(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित ‘दूरी से करो प्रणाम ….’। )
( आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार जी की एक चर्चित पुस्तक “मोहल्ला 90 का” के कुछ अंश जो निश्चित ही आपको कुछ समय के लिए ही सही अवश्य ले जायेंगे 90 के दशक में। )
☆ पुस्तक समीक्षा ☆ आत्मकथ्य – मोहल्ला 90 का ☆ श्री आशीष कुमार ☆
इस संस्मरण के मुख्य शीर्षक हैं – अच्छे दिन, दुनिया बदल रही है, त्यौहारों की खुशबू, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँव की शादी, खट्टे मीठे दिन स्कूल के, खुशबू लड़कपन के प्यार की, नाम की सवारी, 2020 का जमाना, मुकाबला वापसी के लिए।
यादों के झरोखे से ” मोहल्ला 90 का” के कुछ अंश –
बचपन संभवतय हर व्यक्ति की सबसे पुरानी यादों के साथ जुड़ा हुआ होता है। उसी उम्र में बच्चा पढ़ना शुरु करता है। माता – पिता के बार बार कहने के बावजूद भी समय बे समय वो अपने दोस्तों के साथ खेलने चला जाता है। उस वक्त गर्मी, सर्दी या बरसात उसे रोक नहीं पाती।बचपन की ज्यादातर यादें उस वक्त के दोस्तों की और परिवार या आस-पड़ोस, अध्यपक आदि की बातों से भरी होती हैं जो चाह कर भी भुलाई नहीं जा सकती है उस समय घर में डाँट पड़े या मार दोस्तों के साथ खेलना कूदना ही सबसे जरूरी लगता है। इस समय की यादे काफी भावुक और गहरी होती हैं।उम्र के बढ़ने के साथ साथ सोच भी बदलनी शुरू हो जाती हैआप सबको याद है की हमारे खेलों में भी बदलाव आते रहते हैं। पहले छुपन – छुपाई होती थी, फिर लूड़ो-साँप सीढी का जमाना आता है, उसके बाद व्यापार आदि। शाम हुई नहीं कि भागे मैदान की तरफ, परीक्षा के दिनों में भी हम घंटे दो खेल ही लेते थे पर अब?सड़क के नुक्कड़ पर बैठकर गप्पें मारना तो ऐसा था की कब दिन से रात हुई, यह आभास भी नहीं होता था।क्या आप लोग भूल गए की खेलो के पीरियड भी होते थे और अगर नहीं है हफ्ते-दो हफ्ते में हर विषय के सर या मैडम से उनका एक पीरियड खेल का करवाने की ज़िद करके हम उसे खेल का करवा लेते थे। आज कल तो बड़ो को छोड़ो 3-4 साल के बच्चे भी मोबाइल में ही घुसे रहते है।
क्या आप लोग मिस नहीं करते वो बारिश की बूंदें, वो ठंडी पछवाड़े, वो सपनो से भरी कागज़ की नाव, वो मिटटी के खेल, वो डबल बैड पर एक ओर लेट कर रोल होते होते डबल बैड के दूसरे कोने तक जाना।वो बिस्कुट के ऊपर लगे काजू, बादाम निकाल कर खाना, स्कूटर पर आगे खड़े होकर या पीछे उलटे बैठ कर जाना।परीक्षा से पहले पापा का कहना, पढ़ाई मत कर लेना टी.वी. हीदेखते रहना, याद आया सामने वाली गली में और हमारी इसी छत पर घंटो क्रिकेट खेलना, लुड्डो, सांप- सीडी, कैरम, लंगड़ी टाँग, खो खो और पता नहीं क्या क्या?
समय लगातार बदलता रहता है वक्त की रफ्तार में दौड़ते दौड़ते कब पैसे की ज़रूरत महसूस होने लगी इसकाअंदाजा आपको भी महँगी महँगी कारो और लोगो की लाइफस्टाइल को देखकर ही लगा होगा ना? आप में से बहुत सारे लोगो को नौकरी के लिए घर छोड़कर दूसरे शहरो में जाना पड़ा, शहर अनजान सा था। एक छोटा सा कमरा जो सामान से ही भरा रहता था। शुरू-शुरू में होटल का खाना अच्छा लगता होगा लेकिन आज बताओ घर के खाने का ही मन करता है ना।जिन कामो को जब मम्मी या पापा हमारे लिए कर देते थे तो वो बड़े आसान से लगते थे लेकिन अब जब खुद करने पड़ते है तो वो बड़े मुश्किल से लगते हैना? मेहनत से काम करने के बावजूद ऑफिस में बॉस की डांटमन को कचोटती है ना? हमने घर में कभी किसी की सुनी नही थी लेकिन पैसों की चाह ने यहाँ सब कुछ चुपचाप सहन करना सीखा दिया। आज लगता है ना की घर के जिस चैन को हम दुखो का दौर समझते थे असल मे वो ही हमारा गोल्डन टाइम था । जिसको शायद पैसा कभी भर नही सकता।
मौसम भी वही है हम भी वही हैं मगर पहले जैसी, अब बात नहीं है वही बारिश है वही बारिश की बूंदे हैं मगर अब उनमे हमारे जज्बात नहीं है, गलियां भी वही है यार भी वही हैं मगर पहले जैसे,अब मिलते नहीं हैं क्योकि आज वो भी बिजी है और हम भी।
चलो आप लोगो को स्कूल के उस दौर में ले चलता हूँ और अध्यापको द्वारा दिए गए कुछ ज्ञान याद करवाता हूँ:
मुझे क्लास में पिन ड्रॉप साइलेन्स चाहिये(मुझे आज तक वो पिन नहीं मिली)
बहुत हँसी आ रही है हमें भी तो बताओ थोड़ा हम भी हँस लें (अरे हाँ पहले सच्ची हँसी भी तो हुआ करती थी)
क्या बेटा, बाहर देखने में ज़्यादा आनन्द आ रहा हो तो बाहर ही निकल जाओ (अब तो अंदर का एकांत पसंद है बस)
आज आप लोगों का सरप्राइज़ टेस्ट है (काश आज फिर कोई सेSurprise टेस्ट ले ले)
ज़रा सा बाहर जाते ही क्लास को सब्जी मंडी बना देते हो, सब खड़े हो जाओ (टीचर द्वारा कुर्सी पर हाथ ऊपर करके खड़े होने की सज़ा याद है ना?)
किताब कहाँ है ? घर पर दूध दे रही है क्या? (अब तो किताब भी मोबाइल में घुस गयी)
माँ बाप का खूब नाम रोशन कर रहे हो बेटा, क्यों उनकी मेहनत की गाढ़ी कमाई बर्बाद कर रहे हो ? (नाम ही माँ-बाप का दिया हुआ है)
खाना खाना भूले थे ? होमवर्क कैसे भूल गये ? (अब तो होम में वर्क ही होता है बस शरारत कहाँ?)
हाँ तुमसे ही पूछ रही हूँ खड़े हो जाओ, इधर उधर क्या देख रहे हो, Answer दो (मेरे पास आज भी Answer नहीं है)
ज़ोर से पढ़ो यहाँ तक आवाज़ आनी चाहिये, मस्ती में तो बहुत गला फाड़ते हो, पढ़ने में क्या हो जाता है ? (पूर्ण मौन)
कल से तुम दोनों को अलग अलग बैठना है (दोस्त अब कुछ ज्यादा ही अलग अलग हो गए है)
अगर वह कुँए में कूदेगा तो क्या तुम भी कूद जाओगे ?( मन करता है कि अब तो कुँए में ही कूद जाये)
इतने सालों में कभी इतनी ख़राब क्लास और इतने ढीठ बच्चे नहीं देखे (ढीठ तो अब हो गए है)
स्कूल में हम सबकी टीचरों द्वारा सबके सामने भी पिटाई होती थी पर तब भी हमारा Ego हमें कभी परेशान नही करता था हम बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि Ego होता क्या है। क्योकि पिटाई के एक घंटे बाद ही हम फिर से हंसते हुए कोई और शैतानी करने लगते।
पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिलें में हम शहर-शहर में मरे फिरते है पर सच बताओ हमारे बचपन की ये गालियाँ, वो स्कूल का जीवन, तीज- त्यौहारो की मस्ती हमारा आज भी पीछा करते हैं ना और उन्हें ही याद करके अब हम सब शायद सबसे ज्यादा खुश होते है।याद है वो घर में मूंगफली भी जितने भाई-बहन है उतने हिस्सों में बाटी जाती थी और हमेशा लगता था की मेरे हिस्से में ही एक-दो मूंगफली कम है।ये नया जमाना हमे कहाँ ले आया?, नल की टोटी का काई वाला पानी पी के जो प्यास बूझती थी उसका कोई जवाब नहीं,अब तो RO का शुद्ध पानी पीकर भी बरसो से प्यासे ही है।आप सब कभी एक मिनट भी एक दूसरे के बगैर नहीं रह पाते थे कभी स्कूल में साथ तो कभी स्कूल के बाद शाम ढलने तक रोज मिलते थे फिर भी रोज नयी और ज्यादा खुशी। और आप लोग आज काफी समय बाद मिल रहे है कुछ को तो शायद बीस सालो से भी ज्यादा हो गए, क्या मुझे बातयेंगे जब इतने समय बाद आप लोग आज यहाँ पर मिले कितनो ने एक दूसरे से कितनी देर बात की? एक मिनट, दो मिनट या ज्यादा से ज्यादा पांच मिनट और फिर लग गए सब अपने अपने मोबाइलो में।नाम मोबाइल है पर इस 6-7 इंच की वस्तु ने सबकी जिंदगी स्थायी बिना किसी गति के बना दी है।
याद करिये वो दिन जब हमारे पास न तो Mobile, DVD’s, PlayStation, Xboxes, PC, Internet, चैटिंग कुछ नहीं था फिर भी हम हर पल को जीते थे क्योकि तब हम दोस्तों के साथ जीते थे।पोशम्पा भाई पोशम्पा डाकूो ने क्या किया सौ रूपये की घड़ी चुराई, आज फिर कोई सौ रूपये की घडी चुरा ले जिससे समय हमेशा के लिए रुक जाये कम से कम और आगे ना बढ़े।
चलो क्यों ना फिर से बचपन में जाये, चलो क्यों ना अन्य उत्सवों की तरह बचपन भी मनाये क्यों ना हफ्ते में या महीने में या कम से कम साल में एक बार सब कुछ भूल जाये।चलो फिर से तबियत ना बिगड़ने के डर से आगे बढ़े और बारिश की बूंदो के साथ मज़े करे, कागज़ की नाव फिर से चलाये, फिर से मिट्टी में खेले, छत की ज़मीन पर एक रात फिर सो ले।आज मोबाइल पर फिर से लूडो खेलते हो ना चलो एक असली लूडो लाये और फिर से टोलिया बनाये।चलो फिर एक बार एक कक्षा की रौनक बढ़ाये, फिर से कुछ कागज के जहाज उड़ाये।अपनी अपनी कारों को पार्क ही रहने दो चलो फिर से साइकिलो से दौड़ लगायें।
एक दिन के लिए फिर से Health Un conscious हो जाओ और मीठी चाय में रस या पापे डूबा कर खाओ।क्यों ना बाजार की आइसक्रीम छोड़ कर आज फिर से घर पर आइसक्रीम जमायी जाये।पापड़ और स्नैक्स भी बहार के खाते हो, भूल गए बचपन में मम्मी के हाथो से बने पापड़ और कचरियों जो छतो पर सूखते थे और हम उनके ऊपर से कूदते थे। इस बार क्यों ना आपने हाथो से बने पापड़ मम्मी को खिलाये…………….. चलो इसी बहाने घर लौट आये।
चलो फिर से अपने कमरों में क्रिकेटरों के पोस्टर लगायें, यादो के लिए ही सही पर एक बार फिर से स्टोर में पड़े धूल लगे थैले में से कुछ ऑडियो कैसेट निकाले और उसके एक खांचे में पैंसिल फसा कर फिर से घुमा ले।क्यों ना आज अपनी कॉमिको के सारे सुपर हीरो बुला ले।कल होली पर मोहल्ले के हर घर में जाकर रंग लगाने के लिए आज ही टोलिया बना ले।मैं तो कहता हूँ इस बार अपने अपने बच्चो को भी उसमे मिला ले। 15-20 तो हम है ही, इस बार दशहरा पर क्यों ना अपने मोहल्ले में ही रामलीला का मंच लगा ले। किसी को रावण किसी को हनुमान बना ले।
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय जी की श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी के जन्मदिवस पर एक भावप्रवण कविता “मैं नारी नहीं पहेली हूँ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – मैं नारी नहीं पहेली हूँ ☆
(नारी अर्धांगिनी है, वह बेटी, बहन, बहू, पत्नी तथा मां के रूप में अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करती है। आज बेटियां डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बन कर अंतरिक्ष की ऊंचाईयां नाप रही हैं, लेकिन सच्चाई तो यह भी है कि आज भी प्राचीन रूढ़ियों के चलते उसका जीवन एक पहेली बन कर उलझ गया है। वह समझ नहीं पा रहीहै कि आखिर क्यों यह समाज उसका दुश्मन बन गया है।आज उसका जन्म लेना क्यों समाज के माथे पर कलंक का प्रश्नचिन्ह बन टंकित है।)
मैं बेहद बेबस लाचार हूँ , हाँ मैं इस जग की नारी हूँ ।
सब लोगों ने मुझ पे जुल्म किये मैं क़िस्मत की मारी हूँ ।
हमने जन्माया इस जग को, लोगों ने अत्याचार किया।
जब जी चाहा दिल से खेला, जब चाहा दुत्कार दिया।
क्यों प्यार की खातिर मानव, ताज महल बनवाता है।
जब भी नारी प्यार करे तो जग क्यों बैरी हो जाता है।
जिसने अग्नि परीक्षा ली वे गंभीर पुरूष ही थे।
जो जो मुझे जुएं में हारे, वे सब महावीर ही थे।
अग्नि परीक्षा दी हमने, संतुष्ट उन्हें ना कर पाई।
चीर हरण का दृश्य देख, किसी को शर्म नहीं आई।
अपनी लिप्सा की खातिर ही बार बार मुझे त्रास दिया।
जब जी चाहा जुएं में हारा जब चाहा वनवास दिया।
क्यों कर्त्तव्यों की बलिवेदी पर, नारी ही चढ़ाई जाती है।
कभी जहर पिलाई जाती है कभी वन में भेजी जाती है।
मेरा अपराध बताओ लोगों, क्यों घर से मुझे निकाला था?
क्याअपराध किया था मैंने, क्यो हिस्से में विष प्याला था?
इस मानव का दोहरा चरित्र, कुछ समझ न आता है।
मैं नारी नहीं पहेली हूँ ,जीवन में गमों से नाता है ।
अब भी दहेज की बलिवेदी पर ,मुझे चढ़ाया जाता है।
अग्नि में जलाया जाता है, फाँसी पे झुलाया जाता है।
दुर्गा काली का रूप समझ, मेरा पाँव पखारा जाता है।
फिर क्यो दहेज के डर से, मुझे कोख में मारा जाता है
जब मैं दुर्गा मैं ही काली, मुझमें ही शक्ति बसती है।
फिर क्यो अबला कह कर, ये दुनिया हम पे हँसती है?
अब तक तो नर ही दुश्मन था, नारीभी उसी की राह चली।
ये बैरी हुआ जमाना अपना,ना ममता की छाँव मिली।
सदियों से शोषित पीड़ित थी, पर आज समस्या बदतर है।
अब तो जीवन ही खतरे में, क्या बुरा कहें क्या बेहतर है?
मेरा अस्तित्व मिटा जग से, नर का जीवन नीरस होगा।
फिर कैसे वंश वृद्धि होगी, किस कोख में तू पैदा होगा।
मैं हाथ जोड़ विनती करती हूँ,मुझको इस जग में आने दो।
मेरा वजूद मत खत्म करो, कुछ करके मुझे दिखाने दो।
यदि मैं आई इस दुनिया में तो कुलों का मान बढ़ाऊंगी।
अपनी मेहनत प्रतिभा के बल पे, ऊंचा पद मैं पाऊंगी।
बेटी, पत्नी, माता बन कर, जीवन भर साथ निभाउंगी।
करूंगी सेवा रात दिवस, बेटे का फर्ज निभाउंगी।
सबका जीवन सुखमय होगा, खुशियों के फूल खिलाऊंगी
सारे समाज की सेवा कर, मैं नाम अमर कर जाऊंगी।
मैं इस जग की बेटी हूँ, मेरी बस यही कहानी है।
ये दिल है भावों से भरा हुआ, आंखों में पानी है।
जब कर्मों के पथ चलती हूं, लिप्सा की आग से जलती हूं।
अपने जीवन की आहुति दे, मैं कुंदन बन के निखरती हूं।
ई–अभिव्यक्तीच्या लेखिका सौ. दीप्ती कुलकर्णी यांना आज श्री साई प्रकाशन मिरज यांच्या वतीने आयोजित केलेल्या साहित्य संमेलनात, या संस्थेतर्फे नवरत्न साहित्य पुरस्काराने गौरवण्यात येत आहे.
त्यांची चैतन्य (काव्यसंग्रह), असे शोध: असे संशोधक – भाग १ आणि भाग २ ही पुस्तके प्रसिद्ध आहेत. याशिवाय विविध पुस्तकातून, मासिकातून त्यांचे लेख, निबंध, कथा इ. प्रकाशित झाल्या आहेत. काही निबंधांना विविध संस्थाचे पुरस्कारही मिळाले आहेत. बालकुमार साहित्य सभा – कोल्हापूर संस्थेमध्येही त्या सक्रीय आहेत.
पुरस्काराबद्दल त्यांचे ई–अभिव्यक्तीतर्फे अभिनंदन व पुढील वाटचालीसाठी शुभेच्छा.
(पूर्वसूत्र:- ती संपूर्ण रात्र तिने टकटकीत जागून काढली.दुसऱ्या दिवशी ऑफिसमध्ये जाण्यासाठी मुलगा घराबाहेर पडला, त्याच्या पाठोपाठ फाटक्या पिशवीत जुनेरं कोंबून हिने बाहेरचा रस्ता धरलान्.. आपल्या सुनेचा निरोपसुद्धा न घेता.)
एकटेपणाचा बाऊ न करता तिने पुन्हा पदर खोचला. पुन्हा पोळपाट-लाटणं हातात घेतलं. पण ते हात आता पूर्वीसारखे खंबीर नव्हते. थरथरत होते. मग गरजेपोटी कधी कुणी तिला कामावर ठेवून घेत राहिलं. ती राहिली. चुकतमाकत स्वैपाक करू लागली. पण पूर्वीची चवीची भट्टी पुन्हा कधी जमलीच नाही. मग कधी बोलणी बसायची. कामं सुटायची किं पुन्हा दुसरं घर. ती फिरत राहिली. फिरत फिरत इथं आली. या समोरच्या घरी. तिने पूर्वी जोडून ठेवलेल्या. पानसे वकिलांच्या या घरची बाळंतपणं, वकिलीण बाईंची आणि त्यांच्या लेकीसुनांची सुद्धा कधीकाळी हिनेच केलेली. हे घर तिला पुन्हा भेटलं आणि एक दिवस तिच्या मुलाला पानसे वकिलांचं पत्र आलं….
‘तुझी आई आता आमच्या घरी आहे. कामाला नव्हे,रहायला. जेवायला. कारण कामं करण्याची शक्ती आता तिच्या जवळ नाहीये. ती असती तरी तिने कामं का आणि किती दिवस करायची हे प्रश्न आहेतच. तू शिकलास. मोठा झालास. बऱ्यापैकी पैसे मिळवतोयस. हे सगळं तुझ्या आईने आपल्या घामाचं आणि कष्टांचं खत घालून पिकवलंय. तिला त्या खताची किंमत हवीय. होय. तुझ्याकडून पोटगी. का? दचकलास? मी वकील म्हणून तिने मला शब्द टाकलाय. मी तिचं वकीलपत्र घेतलंय. एका पैशाचीही अपेक्षा न ठेवता. एक आई आपल्या मुलाविरुध्द कोर्टात केस गुदरतेय आणि तेही त्याच्यासाठी आयुष्यभर केलेल्या कष्टांचे पैसे उतारवयात कष्ट न करता पोटगीरूपाने परतफेड म्हणून मिळावेत यासाठी, हेच मला नवीन होतं. आणि एक आव्हानसुद्धा. मी ते आव्हान स्वीकारायचं ठरवलंय. तू तिला न्याय देऊ शकला नाहीयस. न्यायदेवता काय करते पाहू. ती आंधळी जरुर आहे, पण तुझ्यासारखी निगरगट्ट नाहीये. तुझ्या आईच्या चरितार्थासाठी आवश्यक ती रक्कम तू तिला आमरण द्यावीस म्हणून ही नोटीस तुला विचारासाठी योग्य वेळ द्यायचा या सद् भावनेने या खाजगी पत्राद्वारेच पाठवतोय. योग्य निर्णय घे.’
पत्र त्यानं वाचलं.फाडून टाकलं. पुढे रितसर नोटीस आली. केस कोर्टात उभी राहिली. जगावेगळी म्हणून खूप गाजली सुद्धा. पानसेवकिलानी तिचं वकिलपत्र घेतलं तेव्हाच खरं तर निकाल निश्चित होता. तोच लागला. गेलं वर्षभर दरमहा नियमित पैसे पाठवताना आईने आयुष्यभर पै पै साठी केलेले कष्ट आता त्याला स्वच्छ दिसतायत. सूनसुद्धा सायीसारखी मऊ झाली. म्हणाली .. “यापेक्षा त्यांना मूला-सुनेचं प्रेम देणंच जास्त स्वस्त पडेल आपल्याला..”
त्यालाही ते पटलंय. तो तिला न्यायला आलाय. होय. मीच. अचानक आलेला प्रेमाचा उमाळाच फक्त माझ्या मनात आहे असं मी म्हणत नाही. त्याबरोबरच थोडा व्यवहारही आहे.पानसेवकिलानाच मी म्हटलं होतं, तुम्हीच सांगा तिला. म्हणाले…,
“जा असं मी तिला कुठल्या तोंडाने सांगू? मी तिला न्याय मिळवून दिलाय.तिच्यावर अन्याय कसा करू!”
त्यांचंही बरोबर आहे. आता आत डोकवायला पाहिजे मलाच. मन तिथं केव्हाच जाऊन पोचलंय. पावलंच घुटमळतायत.त्यांना वाटतंय, ‘आपल्या चेहऱ्यावरचा व्यवहार तिला पुसटसा जरी दिसला तर! आणि समजा.. नाही दिसला,तरी.. ती.. येईल? तुम्हीच जाताय का?डोकावताय त्या घरी? जा आणि सांगा तिला,..
तेवढ्यात एका बदामाच्या आकाराच्या छोट्या संदुकीतून खुडबुड ऐकू येऊ लागली. सगळे तिकडे बघू लागले तर चार- पाच कर्णफुले, मोत्यांची कुडी, इअररिंग्ज, बुगडी आपापसात भांडताना संदुकीचे झाकण उघडले होते. आत एकत्र बसून त्यांचे अंग आंबले होते. कुडी कर्णफुलाला म्हणाली,“ मी या घरात सात पिढ्यापासून आहे. म्हणून सगळ्यांनी जपून ठेवलंय. तू काल- परवा आलीस आणि मिजास दाखवतेस होय? उर्मिला तर हल्ली तुझ्याकडे ढुंकूनसुद्धा बघत नाही. लग्नानंतर पहिल्या वाढदिवसाला तिच्या नवऱ्यानेच तुला तिच्यासाठी आणले. थोडे दिवस तुला भरपूर मान मिळाला आणि मग या इअररिंगची फॅशन आली. मग तुला माझ्याशेजारीच येऊन बसावे लागले. आता ही रिंग पण बाजूला पडली आणि उर्मिलेने नवीन फॅशनचे कानातले केले आहे. आधीच तू तुझ्या काट्याने मला सारखी टोचत होतीस आणि आता ही रिंग! सतत आपल्या रिंगणात आपल्याला अडकवत राहते. म्हणूनच आज सुटका करुन घेतली. मोकळ्या हवेवर किती बरे वाटतेय.” कुडी, कर्णफुले, इअररिंग्ज इकडे- तिकडे बागडू लागल्या तेवढ्यात उर्मिलेने खोलीत पाऊल टाकले. दागिन्यांच्या पेटीतील दागिने असे पसरलेले पाहून तिच्या लक्षात आले की हे लेकीचेच काम असणार! तिने रागाने लेकीला हाक मारुन विचारले असता लेक म्हणाली, “ अग ठेवतच होते ग आई! कोल्हापुरी साज नक्की असाच असतो का ते नेटवर बघत होते. आई अगदी तस्साच आहे बरं का तो! आणि तो कंबरपट्टा आणि मोत्यांची नथ पण हवी आहे मला उद्यासाठी!” “ बरं बरं तुला काय हवंय ते घे यातले. पण बाळा, हे सगळे दागिने म्हणजे आपली आज्जी- पणजी यांची आठवण आहेत हो! त्यामुळे नीट नाजूकपणे ठेव. ती कानातली बघ कशी इकडे तिकडे विखुरली आहेत. ती नीट ठेव बघू. उद्या हे सर्व दागिने तुला आणि राजूच्या बायकोलाच देणार आहे मी!” त्यावर लेक लगेच म्हणाली,“ शी आई! असले दागिने कोण वापरतय आजकाल? मी आपली उद्याच्या दिवस कार्यक्रमासाठी घालणार. असले सोन्याचे दागिने हल्ली outdated झालेत ग. आजकाल प्लॅटिनमचे तरी वापरतात, नाहीतर फॅब्रिकचे दागिने एकदम बेस्ट! कोणत्याही ड्रेसवर चांगले दिसतात ग. जरा शिकले तर आपल्याला घरी पण करता येतात. मुख्य म्हणजे स्वस्त आणि use & throw ! उगाच सांभाळत बसायचे टेन्शन नाही.”
ते ऐकून उर्मिला काहीच बोलली नाही. पण एकेक दागिना हातात घेऊन ती हळुवार त्यावर हात फिरवू लागली. आपली सासू, आजेसासू, आई यांच्या एकेक आठवणी प्रत्येक दागिन्यातून तिच्या मनात फेर धरु लागल्या. मग हळुवार एकेक दागिना आत ठेवत ती मनातच म्हणाली, “ दागिन्यांची आवड प्रत्येक स्त्रीला जन्मजातच असते. भले ती वेगवेगळ्या काळात वेगवेगळ्या प्रकारची असेल. पण एकही दागिना अंगावर नाही अशी बाई सापडणे विरळाच! अगदी आदिवासी भागात सुद्धा सोन्याचे नाहीत पण फुलांचे-पानांचे तरी दागिने त्या बायका अंगावर मिरवतातच. आणि दागिन्यांच्या फॅशन काय? आज येतात आणि उद्या जुन्या होतात. मी सुद्धा काळानुसार काही काही दागिने नवीन फॅशनचे बनवून घेतलेच की!पण आता माझ्या लक्षात येतंय की पुन्हा जुन्याच दागिन्यांना नवीन लेबल लावले जाते आणि नवीन फॅशन म्हणून खपवले जाते. म्हणूनच माझा हा ठेवा मला जपून ठेवायला पाहिजे. कसले use& throw ? थोडे दिवसांनी त्याची पण फॅशन ही नवी पिढी throw करणार आणि या जुन्या दागिन्यांचा पुन्हा use करणार हे नक्की! ” असे म्हणून तिने सर्व दागिने आपापल्या जागेवर पुन्हा नीटनेटके ठेवले. मालकीणीचा हात फिरल्याने खूष होऊन दागिन्यांनी पेटीत पुन्हा ऐटीत आपली जागा पटकावली आणि ते आनंदाने अधिकच झळाळू लागले.
जन्मापासून मृत्यूपर्यंतच्या प्रवासात मानवी आयुष्यातील प्रत्येक महत्वाचा क्षण साजरा करताना माणसानं संगीताची मदत घेऊन ते क्षण आणखी देखणे कसे केले हा विचार केला कि विविध गीतप्रकार आठवून थक्क व्हायला होतं… मुळात एका जिवाच्या जन्माची चाहूल लागल्याचा एखाद्या भावी मातेच्याआयुष्यातील आनंदी क्षण सर्वांसोबत वाटून घेताना गायली जाणारी डोहाळतुलीचं कोडकौतुक करणारी, येत्या जिवाच्या आगमनाचं सहर्ष स्वागत आणि त्याच्यासाठी शुभचिंतन करणारी डोहाळगीतं, मग मूल जन्मल्यावर त्याला जोजवताना वेळोवेळी गायली जाणारी अंगाईगीतं आणि बारशाच्यावेळी त्याच्या आगमनाचा आनंद व्यक्त करणारी, त्या जिवासाठी परमात्म्याचे आशीष मागणारी, त्या निरागस जिवाचं गुणागान करणारी, त्या जिवानं पुरुषार्थ गाजवावा म्हणून सहजी दोन महत्वाच्या कानगोष्टी सांगणारी पाळणागीतं, पुढं त्या बालजिवाचं छोट्या-छोट्या बडबडगीतांतून केलेलं मनोरंजन आणि कधी अशा गीतांतूनच नकळत त्याला दिलेलं जगण्यासाठी आवश्यक तत्वांचं बाळकडूही संगीतामुळं सहज सोप्या पद्धतीनं मनात रुजायला मदत होते.
पुढं त्या जिवाच्या आयुष्यातील प्रत्येक शुभप्रसंगी गायल्या गेलेल्या मंगलाक्षतांचा विचार केला कि लक्षात येतं त्या मंगलगीतांमुळं त्या क्षणांतला आनंद द्विगुणित होतोच, शिवाय आयुष्यात येणारं ते बदलाचं वळण सहज पार करण्यासाठी कोणत्या जबाबदाऱ्यांची जाणीव मनात असावी हेही नकळत सुचवलं जातं.
मुलांच्या मौंजीबंधनाला सध्या एका संस्कारापेक्षा ‘इव्हेंट’चं जास्त रुपडं आलं आहे. पूर्वीसारखे हे बटू आता मातेला सोडून गुरुगृही राहायला जात नाहीत, स्वत:ची कामं स्वत: करून काबाडकष्ट काढून त्यांना शिक्षण घ्यावं लागत नाही हे जरी खरं असलं तरीही आता बाल्यावस्थेतला पहिला टप्पा पार झाला आहे आणि विद्याभ्यासासाठी आपल्याला एका निर्धारानं सज्ज व्हायचं आहे ही जाणीव त्या जिवात रुजणं आवश्यक आहेच. आत्ताच्या काळानुसार विद्याभ्यासासाठीच्या त्यांच्या काबाडकष्टांचं स्वरूप बदललं आहे इतकंच! पण कष्ट हे घ्यावे लागणार असतातच आणि त्यासाठी सातत्यानं मनोबल राखून ठेवण्याची गरज आणि त्यासाठी काय करावं लागेल हे सगळं ह्या मंगलगीतांतूनच सूचित केलं जातं.
मातृभोजनावेळच्या गीतांतले संकेत म्हणजे आता आईचं बोट सोडून आपल्याला जास्त वेळ शाळेत राहून शिक्षण घ्यायचं आहे, त्यावेळी आई सोबत नसणार तरीही मन लावून आपल्याला अभ्यास करायचा आहे. मंगलाष्टकांमधे बटूच्या विद्याभ्यासासाठी देवदेवतांचे आशीर्वाद मागितले जातात, त्या बटूनं आता खंबीरपणे, दृढनिश्चयानं, नियमांचं पालन करत संयम राखून विद्यार्जनासाठी परिश्रम करणं त्याचा भविष्यकाळ उज्वल करण्यासाठी किती आवश्यक आहे हे सूचित केलं जातं, त्यासाठी मौंजीबंधनाच्या रुपानं त्याच्यावर काय संस्कार केले जात आहेत त्याचा अर्थ सांगितला जातो.
मंगलाष्टकाचे ते सूर जमलेल्या इतरेजनांचं मनोरंजन करतात, त्याच्या आप्तेष्टांचा आनंद द्विगुणित करतात, त्या सोहळ्याची रंगत वाढवतात आणि त्याचवेळी त्या बटूच्या मनात निश्चितच काही अनमोल भावतरंग उमटवतात. संगीताची ही केवढी मोठी किमया आहे. त्या क्षणापर्यंत ‘बाळ’ असणारा तो जीव थोडा का होईना वेगळा भासायला लागतोच. मंगलगीतं आणि मंत्रसंस्कार दोन्हीच्या सुरांमुळं सोहळा देखणा होतोच परंतू आयुष्यात महत्वाचं वळण येतंय आणि त्याला जबाबदारीनं सामोरं जायला हवं, हा विचार त्या बालजिवाच्या मनात त्याच्या त्यावेळच्या जाणिवेच्या कुवतीनुसार, त्याच्या बालबुद्धीनं केलेल्या आकलनानुसार का होईना अधोरेखित व्हायला मदत नक्की होत असणार.
त्यापुढचा मोठा संस्कार म्हणजे लग्नसंस्कार! दोन जिवांचं, दोन घराण्यांचं, दोन विचारप्रवाहांचंही मीलन होताना त्यातून नवीन सुंदरसं काही अंकुरावं, उत्पन्न व्हावं हा विश्वनियमही राखला जावा असा हा संस्कार! ह्या सोहळ्यातील पूर्वसंस्कार, प्रत्यक्ष विवाहसोहळा आणि त्यानंतरचेही सर्व विधी, धार्मिक प्रथा, चालीरिती सगळं अत्यंत संगीतमय आहे. सोहळ्याची मुहूर्तमेढ रोवून जात्याची पूजा करताना कर्त्याधर्त्या गणेशाचं केलेलं स्तवन, घाणा भरताना गायल्या जाणाऱ्या ओव्या, उत्सवमूर्तींना हळद लावताना गायली जाणारी गीतं, लेकीची पाठवणी करताना विहीणबाईंना तिला सांभाळून घेण्याची विनवणी करणारी गीतं, कारल्याच्या वेलाखालून विहीणबाई जाताना गायली जाणारी मांडवगीतं असे किती प्रकार सांगावे. ह्यावेळी जे उखाणे घेतले जातात ती भले गीतं नसतील, मात्र त्यातही एक लय सांभाळली गेली असेल तरच ते उखाणे रंगतदार होतात. सगळ्यात महत्वाचं म्हणजे ह्या संपूर्ण सोहळ्यात सुरू असणारं सनई, चौघडे अशा मंगलवाद्यांचं पार्श्वसंगीत जी वातावरणनिर्मिती करतं तिचं वर्णन शब्दांत करताच येणार नाही.
प्रत्यक्ष दोन जिवांच्या डोक्यावर अक्षत पडते त्यावेळी गायल्या गेलेल्या मंगलक्षतांतून तर किती वैविध्यपूर्ण संकेत त्या दोन्ही जिवांना दिले जातात. सामोऱ्या येत असलेल्या वळणातली असीम सुंदरता सांगितली जाते, त्याबरोबरच ती सुंदरता राखण्यासाठी आपापला अहंभाव सोडून एकमेकांत विरघळून जाण्याची आवश्यकता, आता आपण एकटे नाही तर आपल्या दोघांचं मिळून एकच आयुष्य आहे हा अत्यावश्यक विचार आणि ह्यासोबत दोघांच्या आजवरच्या वैयक्तिक आयुष्याशी जोडली गेलेली नातीगोती, भावसंबंध आदरभावानं जपणं, वृद्धिंगत करणं ह्या नव्या जबाबदारीविषयीही संकेत दिला जातो.
लग्नसमारंभानंतर वरगृही पूजेसोबतच प्रथा म्हणून काही ठिकाणी गोंधळ घालण्याची प्रथा आहे. खास गोंधळी लोकांना बोलावून ह्या कार्यक्रमाचं आयोजन केलं जातं. अर्थातच अठरापगड जाती असलेल्या आपल्या देशात गोंधळाप्रमाणेच इतरही अनेक प्रथा विविध समाजांमधे अस्तित्वात आहेत आणि त्या-त्या गोष्टींत पारंगत असणाऱ्या कलाकारांना मुद्दाम आमंत्रित करून ह्या प्रथा साजऱ्या केल्या जातात.
त्यानंतर वर्षभरातल्या सणसमारंभांपैकी मंगळागौरीसारखे सण म्हणजे तर संगीतानेच सजलेले म्हणायला हवेत. त्यातले विविध खेळ आणि त्यावेळी गायली जाणारी गीतं म्हणजे ‘स्त्रीगीते’ ह्या लोकसंगीतप्रकारातला सुंदर भाग आहे. त्यात गीत आणि नृत्य ह्याचं सुंदर मिश्रण आहे. जगणं जास्तीत जास्त सुंदर करण्यासाठी क्षणांचा उत्सव करण्याची मानवी मनाची उर्मी संगीताच्या मदतीनं कशी नेमकेपणानं भागवली जाते ह्याची ही सगळी उदाहरणं म्हणता येतील. माणसाच्या जगण्यातली, संस्कृतीतली संगीताची प्रचंड व्याप्ती ह्या सगळ्या उदाहरणांतून आपल्याला दिसून येते.
अर्थातच मी जे-जे उल्लेख केले ते एकतर जगण्यातल्या व्यक्तिगत क्षणांमध्ये सामावल्या गेलेल्या संगीताविषयी आणि मला माहिती असलेल्या गोष्टींतून… मात्र ह्यापेक्षा कितीतरी जास्त प्रकार निश्चितच अस्तित्वात आहेत. प्रांत व त्याचे भौगोलिक वैशिष्ट्य आणि त्यानुसार जन्मलेली तिथली संस्कृती, भाषा, समाजव्यवस्थेनुसार विशिष्ट जनसमुदाय अशा अनेक गोष्टींनुसार अक्षरश: अनेकविध गीतप्रकार अस्तित्वात आलेले आहेत.
राहाता राहिला मानवी आयुष्यातील सर्वात गंभीर क्षण… अंतिम क्षण… मृत्यू! ह्या क्षणातही मानवानं किती विविध दृष्टीकोनांतून संगीताला सामावून घेतलं आहे… भावनांचा निचरा होण्यासाठी, मनाला अंतिम सत्याची जाणीव करून देण्यासाठी इ. गोष्टींपासून ते अगदी मृत्यूची खात्री करून घेण्यासाठीही, ह्याविषयी माहिती पुढच्या लेखात पाहूया!
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी के “मुक्तक “। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )