हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 113 ☆ गैस त्रासदी की बरसी  ….! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है गैस त्रासदी पर श्रद्धांजलि स्वरुप एक कविता  ‘गैस त्रासदी की बरसी  ….!’ )  

☆ कविता # 113 ☆ गैस त्रासदी की बरसी  ….!  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(37 साल पहले  2-3 दिसम्बर की रात्रि को भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि ) 

अजीब भागमभाग, 

भाग भाई भाग…. भाग, 

इधर भाग उधर भाग, 

नींद खुली तो भागमभाग, 

विषैली हवा के साथ भाग, 

नन्हीं जान लेकर भाग, 

जिंदगी की ख़ातिर भाग,

बहते आंसुओं लेकर भाग

कैसे भी करके पर तू भाग, 

लाशों के ऊपर से भी भाग, 

बच्ची की जान बचाने भाग,

जिंदगी की जंग में तू भाग, 

दौड़ दौड़ के घिसटते भाग, 

जिंदगी की ख़ातिर तू भाग ….! 

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 9 – गैस त्रासदी ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 9 ☆ हेमन्त बावनकर

 गैस त्रासदी !

(2-3 दिसंबर 1984 की रात  यूनियन कार्बाइड (यूका), भोपाल से मिक गैस  रिसने  से कई  लोगों  की मृत्यु हो गई थी।  मेरे काव्य -संग्रह  ‘शब्द …. और कविता’ से  उद्धृत  गैस त्रासदी पर श्रद्धांजलि स्वरूप।)

हम

गैस त्रासदी की बरसियां मना रहे हैं।

बन्द

हड़ताल और प्रदर्शन कर रहे हैं।

यूका और एण्डर्सन के पुतले जला रहे हैं।

 

जलाओ

शौक से जलाओ

आखिर

ये सब

प्रजातंत्र के प्रतीक जो ठहरे।

 

बरसों पहले

हिटलर के गैस चैम्बर में

कुछ इंसान

तिल तिल मरे थे।

हिरोशिमा नागासाकी में

कुछ इंसान

विकिरण में जले थे।

 

तब से

हमारी इंसानियत

खोई हुई है।

अनन्त आकाश में

सोई हुई है।

 

याद करो वे क्षण

जब गैस रिसी थी।

 

यूका प्रशासन तंत्र के साथ

सारा संसार सो रहा था।

 

और …. दूर

गैस के दायरे में

एक अबोध बच्चा रो रहा था।

 

ज्योतिषी ने

जिस युवा को

दीर्घजीवी बताया था।

वह सड़क पर गिरकर

चिर निद्रा में सो रहा था।

 

अफसोस!

अबोध बच्चे….. कथित दीर्घजीवी

हजारों मृतकों के प्रतीक हैं।

 

उस रात

हिन्दू मुस्लिम

सिक्ख ईसाई

अमीर गरीब नहीं

इंसान भाग रहा था।

 

जिस ने मिक पी ली

उसे मौत नें सुला दिया।

जिसे मौत नहीं आई

उसे मौत ने रुला दिया।

 

धीमा जहर असर कर रहा है।

मिकग्रस्त

तिल तिल मर रहा है।

 

सबको श्रद्धांजलि!

गैस त्रासदी की बरसी पर स्मृतिवश!

 

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 98 ☆ हम पर कृपा करो घनश्याम ….☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “हम पर कृपा करो घनश्याम ….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 98 ☆

☆ हम पर कृपा करो घनश्याम…. ☆

 

निश दिन डूबे विषयों में हम, लीन्हों तनिक न नाम

स्वारथ से संसार भरो है, कौन यहाँ निष्काम

 

एक आस विश्वास तुम्ही हो, पूरन कर दो काम

लगे बहुत मेले माया के, भूल गए श्रीधाम

 

रोशन कर दो राह हमारी, दिखें हमारे श्याम

भक्ति-भाव “संतोष”न जाने, चरणन करे प्रणाम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (61-65) ॥ ☆

मन था – आम्र प्रियंगु का करना तुम्हें विवाह

उचित नहीं जो गई बिना कर उसका निर्वाह ॥ 61॥

 

तुमसे दोहद प्राप्त यह दे जब पुष्प अशोक

हार की जगह तिलाज्जंलि में होगा उदयोग ? ॥ 62॥

 

सुंदरि तब आघात का रख आभार अशोक

पुष्प अश्रुवत गिरा के दिखता अधिक सशोक ॥ 63॥

 

किन्नर कंठी ! बकुल यह ज्यों सुरभित तब श्वाँस

से रच रसना अधूरी, गई छोड़ क्यों साथ ? ॥ 64॥

 

सम सुख – दुख भागी सखी, चंद्रकिरण सा पुत्र

एकनिष्ठ मैं स्वजन तब, निठुर त्याग तब अत्र ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ३ डिसेम्बर–संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ३ डिसेम्बर –  संपादकीय  ?

बहिणाबाई चौधरी - विकिपीडिया

बहिणाबाई चौधरी

(११ ऑगस्ट, इ.स. १८८० – ३ डिसेंबर, इ.स. १९५१)

जगण्याचे तत्वज्ञान अत्यंत सोप्या शब्दात नेमकेपणाने सांगण्या-या  कवयित्री बहिणाबाई चौधरी यांचा स्मृतीदिन.(1951).

स्वतः निरक्षर असूनही उच्च शिक्षितांनी ज्या कवितांचा अभ्यास करावा अशा  कवितांच्या रचना बहिणाबाईंनी केल्या आहेत.ऐन तरूण वयात वैधव्य प्राप्त झाल्यामुळे आयुष्याला सामोरं जाऊन झुंझताना येणारे अनुभव,दिसणारं जग,भवतालचा निसर्ग त्यांनी आपल्या अहिराणी या बोलीभाषेतून कवितेत उतरवला. अहिराणी, खानदेशी आणि मराठी भाषेतून त्यांनी काव्यरचना केली आहे. त्या निरक्षर असल्यामुळे लिखित स्वरूपात त्या सर्वच्या सर्व उपलब्ध नाहीत.पण त्यांचे चिरंजीव कवी सोपानदेव चौधरी यांच्या प्रयत्नातून ज्या कविता उपलब्ध झाल्या त्या लोकांसमोर येऊ  शकल्या आणि मराठी कवितेला एक अनमोल खजिना प्राप्त झाला. संसार, माहेर, शेतीची साधने, कापणी, मळणी, शेतीतील प्रसंग, सण, सोहळे हे त्यांच्या कवितांचे विषय. जे अनुभवलं ते लिहीलं   त्यामुळे कसदार साहित्य निर्माण झालं.

‘आला सास,गेला सास,जीवा तुझं रे तंतर,

अरे जगन-मरन एका सासाचं अंतर’

हे शब्द असोत किंवा

‘लेकीच्या माहेरासाठी माय सासरी नांदते’ हे शब्द ;

जगण्याची अनिश्चितता,स्त्री ची सुख दुःखे असे कितीतरी विषय त्यांनी सहजपणाने  हाताळले आहेत.

‘अरे संसार संसार ,जसा तवा चुलावर’ हे गीत तर आपल्या सर्वांच्या परिचयाचे  आहेच. पण अशा कितीतरी कविता त्यांच्या ‘बहिणाबाईंची गाणी’ या संग्रहीत काव्यसंग्रहात वाचायला मिळतात.हे त्यांचे काव्य ‘फ्रॅग्रन्स ऑफ दि अर्थ’ या रूपाने इंग्रजीत जाऊन पोचले आहे.श्री.के.ज.पुरोहित यांनीही काही कवितांचे भाषांतर केले आहे.हा त्यांच्या कवितांचा सन्मान आहे.एवढेच नव्हे तर उत्तर महाराष्ट्र विद्यापिठालाही त्यांचे नाव देण्यात आले आहे.एका अशिक्षीत कवयित्रीच्या नावाने विद्यापीठ निघावे असा सन्मान जगात बहुतेक पहिलाच असेल.

जगणं आणि अनुभवणं  शब्दांतून साकारणा-या कवयित्रीला आज स्मृतीदिनी शतशः प्रणाम! ?

☆☆☆☆☆

केशव मेश्राम :

ज्येष्ठ लेखक केशव मेश्राम यांचाही आज स्मृतीदिन आहे. परंतू दि 24/11/21च्या अभिव्यक्तीमध्ये आपण त्यांच्या साहित्यिक कर्तृत्वविषयी जाणून घेतले आहे.म्हणून पुनरावृत्ती टाळत आहोत.

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ: विकीपीडिया,मराठी विश्वकोश, बहिणाबाईंची गाणी.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नको नको रे ज्योतिषा ☆ बहिणाबाई चौधरी

बहिणाबाई चौधरी

बहिणाबाई चौधरी - विकिपीडिया

(११ ऑगस्ट, इ.स. १८८० – ३ डिसेंबर, इ.स. १९५१)

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ नको नको रे ज्योतिषा… ☆  बहिणाबाई चौधरी ☆  

नको नको रे ज्योतिषा ,

माझ्या दारी नको येऊ/

माझे दैव मला कळे,

माझा हात नको पाहू/

 

धनरेषांच्या च-यांनी,

तळहात रे फाटला/

देवा तुझ्याबी घरचा,

झरा धनाचा आटला/

 

म्हणे नशिबाचे नऊ ग्रह,

तळहाताच्या रेघोट्या,

बापा नको मारू थापा,

अशा उगा ख-या खोट्या

 

 – बहिणाबाई चौधरी

चित्र साभार : मराठी विकिपीडिया 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पंचात्तरीची शोढषललना ☆ श्री विजय गावडे

श्री विजय गावडे

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ पंचात्तरीची शोढषललना… ☆ श्री विजय गावडे ☆  

स्वतंत्रते भगवती गाठशी पंच्याहत्तरि जरी l

अजून दिसशी शोढष ललना, विरांगना भुवरी  ll

 

आरक्त नयनी तुझ्या विलसते तेज दशदिशांचे lll

राखू अबाधित तव स्वातंत्र्या वचन असे आमुचे ll1ll

 

नकळे कितीदा असतील झाले आघात तव भू वरि l

घे वचना तव रक्षाया करु प्राण नि्छावर तरी II2II

 

स्वप्न असे तुज प्रस्थापित करु ‘विश्वगुरू’ मातें

भारतभूमी राहो अखंड दिपवूनी विश्वाते ll3ll

 

आगंतुक अन आक्रसताळी येती भवसंकटे

पुरुनी उरु त्या भेदून, तुडवून मार्गातील काटे  ll4ll

 

घडवू योद्धे, व्यापारी, खेळाडू, अन उमदे शेतकरी

उच्चप्रतिच्या नीतिमत्तेची कास धरू अंतरी ll5ll

 

स्वदेशीच्या चळवळीस करुनी जीवनाची वाहिनी

होऊ प्रवक्ते स्थानिक वस्तू अन सकळ कलां च्या जनी ll6ll

 

देशभक्तीची मशाल ठेऊ धगधगती सर्वदा

अनासक्त अन उज्वल घडवू पुढची जनसम्पदा ll7ll

 

निरोगी,  निरामय आयुष्या जन जन करु जागृती

‘योगगुरू’  हि तुझी उपाधी अखंड राखू धरती ll8ll

 

पुनच्छ वचना उच्चरून घेतली शपथ हि मातें

राखू अबाधित तव स्वातंत्र्या वचन घेई अंते ll9ll

 

© श्री विजय लक्ष्मण गावडे

कांदिवली, मुंबई 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 103 – साद ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 103 – विजय साहित्य ?

☆ साद  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

 

आलें आले संमेलन

मांदियाळी लेखकांची

साहित्यांचे उपासक

लावा वर्णी रसिकांची…! १

 

ठेवा दूर मानपान

नको चर्चा खलबत

साहित्याच्या सागरात

सोडा नवे गलबत…! २

 

नवे जुने साहित्यिक

भेटायाची दैवी संधी..

पुर्वग्रह दुषिताने

नका होऊ जायबंदी…! ३

 

आलें आले संमेलन

वैचारिक मेजवानी

माणसाची माणसाला

स्नेहभेट खानदानी…! ४

 

खानदान साहित्याचे

विविधांगी अगणित

नको यांत कंपूगिरी

व्हावी कला द्विगुणित..! ५

 

नको यांत जात पात

नको कर्मठ प्रवाह

साहित्याच्या शब्दांगणी

हवा प्रतिभेला वाव…! ६

 

कसें नसावे लेखन

यांचे करून मनन

साहित्यिक मेळाव्यात

करू प्रतिभा जतन…! ७

 

आलें आले संमेलन

नको प्रमाद नी वाद

नको लौकिक आभासी

हवी अभिजात साद..! ८

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चविष्ट चटकदार मसाला..! ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

?विविधा ?

☆ चविष्ट चटकदार मसाला..! ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

खोटं बोलणे आणि थापा मारणे यात कांही अंशी अवगुणात्मक फरक नक्कीच आहे.खोटं नेहमी स्वार्थासाठीच बोललं जातं असं नाही.समोरच्या माणसाला त्याच्याच हितासाठी कांही काळ अंधारात ठेवण्याच्या उद्देशाने खरं सांगणं योग्य नसेल तिथं खोट्याचा आधार घ्यावा लागतोच.एरवी बऱ्याचदा खोटं बोललं जातं ते भितीपोटी, स्वार्थापोटी,किंवा स्वतःची कातडी बचावण्यासाठीही.बेमालूम खोटं बोलणं सर्रास सर्वांना जमतंच असं नाही.तीही एक अंगभूत कलाच म्हणावी लागेल आणि नित्य सरावाने ते कलाकार त्यात पारंगतही होत असावेत.

थाप मारणे ही क्रिया मात्र मला उत्स्फुर्तपणे घडणारी क्रियाच वाटते.ऐनवेळी आलेल्या अडचणीतून मार्ग काढण्यासाठी सुचेल ते खोटं बोलणं म्हणजे थाप मारणं.अशी थाप मारण्यात अहितकारक उद्देश असतोच असं नाही.पण एकदा थाप मारुन प्रश्न सुटल्याचा आभास निर्माण झाला की त्याची मग सवयच लागते‌.ती एकदा अंगवळणी पडलेली सवय मग अनेक अडचणीना निमंत्रण देणारीच ठरते.स्वार्थासाठी थापा मारुन दुसऱ्यांना टोप्या घालणारे थापाडे किंवा खोटं बोलून स्वतःचं उखळ पांढरं करुन घेणारे खोटारडे यांना मात्र सख्खी भावंडंच म्हणायला हवे.

बिकट परिस्थितीतून वाट शोधण्याचा सोपा मार्ग म्हणून एक थाप मारणारे हळूहळू त्यातून निर्माण होणाऱ्या परिस्थितीमुळे दुसरी थाप मारायला प्रवृत्त होतात आणि मग नाईलाजाने एकामागोमाग एक थापा मारीत स्वतःच निर्माण केलेल्या जाळ्यात अडकून बसतात.या कल्पनेचा लज्जतदार मसाल्यासारखा वापर करुन खुमासदार विनोदी चित्रपट निर्माण करणारे कल्पक दिग्दर्शक आणि उत्स्फुर्त नैसर्गिक अभिनयाने त्यांना दिलखुलास साथ देणारे कलाकार यांच्या समन्वयाने आपल्याला हसवत ठेवल्याच्या अनेक हसऱ्या आठवणी हा प्रदीर्घ लेखाचाच विषय होईल.प्रोफेसर, अंगूर,पडोसन, गोलमाल,चाची ४२०, मालामाल विकली, हंगामा,बरेलीकी बर्फी,वाट चुकलेले नवरे,चिमुकला पाहुणा,थापाड्या, अशी ही बनवाबनवी हे वानगीदाखल सांगता येतील असे कांही  हिंदी मराठी चित्रपट..!’थापा’म्हणजे या सारख्या चित्रपटात वापरलेला, दु:ख-विवंचना विसरायला लावणारा आणि खळखळून हसवणारा चविष्ट खुमासदार विनोदमसालाच…!!

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ एकुलती -भाग पाचवा ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

? जीवनरंग ❤️

☆ एकुलती -भाग पाचवा ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

(पूर्वार्ध :कार्तिकचं आपल्यावर किती प्रेम आहे, हे केतकीला जाणवलं .  आता पुढे….)

आणि आपण तरी कार्तिकशिवाय राहू शकतो का? नेहमी भांडत असलो, तरी प्रत्येक क्षणी कार्तिक मनात असतोच. त्याची पार्श्वभूमी असल्याशिवाय आपण कसलाच विचार करू शकत नाही. अगदी डिव्होर्सची वेळ आली तरीही.

ही डिव्होर्सची वेळ तरी कशी आली? त्याची कुठे भानगड, व्यसन…..? काहीच नाही. मग कशावरून आपलं एवढं भांडण झालं? कशावरून बरं? कारण तर आठवतच नाहीय. म्हणजे तेवढं महत्त्वाचं नसणारच. पण उगीचच ताणलं गेलं आणि इगोच्या लढाया सुरू झाल्या. तसा कार्तिक टिपिकल पुरुषासारखा इगो वगैरे कुरवाळणारा नाहीय. आपणच……

कार्तिक म्हणतोय, ते खरं आहे. एकुलतं एकपण ही आपण नेहमीच स्ट्रेन्थ समजत आलो. आपल्या तोंडातून जे बाहेर पडायचं, ते लगेच आपल्यासमोर हजर व्हायचं. आईबाबा नेहमीच आपले लाड करायचे. त्यामुळे आपण तोच आपला हक्क समजत आलो.

कार्तिककडूनही तीच अपेक्षा केली. सुरुवातीला तोही आपल्या मनाप्रमाणे वागायचा.पण नंतरनंतर त्याने स्वतःच्या मनाला मुरड घालणं बंद केलं.

चुकलंच आपलं. खूप खूप चुकलं.

“कार्तिक, गाडी थांबव.मला बोलायचंय तुझ्याशी.”

“इथे मध्येच थांबवता येणार नाही. पुढे थांबवतो.”

गाडी थांबल्यावर केतकीने सगळं सगळं कन्फेशन दिलं. बोलता बोलता ती रडत होती. रडता रडता बोलत होती.

कार्तिकला ती पूर्वीसारखीच बालिश, निरागस वाटली. त्याच्या मनात तिच्याविषयीचं प्रेम उफाळून आलं. तिला मिठीत घेऊन ओठाने तिचे अश्रू पुसण्याचा मोह त्याला झाला. पण   खुंटा अजून घट्ट करणं आवश्यक आहे, असं त्याला वाटलं.

“तुला काय म्हणायचंय, ते कळलं मला. पण मी प्रयत्नपूर्वक तुला माझ्या मनातून, आयुष्यातून बाहेर काढलंय.”

“पण… आपला… डिव्होर्स…तर… झाला… नाहीय… ना… अजून…!” तिच्या वाक्यात शब्दांपेक्षा हुंदकेच जास्त होते.

“लिगली नाही. पण मनाने आपण एकमेकांपासून खूप दूर गेलो आहोत.”

“मलाही तसंच वाटायचं. पण आता विचार करताना वाटतं, की आपण अजूनही एकमेकांचे आहोत. मी तुझ्याशिवाय जगू शकत नाही, कार्तिक.”

“पण मला नाही ना वाटत तसं,” चेहऱ्यावर अतोनात गांभीर्य, आवाजात कठोरपणा आणत कार्तिक बोलला.

केतकीला धक्का बसला. आपल्याला वाटतं, त्यापेक्षा वेगळा विचार स्वीकारायची ही तिची पहिलीच वेळ होती. फुटू पाहणारे हुंदके प्रयासपूर्वक दाबत तिने तोंड घट्ट मिटून घेतलं.

कार्तिकला तिची दया आली.

“मी विचार करतो तुझ्या म्हणण्याचा. मला वेळ दे थोडा.”

केतकीने सुटकेचा निश्वास सोडला.”घरी पोहोचेपर्यंत सांगितलंस तरी चालेल.”

“दोन-तीन दिवस तरी लागतील मला.”

‘बापरे!’ केतकीच्या मनात आलं. पण तोंडाने मात्र तिने “बरं,”म्हटलं.

रात्री जेवणातही केतकीचं लक्ष नव्हतं.

“काय गं? जेवत का नाहीयेस?”आईने दोन-तीनदा विचारलं.

कार्तिक भराभरा जेवून उठला.

“बरं वाटत नाहीय का? तू झोप जा. आज मी आवरते मागचं,” असं आईने म्हणताच नेहमीप्रमाणे, “मी करते गं,”वगैरे न म्हणता केतकी सरळ बेडरूममध्ये गेली.

पाठोपाठ कार्तिक आलाच.

“हे बघ, हनी….” पुढे न बोलताच केतकीला सगळं कळलं.

किचनमधलं आवरून, बाबांना हवं -नको बघून आई झोपायला आली, तेव्हा दोघांना बघून ती म्हणाली, “आज मी झोपते हॉलमध्ये.”

गंमत म्हणजे आज या दोघांपैकी कोणीही तिला ‘नको’ म्हटलं नाही.

समाप्त

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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