हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग -16 – छठ पूजा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 16 – छठ पूजा ??

छठ पूजा-

छठ या षष्ठी पूजा विशेषकर बिहार और झारखंड का सबसे बड़ा पर्व है। षष्ष्ठी माता को समर्पित  चार दिवसीय छठ पूजन  कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से कार्तिक शुक्ल सप्तमी तक चलता है।  नहाय-खाय पहला दिवस है। द्वितीय दिवस को खरना अथवा लोहंडा नाम से जाना जाता है। तीसरे दिन सूर्यास्त के समय सूर्यनारायण को अर्घ्य दिया जाता है। अंतिम दिन प्रात:काल सूर्योदय के समय सूर्यदेव को उषा अर्घ्य  देकर व्रत खोला जाता है। छठ जाग्रत देवता सूर्य की उपासना वाला पर्यावरण स्नेही त्योहार है।

केवल उगते को सलाम करने की संकुचित मनोवृत्ति के समय में यह उदात्त भारतीय दर्शन ही है जो उदय एवं अस्त दोनों समय सूर्यदेव को अर्घ्य देकर प्रणाम करता है।

विभिन्न पर्वों में एकात्मता-

भारत विविध धर्मों एवं विविध मतों से सज्जित भूभाग है। दुनिया में कहीं से कोई भी आया हो, वैदिक एकात्मता के रंग में रंँगता गया। वस्तुत: आदर्श सदा समान रहते हैं, काल, पात्र, परिस्थितिनुसार नैतिकता बदलती रहती है। स्वाभाविक है कि सबके पर्व, त्योहारों में भी विविधता हो। तब भी विविधता में वैदिक दर्शन सबको एक सूत्र में बाँधता है। यही कारण है कि अथर्ववेद कहता है,

।।मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्‌, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।2।।

(अथर्ववेद 3.30.3)

अर्थात : भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 120 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 120 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मध्वासव पीकर हुए, दृग प्रेमिल बेचैन।

अंग-अंग फडकन लगे, कैसे आए चैन।।

 

विजया तेरी आरती, करता हर पल राम।

कृपादृष्टि से आपकी, बनते बिगड़े काम।।

 

तुझे देख कहते सभी, मदिर तुम्हारा रूप।

चाल ढाल बदली हुई, दिखती नहीं अनूप।।

 

मन्मथ का जिसको कभी, लगा प्यार का बाण।

रक्षा उसकी हो रही, बचे रहेंगे प्राण।।

 

अंगूरी के स्वाद का, जो करते रसपान।

उनके नयनों में बसे, अक्सर हालाजान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पहचान ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆  कविता – पहचान ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

किसी को नाम से जाना जाता है

तो किसी को उसके काम से

 

किसी को उसकी फितरत से जाना जाता है

तो किसी को उसकी फुरकत से

 

किसी को उसकी रुचियों से जाना जाता है

तो किसी को उसकी खर्चियों से

 

किसी को उसके होलिये से जाना जाता है

तो किसी को साफा और तौलिए से

 

किसी को उस के गुरूर से जाना जाता है

तो किसी को उसके मगरूर से

 

किसी को पैसे से जाना जाता है

तो किसी को पद प्रतिष्ठा से

 

किसी को उसकी टाई कोट से जाना जाता है

तो किसी को फ़टी टूटी चप्पल से

 

किसी को उसकी शहादत से जाना जाता है

तो किसी को उसकी आदत से

 

एक मैं हूँ जो सिर्फ मेरी कलम से जानी जाती हूँ

एक मैं हूँ जो मेरी कलम से पहचानी जाती हूँ।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 110 ☆ मोरे केशव कुँज बिहारी…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “मोरे केशव कुँज बिहारी….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 110 ☆

☆ मोरे केशव कुँज बिहारी….

 

राधा के हैं श्याम मनोहर, मीरा के गिरधारी

ललना पुकारें माँ यसोदा, देवकि के अवतारी

नन्दबाबा के प्रभु गोपाला, सखियन कृष्ण मुरारी

ग्वाल-बाल सखा सब टेरें, कह कह कर बनवारी

वृजवासी कन्हैया कहते, कर चरणन बलिहारी

चरण शरण “संतोष” चाहता, रखियो लाज हमारी

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (91-95)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (91-95) ॥ ☆

सर्गः-12

राम ने मारा तीर जो रावण का उर चीर।

गया समा पाताल में हरने वहाँ की पीर।।91।।

 

शब्द शब्द को काटते अस्त्र शस्त्र की ओर।

राम औ’ रावण युद्ध का मचा भयानक शोर।।92।।

 

जैसे दो मदमत्त गज की न जीत न हार।

उन दोनों के युद्ध का रूप था उसी प्रकार।।93।।

 

मारण और प्रतिकार में छोड़े गये जो अस्त्र।

देव पुष्प वर्षा से हुई उन्हें शांति न हर्ष।।94।।

 

तब रावण ने राम पर मारी गदा कठोर।

जो ‘शतघ्नी’ थी नाम से कील खचित था छोर।।95।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १८ फेब्रुवारी – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? १८ फेब्रुवारी –  संपादकीय  ? 

अशोक जैन

अशोक जैन यांचा जन्म ११ एप्रिल १९४४ चा. त्यांची पत्रकारिकतेतील कारकीर्द विशेष गाजली. दै.. तरुण भारत ( पुणे), सकाळ, महाराष्ट्र टाईम्स, मधून त्यांनी पत्रकारिता केली. त्यांची महाराष्ट्र टाईम्समधली कारकीर्द महत्वाची ठरली. मुंबईत १२ वर्षे काम केल्यावर म.टा. चे प्रतिनिधी म्हणून ते दिल्लीला गेले. तिथून त्यांनी ‘राजधानीतून या नावाने साप्ताहिक वार्तापत्रे लिहिली. अशोक जैन यांची चौफेर दृष्टी, विचक्षणपणा आणि खेळकर शैली यामुळे ही वार्तापत्रे  गाजली. ८९ साली ते म. टा. चे सहसंपादक झाले. ‘मैफल या साप्ताहिक पुरवणीची जबाबदारी त्यांनी पेलली. विषय वैविध्य, नाविन्य यामुळे या पुरवणीला प्रतिष्ठा मिळाली. त्यांनी ‘कलंदर’ या टोपण’ नावाने ‘कानोकानी’ हे सदर लिहिले. राजकीय, सामाजिक, साहित्यिक, संस्कृतिक घटना-घडामोडींवर मिश्किल टिपणी करणारे हे सदर अतिशय लोकप्रीय झाले व पुढे याचे पुस्तकही निघाले. त्यांनी अनेक चांगल्या इंग्रजी पुस्तकांचे सुबोध मराठीत अनुवाद केले आहेत.

अशोक जैन यांचे काही प्रकाशित साहित्य –

अत्तरचे थेंब, कानोकांनी हे लेखसंग्रह, कस्तुरबा ( शलाका तेजाची ),  अंतस्थ ( मूळ लेखक पी.व्ही. नरसिंह राव), इंदिरा अंतीम पर्व ( मूळ पुपुल जायकर ), इंदिरा, आणीबाणी आणि भारतातील लोकशाही (अनुवादीत),    शेशन ( चरित्र ), डॉक्युमेंट ( कादंबरी – आयर्विंग वॅलेस), फॅन्टॅस्टिक फेलुदा ( मूळ सत्यजित रॉय), लक्ष्मण रेषा (आर. के. लक्ष्मण यांचे आत्मचरित्र ), व्योमकेश बक्षी , स्वामी व त्याचे दोस्त ( मूळ आर. के. नारायणन.) ही त्यांची महत्वाची पुस्तके.  

आज त्यांचा स्मृतिदिन. त्यानिमित्त त्यांना विनम्र अभिवादन 

☆☆☆☆☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, विकिपीडिया, इंटरनेट    

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हुकूमत वेळेची ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ हुकुमत वेळेची ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

जन्म मृत्यूची वेळ

असते विधात्याच्या हाती

प्रत्येक गोष्टीची एक वेळ

ठरवत असते नियती ||

 

काळवेळेचे भान ठेवत

वेळ पाळत जावे

वेळेआधी अन वेळेनंतर

काही मिळत नाही हे उमजावे ||

 

वेळ फार महत्वाची

क्षणक्षण मोलाचा असतो

अचानकपणे एक क्षण

आयुष्याला कलाटणी देतो ||

 

गेलेली वेळ कधीच

परतून पुन्हा येत नाही

आयुष्याचा नियम मोलाचा

वेळे इतके काही मौल्यवान नाही  ||

 

वेळ हसवते वेळ रडवते

वेळेमुळे दु:खाला विसर पडतो

प्रत्येक जण कुणीही असो

वेळेचा मात्र गुलाम असतो ||

 

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 114 – धुंद झाले मन माझे ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 114 – विजय साहित्य ?

☆ धुंद झाले मन माझे  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

धुंद झाले मन माझे

शब्द रंगी रंगताना

आठवांचा मोतीहार

काळजात गुंफताना…….॥१॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुझें मन ‌वाचताना

प्रेमप्रिती राग लोभ

अंतरंगी नाचताना……..॥२॥

 

धुंद झाले मन माझे

हात हातात घेताना

भेट हळव्या क्षणांची

प्रेम पाखरू होताना……..॥३॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुझ्या मनी नांदताना

सुख दुःख समाधान

अंतरात रांगताना……….॥४॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुला माझी म्हणताना

भावरंग अंगकांती

काव्यरंगी माळताना……॥५॥

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ क्रांतितले अप्रकाशित तारे – भाग-2 ☆ सुश्री प्रज्ञा मिरासदार ☆

? विविधा ? 

☆ क्रांतितले अप्रकाशित तारे – भाग-2 ☆सुश्री प्रज्ञा मिरासदार ☆ 

क्रांतीतले अप्रकाशित तारे – रानी मां गायडिल्लू (Gaidinlue)

(वयाची उमेदीची चौदा पंधरा वर्षे त्यांना तुरूंगवा  सोसावा लागला.)…पुढे चालू

बाहेर आल्यानंतर रानी मां गायडिन्ल्यू यांचे आदिवासींसाठी कार्य जोमाने सुरू झाले. कारण धर्मांतरे थांबली नव्हतीच!! त्यांनी राजकीय क्रांती बरोबर सामाजिक, सांस्कृतिक चळवळींनाही प्राधान्य दिले. नागा आदिवासी  लोकांचे जीवन सुधारण्यासाठी रानीने जिवाचे रान केले. तिथल्या आदिवासींच्या जीवनात सुधारणा करण्यात रानी मां यांचा सिंहाचा वाटा आहे. तुम्ही सुद्धा हिंदू समाजाचेच घटक आहात हे त्यांनी आदिवासी नागांच्या ध्यानात आणून दिले.

त्या नंतर विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम रा.स्व. संघ यांच्या कार्यकर्त्यांच्या संपर्कात आल्या. वनवासी कल्याण आश्रमाचे संस्थापक बाळासाहेब देशपांडे , रा.स्व. संघाचे तत्कालीन सरसंघचालक गोळवलकर गुरुजी यांच्या भेटी रानी मां यांनी घेतल्या.त्यामुळे  त्यांच्या चळवळी खूपच जोरात चालू लागल्या.

 १७ फेब्रुवारी १९९३ रोजी रानी मां गायडिन्ल्यू यांचे देहावसान झाले. त्यानंतर १९९६ साली सरकारने त्यांच्या गौरवाप्रीत्यर्थ एक डाक तिकीट जारी केले. जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालयातील एका रस्त्याला सन्मानाने ” रानी मां गायडिन्ल्यू पथ” असे नाव देण्यात आले आहे. तसेच भारतीय तटरक्षक दलाच्या एका जहाजाला ही रानी मां यांचे नाव देऊन त्यांना सन्मानित केले आहे.

 रानी मां गायडिन्ल्यू यांना १९७२  साली ताम्रपत्र फ्रीडम फायटर अॅवॉर्ड, १९८३ साली विवेकानंद सेवा अॅवॉर्ड, तसेच १९८२ साली * पद्मविभूषण देऊन गौरविण्यात आले आहे.

 २०१४ ते २०१५ हे वर्ष मणिपूर व नागालँड सरकारने त्याचे जन्मशताब्दी वर्ष म्हणून साजरे केले. त्या वर्षाच्या समारोप समारंभाला भारताचे पंतप्रधान माननीय श्री. नरेंद्र मोदींजी उपस्थित होते. त्यांनीच रानी गायडिन्ल्यू यांना नुसते रानी असे संबोधता  रानी मां गायडिन्ल्यू असे संबोधले.  तेव्हापासूनच त्यांना रानी मां असे म्हटले जाते.

 वनवासी कल्याण आश्रमाच्या वतीने २६ जानेवारी हा केवळ प्रजासत्ताक दिन म्हणून साजरा न होता तो दिन आता ” नारी शक्ति दिन” म्हणूनही साजरा केला जातो.

 भारतीय स्वातंत्र्याच्या क्रांतीमध्ये असे अनेक क्रांतिकारक आहेत की ज्यांची नावे अजूनही लोकांना माहीत नाहीत. त्यांचे कार्य  नि:संशय महानच आहे. त्यापैकीच एक रानी मां गायडिन्ल्यू  या आहेत.

 प्रजासत्ताक दिनाच्या ७३ व्या वर्धापनाच्या दिवशी  वनवासी कल्याण आश्रमाच्या वतीने एक देशव्यापी कार्यक्रम आयोजित केला गेला. तो लाईव्ह पाहण्याचे भाग्य मला लाभले. आणि रानी मां गायडिन्ल्यू यांचे चरित्र थोडक्यात का होईना पण प्रत्येकाला समजले पाहिजे असे मला वाटले. म्हणून हा लेखनप्रपंच !!!

समाप्त

© सुश्री प्रज्ञा मिरासदार

पुणे 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ गटुळं – भाग-3 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ गटुळं – भाग-1 ☆ श्री आनंदहरी 

ग्रामीण एकांकिका :-   गटुळं

(भामा हातात खराटा घेऊन अंगण झाडायला बाहेर येते… अंगण झाडता झाडता छपराकडे नजर टाकते )

भामा :- आँ ss ! येवढ्या येरवाळचं म्हातारी कुनीकडं गेली म्हनायची ? .. कुनीकडं का जाईना..  घरात न्हाय आली म्हंजी बास.. (काहीशी विचारात पडून ) धाकलीनं तर न्हेली नसंल तिला ? छया  ss !  ती कसली न्हेतीया म्हातारीला ..  ब्येस म्हातारीला आमच्या गळ्यात बांदलिया आन ऱ्हात्यात दोगं राजा -रानीवानी.. आमचं ह्येच खुळं … सारकं..’ आय ss आय’ करीत आयच्या पदरामागं ऱ्हातंय.. मी हाय खमकी म्हनुन ..न्हायतर कुनीबी आमच्या ह्या खुळ्याला इस्लामपूरच्या बेस्तरवारच्या बाजारात इकून आलं असतं..  जाऊदेल… ( जरा वेळ अंगण झाडते ..तोवर तिला धुरपदा येत असल्याचे दिसतं ) आली वाटतं म्हातारी.. गावात गेलीवती वाटतं..चला आत जाऊया.. न्हायतर नस्ती ब्याद पुन्यांदा मागं लागायची… तशी, मी लय खमकी हाय म्हना.. ( आत जाते )

धुरपदा :- (दुसऱ्या बाजूने येते अंगणातून उजव्या बाजूला असणाऱ्या सपराकडे जाते. जराशी दमलेली हुश्शss! करीत खाली बसते दाराआडून भामा तिची चाहूल घेत असतेच..)

(स्वगत)  पोटाला दोन पोरं हायती पर योकबी ईचाराय आला न्हाय… आय ज्येवलीया का उपाशी हाय… ह्येचा इचार बी न्हाय … सुना दुसऱ्याच्या घरातनं आलेल्या असत्यात पर पोरं तरी आपलीच असत्यात न्हवं …पर त्यास्नीबी कायसुदीक वाटत न्हाय..कोन कुनाचा नस्तुय ह्येच खरं.. आन त्यात ही म्हातारपन.. म्हातारपन लय वंगाळ.. म्हातारं मानुस कुनालाबी नगंच आसतं ! जाऊंदेल,  उगा डोसक्याला तरास नगं.. वाईच च्या करून प्यावा ..  यशवदेनं भुगुनी आन थाटली दिली ती लय ब्येस झालं.. काय बाय शिजवाय तरी येतंय ..कालच्यान उपाशी हाय ह्ये बिन सांगताच वळीखलं तिनं..आन खाया दिलं…भामीचं बोलनं तिला ऐकाय जायाचं ऱ्हातंय वी.. आवो, माझ्या मागनं नांदाय आली ती .. सोयर न्हाय, सुतक न्हाय पर भनीवानी कंच्या बी वक्ताला आडीनडीला हुबी ऱ्हाती ..

(सागर … धोतर, सदरा, डोक्यावर टोपी असा किंवा तत्सम पुढाऱ्यासारखा पोशाख.. रुबाबदार चालत धुरपा म्हातारी जवळ येतो )

सागर :-  मावशे , काय ऊन खायला बसलीस व्हय ?

धुरपदा :- व्हय रं…  सपरात सावलीला ऊन खात बसलिया.. येतूस का ऊन खाया.?

सागर :-  मावशे, तुजं लय ब्येस काम हाय बग.. (हसत हसत ) व्हय ग मला  घे की दत्तक..

धुरपदा :- घेती की.. पर आनी कुणी दोनजन हायती का बग.. त्यासनी बी दत्तक घेती.. दोन हायती तर सपरात धाडलंय .. पाचजनं झालासा म्हंजी मसनात धाडशीला.. उगा दुसरं खांदकरीबी बगाय नगं…

सागर :-  (काहीच न समजून, उठून निघत ) ती बी खरंच हाय म्हणा.. बरं मावशे, लय कामं हायती, तालुक्याला जायाचं हाय..  तुज काय काम आसलं तर कवाबी हाळी मार.. (टिचकी मारत ) शून्य मिनटात करतो.. ( जातो )

धुरपदा :- खिशात न्हाय गिन्ना आन मला म्हणा अण्णा .. अशातली ह्येची गत..मुडदा फुडारी हुतुय..

बायकू जातीया भांगलाय दुसऱ्याच्या वावरात.. आन ह्ये बोंबलभिकं फिरतंय फुडारी हून..

येसवदा :- (आधाराला काठी टेकत चालत येते ) धुरपदा s ए धुरपदा ss !

धुरपदा :- कोन ? यशवदा व्हय ? ये बाई.

येसवदा  :-  व्हय यशवदाच ! आता माज्याकडं तू याचंस आन तुज्याकडं मी.. दुसऱ्या कुणाला येळ आस्तुय व्हय म्हाताऱ्या संगती बोलाय- बसाय ? टिकारण्या नुस्त्या.. कवा म्हाताऱ्या हुयाच्याच न्हाईती..आन आपली पोरंबी नुस्ती नंदीबैलच हायती..

धुरपदा :- असूनदेल बाई..चार दिस सुनंच अस्त्यात… बस वाईच दम खा..आगं च्या ठेवलाय ..  साखरंचा हाय..घे घोटभर..

येसवदा :- (आश्चर्याने …भामाला ऐकू जावे म्हणून तिच्या दाराकडे पहात..मुद्दाम मोठ्याने ) धुरपे, साखरंचा च्या  ?  ब्येस हाय बग आपलं सपरातच.. सुनां आल्या म्हंजी घोटभर च्या बी मिळायचा न्हाय कवा.. ही ब्येस हाय बग.. कवा च्या प्यावा वाटला तर पेता येतूय करून.

भामा :- ( यशवदाच्या आवाजाने बाहेर येत) काय ओ आत्ती ?

येसवदा :- काय न्हाय.. आलिया मैतरनीला भेटाय..  धुरपीने च्या केलाय… साकरंsचा

भामा :- ( आश्चर्यानं ) साकरंचा च्या ?

येसवदा :-  ( मुद्दामहून तिरक्या भाषेत ) व्हय.. , घेतीस का वाईच..?

भामा :- ( नजर दुसरीकडे  फिरवत) नगं . 

(स्वगत )  च्या ss ? आन साकरंचा ? आमी गुळाचा च्या पेतोय.. आन म्हातारीला भायेर काडल्याव, ती साकरंचा च्या पितीया … 

(म्हातारी यशवदाला काहीतरी हळू आवाजात सांगतेय हे ध्यानात येऊन भामा ने कान टवकारले.  तिने कान टवकारलेले यशवदानं हेरलं तसं ती मोठ्यानं म्हणाली )

येसवदा :-  अगं घे वाईच,..न्हाय मजी.. सुना हायसा.. तुमास्नी द्याला पायजेल.. मेल्याव रडाय पोटाला पोरी कुठं हायती ? तुमास्नीच रडायचं हाय..

(भामा ऐकून न ऐकल्यासारखं करते.. तोंडावर रागाचे भाव )

धुरपदा  :-  यशवदे, दुकानात इतिस का गं संगं?

येशवदा  :- का गं… दुकानात काय काडलंस ?

धुरपदा :- आगं, उद्याच्याला एकादस हाय.. तवा  साबु आनायचाय गं दुकानातनं ?

*येसवदा :- व्हय… आपल्याला जायाच पायजेल दुकानात.. पोटाला दोन दोन लेक हायती पर सुना असल्या घावल्याव….? धुरपे, ह्या जलमातलं ह्याच जलमात फेडायचं आस्तंय.. फेडतील तवा ध्यान हुईल त्यास्नी.. जाऊंदेल.. उगा त्वांड कशापायी वंगाळ करून घ्याचं.. ज्येची करनी त्येच्या संगं.  चल, जाऊया दुकानात.

धुरपदा  :-   थांब वाईच पैकं घ्येते ..

भामा :- ( आश्चर्याने ) आँ ss ! साकरंचा च्या ss, .. साबू ..?

(धुरपदाच्या वाक्क्यानं भामा तिकडं पाहू लागली.. म्हातारीनं हळूच गटूळयाची गाठ सोडली आणि कापडाच्या खाली हात खुपसून हळूच शंभराची नोट काढली.. त्याच वेळी सोन्याची बोरमाळ / माळ बाहेर आली… धुरपानं  ती झटकन आत ढकलली आणि  झटकन गटूळं करकचून गाठ आवळून बाजूला सारलं . भामा हे सारं पहात होतीच. )

भामा :- ( स्वगत ) आँ ss!  म्हातारी लईच आतल्या गाटीची हाय.. शंभराची नोट हाय..सोन्याची माळ हाय..  आनी काय काय हाय त्या गटूळ्यात तिलाच ठावं … तरीच.. तरीच म्हातारी माज गटूळं ..माज गटूळं.. करतीया. कुणालाबी गटूळ्याला हात सुदीक लावू देत न्हाय..  म्हातारीनं गटूळ्यातनं पैसं काडताना, गटूळ्यातला सोन्याचा डाग धाकलीनं बगीतला न्हाय ही ब्येस झालं.. न्हायतर म्हातारीला घरला न्हेली असती, आन समदं येकलीनचं गळपाटलं असतं..  ( भामा क्षणभर विचार करीत राहीली..)

कवासं येत्यात ही… त्यास्नी समदं सांगून म्हातारीला घरात आणाय पायजेल…

(भामा घरात गेली आणि तिच्या पाठमोऱ्या आकृतीकडं पहात धुरपदा हसली)

क्रमशः…

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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