हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सामूहिक सत्कर्म ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ सामूहिक सत्कर्म ☆

कई वर्ष पहले की बात है। इंटरनेट सर्चिंग या अंतरजाल खोज के क्षेत्र में नया था। रक्षाबंधन पर एक प्रोजेक्ट कर रहा था। राखी की विभिन्न डिज़ाइनों की कुछ तस्वीरों के लिए इंटरनेट पर ‘राखी’ शब्द डाला और परिणाम देखकर अवाक हो गया। उन दिनों फिल्मों में आइटम साँग करने वाली इसी नाम की एक अभिनेत्री की तस्वीरें धड़ाधड़ स्क्रिन पर आने लगी थीं। इच्छित की समुचित खोज के लिए सही शब्दों के प्रयोग और तरीके से मैं तब तक अनजान था। एक बात और जानी कि सर्वाधिक सर्च किये शब्द या चित्र उसी अनुक्रम में इंटरनेट दिखाता है।

‘राखी’ का प्रकरण मज़ाक में ही आया-गया हुआ। इस मज़ाक को भीतर तक चीर  देनेवाला चाकू उस समय लगा,  जब ऑनलाइन कुछ टाइप कर रहा था। अपने कथ्य में किसी संदर्भ में ‘सामूहिक’ शब्द टाइप किया। सामूहिक के साथ ही स्क्रिन पर ‘दुष्कर्म’ शब्द झलकने लगा। ‘सर्वाधिक सर्च किये शब्द उसी अनुक्रम में इंटरनेट दिखाता है’, का नियम याद आया और सिर पर मानो हथौड़ा चल पड़ा। अंगुलियाँ रुक गईं, टाइपिंग थम गई पर सर्वाधिक सर्च हुआ शब्द निरंतर, अबाध  मेरा पीछा करता रहा।

क्या हो गया है हमारी सामुदायिक और सामूहिक चेतना को? मनुष्य का चोला पहने  रंगे सियारों ने मनुष्यता को कलंकित करने की मुहिम छेड़ रखी है। इस मुहिम के विरुद्ध लम्बी सकारात्मक रेखा हम कब खींच पाएँगे? सामुदायिक बोध से उपजा हमारा सामूहिक प्रयास क्या इस ‘दुष्कर्म’ को पीछे ठेलकर ‘सत्कर्म’ को सर्वाधिक सर्च किया जानेवाला शब्द बना पाएगा?

# आज ‘सत्कर्म’ सर्च करें।

 

©  संजय भारद्वाज

(17 नवम्बर 2019, रात्रि 3.40 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 78 ☆ यात्रा संस्मरण – गांधी के ये गांव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक सार्थक  “यात्रा संस्मरण – गांधी के ये गांव“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 78

☆ यात्रा संस्मरण – गांधी के ये गांव ☆

लोकनायक जय प्रकाश नारायण की जयंती पर 11 अक्टूबर 2014 को “आदर्श ग्राम योजना” लांच की गई थी इस मकसद के साथ कि सांसदों द्वारा गोद लिया गांव 11 अक्टूबर 2016 तक सर्वांगीण विकास के साथ दुनिया को आदर्श ग्राम के रूप में नजर आयेगा परन्तु कई जानकारों ने इस योजना पर सवाल उठाते हुए इसकी कामयाबी को लेकर संदेह भी जताया था जो आज सच लगने लगा है।

शहरों में रहने वाले जो घूमने के शौकीन हैं उन्हें कभी सांसदों के द्वारा गोद लिए गांवों की यात्रा भी करना चाहिए। आम आदमी के अंदर उन गांवों की सूरत देखकर योजना के क्रियान्वयन पर चिंता की लकीरें उभरेगीं तो शायद कुछ विकास होगा। ये बात सही है कि सरकार का मकसद इस योजना के जरिए देश के छै लाख गांवों को उनका वह हक दिलाना था जिसकी परिकल्पना स्वाधीनता संग्राम के दिनों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने की थी। गांधी की नजर में गांव गणतंत्र के लघु रूप थे, जिनकी बुनियाद पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी है।

प्रधानमंत्री की अभिनव आदर्श ग्राम योजना में अधिकांश ग्रामों को गोद लिए तीन साल से ज्यादा गुजर गया है पर कहीं कुछ पुख्ता नहीं दिख रहा है ये भी सच है कि दिल्ली से चलने वाली योजनाएं नाम तो प्रधानमंत्री का ढोतीं हैं मगर गांव के प्रधान के घर पहुंचते ही अपना बोझा उतार देतीं हैं। एक पिछड़े आदिवासी अंचल के गांव की सरपंचन घूंघट की आड़ में कुछ पूछने पर इशारे करती हुई शर्माती है तो झट सरपंच पति पानी की विकट किल्लत की बात करने लगता है – नल नहीं लगे हैं, हैंडपंप नहीं खुदे और न ही बिजली पहुंची। आदर्श ग्राम योजना के बारे में किसी को कुछ नहीं मालुम…… ।

आदर्श ग्राम योजना के तहत गांव के विकास में वैयक्तिक, मानव, आर्थिक एवं सामाजिक विकास की निरंतर प्रक्रिया चलनी चाहिए। वैयक्तिक विकास के तहत साफ-सफाई की आदत का विकास, दैनिक व्यायाम, रोज नहाना और दांत साफ करने की आदतों की सीख, मानव विकास के तहत बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं, लिंगानुपात संतुलन, स्मार्ट स्कूल परिकल्पना, सामाजिक विकास के तहत गांव भर के लोगों में विकास के प्रति गर्व और आर्थिक विकास के तहत बीज बैंक, मवेशी हॉस्टल, मिट्टी हेल्थ कार्ड आदि आते हैं।

मध्यप्रदेश के सुदूर प्रकृति की सुरम्य वादियों के बीच बैगा बाहुल्य गांव  के पड़ोस से कल – कल बहती पुण्य सलिला नर्मदा और चारों ओर ऊंची ऊंची हरी भरी पहाडि़यों से घिरा ये गांव एक पर्यटन स्थल की तरह महसूस होता है परन्तु गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी गांव में इस कदर पसरी है कि उसका कलम से बखान नहीं किया जा सकता है।गोद लिये गांव में साक्षरता का प्रतिशत बहुत कमजोर और चिंतनीय होता है।

प्रधानमंत्री की इस योजना में गांव के लोगों को कहा गया था कि वे अपने सांसद से संवाद करें। योजना के माध्यम से लोगों में विकास का वातावरण पैदा हो, इसके लिए सरकारी तंत्र और विशेष कर सांसद समन्वय स्थापित करें, पर बेचारे सांसद दुनिया भर के ऊंटपटांग कामों में व्यस्त रहते हैं तो गोद लिए गांव की कौन परवाह करेगा। प्रधानमंत्री ज्यादा उम्मीद करते हैं बेचारे सांसद साल डेढ़ साल तक ऐसे गांव नहीं पहुंच पाते तो इसमें सांसदों का दोष नहीं हैं उनके भी तो लड़का बच्चा और घरवाली है। ऐसे गांवों में जनधन खाते थोड़े बहुत खोले जाने की खबर यत्र तत्र मिलती है पर उससे कोई फायदा नहीं दिखा। प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा से कोई फायदा किसी को मिला नहीं। ऐसे गांव में बैंक ऋण के सवाल पर कुछ

लोग बताते हैं कि एक बार लोन से कोई कंपनी 5000 रुपये का बकरा लोन से दे गई ब्याज सहित पूरे पैसे वसूल कर लिए और बकरा भी मर गया, गांव भर के कुल नौ गरीबों को एक एक बकरा दिया गया था, बकरी नहीं दी गई। सब बकरे दिए गए जो कुछ दिन बाद मर गए।

ऐसे गांव में खुशीराम मिल जाते हैं जो पांचवीं फेल होते हैं और भूखे रहकर भी हंसते हैं। कोई रोजगार के लिए प्रशिक्षण नहीं मिला मेहनत मजदूरी करके एक टाइम का पेट भर पाते हैं, चेंज की भाजी में आम की अमकरिया डालके “पेज “पी जाते हैं। सड़क के सवाल पर तुलसी बैगा ने बताया कि गांव के मुख्य गली में सड़क जैसी बन गई है कभी कभार सोलर लाइट भी चौरस्ते में जलती दिखती है। कभी-कभी पानी भी नल से आ जाता है पर नलों में टोंटी नहीं है।

दूसरी पास फगनू बैगा जानवर चराने जंगल ले जाते हैं खेतों में जुताई करके पेट पालते हैं जब बीमार पड़ते हैं तो नर्मदा मैया के भजन करके ठीक हो जाते हैं।

ऐसे गांव में प्रायमरी, मिडिल और हाईस्कूल की दर्ज संख्या के अनुसार स्कूल में शिक्षकों का भीषण अभाव देखा गया है। ऐसे स्कूलों में बच्चों से बातचीत करो तो सब कहते हैं  कि वे बड़े होकर देश के प्रधानमंत्री बनेंगे पर वर्तमान में कौन प्रधानमंत्री है इस बात पर ठहाके लगाकर हंसने लगे।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बुधुआ… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता बुधुआ…।)

☆ कविता  ☆ बुधुआ… ☆

बुधुआ एक नाम नहीँ है एक जीवंत अर्थ है,

भारत का लिखें इतिहास, बनाये

कितने ही शिला लेख,

यह नाम हो हर जगह,

नीचे किसी कोने ज़रूरी है,

बुधुआ पाया जाता आज भी

सदियोँ से ये मरता नहीं है,

जैसा पहले था मन क्रम बचन से,

मूक परिश्रमी, वाचाल नही है,

बुधुआ आज भी है वैसा ही है,

सदियों बाद भी वैसा ही है,

जो खाली पेट रोटी की आस में

तोड़े अपने हाड़, दिन रात,

कहता कुछ नहीँ है,

ऐसे नामवर की चाह

हिंदुस्तान में हर कहीँ है,

देश का कोई भी हो प्रांत, शहर,

गाँव,नाम अलग हो भले,

अर्थ सहित बुधुआ वहीं हैं,

हर कोई चाहता उसे,

पर वो लोकप्रिय नहीं है,

वो एक किसान, हम्माल है,

खेतिहर मजदूर, मज़दूर,

हर सृजन का आरंभ वही है,

कहते उसे, चाहकर सब जन

उसको बुधुआ ही, खेती हो किसानी,

कोई हो काम, आरम्भ बुधुआ से ही है,

सभी चाहते रहे वैसा ही, सदियों से जैसा है,

बहुत हुए प्रयास

सुधरे इसकी हालत,

बने वो भी आम आदमी सा,

नही रहे हमेशा सा दबा कुचला,

पर कमोबेश आज भी हालात वहीँ है,

बुधुआ बुधुआ है, वो बुधुआ है,

हिंदुस्तानी समाज का अंग,

उसके दैनिक जीवन का  पायदान वही है

बुधुआ समाज के,

सदियों से कुत्सित प्रयासों का

प्रतिफल ही है,

जिसका स्वार्थ, ना बदलने देता नाम उसे

इसलिए आज भी बुधुआ यहीं कहीं है,

देश में बुधुआ हर जगह, हर कहीं है,

बुधुआ……

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 30 ☆ नारी ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  कविता  “नारी”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 30 ☆ 

☆ नारी ☆

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

तुम शक्ति और विश्वास का आधार हो,

तुम जीवन देने वाली धरती का श्रृंगार हो,

तुम आत्मशक्ति बढ़ाने वाली साज का उदगार हो,

तुम हर राहगीर की पतवार हो,

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

हे नारी, तुम शक्ति से काली,

भक्ति से मीरा हो,

तुम समुद्र में सीप के मोती के समान हो,

तुम शब्दों में कविता के समान हो,

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

आओ अपनी शक्ति को पहचानो,

ले काली का रूप, करो राक्षसों का संहार,

एक साथ मिलकर करें धारी आसमान,

हिला दें पूरा ब्रह्माण्ड,

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

नारी, तुम पुराणों मे गीता हो, नदी में गंगा हो,

तुम रंग में सफेद, राग में मल्हार हो,

तुम लक्ष्मी, कभी सरस्वती, कभी दुर्गा कहलाती हो,

कभी कैकेयी, कभी मंथरा कहला कर कोसी जाती हो,

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

नारी क्यों तुम्हें युग युग में अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है,

क्यों चीर-हरण से गुजरना पड़ता है,

क्यों आँखों में पट्टी बांध दी जाती है,

क्यों हर युग में पूजी जाती है,

हे नारी, तुम्हें प्रणाम, करें अपनी शक्ति का आव्हान।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #25 ☆ मुझे पीड़ा होती है ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है जिंदगी की हकीकत बयां करती एक भावप्रवण कविता “मुझे पीड़ा होती है ”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 25 ☆ 

☆ मुझे पीड़ा होती है ☆ 

जब आंखों से धारा बहती है

अनकही दास्तां कहती है

जब कोई राह ना सूझती है

सीने में कील सी चुभती है

तब मुझे पीड़ा होती है

 

जब रात के झूठन में पड़े

रोटी के टुकड़े के लिए

इन्सान के बच्चे को

और कुत्ते के पिल्ले को

लड़ते हुए देखता हूं

बच्चे को हारते और

पिल्ले को जीतते हुए

देखता हूं

तब भूख रुलाती है

तब मुझे पीड़ा होती है

 

जब एक ईमानदार व्यक्ति

निर्धनता है उसकी संपत्ति

न्यायपालिका के दर पर

माथा रगड़ता है

कानूनी दांव-पेंच में

उसका सबकुछ उजड़ता है

छिन जाती है उसकी रोटी

पहनता है बस लंगोटी

न्याय नहीं मिलना

एक नश्तर सा चुभोती है

तब मुझे पीड़ा होती है

 

मां-बाप की लाडली बेटी

मायके से जब बिदा होती है

मनमे क्या क्या सुनहरे

सपने संजोती है

ससुराल में दहेज दानवों के

हाथों अपनी जान गंवाती है

क्या लालच इन्सान को

इतना अंधा बनाती है ?

तब मुझे पीड़ा होती है

 

इक शोषित, पीड़ित बच्ची की

फरियाद सुनीं नहीं जाती है

सब आंखें मूंद लेते हैं

गूंगे, बहरें हो जातें हैं

जब वो असह्य दर्द से

प्राण त्यागती है

उसकी चिता रात के अंधेरे में

जलाई जाती है

दबंग आरोपी

बेखौफ घूमते हैं

मस्ती मे झूमते है

मानवता तार तार होती है

नारी की अस्मिता

जार-जार रोती है

तब मुझे पीड़ा होती है

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१६॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१६॥ ☆

 

त्वय्य आयन्तं कृषिफलम इति भ्रूविकारान अभिज्ञैः

प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः

सद्यःसीरोत्कषणसुरभि क्षेत्रम आरुह्य मालं

किंचित पश्चाद व्रज लघुगतिर भूय एवोत्तरेण॥१.१६॥

 

कृषि के तुम्हीं प्राण हो इसलिये

नित निहारे गये कृषक नारी नयन से

कर्षित, सुवासिक धरा को सरस कर

तनिक बढ़, उधर मुड़ विचरना गगन से

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जीवनपट ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ जीवनपट ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆ 

जीवनाच्या या पटावरी

कितीतरी प्यादी येती जाती

माझे,माझे म्हणती सारे

फोलता ही नच, कुणाही ठावे

 

क्षणभंगुरता कळेल का परी

उरते अंगी मृत्तिका जरी

यात्रिक सारे सममार्गावरी

नियतीचीही मिरासदारी

 

नियतीचीही सर्व खेळणी

कुणा छत्र, कुणी अनवाणी

श्वासासंगे श्वास येई रे

दुजा न कोणी सांगाती

 

जीवनाच्या या पटावरी

कितीतरी प्यादी येती जाती.

 

© सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

कोल्हापूर

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 32 ☆ गंध मातीचा… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 32 ☆ 

☆ गंध मातीचा… ☆

गंध मातीचा, हृदयस्पर्शी

गंध मातीचा, मातृस्पर्शी

 

गंध मातीचा, सप्तरंगी

गंध मातीचा, चिरा चौरंगी

 

गंध मातीचा, मनास भुलवी

गंध मातीचा, तेज वाढवी

 

गंध मातीचा, मातृस्पर्श जैसा

गंध मातीचा, मोगरा फुलला तैसा…

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ नात्यांमधल्या रेशीमगाठींची गोष्ट – ‘हॅडल विथ् केअर’ ..भाग 1 ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

☆ जीवनरंग ☆ नात्यांमधल्या रेशीमगाठींची गोष्ट – ‘हॅडल विथ् केअर’ ..भाग 1☆ श्री अरविंद लिमये ☆

रजेचं अचानक जमून आलं आणि सविता लगोलग निघाली. नेहमीसारखं रिझर्वेशन वगैरे करायला उसंतच नव्हती.

“जपून जा. काळजी घे.उगीच त्रागा करू नको. मन शांत ठेव. सगळं ठीक होईल” निघतानाचे सारंगचे हे शब्द आणि आधार आठवून सविताला आत्ताही भरुन आलं. सविता आज पुणे-मिरज बसमधे चढली ती ही अस्वस्थता सोबत घेऊनच.समक्ष जाऊन आण्णाना भेटल्याशिवाय ही अस्वस्थता कमी होणारच नव्हती. आण्णा म्हणजे तिथे वडील. तिचं माहेर मिरज तालुक्यातल्या एका बर्‍यापैकी समृद्ध खेड्यातलं. मिरजस्टँडला उतरून सिटी बसने पुन्हा तासाभराचा प्रवास करावा लागे.एरवी ती माहेरी जायची ते कांही फक्त आई आणि आण्णांच्या ओढीनेच नव्हतं. तिच्या एकुलत्या एका भावाच्या संसारात तिलाही मानाचं स्थान होतंच की.पण आजची गोष्ट वेगळी होती.ती निघाली होती  ते तशीच वेळ आली तर आण्णांना कायमचं पुण्याला घेऊन यायचं हे मनाशी ठरवूनच.सारंगचाही या तिच्या निर्णयाला विरोध नव्हता.

एखाद्या माणसाच्या जाण्यानं,नसण्यानं, त्याच्या असतानाचे संदर्भ इतक्या चटकन् बदलू शकतात?तिला प्रश्न पडला. आई अचानक गेली तेव्हापासूनच ह्या सगळ्याची सुरुवात झाली होती. आज माहेरी जाताना सविता म्हणूनच अस्वस्थ होती. आण्णांच्याबद्दल तर सविता थोडी जास्तच हळवी होती. त्याला कारणही तसंच होतं. आण्णांमुळेच माहेरी शिक्षणाचे संस्कार रुजले होते.आर्थिक परिस्थिती बेतासबात असूनही शिक्षणाच्या बाबतीत त्यांनी मुलगा आणि मुलगी असा भेद कधीच केला नव्हता.म्हणून तर सवितासारखी खेड्यातली एक मुलगी इंजिनिअर होऊ शकली होती आणि पुण्यात एका आयटी कंपनीत बाळसेदार पगार घेत आपल्या करिअरला आकार देत होती.अण्णा गावातल्याच एका शाळेतून मुख्याध्यापक म्हणून निवृत्त झाले होते.घरी पैशाचा ओघ जेमतेमच असे.तरी स्वतः काटकसरीत राहून आईआण्णांनी सविता आणि तिचा दादा दोघांनाही इंजिनियर केलं होतं. आण्णांच्या संस्कारांचा फायदा त्यांच्या सुनेलाही मिळाला होताच. सविताचा भाऊ ऑटोमोबाईल इंजिनिअर झाला आणि त्याची स्वतःची आवड म्हणून तिथे गावातच त्यांने गॅरेज सुरू केले होते. तो कष्टाळू होता आणि महत्त्वाकांक्षीही.त्यामुळेच त्याच्या लग्नाचं पहायला सुरुवात केली तेव्हा त्याला खूप चांगल्या मुली सांगून आल्या होत्या.पण त्या खेड्यात राहायची त्यांची तयारी नसायची.मग गावातल्याच एका ओळखीच्या कुटुंबातली अनुरूप मुलगी त्याने पसंत केली.ती लग्नाआधी बीएससी झाली होती. हुशार होती. आण्णानीच तिला बी.एड् करायला प्रवृत्त केलं. लगेच मिरजेच्या एका शाळेत जॉबही मिळाला.असं सगळं कसं छान, सुरळीत होतं. परवापरवापर्यंत तरी तसं वाटलं होतं,पण आई अचानक गेली …आणि ..?

वहिनीला नवीन नोकरी लागली होती तेव्हा मिरजेला रोज जाऊन येऊन करता करताच ती मेटाकुटीला येई. पण तेव्हा घरचं सगळं बघायला सविताची आई होती.ती होती तोपर्यंत घरात कसले प्रश्नच नव्हते जसे कांही. तेव्हा घरात भांड्याला भांडं लागलं असेलही कदाचित पण त्यांचे आवाज सवितापर्यंत कधीच पोचले नव्हते.

आई गेली.तिचं दिवसकार्य सगळं आवरलं  तेव्हाच बदल म्हणून सविता-सारंगने आण्णाना थोडे दिवस बदल म्हणून पुण्याला चला असा आग्रह केला होता. पण ते पुन्हा पुढे बघू म्हणाले न् ते तसंच राहीलं.

आई गेल्यानंतर पुढे दोनतीन महिन्यांनीच दिवाळी होती.चार दिवस आधी फराळाचे डबे देऊन सविताने सारंगला आपल्या माहेरी पाठवलं होतं. सारंग तिथे गेला म्हणून आपल्याला सगळं समजलं तरी असंच तिला वाटत राहिलं. कारण तिकडून सारंग परत आला ते हेच सगळं सांगत. तो रात्रीचा प्रवास करून सकाळी तिकडे पोहोचला तेव्हा आण्णा अंगण झाडून झाल्यावर  व्हरांड्यातला केर काढू लागले होते.सारंगला अचानक समोर पाहून ते थोडे कावरेबावरे झाल्यासारखे वाटले.  थोडे थकल्यासारखेही.पण मग काहीच न घडल्यासारखं हसून त्यांनी सारंगचं स्वागत केलं होतं.  हे ऐकलं तेव्हा सविताला धक्काच बसला .आण्णा आणि घरकाम? शक्य तरी आहे का हे?

निवृत्तीनंतर ते बागेत काम करायचे.त्यांना वाचनाची आवड होती. वेळ कसा घालवायचा हा प्रश्नच नव्हता. असं असताना ते न आवडणारी,न येणारी कामं या वयात आपण होऊन करणं शक्य तरी आहे का? हे सगळं वहिनीचंच कारस्थान असणार हे उघड होतं.तिचं जाऊ दे पण दादा? त्याला कळायला नको?सविता पूर्वकल्पना न देता यावेळी माहेरी निघाली होती ते यासाठीच. आण्णांशीच नव्हे,दादावहिनीशीही या विषयावर बोलायचं आणि तशीच वेळ आली तर आण्णांना कायमचं पुण्याला घेऊन यायचं हे तिने ठरवूनच टाकलं होतं. मिरजेला उतरताच सिटी बसस्टाॅपवर ती येऊन थांबली आणि तिला अचानक आण्णाच समोरून येताना दिसले.हातात दोन जड पिशव्या घेऊन ते पायी चालत बस स्टॉपकडेच येत होते. त्याना त्याअवस्थेत पाहून सविताला भरूनच आलं एकदम. ती कासावीस झाली.तशीच पुढे झेपावली.

“आण्णा त्या पिशव्या द्या इकडे.मी घेते.” पाच पाच  किलो साखरेच्या त्या दोन जड पिशव्या होत्या.सविताच्या तळपायाची आग मस्तकाला जाऊन भिडली.

“सावू…तू..तू इथे कशी?”कपाळावरचा घाम रुमालाने  टिपत त्यांनी विचारले. त्यांच्या थकून गेलेल्या चेहऱ्यावरही आनंद  पसरला एकदम.

“मुद्दाम तुम्हाला भेटायलाच आलेय.”

“पण असं अचानक?”

“हो.भेटावं असं तिव्रतेने वाटलं.आले.कसे आहात तुम्ही?”

“कसा वाटतोय?”

“खरं सांगू?खूप थकल्यासारखे वाटताय.” तिचा आवाज भरून आला. तेवढ्यात समोरून बस येताना दिसली. मग सविता काही बोललीच नाही. बसमध्ये सगळेच गावचे. ओळखीचे. सगळ्यांसमोर मोकळेपणाने बोलणं तिला प्रशस्त वाटेना.बसमधून उतरल्यानंतर मात्र ती घुटमळत उभी राहिली.

“आण्णा, आपण लगेच घरी नको जायला..”

“का  गं?”

“वाटेत शाळेजवळच्या देवळात थोडावेळ बसू.मग घरी जाऊ. मला तुमच्याशी थोडं बोलायचंय.”

“अगं बोल ना. घरी जाता जाता बोल. घरी गेल्यानंतर निवांत बोल.”

“नाही…नको”

“लांबचा प्रवास करून आलीयस. ऐक माझं. आधी घरी चल. हात पाय धू. विश्रांती घे. मग बोल. घाई काय आहे एवढी?”

सविताला पुढे कांही बोलताच येईना.

तिला असं अचानक दारात पाहून तिच्या वहिनीलाही आश्चर्य वाटलं.

“सवितताई, हे काय? असं अचानक?” बोलता बोलता तिच्या हातातली बॅग घ्यायला वहिनी पुढे झाली आणि बॅगेऐवजी सविताच्या हातातल्या त्या दोन जड पिशव्या पाहून चपापली. तिच्या कपाळावर उमटलेली सूक्ष्मशी आठी आणि आण्णांकडे पहातानाची तिच्या नजरेतली नाराजी सविताच्या नजरेतून सुटली नाही. सविताने त्या दोन जड पिशव्या तिच्या पुढे केल्या. मग मात्र वहिनीने त्या हसतमुखाने घेतल्या.

“आधी कळवलं असतंत तर मोटारसायकल घेऊन हे आले असते ना हो मिरजस्टॅंडवर तुम्हाला घ्यायला” तिच्या बोलण्यात सहजपणा होता पण  सविताला तो सहजपणे स्वीकारता येईना.

“मुद्दामच नाही कळवलं. अचानक रजा मिळाली.आले. आण्णांना भेटावसं वाटलं म्हणून रजा घेतलीय”वहिनीकडे रोखून पहात ती म्हणाली .चहापाणी आवरलं तसं ती उठली.

“वहिनी, थोडं देवळापर्यंत जाऊन पाय मोकळे करून येते.”

“बरं या”.

“चला आण्णा..”

“आण्णा..? ते कशाला..?”  वहिनी आश्चर्याने म्हणाली.

“का? त्यांना का नाही न्यायचं?” सविताने चिडून विचारलं. तिच्या आवाजातला तारस्वर वहिनीला अनोळखीच होता. ती चपापली. कानकोंडी झाल्यासारखी चुळबुळत राहिली.

“तसं नाही सविताताई..”

“मग कसं?” आता गप्प बसायचं नाही हे सविताने ठरवूनच टाकलं होतं.पण वहिनी वरमली.

“तुम्ही जा त्याना घेऊन, पण अंधार व्हायच्या आत परत या ”

सविता रागाने तिच्याकडे पहात राहिली. फट् म्हणताच ब्रह्महत्या होणार पण त्याला आता तिचा नाईलाज होता.

क्रमश:….

© श्री अरविंद लिमये

सांगली

मो ९८२३७३८२८८

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ भाई… भाग -1☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

☆ विविधा ☆ भाई… भाग -1☆ श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

भाई, चला आवरलंय माझं. उशीर होईल  नाहीतर खेळाला पोचायला.

आग सुनिता, थांब एवढ  शेवटचं पान लिहितोय, पण कुठला खेळ ?

काय हे भाई, “भाई” सिनेमाचा पहिला शो.

सुनीता अग या हिंदुस्थानात भाईचा सिनेमा फक्त ईदला येतो. मार्गशिर्ष कृष्ण १४ ला अमावस्येच्या पूर्वसंध्येला  येणारा हा कुठला ‘भाई’ ?

भाई, बास झालं हा माझी फिरकी घेणे.  ज्याने आयुष्यात अनेक अमावस्यां सोसून  मराठी सारस्वताच्या दुनियेत ‘पोर्णीमा’ खुलवली त्या भाईचा म्हणजे तू अर्थात “पुरुषोत्तम  लक्ष्मण   देशपांडे” यांच्या वरचा ‘भाई ‘ सिनेमा.

बरं  बरं. त्या उबेराला  विचार राफेल तयार आहे का?

काय?  भाई कालच्या संसदेतील चर्चा  फारच मनावर घेतलीयस तू? त्या रंभेला सांगून  २०१९  लोकसभा होई पर्यत केबल बंद करायला सांगते.

त्या कुबेराला पुष्पक विमान तयार आहे का असं म्हणायचंय का तूला?

हो. हो  तसेच

भाई, त्यांनी आधीच सांगितले आहे  पुष्पक तयार आहे  तुम्हाला मुंबईकर, नागपूरकर का पुणेकर म्हणून जायचंय?

बघ सुनीता, त्या नागपूर मधील  उणे तापमानातील थंडी काही आपल्याला सहन व्हायची नाही,  १२ अंश तापमानाला गिरगावकर, पार्लेकर, डोबिवलीकराना जणू इकडे काश्मीर, महाबळेश्वर अवतरलं असे वाटत असलं तरी तिकडे मराठी सिनेमा कुठे लागला आहे हे हुडकण्यात आपला वेळ जाईल

*तेव्हा आपले पुणेच बरे*

माझ्या मनातलं बोललात भाई

अग  सुनीता तो बघितलास का अंतू बर्वा, ‘ बटाट्याच्या चाळीत ‘  कुठली स्कीम घेऊन गेलाय. ‘असामी असामी’  व ‘अपूर्वाई’ पुस्तक घेतल्यास  ‘भाई’  सिनेमाचे एक तिकीट  मोफत असं ओरडत सुटलाय

अमॅझीग  ना भाई?

नाही सुनीता कलियुगात त्याला ‘अमेझॉन’ का काय म्हणतात ?

घ्या आता  हेच बघायचे राहिले होते मी म्हणतच होतो ‘सखाराम गटनेने’ अजून ‘व्हाट्सअप वर’ चारोळी कशी पाठवली नाही ते. बघ काय म्हणतोय तो :-

हेल्मेट सक्तीने पुण्यात

सगळ्यांना आली ‘फिट’

अन ‘भाई’  ऐन हिवाळ्यात

एकदम होणार ‘हिट’

आपलाच  – सखाराम गटणे

चितळे मास्तरांनी तर आज शाळेच्या मुलांना सहलीला नेतो म्हणून ‘भाई’ दाखवायचं ठरवलं आहे, बरं का सुनीता

भाई  किती प्रेम आहे तुझे तुझ्या या पात्रांवर आणि त्यांचे तुझ्यावर. आता फक्त एवढे सांगू नकोस की ती  रत्नागिरी  – मुबंई बसच्या वाटेत हातखंब्याला आडवी आलेली

“म्हैस”  कोथरूडला सिटीप्राईडचा प्रागंणात रवंथ करत लाडक्या ‘भाईची’ वाट बघतेय आणि  तिने दिलेल्या शेणाच्या  गोण्यांची शेकोटी करून ‘नाथा कामत’, नंदा प्रधान, अण्णा वडगावकर, नामू परीट, गजा खोत, रावसाहेब तिकीटाच्या रांगेत उभे आहेत.

?

अगदी बरोबर सुनीता, आणि तो नारायण  तिकीटाच्या रांगेत स्वतःच्या नावाचा दगड ठेऊन, सगळ्यासाठी पॉपकॉर्न रूपी लाह्या फुटाणे आणायला पळालाय.

किती चेष्टा करशील  सुनीता तू माझी, हे काय वय आहे का? आपण स्वर्गात आलोय आपण आता पुण्यात नाही आहोत. काल रात्री झोपेत काय गाणं बडबडत होतीस माहीत आहे?

‘भाई भाई, व्यक्ती वल्लीचा, कसा सिनेमा घडला, बाई बाई’

नशीब ‘आचार्य अत्रे’ बाजूला ढाराढुर झोपले होते नाहीतर आज काळी पूर्ण गाण्यांसह

‘झेंडूच्या फुलांचा’ हार गळ्यात पडला असता आपल्या

भाई, ते जाऊ दे. चला ना जरा लवकर निघून मस्त  पर्वतीवर जाऊन सारसबागेतील गणपतीचं दर्शन घेऊ.

मी तर म्हणतो सुनीता  एक दिवसाची रजा टाकू स्वर्गात. तू म्हणतीस तसे पर्वतीवर जाऊ, सारसबागेत जाऊन स्वेटर घातलेल्या बाप्पाचे दर्शन घेऊ, सिनेमा बघू, आणि हो  तुझ्या मनातले

तुळशीबागेत संध्याकाळी जाऊ, सर्व देव -गणांसाठी  चितळ्यांची अंबा बर्फी आणि बाकरवडी घेऊ  आणि *सगळ्यात महत्वाचे* रात्री मुक्कामाला डेक्कनला  “मालती – माधव” मधै जाऊन  त्या चोराने पुस्तकाचा घातलेला पसारा आवरु  अन सकाळच्या

आपल्या लाडक्या  ‘दक्खनच्या राणीने’ मुंबई पर्यत जाऊ.

परतीचे  पुष्पक विमान  मुंबई हुन  सोडण्याची विनंती करायला भाई  चित्रगुप्तां कडे गेले. पाठमो-या भाईंकडे पाहताना सुनीता ताईंना त्यांचे गुणगुणे  ऐकू आले

हृदयांबुजी लीन लोभी अली हा !

मकरंद ठेवा लुटण्यासी आला  !

बाधी जीवाला सुखाशा मनी !!

*मर्म बंधातली ठेव ही* !!!

*भाई, खूप खूप शुभेच्छा*

 

©  श्री अमोल अनंत केळकर

३/१/१९

नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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