हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 22 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 22 ??

भारत के प्रसिद्ध प्रतिनिधि मेला-

कुंभ मेला- संस्कृत शब्द ‘कुंभ’ का अर्थ घड़ा होता है। कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। 1989 में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में 5 फरवरी को प्रयागराज के मेले में डेढ़ करोड़ लोगों की उपस्थिति और स्नान की पुष्टि की जो एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी। 2001 में 24 जनवरी को प्रयागराज में अधिकृत रूप से तीन करोड़ लोग उपस्थित थे। अध्यात्म, संस्कृति, धर्म, व्यापार, परंपरा, हर दृष्टि से इसका अनन्य स्थान है। समय साक्षी है कि मानव ने जलस्रोतों के निकट बस्तियाँ बसाईं। यही कारण है कि कुंभ मेला विशाल जलराशि वाले  प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नाशिक, प्रत्येक नगर में बारह वर्ष के अंतराल से कुंभ होता है। प्रयागराज में छह वर्ष के अंतराल पर अर्द्धकुंभ भी होता है। हमारी परंपरा में नदियाँ अमृतकुंभ कहलाती हैं। अमृतकुंभ के किनारे जनकुंभ की साक्षी हरिद्वार में माँ गंगा बनती हैं। प्रयागराज में गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम इसका साक्षी होता है। उज्जैन और नासिक में क्रमश: क्षिप्रा और गोदावरी यह दायित्व वहन करती हैं।

मान्यता है कि क्षीरसागर मंथन से प्राप्त अमृत कलश को लेकर देवराज इंद्र के पुत्र जयंत नभ में उड़ चले। पीछा करते दानवों ने धावा बोला तो जयंत के हाथ का कलश थोड़ा-सा छलक पड़ा।  इससे पृथ्वी पर उपरोक्त चार स्थानों पर अमृत की बूँदें गिरीं। इसी संदर्भ के कारण इन नगरों में कुंभ का आयोजन होता है।

कुंभ मेला मकर संक्रांति से आरंभ होता है। ज्योतिष के अनुसार इस समय बृहस्पति, कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तथा सूर्य का मेष राशि में प्रवेश होता है। ग्रहों की स्थिति उन दिनों हरिद्वार स्थित  हर की पौड़ी के गंगाजल को औषधीय प्रभाव से युक्त करती है। यही कारण है इस अवधि में यहाँ स्नान करना आरोग्य के लिए लाभदायक  माना गया है। गंगा माँ के तो दर्शनमात्र को मुक्ति का साधन.माना गया है। कहा गया है, ‘गंगे तवदर्शनात् मुक्ति!’

कुंभ में मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, एकादशी, मौनी अमावस्या के दिन स्नान करना विशेष फलदायी माना जाता है।

कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। जो कारण,  मेले के लिए आधार का काम करते हैं, वे सभी इसमें विस्तृत स्तर पर दृष्टिगोचर होते हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 70 ☆ गजल – ’’कठिन श्रम की साधना’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “कठिन श्रम की साधना”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 70 ☆ गजल – ’’कठिन श्रम की साधना’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आने वाले कल से हर एक आदमी अनजान है

किया जा सकता है केवल काल्पनिक अनुमान है।

सोचकर भी बहुत कुछ, कर पाता कोई कुछ भी नहीं

सफलता की राह पै’ अक्सर खड़ा व्यवधान है।

करती नई आशायें नित खुशियों की मोहक सर्जना

जोड़ते जिनके लिये सब सैकड़ों सामान हैं।

कठिन श्रम की साधना ही दिलाती है सफलता

परिश्रम भावी सफलता की सही पहचान है।

राह चलते जो अकेले भी कभी थकते नहीं

वहीं कह सकते है कि यह जिन्दगी आसान है।

हर दिशा  में क्षितिज के भी पार हैं कई बस्तियॉ

किया जा सकता पहुॅंच ही कोई नव अनुसंधान है।

प्रेरणा उत्साह जिज्ञासा का हो यदि साथ तो

परिश्रम देता सदा मनवांछित वरदान है।

कठिन श्रम की साधना की कला जिसको सिद्ध है

वही हर अभियान में पाता विजय औ’ मान है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हमारी संस्कृति हमारी पहचान ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ आलेख ☆ हमारी संस्कृति हमारी पहचान ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

“हमारी संस्कृति हमारी पहचान है।

भारतीय संस्कृति महत्वपूर्ण वरदान है।”

किसी भी राष्ट्र की पहचान के पहलूओं मे उसकी संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान  होता है।भारत सदियों से अपनी संस्कृति और विरासत के लिए विश्व धरातल पर जाना जाता है।परन्तु वर्तमान दौर मे हम इस संबंध मे पिछड़ते जा रहे है। आखिर क्यों?इसका मुख्य कारण है बदलता परिवेश।

भारतीय संस्कृति मे आये कुछ अहितकारी बदलाव इसके स्पष्ट संकेत है।हमारी संस्कृति सदैव “अतिथि देवो भव्” के लिए जानी जाती है परन्तु विगत कुछ वर्षो मे विदेशी सैलानियों मुख्यतः महिलाओ से अत्याचार, घिनौनी एवं शर्मनाक उत्पीड़ना ,यौन हिंसा ने इसे शर्मशार किया है। “वसुधैव कुटुम्बकम” का भाव सदैव से धारण किये हुए भारतीय समाज ने समग्र वसुधा को अपना परिवार माना है।परन्तु वर्तमान मे विश्व तो दूर सामूहिक परिवार मे ही कलह देखने को मिलते है। आखिर क्यों?

क्षेत्र,राज्य और समुदाय के नाम पर हुए बटवारे ने भारत को बाँट दिया है। “अनेकता मे एकता” के लिए विश्व विख्यात भारत आज धर्म के नाम पर विभाजित होता प्रतीत हो रहा है।कबीर दास जी ने कहा था “भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां हिन्दू व मुस्लिम एक ही घाट पर पानी भरते है ऐसे राष्ट्र मे जन्म लेना मेरा सौभाग्य है।

“होली, दिवाली, ईद हो, रमजान या अन्य त्यौहार जहाँ सभी भारतीय एक साथ मनाते थे। त्योहार किसी विशेष धर्म का ना होकर समग्र राष्ट्र का था, जहाँ मुस्लिम फटाके फोड़ते थे व हिन्दू ईद मुबारक कहते थे ऐसे राष्ट्र मे आज धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे हो रहे है! अनेकों निर्दोषो की जानें जा रही है ! जिसका उदाहरण हाल ही मे हुई कुछ घटनाओ से ज्ञात होता है। और तो और ऋषि, मुनियो की इस संस्कृति को कुछ ढोंगी पीर बाबाओ ने शर्मसार  किया है।

हिन्दी भाषा के कारण विश्व धरातल पर पहचान प्राप्त करने वाले भारतीय आज हिन्दी बोलने से कतराने लगे है।आज के समय में रामायण व गीता कुछ ही घरो मे मिलेगी। अगर मिलेगी भी तो धूल से धूमिल या गुम होती हुई।क्या यही है हमारी संस्कृति ?

अगर हम सभी भारतीय है और अपनी संस्कृति का संरक्षण और हिफाजत चाहते है तो प्रेम स्नेह ,सहयोग  सदभावना, बसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओत प्रोत क्यों नही कर देते ? क्यों नही है सभी एक साथ मिलकर भाईचारा ,सौहार्द प्रेम का बीज बो देते ?

क्यों हम पीछे हट जाते है विदेशी ताकत से?

क्यों नही है सभी अपनी भारत माता, अपनी प्रकृति की रक्षा कर सकते?

अगर हम सभी वैचारिक समभाव से आगे बढ़े, अपने देश के प्रति प्रेम, अपनी धरती माता की तड़पती पुकार को सुनें तो निश्चित ही हम सभी एक जुट होकर ये सब कर सकेंगे और महाराज श्री अग्रसेन के लाल कहलाने पर हम गर्व महसूस करेंगे।

धूमिल सी हो गई है वो यादें जब  गाँवो मे चौपालो पर बुजुर्गो की भीड़ मिलती थी, अब कही देखने को नही मिलती। यूं समझिए जैसे  पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करने की तो रीति रिवाज कही गुम सी हो गयी है।

“अहिंसा परमो धर्म्” के भाव वाले इस राष्ट्र मे विगत कुछ वर्षो मे हुई हिंसा ने समग्र विश्व को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या ये वही देश है जहाँ गांधी जैसे शांतिप्रिय दूत ने अहिंसा का संदेश दिया था? बेशक योग को विश्व धरातल पर लाकर भारत ने ये साबित भी किया कि वो आज भी विश्व गुरु है। हमारी भारतीय संस्कृति सदैव से अमर रही है।क्योंकि यह स्वयं मे सम्पूर्ण को समेटे हुए है। परन्तु इसकी पहचान कही खोती जा रही है।हमारी कुछ कमियों ने ,कुछ ऐसे कृत्यों ने इसे दागदार बना दिया है।भौतिकवादी इस युग मे हम इतना गुम हो गए हैं कि हम भूल गए हैं की अपनी संस्कृति ही अपनी पहचान है।

जरूरत है हमे जरूरत है भारतीय संस्कृति के संरक्षण और हिफाजत की हमें जरूरत है।

संरक्षण और हिफाजत करके इसे आगे बढ़ाने की हमें जरूरत है।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (26 – 30) ॥ ☆

सर्गः-13

 

माल्यवान गिरि है वहीं जो छूता आकाश।

वर्षा मेरे अश्रुसी हुई थी जिसके पास।।26।।

 

बिना तुम्हारे असह थी जहाँ पुष्प की गंध।

वर्षा में केका मधुर और कदम्ब अनुबंध।।27।।

 

घन-गर्जन से डरी तुम दुबक चिपक चुपचाप।

की कर पिछली याद में कटी थी मम बरसात।।28।।

 

वर्षापोषित नवान्कुर की शोभा औ’ आम।

याद दिलाती थी मुझे नयन तेरे अरूणाभ।।29।।

 

पंपासर जो वेत के वन से था आच्छन्न।

दृष्टि देखती दूर से सारसश्री सम्पन्न।।30।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २६ फेब्रुवारी – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? २६ फेब्रुवारी – संपादकीय  ?

विनायक दामोदर सावरकर

ग्रंथ प्रकाशित होण्यापूर्वीच ज्याच्यावर बंदी घालण्यात आली असा ग्रंथ निर्माण करणारा एक लेखक मराठीत होऊन गेला हे आपल्याला माहित आहे का?.विनायक दामोदर सावरकर हे त्या लेखकाचे नाव.सावरकर म्हटल्याबरोबर आपोआप स्वातंत्र्यवीर हा शब्द ओठी येतो हे साहजिकच आहे.पण त्याच वेळेला ते एक विज्ञानवादी समाजसुधारक, इतिहासकार, हिंदू धर्माचे डोळस अभ्यासक, लेखक आणि कवी होते हेही तितकेच महत्त्वाचे !इथे इतिहासकार हा शब्द वापरताना दोन अर्थांनी वापरावा लागतो. एक म्हणजे त्यांनी इतिहासाचे लेखन केले आणि दुसरा अर्थ म्हणजे त्यांनी इतिहास निर्माणही केला.मराठीत असा दुसरा साहित्यिक नसेल असे वाटते.राष्ट्रभक्ती ही त्यांच्या रक्तातच असल्यामुळे राष्ट्राचा इतिहास, भविष्यकाळाविषयी चिंतन,सामाजिक सुधारणांचा आग्रह हे सर्व त्यांच्या लेखनात प्रतित होणे अगदी साहजिक आहे. वैज्ञानिक दृष्टिकोन डोळ्यासमोर ठेवून केलेले हिंदू धर्म चिंतन आणि त्याच वेळेला भावनाशील कवीचे दर्शनही त्यांच्या काव्यातून  दिसून येते.या शिवाय ज्या भाषेतून आपण लिहीतो त्या भाषेच्या शुद्धीसाठीही ते प्रयत्नशील होते. मातृभाषेचे संवर्धन करत मातृभाषेतील साहित्यात मोलाची भर घालणारा असा मातृभूमीभक्त साहित्यिक अद्वितीयच म्हणावा लागेल.

सावरकरांनी 1857च्या स्वातंत्र्य संग्रामाचा जो संशोधनपूर्ण इतिहास लिहिला त्याचा त्यावेळच्या ब्रिटिश सरकारने एवढा धसका घेतला होता की या ग्रंथावर प्रकाशनपूर्वच बंदी घालण्यात आली होती. पण तरीही त्याच्या इंग्रजी प्रती प्रकाशित झाल्याच, गनिमी काव्याने!. मराठी आवृत्ती स्वातंत्र्यप्राप्ती नंतर प्रकाशित झाली. सावरकरांची देशभक्तीने ओथंबलेली गीते, शिवरायांची आरती, स्वतंत्रतेचे स्तोत्र,सागराला केलेले आवाहन आणि आव्हानही आपल्याला माहित आहेच. पण अंदमानच्या कोठडीत अकरा वर्षे अनन्वीत छळ सोसत असतानाही त्यांची काव्यप्रतिभा फुलत होती आणि महाकाव्य निर्माण होत होते हे साहित्य जगतातले आश्चर्यच नव्हे काय ?

सावरकरांचे  साहित्यिक म्हणून असलेले योगदान एका छोट्या लेखात सांगणे अशक्यच आहे. त्यामुळे थोडक्यात सांगायचे तर त्यांची ग्रंथनिर्मिती अशी:

10,000 पेक्षा जास्त पाने मराठी  भाषेत आणि 1500पेक्षा जास्त पाने इंग्रजी भाषेत मौलिक लेखन.

एकंदर 41पुस्तकांची निर्मिती–

1857चे स्वातंत्र्यसमर

अखंड सावधान असावे

अंदमानच्या अंधेरीतून

अंधश्रद्धा भाग 1 व 2

काळे पाणी

माझी जन्मठेप

मोपल्यांचे बंड

संगीत उत्तरक्रिया नाटक

संगीत उःशाप      नाटक

महाकाव्य कमला

महाकाव्य गोमांतक

भाषा शुद्धी

नागरी लिपीशुद्धीचे आंदोलन

जोसेफ मॅझिनी….इ.इ.इ .

सावरकर यांचे जीवनावर आधारित अनेक ग्रंथांची, नाटक, चित्रपट यांची निर्मिती झाली आहे.अनेक ठिकाणी स्मारके उभी आहेत. त्यांच्या नावे अनेक पुरस्कारही दिले जातात.अशा या बहुआयामी साहित्यिकाने 26 फेब्रुवारी 1966 रोजी देहत्याग केला.आज त्यांचा स्मृतीदिन!

त्यांच्या कार्यकर्तृत्वास शतशः प्रणाम !?!

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ: विकिपीडिया.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भेट देवाची ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ भेट देवाची ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

उभी होते भर रस्त्यात

भेदरलेली घाबरलेली

कसा करू रस्ता पार

विचाराने भांबावलेली…..

 

अनपेक्षित कोणीतरी

धरला माझा हात

नको भिऊ उगा अशी

देतो तुला साथ…..

 

होता तो अनोळखी

कसनुसे झाले मला

पण सात्विकता नजरेतली

फारच भावली मला….

 

धोतर पैरण वेष त्याचा

भाळावरती टिळा

छेडत होता एकतारी

माला रुद्राक्षाची गळा….

 

ठसले रूप मनात

वाटले भगवंत भेटला

मदत करून मला

दिसेनासा झाला….

 

नाही उरली भीति

सत्य उमगले मला

नाही कोणी अनोळखी

माणसात देव भेटला….

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कचरेवाल्याची मुलगी – भाग 1 ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

? जीवनरंग ❤️

☆ कचरेवाल्याची मुलगी – भाग 1 ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

सहा वर्षांनी रवी मुंबईतच नाही तर भारतात परत येत होता.  रवी सूर्यकांत घरवारे. घरवारे शिपिंग अँड क्लीअरिंग कॉर्पोरेशनचा पुढच्या पिढीचा वारसदार. लहानपणी उष्टावण सोन्याच्या चमच्याने झाले असल्याने पुढचा प्रवासही श्रीमंतीतच झाला. बंगल्यात त्याची वाढ झाली असली तरी त्याच्या डोक्यात श्रीमंती कधीच शिरली नाही. दहावी झाल्यावर पुढील पदवी अभ्यासासाठी त्याला अमेरिकेत पाठविण्यात आले आणि तो आज सहा वर्षांनी बिझनेस मॅनेजमेंटचे यशस्वी शिक्षण घेऊन भारतात परत आला होता. गेल्या सहा वर्षातला मुबईतला फरक त्याला जाणवत होता. स्वच्छतेबद्दल लोकांच्यात झालेली जागरूकता त्याला दिसत होती.

आता दोन आठवडे जरा आराम करून त्याला त्याच्या फॅमिली बिझनेस मध्ये सामील केले जाणार होते . तशी त्यांच्या प्रमुख ऑफिसमध्ये त्याच्यासाठी एक प्रशस्त अशी केबीन तयार करून ठेवली होती आणि ह्याची जाणीव रवीलाही देण्यात आली होती. लहानपणीपासून एक साचेबंद आयुष्य, ते पण भावनिक संबंधाला थारा न देता काढलेल्या रवीला  अमेरिकेत शिकायला गेल्यावर स्वतःच्या विचारांची प्रगल्भता वाढवायला पुरेसा वेळ मिळाला. श्रीमंत गरीब, जात पात ह्याच्या पुढचा विचार करून माणसांना माणूस म्हणून पहिले बघितले पाहिजे ह्याची त्याला जाणीव झाली होती आणि त्यामुळेच मुंबईत आल्यावर दोन दिवसानी असे काही घडले की त्याचे पुढचे सगळे आयुष्यच त्यामुळे बदलले.

विमानाचा लांबचा प्रवास करून आल्याने रवीचे  झोपायचे शेड्युल जरा बिघडले होते. रात्री उशिरा झोप आल्याने आज तो जरा जास्तच वेळ झोपला होता. घरातले सगळे म्हणजेच रवीचे आई वडील आणि मोठा भाऊ सगळे त्यांच्या नेहमीच्या वेळेत त्यांच्या ऑफिसमध्ये गेले होते. रामूकाका जे खूप वर्षांपासून घरवारे फॅमिलीकडे कामाला होते तेच आता घरात होते. त्यांनाही बाहेरून भाजी आणण्यासाठी बाहेर जायचे होते पण रवी झोपला होता म्हणून ते ही खोळंबले होते. खूप वेळ वाट बघून रवी उठत नाही म्हणून ते दरवाजा बाहेरून ओढून घेऊन भाजीपाला आणायला मार्केटला गेले. त्याच वेळेमध्ये दरवाज्याशी कोणीतरी आले आणि दरवाजा उघडण्यासाठी बेल मारली. घरात रवी एकटाच होता पण तो झोपला असल्याने त्यालाही त्याच्या बेडरूममध्ये बेल ऐकू आली नाही. जेंव्हा  तिसऱ्यांदा बेल वाजली तेंव्हा रवीची झोपमोड झाली. डोळे चोळतच रवी बाहेर आला.  तो रामूकाकाना बघू लागला. पण ते न दिसल्याने तो दरवाज्यापाशी गेला. डोळे किलकिले करतच त्याने दरवाजा उघडला आणि समोर बघितल्यावर  त्याची नजर एकदम स्थिर झाली. कोणीतरी त्याच्यावर मोहिनी केल्यासारखा तो समोर एकटक नुसता बघतच राहिला. त्याच्या समोर एक त्याच्यापेक्षा दोन ते तीन वर्षांनी लहान असलेली, पंजाबी ड्रेस घातलेली, सुंदर मुलगी उभी होती. तिने चेहऱ्यावर काहीही लावले नव्हते तरी तिच्या चेहऱ्यावरील तेज ओसंडून वहात होते. समोर रवीला बघून तिच्या चेहऱ्यावरही जरा वेगळ्या छटा  उमटल्या.

“रामूकाका नाहीत का ? कचऱ्याचा डबा देता का ? “

तिने रवीला विचारले.

” कचऱ्याचा डबा ? का ? तुम्हाला का कचऱ्याचा डबा द्यायचा? आमचा कचरेवाला येतो रोज कचरा न्यायला  “

” तसे नाही साहेब. मी तुमचा कचरा न्यायला आले आहे. मी तुमच्याकडे येणाऱ्या कचरेवाल्याची मुलगी. माझ्या वडिलांना काल ब्लड प्रेशरचा त्रास झाल्याने डॉक्टरांनी त्यांना आराम करायला सांगितले आहे. त्यामुळे काही दिवस मीच येत जाईन कचरा न्यायला. ” तिने रवीला सगळे उलगडून सांगितले. रवी परत घरात गेला आणि किचनमध्ये असलेला कचऱ्याचा डबा  घेऊन बाहेर आला. तिने तो डबा तिच्याकडे असलेल्या मोठ्या डब्यात उलटा केला आणि दोनवेळा तो डबा त्या मोठ्या डब्यावर आपटून रवीला परत दिला आणि थँक्स म्हणून ती उलटी फिरली. रवी ती दिशेनासी होईपर्यंत बघतच राहिला. जे काही आत्ता त्याच्यासमोर घडले होते ते त्याच्यासाठी खूप वेगळे होते. कोण एक टापटीप असणारी सुंदर मुलगी येते काय आणि घरचा कचरा घेऊन जाते काय आणि जातांना वर त्यालाच थॅंक्सही म्हणून जातेकाय? तो पूर्ण दिवस रवीच्या डोळ्यांसमोरून तिचा तो सुदंर चेहरा काही जात नव्हता.

क्रमश:….

© श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

ठाणे

मोबा. ९८९२९५७००५ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 91 – प्रवास ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 91 – प्रवास ☆

जीवन गाडीच्या प्रवास

संगे साथी नातीगोती।

सारे शोधात फिरती

थांबा सुखाचा जगती।।धृ।।

 

आले आले बालपण होई आनद उधळण ।

हौस मौजेला न तमा जीवनाचे हे कोंदण।

वाटे फिरूनिया यावी बालपणाची प्रचिती।।१।।

 

किशोर ,कुमार वयात मित्र मैत्रिणींची धुंदी ।

पंख आकांक्षाना फुटती जीवन घडण्याची संधी।

मोहापाशाचे हे फासे गळ रस्त्या रस्त्यावरती।।२।।

 

शहाणा तो धरीतसे योग्य वळणाची वाट

शिखर यशाचे मिळता जीवन नक्षत्राचा थाट।

काय वर्णावी माधुरी सहचारी तो सांगाती।।३।

रगं त प्रवासाला आली जीवन बागही फुलली।

चिमण्या पाखरांच्या संगे आज माऊली रंगली ।

काय आनंदाला ऊणे आली सागरा भरती।।४।।

 

पाहून पिलांची उड्डाण माता आनंदली ऊरी।

गरूडाची झेप जणू जाई यशाच्या शिखरी।

मनी सतावते पुन्हा चाहूल एकटेपणाची।।५।।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ वृषोक्ती …. वि.दा.सावरकर ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर

सौ राधिका भांडारकर

? काव्यानंद ?

☆ वृषोक्ती …. वि.दा.सावरकर ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर

सावरकरांची कविता…रसग्रहण

☆ वृषोक्ती ☆

गाडीला वृष जुंपिला धरित जो जू मानेवरी

आला ऊंच चढून घाट दमला गेला आवांका तरी

होता वाहून नेत वाहत तरी तो?! मंदचारी तया

कोणी हिंदु वदे सगर्व ह्रदये धिक्कारवाणीस या।।१।।

 

हा धिक् रे वृष,मान वाकवूनिया तू दाससा राबशी

मोठे जूं जड हे असह्य भार हा विश्रांतिही ना तशी

तोंडी ये बहु फेस त्राण नुरला मारी धनी हा तरी

वाटे पापचि मूर्तिमंत वृष रे त्वजन्म हा अंतरी ।।२।।

 

ऐके तू वृष शांतिने सकल हे उद्गार  त्याचे असे

दावोनि स्मित मंद ज्यांत बहुधा धिक्कार भारी वसे.

बोले हिंदुसी त्या,अरे मज बहु निंदावचे ताडिले

दावि त्वस्थिति अल्पही न तुजला हे म्यां मनी ताडिले।।३।।

 

निंदाव्यंजक शब्द योजूनी बहु माझ्या धन्या निंदसी

कैसा वागवितो तुला तव धनी शोधूनी पाहे मनी।।४।।

 

ज्याते राज्य अफाट आर्यवसुधा तैसी जया अर्पिली

दोहायास सुवर्णभू सतत त्वां हस्ते ज्याला दिली

लोखंडी असताही कांचनमया केलीस यद् भू अरे

तो देई तुज काय वेतन तुझा स्वामी कधी सत्वरे।।५।।

 

किंवा तू म्हणशील की तव धनी आभार भारी वदे

राजे रावबहाद्दुरादिक तुला मोठ्या किताबांसी दे

ऐसे शुष्क किताब घेउनी तुवा स्वातंत्र्य संपत दिली।।६।।

 

दारिद्र्यासह पारतंत्र्य दुबळ्या मानेवरी लादती

तेव्हां येउनि मानवी तनुस बां तू साधिले काय ते

भूभारापरी गर्वभार अजुनु त्वचित्त का वाहते।।७।।

 

सोडी गर्व स्वदेशभार हरण्या यत्नांसी आधी करी

होई इशपदी सुलीन पुरवी सद्हेतुला श्रीहरी।।८।।…..

 

☆ रसग्रहण ☆

वृषोक्ती  ही  कविता सावरकरांनी १९०१ साली लिहीलेली आहे. एकदा जव्हार घाटातून बैलगाडीने प्रवास करत असताना त्यांना ती सुचली. या कवितेतली त्यांची कल्पकता आणि विचार दोन्हीही थक्क करणारे आहेत.

१९०१ सालचा काव्यकाळ हा वृत्तबद्ध ,

छंद काव्याचा होता.अलंकारिक भाषेचा होता.आजची मराठी आणि तेव्हांची मराठी यात खूप अंतर होते. त्यावेळची भाषा संस्कृतप्रचुर,नटलेली अवघड होती.पण अर्थातच रसाळ होती.वृषोक्ती या सावरकरांच्या कवितेचं रसग्रहण करताना मला ते जाणवलं.शिवाय ,ने मजसी ने …किंवा जयोस्तुते ..या काव्यरचनांची संगीतबद्ध गाणी झाली म्हणून ती आपल्यापर्यंत पोहचली पण सावरकरांच्या अशा अनेक कविता आहेत की त्यातून सावरकर एक संवेदनशील ,डोळस,कणखर व्यक्तीमत्व आपल्याला दिसतं..

वृष म्हणजे बैल आणि वृषोक्ती म्हणजे बैलाने ऊद्गारलेले…ही काव्यरचना शार्दुलविक्रीडित या वृत्तात बद्ध आहे.या वृत्तात चार चरण, १९वर्ण आणि प्रत्येक बारा वर्णानंतर यती असतो.या दृष्टीनेही ही कविता व्याकरण शुद्ध आहे.लयीत आहे म्हणून अर्थ उलगडता येतो.

या कवितेत एक काल्पनिक संवाद आहे.

बैलाचा आणि एका गर्विष्ठ माणसाचा..

तो पारतंत्र्याचा काळ होता.आणि स्वातंत्र्याचे वारे हळुहळु वाहत होते.

गाडीला जुंपलेल्या, हळुहळु घाट चढून पार दमलेल्या बैलाकडे पाहून एक स्वत:त रमलेला भारतीय माणूस त्याची  निर्भस्तना करतो.मानेवर  जू ठेवून धन्याची सेवा करणारा बैल म्हणून त्याचा धिक्कार करतो.

त्याचवेळी हा बैल मनोमन हसतो आणि त्याला एक चपखल, प्रखर उत्तर देतो.

“अरे! तू माझी आणि माझ्या धन्याची काय निंदा करतोस..तू कधी तुझा  विचार केला आहेस…आज तुझी काय स्थिती आहे हे कळलंय् का तुला..आर्यांची  तुझ्या कष्टाने उभारलेली ही  सुवर्णभूमी तू परकीयांच्या हवाली केलीस.स्वत:च्याच भूमीत तू त्यांची चाकरी करतोस. त्याचं वेतन तरी तुला कधी मिळतं का वेळेवर ? त्यांनी दिलेले राजे रावबहादुर या किताबातच तू खूष आहेस…त्यांच्या भाषेतला आभार हा बेगडी शब्द तुला भुलवतो…अरे त्या बदल्यात तुझं लाखमोलाचं स्वातंत्र्य हरण केलय् त्यांनी.. याची जाणीव आहे कां तुला..

त्यापेक्षा मी बैल बरा ..धन्याच्यात आणि माझ्यात परस्पर सांमजस्य आहे..प्रेम आहे.

तू माणसाच्या जन्माला येऊन काय मिळवलंस…? परकीयांची गुलामगिरी..

धिक्कार असो तुझा…माणूसपणाचा मला जो गर्व दाखवतोस ,तो सोड..स्वभूमीला पारतंत्र्यातून सोडव…

प्रयत्नांची पराकाष्ठा कर…या उदात्त कार्यात परमेश्वरही तुला मदत करेल…..

हा या कवितेचा सारांश! एक सुंदर रुपकात्मक संदेश देणारा…ही कविता वाचताना स्वातंत्र्य मिळविण्यासाठी सावरकर किती झपाटलेले होते हे जाणवतं.

लोकांमधे जागृती निर्माण करण्याची त्यांची तळमळ दिसून येते.अरे परकीयांचं जोखड घेऊन जगण्यार्‍या तुझ्यापेक्षा तो बैल बरा…

अशा शब्दात ते त्याची कानउघाडणी करतात…

सावरकरांचा कणखरपणा ,विद्रोह  शब्दाशब्दात जाणवतो.ब्रिटीशांच्या गुलामगिरीतून देशाला मुक्त करण्यासाठी वीर सावरकरांनी काव्य हे माध्यम प्रभावीपणे वापरलं.त्याचा थेट परिणाम लोकांच्या मनावर नक्कीच झाला.

या काव्यात उद्विग्नतेबरोबर उपहासही जाणवतो…

शिवाय ही कविता, आता काळ ओलांडून गेली असेही वाटत नाही.ती कालातीत आहे.

जेव्हांजेव्हां माणसाच्या मनावर वैचारिक गंज चढतो तेव्हा माणूस परिस्थितीचा गुलामच बनतो.आज देश स्वतंत्र असला तरीही एक बौद्धीक पांगळेपण समाजात जाणवतं. अशावेळी सावरकरांची ही वृषोक्ती नक्कीच परिणामकारक आहे..

२६फेब्रुवारी हा सावरकर   यांचा स्मृतीदिन!! त्या निमीत्ताने त्यांच्या कवितेतलं हे विचार मंथन…

 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

radhikabhandarkar@yahoo.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आनंदाचे डोही आनंद तरंग… ☆ सौ ज्योती विलास जोशी ☆

सौ  ज्योती विलास जोशी

?  विविधा ?

☆ आनंदाचे डोही आनंद तरंग… ☆ सौ ज्योती विलास जोशी

आनंदाचे डोही आनंद तरंग…..

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या गम है जिस को छुपा रहे हो

ही गझल ऐकता ऐकता विचारांचा भुंगा मनाभोवती पिंगा घालू लागला. दुःखाचा विसर होण्यासाठी हास्याचा धबधबा हवा. इतकं साधं आणि सोपं  दुःखावर सोल्युशन आहे

असाच अर्थ लावला माझ्या मनानं …. हा धबधबा अर्थातच नैसर्गिक हवा ना?…. त्याचा उगम कसा? त्याची व्याप्ती किती? तो किती वेगाने आणि किती उंचावरून पडणारा आणि किती मोहक असावा? या सर्व प्रश्नांचं उत्तरं एका वाक्यातंच….तो आनंदाचा स्त्रोत असावा.

होय! हास्यातून आनंद आणि आनंदातून हास्य निर्माण होतं, जे नैसर्गिक आनंद देतं.आनंदाची बेरीज म्हणजे दुःखाची वजाबाकी.आनंदाला दुःखाची झालर आणि दुःखाला आनंदाची किनार असतेच म्हणून तर आनंदा मागून दुःख आले तरी ते पचवायची क्षमता येते आणि त्यानंतर येणाऱ्या आनंदाची ग्वाही आपल्याला मिळते.

जीवनाच्या आनंदयात्रेवर दुःखाचे स्पीड ब्रेकर असणारच!आपल्या प्रत्येकाला निसर्गदत्त अशा परीसाच वरदान आहे.त्या परीसास सुखाचे आनंदाचे क्षण चिकटत असतात. परिसस्पर्श होताच या क्षणांचं सोनं होत असतं आपला हेतू साध्य होत असतो परंतु याकडे आपलं लक्ष नसतं. आपण नुसतं धावत असतो. ते सुवर्णक्षण वेचायचा आनंद आपण उपभोगत नाही. प्रत्येक क्षणात ओतप्रोत भरलेला असतो आनंद… परंतु आपल्याला तो कणाकणानं क्षणाक्षणानं वेचायची सवय नाही आपल्याला तो तात्काळ भरभरून हवा…. या आपल्या अट्टाहासापायी आपण आनंदाला मुकतो.

लहानपणी  ‘आई माझं पत्र हरवलं’ह्या खेळात ‘ते मला सापडलं’ असं म्हणून पत्र लगेच सापडायचं….. कारण ते कुठंच हरवलेलंच नसायचं… तसंच सुखही आपल्या अवतीभवतीच आहे. फक्त शोधण्याची कला हवी.नाही का? लपाछपीचा खेळ ही तसाच! एका ठराविक कक्षेत सगळेच गडी असायचे. ते कुठेच हरवलेले नसायचे. शोधले की सापडायचे आणि मग कोण आनंद मिळायचा. आनंदाचं ही तसंच आहे. तो इतस्ततः विखुरला आहे.तो गोळा करायची ताकद हवी, संयम हवा एवढंच!

आपलं घर हेच आपलं आनंद निधान आहे, हेच आपण विसरतो आहोत.आपलं काम सुकर व्हावं म्हणून आपण यंत्र विकत घेतली आहेत .थोडक्यात आनंद विकत घ्यायचा प्रयत्न केला आहे. या यंत्रांच्या हप्त्यासाठी पैसे गोळा करण्याचा छंद आपल्याला लागलेला आहे आणि ती तडफड आपले सुखाचे क्षण हिरावून घेतेय.

चिमण्यांचा किलबिलाट हा सत्य आणि शाश्वत आनंद आहे पण आपण त्याकडे कानाडोळा करतो आहोत. ट्विटरवरील नैसर्गिक असं चिमणीचं आपल्याला आनंद देते आणि आपण नैसर्गिक आनंदाला मुकतो आहोत आनंदी आनंद गडे इकडे तिकडे चोहिकडे हे ठाऊक असूनही इकडे तिकडे चोहिकडे बघण्यास आपणाला वेळ नाही.

आनंद कुठे कुठे आहे तो कुठे शोधायचा हे एकदा सापडले की  मग…..आनंदाचे डोही आनंद तरंग…….आनंदलहान मुलाच्या निरागसतेत आहे. आनंद आपल्या मनात आहे .अंतरंगात आहे. आपल्या अस्तित्वात आहे.आपल्या श्वासात आहे. आनंद निसर्गात आहे. धुंद हवेत, गुलाबी थंडीत ,रिमझिम श्रावणात, चांदण्या रात्रीत, हिरव्या रंगात ,इंद्रधनुष्यात ,संगीताच्या सात सुरात,लताच्या आवाजात, छंदाच्या वेडात वाचनाच्या धुंदीत……

परमेश्वराला देखील सच्चिदानंद म्हटलं आहे. समर्थ रामदासांनी ‘आनंदवनभुवन’ असं परमेश्वराला संबोधलं आहे. अहो माणसाचा जन्मच आनंदातून झाला आहे हे आपण कसे विसरतो? ‘अवघाची संसार सुखाचा करीन आनंदे भरीन तिन्ही लोक’ ही अमृतवाणी आहे. ‘तिन्ही लोक आनंदाने भरुन गाउ दे’ म्हणून आनंदाचा साठा वाटत संत फिरतायेत. तो भरभरून घ्यावा असे आपल्याला का बरे वाटत नाही?

जीवन हे आनंदाचं  वरदान आहे. तो एक आनंदोत्सव आहे,हे विसरता कामा नये.आनंद भरून घ्यायचा असेल तर मनाची कवाडं उघडी हवीत .एकदा का तो रोमारोमात संचारला की मग अगदी हलकंफुलकं पिसासारखं वाटायला लागेल. आणि मग आनंद पोटात माझ्या माईना म्हणून उंच उडावसंही वाटेल. ….

© सौ ज्योती विलास जोशी

इचलकरंजी

मो 9822553857

jvilasjoshi@yahoo.co.in

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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