हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ पारदर्शी परसाई ☆ – डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

 

(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  का हृदय से आभार।)

 

✍  संस्मरण – पारदर्शी परसाई  ✍

 

अगस्त 1995, अमेरिका के सेराक्यूज नगर में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति, के अधिवेशन में अपना वक्तव्य देकर बैठा ही था कि जबलपुर घर से फोन संदेश मिला…परसाई जी नहीं रहे। कलेजा धक्क, मैं स्तब्ध। मैंने अपने को संभालते हुए आयोजकों को सूचित किया। ‘श्रद्धांजलि का जिम्मा संभाला’ भरे मन से कुछ कहा। अधिवेशन की समाप्ति पर विभिन्न देशों से प्रतिनिधियों ने मुझसे मिलकर संवेदना प्रकट की। देर तक परसाई चर्चा चली। मन शोकाकुल था किंतु गर्व हो रहा था अपने परसाई की लोकप्रियता पर।

दुनिया के 40 देशों तक परसाई पहुंच चुके थे। किंतु, देश प्रदेश में उनका मान था जब तक वह चलने फिरने लायक थे उन्हें मोटर स्टैंड पर भाई रूपराम की पान की दुकान से, श्याम टॉकीज के सामने रामस्वरूप के पान के ठेले के सामने बिछे तख्त पर या यूनिवर्सल बुक डिपो में आसानी से देखा मिला जा सकता था। यदा-कदा वे स्व. नर्मदा प्रसाद खरे के लोक चेतना प्रकाशन और नवीन दुनिया के चक्कर भी लगा लेते थे।

मेरे आग्रह पर वे तकलीफ के बावजूद ‘मित्र संघ’ के कार्यक्रमों में भी आते रहे। परसाई जी से मेरे पितामह स्व. पंडित दीनानाथ तिवारी के आत्मीय सम्बंध थे। मेरा परिचय कब हुआ याद नहीं। मैं उनका मित्र नहीं, स्नेह भाजन था। किंतु उनका व्यवहार सदैव मित्रवत रहा। निकट संपर्क में आया 1957-58 में, जबकि मैं साप्ताहिक परिवर्तन के संपादक स्व. दुर्गा शंकर शुक्ल का सहयोगी बना। परसाई ‘अरस्तु की चिट्ठी’ कॉलम लिखते थे और उसे समय पर लिखवाने का जिम्मा मेरा था। उन दिनों परसाई जी लक्ष्मी बाग में रहते थे। मैं एक दिन पहले ही जाता और अगले दिन का समय ले लेता। दूसरे दिन अक्सर ऐसा होता-मुझे देखते ही वे कहते, अरे तुम आ गए. बैठो चाय पियो। बस अभी हुआ जाता है। मैं समझ जाता कि कॉलम अभी लिखा नहीं गया है। ऐसा समझने का कारण था- परसाई बहुधा एक ‘स्ट्रोक’ में लिखते थे। सो, मैं चाय पी कर, आम के झाड़ के नीचे पड़ी खाट पर बैठ जाता। पूरा होता और मैं उसे लेकर चल पड़ता।

‘परिवर्तन’ छोड़कर मुझे छत्तीसगढ़ जाना पड़ा। एक अरसे बाद लौटा। सतना क्वाटर के सामने की सड़क पर परसाई जी मिल गए. पूछा- बहुत दिनों में दिख रहे हो, कहाँ हो?

मैंने कहा—छत्तीसगढ़ में हूँ।

बोले… क्या कर रहे हो?

मैंने संकोच से कहा—क्या बताऊँ।

उन्होंने कहा—फिर भी क्या कर रहे हो?

मैंने फिर कहा… क्या बताऊँ?

परसाई जी तत्काल बोले—समझ गया मास्टरी कर रहे हो। सोचता रहा इनकी संवेदना युक्त व्यंग दृष्टि के बारे में।

प्रेमचंद स्मृति दिवस का कार्यक्रम था। परसाई जी मुख्य अतिथि थे। प्रेमचंद जी का चित्र मंच पर रखा था, उसमें जो जूता पहने थे, पटा नजर आ रहा था। परसाई जी ने प्रेमचंद के फटे जूते से ही बात शुरू की।

कार्यक्रम के बाद मैं अपने जूते तलाशने लगा… नीचे एक जोड़ी वैसे ही फटे जूते पड़े थे जैसे प्रेमचंद जी ने पहने थे तस्वीर में। तब मैंने ‘नवीन दुनिया’ मैं लिखा था—प्रेमचंद के फटे जूते देखे हरिशंकर परसाई ने, पाये राजकुमार ‘सुमित्र’ ।

मैं परसाई जी को बड़ा भाई मानता था और ‘बड़े भैया’ कहता भी था। यदा-कदा उनके घर जाता चरण स्पर्श करता। वह मना करते। लेकिन जब चलने में असमर्थ हो गए तब पलंग पर पैर फैला कर तकिए से टिककर बैठते थे। तब कहते—लो तुम्हें सुभीता हो गया। अब तो मैं कुछ कर भी नहीं सकता।

बहुधा उनकी ‘चिट’ लेकर नए कवि लेखक मेरे पास आते। लिखा रहता—प्रिय मित्र इन पर ध्यान देना। ‘इन्हें छाप देना’ उन्होंने कभी नहीं लिखा। आज उन ढेर ‘चिटों’ को देखता हूँ, उनके हस्ताक्षर। याद करता हूँ उनका बड़कपन।

सन 1980 के पहले की बात है। मैं बलदेव बाग में नवीन दुनिया प्रेस में बैठा काम कर रहा था। कुर्ता पजामा पहने एक सज्जन ने आकर नमस्कार किया। मैंने उन्हें बैठने का इशारा किया और काम पूरा करने में लग गया। काम निपटा कर पूछा—कहिए.

मैं बशीर अहमद ‘मयूख’ नाम सुनते ही मैं खड़ा हो गया उनसे क्षमा मांगी। सरल ह्रदय ‘मयूख’ जी ने कहा—परसाई जी के पास से आ रहा हूँ, उन्होंने मिलने के लिए कहा। घटना जरा-सी थी लेकिन मेरा मन सजल कर गई.

रानी दुर्गावती संग्रहालय में साहित्य परिषद का एक समारोह था—परसाई जी के सम्मान में। प्रशस्ति पत्र और पुरस्कार राशि लेकर आए थे भाई सोमदत्त। सोमदत्त ने परसाई जी के योगदान को रेखांकित करते हुए उन्हें प्रशस्ति पत्र सौंपा। परसाई ने टोका असली चीज कहाँ है? सोमदत्त ने मुस्कुराते हुए और उनका राशि का चैक उनकी ओर बढ़ाया। कहा—इसे कैसे भूल सकता हूँ। परसाई जी ने कहा—तुमसे भूल ना हो इसलिए मैंने याद दिलाई.

पूरा हाल ठहाकों से गूंज उठा…

राजर्षि श्री परमानंद भाई पटेल की एक पुस्तक प्रकाशित हुई. पटेल साहब ने परसाई जी का अभिमत जानना चाहा। मुझसे कहा। मैं परसाई जी के पास पहुंचा। कुछ लिखने का आग्रह किया और परसाई जी ने पटेल साहब के अध्ययन की प्रशंसा करते हुए उनके मत से असहमति जताई. मैं प्रसन्न था कि मेरे आग्रह की रक्षा हो गई और पटेल साहब प्रसन्न थे परसाई जी की स्पष्टवादिता से। कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की उक्ति है…

‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तो लिख।’

यही परसाई जी का मूल मंत्र था।

जिससे जो कहना होता बिना लाग-लपेट के कह देते… उनकी कहानी है… दो नाक वाला आदमी। कहानी पढ़कर स्व. नर्मदा प्रसाद खरे ने कहा। क्यों यार, यारों पर भी चोट।

परसाई बोले… आपने चोट का मजा लिया यह बड़ी बात है। मेरी चोट प्रवृत्ति पर है।

संस्मरण अनेक है अंत में प्रस्तुत है…

परसाई जी के घनिष्ठ मित्र कवि व्यंग्यकार प. श्रीबाल पांडे जी के जेष्ठ पुत्र शेषमणि की बरात करेली जानी थी। हम सब पांडे जी के घर इकठ्ठे हो गए। परसाई जी ने मेरा बैग बुलाया और उसमें कुछ रख दिया। बारात करेली पहुंची। शाम को मुंह हाथ धोकर हम लोग बैठे। परसाई जी बोले—चलो भाई अब संध्या वंदन हो जाए। फिर उन्होंने मेरे बैग में रखा सामान निकाला। सामान क्या था, अखबारों में लिपटी एक बोतल थी। परसाई जी ने हिला डुलाकर बोतल देखी। सील देखी जो कि सलामत थी। फिर मुझे सम्बोधित करते हुए कहा—यार ज़िन्दगी में तुम पहले आदमी मिले जिसने मेरी अमानत में खयानत नहीं की।

पांडे जी अट्टहास कर बोले—सुमित्र बाहुबली दूध भंडार के ग्राहक हैं। सुरासेवन इनके वश का नहीं ।

 

© डॉ. राजकुमार सुमित्र

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक ☆ अतिथि संपादक की कलम से ……. परसाई प्रसंग ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है। इस विशेषांक के लिए  सम्पूर्ण सहयोग एवं अतिथि संपादक  के  दायित्व का आग्रह स्वीकार करने के लिए हृदय से आभार। ) 

 

✍ अतिथि संपादक की कलम से ……. परसाई प्रसंग ✍

 

जब परसाई जी ने अपने सम्पादन में पहली पत्रिका वसुधा 1956 में निकाली थी, उसके साल भर बाद हम इस धरती के पिछड़े गांव के चूल्हे के सामने प्रगट रहे होंगे। जब जवान हुए और लिखना पढ़ना शुरू किया तो हमारी महत्वाकांक्षा थी कि बड़े होकर परसाई बनेंगे, पर कालेज के दिनों से जब से परसाई जी के सम्पर्क में आये और उनका विराट रूप देखा, उनकी रचनाएँ पढ़ी, “गर्दिश के दिन” में भोगे घोर कष्टों का वर्णन पढ़ा, उनसे लम्बा साक्षात्कार लिया फिर हमने परसाई बनने का विचार त्याग दिया। नेपथ्य में चुपचाप थोड़ा बहुत रचनात्मक कामों में लगे रहे, पढ़ते रहे लिखते रहे।

पूना से प्रतिदिन ई-अभिव्यक्ति पत्रिका श्री हेमन्त बावनकर के संपादन में निकलती है, हेमन्त जी ने वाटस्अप पर मेसेज किया फिर फोन भी किया कि 22 अगस्त को परसाई जी का जन्मदिन है आज 20 अगस्त है क्या एक दिन में परसाई पर केंद्रित ई-अभिव्यक्ति पत्रिका का विशेषांक निकाला जा सकता है हमने उनका मनोबल बढ़ाते हुए सहयोग करने का वचन दिया और प्रेरित किया कि डिजिटल युग में सब संभव है।

हेमन्त बावनकर जी ने तुरत-फुरत वाटस्अप पर सभी को सूचना भेजी हमने दूरभाष पर मित्रों से बात की और मात्र एक दिन में मित्रों से लेख, संस्मरण, रचनाएं आदि ईमेल से प्राप्त कीं। बैंगलोर में बैठे ई-अभिव्यक्ति पत्रिका के संपादक हेमन्त जी को रचनाएं ईमेल से दनादन भेजीं, परसाई के नाम पर दूर-दराज से मित्रों ने परसाई पर लेख, संस्मरण, आदि भेज दिये और हेमन्त बावनकर जी ने इन्हें सलीके और तरीके से सजा कर परसाई के इस विशेषांक को ऐतिहासिक दस्तावेज में तब्दील कर दिया। इस प्रकार अल्प समय में किया गया प्रयास मुमकिन हुआ। हिन्दी साहित्य में परसाई ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक माने जाते हैं। आजादी के बाद आज तक वे व्यंग्य के सिरमौर बने हुए हैं, 1947 से 1995 के बीच परसाई जी की कलम ने घटनाओं के भीतर छिपे संबंधों को उजागर किया है, एक वैज्ञानिक की तरह उसके कार्यकारण संबंधों का विश्लेषण किया है और एक कुशल चिकित्सक की तरह उस नासूर का आपरेशन भी किया। वे साहित्यकार के सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहेे और अपनी रचनाओं से जन जन के बीच लोक शिक्षण का काम किया।

परसाई जी के जन्मदिन पर डिजिटल माध्यम से उन पर क्रेदिंत अंक का निकलना हमारे समय और समाज तथा ई-अभिव्यक्ति पत्रिका की बड़ी उपलब्धि है। अल्प समय में जिन मित्रों ने तुरत-फुरत रचनाएं भेजीं उनका तहेदिल से आभार। परसाई जी के जन्मदिन पर प्रथम डिजिटल विशेषांक निकालने के लिए पत्रिका के संस्थापक और संपादक श्री बावनकर जी को साधुवाद।

 

जय प्रकाश पाण्डेय

(अतिथि संपादक)

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 38 – हेमन्त बावनकर

 

ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 38 

 

परसाई स्मृति अंक – 22 अगस्त 2019 

 

आदरणीय गुरुवर डॉ राजकुमार सुमित्र जी और आचार्य भगवत दुबे जी के आशीर्वाद एवं मित्र द्वय श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के अथक प्रयास तथा डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी के सहयोग से विगत 24 घंटों के समय में यह अविस्मरणीय अंक कुछ विलंब से ही सही आपको इस आशा से सौंप रहा हूँ कि आपका भरपूर स्नेह और आशीर्वाद मिलता रहेगा।

मैं श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का हृदय से आभारी हूँ  जिन्होने इतने कम समय पर अमूल्य सामग्री/साहित्य/अप्रकाशित/ऐतिहासिक तथ्य एवं चित्र जुटाये। साथ ही उनके अतिथि संपादकीय के आग्रह स्वीकार करने के लिए हृदय से आभार।

श्रद्धेय परसाई जी पर डिजिटल मीडिया में संभवतः यह प्रथम प्रयास होगा।

 

हेमन्त बवानकर 

22 अगस्त 2019

 

(अपने सम्माननीय पाठकों से अनुरोध है कि- प्रत्येक रचनाओं के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स का उपयोग अवश्य करें और हाँ,  ये रचनाओं के शॉर्ट लिंक्स अपने मित्रों के साथ शेयर करना मत भूलिएगा। आप Likeके नीचे Share लिंक से सीधे फेसबुक  पर भी रचना share कर सकते हैं। )

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ इस तरह गुजरा जन्मदिन ☆ – स्व. हरिशंकर परसाई

स्व.  हरीशंकर परसाई 

(परसाई जी अपना जन्मदिन मनाने के कभी भी समर्थक नहीं रहे हैं। किन्तु, हम लोगों ने बिना उनकी अनुमति के सन 1991 में जबलपुर में तीन दिवसीय वृहद् जन्मदिन का आयोजन करने का साहस किया था, जिसमें भारतीय स्टेट बैंक ने भी  उनका सम्मान किया था।। अब तो परसाई का जन्मदिन मनाये जाने की होड़ सी लगी है अब सबको लगने लगा है  कि परसाई का जन्मदिन मनाने से धन एवं यश मिलता है। – जय प्रकाश पाण्डेय)

स्मृतियाँ –

भारतीय स्टेट बैंक के महाप्रबंधक श्री जाखोदिया भोपाल से परसाई को सम्मानित करने उनके घर गए थे।
इस चित्र में परसाई जी के साथ बाल नाट्यकर्मियों का दल है जिन्होंने सदाचार का तावीज रचना पर नाटक किया था। प्रसिद्ध नाट्यकार श्री वसंत काशीकर जी द्वारा लिखित यह नाटक हम इसी अंक में प्रकाशित कर रहे हैं।

 

✍ इस तरह गुजरा जन्मदिन✍

– हरिशंकर परसाई

 

(अपने जन्मदिन पर उन्होने एक व्यंग्य-संस्मरण  लिखा था “इस तरह गुजरा जन्मदिन”। उनका यह व्यंग्य-संस्मरण हम यहाँ उद्धृत कर रहे हैं।)

 

तीस साल पहले 22 अगस्त को एक सज्जन सुबह मेरे घर आये। उनके हाथ में गुलदस्ता था। उन्होंने बड़े स्नेह और आदर से मुझे गुलदस्ता दिया। मैं अचकचा गया। मैंने पूछा यह क्यों? उन्होंने कहा  आज आपका जन्मदिन है न। मुझे याद आया मैं 22 अगस्त को पैदा हुआ था। यह जन्मदिन का पहला गुलदस्ता था। वे बैठ गए। हम दोनों अटपटे से और बैचैन थे। कुछ बातें होती रहीं। उनके लिए चाय आयी वे मिठाई की आशा कर रहे होंगे। मेरी टेबल में फूल भी नहीं थे वे समझ गए होंगे कि सबेरे से इनके पास कोई नहीं आया। इसे कोई नहीं पूछता। लगा होगा जैसे शादी की बधाई देने आए हैं और इधर घर में रात को दहेज की चोरी हो गई हो। उन्होंने मुझे जन्मदिन के लायक भी नहीं समझा तब से अभी तक उन्होंने मेरे जन्मदिन पर आने की गलती नहीं की, धिक्कारते होगें कि कैसा निकम्मा लेखक है कि अधेड़ हो रहा है मगर जन्मदिन मनवाने का इंतजाम नहीं कर सका, इसका साहित्य अधिक दिन टिकेगा नहीं। हाँ अपने जन्मदिन के समारोह का इंतजाम खुद करने वाले मैने देखे हैं जन्मदिन ही क्यों स्वर्ण जयंती और हीरक जयंती भी खुद आयोजित करके ऐसा अभिनय करते हैं जैसे दूसरे लोग उन्हें यह कष्ट दे रहे हैं। सड़क पर मिल गए तो कहा – परसौं शाम के आयोजन में आना भूलिए मत। फिर बोले – मुझे क्या मतलब?  आप लोग आयोजन कर रहे हैं आप जानें।

चार – पांच साल पहले मेरी रचनावली का प्रकाशन हुआ था  उस साल मेरे दो – तीन मित्रों ने अखबारों में मेरे बारे में लेख छपवा दिए जिनके ऊपर छपा था 22 अगस्त जन्मदिन के अवसर पर। मेरी जन्म तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है यह गलत है वास्तव में सन 1922 है।। मुझे पता नहीं मेट्रिक के सर्टिफिकेट में क्या है। मेरे पिता ने स्कूल में मेरी उम्र दो साल कम लिखाई थी  इस कारण कि सरकारी नौकरी के लिए मैं जल्दी “ओवरएज” नहीं हो जाऊं। इसका मतलब है झूठ की परंपरा मेरे कुल में है। पिता चाहते थे कि मैं “ओवरएज” नहीं हो जाऊं मैंने उनकी इच्छा पूरी की। मैं इस उम्र में भी दुनियादारी के मामले में “अंडरएज” हूं।

लेख छपे तो मुझे बधाई देने मित्र और परिचित आये। मैंने सुबह मिठाई बुला ली थी। मैंने भूल की। मिलने वालों में चार – पांच मिठाई का डिब्बा लाए। और इतने में निपट गये। अगले साल मैंने सिर्फ तीन – – चार के लिए मिठाई रखी पांचवें सज्जन मिठाई का बड़ा डिब्बा लेकर आ गये फिर हर तीन चार के बाद हर कोई मिठाई लिए आता  मिठाई बहुत बच गई, चाहता तो बेच देता और मुआवजा वसूल कर लेता। ऐसा नहीं किया, परिवार और पडोस के बच्चे दो  तीन दिन खाते रहे।

इस साल कुछ विशेष हो गया। जन्मदिन का प्रचार हफ्ता भर पहिले से हो गया। सुर्य ग्रहण चन्द्रग्रहण के घंटों पहले उसके “वेद” लग जाते हैं ऐसा पंडित बताते हैं “वेद” के समय में कुछ लोग नहीं खाते। वेद यानी वेदना…. राहू केतु के दांत गडते होगें न। मेरा खाना पीना तो नहीं छूटा वेद की अवधि में। पर आशंका रही कि इस साल क्या करने वाले हैं यार लोग। प्रगतिशील लेखक संघ के संयोजक जय प्रकाश पाण्डेय आये और बोले – इक्कीस तारीख की शाम को एक आयोजन रखा है उसमें एक चित्र प्रदर्शनी है और आपके साहित्य पर भाषण है। बिहार के गया से डाॅ सुरेंद्र चौधरी आ रहें हैं भाषण देने। अंत में आपकी कहानी “सदाचार के ताबीज” का नाटक है। मैंने कहा – नहीं  नहीं बिलकुल कोई आयोजन मत करो। मैं बिल्कुल नहीं चाहता। जय प्रकाश पाण्डेय ने कहा कि मैं आपकी मंजूरी नहीं ले रहा हूं,  आपको सूचित कर रहा हूं। आपको रोकने का अधिकार नहीं है। आपने लिखा और उसे प्रकाशित करवा दिया अब उस पर कोई भी बात कर सकता है। इसी तरह आपके जन्मदिन को कोई भी मना सकता है, उसे आप कैसे और क्यों रोकेंगे।

वहीं बैठे दूसरे मित्र ने कहा – हो सकता है मुंबई में हाजी मस्तान आपके जन्मदिन का उत्सव कर रहे हों तो। आप क्या उन्हें रोक सकते हैं।  तर्क  सही था, मेरे लिखे पर मेरा सिर्फ़ रायल्टी का अधिकार है मेरा जन्मदिन भी मेरा नहीं है और मेरा मृत्यु दिवस भी मेरा नहीं होगा। यों उत्सव, स्वागत, सम्मान का अभ्यस्त हूँ फूल माला भी बहुत पहनी है गले पडी माला की ताकत भी जानता हूं। अगर शेर के गले में किसी तरह फूलमाला डाल दी जाए तो वह भी हाथ जोड़कर कहेगा –  मेरे योग्य सेवा…….. आशा है कि अगले चुनाव में आप मुझे ही वोट देंगे।

आकस्मिक सम्मान भी मेरा हुआ। शहर में राज्य तुलसी अकादमी का तीन दिवसीय कार्यक्रम था, जलोटा का तुलसीदास के पद गाने के लिए बुलाया गया था। पहले दिन सरकारी अधिकारी मेरे पास आए, कार्यक्रम की बात की।फिर बोले कल सुबह पंडित विष्णुकांत शास्त्री और पंडित राममूर्ति त्रिपाठी पधार रहे हैं। विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता वाले से मेरी कई बार भेंट की है, त्रिपाठी जी से भी अच्छे संबंध है। अधिकारी ने कहा – वे आपसे भेंट करेंगे ही  उन्हें कब ले आऊं ? मैंने कहा – कभी भी   तीनेक बजे ले आईये।। दूसरे दिन सबसे पहले जलोटा आये। फिर तीन प्रेस फोटोग्राफर आये। मैं समझा ये लोग।हम लोगों का चित्र लेगें,  फिर पंडित शास्त्री और पंडित त्रिपाठी कमरे में घुसे। मेरे मुँह से निकला……..

“सेवक सदन स्वामि आगमनू

मंगल करन अमंगल हरनू”

शास्त्री ने कहा – नहीं बंधु   बात यों है  “एक घड़ी आधी घड़ी में पुनि आय, तुलसी संगत साधू की हरै कोटि अपराध”

हम बात करने लगे। इतने में वही सरकारी अधिकारी ने जाने कहां से एक थाली लेकर मेरे पीछे से प्रवेश कर गए  थाली में नारियल, हल्दी, कुमकुम  अक्षत और रामचरित मानस की पोथी थी। पुष्पमाला भी थी। मैं समझा कि विष्णुकांत शास्त्री का सम्मान होना है, मैंने कहा  बहुत उचित है   शास्त्री कब कब कलकत्ता से आते हैं उनका सम्मान करना चाहिए। शास्त्री जी बोले – नहीं महराज,  आपका सम्मान है ।

वे लोग चकित रह गए जब मैंने उसी क्षण अपना सिर टीका करने के लिए आगे बढ़ा दिया  वे आशा कर रहे थे कि मैं संकोच बताऊंगा, मना करूंगा  मैंने टीका करा लिया, माला पहिन ली नारियल और पोथी ले ली।

दूसरे दिन अखबारों में छपा – तुलसी अकादमी वाले दोपहर को परसाई जी के घर में घुस गए और उनका सम्मान कर डाला…….

ऐसी बलात्कार की खबरें छपती हैं। इक्कीस तारीख की शाम को (बर्थडे ईन) एक समारोह मेरी अनुपस्थिति में हो गया। भाषण, चित्र, प्रदर्शनी, नाटक।

दूसरे दिन जन्मदिन की सुबह थी। मैं सोकर उठा ही था कि पडोस में रहने वाले एक मित्र दम्पति आ गये, मुझे गुलदस्ता भेंट किया और एक लिफाफा दिया। बोले – हैप्पी बर्थडे। मेनी हैप्पी रिटर्न। मैंने सुना है कि मातमपुरसी करने गए एक सज्जन के मुंह से निकल पड़ा था – – मेनी हैप्पी रिटर्न। कम अग्रेजी जानने से यही होता है। एक नीम इंग्लिश भारतीय की पत्नी अस्पताल में भर्ती थी, उनको एंग्लो इंडियन पडोसिन ने पूछा – मिस्टर वर्मा हाऊ इज योर वाइफ ? वर्मा ने कहा – आन्टी, समथिंग इज बैटर दैन नथिंग…….. गुलदस्ता मैंने टेबिल पर रख दिया। उसके बगल में लिफाफा रख दिया। खोला नहीं…. समझा शुभकामना का कार्ड होगा। पर मैंने लक्ष्य किया कि दम्पति का मन बातचीत में नहीं लग रहा था। वे चाहते थे कि मैं लिफाफा खोलें। और मैंने खोला उसमें से एक हजार एक रूपये के नोट निकले। “इसकी क्या जरूरत है” जैसे फालतू वाक्य बोले बिना रूपये रख लिए।  सोचा – इसी को “गुड मॉर्निंग” कहते हैं  आगे सोचा कि अगले जन्मदिन पर अखबार में निवेदन प्रकाशित करवा दूंगा कि भेंट में सिर्फ रूपये लाएं। पुनर्विचार किया…… ऐसा नहीं छपवाऊंगा। हो सकता है कोई नहीं आये। अरे उपहारों का ऐसा होता है कि आपने जो टैबिल लैम्प किसी को शादी में दिया है वही घूमता हुआ किसी शादी में आपके पास लौट आता है।

रात तक मित्र शुभचिंतक, अशुभचिंतक आते रहे रहे। कुछ लोग घर में बैठकर गाली बकते रहे कि साला, अभी भी जिंदा है। क्या कर लिया एक साल और जी लिए, कौन सा पराक्रम कर दिया। नहीं वक्त ऐसा हो गया है कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है। मेरे एक मित्र ने रिटायर होने के दस साल पहले अपनी तीन लड़कियों की शादी कर डाली  मैंने कहा – तुम दुनिया के प्रसिद्ध पराक्रमी में से एक हो।  भीम तो वीर थे…. महा पराक्रमी थे पर उन्हें तीन लड़कियों की शादी करनी पड़ती तो चूहे हो जाते। जिजीविषा विकट शक्ति होती है। लोग खुशी से भी जीते हैं और रोते हुए भी जीते हैं। प्रसिद्ध इंजीनियर “भारत रत्न” डॉ विश्वैसरैया सौ साल से ज्यादा जिए उनके 100 वें जन्मदिन पर पत्रकार ने उनसे बातचीत के बाद कहा – अगले जन्मदिन पर आपसे मिलने की आशा करता हूं। विश्वैसरैया ने जबाब दिया – क्यों नहीं मेरे युवा मित्र… तुम बिल्कुल स्वास्थ्य हो। यह उत्साह से जीना कहलाता है और और तो और वे बुढऊ भी जीते हैं जिनकी बहुएं उन्हें सुनाकर कहती हैं – – – भगवान् अब इनकी सुन क्यों नहीं लेता? जिंदगी के रोग का और मोह का कोई इलाज नहीं। मृत्यु भय आदमी को बचाने के लिए तरह तरह की बातें कहीं जातीं हैं  कहते हैं शरीर मरता है आत्मा तो अमर है व्यास ने कृष्ण से कहलाया – – – जैसे आदमी पुराने वस्त्र त्याग कर नये ग्रहण करता है वैसे ही आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है मगर ऐसी सूक्ष्म आत्मा को क्या चाटें? ऐसी आत्मा न खा-पी सकती है, न भोग कर सकती है, न फिल्म दैख सकती है। नहीं, मस्तिष्क का काम बंद होते ही चेतना खत्म हो जाती है मगर………

“हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,,

दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है,”

गालिब के मन में पर मौत छाई रहती थी। कई शेरों में मौत है पता नहीं ऐसा क्यों है शायद दुखों के कारण हो,

गमें हस्ती का असद क्या हो जुजमुर्ग इलाज,

शमां हर रंग में जलती है सहर होने तक,

कैदेहयात बंदे गम असल में दोनों एक हैं,

मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों,

रवीन्द्र नाथ ने भी लिखा था_

मीत मेरे दो बिदा मैं जा रहा हूँ

सभी के चरणों में नमन् मैं जा रहा हूँ,

और कबीर दास ने शान्ति से कहा था…..

यह चादर सुर नर – मुनि ओढ़ी मूरख मैली कीन्ही,

दास कबीर जतन से ओढ़ी जस की तस धर दीन्ही,

इन सबके बावजूद जीवन की जय बोली जाती रहेगी।

 

हरिशंकर परसाई 

प्रस्तुति – जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ परसाई जी – अमिट स्मृति ☆ – आचार्य भागवत दुबे

आचार्य भगवत दुबे

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(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार एवं गुरुवर  आचार्य भगवत दुबे जी  का हृदय से आभार। आपने ।ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए यह संस्मरण दूरभाष पर साझा किया इसके लिए हम आपके पुनः आभारी हैं।  )

 

✍  परसाई जी – अमिट स्मृति  ✍

 

परसाई जी का संपर्क एक स्वप्न की तरह लगता है। उनके विराट व्यक्तित्व की छवि अभी भी हृदय में अमिट  है। मैंने काफी समय बाद लिखना शुरू किया था। मुझे उनके एक शब्दचित्र ने सदैव मेरे हृदय को स्पर्श किया है। वैसे परसाई जी ने जितने शब्दचित्र लिखे हैं, उनमें आम व्यक्ति ही ज्यादा हैं। उनमें भी परसाई जी ने मनीषी जी और उनकी बांसुरी का चित्रण कर मनीषी जी जैसे लोगों को अमर कर दिया है।

एक स्मृति और मुझे याद आती है। उनसे मेरी अंतिम भेंट उस समय हुई जब वे पैरों से असमर्थ होने के कारण उठ नहीं सकते थे। मैं अपनी बेटी के साथ उनसे मिलने पहुंचा। उनसे अनुरोध किया कि बेटी के लिए पी एच डी के लिए कोई उचित सलाह दें। उन्होने बड़े ही आत्मीयता से हमारी बात सुनी और बेटी को सलाह दी कि वह ‘महाकवि भवभूति जी’ पर संस्कृत में कार्य करें। यह बात अलग है कि बाद में बेटी का विवाह हो गया और वह अपनी पी एच डी नहीं कर पाई किन्तु, वह विशिष्ट भेंट हमें सदा उनकी याद दिलाती रहेगी।

 

आचार्य भगवत दुबे

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ परसाई जी – एक आम आदमी और खास लेखक ☆ – श्री हिमांशु राय

श्री हिमांशु राय 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ  नाट्यकर्मी एवं साहित्यकार श्री हिमांशु राय जी   का हृदय से आभार। आप  इप्टवार्ता के संपादक एवं  विवेचना थियेटर ग्रुप के सचिव भी हैं। )

 

✍  परसाई जी – एक आम आदमी और खास लेखक ✍

 

अगस्त का माह में परसाई जी का जन्मदिन भी है और पुण्यतिथि भी है। अब यूं लगता है कि देश के बहुत से शहरों में परसाई जी के जन्मदिवस पर कार्यक्रम आयोजित होते हैंं। उनकी रचनाओं का पाठ होता है। उनकी रचनाओं पर विचार विमर्श होता है। व्यंग्य विधा पर चर्चा होती है। परसाई जी की बहुत सी रचनाएं ऐसी हैं जो कालजयी हैं। जिनका रचनाकाल बहुत पहले का है परंतु यूं लगता है जैसे आज लिखी गई हैं। इतना साम्य होता है कि लगता है आज कल मंे घटी घटनाओं को देखकर परसाई जी ने इसे लिखा है। यह परसाई जी की दूरदृष्टि थी या संयोग।

यह संयोग कतई नहीं है। यह परसाई जी के द्वारा किए गए विशद अध्ययन और उनके अनुभवों का कमाल है जिसके कारण उनके लिए राजनैतिक विषयों पर पूरी तीव्रता से लिखना संभव हुआ है। परसाई जी कमरे में बंद लेखक नहीं थे। वे शहर में निरंतर मेलजोल रखते थे। शहर के आम आदमी से वे सीधे जुड़े थे। बल्कि ये कहा जाए तो ज्यादा ठीक होगा कि वो एक आम आदमी और खास लेखक थे। इसीलिए उन्हें समाज की विसंगतियों और पीड़ा को समझना मुश्किल नहीं था। वो समाज में हर छोटे बड़े के पाखंड को पकड़ते थे और निर्ममता से उधेड़ते थे। इसीलिए परसाई परसाई थे।

परसाई जी ने अपने जीवन की शुरूआत में ही बहुत कठिन दिन देखे। विपन्नता को भोगा। छोटी सी उम्र में नौकरी की। दर्द से चीखती मां की मौत देखी। परसाई ने लिखा कि मां दर्द से चीखती रहती थीं और हम बच्चे गाते जाते थे ’ओम जय जगदीश हरे, भक्तजनों के संकट पल में दूर करे’। पर मैंने देख लिया कि मां के कष्ट दूर करने के लिए कोई जगदीश नहीं रहा हैं। मां चली गई।

परसाई जी ने बहुत लोगों के शब्द चित्र लिखे हैं। वो लोग जबलपुर शहर के बड़े लोग नहीं थे। पर अपने तरीके के अलग लोग थे। परसाई जी उन पर लिख सके क्योंकि उन्हंे परसाई जी ने गहराई से पढ़ा था। ’मनीषी जी’ के बारे में परसाई जी ने लिखा है कि वो बांसुरी बजाते थे। जब वो भूखे होते थे तो अपने कमरे में बंद बिस्तर पर बैठे हुए बांसुरी बजाते थे। उनके प्रेमी समझ जाते थे और उनकी व्यवस्था करते थे। मनीषी जी जैसे अनेकों चरित्रों पर लिख कर परसाई जी ने उन्हें न केवल अमर कर दिया है वरन् आम आदमियों की विशिष्टताओं को भी उजागर किया है। ऐसे लोग भी हुए हैं, ऐसे लोग भी होते हैं ये परसाई जी के शब्दचित्रों को पढ़ने से ही मालूम होगा। उनको लिखने के लिए परसाई जी ने दिमाग से ज्यादा दिल से काम लिया है इसीलिए इन शब्दचित्रों के नायकों को परसाई जी ने बेहद मानवीयता के साथ चित्रित किया है।

’जाने पहचाने लोग’ में परसाई जी ने अपने शिक्षक चड्डा जी को याद किया है। क्या ऐसा शिक्षक होता है ? चड्डा जी ने परसाई को बचपन में दुनिया का साहित्य, इतिहास सब पढ़वा दिया। नितांत बचपन में की गई अपनी जंगल की नौकरी ने उनको उस उम्र में ही आदमी के चरित्र को पढ़ना सिखा दिया। उनने अपनी बुआ के बारे में लिखा है कि खुद पास में कुछ न होने के बावजूद वो कभी दुखी न होती थीं। सबके लिए भोजन की व्यवस्था करती थीं। उनने एक मुस्लिम बच्चे को घर में रखकर पढाया था। ये सब घटनाएं परसाई जी को निखारतीं रहीं।

घटनाएं सबके जीवन में घटती हैं। सवाल ये है कि हम उनसे क्या सीखते हैंं। घटनाएं हमारी पाठशाला हैं। हम उस पाठशाला में अच्छे से पढ़े तभी जीवन के विश्वविद्यालय से डिग्री ले पायेंगे। यदि आप कुछ न पढ़ पा रहे हों तो परसाई जी के शब्द चित्र, गर्दिश के दिन और जाने पहचाने लोग पढ़ लें। आप शिक्षित हो जाएंगे। जीवन की पाठशाला में बहुत कुछ अनपढ़ा रह जाता है। आज के समय में रहन सहन खान पान बदल गया है। तो जरूरी है कि जीवन की पाठशाला में जिनने ध्यान से पढ़ाई की है उनके लिखे हुए को पढ़ लिया जाए। मैक्सिम गोर्की ने ’मेरे विश्वविद्यालय’ यूं ही नहीं लिखी है।

© हिमांशु राय

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ परसाई का मूल्यांकन क्यों नहीं? ☆ – श्री एम.एम. चन्द्रा 

श्री एम.एम. चन्द्रा 

 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  प्रतिष्ठित व्यंग्यकार, आलोचक, सम्पादक श्री एम.  एम. चंद्रा जी, दिल्ली के हृदय से आभार। आप व्यंग्य आलोचना के सशक्त हस्ताक्षर हैं एवं वर्तमान में  डायमंड पाकेट बुक्स संस्थान में सम्पादक हैं। )

 

✍  परसाई का मूल्यांकन क्यों नहीं  ✍

 

‘जब बदलाव करना सम्भव था

मैं आया नहीं: जब यह जरूरी था

कि मैं, एक मामूली सा शख़्स, मदद करूं,

तो मैं हाशिये पर रहा।’

भारतीय इतिहास में हरिशंकर परसाई ही एक मात्र ऐसे लेखक रहे है, जो अपने रचनाकाल और उसके बाद आज भी व्यंग्य के सिरमौर बने हुए है। आज व्यंग्य क्षेत्र में व्यंग्य लिखने वालों की एक लम्बी कतार है जो लगातार लिख रही है और व्यंग्य की विकास यात्रा में अपना रचनात्मक योगदान भी दे रही है। इस समय व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्तर पर व्यंग-विमर्श के नाम पर बड़ी तीखी और आलोचनात्मक बहस देखने को मिल मिल रही है, लेकिन इन विमर्शों से अभी निष्कर्ष निकलना अभी बाकी है, जिसमें परसाई को लेकर सबसे ज्यादा विभ्रम की स्थिति है।

साथ ही साथ वर्तमान परिदृश्य में यह भी देखने को मिल रहा है वर्तमान व्यंग्य लेखन को परसाई, जोशी, त्यागी या लतीफ़ घोघी  जैसी शख्सियत  से तुलना करके परखा जा रहा है। या उन लोगों से अपनी तुलना की जा रही है। इस आधार पर या तो रचना को एकदम नकार दिया जाता है या उस रचना को पूर्णतः सतही वाह-वाही तक सीमित किया जाता है।

व्यंग्य की समीक्षात्मक पदाति और आलोचनात्मक दृष्टि का सर्वथा अभाव देखा जाता है। अब सवाल ये उठता है कि इतनी विकसित परम्परा के बावजूद व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्र और आलोचनात्मक दृष्टि का विकास संभव क्यों नहीं हो पाया है।आज भी परसाई को लेकर विभ्रम की स्थिति क्यों है? इसकी जांच पड़ताल के लिए वर्तमान को इतिहास की जड़ में ले जाकर देखना पड़ेगा।

मुझे ऐसा लगता है कि 1990  के बाद की दुनिया पूरी तरह से बदल चुकी है। आर्थिक राजनीतिक तौर पर नयी दुनिया हमारे सामने उपस्थित है। चीन की दीवार गिर चुकी है, दुनिया के दो ध्रुवीय केंद्र बिखर चुके है। भारत ही नहीं दुनिया के पैमाने पर वैचारिक स्तर की केन्द्रीय भूमिका निभाने वाली मनोगत शक्तियां पटल पर दिखाई नहीं देती, इसी लिए दुनिया भर की राजनैतिक पार्टियां वैचारिक भ्रम का शिकार है। आर्थिक नव उपनिवेशवाद आर्थिक  और राजनीतिक तोर पर लागू करके नये तरह का वैश्विक बाजार स्थापित किया जा रहा है।

आधुनिक साहित्य और व्यंग्य भी इससे अछूता नहीं है। एक नये प्रकार का लेखन को प्रायोजित और प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिसमें विचारों के महत्त्व को कम करके आंका जा रहा है। सिर्फ सतही अर्थी राजनीतिक यथार्थवाद को प्रस्तुत करना ही व्यंग्य मन जाता है। ऐसे कठिन दौर में परसाई को समझना किसी भी सजक व्यंग्यकार के लिए बहुत जरूरी गया है। बहुत से कारणों में यह भी एक कारण है जो परसाई के विचारों की प्रासंगिकता शिद्दत से महसूस हो रहा है। यह वर्तमान समय के प्रमुख कार्यभारों में से एक है, जिसको हम सबको मिलकर उठाना है।

व्यंग्य-साहित्य में परसाई को लेकर जितने भ्रम फैले हुए हैं, शायद ही किसी रचनाकार के साथ ऐसा हो। एक तरफ परसाई को किसी न किसी रूप में सब अपना बताते है तो दूसरी तरफ भाषाई चालाकी से एक ही झटके में उनको नकार भी दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ उनके रचना कर्म पर ही विभ्रम की स्थिति है बल्कि उनके द्वारा छेड़े गये वैचारिक संघर्षों, आलोचनात्मक दृष्टिकोण और उनकी पक्षधरता को लेकर ही विभ्रम की स्थिति है। उनके प्रयोग, व्यंग्य स्ट्रक्चर, भाषा और शैली को लेकर भी यदा-कदा मनोगत व्याख्या होने लगती है।

परसाई के बारे में सभी व्यंग्यकार इस बात पर तो सहमत है कि वो प्रतिबद्ध लेखन या वैचारिक दृष्टिकोण वाला लेखन करते है लेकिन दुर्भाग्यवश इन्हीं पक्षों की अधकचरी जानकारी के चलते उनको विकृत करने का भी काम साथ ही साथ किया जाता है। परसाई को जानने वाले जानते है है की उनकी प्रतिबद्धता किसी पार्टी के साथ नहीं बल्कि एक विचारधारा के साथ थी… जैसे ही उन्होंने देखा की तथाकथित पार्टी संगठन अपने विचारों पर नहीं चल रहे है, तो उन्होंने उसकी भी तीखी आलोचना अपने व्यंग्य द्वारा करी। इसी तीखी आलोचना के चलते वे हमेशा मुक्तिबोध की तरह अलगाव में भी रहे।

यह बात हमेशा याद रखे कि वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद भी परसाई ने वैचारिक जड़ता को नहीं स्वीकारा। जहां भी उन्हें असंगति या जड़ता दिखाई दी उसका तीखा विरोध किया। उन्होंने तथाकथित मार्क्सवादियों की वास्तविकता का भी चित्रण किया- “सिगरेट को ऐसे क्रोध से मोड़कर बुझाता है जैसे बुर्जूआ का गला घोंट रहा हो। दिन में यह क्रांतिकारी मार्क्स, लेनिन, माओ के जुमले याद करता है। रात को दोस्तों के साथ शराब पीता है और क्रांतिकारी जुमले दुहराता है। फिर मुर्गा इस तरह खाता है जैसे पूंजीवाद को चीर रहा हो”।

मेरा कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है की प्रतिबद्धता कोई ऐसी वास्तु नहीं है जिसकी व्याख्या आज संभव नहीं है। फिर क्यों इसे रहस्य के रूप में प्रस्तुत करके परसाई पर कीचड़ उछाला जाता है। परसाई के लेखन और उनसे जुड़े बहुत से सवालों के जवाब अभी तक अनुत्तरित है। न ही आज तक उन पर गंभीर चर्चा हुई है।

अधिकतर व्यंग्य लेखक उनको अपना आदर्श जरूर मानते लेकिन उनको हाशिये पर डालने के लिए उनका इस्तेमाल अपने-अपने तरीके से और अपनी सहूलियत के लिए करते है। कभी-कभी लोग जाने अनजाने में उनके विचारों को विकृत कर जाते हैं। उनके बारे में वैचारिक विभ्रम इतना  गहरा है यदि इनको  दूर नहीं किया गया तो, उनको समझने समझाने की जगह उनके मजबूत पक्ष को भोथरा करने की नाकाम कोशिश होती रहेगी।

कभी परसाई पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाये जाते है कि उन्होंने शुरुआत में बहुत अच्छी रचनाएं लिखी लेकिन बाद में उनका क्षरण हो गया। कभी कहा जाता है कि मार्क्सवाद के संपर्क के बाद उनकी लेखनी में जान आ गयी और कभी कहा जाता है कि उन्होंने पार्टी लेखन किया। लेकिन कोई भी व्यक्ति उन रचनाओं  को सामने नहीं लाता कि वे कौन-कौन  सी ऐसी रचनाएं है, जिनको कमजोर कहा जा सकता है। क्यों कहा जाता है? कौन से मापदंडों पर रचनाएं कमजोर है। असल में यह सारा खेल उनको किसी न किसी रूप में नकारना ही है।

असल में कोई भी उनके लेखन पर सीधे-सीधे उंगली नहीं उठा सकता इसलिए वह अपनी तीन तिकड़म भाषा के बल पर उनको बदनाम कर देता है और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं लगती। यही काम उनके लेखन काल से ही उनके विरोधी और उनके साथ जुड़े राजनीतिक वैचारिक लोग उसी प्रकार कर रहे थे जैसा आज भी बहुत ही चालाकी के साथ किया जाता है। जिन मुद्दों को लेकर उन्हें बदनाम  किया  जाता है, उनमें से कुछ का जिक्र मैं  कर चुका हूँ बाकी का किसी अन्य लेख में करूंगा।

इस बात को हम अच्छी तरह से जानते है की परसाई अपने युगबोध को साथ लेकर चल रहे थे। जब हम परसाई का मूल्यांकन करेंगे तो हमें वामपंथ के वैचारिक विभ्रम पर बात करनी पड़ेगी, पार्टी संगठन और अपनी आलोचना और आत्मालोचना से भी गुजरना पड़ेगा। परसाई को समझने के लिए हमें नामवर, अशोक बाजपेयी, भीष्म साहनी, अवतार सिंह पास और मुक्तिबोध पर भी बात करनी पड़ेगी। परसाई का मूल्यांकन करने का मतलब है उस विचारधारा पर भी बात करना कि इस दुनिया की व्याख्या तो बहुत से लोगों ने अपने-अपने तरीके से की है, सवाल तो दुनिया को बदले और दुनिया को बेहतर  बनाने से है। क्या हम आज इस स्थिति में है कि उन सवालों पर बात की जाये। यदि नहीं, तो परसाई का समग्र मूल्यांकन संभव नहीं है।

इसलिए मेरा स्पष्ट मत है कि परसाई पर बात करने का मतलब उनके समय का इतिहास और विचारधारा पर भी बात करना है। विचारधारात्मक और इतिहास-सम्बन्धी दृष्टि पर बात करना है और इससे बढ़कर आलोचना और आत्म आलोचना की राह से गुजरना है।

परसाई ने अपने लेखन में राजनीतिक रुख को मजबूत आधार प्रदान किया। प्रेमचंद की विरासत को उन्होंने विकसित किया। प्रेमचंद साहित्य द्वारा राजनीति को मशाल दिखाने वाली प्रेरणा मानते थे, वही परसाई ने अपने लेखन से साबित कर दिया कि राजनीति ही वो प्रेरक शक्ति है जो साहित्य को दिशा देती है। परसाई भारत में विश्वव्यापी दृष्टिकोण वाली परम्परा के ऐसे योद्धा है, जो मानते है कि राजनीति से अलग कोई भी लेखन नहीं होता। प्रत्येक लेखन अपनी राजनीतिक पक्षों को लेकर लिखा जाता है। यदि कोई यह कहे कि वह राजनीतिक लेखन नहीं करता तो वह लोगों को बेवकूफ बनाने के सिवा कुछ नहीं है। लेखन चाहे कैसा भी हो या तो शासक वर्ग के लिए होता है शोषित वर्ग के लिए होता। यही कारण है अधिकतर लेखक परसाई के इस वर्गीय दृष्टिकोण से दूर भागने की कोशिश करते है। उनको अपना मानते  हुए भी नकारते है।

आज फिर से परसाई को देखने-पढ़ने और समझने का सवाल एक नज़रिये का सवाल है। कभी-कभी मुझे ऐसा महसूस होता है कि कुछ लोग परसाई को हमेशा के लिए हाशिये पर खड़ा रखना चाहते है। उनके जरूरी कार्यभारों को अनिश्चितकाल तक स्थगित कर देने की साजिश कर रहे है।

परसाई का मूल्यांकन एक विस्तृत आलोचना आत्मआलोचना की मांग करता है, जिन्हें हम कई कारणों से जरूरी समझते हैं, हालांकि हमने परसाई के समग्र दृष्टिकोण पर बात करने  के लिए  लोगों का आह्वान किया है। अब बस यही देखना बाकी है कि कौन-कौन इस मुहिम को जरूरी और गैर जरूरी मानता है।

आज परसाई को लेकर  विचारधारात्मक संघर्ष चलाना परसाई की विरासत से नयी पीढ़ी शिक्षित करना हम सब का  मकसद है, क्योंकि अपने समय की समस्त विसंगतियों और विरूपताओं को उन्होंने हर प्रकार के चौखटे से बाहर निकालकर गहराई से चित्रित किया है। उनकी विचारधारा ही उनकी पूरी रचना दृष्टि का निर्माण करती है। वह किसी भी जड़वादी विचार का समर्थन नहीं करते बल्कि उनकी विचारधारा ही कहीं न कहीं संवेदना का विस्तार करती है और उनकी रचनाओं को और अधिक मानवीय और मनुष्यता के करीब ले जाती है…. उनके बारे समग्रता से बात वही व्यक्ति कर सकता है जो परसाई को अपनी विरासत मानता हो और उसकी विरासत को जानता हो।

 

© एम.एम. चन्द्रा, दिल्ली 

साभार: श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ स्वतंत्र विचार ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री रमेश चंद्र शर्मा 

 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने  विचार ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  उज्जैन के वरिष्ठ साहित्यकार श्री रमेश चन्द्र शर्मा जी का हृदय से आभार।)

 

✍  परसाई स्मृति – स्वतंत्र विचार ✍

 

परसाई जी की तारीफ करना अलग बात है,उनके नक्शे क़दम पर चल कर लिखना अलग बात है। उनसे प्रेरित होकर लिख भी दिया तो मीडिया की तो औक़ात नही की छापने की हिम्मत कर ले।

वह दौर ही अलग था जब परसाईजी जैसे लिखने वाले थे, उनके लिखे को पसंद करने वाले संपादक थे औऱ सम्पादक को सम्पादन की आज़ादी देने वाले मालिक थे।

अब तो अखबारों की नीति मुताबिक लिखने वाले लेखक है। मालिकों की हितकारी नीतियों के चौकीदार सम्पादक है ,सम्पादक के माथे पर मालिक है और मालिक के माथे पर लट्ठ लिए सरकार है। ऐसे में परसाई जैसा लेखक कैसे पैदा होगा।

परसाई जी आज के दौर में होते तो छपने को तरस जाते, कौन अखबार उनके व्यग्य छाप कर आफत मोल लेता। अच्छा हुआ परसाई उस दौर में लिख-छप गए।

 

श्री रमेश चन्द्र शर्मा, उज्जैन 

(उपरोक्त विचार श्री रमेश चन्द्र शर्मा जी के व्यक्तिगत विचार हैं। )

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ परसाई के रूपराम ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   का हृदय से आभार।)

 

✍  संस्मरण – परसाई के रुप राम  ✍

 

जबलपुर के बस स्टैंड के बाहर पवार होटल के बाजू में बड़ी पुरानी पान की दुकान है। रैकवार समाज के प्रदेश अध्यक्ष “रूप राम” मुस्कुराहट के साथ पान लगाकर परसाई जी को पान खिलाते थे।  परसाई जी का लकड़ी की बैंच में वहां दरबार लगता था।  इस अड्डे में बड़े बड़े साहित्यकार पत्रकार इकठ्ठे होते थे साथ में पाटन वाले चिरुव महराज भी बैठते। ये वही चिरुव महराज जो जवाहरलाल नेहरू के विरुद्ध चुनाव लड़ते थे।  बाजू में उनकी चाय की दुकान थी मस्त मौला थे।

(स्व. रूप राम रैकवार जी)

आज उस पान की दुकान में पान खाते हुए परसाई याद आये, रुप राम याद आये और चिरुव महराज याद आये।  पान दुकान में रुप राम की तस्वीर लगी थी।  परसाई जी रुप राम रैकवार को बहुत चाहते थे उनकी कई रचनाओं में पान की दुकान रुप राम और चिरुव महराज का जिक्र आया है।

अब सब बदल गया है, बस स्टैंड उठकर दूर दीनदयाल चौक के पास चला गया परसाई नहीं रहे और नहीं रहे रुप राम और चिरुव महराज… पान की दुकान चल रही है रुप राम का नाती बैठता है बाजू में पुलिस चौकी चल रही है पवार होटल भी चल रही है चिरुव महराज की चाय की होटल बहुत पहले बंद हो गई थी एवं वो पुराने जमाने का बंद किवाड़ और सांकल भी वहीं है और रुप राम तस्वीर से पान खाने वालों को देखते रहते हैं।

 

साभार –  श्री जयप्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ हरिशंकर परसाई… व्यंग्य से करते ठुकाई…!! ☆ – सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’

सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  नरसिंहपुर मध्यप्रदेश की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’ जी का हृदय से आभार।)

✍  हरिशंकर परसाई… व्यंग्य से करते ठुकाई…!! ✍ 

सबसे गहरा घाव वो होता जो शब्दों से दिया जाता कि उसका कोई इलाज़ नहीं वो तो सीधा जाकर मर्म पर ही वार करता और ऐसा जख्म देता कि अगला टीस को न सह ही पाता और न कुछ कह पाता कि शब्द-बाण तो रह-रहकर चुभते कुछ इस तरह से हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा को स्थापित करने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी मध्यप्रदेश का गौरव कहलाने वाले और हर एक विषयवस्तु पर तिरछी नजर रखने वाले साहित्य शिरोमणि ‘हरिशंकर परसाई’ ने कलम रूपी हथियार की मदद से समाज की कुरीतियों ही नहीं हर एक विसंगति पर सटीक प्रहार करते हुये देश व समाज की देह में होने वाले पुराने से पुराने दर्द को भी मिटाने का सतत प्रयास किया कि ताकि इस तरह से वे एक ऐसा भारत बना सके जिसे देखकर कोई उसकी किसी भी प्रथा, सनातन परंपरा या किसी जात-पांत पर कोई ऊँगली उठा न सके कि ये इस विविध संस्कृति के पोषक धर्म-निरपेक्ष देश की वैश्विक पहचान हैं ।

इसलिये उन्होंने अपनी चाँद रूपी मातृभूमि पर धब्बे के समान दिखाई देने वाली छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी असमानता पर चुटीला कटाक्ष किया जिससे कि वो इन दाग़-धब्बों को आसमान की तरह फैली अपनी श्वेत चादर से विलग कर दाग़रहित होकर उभरे तो आजीवन हर विषय, हर परिस्थिति, हर व्यक्ति, हर नीति, हर घटना, हर प्रसंग, हर तीज-त्यौहार, हर सम-सामयिक मुद्दे, हर कमी, हर विशेषता और हर एक विचित्र दिखाई देने वाली बात को अपनी तेज-तर्रार कलम का निशाना बनाकर हंसी-हंसी में वो सब कह दिया जिसे यदि गुस्से में कहा या लिखा जाता तो शायद, उसका वो सर्वकालिक असर नहीं हो पाता कि मज़ाक तो बर्दाश्त किया जा सकता हैं लेकिन, क्रोध से क्रोध ही उपजता जिसके कारण उनका उद्देश्य बाधित हो जाता तो अपने हाथों में थामी हुई कलम को मीठी छूरी बनाकर ऐसा झटका दिया जैसे कोई कसाई किसी जानवर की गर्दन को एक झटके में ही हलाल कर देता हैं ।

कभी वो किसी धोबी की तरह समाज के उपर पड़े मटमैले आवरण को पटक-पटक कर धो उसे उजला बनाने का प्रयास करते तो कभी किसी डॉक्टर की तरह बड़ी निर्दयता से उसके घाव की चीर-फाड़ करते जिससे कि उसमें भरा हुआ सड़ी-गली कुरीतियों का मवाद बहर निक जाये तो समय-समय पर वे साहित्यकार से समाज सेवक बन एक जागरूक नागरिक होने के अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते यही वजह हैं कि उनका लिखा हुआ आज भी प्रासंगिक हैं कि कहने को भले ही समाज व समय में परिवर्तन हो गया लेकिन उसके भीतर अब भी बहुत गंदगी भरी हुई हैं जिसके दिखाई देने पर अक्सर उनका लिखा कोई वाक्य या व्यंग्य याद आ जाता और उनकी दूरदर्शिता का अहसास होता कि किस तरह से वे समय के पार देख लेते थे और आने वाली परिस्थितियों को महसूस कर उसका व्यंग्य में वर्णन कर देते थे तभी तो भ्रष्टाचार हो या फिर धर्मांतरण बहस या फिर राजनीति सब पर उनका लिखा हुआ कोई न कोई आदर्श लेखन जेहन में तैरने लगता हैं ।

 

साहित्य व समाज के ऐसे मर्मज्ञ और ज्ञानी आज ही के दिन अपने व्यंग्य से हम सबको एक अनूठा ज्ञान देने हम सबके बीच आये थे तो आज उनकी जन्मतिथि पर हम उनको ये शब्दांजलि अर्पित करते हैं और ये प्रयास करे कि जिस तरह के भारत का वे स्वपन देखते था या जिस तरह का वो इसे दुनिया के मानचित्र पर स्थापित करना चाहते थे वैसा ही कुछ सचमुच में कर पाये तो उनके शब्दों को वास्तविक मान-सम्मान दे पायेंगे ।

 

© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’*

नरसिंहपुर (म.प्र.)

 

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