हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 145 ☆ कविता – रंगोली ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता रंगोली

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 145 ☆

? कविता – रंगोली ?

त्यौहार पर सत्कार का

इजहार रंगोली

उत्सवी माहौल में,

अभिसार रंगोली

 

खुशियाँ हुलास और,

हाथो का हुनर हैं

मन का हैं प्रतिबिम्ब,

श्रंगार रंगोली

 

धरती पे उतारी है,

आसमां से रोशनी,

है आसुरी वृत्ति का,

प्रतिकार रंगोली

 

बहुओ ने बेटियों ने,

हिल मिल है सजाई

रौनक है मुस्कान है,

मंगल है रंगोली

 

पूजा परंपरा प्रार्थना,

जयकार लक्ष्मी की

शुभ लाभ की है कामना,

त्यौहार रंगोली

 

संस्कृति का है दर्पण,

सद्भाव की प्रतीक

कण कण उजास है,

संस्कार रंगोली

 

बिन्दु बिन्दु मिल बने,

रेखाओ से चित्र

पुष्पों से कभी रंगों से

अभिव्यक्त रंगोली

 

धरती की ओली में

रंग भरे हैं

चित्रो की भाषा का

संगीत रंगोली

 

अक्षर और शब्दों से,

हमने भी बनाई

गीतो से सजाई,

कविता की रंगोली

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उड़ता यौवन ☆ डॉ निशा अग्रवाल

डॉ निशा अग्रवाल

☆  कविता – उड़ता यौवन ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

वसंत ऋतु के आते ही, भंवरे कलियां मुस्काते है।

ऐसे ही मानव जीवन में, यौवन के दिन आते है।।

जैसे ही यौवन आता, अंग प्रस्फुटित हो उठता।

मुख आभान्वित, कजरारी आंखें ,अंग अंग दमक उठता।।

लुभा रही है नागिन वेणी, लहराती, बलखाती चमेली।

चाल चले हिरनी सा देखो, इतराती संग सखी सहेली।।

यौवन का हुस्न देख ज़माना, तारीफों के पुल बंधते देखूं।

सुन -सुन कर तारीफें ऐसी, बार -बार दर्पण को देखूं।।

मैं हंसती ,दर्पण भी हंसता, मैं रोती तो वो भी रोता।

दर्पण से याराना ऐसा, मैं खाती,जब वो भी खाता।।

दर्पण से यारी को देख, मन में लड्डू फूटे जाएं।

हर दिन मेरी उम्र बताकर, मुझसे मेरी पहचान कराए।।

उत्तरोत्तर दर्पण में एक दिन, शक्ल में उम्र परिवर्तन देखा।

पहली बार चमकता बाल, चांदी का मैने सिर में देखा।।

लगा जोर का झटका ऐसा, झकझोर दिया दर्पण को मैने।

जब दर्पण में बूढ़े तन की झुर्रियों को देखा मैने।।

कहाँ गयी कजरारी आँखें, और दमकता मेरा यौवन।

कहाँ गयी आभा चेहरे की, अंग फूल सा मेरा कोमल।।

दर्पण बोला उम्र बढ़ गयी, जिंदगी कगार पर पहुंच गई।

जहाँ खत्म हो जाता यौवन, इसी को कहते उड़ता यौवन।।

छणभंगुर है काया, जीवन, कुछ पल तक ही रहता यौवन।

जहाँ खत्म हो जाता सब कुछ, उसी को कहते उड़ता यौवन।।

मत घमंड करो काया पर इतना, ये भी साथ ना जाएगी।

होगा देह का अंत तो एक दिन, सिर्फ आत्मा रह जायेगी।।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 97 ☆ बाल कविता – दिन हैं गजक मूंगफली वाले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता  दिन हैं गजक मूंगफली वाले”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 97 ☆

☆ बाल कविता – दिन हैं गजक मूंगफली वाले ☆ 

चले सैर को बादल राजा

उत्तर दिग से दक्षिण में।

लाव – लश्कर साथ लिए हैं

ऐसा लगता हैं रण में।।

 

आँख मिचौनी सूर्य कर रहे

बादल जी की सेना से।

सुबह घने कोहरे की चादर

सूर्य छिपे चुप रैना से।।

 

हवा भी गुम है , पेड़ मौन हैं

हरियाली करती झम – झम।

पक्षीगण भी राग सुनाएँ

कहते सबसे खुश हैं हम।।

 

मौसम की भी अजब कहानी

रंग बदलता नए निराले।

कोहरा भागे बादल उमड़े

दिन हैं गजक मूंगफली वाले।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ श्री सुरेश पटवा को अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन सम्मान– अभिनंदन ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

? श्री सुरेश पटवा को अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन सम्मान– अभिनंदन ☆ ☆?  

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री सुरेश पटवा जी को साहित्य में योगदान एवं उनकी पुरस्कृत कृति महकौशल गोंडवाना का भूला बिसरा इतिहास के लिए 17 फरवरी 2022, गुरुवार को दुष्यंत संग्रहालय में अपराह्न 4.30 बजे अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन, भोपाल में  डॉ पोथुकुची साम्बा शिवाराव मेमोरियल एक्सलेन्स अवार्ड 2021 प्रदान किया जाएगा। 

 

? ई-अभिव्यक्ति की ओर से इस अभूतपूर्व उपलब्धि के लिए श्री सुरेश पटवा जी का अभिनंदन एवं हार्दिक बधाई ?

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (51-55) ॥ ☆

सर्गः-12

राक्षस-सेना-हार की, राम की विजय विशेष।

रावण को देने खबर रही शुर्पनखा शेष।।51।।

 

सेना का सुन नाश और शर्पूनखा-अपमान।

शिर पर राम के चरण का रावण को हुआ मान।।52।।

 

‘मारीच’ को मृग रूप दे, रच धोखे की चाल।

कर जटायु से युद्ध, किया सिया-हरण तत्काल।।53।।

 

चले सिया की खोज में राम-लखन दोऊ भाई।

पंख-रहित अधमरा पथ में लखा गीध जटायु।।54।।

 

अपहृत सीता के कहे उसने सारे भाव।

कथा समूची कह रहे थे जटायु के घाव।।55।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १० फेब्रुवारी – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? १० फेब्रुवारी –  संपादकीय  ? 

नरहर अंबादास कुरूंदकर

नरहर अंबादास कुरूंदकर यांचा जन्म १५5 जुलै १९३२ रोजी झाला. ते लेखक होते. समीक्षक होते. समजाचिंतक होते आणि प्रभावी वक्तेदेखील होते. पीपल्स कॉलेज नांदेड इथे त्यांनी प्राचार्य म्हणून काम पाहिले.

नरहर अंबादास कुरूंदकर यांचे प्रकाशित साहित्य –

अभयारण्य, थेंब अत्तराचे, धार आणि काठ, निवडक कुरूंदकर भाग १ आणि २, परिचय, पायवाट, आकलन ( व्यक्तिचित्रे ) जागर (लेखसंग्रह) मनुस्मृती (इंग्रजी) , रूपवेध, रंगशाला. इ. अनेक पुस्तकांपैकी ही काही.

कुरूंदकरांनी अनेक पुस्तकांना प्रदीर्घ प्रस्तावना लिहिल्या आहेत.

कुरूंदकरांच्या प्रस्तावना लाभलेली पुस्तके

चक्रपाणी ( रा.चिं ढेरे), श्रीमान योगी (रणजीत देसाई – ७० पानी प्रस्तावना ), हिमालयाची सावली ( वसंत कानिटकर), संस्कृती (इरावती कर्वे ) ,

निवडक कुरूंदकर भाग१ मध्ये या प्रस्तावना समाविष्ट आहेत.

वरील पुस्तकांपैकी धार आणि काठ या पुस्तकाला महाराष्ट्र शासनाचा राज्य पुरस्कार मिळाला आहे. अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाचे दोन वेळा अध्यक्षपद त्यांच्याकडे चालून आले होते पण त्यांनी नम्रपणे त्याला नकार दिला.

१० फेब्रुवारी १९८२ मध्ये या विद्वान व्यक्तीचे निधन झाले. त्यानंतर त्यांच्यावर मधु जामकर यांनी स्व.  नरहर कुरूंदकर समज आणि गैरसमज हे पुस्तक लिहिले.

त्यांच्या स्मृतीप्रित्यर्थ नरहर कुरूंदकर प्रतिष्ठानची स्थापना झाली. नांदेड एज्यु. सोसायटी व त्यांचे विद्यार्थी यांच्या मदतीने स्वामी रामानंद तीर्थ संशोधन केंद्रात, नरहर कुरूंदकर प्रगत अध्यापन व संशोधन केंद्र सुरू करण्यात आले. या केंद्रातर्फे वेगवेगळ्या क्षेत्रात संशोधन करणार्यांरना त्यांच्या प्रकल्पासाठी  शिष्यवृत्ती दिली जाते.

अभ्यास केंद्राच्या वतीने व्याख्यानमाला ही आयोजित केली जाते. आत्तापर्यंत अशोक बाजपेयी, गंगाधर गाडगीळ, जयंत नारळीकर, दुर्गा भागवत, भालचंद्र फडके, म.द. हातकणंगलेकर यांची व्याख्याने झाली.

आज त्यांचा स्मृतिदिन. त्यांच्या विद्वत्तेला भावपूर्ण, विनम्र  श्रद्धांजली ?

☆☆☆☆☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : शिक्षण मंडळ कर्‍हाड: शताब्दी दैनंदिनी, विकिपीडिया, इंटरनेट    

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गंध अक्षरांचा… ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार

प्रा. सौ. सुमती पवार

? कवितेचा उत्सव ?

☆ गंध अक्षरांचा… ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆

आली अक्षरे जीवनी गंध रानीवनी गेला

बंध जुळती रेशमी पांघरला जणू शेला

नाती मुलायम किती जणू प्राजक्त बहरे

अक्षरांशी जडे नाते असे नाजुक गहिरे…

 

अक्षरांच्या कुंदकळ्या रातराणी बहरते

जाईजुई तावावर अलगद उतरते

कोरांटीची शुभ्र फुले जणू अक्षरे माळते

पिवळी पांढरी शेवंती रोज मला मोहवते ..

 

दरवळ केवड्याचा माझ्या अक्षरांची कीर्ति

मोतीदाणे झरतात अशी अक्षरांची प्रीती

अनंताचे अनमोल फुल उमलते दारी

रोज घालते जीवन माझ्या अक्षरांची झारी …

 

लाल कर्दळ बहरे चाफा मनात गहिरा

मांडवावर दारात मधुमालती पहारा

गुलाबाच्या शाईने मी कमलाच्या पानांवर

उतरतात अक्षरे पहा रोज झरझर…

 

वर्ख शाईने लावते मोती दाणे हिरेमोती

झोपाळ्यावर अंगणी माझी अक्षरेच गाती

बाळगोपाळांच्या मुखी केली अक्षर पेरणी

गंध आला अक्षरांना दरवळली हो गाणी…

 

काना कोपऱ्यात गेली जणू फुलला पळस

गुलमोहराचा टीळा केशराचा तो कळस

निशिगंध नि मोगरा माझ्या अक्षरांची रास

रोज घालते ओंजळ तुम्हासाठीच हो खास …

 

© प्रा.सौ.सुमती पवार 

नाशिक

(९७६३६०५६४२)

svpawar6249@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 99 – कॅनव्हास…. ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #99  ?

☆ कॅनव्हास…. 

मी कॅनव्हास वर अनेक सुंदर

चित्र काढतो….

त्या चित्रात. . मला हवे तसे

सारेच रंग भरतो…

लाल,हिरवा,पिवळा, निळा

अगदी . . मोरपंखी नारंगी सुध्दा

तरीही

ती.. चित्र तिला नेहमीच अपूर्ण वाटतात…

मी तिला म्हणतो असं का..?

ती म्हणते…,

तू तुझ्या चित्रांमध्ये..

तुला आवडणारे रंग सोडून,

चित्रांना आवडणारे रंग

भरायला लागलास ना. .

की..,तुझी प्रत्येक चित्रं तुझ्याही

नकळत कँनव्हास वर

श्वास घ्यायला लागतील…

आणि तेव्हा . . .

तुझं कोणतही चित्र

अपूर्ण राहणार नाही…!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117,विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आजीचा मेकअप बॉक्स ☆ सुश्री गौरी गोरे दातार

? विविधा ?

? आजीचा मेकअप बॉक्स ? सुश्री गौरी दातार ☆

‘ए अग, मेकअप बॉक्स काय म्हणतेस ग,. माझं नाव ‘फणेरी’ किंवा ‘फणी  करंड्याची पेटी’ असं आहे. माझं वय अंदाजे ९५ वर्ष. ?‍♀️.  माझा जन्म गुहागर मधल्या एका खेड्यात झाला. खास फणसाच्या झाडापासून बनवलय हो मला ?आणि म्हणूनच इतकी वर्ष अडगळीत असूनही वाळवी शिवली सुद्धा नाही मला?. जुनं खोड ना मी?

एका कोकणकन्येच्या म्हणजे यमीच्या रुखवतावर ठेवण्यासाठी मी खास घडवले गेले हो…☺️

एक आयाताकृती भक्कम पेटी आहे मी. आतमध्ये दोन खण आहेत. एकात हस्तिदंती फणी, केस बांधायचे आगवळ ( म्हणजे रबर गो), आकडे, खोबरेल तेल असायचे अन दुसऱ्या खणात मेणाची डबी, पिंजर, आंबड्यावर लावायच मोत्याच फूल अन् अस काय काय असायचं बर..

पोरांनो आगवळ म्हणजे गोफ. अन् पूर्वी कपाळावर मेण लावून त्यावर गोलाकार पिंजर म्हणजे कुंकू लावायचे बर. तेव्हा ओल कुंकू अन् टिकली चा जन्म व्हायचा होता.

पेटीच्या झाकणाच्या आतल्या बाजूला छोटासा आरसा असायचा. झाकणाच्या खोबणीत बरोबर अडकवलेला होता तो.

तुम्हाला सांगते पूर्वीच्या बायका अहोरात्र काम करायच्या बरे. अगदी परकऱ्या पोरी देखील दिवसभर लुडबूडत काम शिकायच्या. भल्या पहाटे न्हाणीघरातून आल्या आल्या काय तो नट्टापट्टा. ते देखील काय तर भल्यामोठ्या केसांचा तेल लावून घट्ट अंबाडा बांधायचा अन् वर आवर्जून एक तरी फूल किवा वेणी माळायची. कपाळावर टप्पोर लाल कुंकू रेखायच अन् काय ते दागिने ल्यायचे. पावडरचा जन्म देखिल नव्हता हो झाला तेव्हा. तरी देखील माझी यमी साक्षात लक्ष्मी दिसायची हो.. मग तिची लेक आली, सून आली.

पण हो माझा वावर काय तो माजघरात होता बर. ओसरी, पडवी ठावूक नव्हती मला अन् यमीलाही.. ?

हळूहळू कालपरत्वे माजघरातील  पैजणाची किणकिण ओसरीवर ऐकू येऊ लागली म्हणजे थोडक्यात सांगायचं तर स्त्रीस्वातंत्र्याचे वारे वाहू लागले अन् मोठा आरसा, माझा शत्रूच म्हणा की, भिंतीवर विराजमान झाला. झालं तेव्हा पासून माझ्या अस्तित्वाला जणू उतरती कळा लागली. ?

माझा वापर कमी कमी होत मी कशी अन् कधी अडगळीच्या खोलीत गेले कळलच नाही हो. ?

 गेल्या वर्षी अचानक माळ्यावर खूप गडबड चालू झाली. ? माझी यमी तर कधीच कालवश झाली होती. तिची सून, मुलगी पण वारल्या की पूर्वीच. मग कोण बर असेल. ?

अरे देवा भंगारवाला आलाय हो. ?   माझा अंत जवळ आलाय कळून चुकलं होतं मला. साक्षात यमदेव दिसायला लागला समोर. मी डोळे मिटून राम म्हणणार तोच तिने मला भंगारवाल्याच्या हातून खेचून घेतलं.

” माझ्या पणजी ची पेटी आहे ही.  ही नाही न्यायची, जुनं ते सोन,” असं म्हणून तिने मला जवळ घेतलं. तब्बल सहा दशकानंतर मला मानवी स्पर्श झाला आणि तोही माझ्या पणतीचा, गौरीचा.

गौराईने मला नाहू माखू घातले, रंगवले अन् नवा लूक दिला. मॉर्डन का काय म्हणतात ना तसा. अन् आश्चर्य म्हणजे आपल्या दिवाणखान्यात मानाचे स्थान दिले. ? आता मी तिच्या दिवाणखान्यात दिमाखात बसून  तिच्या घरच्या किल्ल्या सांभाळते ? आहे की नाही माझी ऐट?.

एवढेच नाही तर माझे सगळे सवंगडी म्हणजे फिरकीचा तांब्या, हांडे, घागरी अन् पाट वगैरे पण खुश आहेत आता.

आम्हाला नवा लूक अन् स्टेटस मिळालं. अजून काय पाहिजे महाराजा या मॉडर्न युगात.?

चला तर मी तुमची रजा घेते. ?

माझा एखादा सवंगडी येईलच आता त्याचं मनोगत मांडायला. ??

सायोनारा…?

लेखिका :. गौरी गोरे दातार

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मारुती – भाग दुसरा ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

? जीवनरंग ❤️

☆ मारुती – भाग दुसरा ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

(कथासूत्र : दगड्याच्या अंगात मारुती आला, म्हणून म्हातारीने दगड्यापुढे लोटांगण घातलं. दगड्या घाबरला, म्हातारी म्येलीबिली का काय?…..)

पण तेवढ्यात म्हातारी उठून बसली आणि पुन्हा डोळे विस्फारून  दगड्याकडे पाहू लागली. तिच्या डोळ्यांत नेहमीसारखा राग, तिरस्कार नव्हता. तिचे डोळे भक्तीने तुडुंब भरलेले होते. आणि हात जोडलेले होते.

‘आर तिच्या! आयेबी ढोसाया लागली का काय?’ दगड्याच्या मनात आलं,’येका परीन बरंच हुईल की ते. आपल्या मागची ‘पिऊ नगस’ची कटकट तरी टळंल. पयशे मागत बसाया नको.तीच भरंल.’

म्हातारीच्या चेहऱ्यावरून भक्तीभाव तसाच वाहत होता. आणि ती हात जोडून उभी होती.

“आये, काय गं?”

“मारुतीरायाss, माज्या घरात आलास तू. क्येवढी किरपा झाली रं तुझी. तुझ्यापुढे साखर ठिवते थोडी.”

तिने मारुतीरायाला साखरेचा निवेद दाखवला.

शेजारी कळण्याचा अवकाश, बघताबघता हीs गर्दी गोळा झाली. कोणीतरी समई आणली, कोणी तेल आणलं, कोणी फुलं आणली. म्हातारीच्या घराचं देऊळ झालं.

मग प्रत्येकजण मारुतीपुढे लोटांगण घालून रुपया -दोन रुपये ठेवू लागला.. कोणी नैवेद्याला दूध आणलं. कोणी साखर आणली. कोणी केळी आणली. चिमी खुश झाली. पटापटा सगळं भांड्यात ओतून वाट्या परत करू लागली.

दगड्याला दूध आणि साखरेत रस नव्हता. तो पैसे मोजत होता. दोन -पाच -दहा…… पन्नासपर्यंत मोजले. पुढे जमेना झालं. ‘आयला, त्ये मास्तूर शिकवत होतं साळंत, तेव्हा लक्ष द्याया हवं होतं.’

दादल्याने सगळे पैसे उचलून बाजूला ठेवले.

काल संध्याकाळपासून म्हादेवाची म्हैस सापडत नव्हती. त्याने मारुतीला दंडवत घालून साकडं घातलं, “द्येवा, म्हस गावू दे. दोन नारळ फोडीन तुझ्या पायाशी.”

काय बोलावं, ते दगड्याला सुचेना. तो टकामका बघत राहिला.

गर्दीतलं कोणीतरी बोललं, “म्हादेवा, तुजा सौदा मान्ने नाय द्येवाला. दोन नारळावर पैसं बी दे.”

“बरं, बरं. दोन नारळ फोडीन, वर धा रूपे दीन.”

तेवढ्यात दगड्याला सुचलं. मग मोठ्यांदा श्वास घेत, धापा टाकत तो बोलायला लागला, “म्हस बांधतुयास, त्यो खुंट गोठ्यातून भायेर काढ. अंगणात हुबा कर. ज्या दिशेला पडंल, त्या दिशंला म्हस गेलीया.”

म्हादेवाचं समाधान झालं. तो गेला.

तेवढ्यात नाम्या आला पुढे. “मारुतीराया, माझा पोर शिकलाय थोडाफार. तुला ठाऊकच असेल. पर त्येला नोकरी लागत न्हाय.आज ग्येलाय एका ठिकाणी…..”

“लागंल,लागंल,”दगड्याने उगीचच उत्तर दिलं.

नाम्याने खुश होऊन पाच रुपये ठेवले.

दगड्याला एकदम मस्त आयडिया सुचली, ‘गावातली समदी लोकं येतायत. गुत्तंवाला म्हमद्या बी यील. त्येला सांगायचं -माज्या भक्ताला, या दगड्याला जलमभर फुकटमंदी पियायला द्ये. तुज्या धंद्यात बरकत हुईल.’

जसजसा दिवस उतरत चालला, तसं दगड्याला गरगरायला लागलं. उभा राहिला होता, तो होडीत असल्यासारखा डुलायला लागला. दादल्याच्या लक्षात आल्याबरोबर त्याने लगेचच दगड्याला धरून खाली बसवलं. “द्येवा, सकाळपासून हुबंच हायेसा, जरा खाली बसा.” मग त्याने चिमीला लिंबूसरबत बनवायला सांगितलं आणि स्वतःच्या हाताने दगड्याला पाजलं.

क्रमश: ….

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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