हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ मेरा अभिनंदन ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ मेरा अभिनंदन ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य।  अभी तक  जिन  साहित्यकारों का अभिनंदन नहीं हुआ  है यह व्यंग्य उनके लिए प्राणवायु का  कार्य अवश्य करेगा। )

आम तौर से जो साहित्यकार पचास पार कर लेते हैं उनका खोज-खाज कर अभिनंदन कर दिया जाता है।कोई और नहीं करता तो उनकी मित्रमंडली ही कर देती है। पचास पर अभिनंदन करने के पीछे शायद भावना यह होती है कि अब तुम जीवन की ढलान पर आ गये, पता नहीं कब ऊपर से सम्मन आ जाए। इसलिए समाज पर जो तुम्हारा निकलता है उसे ले लो और छुट्टी करो। बिना अभिनंदन के मर गये तो कब्र में करवटें बदलोगे।

लेकिन कुछ अभागे ऐसे भी होते हैं जिनका पचास से आगे बढ़ लेने के बाद भी अभिनंदन नहीं होता। ऐसे अभागों में से एक मैं भी हूँ। पचास पार किये कई साल हो गये लेकिन इतने बड़े शहर से कोई चिड़िया का पूत भी अभिनंदन की बात लेकर नहीं आया। धिक्कार है ऐसे जीवन पर और लानत है ऐसी साहित्यकारी पर।

इसी ग्लानि से भरा एक दिन बैठा ज़माने को कोस रहा था कि दो झोलाधारी युवकों ने मेरे घर में प्रवेश किया। हुलिया से ही समझ गया कि उनका संबंध साहित्य से है। काफी ऊबड़-खाबड़ दिख रहे थे। उनमें से एक का कुर्ता घुटने के नीचे तक था। थोड़ा और लंबा सिलवा लेते तो पायजामे की ज़रूरत न रहती।

छोटे कुर्ते वाला बोला, ‘हम लोग अभिशोक साहित्यिक संस्था से आये हैं। मैं ‘कंटक’ हूँ, संस्था का सचिव, और ये ‘शूल’ जी हैं, संस्था के सहसचिव।’

मैंने दुखी स्वर में कहा,’मिलकर खुशी हुई। क्या सेवा करूँ?’

वे बोले,’हमारी संस्था साहित्यकारों का अभिनंदन करती है। खोजने पर पता चला कि आप उन दो चार साहित्यकारों में से हैं जिनका अभी तक अभिनंदन नहीं हुआ,  इसलिए आपके पास चले आये। हम आपका अभिनंदन करना चाहते हैं।’

मेरे मन के सूखे पौधों में एकाएक हरीतिमा का संचार हुआ। प्राणवायु के लिए फड़फड़ाते आदमी को आक्सीजन मिली। मन की पुलक को दबाते हुए मैंने कहा, ‘जैसी आपकी मर्जी, लेकिन मैं तो बहुत छोटा लेखक हूँ। इस सम्मान के योग्य कहाँ!’

मेरी विनम्रता को सराहने के बजाय ‘शूल’ जी आह भरकर बोले, ‘आप ठीक कहते हैं। लेकिन हमें तो किसी का अभिनंदन करना है।’

‘कंटक’ जी कागज़-कलम निकालकर बोले, ‘इस कागज़ पर अपना नाम ठीक ठीक लिख दीजिए। मैंने आपकी एक दो रचनाएं तो देखी हैं, लेकिन पूरा नाम याद नहीं है। बाकी अपना और कच्चा-चिट्ठा भी लिख दीजिए। झूठ मत लिखिएगा। कई साहित्यकार झूठ ही लिख देते हैं कि यह पुरस्कार मिला, वह पुरस्कार मिला। ज़्यादा तारीफ भी मत लिखिएगा। वह काम हम पर छोड़ दीजिए। हम दस साल से यही कर रहे हैं।’

कच्चा-चिट्ठा लिखवाने के बाद ‘कंटक’ जी बोले, ‘एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी समझता हूँ। हमारा बजट सिर्फ श्रीफल के लिए ही पर्याप्त है। अगर आपको शाल भी लेना हो तो कुछ आर्थिक सहयोग देना होगा।’

मैं तुरंत सतर्क हुआ। कहा, ‘श्रीफल काफी है। मेरे पास तीन चार शाल हैं। और लेकर क्या करूँगा?’

‘शूल’ जी बोले,’तो फिर ऐसा करते हैं, आप अपना कोई नया सा शाल दे दीजिए। हम मुख्य अतिथि के हाथों वही आपको ओढ़वा देंगे।’

मेरे भीतर का वणिक और सतर्क हुआ। मैंने कहा, ‘अजी छोड़िए। कहीं शाल आपसे खो-खा गया तो अभिनंदन मुझे मंहगा पड़ जाएगा।’

‘कंटक’ जी बोले, ‘हमारे बजट में उपस्थित लोगों के लिए सिर्फ चाय की गुंजाइश है। आप अगर कुछ और जोड़ना चाहें तो आर्थिक सहयोग करना होगा।’

मैंने तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया, ‘चाय काफी है। खाने पीने की चीज़ें ज़्यादा रखने से कार्यक्रम की गंभीरता नष्ट होती है।’

‘कंटक’ जी हंसकर बोले, ‘मैं समझ गया कि आपका अभिनंदन अभी तक क्यों नहीं हुआ।’

फिर बोले, ‘हम चलते हैं। शीघ्र ही आपको सूचित करेंगे।’

मैंने कहा, ‘एक बात बताते जाइए। आपकी संस्था के नाम का अर्थ क्या है? ‘अभिषेक’ शब्द तो जानता हूँ, ‘अभिशोक’ पहली बार सुना।’

वे पुनः हँस कर बोले, ‘बात यह है कि हमारी संस्था साहित्यकारों के लिए दो ही काम करती है—–अभिनंदन और शोकसभा। इसीलिए दोनों शब्दों को मिलाकर अभिशोक नाम रखा।’

मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘यह अच्छा है कि आप मेरा अभिनंदन किये दे रहे हैं, अन्यथा फिर शोकसभा के लायक ही रह जाता।’

अभिनंदन के लिए बड़ी उमंग से सज-धज कर पहुंचा, लेकिन वहां उपस्थित सिर्फ दस बारह श्रोताओं को देखकर मेरा दिल बैठ गया। उनमें भी दो तीन मेरे मित्र थे। इनका अभिनंदन अभी बाकी था, इसलिए वे अपने अभिनंदन में मेरी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए आये थे। यह परस्पर लेन-देन का मामला था।

‘कंटक’ जी मुझसे फुसफुसा कर बोले, ‘थोड़ा और रुक लें? शायद कुछ लोग और आ जाएं।’

मैंने फुसफुसा कर जवाब दिया, ‘बिलकुल मत रुकिए। विलंब होने पर इनमें से भी कुछ खिसक सकते हैं।’

कार्यक्रम शुरू हुआ। शुरू में ‘कंटक’ जी बोले। उन्होंने मेरी प्रशंसा के खूब पुल बांधे। उस दिन ही मुझे पता चला कि मैं कितने वज़नदार गुणों का स्वामी हूँ। कस्तूरी-मृग की तरह मैं उनसे अनभिज्ञ ही रहा।’कंटक’ जी बार बार कहते थे ‘अब इनके बारे में क्या कहूँ’, और फिर आगे कहने लगते थे।

उनके बाद संस्था के अध्यक्ष ने बाकी बचे हुए गुणों से मुझे विभूषित किया। उनके भाषण के खत्म होने तक संसार के सारे गुण मेरे हिस्से में आ गये। मैं समझ गया कि उन्हें मेरे गुण-दोषों से कुछ लेना-देना नहीं है। उनके पास खूबियों की एक फेहरिस्त थी जिसे वे हर अभिनंदन में बाँच देते थे। अब कोई उसे सच समझ ले तो उनकी बला से।

उनके भाषण के बाद मुझे अभिनंदन-पत्र और श्रीफल भेंट किया गया। मेरे आश्चर्य और सुख की सीमा न रही जब श्रीफल देने के बाद मुझे एक शाल उढ़ाया गया। मैं समझ गया कि मेरे लिए संस्था ने कुछ गुंजाइश निकाल ही ली। यह एक ठोस उपलब्धि थी।

जब मैंने बोलना शुरू किया तो ज़्यादातर श्रोता जम्हाइयाँ लेने लगे। उनके खुले मुख के अंधकार को देखकर मुझे अपना भाषण छोटा करना पड़ा। संस्था के पदाधिकारियों को उनके साहित्य-प्रेम के लिए बधाई देकर मैं बैठ गया।
वापस लौटते वक्त मैं अकेला था। मित्र लोग अपनी ड्यूटी करके और मुझे ईर्ष्यापूर्ण बधाई देकर फूट लिये थे।

दस पंद्रह कदम ही बढ़ा हूँगा कि किसी ने पीछे से आवाज़ दी। मुड़ कर देखा तो ‘कंटक’ जी थे। मैंने सोचा उन्हें शाल की अप्रत्याशित भेंट के लिए धन्यवाद दे दूँ।

वे नज़दीक आये तो मैंने कहा, ‘शाल के लिए – – – –

वे मेरी बात बीच में ही काटकर बोले, ‘मैं शाल के लिए ही आया हूँ। दरअसल संस्था के अध्यक्ष जी कहने लगे कि अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि हमने अभिनंदित को शाल न उढ़ाई हो, भले ही वह उसी के पैसे की हो। बोले कि शाल नहीं उढ़ाई तो संस्था की पोल खुल जाएगी। इसलिए मैं अपने एक मित्र से शाल लेकर आया। अब काम हो गया। शाल वापस कर दीजिए।’

मेरा मुंह फूल गया। गुस्से में बोला, ‘यह क्या तरीका है? आपको शाल वापस ही लेना था तो आप कल मेरे घर आ सकते थे।’

‘कंटक’ जी बोले, ‘चीज़ एक बार पेटी में पहुँच जाए तो निकलवाना मुश्किल होता है। आपके घर पहुँचकर हल्ला भी नहीं कर सकता, क्योंकि संस्था की बदनामी होगी। इसलिए आप यहीं दे दीजिए। यह हमारा इलाका है, यहाँ वसूल करना आसान है।’

स्थिति प्रतिकूल देखकर मैंने तुरंत रुख बदला और हँस कर कहा, ‘मैं तो मज़ाक कर रहा था। यह रहा आपका शाल।’

मैंने शाल उतारकर उन्हें पकड़ा दिया। वे उसे तह करते हुए बोले, ‘प्रणाम! फिर भेंट होगी। कहा-सुना माफ कीजिएगा।’

फिर वे घूम कर अंधेरे में अंतर्ध्यान हो गये और मैं अपने अभिनंदन के बचे हुए प्रमाण श्रीफल और अभिनंदन-पत्र को लिये घर आ गया। कहने की ज़रूरत नहीं कि शाल की दास्तां मैं घर के लोगों से साफ छिपा गया।

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)
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हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? टूट गया बंजारा मन ? – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

? टूट गया बंजारा मन ?

(प्रस्तुत  है जीवन की कटु सच्चाई  एवं रिश्तों के ताने बाने को उजागर करती कविता।  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।)

 

माना रिश्ता जिनसे दिल का

दे बैठा मैं तिनका-तिनका

दिल के दर्द,कथाएँ सारी

रहा सुनाता बारी-बारी

सुनते थे ज्यों गूँगे-बहरे

कुछ उथले कुछ काफी गहरे

 

मतलब सधा,चलाया घन.

टूट गया बंजारा मन.

 

भाषा मधुर शहद में घोली

जिनकी थी अमृतमय बोली

दाएँ में ले तीर-कमान

बाएँ हाथ से खींचे कान

बदल गए आचार-विचार

दुश्मन-सा सारा व्यवहार

उजड़ा देख के मानस-वन.

टूट गया बंजारा मन.

 

जिस दुनिया से यारी की

उसने ही गद्दारी की

लगा कि गलती भारी की

फिर सोचा खुद्दारी की

धृतराष्ट्र की बाँहों में

शेष बची कुछ आहों में

किसने लूटा अपनापन.

टूट गया बंजारा मन.

 

कैसे अपना गैर हो गया

क्योंकर इतना बैर हो गया

क्या सचमुच वो अपना था

या फिर कोई सपना था

अपनापन गंगा-जल है

जहाँ न कोई छल-बल है

ईर्ष्या से कलुषित जीवन.

टूट गया बंजारा मन.

 

वे रिश्तों के कच्चे धागे

आसानी से तोड़ के भागे

मेरे जीवन-पल अनमोल

वे कंचों से रहे हैं तोल

छूट रहे जो पीछे-आगे

जोड़ रहा मैं टूटे धागे

उधड़ न जाए फिर सीवन.

टूट रहा बंजारा मन.

 

बाहर भरे शिकारी जाने

लाख मनाऊँ पर ना माने

अनुभव हीन, चपल चितवन

उछल रहा है वन-उपवन

‘नाद रीझ’ दे देगा जीवन

 

यह मृगछौना मेरा मन

विष-बुझे तीर की है कसकन.

टूट गया बंजारा मन.

 

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

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मराठी साहित्य – मराठी कथा/लघुकथा – ☆ साहेब…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साहेब…! ☆ 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।)

त्या दिवशी ऑफिस मधलं सारं काम आटपून मी बाहेरच्या चहाच्या गाडीवर येऊन थांबलो महीना आखेर मुळे पाकीटातल्या कमी झालेल्या पैशाची गोळा बेरीज आणि घरी जाताना पुन्हा ट्रेन मध्ये तीच धक्काबुक्की तीच गर्दी डोक्यात प्रश्नांची सरमिसळ चालू असतानाच ,चहाचा एक एक घोट  ट्रेन च्या लढाईवर जाण्यासाठी मला सज्ज करत होता.

चहा संपवून मी चहाचा कप खाली ठेवणार  एवढ्यात ” साहेब ” ही करूण हाक माझ्या कानावर पडली. मी त्या दिशेने पहाताच माझ्या समोर त्या माऊलीने पसरलेला हात मागे घेतला. तिच्या सोबत असणारं तिच लहान लेकरू तिला घट्ट बिलगून उभ राहील होतं. मी तिच्या हातावर रूपाया देण्यासाठी खिशात हात घालणार , एवढ्यात त्या माऊलीने पुन्हा माझ्यासमोर हात पसरला आणि लेकरांबद्दलची सारी माया एकवटून तिनं, “साहेब  ‘पाच रू’ आहेत का ?” म्हणून  विचारलं. खरं सांगायचं तर कुणीही पैशाची मदत मागितल्यावर त्याला कशासाठी म्हणून विचारायचं नाही. जमत असेल तर हो म्हणायचं नाहीतर नाही म्हणायचं असा माझा स्वभाव.  पण मुळात नाही म्हणणं आपल्या स्वभावात बसत नाही. पण त्या दिवशी तिनं पाच रूपये आहेत का विचारताच माझ्या तोंडून कसाकाय तो अचानक  ‘कशासाठी’ हा शब्द बाहेर पडला कदाचित त्या माऊलीच्या चेह-यावर एकवटलेली  तिच्या लेकरांबद्दलची माया बघूनच डोक्यात चाललेल्या प्रश्नांच्या गुंत्यातून वाट काढत तो शब्द ओठांवर आला असावा. तिनेही मग लेकराच्या डोक्यावरून हात फिरवत काहीशा अस्वस्थतेनच उत्तर दिलं  “लेकरांला भूक लागलीय , साहेब ” .मनात विचार केला की पाच रुपयात ह्या लेकराच पोट खरंच भरेल का? आणि त्याचं पोट भरलं तरी त्या मायेच्या भुकेच काय ? तिला भूक लागली नसेल का..? मी काहीच बोलत नाही हे बघून ती दोघं पुढे निघून जात असतानाच मी त्यांना आवाज दिला माघारी  बोलवलं.

चहाच्या गाडीवर कामाला असणा-या गणप्याला सांगून त्या माय लेकराला पोट भर मिसळ पाव खायला द्यायला सांगितलं. त्या माऊलीन माझ्यासमोर हात जोडले अन् म्हटली साहेब एवढं नको फक्त पाच रूपये द्या मी तिला काही न बोलताच दोघांनाही बसायला खुर्ची दिली त्या माऊलीने पुन्हा नकारार्थी मान डोलवली आणि म्हटली इथं नको आम्ही तिथं खाली बसून खातो मी म्हटलं नाही इथेच बसून खायचंय तेव्हा गणप्यानं रागानच त्याच्या समोर मिसळची डीश आणून ठेवली तेव्हा मी ही गणप्याकडं रागाने बघताच गणप्या निघून गेला. दोघा माय लेकरांना खाताना पाहून डोळ्यात पाणी दाटून आलं तिनं लेकरांला करून दिलेल्या पावांच्या तुकड्यां समोर माझ्या मनातले, प्रश्नांचे तुकडे अगदीच शूल्लक वाटू लागले त्या दोघांनीही पोटभर खाऊन हात धूतल्यावर  ती माऊली  पुन्हा माझ्या समोर येऊन उभी राहिली अन् पुन्हा माझ्या समोर हात जोडले अन् म्हटली ” खूप उपकार झालं  , येळेला मदत केली साहेब .” त्या माऊलीने मला साहेब म्हणून हाक मारताच मी म्हटलं साहेब नका म्हणू… मी त्या लेकराच्या डोक्यावरून हात फिरवताच, ते दोघं निघून गेले .

पण मी मात्र त्यांना बराच वेळ पहात उभा राहिलो. साहेब शब्दात  अडकलेला मी  आज गरजवंताला देवता स्वरूप भासलो होतो. मी तसाच  उभा होतो. .  रोज रेल्वे स्टेशन वर गर्दी नसलेल्या ट्रेन ची वाट पहात उभा असतो तसाच……!!

 

© सुजित कदम, पुणे

मोबाइल 7276282626.
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English Literature – ☆ Reading – The best 15 minutes you’ll even invest ☆ – Shri Jay Prakash Pandey

Shri Jay Prakash Pandey

☆ Reading – The best 15 minutes you’ll even invest ☆ 

 On the basis of two comparative statistics the following valuable information was made available.
The average human reads less than two books per year – one and a half to be exact – with almost two-thirds of those going unfinished. On the whole, at present humans have lost the habit of reading good books
There is a notable exception, however. Chief Executives of Fortune 500 companies read on an average, roughly four books per week. This is equivalent to about 200 times the average for the rest of the world, and it is guaranteed that vast majority of the books read by the so called Chief Executives are good, meaty stuff that causes them to think about their business and/or their life in a very healthy way.
Needless to say, you should start reading four books a week and there is a direct and positive correlation between the amount of good reading an individual does and their influence and income. Unquestioningly, the most life-changing habit you can develop is to systematically read good books.
Charlie “Tremendous” Jones coined the phrase that “Leaders are always Readers”. Brian Tracy has seen it happen many times where an individual went from zero to 30 minutes a day of good reading and saw their income double. If you do not currently make positive reading a regular part of your life, DO SO IMMEDIATELY. Along with changing who you spend your time with, it is absolutely the most powerful way to change your life for the better.
You have to work, spend time with your family and engage in all great activities that you engage in, and you should. You don’t need to become a full time student or some kind of hermit bookworm crazy person. All you need is 15 minutes a day, preferably right in the beginning or right at the end of that day. Watching TV, surfing the internet, eating lunch, just zoning out, the list goes on and on. Just take just 15 minutes out of those kinds of activities each day and invest it in a good book.

©  Jay Prakash Pandey

416 – H, Jay Nagar, Near IBM Office, Jabalpur – 482002 Mobile – 9977318765

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Very Good, Very Good, Yay! ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Very Good, Very Good, Yay!

What would you say about a club that grooms a hundred youngsters every week to laugh for no reason? Chetana Laughter Club has the unique distinction of taking a few thousand young pilgrims along the pathway of self-triggered joy during the past one year. And, the journey continues..

State Bank Foundation Institute (Chetana) has been set-up at Indore (India) to groom young bank officers. During their training, the officers have a brief tryst with Laughter Yoga. It is used as an ice-breaker at the beginning of programme and as an energizer in between the sessions as and when required. Besides, there is a full-fledged laughter session every Wednesday evening.

All the participants invariably imbibe the chants of ‘Very Good Very Good Yay’ during their stay and it soon becomes their mantra. This is something they will never forget in life. Gradually, they realize the virtues of unconditional laughter.

Here is a testimonial from one of our participants:

Survival of the Happiest

Laughter is something that comes naturally to people and it is the most contagious thing on earth. No one has to teach a baby to laugh.

I came to State Bank Foundation Institute (Chetana), Indore unaware of what was in store for me. After my tryst with the laughter yoga club, the laugh has never stopped.

The Laughter session conducted by Jagat Bisht Sir was one laugh riot. Every time sir introduced a new exercise for laughter, it instantly generated excitement and contemplation of the possible outcome.

My favorite act was the small role-play where if someone asked “What’s the time?”; one replied “It’s time to laugh ” and everyone broke out into laughter.

One of the phrases which everyone chanted after every act was – “Very good, Very Good, Yay!” It’s a simple phrase without any actual meaning .But when you clap your hands and say it loud the phrase brings out its actual magic. It became an instant hit and a college anthem for us.

I didn’t realize through the course of the session how it had a positive biochemical effect on my cardiovascular and nervous system. It’s only when I got back to my room that I could see myself happy, de-stressed and re-energized. In this era of ‘survival of the fittest’, Laughter club has the guts to say ‘ survival of the happiest ‘.

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (67) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

 

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।67।।

 

विषयलीन इंद्रियों से होता मन -भटकाव

जैसे जल में हो कोई वायु प्रवाहित नाव।।67।।

 

भावार्थ :   क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।।67।।

 

For the mind which follows in the wake of the wandering senses, carries away his discrimination as the wind (carries away) a boat on the waters ।।67।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ अक्षय तृतीया ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ अक्षय तृतीया ☆

(प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  द्वारा  अक्षय तृतीया पर्व  पर रचित कविता “अक्षय  तृतीया “।)

 

अक्षय सुखाची       वैशाख तृतीया

पर्वणी साधुया         मुहूर्ताची ….!

 

शुभदिन योग           शुभ मुहूर्ताचा

दानधर्म साचा          फलदायी. …!

 

गहू, हरभरे              जवस नी सातू

दानधर्म हेतू             साधियेला. …!

 

पितृश्राध्द कर्म         मिष्टान्न भोजन

हवन, तर्पण             लाभदायी. ….!

 

जडजवाहीर             सुवर्ण लंकार

शुभकार्य द्वार            उघडिले.. . !

 

स्नेहबंध वृद्धी         नामजप सिद्धी

अक्षय प्रसिद्धी         सामावली.

 

अक्षय तृतीया          शुभारंभ योग

कर्मफल भोग           अविनाशी. . . . !

 

चैत्रगौरी सण           आनंदी सांगता

समृद्धी मागुता         प्रवेशली.. . !

 

संकल्प  आरंभ          आनंद वर्धन

सौभाग्य दर्पण           अंतरात . . . . !

 

अक्षय तृतीया            ठेवा मांगल्याचा

कर्म साफल्याचा         शुभदिन. . . . . !

 

सुख, स्नेह, शांती      अक्षय रहावी

त्रिसूत्री जपावी         स्नेहमयी.

 

विजय यशवंत सातपुते, पुणे.

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ भगवान परशुराम जयंती एवं अक्षय तृतीया पर्व ☆ – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

☆ भगवान परशुराम जयंती एवं अक्षय तृतीया पर्व ☆

भगवान परशुराम जयंती एवं अक्षय तृतीया पर्व पर  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी का  विशेष  आलेख  उनके व्हाट्सएप्प  से साभार। )

आपको और आपके परिवार को परशुराम जयंती और अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

 

वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ।
निशाया: प्रथमे यामें रामाख्य: समये हरि:।।

स्वोच्चगै:षड्ग्रहैर्युक्ते मिथुने राहुसंस्थिते।
रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो विभु: स्वयं।।

 

भगवान *परशुराम* स्वयं भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनकी गणना दशावतारों में होती है। वैशाखमास के  शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को *पुनर्वसु* नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के छः ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता *रेणुका* के गर्भ से भगवान् परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ।

दिग्भ्रमित समाज में अपने तपोबल और पराक्रम से समता और न्याय की स्थापना करने वाले भगवान परशुराम का जीवन अत्यंत प्रेरणादायी और अनुकरणीय है।

उनके आदर्शों पर चलने का हम सबको संकल्प लेना चाहिये।

© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ किटी पार्टी ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

☆ किटी पार्टी ☆

Smiley, Happy, Face, Smile, Lucky, Luck(प्रख्यात व्यंग्यकार श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी   ने   किटी पार्टी पर काफी शोध कर लिया है। किन्तु, शोध के पश्चात ऐसे पारिवारिक /सामाजिक विषय पर व्यंग्य लिखने के लिए काफी हिम्मत की आवश्यकता पड़ती है। श्री विवेक जी को बधाई।)

पुराने जमाने में महिलाओं की परस्पर गोष्ठियां पनघट पर होती थी। घर परिवार की चर्चायें, ननद, सास की बुराई, वगैरह एक दूसरे से कह लेने से मनो चिकित्सकों की भाषा में, दिल हल्का हो जाता है, और नई ऊर्जा के साथ, दिन भर काटने को, पारिवारिक उन्नति हेतु स्वयं को होम कर देने की हमारी सांस्कृतिक विरासत वाली ’नारी’ मानसिक रूप से तैयार हो लेती थी। समय के साथ बदलाव आये हैं। अब नल-जल व्यवस्था के चलते पनघट इतिहास में विलीन हो चुके हैं। स्त्री समानता का युग है। पुरूषों के क्लबों के समकक्ष महिला क्लबों की संस्कृति गांव-कस्बों तक फैल रही है। सामान्यतः इन क्लबों को किटी-पार्टी का स्वरूप दिया गया है। प्रायः ये किटी पार्टियां दोपहर में होती है, जब पतिदेव ऑफिस, और बच्चे स्कूल गये होते हैं। महिलायें स्वयं अपने लिये समय निकाल लेती है। और मेरी पत्नी इस दौरान सोना, टी.वी. धारावाहिक देखना, पत्रिकायें-पुस्तकें पढ़ना, संगीत सुनना, और कुछ समय बचाकर लिखना जैसे षौक पाले हुए थी। पर हाल ही उसे भी  किटी पार्टी का रोग लग ही गया।

प्रत्येक मंगलवार को मैं महावीर मंदिर जाता हूं, अब श्रीमती जी इस दिन किटी पार्टी में जाने लगी है। कल क्या पहनना है, ज्वेलरी, साड़ी से लेकर चप्पलें और पर्स तक इसकी मैंचिंग की तैयारियां सोमवार से ही प्रारंभ हो जाती हैं। कहना न होगा इन तैयारियों का अर्थिक भार मेरे बटुये पर भी पड़ रहा है। जिसकी भरपाई मेरा जेबखर्च कम करके की जाने लगी है। ब्यूटी कांषेस श्रीमती जी, नई सखियों से नये-नये ब्यूटी टिप्स लेकर, मंहगी हर्बल क्रीम, फेस पैक वगैरह के नुस्खे अपनाने लगी है। किटी पार्टी कुछ के लिये आत्म वैभव के प्रदर्शन हेतु, कुछ के लिये पति के बॉस की पत्नी की बटरिंग के द्वारा उनकी गुडबुक्स में पहुंचने का माध्यम कुछ के लिये नये फैशन को पकड़ने की अंधी दौड़, तो कुछ के लिये अपना प्रभुत्व स्थापित करने का एक प्रयास कुछ के लिये इसकी-उसकी बुराई भलाई करने का मंच, कुछ के लिये क्लब सदस्यों से परिचय द्वारा अपरोक्ष लाभ उठाने का माध्यम तो कुछ के लिये सचमुच विशुद्ध मनोरंजन होती है। कुछ इसे नेटवर्क मार्केटिंग का मंच बना लेती हैं।

क्लब में हाउजी का प्रारंपरिक गेम होता है, जिस किसी की टर्न होती है, उसकी रूचि, क्षमता एवं योग्यता के अनुरूप सुस्वादु नमकीन-मीठा नाश्ता होता है। चर्चायें होती हैं। गेम आफ द वीक होता है, जिसमें विनर को पुरस्कार मिलता है। मेरी इटेलैक्चुअल पत्नी जब जाती है, ज्यादातर कुछ न कुछ जीत लाती है। आंख बंद कर अनाज पहचानना, एक मिनट में अधिकाधिक मोमबत्तियां जलाना, जिंगल पढ़कर विज्ञापन के प्राडक्ट का नाम बताना, एक रस्सी में एक मिनट में अधिक से अधिक गठाने लगाना, जैसे कई मनोरंजक खेलों से, किटी पार्टी के जरिये हम वाकिफ हुये हैं। मेरा लेखक मन तो विचार कर रहा है एक किताब लिखने का- गेम्स आफ किटी पार्टीज मुझे भरोसा है, यह बेस्ट सैलर होगी। क्योंकि हर हफ्ते एक नया गेम तलाशने में महिलायें काफी श्रम कर रही है।

इस हफ्ते मेरी श्रीमती जी ’लेडी आफ दि वीक’ बनाई गई है। यानी इस बार टर्न उनकी हैं। चलतू भाषा में कहें तो उन्हें मुर्गा बनाया गया है- नहीं शायद मुर्गी। श्रीमती जी ने सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति देने के अंदाज में मेरे सारे मातहत स्टाफ को तैनात कर रखा है, चाट वाले को मय ठेले के क्लब बुलवाया जाना है, आर्डर पर रसगुल्ले बन रहे हैं, एस्प्रेसों काफी प्लांट की बुकिंग कराई जा चुकी है, हरेक को रिटर्न गिफ्ट की शैली में कुछ न कुछ देने के लिये मेरी किताबों के गिफ्ट पैकेट बनाये गये हैं- ये और बात है कि इस तरह श्रीमती जी लाफ्ट पर लदी मेरी किताबों का बोझ हल्का करने का एक और असफल प्रयास कर रही है, क्योंकि जल्दी ही मेरी नई किताब छपकर आने को है। क्या गेम करवाया जावे इस पर बच्चों से, सहेलियों से, बहनों से मोबाईल पर, लम्बे-लम्बे डिस्कशंस हो रहे हैं- मोबाईल पर कर्टसी काल करके वैयक्तिक आमंत्रण भी श्रीमती जी अपने क्लब मेम्बरस् को दे रही है। श्रीमती जी की सक्रियता से प्रभावित होकर लोग उन्हें क्लब सेक्रेटरी बनाना चाह रहे हैं। मैं चितिंत मुद्रा में श्रीमती जी की प्रगति का मूक प्रशंसक बना बैठा हूँ। उन्हें चाहकर भी रोक नहीं सकता क्योंकि क्लब से लौटकर जब चहकते हुये, वे वहाँ  के किस्से सुनाती है, तो उनकी उत्फुल्लता देखकर मैं भी किटी पार्टी में रंग जमाने वाली संदर, सुशील, सुगढ़ पत्नी पाने हेतु स्वयं पर गर्व करने का भ्रम पाल लेता हूं। अब कुछ प्रस्ताव किटी पार्टी को आर्थिक लाभों से जोड़ने के भी चल रहे हैं, जिनमें बीसी के साथ ही, नेटवर्क मार्केटिंग, सहकारी खरीद, पारिवारिक पिकनिक वगैरह के हैं। आर्थिक सामंजस्य बिठाते हुये, श्रीमती जी की प्रसन्नता के लिये उनकी पार्टी में हमारा पारिवारिक सहयोग बदस्तूर जारी है। क्योंकि परिवार की प्रसन्नता के लिये पत्नी की प्रसन्नता सर्वोपरि है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ बेटियां शची रति दुर्गा लक्ष्मी और सरस्वती बनें ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ बेटियां शची रति दुर्गा लक्ष्मी और सरस्वती बनें ☆

 

बेटियां जब आतीं घर आंगन महकातीं,

जब वह चिड़ियों सा चहकतीं गुनगुनाती।

मन के घर आंगन में निज प्यार बिखेरतीं,

अपना होने का निरंतर अहसास दिलातीं।।

 

पैदा होते ही वो जनक की जानकी बनतीं,

राम की सीता कृष्ण की राधा  बन जातीं।

प्रतीक होतीं मां बाप के आन बान शान की,

फिर किसी और के घर की शान बन जातीं।।

 

बेटियां तो पिता की आंखों का तारा,

मां के हृदय में ही सदा रहा करतीं।

देर जब हो जाए उनके आने में घर,

मां बाप की चिंता भी बना करतीं।।

 

इस सृष्टि की भी वही तो सृष्टा होतीं,

आंचल में दूध आंखों में पानी रखतीं।

ससुराल जा कर भी बाबुल की होतीं,

मां बाप का गौरव बन सम्मान बढ़ातीं।।

 

बेटियां कभी श्रुति तो कभी सृष्टि होतीं,

तन से ससुराल पर मन से मायके होतीं।

तन से कठोर पर मन से कोमल बनतीं,

पर छुप छुप कर बाबुल के लिए रोतीं।।

 

ससुराल में जब बेटियां दु:खी रहतीं,

मा बाप के हृदय में शूल चुभता रहता।

जब बेटियां ससुराल में सुखी रहतीं,

मां बाप का हृदय सदा खिला रहता।।

 

बेटियां दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती बनतीं,

तो मां बाप  निश्चिंत हुआ करते हैं।

जब बेटियां अबला बन जातीं हैं तो,

मां बाप सदा चिंतित रहा करते हैं।।

 

दहेज, शोषण, घरेलू हिंसा न होंगे नियंत्रित,

यदि बेटियां अपने पैरों पर खड़ी नहीं होंगी।

लालची जुआरी चरित्रहीन करेंगी नियंत्रित,

जब बेटियां सशक्त और आत्म निर्भर होंगी।।

 

बेटियां शची रति दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती बने,

निज मां बाप की आन बान और शान बने।

उन्हें अबला बन कर जीते तो ज़माना बीता,

अब वे सबल बन राष्ट्र का अभिमान बनें।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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