हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ तुलाराम चौक ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर रहे हैं। ‘असहमत’ से सहमत होने या न होने के लिए आपको प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ ‘असहमत’ पढ़ना पड़ेगा।)

☆ संस्मरण ☆ तुलाराम चौक ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

(भारतीय स्टेट बैंक, तुलाराम चौक, जबलपुर – यादों के झरोखे से, श्री अरुण श्रीवास्तव जी  की कलम से।)

सदाबहार शब्द की परिभाषा शायद यहीं पर चरितार्थ होती हैं. समय के साथ दुकानदारों की पीढ़ियां हेंडिंग ओवर और टेकिंग ओवर की बैंकिंग शब्दावली को साकार करती रहती हैं. ऐसा कहा जाता है कि “वक्त से ही कल और आज होता है याने वक्त की हर शै गुलाम और वक्त का हर शै पे राज़ भी होता है’.

किन्तु, ये चौराहा तो किसी ज़माने के नुक्कड़ सीरियल की याद दिलाता हैं जहां संबंधों की गर्मजोशी वक्त को थाम कर कहती है कि ज्यादा से ज्यादा क्या करोगे वक्त जी, बालों का रंग ले लोगे, चेहरे के नूर को झुर्रियों से एक्सचेंज कर लोगे. तो कर लो कौन तुम्हें पकड़ पाया है. पर तुम्हारी पहुंच और ताकत शरीर की सिर्फ ऊपरी तह तक ही है. झुर्रियों के मालिक के ख्वाबों तक, खयालों तक और सबसे बड़ी बात कि दिलों तक तुम्हारी पहुंच नहीं है.

आज भी जब तुलाराम चौक से गुज़रते हैं वो लोग जिन्होनें स्टेट बैंक में अपनी सुबहों को रातों में बदला था और बदले में पाया था , वेतन, ओवरटाईम, बोनस, इंक्रीमेंट, एरियर्स और प्रमोशन तो उनकी नज़रें उस भवन पर थम जाती हैं जहां से कभी हंसने की आवाजें,और हमेशा ही बैंकिंग हॉल की चहल पहल, कभी सामने बाहर निकल कर नारेबाजी की बहुत सारी यादें उन्हें रामभरोसे होटल की चाशनी से तर खोबे की जलेबी जैसा ही तर कर देती है. गुजरे हुये वक्त को फिर जीने की चाहत, कदमों को होटल की तरफ खींच लेती है और वो ये भूल जाते है कि वो डायबिटीज़ से ग्रस्त हैं. उस वक्त वो बीते समय के नौजवान हीरो बनकर खोबे की जलेबियों से मिले आनंद में डूब जाते है. फिर किशोर कुमार का गाना बाहर नहीं दिलों के अंदर बज़ता है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन”. जलेबी और मेचिंग गर्म और ताज़े नमकीन के स्वाद के बाद अगला पड़ाव स्वादिष्ट कड़क मीठी अदरकी चाय का होता है जो बाकायदा स्वाद ले लेकर पी जाती है पर फिर भी फीकी लगती है क्योंकि इस चाय को कड़कदार और मज़ेदार बनाने वाली मोतियों याने मित्रों की माला बिखर चुकी है. दिल में एक टीस सी उठती है इन पंक्तियों के साथ “मैं अकेला तो न था, थे मेरे साथ कई, वो भी क्या दिन थे मेरे ,मेरी दुनियां थी नई “ की धुन या गीत गुनगुनाते हुये.

पर अलसेट पाये वक्त के होंठों पर कुटिल मुस्कान आ जाती है जो शायद यादों के तिलस्म में खोये शख्स को वक्त की अहमियत बतलाते हुये कहती है कि –

“सब कुछ तुम्हारे हाथ में नहीं है, कुछ ऐसा भी है जो हमारे हाथ में है जनाब”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #99 ☆ यज्ञ तथा प्राकृतिक पर्यावरण का मानव जीवन पर प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 99 ☆

☆ यज्ञ तथा प्राकृतिक पर्यावरण का मानव जीवन पर प्रभाव ☆

पृथ्वी सगंधसरसास्तथाप:, स्पर्शी च वायुर्ज्वलितं च तेज:।

नभ:  सशब्दं महतां सहैव, कुर्वंतु सर्वे मम सुप्रभातम्।

इत्थं प्रभाते परमंपवित्रम्, पठेतस्मरेद्वा श्रृणयाच्च  भक्त्या।

दु:स्वप्न नाशस्ति्त्व: सुप्रभातमं, भवेच्चनित्यम् भगवत् प्रसादात्।।

(वामन पुराण14-26,14-28)

अर्थात्–गंध युक्त पृथ्वी,रस युक्त जल,स्पर्शयुक्त वायु, प्रज्वलित तेज, शब्द सहित आकाश, एवम् महतत्त्व, सभी मिलकर कर मेरा प्रात:काल मंगल मय करें।

सहयज्ञा: प्रजा:सृष्ट्वा पुरोवाचप्रजापति।

अनेन‌ प्रसविष्यध्वमेण वोअस्तित्वष्ट काम धुक्।।

 देवानंद भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।

परस्परं भावयंत:श्रेय: परमवाप्स्यथ।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यंते यज्ञभाविता:।

तैर्दत्तान प्रदायभ्यो तो भुंक्तेस्तेन एवस:।।

(श्री मद्भागवतगीताअ०३-१०-११-१२)

अर्थात् सृष्टि के प्रारंभ में समस्त प्राणियों के स्वामी प्रजापति ने भगवान श्री हरि विष्णु के प्रीत्यर्थ, यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं के संततियों की रचना की। तथा उनसे कहा कि तुम यज्ञ से सुखी रहो, क्यों कि इसके करने से तुम्हें सुख शांति पूर्वक रहने तथा मोक्ष प्राप्ति करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएं प्राप्त होंगी, उन यज्ञों से पोषित  प्रसंन्न देवता वृष्टि करेंगे, इस प्रकार परस्पर सहयोग से सभी सुख-शांति तथा समृद्धि को प्राप्त होंगे। लेकिन जो देवताओं द्वारा प्रदत्त उपहारों को उन्हें अर्पित किए बिना उपभोग करेगा वह महाचोर है।

इस प्रकार श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित श्लोक के चरणांश हमें शांत सुखी एवं आदर्श जीवन यापन की आदर्श शैली का सफल सूत्र तो बताती ही है।

हमारी जीवन पद्धति पूर्व पाषाण काल से लेकर आज तक लगभग प्रकृति की दया दृष्टि पर ही निर्भर है।जब पाषाण कालीन मानव असभ्य एवं बर्रबर था, सभ्यातायें विकसित नहीं थी, वह आग जलाना खेती करना पशुपालन करना नहीं जानता था। गुफा  पर्वतखोह कंदराएं ही उसका निवास होती थी। उस काल से लेकर वर्तमान कालीन  विकसित सभ्यता होने तक तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानव समाज को  सुविधा भोगी आलसी एवं नाकारा एवम् पंगुं बना दिया, जिसके चलते हम प्रकृति एवम् पर्यावरण से दूर होते चले गए। हम आज भी उतनें ही लाचार एवम् विवस है जितना तब थे। बल्कि हम आज श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित सिद्धांतों का परित्याग कर, प्रकृति का पोषण छोड़ उसका अंधाधुंध दोहन करने में लगे हुए हैं। हम प्राकृतिक नियमों की अनदेखी कर प्राकृतिक प्रणाली में  खुला हस्तक्षेप करने लगे हैं। जिसका परिणाम आज सारा विश्व भुगतता त्राहिमाम करता दीख रहा है। पर्यावरणीय असंतुलन अपने घातक स्तर को पार कर चुका है।

इसी क्रम में हमें याद आती है हमारे सनातन धर्म में वर्णित वेद ऋचाओं में शांति पाठ के उपयोगिता की, जिसमें पूर्ण की समीक्षा करते हुए लोक मंगल की मनोकामनाओं के साथ  समस्त प्राकृतिक शक्तियों पृथ्वी, अंतरिक्ष, वनस्पतियों औषधियों को शांत रहने के लिए आवाहित किया गया है। इस लिए वैदिक ऋचाओं का उल्लेख सामयिक जान पड़ता है।

 ऋचा—-

ऊं  पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते।

पूर्णस्यपूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ऊं द्यौ:शान्तिरन्तरिक्षऽशांति शांति:, पृथ्वीशांतराप: शांतिरोषधय: शांति।

वनस्पतय: शांतर्विश्वेदेवा: शांतिर्ब्ह्म शांति: सर्वऽवम् शांति शातिरेव शांति:सा मां शातिरेधि शांति:।

ऊं शांति:! शांति:!! शांति!! सर्वारिष्टा सुशांतिर्भवंति।।

आज अंतरिक्ष अशांत है, पृथ्वी अशांत है, धरती एवम् आकाश के सीने में कोलाहल से हलचल मची हुई है, जलवायु प्रदूषण परिवर्तन तीव्रतम गति से जारी है, वनस्पतियां औषधियां अशांत हो अपना स्वाभाविक नैसर्गिक गुण खो रही है।

जिसका परिणाम सूखा बाढ़ बर्फबारी, आंधी तूफान तड़ित झंझा के रूप में दृष्टि गोचर हो रहा है, लाखों लोग भूकंप महामारी भूस्खलन से काल कवलित हो रहे हैं। वे अपने आचार विचार आहार विहार की प्राकृतिक नैसर्गिकता से बहुत दूर हो गये है।

प्राचीन समय के हमारे मनीषियों ने प्रकृति के प्राकृतिक महत्त्व को समझा था। इसी कारण वह धरती का शोषण नहीं पोषण करते थे।

जिसके चलते हमें प्रकृति ने फल फूल लकड़ी चारा जडी़ बूटियां उपलब्ध कराये। जिनके उपभोग से मानव  सुखी शांत समृद्धि का जीवन जी रहा था, यज्ञो तथा आध्यात्मिक उन्नति के चलते मानव समाज, लोक-मंगल कारी कार्यों में पूर्णनिष्ठा लगन से तन मन धन से जुड़ा रहता था, वह तालाबों कूपों बावड़ियों का निर्माण कराता, बाग बगीचे लगाता जिसे समाज का पूर्ण सहयोग तथा समर्थन प्राप्त होता। मानव औरों को सुखी देख स्वयं सुखी हो लेता,उसके लिए अपना सुख अपना दुख कोई मायने नहीं रखता। आत्म संतुष्टि से ओत प्रोत जीवन दर्शन का यही भाव कविवर रहीम दास जी के इस दोहे से प्रतिध्वनित होता है।

गोधन गजधन बाजिधन, और रतन धन खान।

जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।

लेकिन आज ज्यो ज्यो सभ्यता विकसित होती गई, प्रकृति के साथ हमारी संवेदनाएं तथा लगाव खत्म होता गया, हमारे आचार विचार व्यवहार अस्वाभाविक रूप से बदल गये, दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे मानवीय मूल्यों की जगह हम स्वार्थी क्रूर अवसरवादी एवं उपभोग वादी बनते चले गये।

हमने जल जंगल जमीन के प्राकृतिक श्रोतों को काटना पाटना आरंभ कर दिया, पहाड़ों को नंगा कर ढहाने लगे, नदियों पर बांध बना तत्कालिक लाभ के लिए उसकी जीवन धारा ही छीन लिया।

उसमें शहरों की गंदी नालियों का जल-मल बहा उसे पनाले का रूप दे दिया। हमने अपने ही आंगन के पेड़ों कटाई कर उसकी छाया खत्म कर दिया, और हमारे शहर गांव कंक्रीट के जंगलों में बदलते चले गये  इस प्रकार हमारा जीवन भौतिक संसाधनों पर आश्रित होता चला गया, हमें अपनी संस्कृति अपने रीती रिवाज दकियानूसी लगने लगे, हमनें अपने कमरे तो ऐसी कूलर फ्रीज लगा ठंडा तो कर लिया लेकिन अपने वातावरण को भी जहरीली गैसों से भरते रहे आज हमारे शहर जहरीले गैस चेंबर में बदल गये है। भौतिक जीवन शैली और जलवायु परिवर्तन प्रदूषण ने जितना नुकसान आज पहुंचाया है उतना पूर्व काल में कभी भी देखा सुना नहीं गया।

आज इंसान अपने ही अविष्कारों के जंजाल में बुरी तरह फंस कर उलझ चुका है।

यद्यपि उसके द्वारा उत्पादित प्लास्टिक ने मानव जीवन को सुविधाजनक बनाया है लेकिन वहीं पर उसके न सड़ने गलने वाले प्लास्टिक एवम् इलेक्ट्रॉनिक रेडियो धर्मी कचरे ने पृथ्वी आकाश एवम् जलस्रोतों को इस कदर प्रदूषित किया है कि आज आदमी को पानी भी छान कर पीना पड़ रहा है।

मानव का जीना मुहाल होता जा रहा है। आज विश्व के सारे शहर प्लास्टिक के कचरे के ढेर में बदल रहे हैं। जिसके चलते डेंगू मलेरिया चिकनगुनिया  पीलिया हेपेटाइटिस तथा करोना जैसी महामारियां  तेजी से पांव पसार रही है।संक्रामक संचारी महामारियों के रूप पकड़ चुके हैं और इंसानी समाज अपने प्रिय जनों को खोकर मातम मनाने पर विवस है। जो आने वाले बुरे समय का भयानक संकेत दे रहा है जिससे दुनिया सहमी हुई है।हम अब भी नहीं चेते तो वह दिन दूर नहीं जब महाकाल नग्न नर्तन करेगा और एक दिन इंसानी सभ्यता मिट जायेगी। क्यौं कि हमने अपनी तबाही और बरबादी की सारी  सामग्री खुद ही जुटा रखी है।

इस क्रम में हम अपने पूर्वजों की जीवन शैली का अपनी जीवनशैली से तुलनात्मक अध्ययन करें तो पायेंगे कि उनके लंबी आयु का मुख्य आधार तनावमुक्त जीवन शैली थी। वे गुरुकुलो एवम् ऋषिकुल संकुलों में प्राकृतिक  साहचर्य में रहते थे। अपनी यज्ञशालाओं में वेदरिचाओं  का आरोह अवरोह युक्त सस्वर पाठ करते, उनकी ध्वनियों तथा यज्ञ में आहूत समिधा के जलने से उत्तपन्न सुगंध से सुवासित सारा वातावरण सुरभित हो महक उठता था और वातावरण की नकारात्मक उर्जा नष्ट हो सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित हो उठती, सुबह शाम का संध्याबंदन अग्निहोत्र हमारी सांस्कृतिक जीवन शैली में प्राण चेतना भर कर उसे अभिनव गरिमा प्रदान करती, हम दिनभर सकारात्मक उर्जा से परिपूर्ण रहते, जिसके चलते हमारे समाज का जन जीवन उमंग उत्साह एवम् आनंद से परिपूर्ण होता, हमारे व्रतो त्यौहारों का उद्देश्य कहीं न कहीं  लोक-मंगल एवम पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा है, लेकिन आज़ तो हमारे जीवन की सुरूआत ही गाड़ी मोटर के हार्नो की कर्कस आवाजों टी वी मिक्सचर के शोर से आरंभ होकर  शाम डी जे के शोर में ढलती है क्यों कि हमारा कोई भी उत्सव हो अब बिना डीजे के शोर और धूमधड़ाके के अश्लील एवम् फूहड़ दो अर्थी गीतों के पूरा ही नहीं होता, मानों समस्त कर्मकांडो के अंत में कोई नया कर्मकांड जुड़ गया है।

आज हमारी स्वार्थपरता ने हमारे अपने बच्चों का ही बचपन छीन लिया है, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उन्हें बलि का बकरा बना दिया है, उन्हें डाक्टर या इंजिनियर बनाने की चाहत में हमने उनके खेलने खाने के दिन कम कर दिए हैं, उनकी जिंदगी पाश्चात्य शिक्षा पद्धति की किताबों के बोझ तले दब कर घुट घुट कर सिसकने के लिए मजबूर है। उनकी बचपना की शरारतें खिलखिलाहट भरी नैसर्गिक मुस्कान उन्मुक्त हास्य कहीं मोबाइल फोन टीवी विडियो गेम के आकर्षण में खो गई है, टी वी नेट  तथा मोबाइल का अंधाधुंध दुरूपयोग बच्चों युवाओं को खेल के मैदान से दूर कर अपने मोह पास में कैद कर लिया है, जिससे उनका शारीरिक विकास तथा दमखम बुरी तरह प्रभावित हुआ है, और अंत में कमरों के भीतर अंधेरे में गुजरने वाला समय एकाकी पन का रूप पकड़ मानसिक अवसाद में परिवर्तित हो आत्महत्या का कारण भी बन रहा है उसके आकर्षण से क्या बच्चा क्या जवान क्या बूढ़ा कोई नहीं बचा। आज हमारे दिन की शुरूआत चिड़ियों के कलरव, बच्चों की किलकारियों, संगीत की स्वरलहरियों से नहीं, ध्वनिप्रदूषण वायुप्रदूषण के दौर से गुजरती हुई तनाव के साथ शाम की अवसान बेला क्लबों के शोर शराबे, नशे की चुस्कियों के बीच गुजरने के लिए बाध्य है, जो जीवन को दुखों के दरिया में डुबोने को आतुर दीखती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कि प्राकृतिक जीवन शैली यज्ञों एवम् लोक मंगल कारी सोच विचार का मानव जीवन तथा समाज पर बड़ा ही गहरा एवम् सकारात्मक प्रभाव होता है तथा जीवन शांति पूर्ण बीतता है।

और अंत में———————

#सर्वे भवन्तु सुखिन: की मंगल मनोकामना#

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (71-75) ॥ ☆

तब उतार अज गोद से, स्वजनों ने सायास

सौंपी सज्जित देह वह अगरू अग्नि के हाथ ॥ 71॥

 

‘‘ज्ञानी अज भी जल मरे इन्दुमती के साथ ” –

राजा जीवित रहे डर हो न यही अपवाद ॥ 72॥

 

रूप – गुणों से श्शेष बस, रही प्रिया की याद

राजा ने जिसकी किया यथा रीति मृत श्राद्ध ॥ 73॥

 

प्रातः निष्प्रभ चंद्र सा अजकर नगर प्रवेश

देखे श्शोक प्रवाह से अश्रु बहाते गेह ॥ 74॥

 

गुरू वशिष्ठ यज्ञार्थी ने घटना यह जान

भेजा अपने शिष्य को अज का दुख रख ध्यान ॥ 75॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ५ डिसेंबर – संपादकीय – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? ५ डिसेंबर –  संपादकीय  ?

आज ५ डिसेंबर : –

ज्ञानेश्वरीच्या चिकित्सक विश्लेषणापासून ते बा. सी. मर्ढेकरांच्या कवितांच्या सखोलतेपर्यंत, आपल्या अतिशय बारकाईने केलेल्या अभ्यासपूर्ण समीक्षेसाठी ख्यातनाम असलेले ज्येष्ठ समीक्षक श्री. मधुकर वासुदेव, म्हणजेच  म.वा. धोंड यांचा आज स्मृतिदिन. ( ०४/१०/१९१४ –०५/१२/२००७ ) 

‘आपल्या अतिशय मर्मग्राही आणि धारदार लेखनाने मराठी समीक्षेच्या प्रांगणात स्वतःचा स्वतंत्र असा ठळक ठसा उमटवून गेलेले समीक्षक ‘ असे श्री. धोंड यांच्याबद्दल गौरवाने म्हटले जाते. कुठल्याही प्रकारच्या साहित्याची समीक्षा करतांना, त्याला अगदी मूलगामी संशोधनाची जोड असलीच पाहिजे, हा त्यांचा आग्रह असायचा. आणि त्यामुळे साहित्याचा अभ्यास करतांना त्यांच्या चौकस मनाला अनेक प्रश्न पडत असत. आणि त्या प्रश्नांची उत्तरे सापडेपर्यंत ते थांबत नसत. त्या संदर्भातल्या ज्ञात-अज्ञात अशा सगळ्या संदर्भांचा ते चिकाटीने शोध घेत असत. असा सूक्ष्म अभ्यास करणे हा त्यांचा जणू उपजत व्यासंग होता, याची प्रचिती त्यांनी केलेल्या प्रत्येक समीक्षेत आवर्जून येते. त्यांच्या समीक्षेला साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र, अशा वेगवेगळ्या अभ्यास-क्षेत्रातले संदर्भ असायचे, ज्यामुळे त्यांच्या प्रत्येक लेखनात एक समृद्धता नक्कीच जाणवायची. 

समीक्षेबरोबरच त्यांनी स्वतःही अनेक विषयांवर अभ्यासपूर्ण लेखन केलेले आहे. “ काव्याची भूषणे “ हे त्यांचे पहिले पुस्तक, ज्यात काव्यातील अलंकार व अलंकारशास्त्र या विषयावर सोदाहरण अशी 

विस्तृत चर्चा केलेली आहे. “ मऱ्हाटी लावणी “ हे पुस्तक म्हणजे ‘ लावणी ‘ या वाङ्मयप्रकारासंदर्भात केलेले सर्वांगीण आणि सखोल विवेचन आहे. हा एक विशेष आणि महत्वपूर्ण ग्रंथ समजला जातो. याची दुसरी आवृत्ती “ कलगीतुरा “ या नावाने काढली गेली. कुठल्याही विषयातील त्यांच्या चिंतनाचं वेगळेपण आणि स्वतंत्रता यामध्ये प्रकर्षाने अधोरेखित झाली आहे.   

“ज्ञानेश्वरी“ म्हणजे तर त्यांनी आयुष्यभर घेतलेला ध्यासच होता. ज्ञानेश्वरी म्हणजे गीतेवरचे फक्त निरूपण किंवा भाष्य नाही, तर ती ‘ मराठी गीता ‘ आहे हे त्यांचे ठाम मत अर्थातच त्यांच्या गाढ्या अभ्यासातून प्रकट झालेले होते. ज्ञानेश्वरीला विश्वसाहित्यात मानाचे स्थान मिळणे हा मराठी भाषेचा आणि साहित्याचा गौरव असल्याचे ते अभिमानाने म्हणत असत. “ ज्ञानेश्वरीतील लौकिक दृष्टी “ हा त्यांनी लिहिलेला ग्रंथ म्हणजे, त्यांच्या समीक्षणाचे, विश्लेषणाचे, एक वेगळेच मर्म उलगडून दाखवणारे ठळक उदाहरण आहे असे उचितपणे म्हटले जाते. या ग्रंथाला १९९७ सालचा साहित्य अकादमी पुरस्कार देण्यात आला होता. 

ऐसा विटेवर देव कुठे, तरीही येतो वास फुलांना, चंद्र चवथीचा, जाळ्यातील चंद्र, ज्ञानेश्वरी–स्वरूप, तत्वज्ञान आणि काव्य, अशी त्यांची इतर पुस्तकेही प्रसिद्ध झाली आहेत. इतर अनेक संतांच्या साहित्याविषयीही त्यांनी अभ्यासपूर्ण लेखन केलेले आहे. याव्यतिरिक्त, रणजित देसाईंची ‘ स्वामी ‘ कादंबरी, आणि विजय तेंडुलकर यांचे ‘ सखाराम बाईंडर ‘ यावरही त्यांनी समीक्षणात्मक भाष्य केले आहे. 

“समीक्षा“ ही साहित्याची वेगळी वाट अतिशय सुशोभित आणि समृद्ध करून गेलेल्या श्री. म.वा.धोंड यांना मनःपूर्वक प्रणाम. ?  

☆☆☆☆☆

आजपासून आम्ही चित्रकाव्य हे चित्रकार सुश्री उषा ढगे यांचे सदर सुरू करत आहोत. दर 15 दिवसांनी चित्र आणि त्याचं वर्णन करणारी कविता आपल्या भेटीला येईल.

☆☆☆☆☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

 

माहितीस्रोत :- इंटरनेट

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संगीत अभद्र…. ☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संगीत अभद्र…. ☆ श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

(मुळ गाणे: यूट्यूब लिंक >> वद जाऊ कुणाला शरण  – नाटक : संगीत सौभद्र)

आमचं : संगीत अभद्र ?

 

वद जाऊ कुणाला शरण

करील जो हरण ‘ओमिक्राॅनचे’

मी धरीन चरण त्याचे !

 

अग लस-घे !!

 

बहु ताप बंधु- बांधवा, प्रार्थिले बघुनी दु:ख जनांचे!

ते विफल न होय त्यांचे !

 

अग लस-घे !!

 

मग जिल्हा- बंदी मात्र ती, लावुनी कष्ट इ-पासचे!

न चालेचि काही त्यांचे!

 

अग लस-घे !!

 

जे मास्क लावुनी नाकापुढे, वाचले थवे मानवांचे !

अनुकूल होती साचे!

 

अग लस-घे !!  ?

 

©  श्री अमोल अनंत केळकर

? २/१२/२१

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गुलाम… ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ गुलाम…. ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

न बोलता उगाच तू रुसून का बसायचे

मनातले कसे बरे तुझ्या मला कळायचे

 

नकोच मौन पाळणे गिळून राग संपवू

स्मरून काळ मागचा कधी पुन्हा हसायचे

 

निवारली किती तरी भयाण सर्व वादळे

खचून जायला नको सुखासुखी जगायचे

 

नशीब रोज सारखे फिरून  वाचणे नको

असेल ते मिळेल ना उगाच का झुरायचे

 

तुला मला हवे तसे जगून दाखवू खरे

धरून ध्यास वेगळा करून काय जायचे

 

नको मनास वाटले  अधांतरी  जगायचे

कठीन यातने पुढे कसे तरी झुकायचे

 

गुलाम होत जायचे रुढी रिती पुढे सदा

बळा पुढे झुकून जात शेवटी मरायचे

 

© श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अशा सांजवेळी… ☆ सौ. कल्पना मंगेश कुंभार

सौ. कल्पना मंगेश कुंभार

?विविधा ?

☆ अशा सांजवेळी… ☆ सौ. कल्पना मंगेश कुंभार ☆

सांजवेळ…! ही वेळचं किती विचित्र आहे ना..??या वेळेच्याही दोन छटा आहेत..

एक आहे सुखाची,प्रसन्नतेची, हास्याची,शांततेची,आनंदाची, सकारात्मक…

आणि दुसरी आहे..दुःखाची, आठवणींची,मनात काहूर माजवणारी,कोणाच्या तरी प्रतिक्षेची,नकारात्मक….

सांजवेळ…!सांजवेळ येते ती शांतपणे…प्रसन्नतेचे वातावरण पसरत…देवापुढे सांजवात लावून..आपली संस्कृती जपत… शुभम् करोति.. चा संस्कार लहान बालकांमध्ये रुजवत..एखादया नव्या नवेली नवरीप्रमाणे लाजून चूर होऊन…म्हणूनच की काय..ती सूर्याची लाली पाहून वारा अधिकच गंधाळतो आणि सारा आसमंत शहारतो…

सांजवेळ…! प्रत्येकाला ओढ लागलेली असते घरी परतण्याची… सगळे ऑफिस, सगळ्या शाळा सुटलेल्या असतात आणिआई ,बाबा …मुले सगळेच घराच्या ओढीने घरी लवकर परतण्यासाठी धडपडत असतात.आकाशातील पक्षांचे थवेच्या थवे जणू अस्ताला जाणाऱ्या सूर्याला ” उद्या पुन्हा भेटू ” असे सांगून आपल्या पिल्लांच्या ओढीने घरी परतत असतात.ते दृश्यचं इतकं नयनरम्य असतं ना; की वाटतं आपणही पक्षी व्हावं आणि त्या पक्षांच्या थव्याबरोबर सूर्याची कोमल, सोनेरी किरणे पंखावर झेलत त्याला निरोप देऊन घरी उडत उडत परतावं….अशी ही किलबिलाटाने भारलेली मनमोहक सांजवेळ! पण….पण किती भुर्रकन उडून जाते ना…

अशा या सांजवेळेची दुसरी छटा… हवीहवीशी  वाटणारी पण तितकीच नकोशीही…अगदी जीवघेणी..

सांजवेळ ..! हीच वेळ…हीच वेळ मनात उठवत असते काहूर..हीच वेळ..हीच वेळ जागे करू पहाते माणसाचे अंतर्मन…..अंतर्मनात दडलेल्या त्या….अनेक ‘आठवणी’…. मनाच्या हळव्या कोपऱ्यात जपलेले अनेक ‘क्षण ‘…काही गोड, हवेहवेसे.. तर काही कटू…काहूर माजवणारे…

या आठवणीमधील ‘ तो ‘

एक चेहरा…. जो आठवता मन जाते भारावून… आणि मग..तुला मनाला आवर घालणे कठीण होऊन बसते.अशा वेळी ही सांजवेळ जणू छळू लागते मनाला… दाटून येतो आठवांचा पाऊस आणि भिजवून चिंब चिंब करतो प्रत्येक क्षणाला.. हरवून जाते मन भूतकाळात….

भूतकाळातील ‘ तो ‘ किंवा ‘ ती ‘ …त्याच्याबरोबरच्या अनेक आठवणी….रुसवे फुगवे, एकत्र घालवलेले अनेक क्षण,मित्रमैत्रिणीचे चिडवणे…झालेली भांडणं…. धरलेला अबोला….रुसवा काढण्यासाठी केलेले प्रयत्न… तो लटका नाकावरचा राग…सगळं…अगदी सगळं आठवू लागतं आणि आपण स्वतः लाच विसरून जातो.कधी ओठावर गोड हसू उमटतं… तर कधीं नकळत पापण्या ओलावतात.अशी ही सांजवेळ……

सांजवेळ…! नव्या नवेली नवरीला क्षणात माहेरच्या अंगणात घेऊन जाते…तिची माहेराप्रतिची ओढ.. अशा एकाकी सांजवेळी उफाळून येते… मग तीही रमून जाते माहेरच्या कुशीत…आठवत रहाते तिचं बालपण… भावाबहिणीची लुटुपुटूची भांडणं… आईबाबांचे प्रेम….अगदी सगळं नजरेसमोरून जाऊ लागतं अगदी चित्रपटाप्रमाणे…मग दाटून आलेल्या या सांजवेळी तीही होते थोडी सैरभैर… पण इतक्यात लागते सख्याची चाहूल आणि त्याच्या ओढीने ती क्षणात सासरी परतते आणि रमून जाते तिच्या घरांत.. अशी ही सांजवेळ.. .जितके उलगडावे तिला तितके आपणच गुरफटून जाऊ तिच्यामध्ये…

सांजवेळ…! प्रत्येकाला पहायला लावते कोणाची तरी वाट..प्रत्येकजण असतो कोणाच्या तरी प्रतीक्षेत..पण….हवीहवीशी वाटणारी ती व्यक्ती जेव्हा येत नाही; तेंव्हा हीच सांजवेळ बनते भयाण.. भेसूर…

अशा या सांजवेळी मला कवी ग्रेस यांची एक कविता आठवते…

 

” भय इथले संपत नाही

   मज तुझी आठवण होते..

    मी संध्याकाळी गातो

    तू मला शिकवले गे ते..”

किती आर्तता आहे ना या गाण्यात… जेवढे हृदयातून ऐकू तेवढेच त्या गाण्यात हरवून जातो आपण…

पण…ही दुसरी छटा आहे। म्हणूनच पहिल्या छटेलाही अर्थ आहे,नाही का??

 

“येते लाजून चूर होऊन

सूर्याची लाली गाली लेऊन पक्षांच्या पंखांवर स्वार होऊन

हवेत गारवा पसरवून

सगळीकडे दिव्यांची रोषणाई करून

अशी ही सांजवेळ….

  पण…

जाते मात्र…

मनात काहूर माजवून

कोणाची तरी आठवण..

मनात ठेवून

डोळ्यांच्या पापण्या

ओल्या करून…

शांत सागरी

लाटा उठवून…

        अशी ही सांजवेळ……

 

© सौ. कल्पना मंगेश कुंभार

शाळा : हुतात्मा बाबू गेनू विद्यामंदिर क्र 28, इचलकरंजी

मोबाईल : 9822038378

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सिंधू … अज्ञात ☆ प्रस्तुति – सुश्री मीनल केळकर

?  जीवनरंग ?

☆ सिंधू … अज्ञात ☆ प्रस्तुति – सुश्री मीनल केळकर ☆ 

सिंधू…

माझी पत्नी आतून ओरडली, ” आता किती वेळ तो पेपर वाचत बसणार आहात…? आता ठेवा तो पेपर आणि तुमच्या लाडक्या लेकीला खायला दिलंय ते संपवायला सांगा…! “

मामला गंभीर वळण घेणार असं दिसलं..!

मी पेपर बाजूला सारला आणि घटनास्थळी दाखल झालो…

सिंधू, माझी एकुलती एक लाडाची लेक रडवेली झालेली होती. डोळे पाण्याने काठोकाठ भरलेले. –तिच्या पुढे एक दही -भाताने पूर्ण भरलेला बाऊल होता. सिंधू, तिच्या वयाच्या मानाने शांत व समजुतदार, गोड आणि हुशार मुलगी होती.

मी बाऊल उचलला आणि म्हणालो, ” बाळ, तू चार घास खाशील का..? तुझ्या बाबासाठी…? ” सिंधू, माझी बाळी; थोड़ी नरमली; पालथ्या मुठीने डोळे पुसले आणि म्हणाली, ” चार घासच नाही, मी सगळ संपवीन—” थोडी घुटमळली आणि म्हणाली,

” बाबा, मी हे सगळं संपवलं  तर… तुम्ही मला मी मागीन ते द्याल..? “

” नक्की…!”

तिने पुढे केलेल्या गुलाबी हातात मी हात दिला आणि वचन पक्के केले.

पण आता मी थोडा गंभीर झालो. ” बाळ, पण तू कंप्यूटर किंवा दुसरं एखादं महागडं खेळणं मागशील, तर आत्ता बाबाकडे तेवढे पैसे नाहीयेत बेटा…! “

” नाही बाबा..! मला तसं काही नको आहे…! ” तिने मोठ्या मुश्किलीने तो दहीभात संपवला…

मला माझ्या पत्नीचा आणि आईचा खूप राग आला. एवढ्या छोट्या मुलीला कुणी एवढं खायला देतात…? ते पण तिला न आवडणारं…. पण मी गप्प बसलो. सगळं मोठ्या कष्टाने खाऊन संपविल्यावर हात धुऊन सिंधू माझ्यापाशी आली…डोळे अपेक्षेने मोठे करून–  

आमच्या सगळ्यांच्या नजरा तिच्याकडे होत्या. ” बाबा, मी या रविवारी सगळे केस काढून टाकणार…! ” तिची ही मागणी होती…

” हा काय मूर्खपणा चाललाय…? काय वेड बीड लागलंय काय…? मुलीचे मुंडण…? अशक्य…! “

सौ. चा आवाज वाढत चालला होता…!

 ” आपल्या सगळ्या खानदानात असलं काही कुणी केलं  नाही…! ” आईने खडसावले.

“ती सारखी टिव्ही पहात असते… ! त्या टिव्हीमुळे आपली संस्कृती आणि संस्कार वाया चालले आहेत…! “

” बेटा, तू दुसरं काही का मागत नाहीस…? या तुझ्या कृत्यामुळे आम्ही सगळे दु:खी होऊ…! आम्हाला तुझ्याकडे तसं बघवेल का सांग…? सिंधू, बेटा आमचाही विचार कर…! ” मी विनवणीच्या स्वरात म्हटले…

” बाबा, तुम्ही पाहिलंत ना, मला तो दहीभात संपवणं  किती जड जात होतं ते…! ” आता ती रडायच्या बेतात होती– ” आणि तुम्ही मला त्या बदल्यात मी मागीन ते द्यायचं कबूल केलं होतं… आता तुम्ही मागे हटता आहात… मला कोणत्याही परिस्थितीत दिलेलं वचन पाळणा-या राजा हरिश्चंद्राची गोष्ट तुम्हीच सांगितली होती ना…आपण दिलेली वचने आपण पाळलीच पाहिजेत…! “

मला आता ठामपणा दाखवणे भाग होते…

” काय डोके- बिके फिरलेय काय..? ” आई आणि सौ. एकसुरात…

आता जर मी दिलेला शब्द पाळला नाही, तर सिंधू पण दिलेला शब्द तिच्या पुढल्या आयुष्यात पाळणार नाही—-

मी ठरविले, तिची मागणी पूरी केली जाईल…

—गुळगुळीत टक्कल केलेल्या सिंधूचा चेहरा गोल असल्याने आता तिचे डोळे खूप मोठे आणि सुंदर दिसत होते…

सोमवारी सकाळी मी तिला शाळेत सोडायला गेलो. मुंडण केलेली सिंधू शाळेत जाताना बघणे एक विलक्षण दृष्य होते . ती मागे वळली आणि टाटा केला.  मीही हसून टाटा केला…

तितक्यात  एक मुलगा कारमधून उतरला आणि त्याने तिला हाक मारली, ” सिंधू माझ्यासाठी थांब.” गंमत म्हणजे त्याचेही टक्कल केलेले होते.

‘ अच्छा, हे असं आहे तर ‘, मी मनात म्हणालो…

त्या कारमधून एक बाई उतरल्या आणि माझ्यापाशी आल्या..!  ” तुमची सिंधू किती गोड मुलगी आहे. तिच्यासोबत जातोय तो माझा मुलगा, हरीष. त्याला ल्यूकेमिया (Blood cancer) झालाय.  येणारा हुंदका त्यानी आवंढा गिळून दाबला आणि पुढे म्हणाल्या, ” गेला पूर्ण महिना तो शाळेत आला नाही. केमोथेरपि चालू होती. त्यामुळे त्याचे सगळे केस गळाले. तो नंतर शाळेत यायला तयारच नव्हता. कारण मुद्दाम नाही, तरी सहाजिकच मुले चिडवणार… सिंधू मागच्याच आठवड्यात त्याला भेटायला आली होती. तिने त्याला तयार केले की चिडवणा-यांचे मी पाहून घेइन.  पण तू शाळा नको बुडवूस —-मी कल्पनाही केली नव्हती की, ती माझ्या मुलासाठी आपले इतके सुंदर केस गमवायला तयार होईल…तुम्ही तिचे आईवडील किती भाग्यवान आहात. अशी निस्वार्थी आणि निरागस मुलगी तुम्हाला लाभली आहे…”

ऐकून मी स्तब्ध झालो. माझ्या डोळ्यातून अश्रू ओघळले. मी मनाशी म्हणत होतो…’ माझी छोटीशी परी मलाच शिकवते आहे– खरं निस्वार्थ प्रेम म्हणजे काय ते…’

—–या पृथ्वीवर ते सुखी नव्हेत, जे स्वत:ची मनमानी करतात.  सुखी तेच की जे दुस-यावर जिवापाड प्रेम करतात आणि त्यांच्यासाठी स्वत:ला बदलायलाही तयार होतात. ….

आपल्यालाही आपलं आयुष्य सिंधूसारखं बदलता यायला पाहिजे. …….जमेल का ? 

लेखक: अज्ञात…

संग्राहक :- मीनल केळकर 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ आठवणी दाटतात— ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

?  मनमंजुषेतून ?

☆ आठवणी दाटतात ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

ऐकताच त्या काव्य ओळी—

आठवणी दाटतात—

माझे लग्न ठरले. त्यावेळी वडीलांनी आम्हाला सर्वांना ‘ या सुखांनो या’ हा सिनेमा दाखवला होता. आता केव्हाही  ‘या सुखानो या’ हे गाणे ऐकले की त्या मधुर आठवणी जाग्या होतात. एका निमित्ताने सीमाताई देवांशी बोलताना आम्ही या सिनेमाबद्दल, आठवणीबद्दल बोललोही आहोत.

माझ्या लग्नातली ही आठवण– लग्न अगदी थाटात लागले. ‘मिष्ठान्नम् इतरे जन:|’ या उक्तीप्रमाणे पंगतीवर पंगती उठत होत्या. लग्न मिरजेतील एका नामांकित कार्यालयात होते. त्याकाळी आजच्यासारखी सगळीकडे कार्यालयांची सोय नव्हती. त्यामुळे मिरजेतील कार्यालयांचा खूप नावलौकिक होता. माझे माहेर एक छोटेसे तालुक्याचे गाव होते. तिथल्या बऱ्याच जणांनी अशा कार्यालयातील लग्न पाहिलेलेच नव्हते‌. त्यामुळे बऱ्याच जणांना रंगीत पाटांची मांडणी, रांगोळ्या, उदबत्या, आग्रहाने वाढलेली पंगत या गोष्टींची खूपच अपूर्वाई वाटली.

ह्या पंगती सुरू असतानाच सर्व लग्न विधी पार पडले. आता दोन्हीकडची मानाची माणसे जेवायला बसणार होती. त्यामुळे या खाशा पंगतीसाठी गरम गरम भजी, पुऱ्या,  मसालेभात वगैरे खास व्यवस्था केली होती. रांगोळ्या, समया, उदबत्या, चांदीचे ताट- वाटी, असा थाट होता. आम्ही दोघे मध्ये आणि आजूबाजूला सर्व नातेवाईक असे जेवायला बसलो. उखाणे घेत आम्ही एकमेकांना घास दिले. हसत खेळत पंगत सुरू झाली

ह्यांच्या मामींनी  ‘ लक्ष्मी तू या नव्या घराची झालीस गं लाडके ‘ हे गाणे खूप छान म्हटले. ऐकून जरा धीर आला‌. तोपर्यंत एक जणीने ‘ गंगा यमुना डोळ्यात उभ्या का ‘ हे गाणे सुरू केले आणि सगळे वातावरणच बदलून गेले.

माझे वडील आधीच खूप संवेदनशील होते. त्यातच आजी गेल्यापासून जास्तच हळवे झालेले होते. या गाण्यामुळे त्यांचे डोळे भरून आले. मी १- २ वर्षांची लहान असताना आई-वडील मला लाडाने बाळे म्हणत असत. ‘कडकडूनी तू मिठी मारता बाळे’  ही ओळ ऐकली आणि माझ्या वडिलांच्या डोळ्यातून धारा सुरू झाल्या. त्यांचे पाहून बहुतेकांचे डोळे पाणावले. एक दोघींनी तर हुंदके दिले. पाहता पाहता पंगतीचा सगळा नूरच पालटला. रंगाचा पुरता बेरंग झाला होता. पक्वान्नांची तर चवच गेली होती.

माझी अवस्था फारच केविलवाणी झाली होती. शेजारी नवरदेव आणि सासरची मंडळी. सर्वांच्या नजरा आमच्यावर खिळलेल्या. त्यामुळे तोंडावर उसने हसू आणत कसेबसे जेवण पार पाडले. दुपारचा हा प्रसंग अनुभवल्याने संध्याकाळी सासरी जायला निघताना रडू आवरण्याचा मी आटोकाट प्रयत्न केला. त्याचे माझ्या मनावर इतके दडपण आले की नंतर दोन-तीन दिवस चक्क दुखणे आले.

काही काही माणसांना काळ-वेळाचे भानच नसते. आपल्या कृतीने इतरांच्या आनंदावर विरजण पडते, याचे त्यांना काहीही देणे घेणे नसते. आमच्या लग्नाची ही पंगत माझ्या मनात कायमची घर करून बसली आहे. लग्नातल्या इतर सर्व आनंददायी गोष्टींवर तिने जरा जास्तच मात केलेली आहे. प्रत्येक गाण्याला गीतकार, संगीतकार, गायक यांच्या दृष्टीने एक विशिष्ट असा इतिहास असतो. या गाण्यामुळे हा असा इतिहास माझ्या मनात कायमचा कोरला गेला आहे. लग्नाला यंदा ४५ वर्षे होतील. पण आजही जेव्हा केव्हा हे गाणे मी ऐकते तेव्हा नकळत डोळ्यांपुढे धुके दाटतेच.

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ मी आहे तुझाच…. ☆ संग्राहक – कालिंदी नवाथे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ मी आहे तुझाच….☆ संग्राहक – कालिंदी नवाथे ☆ 

काही वर्षांनी पुन्हा तो आयुष्यात डोकावला,

माझ्याविना आयुष्य कसं वाटतंय ? कानाशी पुटपुटला… ठीक चाललं आहे…. मी म्हटलं 

 

संसाराच्या गाड्यात सहाजिकच तुझं थोडं विस्मरण झालं..

अस्तित्वावर बोट ठेवायला पुन्हा का येणं केलंस ?

 

रोजच्या धावपळीत स्वतःलाच विसरले होते..

चाकोरीत फिरताना नकळत  तुझे बोट सोडले होते..

 

शाळा कॉलेजमध्ये तू सोबत होतास म्हणून

अशक्य ते शक्य झालं,

मेहनतीने का असेना यशाचं शिखर गाठता आलं…

 

आता संसारात सगळ्यांसाठी तडजोड करावी लागते, कधी मनही मारावं लागतं…

एवढं करूनही हिला काही येत नाही असं त्यांना वाटतं…

 

दोन पुस्तकं शिकून मुलं शहाणी होतात..

पहिला गुरु आई,

हेच नेमकं विसरतात..

 

नवऱ्याच्या पाठीशी बायको

खंबीरपणे उभी रहाते,

पण कौतुक सोडून,

‘वेंधळीच आहेस बघ’ हेच ऐकायची सवय होते…

 

मी मात्र मागे राहिले..

स्वतःसाठीचं जगायचं विसरले…

मित्रा आता घे परत हातात हात, पूर्वीसारखी असू दे तुझी कायम साथ..

 

तो म्हणाला, मिळवण्यासाठी मला कणखर व्हावं लागतं,

नवा दिवस उगवण्यासाठी तर पृथ्वीलाच सूर्याभोवती फिरावं लागतं…

 

हसून विचारलं त्याला आहेस कोण एवढा खास ?

तो ही हसला.. म्हणाला,

ओळखलं नाहीस अजून..?

मी आहे तुझाच….

आत्मविश्वास

संग्राहक :– कालिंदी नवाथे 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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