हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

पहर पहर दिन चढ़ गया, पकी समय की धूप।

आंखों में अंजन लगा, सपनों का प्रारूप।।

 

ग्रंथ, पिटक किया पुस्तकें, कर न सके उद्धार।

मुक्ति चाहिए तो भरो, अपने मन में प्यार।।

 

प्यार नहीं करता कभी, प्रियतम को स्वच्छंद।

यदि उसका ही वश चलें, रखे नयन में बंद।।

 

धड़कन बढ़ती हृदय की, सुनने को पदचाप।

दीवारें ही गुन रही, मन का मौन प्रलाप।।

 

पागल के पल भोगता, पल पल है बैचेन।

कहां चैन की चांदनी, खोज रहे हैं नैन।।

 

आस उड़ी बनकर तुहिन, हत आशा अंगार।

दरपन दरका तो हुआ, नष्ट भ्रष्ट  श्रृंगार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 30 – अँधियारा जोड़ रहा …☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “अँधियारा जोड़ रहा … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 30– ।। अभिनव गीत ।।

☆ अँधियारा जोड़ रहा … ☆

उतर गई

मगरे* से धूप

 

इघर-उधर फैल गया

कहरीला सन्नाटा

अँधियारा जोड़ रहा

दिन भर का घाटा

 

रोशनी नहीं

दिखी अनूप

 

लालटेन जल्दी में

ढिबरियाँ तलाशती

ओसारे में सिमटी

बड़ी बहू खाँसती

 

देवर चुप खड़ा

शिव सरूप

 

ससुर बहुत दीन

खूब चिटखाता उँगलियाँ

साँस थामतीं भरसक

सासू की पसलियाँ

 

धान फटकती

भरभर सूप

 

* मगरे= कच्चे घरों में खपरैल का ऊपरी हिस्सा

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-12-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अपनापन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ अपनापन … ☆

 

मिलावट बीजों में है या

माटी ने रंग बदला है

सचमुच नहीं जानता मैं…,

अपनापन बो कर भी, ताउम्र

अकेलापन काटता रहा मैं…!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रातः 8:43 बजे 25.12.18

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 76 ☆ व्यंग्य – समर्थन मूल्य ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक समसामयिक व्यंग्य  “समर्थन मूल्य“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 76

☆ व्यंग्य – समर्थन मूल्य ☆

सब तरह के किसान परेशान हैं। भूख हड़ताल कर रहे हैं, अपने हक की मांग के लिए हड्डी गलाने वाली ठंड में ठिठुर रहे हैं। उधर दिल्ली के बाहरी इलाके में हजारों किसान पचीस दिनों से कड़कड़ाती ठंड में डटे हुए हैं, और इधर आधा बीघा जमीन का पट्टा बनवाने के लिए लंगोटी लगाए एक किसान पटवारिन बाई के पचास दिन से चक्कर पे चक्कर लगाए जा रहा है। जब समय खराब आता है तो सब तरफ से वक्त परीक्षा लेता है किसान के पुराने पट्टे को चूहों ने कुतर दिया था, उसके घर में मंहगी संदूक होती तो चूहों की हिम्मत न होती, भूखे किसान के घर में कुछ नहीं मिला तो भूमि के पट्टे को खा गए, पता नहीं ऊपर का पन्ना कैसे छोड़ दिया,अब वो पन्ना देखकर पटवारिन कह रही है कि नई  बनवाने के लिए एफआईआर दर्ज कराओ चूहों के खिलाफ।

भटकते भटकते जब पांव की बिवाईं फट के चिल्लाईं तो बात एक टुटपुंजिया पत्रकार तक पहुंच गई। पत्रकार अखबार का ऐजेंट था, दलाली भी करता था ,इस पार्टी से उस पार्टी में कूद फांद भी करता था। पत्रकार के पास किसान को लाया गया, किसान घबराया सा आया । पत्रकार टुटपुंजिया हो और दलाल भी हो तो किसी की भी लंगोटी बेच सकता है। पत्रकार ने पटवारिन से कहा कि कुछ खर्चा पानी लेकर उस बेचारे का पट्टा बना दो बहन। पटवारिन एक न मानी बोली- समर्थन मूल्य का डेढ़ गुना तो लगेगा ही।

पत्रकार बोला – समर्थन मूल्य पर काम कर दो न सरकार।  सरकार कहने पर पटवारिन आग बबूला हो गई बोली- जानते हो कि सरकार किसे बोला जाता है,  बात का बतंगड़ बनते देख किसान गश्त खाकर गिर गया। पत्रकार ने स्थिति बिगड़ते देख पटवारिन से क्षमा मांगी बोला- मेडम आपको गलतफेहमी हो रही है, आप सरकार की प्रतिनिधि हैं और किसान की भूमि के पट्टे बनाने का आपका काम है, इसीलिए किसान की तरफ से निवेदन किया था। पटवारिन का पारा चढ़ गया था….. बोली- तुम कौन होते हो हमें हमारी ड्यूटी बताने वाले, किसान का काम है तो फिरी में थोड़े न होगा, हमारे ऊपर वाले साहबों ने हर काम के समर्थन मूल्य तय कर के रखे हैं, साहब के लघु हस्ताक्षर कराने में हमें ऐड़ी चोटी एक करनी पड़ती है और समर्थन मूल्य तुरंत देना पड़ता है । पास खड़ा एक पढ़ा – लिखा किसान बहुत देर से ये सब सुन रहा था, कहने लगा किसान का पट्टा बनाकर देना आपकी ड्यूटी है इसी बात के लिए तो सरकार आपको वेतन देती है, आज कम्प्यूटर का जमाना है हर काम आनलाइन होता है, ये बात अलग है कि आनलाइन में बैठे कर्मचारी बिना पैसे लिए काम नहीं करते, पैसे न दो तो सर्वर डाउन का बहाना बनाकर चक्कर लगवाते हैं। मेडम ये बताईए कि जब किसान की भूमि का हर काम कम्प्यूटराइज हो गया है तो ये पट्टा आप हाथ से क्यों बनाती हो, इसलिए न कि हर किसान को भूमि का पट्टा चाहिए और पट्टा बिना खर्चा पानी दिए बनेगा नहीं। ये बेचारा गरीब किसान महीने दो महीने से भटक रहा है, इसके पास पैसा नहीं है, ऐसे में ये क्या करे ? पटवारिन झट से बोल उठी कि कहीं से उधार भी तो ले सकता है, और यदि उधार नहीं मिलता तो जमीन रहन रखकर पैसा उठा सकता है। पट्टा बनवाना है तो खर्चा पानी तो लगेगा, हम बना भी देंगे तो हमारा साहब बिना पैसे लिए सील दस्तखत नहीं करेगा। पैसे के मामले में वो बड़ा … है, गरीब हो अमीर हो सबसे निर्धारित समर्थन मूल्य के भाव से हमसे वसूल करता है। तो किसान दादा पहले पैसे का इंतजाम कर लो फिर हमारे पास आना… तुम्ही बताओ घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या ? और दादा तुम्हारे पुराने पट्टे को चूहे भी तो खा गए हैं। पट्टा नहीं रहेगा तो कैसे पता चलेगा कि कि तुम्हारे पास जमीन जायदाद है और तुम अन्नदाता कहलाने के पात्र हो।

किसान के पास पटवारी को देने के लिए खर्चा पानी का कोई जुगाड़ नहीं दिखा, इसलिए पत्रकार और वहां जुड़ गए पढ़े-लिखे किसानों ने तय किया कि जो किसान पटवारी और तहसीलदार से परेशान हैं, वे आमरण अनशन पर बैठेंगे  और सरकार से मांग करेंगे कि अब हर किसान को हाथ से बने भूमि के पट्टे से मुक्ति मिलनी चाहिए। किसान को कम्प्यूटराइज पट्टा निशुल्क दिया जाना चाहिए, तभी से किसानों का आंदोलन चल रहा है,  फर्क इतना है कि वो किसान कोरोना से मर चुका है जिसके पुराने पट्टे को चूहों ने कुतर दिया था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
(टीप- रचना में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।)
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 28 ☆ तुम सा मैं बन जाऊँ ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  कविता  “तुम सा मैं बन जाऊँ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 28 ☆ 

☆ तुम सा मैं बन जाऊँ

हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,

तुम सा मैं चमक उठूं, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

अंधकार के कितने बादल आये,

नीर की कितनी बारिश हो जाये,

रात की कितनी कलिमा छा जाये,

हे भास्कर, हे रवि, सारे अंधकार सारा नीर थम जाये,

तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

हर दिन चन्द्रमा तारे, काली रात को दोस्त बनाकर सबका मन लुभाते हैं,

रात की कलिमा सब प्रेमियों का दिल लुभाते हैं,

ये रात झूठी हो जाये, सूरज की किरणें छूने की आस लगाये,

तू एक उजाला, तू एक सूरज सारे जगत को रोशन करता,

तू असीम, तू अनन्त, तू आरुष का साथी ।

 

हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,

तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #23 ☆ रिश्ते ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है जिंदगी की हकीकत बयां करती एकअतिसुन्दर कविता “रिश्ते”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 23☆ 

☆ रिश्ते ☆ 

यह कैसे रिश्ते हैं

जिनके घाव

जीवन भर रिसते है

कोई मलहम या दवाई

जो आपने घाव पर लगाई

वो गर घाव नहीं भर पाई

तो वो कभी कभी

नासूर बन जाते है

हर कदम पर

तड़पाते हैं

और घाव अगर

भर भी जाये

तो भी टीस

बाकी रहती है

जो आखरी साँस तक

साथ साथ बहती है

पूरा जीवन चक्र भी

अधूरा पड़ जाता है

झूठा अहम बेवजह

अड़ जाता है

अगर कोई बिगड़े

रिश्ते सुधारना भी चाहें

महीन धागों से

बुनना भी चाहें

तो वो, पुरानी बातें

भूल जायें

रिश्तों में

मिठास घोल आयें

तब भी टूटे रिश्ते

जुड़ते जुड़ते

जुड़ते हैं

अथक प्रयास के

बाद ही

सही राह पर

मुड़ते हैं

क्योंकि कटुता

धीमा धीमा ज़हर है

रिश्तों के लिए कहर है

इसलिए,

क्यों ना हम

झूठे “मैं” को

भूल जायें ?

“मैं” की जगह

“हम” को अपनाये ?

क्योंकि मित्र,

रिश्ते बीते हुए

कल की अमानत है

आज के वर्तमान की

हकीकत है

और

आने वाले कल की

वसीयत है।

 

© श्याम खापर्डे 

भिलाई  05/12/20

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१३॥ ☆

 

तस्य स्थित्वा कथम अपि पुरः कौतुकाधानहेतोर

अन्तर्बाष्पश चिरम अनुचरो राजराजस्य दध्यौ

मेघालोके भवति सुखिनो ऽप्य अन्यथावृत्ति चेतः

कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर दूरसंस्थे॥१.३॥

 

हुआ स्तब्ध, चिंतित, प्रिया स्व्पन में रत

उचित जिन्हें लख विश्व चांच्ल्य पाता

उन आषाढ़घन के सुखद दर्शनो से

प्रियालिंगनार्थी हृदय की दशा क्या ?

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 30 ☆ ओढ़ ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 30 ☆ 

☆ ओढ….

ओढ कृष्णाची

मिरेस होती

कृष्ण ध्यासात

पूर्ण निमग्न ती

 

तिला नको होते

अजून ते काही

फक्त एक कान्हा

त्याची होण्यास ती पाही

 

तुपाचा घास तिला

विष भासत होता

प्रत्यक्ष विष प्याला

तिने प्यायला होता

 

दिली विष परीक्षा

ओढ प्रबळ झाली

त्या मुळेच विष

अमृतवेल बनली…

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ दृष्टीकोन ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

☆ कवितेचा उत्सव ☆ दृष्टीकोन ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे 

निसर्गचित्र पाहून ती म्हणाली

बघ आभाळ

मी म्हणालो स्वप्नांचे विश्व.

 

ती म्हणाली वाहते पाणी.

मी म्हणालो जागृत जीवन

 

ती म्हणाली फुले

मी म्हणालो समर्पण

 

ती म्हणाली मार्ग दगडाचा

मी म्हणालो विकासाचा संघर्ष.

 

ती म्हणाली बैलबंडी

मी म्हणालो गतीचे सहजीवन

 

ती म्हणाली डोंगराची रांग

मी म्हणालो  हिम्मत संघर्षाची

 

ती म्हणाली उगवता सूर्य

मी म्हणालो जगाचा पोशिंदा

 

ती म्हणाली शेत,शेतकरी

मी म्हणालो निर्मितीचा आनंद

 

ती म्हणाली अरे निसर्ग हा

मी म्हणालो दृष्टिकोन जीवनाचा

 

© श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

चंद्रपूर,  मो. 9822363911

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अजि म्या भूत पाहिले…. भाग-1 ☆ सौ ज्योती विलास जोशी

सौ ज्योती विलास जोशी

☆ जीवनरंग ☆ अजि म्या भूत पाहिले…. भाग-1 ☆ सौ ज्योती विलास जोशी

(करोनाचं हे दुसरं भूत….)

‘करोना’ नावाच्या एका अस्मानी संकटाने सगळ्यांची बोलती बंद केली हे जरी खरं असलं तरी,आम्ही मात्र सर्व त्याच्याविषयीच बोलू लागलो.

आताशा करोनाच्या नावाने बोटं मोडीत दिवस सुरु होतो अन् त्याला शिव्या शाप देत संपतो. आम्हा चांडाळ चौकडीच्या गप्पांच्या कट्ट्यावर देखील या करोनानेच धुमाकूळ घातला आहे.

त्यात आमचा ‘पाटण्या’ म्हणजे पाटणकर रोजची करोना अपडेट देणार! मग काय विचारता…तो येताच करोना जणू आम्हा सर्वांच्या काया प्रवेश करतो आणि आपले अस्तित्व दाखवू लागतो.

पाटणकर म्हणजे एक अजब रसायन आहे. भविष्याची चिंता नसलेला, भूतकाळात डोकावणारा, आणि वर्तमानाला प्रेझेंट समजून चालणारा असा हा, थापा मारतो की बाता हे आम्हाला अजून उमगलेले नाही.

त्याच्या थापा म्हणाव्यात तर तो आम्हा कुणाचेही थापा मारून नुकसान करीत नाही किंवा त्याच्या बोलण्याने आम्हा कुणाचीही फसवणूक होत नाही. आणि बाता म्हणाव्यात तर त्याच्या बोलण्याला एक सत्याची झालर असते.

थापा असोत वा बाता, स्वतःची टिमकी वाजवायला तो कधीही विसरत नाही.

असाच तो आजही कट्ट्यावर आला ते ‘अजि म्या ब्रह्म पाहिले’ हे गाणे गुणगुणत.

“आज अचानक करोनाला बगल देऊन एकदम विठुरायाचा काया प्रवेश? ‘गो करोना’ म्हटलेलं ऐकलं की काय करोना ने?” मी पाटणकरला टोकलं.

“अरे,आज एकादशी. सकाळी-सकाळी कानावर पडलेलं गाणं मनात रुंजी घालतय तेच गुणगुणत  आलोय झालं!” पाटणकरने  गाणे गाण्याचं प्रयोजन सांगितलं.

“आता पूर्ण गाणं म्हण” आम्ही आग्रह धरला. आणि आशा ताईंच्या आवाजातील हे गाणे पठ्ठ्याने पूर्ण म्हटलं की हो!

आज ना तो नेहमीसारखा न्यूज रीडरच्या भूमिकेत होता, ना करंट विषयावर बोलायच्या मूडमध्ये! स्वतःचे बूड स्थिरस्थावर करून तो म्हणाला, “अरे यार, मी काल एक स्वप्न बघितले.आणि त्या स्वप्नात एक भूत!”

आम्ही तिघांनीही एकदम एकमेकांकडे पाहिलं. पाटणकरचे स्वप्न म्हणजे एक शुद्ध आणि स्वच्छ थाप असणार असे आम्हा तिघांना एकाच क्षणी वाटलं असा वे. पण दुसऱ्याच क्षणी रोजच्या, करोना भूताच्या चावून चोथा झालेल्या विषयापेक्षा पाटणकरच्या स्वप्न नगरीत जायचे आम्ही तिघांनी ठरवले.

“अरे पाटणकर रात्रभर पाहिलेले स्वप्न एक तासात सांगून पूर्ण होणार का? माझा खोचक प्रश्न त्याला विशेष आवडला नाही. “नाही म्हणजे तीन तासाचा पिक्चर पण त्याची स्टोरी सांगायला तुला सहा,साडे सहा तास लागतात म्हणून म्हटलं, ”मी माझी सफाई दिली.

“अरे ऐका रे” त्याने दटावले. स्वतःच्या स्वप्न सफरीवर आम्हाला न्यायला तो उतावळा झाला होता.

करोनामय वातावरण रंजक होईल म्हणून आम्ही ही त्याच्या बोलण्याच्या दिशेने कान टवकारले. पाटणकरने आपल्या स्वप्ननगरी चे दार उघडले.

क्रमशः….

© सौ ज्योती विलास जोशी

इचलकरंजी

मो 9822553857

jvilasjoshi@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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