मराठी साहित्य – मराठी कविता – * काय राह्यलय हरवण्यासारखं ? * – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(मेरे विशेष अनुरोध पर  (डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)  द्वारा रचित मेरी प्रिय कविता  “पहले क्या खोया जाए ” का मराठी भावानुवाद  “काय राह्यलय हरवण्यासारखं ?” कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  द्वारा किया गया। 

यह कविता इतनी मार्मिक है कि मैं कविराज विजय सातपुते जी के शब्दों में – “ये कविता इतनी भावपूर्ण थी कि  मै खुद को रोक न सका. रोते रोते ये अनुवाद संपन्न हुआ. मूल रचनाकार जी को शत शत नमन.  आज जिन चुनिन्दा लोगों को ये कविता और अनुवाद दिखाया सभी ने एक ही प्रतिक्रिया भेजी . . . . . निःशब्द.”

और मैं स्वयम भी निःशब्द हूँ। )

हिन्दी की मूल कविता एवं मराठी भावानुवाद दोनों ही स्वरूप आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं।

इस अतुलनीय साहित्यिक कार्य के लिए श्री विजय जी का विशेष आभार और मेरा मानना है कि ऐसे प्रयोग होते रहने चाहिए। 

 

काय राह्यलय हरवण्यासारखं ? 

 

सर्वात  अगोदर

काय  असत हरवायच ?

आता  काय राह्यलय

हरवण्यासारख ?

मऊ,रेशमी  मुलायम,

पश्मीना शालीच्या नादात

आधीच हरवून बसलोय

माझा मौल्यवान बाप.

आता हरवायला

 

आई तेवढी  बाकी राह्यलीय.

काही केल्या हरवतच नाही.

आपल्याच नादात गुणगुणत रहाते

”अशी हरवल्यावर थोडीच कळते

आपल्या माणसांची किंमत.”

.”तुझा बाप समजुतदार ,

वेळीच हरवला  आणि

दाखवून दिली  आपली किंमत.

येईल. . . माझीही वेळ येईल.

कळेल तुला माझी ही किंमत”

मला एक कळत नाही

कधीतरी वेळ येणारच

कशाला लावतेय  इतका वेळ

द्यायची दाखवून  आपली किंमत

विनाकारण करावी लागते

निरर्थक धडपड

आईला विसरण्याची

करतो प्रयत्न ती

एखाद्या तीर्थक्षेत्री

हरवून जाण्यासाठी

किंवा एखाद्या जत्रेत

दिसेनाशी होण्यासाठी.

आईची किंमत जाणून घेण्यासाठी

आणि  . .

हरवतो माझ्याच विचारात.

माणूस  असताना

त्याचे मोल जाणले नाही

आता हरवल्यावर तरी

त्याचे मोल जाणून घेऊ.

हाच  एक यशस्वी  उपाय

जो तो करतो आहे.

पण  अशा वागण्यात

हरवत चाललीय नाती

हरवताहेत माणस

आजी आजोबा,  काका काकू

मामा, मामी  माझा बाप

आता तर कोणी

देवदूत देखिल नाही

किंवा मार्क्स एखादा

माझ्या शिलकित . .

या गरीबा जवळ

एकुलती एक

आई फक्त  उरलेय

किंवा एखादी फाटकी गोधडी.

या दोनच वस्तू

हरवायच्या बाकी राह्यल्यात.

या दोघात अधिक मौल्यवान कोण

जो मला मायेची  ऊब देईल

आता मी देखिल

इतका लहान राहिलो नाही

की आईच्या कुशीत शिरून

ती ऊब मिळवू शकेन.

अशा परिस्थितीत

कुणीतरी सांगा

काय राह्यलय हरवण्यासारख

फाटकी गोधडी की

जीर्ण झालेली माझी माय. . . . !

 

(भावानुवाद –  विजय सातपुते)

विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

मोबाईल  9371319798

मूल कविता 

पहले क्या खोया जाए  
पशमीना की शाल-से
पिता जी भी थे तो बेशकीमती
पर खो दिए मुफ्त में
माँ है
अभी भी खोने के लिए
कितना भी कुछ कर लो
खोती  ही नहीं
कुछ समझती भी नहीं
ऊपर से गाती रहती है
‘खोने से ही पता चलती है कीमत
बेटे!
पिता जी तो समझदार थे
समय पर
खोकर  बता गए कीमत
खो जाऊँगी मैं भी
किसी समय, एक दिन
तब पता चलेगी कीमत मेरी भी
पर पता नहीं
यह क्यों  नहीं चाहती
बतानी कीमत अपनी भी
समय पर
देर क्यों कर रही है
निरर्थक ही
हम  भरसक कोशिश में रहते हैं
खो जाए किसी मंदिर की भीड़ में
छोड़ भी देते हैं
यहाँ-वहाँ मेले-ठेले में
कभी तेज़-तेज़ चलकर
कभी बेज़रूरत ठिठक कर
और
जानना चाहते हैं कीमत
माँ  की भी
सोचता हूँ
होने  की कीमत जान न पाया  तो
खोने की ही जान-समझ लूँ
कुछ तो कर लूँ  समय पर
कीमत समझने का ।
यही कामयाब तरीका चल रहा है
इन दिनों
इसी तरीके से  तो एक-एक कर
खोते रहे  हैं रिश्ते दर रिश्ते
दादा-दादी,नाना-नानी
ताऊ,ताई,मामा-मामी
और पिताजी भी
अब तो
‘एंजेल’ या ‘मार्क्स’ भी तो नहीं  बचे हैं
इस गरीब के पास
या तो एक अदद माँ बची है
या फिर  एक अदद फटा कंबल
कीमत दोनों  की जानना ज़रूरी है
अब इतने छोटे  भी नहीं रहे जो,
माँ के सीने से चिपक कर
बिताई जा सकें  सर्द रातें
फिर कोई तो बताए
आखिर पहले क्या खोया जाए ?
अधफटा कंबल या
अस्थि शेष माँ?
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 
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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (4) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

 

अर्जुन उवाच 

 

कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ।।4।।

 

अर्जुन ने कहा-

भीष्म द्रोण गुरू पूज्य हैं ,  करने को संहार

रण में बाणों से उन्हीं का,  कैसा प्रतिकार ? ।।4।।

 

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥

 

How, O Madhusudana, shall I fight in battle with arrows against Bhishma and Drona, who are fit to be worshiped, O destroyer of enemies? ।।4।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – 92 – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Happiness depends upon ourselves.
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore
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हिन्दी साहित्य-कविता – तुम्हें सलाम – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

“तुम्हें सलाम “
(अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की महिलाओं को समर्पित एक कविता)
दुखते कांधे पर
भोतरी कुल्हाड़ी लेकर  ,
पसीने से तर बतर
फटा ब्लाऊज पहिनकर ,
बेतरतीब बहते
हुए आंसुओं को पीकर,
भूख से कराहते
बच्चों को छोड़कर ,
जब एक आदिवासी
महिला निकल पड़ती है
जंगल की तरफ,
कांधे में कुल्हाड़ी लेकर
अंधे पति को अतृप्त छोड़कर,
लिपटे चिपटे धूल भरे
कैशों को फ़ैलाकर,
अधजले भूखे चूल्हे
को लात मारकर ,
और इस हाल में भी
खूब पानी पीकर,
जब निकल पड़ती है
जंगल की तरफ,
फटी साड़ी की
कांच लगाकर,
दुनियादारी को
हाशिये में रखकर,
जीवन के अबूझ
रहस्यों को छूकर,
जंगल के कानून
कायदों को साथ  लेकर,
अनमनी वह
आदिवासी महिला,
दौड़ पड़ती है
जंगल की तरफ ,

© जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख – * नारी सम्मान * – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

नारी सम्मान
(सुश्री मालती मिश्रा जी   का अंतरराष्ट्रीय दिवस पर विशेष आलेख नारी सम्मान )
‘यत्र नार्यस्य पूज्यन्ते, रमंते तत्र देवता’
कहा जाता है कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवताओं का निवास होता है किन्तु आधुनिक समाज में नारी को पूजा की नहीं आदर की पात्र बनने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। यह विषम परिस्थिति मात्र कुछ महीनों या कुछ वर्षों की देन नहीं है बल्कि यह तो सदियों से ही चला आ रहा है कि नारी को देवी की पदवी से गिरा कर उसे भोग्या समझा जाने लगा तभी तो महाभारत काल में ही धर्म के वाहक माने जाने वाले पांडव श्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी द्रुपद नरेश की पुत्री और इंद्रप्रस्थ की महारानी द्रौपदी को ही जुए में दाँव पर लगा दिया और विजेता कौरवों ने उनकी पत्नी को जीती हुई दासी मान भरी सभा में अपमान किया।
दहेज प्रथा, सती प्रथा जैसी कुरीतियों का शिकार नारी ही होती आई है, भोग्या भनाकर बाजारों में बेची जाती रही है, तरह-तरह की शारीरिक व मानसिक प्रताड़नाओं का शिकार आज भी होती है। नारी की दुरुह दशा पर सूफी संतों की दृष्टि तो पड़ी किन्तु पुरुषत्व के चश्मे के साथ.. तभी तो तुलसीदास जैसे महाकवि लिख डालते हैं-
“ढोल,गँवार,शूद्र,पशु नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी।।”
समाज सुधारक मानवता के द्योतक, निराकार ब्रह्म के उपासक, समाज के पथ-प्रदर्शक कहे जाने वाले संत कबीर दास लिखते हैं-
“नारी की झाँई पड़त,
अंधा होत भुजंग,
कबिरा तिन की कौन गति,
नित नारी के संग।”
रहीम दास कहते हैं-
“उरग तुरग नारी नृपति,
नीच जाति,हथियार।
रहिमन इन्हें सँभालिये,
पलटत लगत न वार।”
एक ओर पुरुष समाज नारी पर दया दिखाते हैं वहीं दूसरी ओर उसे निम्न कोटि की, भोग्या और मनोरंजन की वस्तु मानकर अपने झूठें अहं पिपासा को तृप्त करते हैं।
पुरुषों की ऐसे ही कृत्यों को देख कर साहिर लुधियानवी ने नारी टीस को महसूस किया और उसे अपनी कलम की स्याही बना ली और इसी तिलमिलाहट में लिख बैठे….
“बिकती हैं कहीं,बाजारों में,
तुलती है कहीं दीनारों में।
नंगी नचवाई जाती है, अय्याशों के दरबारों में।
यह वो बेइज्जत चीज है जो बँट जाती है इज्जतदारों में।।
समय के साथ-साथ समाज सुधारकों व विद्वानों की दृष्टि नारी की दयनीय दशा पर पड़ी और उन्होंने स्वीकारा कि किसी भी देश की सामाजिक व मानसिक उन्नति का अनुमान हम उस देश-काल की स्त्रियों की स्थिति से लगा सकते हैं, नारी समाज देश का आधा भाग होती है, जब तक समाज में महिलाएँ भी पुरुषों के समान सुरक्षित, समर्थ और शक्तिशाली नहीं होंगी तब तक समाज में संतुलन नहीं होगा और असंतुलित समाज या देश का सकारात्मक उत्थान संभव नहीं।
गुप्त जी 1914 में प्रकाशित महत्वपूर्ण काव्य ‘भारत-भारती’ में आधुनिक महिलाओं की उन्नति पर अत्यधिक बल देते हुए देश में शिक्षा के व्यापक स्तर पर प्रसार की बात करते हुए कहते हैं कि “हमारी शिक्षा तब तक कोई काम नहीं आएगी, जब तक महिलाएँ शिक्षित नहीं होंगी, यदि पुरुष शिक्षित हो गए और महिलाएँ अनपढ़ रह गईं तो हमारा समाज ऐसे शरीर की तरह होगा जिसका आधा हिस्सा लकवे से बेकार है।”
तब स्त्री को इस योग्य बनाने का अभियान चलाया गया कि वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो सके। इसके लिए एक ओर विभिन्न संस्थाओं के द्वारा जनता को सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक करने का काम किया गया, तो दूसरी ओर भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनके साथी लेखकों द्वारा अपने नाटकों, निबंधों और काव्यों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया गया। आधुनिक युग के सुधार आंदोलनों पर यदि दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि उस समय के अधिकांश सुधार आंदोलन नारी-उत्थान से संबंधित थे जैसे- पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा, शिशु-कन्या-हत्या, बाल-विवाह आदि।
उस समय का ये संघर्ष आज हमें मामूली लग सकता है किन्तु उस देश-काल के नजरिए से सोचें तो यह बहुत ही दुरुह व संघर्षपूर्ण कार्य था।
धीरे-धीरे ये कुरीतियाँ तो समाप्त हो गईं परंतु पितृसत्तात्मक समाज का चलन खत्म नहीं हुआ और स्त्री-पुरुष के अंतस में जो स्त्रियों को पुरुषों से कमतर या उनके अधीन मानने की धारणा समा चुकी है, वह अब भी निरापद कायम है। आज भी कानूनी रूप से समान अधिकारों के आवरण में समानता लुप्त है,  हमारे देश में अभी भी महिला और पुरुष की साक्षरता दर समान नहीं है एक सैंपल सर्वे के रिपोर्ट के अनुसार पुरुषों की साक्षरता दर ८३ प्रतिशत है तो महिलाओं की ६७ प्रतिशत, अर्थात् अभी भी पुरुषों की तुलना में १६ प्रतिशत महिलाएँ अशिक्षित हैं। विभिन्न संथानों में कार्यरत महिलाओं को पुरुषों के समान कार्य, समान पद के लिए समान वेतन नहीं प्राप्त होता।
आज स्त्री समर्थ होने के बाद भी यही मानती है कि शादी से पहले पिता शादी के बाद पति और वृद्धावस्था में पुत्र के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं। अभी भी लड़की के विवाह का फैसला भी पिता ही लेता है। दाह संस्कार पुत्र ही करता है। पिता की संपत्ति में कानूनन बराबर अधिकार होने के बाद भी बेटियों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। संपत्ति में हिस्सा लेने के उपरांत भाइयों-भाइयों का रिश्ता तो बना रह सकता है परंतु यदि बहन को हिस्सा देना पड़े तो भाई-बहन का रिश्ता दांव पर लग जाता है। कहते हैं स्त्री ही स्त्री की शत्रु होती है, स्त्रियों को पीछे धकेलने में स्त्रियों का योगदान सर्वाधिक होता है। कौन से कार्य लड़कों के हैं और कौन से कार्य लड़कियों के इसका निर्धारण घर में ही माँ तथा अन्य बड़े बुज़ुर्गों द्वारा कर दिया जाता है और इसी मानसिकता के साथ बेटियों की परवरिश की जाती है कि उन्हें घर के सारे काम करने आने चाहिए क्योंकि उनका प्रथम कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी के भीतर होता है, वह चाहे बाहर नौकरी पेशा ही क्यों न हों किन्तु घर के भीतर के सारे काम, परिवार के सदस्यों की देख-रेख आदि उनका उत्तरदायित्व है वहीं दूसरी ओर लड़कों को इस सीख के साथ बड़ा किया जाता है कि उनका कार्यक्षेत्र सिर्फ घर से बाहर है।
आज भी समाज में संस्कार, लज्जा, चरित्र आदि को संभालने का उत्तरदायित्व सिर्फ स्त्री का माना जाता है। यदि स्त्री अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना चाहे तो मर्यादा रूपी हथियार दिखा कर उसकी आवाज दबा दी जाती है। यूँ तो बेटा-बेटी समान हैं परंतु बेटियों को संस्कारों का पाठ पढ़ाते समय बेटों को वही पाठ पढ़ाने की प्रथा अब भी नहीं है, आज भी समाज में स्त्रियों को सीता, सावित्री जैसी पौराणिक आदर्शों का उदाहरण देकर उनकी सोच को दायरों में सीमित करने का प्रयास किया जाता है किन्तु पुरुषों से राम बनने की अपेक्षा नहीं की जाती। यदि कोई लावारिस नवजात शिशु पाया जाता है तो उँगली सिर्फ माँ पर उठाई जाती है, पिता के विषय में तो कोई सोचता ही नहीं।
हम आधुनिक समाज में जी रहे हैं और आज स्त्रियों ने धरती से अंतरिक्ष तक हर क्षेत्र में अपनी योग्यता को सिद्ध किया है, फिर भी देर रात अकेली घर से बाहर जाते हुए वह डरती है, क्योंकि आज भी स्त्री पुरुषों की नजर में भोग्या बनी हुई है। आधुनिकता का दंभ भरने वाला हमारा समाज आज भी स्त्री को वह सम्मान वह अधिकार नहीं दे पाया जिसका वर्णन हमारे वेदों और प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। इसका कारण यही है कि पुरुष समाज अपना सत्तात्मक दंभ छोड़ना नहीं चाहता, इसीलिए स्त्री जब भी अधिकारों के लिए सजग हुई तभी पुरुषों की नजर से विलग हुई, जब भी इसने सिर उठाने का प्रयास किया पुरुष का अहंकार  आहत हुआ, जब भी स्त्री ने कमर सीधा कर सीधे खड़े होने की कोशिश की पुरुष को अपनी कमर झुकती महसूस हुई, जब भी इसने धरती पर अपने पैर जमाना चाहा पुरुषों को अपने पैरों तले की धरती खिसकती दिखाई दी और जब भी स्त्री ने अपना मौन तोड़ा तभी पुरुष वर्ग को अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता नजर आया।
ऐसा ही होता है जब हम किसी के अधिकारों पर जबरन आधिपत्य जमा कर बैठे होते हैं, तो उसकी तनिक सी सतर्कता हमारे कान खड़े कर देती है और हर जायज क्रियाकलाप भी हमें नागवार गुजरती है।
आज महिला दिवस के अवसर पर नारियों को तरह-तरह के सम्मान दिए जाते हैं, तरह-तरह से उनकी उपलब्धियों और संघर्षों को सराहा जाता है किन्तु यह सब भी सिर्फ सामयिक ही होता है यदि नारी-सम्मान को धरातल पर लाना है तो जन-जन को उसके सम्मान को हृदय में स्थान देना होगा, उसे वर्ष में एक दिन नहीं बल्कि हर दिन हर पल सम्मान की दृष्टि से देखना होगा उसे अपने समक्ष प्रतिद्वंद्वी न समझकर अपने समकक्ष सहभागी सहयोगी समझना होगा तभी सही मायने में नारी को सगर्व सम्मान की प्राप्ति हो सकेगी।
© मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️
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हिन्दी साहित्य – कविता – * बेटी * – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

बेटी 

(सुश्री ऋतु गुप्ता जी  रचित अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर का एक सार्थक कविता ‘बेटी’।) 

 

बेटी शब्द का आगाज होते ही
हृदय में सम्पूर्ण माँ बनाने की अद्वितीय अनुभूति होती है
बगैर बेटी जन्मे मानो नारी अधूरी होती है।

 

उसका पहली बार माँ बोलना
हृदय को मुदित ममतामयी कर जाता है
हर उदित उमंग उल्लासित कर
गरिमामयी पद अतुल्य अभिनंदन पाता है।

 

कदम पहला उसका उठते ही बेचैन
मन मुद्रा मुसकुराती छवि हो जाती है
उसकी इक-इक भाव भंगिमा
एकटक निहारते नैनों की चमक अद्भुत हो जाती है

 

विस्मय से भरता जाता उसका बड़ा होना
घर पूरा गूँजता मानों चिड़िया चहचहाती है
पग घूम-घूम जहाँ-जहाँ रखती
धरा धन्य हो अपार आभार प्रकट कर जाती है।

 

बेटी कभी नहीं होती पराई
जिस्म से कभी नहीं अलग होती परछाई
बड़ी होने पर भी वही आँचल आगोश सदैव लालायित रहते हैं ।
बोझ नहीं आन वह कलेजे का टुकड़ा गौरवान्वित हो कहते हैं।

© ऋतु गुप्ता

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मराठी साहित्य – कविता * जागतिक महिला दिवस निमित्त * शौर्यराणी * सुश्री स्वप्ना अमृतकर

* शौर्यराणी *

सुश्री स्वप्ना अमृतकर
(जागतिक महिला दिना ८ मार्च २०१९ निमित्त माझी स्वरचित रचना)
कन्या माता भगिनी पत्नी
स्त्री जन्माची हीच कहाणी,
प्रभात होता ती फुलराणी
रात्र होता ती रातराणी,
सुकले डोळ्यांतले पाणी
शांतच होती तरी ती राणी,
वाईट प्रसंगांची सुरुच पर्वणी
मौन दिले तीने सोडूनी,
नवनवीन रूप स्वीकारूनी
लढते ती रुद्र अवतार घेऊनि,
दुःखांच्या सुरांची गाणी
आताशा बदलली तीची वाणी
अखेर आजची मर्दिनी
बनली स्वतः साठीच शौर्यराणी,
© स्वप्ना अमृतकर (पुणे)
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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (3) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ।।3।।

पार्थ ! न कायर तुम बनो ,अनुचित यह व्यवहार

तज दुर्बलता हदय की , हो लड़ने तैयार।।3।।

 

भावार्थ :  इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।।3।।

 

Yield not to impotence, O Arjuna, son of Pritha! It does not befit thee. Cast off this mean weakness of the heart. Stand up, O scorcher of foes! ।।3।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – 91 – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

 

Woman is Strong.
Woman is Powerful.
Woman is Leader.
LifeSkills wishes you all a very Happy International Women’s Day!
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * चीज़ों को रखने की सही जगह  * – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

चीज़ों को रखने की सही जगह  

(डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का  एक सटीक व्यंग्य) 
जबसे मेरी पुत्री ने नया टीवी ड्राइंगरूम से हटवा कर भीतर रखवा दिया है तबसे मेरा जी बहुत दुखी रहता है।टीवी के कार्यक्रमों का रंग और आनंद आधा हो गया है।पुत्री का कहना है कि मेहमानों के आवागमन के कारण ड्राइंगरूम में टीवी एकचित्त होकर नहीं देखा जा सकता और मेरा कहना है कि मंहगा टीवी सिर्फ देखने के लिए नहीं, दिखाने के लिए भी होता है।देखने के लिए कोई मामूली टीवी पर्दे के भीतर रखा जा सकता है, लेकिन मंहगा टीवी तो ड्राइंगरूम में ही होना चाहिए।जिन लोगों को जंगल में नाचता हुआ मोर अच्छा लगता है, उन्हें उनका मोर मुबारक।अपना मोर तो ड्राइंगरूम में नाचना चाहिए।
मेरी एक बुआजी हुआ करती थीं जो पैरों में सोने की पायलें धारण किया करती थीं।जब कोई मिलने वाला आता तो वे उसकी तरफ पाँव पसारकर बैठ जाती थीं ताकि पायलों की चौंध सामनेवाले की आँखों तक पहुँचे।अगर बुआजी पायलों को अलमारी में बन्द करके रखतीं तो वे दुनिया को जलाने के सुख से वंचित हो जातीं।इसलिए चीज़ें अपने सही स्थान पर रहें तो वे इच्छित प्रभाव छोड़ती हैं।
शास्त्रों में कहा है कि स्थानभ्रष्ट होने से अनेक चीज़ें अपना महत्व खो देती हैं, जैसे केश,दाँत, नख और नर।चीज़ों की यह फेहरिस्त पुरानी है।मैं इसमें टीवी, फ्रिज, म्यूज़िक सिस्टम, एयरकंडीशनर, कार, मंहगे वस्त्र और कलात्मक वस्तुएं जोड़ने की इजाज़त चाहूँगा।
फ्रिज को रसोईघर में रखना मैं फ्रिज का दुरुपयोग मानता हूँ।फ्रिज ड्राइंगरूम में ही होना चाहिए।अगर फ्रिज अस्सी हजार का है तो उसे भीतर छिपा कर रखना कौन सी अक्लमंदी है?दूसरी बात यह है कि उसमें कुछ ऐसे ऊँचे किस्म के खाद्य पदार्थ स्थायी रूप से रखे रहना चाहिए कि फ्रिज का दरवाज़ा खोलते ही देखने वालों पर खासा रोब पड़े। स्थायी खाद्य सामग्री में मंहगे फलों, मेवों, डिब्बाबंद भोजन को शामिल किया जा सकता है।ये सब चीज़ें सिर्फ दिखाने के लिए होना चाहिए, खाने के लिए नहीं।जब दिखाते दिखाते ज़्यादा खराब या बासी होने लगें तब इनका इस्तेमाल करके तुरंत फ्रिज में नयी वस्तुएं भर दी जाएं।
बढ़िया वाला टीवी ड्राइंगरूम में ही रखा जाना चाहिए।अगर आपके पास थ्री-डी वाला टीवी है तो उसे ड्राइंगरूम से मत हिलाइए।किसी मेहमान के आते ही उसे चालू करना न भूलें।
एयरकंडीशनर ड्राइंगरूम में ज़रूर लगाना चाहिए, बाकी घर में लगे या न लगे।भीतर ठंड लगे तो उसका मुकाबला रज़ाई से और गर्मी का मुकाबला मामूली कूलर से किया जा सकता है, लेकिन एयरकंडीशनर तो ड्राइंगरूम में ही शोभा देता है।एयरकंडीशनर के दर्शन से लोगों के मुख पर जो ईर्ष्या का भाव आता है वह गृहस्वामी को शीत-ताप से लड़ने की पर्याप्त शक्ति देता है।
कीमती पेन्टिंग, मूर्तियां, झाड़-फानूस वगैरः भी ड्राइंगरूम में ठेल देना चाहिए।ये चीज़ें गृहस्वामी की संपन्नता के साथ उसकी सुरुचि और कलाप्रेम को प्रदर्शित करती हैं।इन चीज़ों में अगर उनकी कीमत की चिप्पियाँ लगी हों तो बेहतर है।अगर न लगी हों तो गृहस्वामी अपनी तरफ से लगा सकता है।
आभूषण और मंहगी साड़ियां स्त्रियों के शरीर पर ही ज़्यादा शोभते हैं, इसलिए स्त्रियों को चाहिए कि रात्रि के सोने के समय को छोड़कर सारे वक्त उन्हें धारण किये रहें।हमारे समाज में स्त्रियों ने गहनों के बोझ को कभी बोझ नहीं माना।चोरों लुटेरों के डर से उन्हें बाहर ज़ेवर पहनने का मोह कम करना पड़ा, लेकिन घर के भीतर सारे वक्त ज़ेवर पहने रहने में कोई हर्ज़ नहीं है।कोई न कोई मिलने वाला आता ही रहता है।
अगर आपका किचिन माड्यूलर है और उसमें कुकिंग रेंज, मंहगा ओवन, न चिपकने वाले बर्तन, वैक्युअमाइज़र और अन्य आधुनिक खटर-पटर हो तो किचिन को ड्राइंगरूम के ठीक बगल में रखें और बीच का पर्दा इस तरह उठा कर रखें कि मेहमानों को किचिन का साज़ो-सामान दिखता रहे।सामान बहुत बढ़िया हो तो ड्राइंगरूम के एक कोने में ही किचिन बनाया जा सकता है।
अगर सब सामान भरने के बाद ड्राइंगरूम में बैठने की जगह न बचे तो उसकी चिंता न करें।मेहमान खुद ही बैठने की जगह ढूंढ़ लेंगे।यह भी हो सकता है कि अगर सामान नायाब हुआ तो मेहमान उसको देखने और तारीफ करने में इतने मसरूफ हो जाएं कि उन्हें बैठने की फुरसत ही न मिले।जो भी हो, आपकी प्रमुख दिलचस्पी मेहमानों को आराम देने में नहीं, उन पर रोब ग़ालिब करने में होना चाहिए।
अब इसके बाद कार के बारे में विचार कर लिया जाए क्योंकि ड्राइंगरूम में कार रखना मुश्किल होगा।अगर कार पुरानी खटारा या दो चार लाख वाली हो तो उसे ज़्यादातर वक्त पर्दे में यानी गैरेज में रखना ही ठीक होगा।अगर बीस पच्चीस लाख वाली हो तो रात को छोड़कर उसे दरवाज़े के सामने या घर के सामने सड़क पर रखना चाहिए।और अगर मर्सिडीज या बी.एम.डब्ल्यू जैसी कोई गाड़ी हो तो उसे दिन रात खुले में ही रखना चाहिए, भले ही रात को जागकर उसकी चौकीदारी करना पड़े।वैसे जाग कर चौकीदारी करने के बजाय बेहतर होगा कि रात को एक आदमी कार के भीतर ही सोये।बुरा से बुरा यही हो सकता है कि जब कार चोरी होगी तो आदमी भी उसके साथ चला जाएगा, लेकिन जब कार ही न रही तो आदमी की जान की क्या फिक्र!
तो मेरी बात का निचोड़ यह है कि अगर आपको समाज में ऊँचा मुकाम पाना है तो चीज़ों को उनकी सही जगह रखने का शऊर हासिल करना ज़रूरी है।
© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)
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