हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण- 7 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-7 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

गढ़वाल

गढ़वाल भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक प्रमुख क्षेत्र है। यहाँ की मुख्य भाषा गढ़वाली मिश्रित हिन्दी है। गढ़वाल का साहित्य तथा संस्कृति समृद्ध हैं। गढ़वाल मण्डल में:-चमोली, देहरादून, हरिद्वार, पौड़ी गढ़वाल, रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल और उत्तरकाशी जिले आते हैं।

गढ़वाल हिमालय में मानव सभ्यता का विकास भारतीय उप-महाद्वीप क्षेत्रों के समानांतर हुआ है। कत्युरी पहला ऐतिहासिक राजवंश था, जिसने एकीकृत उत्तराखंड पर शासन किया और शिलालेख और मंदिरों के रूप में कुछ महत्वपूर्ण अभिलेख छोड़े थे। 18वीं शताब्दी के चित्रकार, कवि, राजनयिक और इतिहासकार मौला राम ने “गढ़राजवंश का इतिहास” लिखा है। गढ़वाल के शासकों के बारे में यही एकमात्र स्रोत है।

परंपरागत रूप से इस क्षेत्र का केदारखंड के रूप में विभिन्न हिंदू ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। गढ़वाल राज्य क्षत्रियों का राज था। दूसरी शताब्दी ई.पू. के आसपास कुनिंदा राज्य भी विकसित हुआ। बाद में यह क्षेत्र कत्युरी राजाओं के अधीन रहा, जिन्होंने कत्युर घाटी, बैजनाथ, उत्तराखंड से कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र में 6 वीं शताब्दी से 11 वीं शताब्दी तक राज किया, बाद में चंद राजाओं ने कुमाऊं में राज करना शुरू किया, उसी दौरान गढ़वाल कई छोटी रियासतों में बँट गया, ह्वेनसांग, नामक चीनी यात्री, जिसने 629 के आसपास क्षेत्र का दौरा किया था, ने इस क्षेत्र में ब्रह्मपुर नामक राज्य का उल्लेख किया है।

कत्यूरी राजवंश भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक मध्ययुगीन राजवंश था। इस राजवंश के बारे में में माना जाता है कि वे अयोध्या के शालिवाहन शासक के वंशज हैं और इसलिए वे सूर्यवंशी हैं। किन्तु, बहुत से इतिहासकार उन्हें कुणिन्द शासकों से जोड़ते हैं तथा कुछ इतिहासकार उन्हें खस मूल से भी जोड़ते है, जिनका कुमाऊँ क्षेत्र पर 6वीं से 11वीं सदी तक शासन था। कत्यूरी राजाओं ने ‘गिरीराज चक्रचूड़ामणि’ की उपाधि धारण की थी। उनकी पहली राजधानी जोशीमठ में थी, जो जल्द ही कार्तिकेयपुर में स्थानान्तरित कर दी गई थी। कत्यूरी राजा भी शक वंशावली के माने जाते हैं, जैसे राजा शालिवाहन, को भी शक वंश से माना जाता है। किन्तु, बद्री दत्त पाण्डेय जैसे इतिहासकारों का मानना है कि कत्यूरी, अयोध्या से आए थे। उन्होंने अपने राज्य को ‘कूर्मांचल’ कहा, अर्थात ‘कूर्म की भूमि’। कूर्म भगवान विष्णु का दूसरा अवतार था, जिससे इस स्थान को इसका वर्तमान नाम, कुमाऊँ मिला। कत्युरी राजा का कुलदेवता स्वामी कार्तिकेय (मोहन्याल) नेपाल के बोगटान राज्य मे विराजमान है। कत्यूरी वंश के संस्थापक वसंतदेव थे। कत्यूरी वंश की उत्पत्ति के कई अलग-अलग दावे किए जाते रहे हैं। कुछ इतिहासकार उन्हें कुणिंद वंश से संबंधित मानते हैं, जिनके सिक्के आसपास के क्षेत्रों में बड़ी संख्या में पाए गए हैं। राहुल सांकृत्यायन ने उनके पूर्वजों को शक वंश से संबंधित माना है, जो पहली शताब्दी ईसा पूर्व से पहले भारत में थे; सांकृत्यायन ने आगे इन्हीं शकों की पहचान खस वंश से की है। ई. टी. एटकिंसन ने भी अपनी पुस्तक “हिमालयन गजेटियर” के पहले खंड में ख़ुलासा किया है कि कत्यूरी कुमाऊँ के मूल निवासी हो सकते हैं, जिनकी जड़ें गोमती के तट पर अब खंडहर हो चुके नगर करवीरपुर में थीं। यह तथ्य, हालांकि, बद्री दत्त पाण्डेय सहित विभिन्न इतिहासकारों द्वारा नकारा गया है। पाण्डेय ने अपनी पुस्तक “कुमाऊँ का इतिहास” में कत्यूरियों को अयोध्या के शालिवाहन शासक घराने का वंशज माना है।उन्होंने खस वंश को इन हिमालयी क्षेत्रों का मूल निवासी बताया है, जो वेदों की रचना से पहले ही यहां आकर बस गए थे, जिसके बाद कत्यूरियों ने उन्हें पराजित कर क्षेत्र में अपने राज्य की स्थापना की।

यह माना जाता है कत्युरी राज्य के पतन के बाद की अवधि में गढ़वाल क्षेत्र 64 (चौसठ) से अधिक रियासतों में विखंडित हो गया था। मुख्य रियासतों में से एक चंद्रपुरगढ़ थी, जिस पर कनकपाल के वंशजो ने राज्य किया। 888 से पहले पूरा गढ़वाल क्षेत्र स्वतंत्र राजाओं द्वारा शासित छोटे-छोटे गढ़ों में विभाजित था। जिनके शासकों को राणा, राय और ठाकुर कहा जाता था। ऐसा कहा जाता है कि 823 में जब मालवा के राजकुमार कनकपाल श्री बदरीनाथ जी के दर्शन को आये। वहां उनकी भेंट तत्कालीन राजा भानुप्रताप से हुई। राजा भानुप्रताप ने राज कुमार कनक पाल से प्रभावित होकर अपनी एक मात्र पुत्री का विवाह उनके साथ तय कर दिया और अपना सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। धीरे-धीरे कनक पाल एवं उनके वंशजों ने सारे गढ़ों पर विजय प्राप्त कर साम्राज्य का विस्तार किया। इस प्रकार 1803 तक तक समस्त गढ़वाल क्षेत्र इनके वंश के आधीन रहा।

15 वीं शताब्दी के मध्य में चंद्रपुरगढ़ जगतपाल (1455 से 1493 ईसवी), जो कनकपाल के वंशज थे, के शासन के तहत एक शक्तिशाली रियासत के रूप में उभरा। 15 वीं शताब्दी के अंत में अजयपाल ने चंद्रपुरगढ़ पर शासन  किया और कई रियासतों को उनके सरदारों के साथ एकजुट करके एक ही राज्य में समायोजित कर लिया और इस राज्य को गढ़वाल के नाम से जाना जाने लगा। इसके बाद उन्होंने 1506 से पहले अपनी राजधानी चांदपुर से देवलगढ़ और बाद में 1506 से 1519 ईसवी के दौरान श्रीनगर स्थानांतरित कर दी थी।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ #79 – 1 हल षष्ठी की यादें: मातृशक्ति को नमन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के जीवन के श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से जुड़े अविस्मरणीय एवं प्रेरक संस्मरण/ प्रसंग     “ जीवन यात्रा #79-1 हल षष्ठी की यादें: मातृशक्ति को नमन ”)

☆ जीवन यात्रा #79 – 1 –हल षष्ठी की यादें: मातृशक्ति को नमन ☆ 

सम्पूर्ण उत्तर भारत में मनाये जाने वाले इस लोक त्योहार की छटा बुन्देलखण्ड में निराली है। रक्षा बन्धन के बाद भादौ कृष्ण पक्ष की छठवीं तिथि को मनाये जाने वाले इस लोक उत्सव पर मातायें अपने-अपने पुत्रों की दीर्घायु की कामना के लिए कठोर वृत रखती हैं। वे प्रात: काल स्नानादि से निवृत्त हो पूजा स्थल को भैंस के गोबर से लीपकर कांस,झरबेरी व पलाश (छेवला, टेसू) की पत्तोंयुक्त टहनियों (हलषष्ट) को गोबर की गोल गेन्द में गाडकर पूजन करती हैं तथा बांस की छोटी -छोटी छह टोकरियों में गेहूँ के आटे की अठवाइ,भुन्जे हुये सात धान, ज्वार की लाई व सूखे महुआ के अलावा पतियों व बच्चों के हाथ बन्धी राखी हलषष्ट को  अर्पित करती हैं।ये दोने बाद   में पुत्रों को खाने के लिए दे दिये जाते हैं। इस दिन मातायें उपवास रखती हैं और फलाहार में जंगली फल,महुआ, पसई (एक प्रकार की घास) के चावल व भैंस का दूध-दही ग्रहण करती हैं।  हल चलाकर उपजे अनाज का प्रयोग  पूर्णत: वर्जित और यदि पड़वा ब्यायी भैंस का दूध मिल जाय तो सोने में सुहागा ।  देखिए सामाजिक समरसता का अनुपम उदाहरण बांस की टोकरी बनाने वाला बसोंर (दलित) ,भैस का दूध लाने वाला अहीर,जंगली फल व हलषष्टी की पूजन सामग्री लाने वाला आदिवासी गौड़ और पूजन अर्चन के लिए पंडितजी तो है ही यानी गांव के हर हाथ को काम।पुराने जमाने का स्किल इन्डिया और मेक इन इन्डिया।

यह दिन कृष्ण के बड़े भाई बलदेव का जन्मदिन भी है। बलदेव हल के आविष्कर्ता हैं। जब समाज में गोपालन प्रथम पंसद है तब भैस पालन के प्रणेता कृषि विज्ञानीै। बलदेवजी के मन्दिर कम हैं पर एक मन्दिर मेरे पिता की जन्मभूमि पन्ना में अवस्थित है।

इस त्योहार पर मैं अपने परिवार की मातृशक्ति को नमन करता हूँ। मेरे पिताजी (स्व. श्री रेवा शंकर) व उनके तीन भाइयों, मेरे काका (स्व. श्री प्रभा, श्री कृपा व ज्ञान शंकर) तथा तीन बहनों, मेरी फोई  (आ. सरला,उर्मिला व निर्मला) की जननी मेरी दादी स्व.रामकुंअर (पत्नी पं. गोविन्द शंकर) जिन्होंने मेरे पिताजी व काका, फोई (बुआ) का लालन पालन करने में अनेक कष्ट सहे व अपनी दो अन्य जेठानी स्व. रुक्मिणी (पत्नी पं. प्रेम शंकर) व स्व. सीता (पत्नी पं. हरी शंकर) के साथ  हम बालवृन्दों को ना जाने कितनी जीवन रक्षक घुट्टी पिला कर स्वस्थ रख हलषष्टी की सदियों पुरानी परंपरा को मेरी माँ (स्व.कमला)  वा काकियों (आ. निर्मला, कुन्ती व रश्मि) को सौंपा।रूढ़िवादी जड़ परम्परा की चिर विद्रोही मेरी  माँ ने मुझे,  मेरी दो बहनों ( रीता व नीता) तथा छोटे भाई अतुल के लालन-पालन में ना जाने कितनी रातें बिना सोये गुजारी, जीवन पर्यन्त हलषष्टी पर पसई के बेस्वाद चावल खाये और जब तक जीवित रहीं हम भाई-बहनो की सुख समृद्धि की कामना की। हम सभी स्वस्थ,  समृद्ध व प्रसन्न हैं । मैं चिरॠिणी हूँ हमारी इन सभी माताओं (दादी, माँ, काकी,फोई) का।

इस अवसर पर यदि मैं अपनी पत्नी अलका व भैयाहू नीता का उल्लेख ना करूँ तो यह अन्याय होगा।  दोनों मातृशक्ति हैं, मेरे विस्तृत परिवार की अगली पीढ़ी की, जननी हैं, मेरे पुत्र अग्रेष, भतीजे अनिमेष व पुत्री निधि की, जो हमारे परिवार की सनातन परम्परा के वाहक हैं। पितृॠिण से मुक्ती प्राप्ति  की  मेरी अभिलाषा के दूत हैं।  इन मातृशक्तियों का भी आभार।

इसी वर्ष हमारे परिवार में एक और मातृ शक्ति का उदय हुआ I हमारी पुत्रवधू श्रुति ने हमें दादा बनने का सुख दिया I हमारी पौत्री मीरा की जननी श्रुति ने हमारे बाबूजी रेवाशंकर डनायक और माँ कमला की वंश परम्परा में एक परी  जोड़ी है , आज हरछट पर श्रुति का एक माता के रूप में भी अभिनन्दन I

इस पूरी कडी में एक और नाम है, मेरे पिताजी की ज्येष्ठ चचेरी बहन का।  उन्होंने ना केवल अपने सभी भाइयों को वरन अपनें भतीजों हम बालकों को भी मातृवृत का स्नेह दिया। वे और कोई नहीं हमारी आ.स्व. गायत्री फोई है। उन्हें भी मेरा नमन।

लिखते-लिखते, मैं नम आखों से,  मातृशक्ति की उपस्थिति  और आशीर्वाद का अनुभव कर रहा हूं।  अधिक वर्णन अब इन अविरल अश्रुधाराके मध्य अतिदुष्कर है। 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 48 ☆ संवरते रिश्ते ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘संवरते रिश्ते । ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 48 ☆

☆ संवरते रिश्ते

हर पल जीवन में मधुरस घोल दो,

जीवन तो क्या इससे रिश्तें भी सँवर जाते है ||

*

गुस्से का अंजाम मालूम है सबको,

गुस्से की तपिश से पल भर में रिश्तें बिखर जाते हैं ||

*

क्यों ना पी ले हम इन नफरत के कड़वे घुंटों को,

बाकी जो बच जाएगा वह अमृत ही रह जाएगा ||

*

पल भर को रुक जाओ रिश्ता टूटने से बच जायेगा,

विष भरा शब्द-बाण जुबाँ पर आने से पहले बुझ जाएगा ||

*

विषैले शब्द बाण में थोड़ी मिश्री घोल लो, 

चन्द शब्दों की मधुरता से रिश्ता बिखरने से बच जायेगा ||

*

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (61-65) ॥ ☆

 

‘‘ बेटे उठो ” -अमृतसम मधुर शब्द सुन ज्यों उठे, देखते क्या है राजा –

वहाँ न कोई सिंह था किन्तु सम्मुख थी वत्सला प्रेमल धेनु माता ॥ 61॥

 

चकित नृपति से कहा धेनु ने पुत्र मैने ही ली थी परीक्षा तुम्हारी

माया रची थी मुझे ऋषि हप्त सेन यमराज भय है क्या पुनि वन्यचारी ॥ 62॥

 

गुरू भक्ति औं त्याग मम हेतु लख पुत्र मैं हूॅ प्रसन्नाति वरदान मॉगो –

समझो न मुझको बस दुग्ध दायिनि पर कामना पूर्ति हित पुत्र जानो ॥ 63॥

 

तब वीर मानी विनयी नृपति ने, करबद्ध कर प्रार्थना धेनु आगे

स्ववंश की कीर्तिलता बढ़ाने सुदक्षिणा में सुपुत्र माँगे ॥ 64॥

 

सुन प्रार्थना पुत्र पाने नृपति की, उस धेनु ने कहा उससे – ‘‘तथा हो ”

‘‘ दोहन मेरा दुग्ध कर पत्रपुर में इस कामना पूर्ति हित पुत्र ! पी लो ” ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संस्कृतीची लेणी ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक

श्रीमती अनुराधा फाटक

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संस्कृतीची लेणी ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆ 

   

आज तू नाचतेस

रिमिक्सच्या तालावर

माझ्या कानी मात्र

नाद पैंजणाचा !

 

कपाळावर टेकलीस

कागदी चंद्रकोर

भाळी तुझ्या शोभे

रेखीव रक्तचंद्र !

 

घड्याळ वा ब्रेसलेटने

खुलत नाहीत हात

चुड्याचा किणकिणाट

जीवनाचा रंग हिरवा !

 

एकविसाव्या शतकातले

स्वीकार तू बिनधास्त

संस्कृतीच्या लेण्यानांही

जपून ठेव उरात !

 

ही लेणी म्हणजे

आहेत अमर ज्योती

युगायुगांची नाती

लपली त्यामधी !

 

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 100 ☆ गझल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 100 ?

☆ गझल ☆

 

आज सा-या तारकांनो हे जरासे  नोंदवा

रात्र होता काजळी मिरवून जातो काजवा

 

मी कशाला त्या सुखाची आर्जवे केली पुन्हा

दुःख माझे राजवर्खी ना कशाची वानवा

 

या जगाचे मुखवटे फाडून होते पाहिले

मैफिलीचे रंग खोटे, बाटलेल्या वाहवा

 

चित्रगुप्ता तू म्हणाला, नांदली आहेस ना

नांदताना भोगलेले आज येथे गोंदवा

 

जन्म सारा संभ्रमातच काढला आहे जरी

संत सज्जन कोण ते आता मलाही दाखवा

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पक्षी ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पक्षी ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

पंख वेगळे रंग वेगळे

या पक्ष्यांचे ढंग वेगळे

झेप चिऊची चिमणी चिमणी

गरुडाचे आभाळ वेगळे !

 

     पाझरणाऱ्या मेघासाठी

     सदैव चातक आसुसलेला

     परी प्राशण्या टिपुर चांदणे

     चकोर कोणी तहानलेला !

 

इंद्रधनूचे रंग पाखरां

पण एखादा कोकिळ शापित

दिव्य सुरांची करी साधना

दुःख आपुले काळे झाकित !

 

     हिरव्या रानी धो धो धारा

     थुइथुइ चाले मयूरनर्तन

     कुणा दिसावा रम्य पिसारा

     विरुप पदांचे कुणास दर्शन !

 

कुणी अंगणी टिपती दाणे

कुणास लाभे मोतीचारा

कुणा नभांगण कुणा पिंजरा

दैवगतीचा खेळच न्यारा !

 

     ज्या पक्ष्यांना नसती घरटी

     त्यांचे जगणे दुसरे मरणे

     कवेत घेई गगन तयांना

     रुजवी कंठी अभाळगाणे !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कृष्णा-(दहीकाल्याच्या निमित्ताने….) ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

☆ विविधा ☆ ☆ कृष्णा-(दहीकाल्याच्या निमित्ताने…) ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

कृष्णा, बंदिवासातून स्वातंत्र्याकडे तुझी वाटचाल काल रात्रीपासून सुरू झाली! कंसाच्या बंदिवासात देवकीच्या पोटी जन्माला येताच, दुसऱ्या क्षणी तुला तिथून स्थलांतर करावे लागले! विष्णू अवतारातील एक म्हणून पृथ्वीवर जन्माला आल्या बरोबरच तुला इथले मानवी जीवनाचे वनवास भोगावे लागले आणि गोकुळात जाऊन तू साधा गोपाल म्हणून जगलास ! इतर गोकुळवासी मित्रांबरोबर तुझे खेळ रंगले पण ते करता करताच तू किती राक्षसांचे पारिपत्य केलेस आणि दुष्टांच्या निर्दालनासाठी असलेला तुझा मानवी अवतार कार्यरत झाला ! गरीब बिचाऱ्या गोपांना घरचे दूध,दही, लोणी मिळत नाही म्हणून गोपींची मडकी फोडली. सर्वांसोबत त्यांच्या दही काल्यात रंंगून गेलास आणि समाजवादाचा एक धडा शिकवलास! जे आहे ते सर्वांनी वाटून घ्यायचं !थोडा मोठा झाल्यावर  सांदिपनी ऋषींच्या आश्रमात शिकण्यासाठी गेलास! तेथे गरीब सुदाम्याशी मैत्रीचे बंध ठेवून पुढील काळात त्याचा उद्धार केलास! किशोरावस्था संपून मोठा झालास आणि कंसाचा वध करून मथुऱेचे राज्य मिळवलेस !

 तारुण्यसुलभ भावनेने स्वयंवरासाठी गेलास ,तुला द्रौपदीची आस होती पण पुढे काय घडणार याचे दृश्यरूप बहुदा तुला दिसले असावे!त्यामुळे पांडवांच्या पदरी द्रौपदी देऊन तू तिचा सखा बनलास !दुर्गा भागवत म्हणतात की मित्र या नात्याला ‘सखा ‘हे रूप देऊन स्त्री-पुरुषातील  हे नाते तू अधिक उदात्त केलेस ! आयुष्यभर पांडवांची साथ देत कौरव-पांडव युद्धात तू अर्जुनाचा सारथी बनून कुरुक्षेत्रावर उतरलास योद्धा म्हणून नाही तर   सारथी बनून !एक सहज विचार मनात आला, द्रौपदीने कर्णाला ‘ सूतपुत्र ‘म्हणून नाकारले!सारथ्य करणारा माणूस समाजात खालच्या स्तरावर  असतो हे तिने दाखवून दिले पण शेवटी युद्धात तू सारथी बनून जी  पांडवांना मदत केलीस त्यातून तू सारथी हा सुद्धा किती महत्वाचा असतो हे  द्रौपदीला दाखवून  दिलंस का? तुझं सगळं अस्तित्वच  देवरूप  आणि  मानव  रूप यांच्या सीमेवर होतं!  जन्म घेतलास त्यात तू त्याच रंगाचा रंगून गेलास! मगध देशाच्या लढायांना कंटाळून तू गोकुळ मथुरा सोडून  द्वारकेला पळून गेलास आणि स्वतंत्र राज्य स्थापन केलंस म्हणून तुला रणछोडदास नाव मिळालं! वेगवेगळ्या राज्यातील राजकन्याशी विवाह करून

तू साऱ्या भरत खंडाला एकत्र आणण्याचा प्रयत्न केलास! आणि अवतार कार्य समाप्त करताना एका भिल्लाच्या हातून तुझ्या तळपायाला बाण लागून तुझे जीवन कार्य संपवलेस! कृष्णा, तुझे नाव घेतले की आपोआपच गुणा दोषातून मुक्ती मिळते असं वाटतं !कारण आपण काहीही घडलं तरी ‘कृष्णार्पण’ असा शब्द वापरून ते संपवतो .सगळं हलाहल जणू संपून जातं तुझ्या

स्मरणात! तुझा जन्म काळ मध्यरात्री येतो ,तेव्हाही आम्ही वाजत गाजत तुझा जन्मोत्सव साजरा करतो कारण अंधाराची रात्र संपून तुझ्या जन्माने उत्साहाचा आणि कर्तुत्वाचा जन्म होणार असतो .आजचा गोपाळ काला म्हणजे उत्साही कामाची सुरुवात !पावसाच्या सरी बरोबरच  पुढील वर्ष आनंदात जाऊदे हीच इच्छा! आधुनिकतेच्या नावाखाली कृष्ण – ना किंवा परमेश्वराचे अस्तित्व न माणणारे आता ‘करोना’ पुढे शरणागत झाले आहे आणि आणि त्यावरून विज्ञानाने कितीही मात केली तरी  एक हातचा तुझ्याकडे , परमात्म्याकडे आहे हे मात्र मान्य केले पाहिजे !

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ खेळी…भाग 2 ☆ सौ. ज्योत्स्ना तानवडे

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? जीवनरंग ?

☆ खेळी…भाग 2 ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

(मधुराकडे पाहताना रागिणीला एकदम शेवंताची आठवण झाली.)

रागिणीच्या घरासमोरच्या प्लॉटमध्ये वाॅचमन म्हणून तिचा नवरा आणि ती राहत होते. त्यांना तीन लहान मुले होती. शेवंता काही घरी घरकाम करी. नवरा रोज दारू पिऊन यायचा. त्यावरून दोघांचे भांडण व्हायचे.तो सतत तिला ‘घरातून चालती हो’ म्हणायचा. पण तिने कधी घर सोडले नाही. दारू उतरली की नवरा एकदम सरळसोट व्हायचा. एक शब्दही बोलायचा नाही.हे नेहमीचेच होते.

पण काल सकाळी दोघांचे भांडण आणि मुलांचे रडणे खूपच जोरजोरात ऐकू येऊ लागले. दंगा ऐकून रागिणीने पाहिले तर, शेवंता खरंच घर सोडून चालली होती. मागे धावणाऱ्या मुलांना धपाटे घालत दूर ढकलत होती.धाकट्या मुलाने तिच्या पायाला मिठी घातली. नवरा म्हणत होता,” जा,जा. चालती हो.”

शेवंता ओरडली,” चाललीयाच म्या. रोज मरमर राबायचं, वर आनि तुजा मार खायाचा.कंच्या द्येवानं सांगितलया.त्यापरास जातीया म्या.”

“अग, खुशाल जाना. कोन आडवतंय तुला?  तुजी आनि मुलांची ब्याद गेली ,का म्या माज्या मनापरमानं जगाय मोकळा हुईन.”

 शेवंता उसळलीच,” अरं वारं, र वा.बरा मोकळा व्हशील तू.म्या तशी सोडणार न्हाय तुला.  म्या कशाला मुलांना घेऊन जातीया? मुलं तुजी बी हाईत.ती तुजी तुला लखलाभ व्हवू देत. त्यांचं काय करायचं ते तुजं तू बग. म्या निघाले.”

 नवरा एकदम सटपटलाच.” काय म्हणालीस तू ?  ए माजी बाय, आसं काय करू नगस बग.आगं मुलांचं म्या काय करू?तू त्यांना गपगुमान घेऊन जा बग.”

 कमरेवर हात ठेवत शेवंता ठसक्यात म्हणाली,” आजाबात नेनार नाय. नीट आईक म्या काय सांगतीया ते.म्या नेनार नाय. या घरात लगीन करून येताना म्या येकलीच आली व्हती. आता जातानाबी म्या येकलीच जानार हाय. मुलांचं भ्या मला दावू नगस. म्या येकलीच जानार म्हनजे येकलीच जाणार.”

 आता मात्र नवऱ्याची दारू खाडकन उतरली. पुढे धावत तो शेवंताला अडवू लागला. हात जोडून गयावया करू लागला. मुलं पण तिला बिलगली. तो पुन्हा पुन्हा सांगत होता,” अगं,पुन्ना म्या दारुला हात लावनार न्हाई. खरं सांगतो.तुला तरासबी देणार न्हाई. पन तू घर मोडू नगस. चल घरात चल.” नवऱ्याच्या विनवणीनं तिनं मुलांना जवळ घेतलं आणि ती घरात परत गेली .

क्रमशः….

© सौ. ज्योत्स्ना तानवडे

सातारा 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ मामाच्या गावाला जाऊया….भाग 3 ☆ श्रीमती सुधा भोगले

श्रीमती सुधा भोगले

? मनमंजुषेतून ?

☆ मामाच्या गावाला जाऊया….भाग 3 ☆ श्रीमती सुधा भोगले ☆ 

(१९५६-१९७० च्या या आठवणी)

घरात परतत असू………. च्या पुढे?

आजीने केलेले ताजे लोणचे आमटी भात तोंडल्याची भाजी खाताना जेवणाची मजा येत असे. तसे पूर्वी भाकरी पोळी कमीच दोन्ही वेळा भातच असे. भाकरी संध्याकाळी तांदळाच्या गरम गरम आजी पंगत बसली की करत असे त्या भाकरी सोबत नारळाची लसुण व लाल तिखट, किंचीत आंबट घातलेली चिंच मीठ साखर आणि पाट्यावर वाटलेली चटणी लज्जतदार लागे.

असे करत रात्रीची जेवणे झाल्यावर, अंथरुणं पडतं फार उन्हाळा व उकाडा वाढला की मागच्या दारी घातलेल्या तात्पुरत्या मांडवात बिछाने घालत वार्यावर झोप लगेच येई काही वेळा गप्पा रंगत. मोठा मामा भुताच्या गोष्टी सांगत असे. त्यामुळे सुरुवातीला उत्कंठा वाटे पण नंतर बोबडी वळे. गिर्हा, जखीण, मुंजा, अशी काहीतरी नाव असत रात्रीच्या वेळी ते अधिकच भयप्रद होई. मग अंगाचे मुटकुळे करून डोक्यावर पांघरूण घेऊन डोळे गच्च मिटले जात. सकाळ कधी होई ते कळत नसे.

सकाळी उठून प्रात:र्विधी आवरण्याची घाई असे. तोंड धुण्यापासून सर्व मागच्या हौदावर जाऊनच करावे लागे. हल्ली सारखी घरातल्या घरात बेसिन नळाला पाणी अशी सोय नव्हती. शौचालाही खूप लांब घरापासून पाचशे फूट अंतरावर जावे लागे. पत्र्याची चौकोनी बांधलेली बंदिस्त खोली मागे चर पाडलेला असे. लहान मुलांसाठी लांब लाकडे टाकून केलेली तळात चर असलेली व्यवस्था म्हणजे त्याला ठाकुली म्हणत.

हौदात पाणी येण्याकरता विहिरीवर रहाट असत. मोठे लाकडी चक्र त्यावर सुंभा च्या दोरीने आडवे बांधलेले पत्र्याचे डबे किंवा मातीचे पोहरे म्हणजे मडके असे. त्या चक्राचा लांब दांडा विहिरीच्या बाहेरच्या बाजूला असे त्याला ही लाकडी चक्र जोडलेले असे आणि वरून खाली उभा खांब जमिनीत उभा केलेला असे. त्या खांबाला दुसरा एक आडवा बांबू जोडून ते जोखड बैलाच्या पाठीला बांधत बैलाच्या डोळ्यावर झापड बांधलेले असे मग त्याला जुंपले की तो गोल गोल फिरत राही.म्हणजे चाकांना गती मिळून रहाट फिरू लागे तसतशी एक एक पोहरा विहिरीत सर सोडलेल्या माळे वरून पाण्यात बुडे व भरून निघून रहाटावरून उलट होत वरच्या बाजूला जोडलेल्या पत्र्याच्या पन्हाळात उलटा होऊन पाणी पडे ते पुढे सिमेंट बांधलेल्या दांड्या तून थेट वेगाने हौदाकडे वाहू लागे मग टाकी भरून घेतली जाई

त्याच पाण्याने खाली गुरांना पाणी प्यायची टाकी असे तीही भरे मग या दोन्ही टाक्यांची तोंडे गच्च कपड्याच्या बुचाने रोखली जात आणि पाणी नारळ पोफळीची जी बाजू त्यादिवशी पाणी सोडायची असेल तिथे सोडले जाई. याला शिपणं करणे असे म्हणत. हे रोजचं काम आणि प्रत्येक घरातून सकाळच्या वेळी चालू असे.रहाटाचा कुईsss कुईsss आवाज येणे ठरलेलेच असे.

वेगवेगळ्या ऋतूत तेथे वेगवेगळी मजा असे उन्हाळ्याच्या सुट्टीत आंबे फणस जाम कोकम, पोह्याचे पापड याची मज्जा असे कोकम फळे आणून फोडून टाकून  बियांचा गर एका पातेल्यात जमा होई. वरची टरफले साखर भरून बरणीत ठेवली जात मिठ ही घातले जाई मग त्याला भरपूर रस सूटे. रस ओतून घेऊन त्यात प्रमाणात पाणी साखर मीठ घातले, थोडी जिरेपूड की झालं कोकम सरबत तयार हे ताज्या फळाचे सरबत अप्रतिम चवीचे लागे उन्हाळ्यात तखलीकीने कोरडा पडलेला घसा शांत होई

जाम हे किंचित पांढरे हिरवी झाक असलेले भरपूर पाण्याचा अंश असलेले फळ प्यास लागलेली शमन करत असे. एखादा दिवस पापड करण्याचे ठरे. लाकडी उखळीत पोह्याचे पीठ तिखट मीठ हिंग पापड खार पाणी हे प्रमाणात घालून मुसळाने कुटले की पापडाचा गोळा तयार होई, काही वेळेला कांडपिणी असत त्या कुटून देत मग मावशी, आई, आजी व मी मोठे मोठे पोळपाट घेऊन सरासरा पापड लाटत असू. मावशीचा लाटण्यावर खूपच हात चाले मग कोण जास्त पापड लाटतो अशी शर्यत ही लागे. असे पापड उन्हात घालून वाळल्यावर खाण्यातली मजा काही औरच असे. ताकातले हि पापड आजी चविष्ट करीत असे. तसे पापड आता मूळ चवीचे खायला मिळत नाहीत. हल्ली त्याला (authentic) म्हणतात. 

—–क्रमश: 

© श्रीमती सुधा भोगले 

९७६४५३९३४९ / ९३०९८९८९१९

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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