हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 8 ☆ फैसला ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “फैसला”।

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 8 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ फैसला 

 

आज वर्षो बाद अजय का आना हुआ हमने कहा… “बेटा इतने सालों बाद शादी के बाद कहाँ गायब हो गए थे?”
“अंजलि इतनी भायी की तुम दुनिया जहान को भूल गये।”
अजय ने बताया। बस अंकल क्या कहूँ यूँ ही गृहस्थ संसार में उलझ गया।
हमने कहा… “अच्छा है पर ये उदासी कैसी? क्या बात है?”
अजय ने कहा …”क्या बताऊँ अंकल?”
हमने कहा…”नहीं बेटा कह ही डालो मन हल्का हो जायेगा।”
अजय ने बताना शुरू किया। शादी की रात को अंजलि ने कहा …”शादी के पहले हमने आपसे बहुत कुछ कहना चाहा लेकिन मुझे देखने के बाद आप कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे। बस आप शादी का ही इंतजार कर रहे थे।”
“क्या हुआ …आज ये सब बातें…तुम किसी और से शादी करना चाहती थी क्या?”
अंजलि ने बताया…”हम हमारा परिवार शादी ही नहीं करना चाहते थे। लेकिन माँ की दोस्त आपका रिश्ता ले आई और दो दिन बाद आप लोगों को हम लोग कुछ कह सुन नहीं पाए. बहुत बार कोशिश की आपसे बात करने की पर आप टाल गये। हमने माँ से कहा जो ईश्वर को मंजूर होगा, वही होगा और आज वह दिन भी आ गया और हम आज बिना कहे नहीं रहेंगे …मैं न स्त्री हूँ न पुरुष …मेरा कोई अस्तित्व नहीं है।   मैं किन्नर जाति की हूँ।   पर मेरे माता पिता की अकेली संतान होने के कारण छुपा कर रखा और किसी को पता न चल जाये इसलिए आज तक बोला नहीं क्यों किन्नर लोग मुझे ले जायेंगे …लेकिन अब नहीं, मैं आपको इस कुएँ में नहीं धकेलना नहीं चाहती। आप सभी को मेरे विषय में कुछ भी कह दीजिये और मुझे छोड़ दीजिये।”
अंकल इतना सुनकर मुझे ऐसा लगा… “मेरे पैरों से जमीन खिसक गई है। थोड़ा सोचकर हमने कहा तुम लोग समाज के डर से चुप रहे। शायद ईश्वर को यही मंजूर था अब हम कुछ कहेंगे तो समाज परिवार का सामना कैसे करेंगे?  हमारा सम्बन्ध जन्म जन्मान्तर का है। हम तुम्हें अपनी पत्नी का दर्जा देंगे। उसके बाद हम लोग भोपाल गये वहाँ दो जुड़वाँ बच्चे गोद ले लिए किसी को नहीं बताया.  आज पहली बार आपको बताया। अंकल हमने सोचा हमारी किस्मत इसी के साथ जुडी है लाख कोशिश के बाद जो होना है वह होकर ही रहता है।”
हमने कहा …”। इतना बड़ा फैसला तुम्हें तो सेल्यूट करना चाहिए.” …
© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – बाल कविता – ☆ सम्बन्धों का मोल ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई  कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है एक शिक्षाप्रद बाल-कविता “सम्बन्धों का मोल ”। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपनी कविता के माध्यम से सम्बन्धों के मोल को बड़े ही सहज शब्दों में समझाने की चेष्टा की है। यह कविता बच्चों के लिए जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही महत्वपूर्ण बड़ों के लिए भी है।  )

 

 ☆ बाल कविता – संबंधो का मोल ☆

 

एक समय में, किसी गाँव में,

रहते थे दो जुड़वाँ भाई

आपस मे न था तनिक प्रेम,

खूब दूरियाँ, दिल में खांई

 

अलगाव हुआ उन दोनों में,

आपस में किया बटवारा

सोने की एक अंगूठी बनी  कारण,

हुआ उनमें विवाद करारा

 

अपना झगड़ा लेके पहुंचे,

दोनों एक संत के पास

सुनी समस्या, रख अंगूठी

दिया दिलासा, ढेरों आस

 

बोले सन्त, अब घर जाओ,

कल सबेरे तुम सब आना

फिर यहाँ से, तुम मेरे से

अपनी अंगूठी ले जाना

 

उन के जाने पर संत ने,

तुरन्त एक सुनार बुलवाया

वैसी ही एक दूसरी अंगूठी,

उन्होंने जल्दी से बनवाया

 

क्यों मोल चुकाया अंगूठी का

भेद गूढ़ कोई समझ न पाया

जब आये सुबह दोनों भाई,

उनको अलग-अलग बुलवाया

 

अपनी अंगूठी पा कर,

दोनों खूब हुए खूब सन्तुष्ट

गिले-शिकवे दूर कर  अपने

दोनों भाई हुए प्रसन्न यथेष्ट

 

इक दिन बातों-बातों मे,

खुल गया रहस्य यूँही वैसे

अंगूठी तो एक ही  थी,

फिर मिली दोनो को  कैसे

 

करी भीषण माथापच्ची

पर सच का  हुआ न ज्ञान

पहुंचे  दोनों कुटिया में

किया संन्त का मान-सम्मान

 

बातें उनकी सुन मुस्कुराए,

तब बाबा ने उनको समझाया

संम्बधो  के मोल को समझो,

कभी न करो अपना पराया

 

सोना तो है तुक्ष चीज,

संम्बधों का, है नही मोल

भातृ-प्रेम है सोने से बढ़ कर,

याद रखो सदा ये वचन अनमोल

 

दी अंगूठियाँ तुमको मैंने,

बतलाने को जीवन-तत्व

सदा सर्वदा समझो अपने

संबंधों का सतत महत्व…

 

सुन बाबा से तत्व-ज्ञान

हुए दोनों अति तुष्ट

सदा सुखी रहने का मंत्र,

समझ गये दोनों हो संतुष्ट…

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प दहावे # 10 ☆ व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये  तरुणों में व्याप्त व्यसन जैसी एक सामाजिक  समस्या पर विचारणीय आलेख “व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग”)

 

☆ समाज पारावरून – साप्ताहिक स्तंभ  – पुष्प  दहावे  # 10 ☆

 

☆ व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग ☆

 

माणसाला माणूस जोडण्याचे,  माणसात रहाण्याचे व्यसन असावे  असे संस्कार  आमच्या वर झाले. त्यामुळे व्यसनाधीनता हा विषय जिव्हाळ्याचा वाटला.  आजची तरुण पिढी मुबलक पैसा, कुतूहल,  अनुकरण  आणि सुखासीन  आयुष्य जगण्याची सवय यामुळे जास्तीत जास्त व्यसनाधीन होत आहे. समाज पारावरून हा विषय हाताळताना अनेक पैलू समोर येतात.  वर वर साधी वाटणारी ही समस्या  अतिशय गंभीर स्वरूप धारण करीत आहे.

मी माझ्या मुलाला काहीही कमी पडू देणार नाही ही पालकांची भूमिका पाल्याला व्यसनी बनवायला कारणीभूत ठरते आहे.  कुटुंबातील नात्यांमधे हरवत चाललेला संवाद हे ही प्रमुख कारण आहेच. एकटे रहाण्याची सवय व्यसनाला पोषक वातावरण तयार करते  आणि समवयस्क मुलांना असलेली व्यसने संगती दोषामुळे  आपोआप स्वतःला चिकटतात.  तारूण्यात असलेली बेफिकीर वृत्ती व्यसनाला कारणीभूत ठरते.  काही होत नाही कर ट्राय  ही चिथावणी  सार आयुष्य बरबाद करते.

घर दार, कुटुंब ,  म्हणजे काय हे समजून घ्यायच्या  आतच  आजचा तरूण व्यसनाधीन होतो  आहे.  अंगावर कौटुंबिक जबाबदाऱ्या नसल्याने खुशालचेंडू आयुष्य जगणारा युवक  स्वतःसाठी जास्त जगताना  आढळतो. हे स्वतःसाठी जगणे म्हणजे हवे तसे जगणे  असा अर्थ घेऊन तो जगतो आहे.  पैसा हे मूळ कारण यात कारणीभूत आहे.  पैसा कमवायची  सवय, गरज निर्माण होण्याआधी तो खर्च कसा करायचा याचा विचार करणारी तरूण पिढी व्यसनाच्या  इतकी आहारी जाते की ते व्यसन त्यांच्या जगण्याच्या  एक भाग होऊन बसते.

एखाद्या कुट॔बात वडिल धारे व्यसनी असतील तर मात्र तरूण पिढी  आपोआपच व्यसनाधीन होते.  समाजरूढी परंपरा यामुळे  घरची स्त्री अजूनही सजगतेने या व्यसनी व्यक्तीला सांभाळून घरदार सावरत आहे.  ताण तणाव दुंख निराशा या भावना स्त्रीयांनाही आहेत. पण जबाबदारी माणसाला माणूस बनवते आणि या मुळेच स्त्रीया कणखर पणे यातून मार्ग काढीत आहेत. नव्या पिढीच्या काही तरूणी व्यसनाधीन होत आहेत त्याला कौटुंबिक वातावरण जास्त जबाबदार आहे.

नशा, दारू हे व्यवसाय समाजान वाढवले आहेत.  आणि हा समाज  आपणच  आहोत तेव्हा वैयक्तिक पातळीवर  आपण व्यसनाधीनतेला आळा कसा घालता येईल यावर जास्त कठोर पणे  उपाययोजना करायला हवी. मुलगा वयात येताना  बापाने व्यसनाधीनतेचे प्रदर्शन टाळले आणि मुलाशी सुसंवाद साधला तरी मुलगा व्यसनापासून दूर राहू शकतो.  चांगले झाले तर मी केले  आणि वाईट झाले तर देवाने, नशीबाने, सरकारने केले ही विचारधारा जोपर्यंत आपण बदलत नाही तोपर्यंत हे सरकार देखील यात काही ठोस निर्णय घेऊ शकणार नाही  असे मला वाटते.

व्यसनाधीनता रोखणे  आपल्या हातात आहे पण व्यसनाधीनता थांवण्यासाठी सरकारला दोष देणे मला पटत नाही.  सर्व दोष व्यक्ती कडे  असताना परीस्थिती हाताबाहेर गेल्यावर सरकारकडून मदतयाचना करणे हा या समस्येवर तोडगा नाही.  आपण समजूत दार  आहोत.

आम्ही व्यसन मर्यादित ठेवले आहे  अशी फुशारकी मारणारे देखील कौटुंबिक संवादात  अपयशी ठरले आहेत. तेव्हा व्यसन ही समस्या गंभीर आहे ती सोडविण्यास जागरूकता महत्वाची आहे.  जबाबदारी पेलताना माणूस म्हणून वैचारिक संस्कार सुशिक्षित पिढीवर करण्याची वेळ आली आहे.  तंबाखू, दारू, सिगारेट नशा हे सर्व  आपण स्वीकारलेले विकार आहेत त्याचा विनाश करण्यासाठी त्यांचा त्याग करणे,  हा मोह टाळणे अतिशय योग्य आहे.

दुसऱ्याला  अमूक एक गोष्ट करू नको हे सांगण्यापेक्षा आपल्या माणसाला व स्वतःला  (जर व्यसन  असेल तर  )परावृत्त करणे जास्त सोपे आहे. तरूण आपणही होतो.  आपण केलेल्या चुका मुलांनी करू नये एवढी काळजी जरी प्रत्येकाने घेतली तरी तरूण पिढी यातून वाचू शकेल.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (38) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।38।।

 

इस दुनियाँ में ज्ञान सरीखी कोई दूसरी वस्तु नहीं

उसी ज्ञान को आत्म योग से अपने अंदर खोल सही।।38।।

 

भावार्थ :  इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है।।38।।

 

Verily there is no purifier in this world like knowledge. He who is perfected in Yoga finds it in the Self in time. ।।38।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

vivek1959@yahoo.co.in

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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