी वे नहीं हैं। कोरोना तो विश्वव्यापी समस्या है। उसका डटकर मुकाबला कीजिए। अपनी इच्छाओं को सीमित कर ‘दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ में मस्त रहिए। वैसे भी पत्नी तो सदैव बुद्धिहीन अथवा दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है। सो! उस निर्बल व मूर्ख पर अकारण क्रोध व प्रहार क्यों? बच्चे तो निश्छल व मासूम होते हैं। उन पर क्रोध करने से क्या लाभ? उनके साथ हंस-बोल कर अपने बचपन में लौट जाइए, क्योंकि यह सुहाना समय है…खुश रहने का; आनंदोत्सव मनाने का। ज़रा! देखो तो सदियों बाद कोरोना ने सबकी साध पूरी की है… ‘कितना अच्छा हो, घर बैठे तनख्वाह मिल जाए… रोज़ की भीड़ के धक्के खाने से मुक्ति प्राप्त हो जाए…बॉस की डांट-फटकार का भी डर न हो और हम अपने घर में आनंद से रहें।’ लो! सदियों बाद आप सबको मनचाहा प्राप्त हो गया…परंतु बावरा मन कहां संतुष्ट रह पाता है, एक स्थिति में…वह तो चंचल है। परिवर्तनशीलता सृष्टि का नियम है। मानव अब तथाकथित स्थिति में छटपटाने लगा है और उस से तुरंत मुक्ति पाना चाहता है। परंतु आधुनिक परिस्थितियां मानव के नियंत्रण में नहीं हैं। अब तो समझौता करने में ही उसका हित है। सो! मोबाइल फोन को अपना साथी बनाइए और भावनाओं पर नियंत्रण रखिए, क्योंकि तुम असहाय हो और तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। तुम्हारी आवाज़ तो दीवारों से टकराकर लौट आएगी।
औरत की भांति हर विषम परिस्थिति में ओंठ सी कर व मौन रह कर खुश रहना सीखिए और सर्वस्व समर्पण कर सुक़ून की ज़िंदगी गुज़ारिए। यहां तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। अब सृष्टि-नियंता की कारगुज़ारियों को साक्षी भाव से देखिए, क्योंकि तुमने मनमानी कर धन की लालसा में प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है, यहां तक कि अब तो हवा भी सांस लेने योग्य नहीं रह गयी है। पोखर, तालाब नदी-नालों पर कब्ज़ा कर उस भूमि पर कंकरीट की इमारतें बना दी हैं। इसलिए मानव को बाढ़, तूफ़ान, सुनामी, भूकंप, भू-स्खलन आदि का प्रकोप झेलना पड़ रहा है। जब इस पर भी मानव सचेत नहीं हुआ, तो प्रकृति ने कोरोना के रूप में दस्तक दी है।
इसलिए कोरोना, अब काहे का रोना। इसमें दोष तुम्हारा है। अब भी संभल जाओ, अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब सृष्टि में पुनः प्रलय आ जाएगी और विनाश ही विनाश चहुंओर प्रतिभासित होगा। इसलिए गीता के संदेश को अपना कर निष्काम कर्म करें। मानव इस संसार में खाली हाथ आया है और खाली हाथ उसे जाना है। इस नश्वर संसार में अपना कुछ नहीं है। इसलिए प्रेम व नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा करो। न जाने! कौन-सी सांस आखिरी सांस हो जाए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 21
आजकल विवाह सम्बंधी ऑनलाइन ‘मैरिज साइट्स’ हैं। इन साइट्स के माध्यम से विवाहयोग्य लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे के बारे में जानते हैं। आवश्यकता पड़ने पर साइट्स दोनों के बीच वरचुअल मीटिंग की व्यवस्था भी करती हैं। जब तक तकनीक नहीं आई थी, लड़का- लड़की के ‘एक्चुअल’ देखने दिखाने के काम मेले में ही हो जाते थे। मेला अधिकृत ‘ऑफलाइन’ वर-वधू परिचय सम्मेलन स्थल थे। छोटे गाँवों-कस्बों में आज भी यह चलन बना हुआ है।
प्रेम जीवन की धुरी है। इसके बिना जीवन की संभावनाएँ प्रसूत नहीं होतीं। रसखान लिखते हैं,
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग, बहुरि, जात नाहिं रसखान।।
इस अगम, अनुपम, अमित प्रेम में मिलने की उत्कट भावना होती है। इस भावना को व्यक्त होने और मिलने का अवसर प्रदान करता है मेला। बहुत अधिक बंदिशों वाले समय में भी मेला, बेरोकटोक मिल सकने का सुरक्षित स्थान रहा।
पशु व्यापार, कृषि उपज, कृषि के औजार, वनौषधि आदि की दृष्टि से भी मेले उपयोगी व लाभदायी होते हैं। केवल उपयोगी और अनुपयोगी में विभाजित करनेवाली सांप्रतिक संकुचित वृत्ति के समय में ‘मेला’ की उपयोगिता और जनमानस में गहरी पैठ इस बात से ही समझी जा सकती है कि अब तो कॉर्पोरेट जगत अपनी व्यापारिक प्रदर्शनियों के लिए इसका धड़ल्ले से उपयोग करने लगा है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “मोरी बिगड़ी बना दो श्याम….”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
स्त्रीया जेव्हा लिहू लागल्या, तेव्हा सुरुवातीच्या आघाडीच्या फळीतील लेखिका म्हणजे गिरिजाबाई केळकर. त्या पहिल्या स्त्री नाटककार. त्यांचा जन्म १८८६ चा. त्या पूर्वाश्रमीच्या द्रौपदी श्रीनिवास बर्वे. वडील गुजरातमध्ये स्थायिक असल्याने त्यांचे ५ वी पर्यंतचे शिक्षण गुजराथीत झाले. ६वीत बर्टन फिमेल ट्रेनिंग कॉलेजच्या शाळेत त्या गेल्या. लहानपणी शेजारच्या आजीबाईंना हरीविजय, रमविजय, पांडव प्रताप, या पोथ्या त्या वाचून दाखवत.
१५ व्या वर्षी लग्न झाल्यावर गिरिजाबाई पुण्यात आल्या. वाचनाच्या आवडीतून त्यांनी उत्तम भाषा अवगत केली. दर शुक्रवारी हळदी कुंकवाच्या निमित्ताने त्या आसपासच्या स्त्रियांना घरी बोलवत आणि वाचायला शिकवत. मासिके, वर्तमानपत्रे वाचून दाखवत. ‘केसरी’ त्या नियमित वाचत. नंतर त्यांनी लेखनाला सुरुवात केली. एक लेख ‘ज्ञानप्रकाश’ला पाठवला. तो छापून आल्यावर त्यांनी नियमित लेखन केले. ‘‘ज्ञानप्रकाश’ आणि ‘आनंद’ मध्ये त्यांचे लेख छापून येत. ‘ज्ञानप्रकाश’ मधील लेखांचे ‘गृहिणी भूषण’ नावाचे पुस्तक पुढे प्रकाशित झाले. त्याला वा. गो. आपटे यांची प्रस्तावना आहे.
त्यांनी ‘पुरूषांचे बंड’ नावाचे नाटक लिहिले. खाडीलकरांनी लिहिलेल्या ‘बायकांचे बंड’ या नाटकाला सडेतोड उत्तर म्हणून त्यांनी हे नाटक लिहिले. य. ना. टिपणीस यांनी हे नाटक रंगभूमीवर आणले. १९१३ साली हे पुस्तक प्रकाशित झाले.
गिरिजाबाई यांची प्रकाशित पुस्तके – १. मांदोदरी, २.राजकुंवर, ३.हीच मुलीची आई, ४.वरपरीक्षा, ५. सावित्री. ६. आयेषा ही सर्व नाटके आहेत. ‘गृहिणी भूषण’ हा २ भागातला लेखसंग्रह आहे. द्रौपदीची थाळी हे आत्मचरित्र, तर संसारसोपान हे वैचारिक पुस्तक आहे. तसेच स्त्रियांचा वर्ग हे अनुवादीत पुस्तक आहे. स्त्रियानु वर्ग या गुजराती पुस्तकाचा हा अनुवाद आहे.
१९२८मधे मुंबईत भरलेल्या २३ व्या मराठी नाट्यसंमेलनाचे अध्यक्षपद त्यांनी भूषविले. आज त्यांचा स्मृतिदिन ( २५ फेब्रु. ८० ). त्यांच्या साहित्यिक – नाट्य विषयक कार्याला शतश: प्रणाम ?
श्रीमती उज्ज्वला केळकर
ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग
संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈