रंगमंच नाटिका – “राह” – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

नाटिका राह

(स्मरण महीयसी महादेवी वर्मा जी: १) 

संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघु नाटिका  

१. राह

एक कमरे का दृश्य: एक तख़्त, दो कुर्सियाँ एक मेज। मेज पर कागज, कलम, कुछ पुस्तकें, कोने में कृष्ण जी की मूर्ति या चित्र, सफ़ेद वस्त्रों में आँखों पर चश्मा लगाए एक युवती और कमीज, पैंट, टाई, मोज़े पहने एक युवक बातचीत कर रहे हैं। युवक कुर्सी पर बैठा है, युवती तख़्त पर बैठी है।

नांदीपाठ: उद्घोषक: दर्शकों! प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक लघु नाटिका ‘विश्वास’। यह नाटिका जुड़ी है एक ऐसी गरिमामयी महिला से जिसने पराधीनता के काल में, परिवार में स्त्री-शिक्षा का प्रचलन न होने के बाद भी न केवल उच्च शिक्षा ग्रहण की, अपितु देश के स्वतंत्रता सत्याग्रह में योगदान किया, स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया, हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की, अपने समय के सर्व श्रेष्ठ पुरस्कारों के लिए चुनी गयी, भारत सरकार ने उस पर डाक टिकिट निकाले, उस पर अनेक शोध कार्य हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। नाटिका का नायक एक अल्प  ज्ञात युवक है जिसने विदेश में चिकित्सा शिक्षा पाने के बाद भी भारतीयता के संस्कारों को नहीं छोड़ा और अपने मूक समर्पण से प्रेम और त्याग का एक नया उदाहरण स्थापित किया।

युवक: ‘चलो।’

युवती: “कहाँ।”

युवक: ‘गृहस्थी बसाने।’

युवती: “गृहस्थी आप बसाइए, मैं नहीं चल सकती?”

युवक: ‘तुम्हारे बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? तुम्हारे साथ ही तो बसाना है। मैं विदेश में कई वर्षों तक रहकर पढ़ता रहा हूँ लेकिन मैंने कभी किसी की ओर  आँख उठाकर भी नहीं देखा।’

युवती: “यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कुछ तो मैंने  आपके बारे में सोचा भी नहीं।”

युवक: ‘फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ तुम साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हो। विश्वास करो तुम्हारे किसी काम में कोई बाधा न आएगी। मैं खुद तुम्हारे कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।’

युवती: “मुझे आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हूँ खुद से भी अधिक, लेकिन मैं गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकती।”

युवक: ‘समझा, तुम निश्चिन्त रहो। घर के बड़े-बूढ़े कोई भी तुम्हें घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, तुम्हें पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात कर, सहमति लेकर ही आया हूँ।’

युवती: “अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले मुझसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि मैं तो गृहस्थी बसा नहीं सकती।”

युवक: ‘ओफ्फोह! मैं भी पढ़ा-लिखा बेवकूफ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता न करो। तुम जैसा चाहोगी इलाज करा लेंगे, जब तक तुम स्वस्थ न हो जाओ और तुम्हारा मन न हो मैं तुम्हें कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।’

युवती: “इसका भी मुझे भरोसा है। इस कलियुग में ऐसा भी आदमी होता है, कौन मानेगा?”

युवक: ‘कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, तुम्हारे अलावा।’

युवती: “लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।”

युवक: ‘अब तुम्हीं बताओ, ऐसा क्या करूँ जो तुम मान जाओ और गृहस्थी बसा सको। तुम जो भी कहोगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।’

युवती: “ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं करने के लिए कहूँ।”

युवक: ‘हो सकता है तुम्हें विवाह का स्मरण न हो, तब हम नन्हें बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?’

युवती: “यह भी नहीं हो सकता, जब आप विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे तभी मैंने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?”

युवक: ‘लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को  संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।’

युवती: “चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मैं जानती हूँ कि आप मेरी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप मेरा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह भी जानती हूँ।”

युवक: ‘अब क्या कहूँ? क्या करूँ? तुम तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।’

युवती: “रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। मैं सन्यासिनी हूँ, मेरे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी कर्तव्य से च्युत होने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन तुम्हें कैसे मना कर सकती हूँ? मैं नियम भंग का प्रायश्चित्य कर लूँगी।”

युवक: ‘ऐसा करो हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।’

युवती: “आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?”

युवक: ‘नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा तुम्हारे किसी के विषय में सोचना भी नहीं है।’

युवती: “लेकिन मुझे तो सोचना है, सबके बारे में। मैं तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गयी लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दूँ तो क्या विधाता मुझे क्षमा करेगा? विधाता की छोड़ भी दूँ तो मेरा अपना मन मुझे कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न मेरा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से मैंने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें वहाँ विवाह करें। मैं बड़भागी हूँ जो आपके जैसे व्यक्ति से सम्बन्ध जुड़ा। अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।”

युवक: ‘तुम तो चट्टान की तरह हो, हिमालय सी, मैं खुद को तुम्हरी छाया से भी कम आँक रहा हूँ। ठीक है, तुम्हारी ही बात रहे। तुम प्रायश्चित्य करो, मैंने तुमसे तुम्हारा नियम भंग कर बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। तुम जब जहाँ जो भी करो उसमें मेरी पूरी सहमति मानना। जिस तरह तुमने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी तुम्हारे भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी तुम्हारा या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचे तो तुमसे बात करने में या कभी आवश्यकता पर सहायता लेने से तुम खुद को नहीं रोकोगी, मुझे खबर करोगी तुमसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ। तुम यह विश्वास न तो तोड़ सकोगी, न मना कर सकोगी। तुम अशिक्षा से लड़ रही हो, मैं अपने ज्ञान से बीमारियों से लड़ूँगा। इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो एक ही होगी हमारी राह।’

कुछ समय तक युवक युवती की और देखता रहा, किन्तु युवती का झुका सर ऊपर न उठता देख और अपनी बात का उत्तर न मिलता देख नमस्ते कर चल पड़ा बाहर की ओर।

[मंच पर नांदी का प्रवेश: दर्शकों क्या आपने इन्हें पहचाना? इस नाटिका के पात्र हैं हिंदी साहित्य की अमर विभूति महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके बचपन में हुए बाल विवाह के पति जो चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने विदेश चले गये थे।] 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ०७६९९९५५९६१८ ईमेल: [email protected]

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रंगमंच/Theatre
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मराठी साहित्य – कथा/लघुकथा – बीज अंकुरे अंकुरे – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

बीज अंकुरे अंकुरे

(प्रस्तुत है  सुश्री ज्योति हसबनीस जी  की मानवीय सम्बन्धों पर आधारित व्यावहारिक लघुकथा ‘बीज अंकुरे अंकुरे’) 

‘चालव रे, चालव सपसप हात जरा, तोंड आवर आता ! ‘  घामाच्या धारांनी निथळत असलेला माळी त्याच्या सहकाऱ्यावर डाफरला ! आकाशात ढगांची जमवाजमव झाली होती , हलकं वारं आणि सळसळती पानं जणू  पावसाच्या आगमनाची वर्दीच देत होती . माती, खत , साऱ्याचा एक मोठ्ठा ढेपाळलेला ढिगारा  , वाफ्यातल्या उपटलेल्या शेवंतीचा बाजूला पडलेला भारा , कीटकनाशकाचं भलं मोठं बोचकं , आणि ह्या साऱ्या अस्ताव्यस्त पार्श्वभूमीवर सारं वेळेवारी आटपेल ना ह्या विवंचनेत ओढगस्त चेहऱ्याने बागेत अस्वस्थपणे येरझारा घालणारी मी !

जवळ जवळ प्रत्येकच मान्सूनमध्ये हे चिरपरिचित दृष्य आमच्या बागेत हमखास बघायला मिळतं . सगळ्या बागकामाचा फडशा एकट्याने पाडणारा आमचा माळी मात्र आताशा एका सहकाऱ्याला बरोबर आणायला लागला होता. त्यांचं मातीखतात बरबटणं, झाडांना सुबक कापून शिस्तीत वाढवणं, रोपं लावणं, फुलवणं, निगा राखणं, अधून मधून आपला कसबी हात बागेवरून फिरवत तिचा चेहरा मोहरा पाsर बदलवणं, वर्षभर किती विविध कामं सफाईदारपणे पार पाडतात ही मंडळी ! अगदी हातावरचं पोट असतं त्यांचं ! मेहनत , बागकामाचं ज्ञान , आणि गाठीशी असलेला कामाचा अनुभव  एवढ्या बळावर मिळेल तो बागेचा तुकडा इमाने इतबारे राखत , फुलवत खुष असतात ही मंडळी आपल्या संसाराच्या तारेवरच्या कसरतीत ! पण ह्या त्यांच्या कष्टांना जर त्यांनी संघटितपणाची जोड दिली तर ..! आणि त्या कल्पनेपाशी मी थबकलेच क्षणभर !

खरंच प्रचंड मेहनत करणारी ही कष्टकरी जमात संघटित का नाही होऊ शकत? माती रेतीखताचा योग्य समतोल राखून वाफे तयार करणं, बी बियाणं पेरून रोपं तयार करणं, तयार झालेली रोपं वाफ्यात लावणं, अधून मधून खुरपी करत मुळांना सुखाने  श्वास घ्यायला मदत करणं, कीड फवारणं, सुरेख लॅंडस्केपिंग करणं, झाडांना विविध आकारांत आटोक्यात ठेवणं अशी किती विभागणी होऊ शकते कामाची ! जशी ज्याची मती तशी त्याची गती ह्या न्यायाने ज्याला त्याला आपल्या आवाक्यानुसार कामं वाटून घेता येतील, बोलण्यात सफाई आणि व्यवहारात रोखठोक असणारा गडी कामं मिळवून वाटून देईल, जो तो आपलं नेमून दिलेलं काम तर करेलच प्रसंगी दुसऱ्यासही मदतीसाठी आपणहून सरसावेल, खरंच एक जर सिस्टीम लावली कामाची तर किती गोष्टी सोप्या होतील त्यांच्या आणि आपल्यासाठी देखील किती सुखाचं होईल माळ्याकरवी पार पडणारं बागकाम ! आपल्या सुखासाठी वेठीस धरलेल्या ह्या कष्टकऱ्यांची ही जमात बघितली ना की मला खरंच असं सुचवावंसं वाटतं की ‘ बाबांनो, तुम्ही संघटित व्हा, आणि मिळून नियोजनबद्ध कष्ट करा , नक्कीच त्यातून चांगलंच निष्पन्न निघेल, त्याचा तुम्हालाच फायदा होईल ..! आणि आमची देखील परवड थांबेल. ‘मनात आलेले विचार त्याच्यासमोर मांडावे म्हणून मोठ्या उत्साहात मी त्याच्याकडे वळले आणि, ‘मॅडम काम झालं, निघतो मी, गुडियाला शाळेत सोडायचंय ‘असं म्हणत तो गेलादेखील!

माती खताचे ढिगारे बागेत जागोजागी वाफ्यांमध्ये विसावले होते, वाफा बालशेवंतीने अगदी लेकुरवाळा भासत होता. नव्या झिलईतली बाग खुपच झोकदार वाटत होती. आपल्या कष्टाचा हात बागेवरून मायेने फिरवून , कलाकुसर करून माझा माळी तर कधीच दिसेनासा झाला होता पण माझ्या मनात मात्र त्यांच्या संघटनशक्तीच्या कल्पनेची बीजं रोवली गेली होती! काहीतरी आकारत होतं, देता येईल का त्याला नीटस रूप ह्या विचारांत थेंब थेंब पडणाऱ्या पावसाचं रूपांतर सरी कोसळण्यात कधी झालं कळलं देखील नाही!

© ज्योति हसबनीस

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हिन्दी साहित्य- कविता – पेड़ कट गया – श्री सदानंद आंबेकर

हिन्दी साहित्य- कविता – पेड़ कट गया – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

पेड़ कट गया
(हम श्री सदानंद आंबेकर जी  के आभारी हैं, इस अत्यंत मार्मिक एवं भावप्रवण  काव्यात्मक आत्मकथ्य के लिए। यह काव्यात्मक आत्मकथ्य हमें ही नहीं हमारी अगली पीढ़ी के लिए भी  पर्यावरण  के  संरक्षण के लिए एक संदेश है। श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास।)

 

(दो तीन दिन पूर्व एक निर्माणस्थल पर एक परिपक्व पेड़ को बेदर्दी से कटते देखा।  पिछले आठ सालों से उसे देख रहा था।  मैं कर तो कुछ नहीं पाया पर उसकी पुकार इन शब्दों में उतर आयी।  सब कुछ ऐसे ही घटित हुआ है।)

 

अब तक झूम रहा था देखो, मारुत संग संग डोल रहा था,

हरष हरष  कर बात अनोखी, जाने कैसी बोल रहा था,

चिडियों की चह-चह बोली को, आर्तनाद  ने बांट दिया

मानव के अंधे लालच ने एक पेड़ को काट दिया।।

 

तन कर रहती जो शाखायें, सबसे पहले उनको छाँटा

तेज धार की आरी लेकर, एक एक पत्ते को काटा,

अंत वार तब किया तने पर, चीख मार कर पेड गिरा

तुमको जीवन देते देते, मैं ही क्यों बेमौत मरा।

पर्यावरण भूल कर सबने, युवा पेड का खून किया

मानव के अंधे लालच ने एक पेड़ को काट दिया।।

 

नहीं बही इक बूंद खून की, दर्द न उभरा सीने में

पूछ रहा है कटा पेड वह, क्या घाटा था जीने में,

तुम्हें चाहिये है विकास तो, उसकी धारा बहने दो

बनती सडकें, बनें भवन पर, हमें चैन से रहने दो।

पत्थर दिल मानव हंस बोला, क्या तुमने है हमें दिया

मानव के अंधे लालच ने एक पेड़ को काट दिया।।

 

लगा ठहाके, जोर लगाके, मरे पेड़ को उठा लिया

बिजली के आरे पर रखकर, टुकडे टुकडे बना दिया,

कुर्सी, सोफा, मेज बनाये, घर का द्वार बनाया है

मिटा किसी का जीवन तुमने, क्यों संसार सजाया है।

निरपराध का जीवन लेकर, ये कैसा निर्माण किया

मानव के अंधे लालच ने एक पेड़ को काट दिया।।

 

मौन रो रही आत्मा उसकी, बार बार यह कहती है

धरती तेरे अपराधों को, पता नहीं क्यों सहती है,

नहीं रहेगी हरियाली और, कल कल करती जल की धार

मुश्किल होगा जीवन तेरा, बंद करो ये अत्याचार।

सुंदर विश्व  बनाया प्रभु ने, क्यों इसको बरबाद किया

मानव के अंधे लालच ने सब वृक्षों को काट दिया,

मानव के अंधे लालच ने सब वृक्षों को काट दिया।।

 

©  सदानंद आंबेकर

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जीवन-यात्रा- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी  से अंतरजाल  पर एक संक्षिप्त वार्ता।

आपके जीवन का सर्वाधिक स्मरणीय क्षण : बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा तथा माँ कवयित्री शांतिदेवी वर्मा के पाँव दबाना.

आपके जीवन का कठिनतम : अभी आना शेष है.

आपकी ताकत :  पत्नी और परमात्मा

आपकी कमजोरी : काम क्रोध मद लोभ भय

आत्मकथ्य :   पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि . संपादन ८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन.

आपका कार्य-जीवनशैली का सामंजस्य : सभी कामना छोड़कर, करता चल तू कर्म / यही लोक-परलोक है, यही धर्म का मर्म

समाज को आपका सकारात्मक संदेश : खुश रहो, खुश रखो

 

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जीवन-यात्रा
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हिन्दी साहित्य – कविता – भारत का भाषा गीत – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल जी की हिन्दी एवं भारत की समस्त भाषाओं तथा देशप्रेम से ओत प्रोत कविता।

भारत का भाषा गीत 

*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरा होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
‘सलिल’ पचेली, सिंधी व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
‘सलिल’ विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

विश्ववाणी हिंदी संस्थान

 २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१.
चलभाष: ९४२५१८३२४४, ईमेल: [email protected]

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कविता
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संस्थाएं – विश्व वाणी हिंदी संस्थान जबलपुर : : समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर

विश्व वाणी हिंदी संस्थान जबलपुर : : समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर
(हिंदी के विकास हेतु समर्पित स्वैच्छिक, अव्यवसायिक, अशासकीय संस्था)
सञ्चालन समिति:
अध्यक्ष: 
वरिष्ठ उपाध्यक्ष:
अभियंता अरुण अर्णव खरे भोपाल
उपाध्यक्ष:
गोपाल बघेल कनाडा,
परामर्शदाता:
आशा वर्मा, डॉ. आरती प्रसाद अल्बुकर्क, संजीव वर्मा रोचेस्टर, डॉ. राजीव वर्मा ओंटेरियो, अर्चना नोगरैया राज यू के.,
मुख्यालय प्रभारी:
अभियंता विवेकरंजन ‘विनम्र’,
कार्यालय प्रभारी:
बसंत शर्मा,
कार्यालय सचिव: 
मिथलेश बड़गैया,
वित्त सचिव: 
डॉ. साधना वर्मा,
संस्कृति सचिव: 
पं, कामता तिवारी,  आशा रिछारिया,
सह सचिव: 
दिनेश सोनी,
कार्यकारिणी सदस्य: 
निहारिका सरन कोलम्बस, पूजा अनिल स्वीडन, डॉ. प्रार्थना निगम उज्जैन, प्रो. किरण श्रीवास्तव रायपुर, जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रकोष्ठ प्रभारी
उद्देश्य तथा गतिविधियाँ-
अ. हिंदी भाषा के व्याकरण, पिंगल, साहित्य, शोध आदि संबंधी मौलिक विचारों/योजनाओं को प्रोत्साहित/क्रियान्वित/प्रकाशित करना।
आ. सदस्य निर्धारित कार्यक्रमों का  स्वयं के तथा जुटाए गए संसाधनों से क्रियान्वयन करेंगे।
इ. सदस्यता शुल्क संरक्षक ११,००० रु., आजीवन ६,००० रु., वार्षिक ११०० रु., विद्यार्थी स्वैच्छिक।
ई. सदस्य बहुमत से प्रतिवर्ष सञ्चालन समिति का चुनाव करेंगे।
उ. सदस्यता राशि बैंक में जमा कर उसके ब्याज से गतिविधियाँ संचालित की जायेंगी।
ऊ. प्रति वर्ष संस्था का आय-व्यय सदस्यों को सूचित किया जायेगा।
ए. सञ्चालन समिति सदस्यों से प्राप्त सुझावों के अनुसार ही गतिविधियाँ संचालित करेगी।
ऐ. वर्तमान में
१. अंतरजाल पर हिंदी भाषा के व्याकरण व पिंगल के शिक्षण,
२. नव छंदों पर शोध,
३. सदस्यों की पुस्तक लेखन, संपादन, पाण्डुलिपि संशोधन, भूमिका/समीक्षा लेखन,
४. समन्वय प्रकाशन अभियान के माध्यम से मुद्रण- प्रकाशन,
५. शांति राज पुस्तकालय योजना के अंतर्गत विद्यालयों में पुस्तकालय स्थापना में सहायता,
६. विद्यार्थियों में सामाजिक चेतना, पर्यावरण बोध तथा राष्ट्रीयता भाव जागरण,
७. नवलेखन गोष्ठी में विधा विशेष के मानक/विधान सम्बन्धी मार्गदर्शन,
८. पुस्तक गोष्ठी में पुस्तक पर चर्चा,
९. शालाओं में पौधारोपण आदि योजनायें क्रियान्वित की जा रही हैं।
ओ. साहित्य सलिला, मुक्तिका/ग़ज़ल सलिला, लघुकथा सलिला, कुण्डलिनी सलिला, दोहा सलिला, पुस्तक सलिला, चौपाल चर्चा, पोएट्री सलिला, बाल साहित्य सलिला, हाइकू सलिला, छंद सलिला, कहावत/लोकोक्ति/मुहावरा सलिला आदि पृष्ठों के माध्यम से सदस्यों का मार्गदर्शन किया जाता है।
ॐ 
विश्व वाणी हिंदी संस्थान – शांति-राज पुस्तक संस्कृति अभियान 
समन्वय प्रकाशन अभियान 
समन्वय ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
ll हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल l ‘सलिल’ संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल ll 
ll जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार l ‘सलिल’ बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ll
शांतिराज पुस्तकालय योजना 
उद्देश्य: 
१. नयी पीढ़ी में हिंदी साहित्य पठन-पाठन को प्रोत्साहित करना।
२. हिंदी तथा अन्य भाषाओं के बीच रचना सेतु बनाना।
३. गद्य-पद्य की विविध विधाओं में रचनाकर्म हेतु मार्गदर्शन उपलब्ध करना।
४. सत्साहित्य प्रकाशन में सहायक होना।
५. पुस्तकालय योजना की ईकाईयों की गतिविधियों को दिशा देना।
गतिविधि: 
१. नियमित पुस्तकालय संचालित कर रही चयनित संस्थाओं को लगभग १०,००० रुपये मूल्य की अथवा १०० पुस्तकें निशुल्क प्रदान करना।
२. संस्था द्वारा चाहे जाने पर की गतिविधियों के उन्नयन हेतु मार्गदर्शन प्रदान करना।
३. संस्था के सदस्यों की रचना-कर्म सम्बन्धी कठिनाइयों का निराकरण करना।
४. संस्था के सदस्यों को शोध, पुस्तक लेखन, भूमिका लेखन तथा प्रकाशन तथा समीक्षा लेखन में मदद करना।
५. संस्था के चाहे अनुसार उनके आयोजनों में सहभागी होना।
पात्रता:
इस योजना के अंतर्गत उन्हीं संस्थाओं की सहायता की जा सकेगी जो-
१. अपनी संस्था के गठन, उद्देश्य, गतिविधियों, पदाधिकारियों आदि की समुचित जानकारी देते हुए आवेदन करेंगी।
२. लिखित रूप से पुस्तकालय के नियमित सञ्चालन, पाठकों को पुस्तकें देने-लेने तथा सुरक्षित रखने का वचन देंगी।
३. हर तीन माह में पाठकों को दी गयी पुस्तकों तथा पाठकों की संख्या तथा अपनी अन्य गतिविधियाँ संस्थान को सूचित करेंगी। उनकी सक्रियता की नियमित जानकारी से दुबारा सहायता हेतु पात्रता प्रमाणित होगी।
४. ‘विश्ववाणी हिंदी संस्थान-शान्ति-राज पुस्तक संस्कृति अभियान’ से सम्बद्ध का बोर्ड या बैनर समुचित स्थान पर लगायेंगी।
५. पाठकों के चाहने पर लेखन संबंधी गोष्ठी, कार्यशाला, परिचर्चा आदि का आयोजन अपने संसाधनों तथा आवश्यकता अनुसार करेंगी।
६. पुस्तकें भेजने का डाक व्यय लगभग १०% पुस्तकें लेनेवाली संस्था को देना होगा।
आवेदन हेतु संपर्क सूत्र-
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष- ९४२५१ ८३२४४ / ७९९९५ ५९६१८।
कार्यालय: समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
ईमेल: [email protected], चलभाष: ९४२५१८३२४४
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – मन तेरा प्यासा – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मन तेरा प्यासा

रिमझिम रिमझिम बरसात हो रही है,फिर भी प्यास लगी है। गर्मागर्म पकोड़े बन रहे हैं , और बेरोजगारों की प्यास बढ़ती जा रही है।  श्रीमती जी मोबाइल से  ये गाना बार बार सुना रही है………

“रिमझिम बरसे बादरवा,

मस्त हवाएं आयीं,

पिया घर आजा.. आजा.. ”

बार बार फोन आने से गंगू नाराज होकर बोला – देखो  श्रीमती जी अभी डिस्टर्ब नहीं करो बड़ी मुश्किल से गोटी बैठ पायी है। अभी गेटवे आफ इण्डिया में समंदर के किनारे की मस्त हवाओं का मजा लूट रहे हैं, तुम बार बार मोबाइल पर ये गाना सुनवा कर डिस्टर्ब कर रही हो ,…….. यहां तो और अच्छी सुहावनी रिमझिम बरसात चल रही है और मस्त हवाएं आ रहीं हैं और जा रहीं हैं। फेसबुक फ्रेंड मनमोहनी के साथ रिमझिम फुहारों का मजा आ रहा है। भागवान चुपचाप सो जाओ.. इसी में हमारी और तुम्हारी भलाई है, नहीं तो लिव इन रिलेशनशिप के लिए ताजमहल होटल सामने खड़ी है… अब बोलो क्या करना है। होटल में कमरा बुक करा लूं क्या मनमोहनी के लिए……….. उधर से पत्नी की आवाज आयी – फालतू में पैसे खर्च मत करो ये फैसबुकी फ्रेंड् जेब की पूरी सफाई करा लेते हैं। तुम समझ नहीं रहे हो। सुनो भागवान इतना हम सब समझते हैं। और सुनो जी बार बार फोन नहीं लगाना नहीं तो मनमोहनी को शक हो जाएगा। तुम तो जानती हो कि जीवन भर  लोन ले लेकर तुम्हें सब तरह की सुख सुविधाएं हमने दीं हैं, और तुम एक दिन के लिए ऐश भी नहीं करने दे रही हो, ईष्या से जल रही हो, और सुनो मुझे तो ये तुमसे ज्यादा सुंदर लग रही है सेव जैसे लाल गाल और गुलाबी ओंठ बहुत सुहावने लग रहे हैं। एक काम करो तुम अभी नींद की गोली खाकर चुपचाप सो जाओ …….. ।

बरसात हो रही है और ताजमहल होटल के सामने गंगू और फेसबुक फ्रेंड मनमोहनी भीगते हुए नाच रहे हैं पीछे से गाने की आवाज आ रही है…….

“बरसात में हमसे मिले तुम,

सजन तुम से मिले हम,   बरसात में, ”

जब नाचते नाचते दोनों थक गए, तो गंगू बोला – गजब हो गया 70 साल से बरसात के साथ विकास नहीं बरसा और इन चार साल में बरसात के साथ विकास इतना बरसा कि सब जगह नुकसान ही नुकसान दिख रहा है। झूठ को सच की तरह बोलो और जनता को बुद्धू बनाकर राज करो। आम आदमी और मीडिया को सच कहने में  पाबंदी है। जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले हम कुछ नहीं बोलेगा, मीडिया में लिखेगा तो जुल्म हो जाएगा।

एक काम करते हैं चलो  पिक्चर में बैठते हैं वहां अंधेरा भी रहता है, खूब मजा आयेगा। सुनो प्यारी मनमोहनी सिनेमा हाल के अंधेरे में चैन खींचने वाले और जेबकट बहुत सक्रिय हो गए हैं, तो मेरी ये चैन और मेरा पर्स अपने थैले में सुरक्षित रख लो, पर्स में 20-30 हजार रुपये पड़े हैं सम्भाल कर रखना। गंगू सीधा और दयालु किस्म का है,सब पर जल्दी विश्वास कर लेता है। बड़े पर्दे पर फिल्म चालू हो गई है गाना चल रहा है………

‘मुझे प्यास, मुझे प्यास लगी है

मेरी प्यास मेरी प्यास को बुझा देना…… आ….के.. बुझा…. ‘

पूरा गाना देखने के बाद गंगू बड़बड़ाते हुए बोला – बड़ी मुश्किल है मुंबई में, समुद्र में हाईटाइड का माहौल है, जमके बरसात मची है सब तरफ पानी ही पानी है और इसकी प्यास कोई बुझा नहीं पा रहा है सिर्फ़ चुल्लू भर पानी से प्यास बुझ जाएगी, बड़ा निर्मम शहर है, हमको तो दया आ रही है और मनमोहनी तुमको…….?

जबाब नहीं मिलने पर गंगू ने अंधेरे में टटोला, बाजू की कुर्सी से मनमोहनी गायब थी चैन भी ले गई और पर्स भी……….

गंगू को काटो तो खून नहीं, रो पड़ा, क्या जमाना आ गया प्यार के नाम पर ऐसी लुटाई….. वाह री बरसात तू गजब करती है जब प्यास लगती है तो फेसबुक फ्रेंड पर्स लेकर भाग जाती है………. ।

पिक्चर भी गई हाथ से। पर्स के साथ चैन और पूरे पैसे लुट

जाने से गंगू दुखी है सिनेमा हाल के बाहर चाय पीते हुए गंगू भावुकता में आके फिर गाने लगा……….

“मेरे नैना सावन भादों,

फिर भी मेरा मन प्यासा, ”

चाय वाला बोला गजब हो गया साब, चाय भी पी रहे हो और मन को प्यासा बता रहे हो, आपकी आंखों में सावन भादों के बादल छाये हैं और बरसात भी हो रही है तो मन प्यासा कैसे हो सकता है। … मन तो भीगा भीगा लग रहा है और नेताओं जैसे गधे की राग में चिल्ला रहे हो ‘मेरा मन प्यासा’……..

चाय वाले आप नहीं समझोगे…. बहुत धोखाधड़ी है इस दुनिया में….. खुद के नैयनों में बरसात मची है पर हर कोई दूसरे के नैयनों का पानी पीकर मन की प्यास बुझाना चाह रहा है। घरवाली के नयनों का पानी नहीं पी रहे हैं, बाहर वाली के नयनों के पानी से प्यास बुझाना चाहते हैं।

अरे ये फेसबुक और वाटस्अप की चैटिंग बहुत खतरनाक है यार, फेसबुक फ्रेंड से चैटिंग इस बार बहुत मंहगी पड़ गई…. रोते हुए गंगू फिर गाने लगा…………

“जिंदगी भर नहीं भूलेगी,

ये बरसात की रात,

एक अनजान हसीना से,

मुलाकात की रात, ”

चाय वाला बोला-

– चुप जा भाई चुप जा ‘ये है बाम्बे मेरी जान…..’

दुखी गंगू रात को ही घर की तरफ चल पड़ा, रास्ते में फिल्म की शूटिंग चल रही थी, शूटिंग देखते देखते भावुकता में गाने के साथ गंगू भी नाचने लगा……..

” मेघा रे मेघा रे…….. “गाने में हीरोइन लगातार झीने – झीने कपड़ों में भीगती नाच रही है और देखने वालों का दिल लेकर अचानक अदृश्य हो जाती है म्यूजिक चलता रहता है और गंगू के साथ और लोग भी भीगते हुए नाचने लगते हैं हैं, सुबह का चार बज गया है शूटिंग बंद हो गई है, गंगू और कई लोग नाचते नाचते और ठंड से कंपकपाते हुए गिरकर ढेर हो गए। किसी ने 108 ऐम्बुलेंस बुलवा दी, सब अस्पताल में भर्ती हो गये । नर्स गर्म हवा फेंक रही है पर गंगू अभी भी बेहोश पड़ा है। सुबह आठ बजे पता चला कि सीवियर निमोनिया और फेफड़ों में तेज इन्फेक्शन से गंगू की सांसे रुक गईं हैं। डाक्टर ने गंगू को मृत घोषित कर दिया है ……….

दो घंटे बाद गंगू की शव यात्रा पान की दुकान के सामने रुकती है, पान की दुकान में गाना बज रहा है….

“टिप टिप बरसा पानी,

पानी ने आग लगाई, ”

गाना सुनकर मुर्दे में हरकत हुई……. सब भूत – भूत चिल्लाते हुए बरसते पानी में भाग गए ……… ।

Smiley, Happy, Face, Smile, Lucky, Luck

© जय प्रकाश पाण्डेय

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व्यंग्य
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मराठी साहित्य – आलेख – निष्पर्ण वृक्ष – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

निष्पर्ण वृक्ष

(प्रस्तुत है पतझड़ के निष्पर्ण वृक्ष से संबन्धित स्मृतियों पर आधारित सुश्री ज्योति हसबनीस जी का भावप्रवण आलेख ‘निष्पर्ण वृक्ष’)

निष्पर्ण वृक्ष …अत्यंत कळाहीन ..असंख्य पर्णहीन फांद्यांच्या रूपात उरलेला ..वठलेला ..शुष्क ..नीरस ..सारा जीवनरसच आटलेला ..अनंताकडे एकटक बघणारा ..चमकणाऱ्या वीजेकडे आशेने बघणारा ..कल्पनेनेच शहारणारा …मनोमन उसासणारा ..हिरव्यागार माळरानावर आपलं एकाकीपण निमूटपणे जगणारा .. ..क्वचित विसाव्याला आलेल्या एखाद्या पक्ष्याच्या अस्तित्वाने मोहरणारा …त्याच्या चाहुलीने, पंखांच्या हालचालीने ..मंजुळ सादेने सुखावणारा ..आणि नकळत गतवैभवात रमणारा !!

गच्च पर्णसंभाराच्या हिरव्या ओल्या आठवणीतले कित्येक ऋतू मनात जागत असतील याच्या. गोड शीळ घालत फुलणारं पक्ष्यांचं प्रेम, कटीखांदी खेळवलेल्या उबदार घरट्यांतला पिल्लांचा चिवचिवाट, चोचीतल्या चिमणचाऱ्यातलं वात्सल्य, आणि सारं आकाश पंखांवर पेलण्याचे पिल्लांनी आईच्या मदतीने गिरवलेले असंख्य जीवनधडे, पिल्लाची  भरारी बघणारी

आईची कौतुकभरली नजर, रिते होणारे घरटे, साऱ्याचा मूक साक्षीदारच ना तो! वाटेवरच्या पांथस्थाला आपल्या शीतल प्रेमाच्या सावलीत कितीदा तरी निवांत केलं असेल त्याने. प्रेमी जनांच्या गोड गुपितांना ह्याचाच तर आधार! कित्येकदा मनोरम  प्रीतीचे मळे फुलले असतील याच्या साक्षीने!

लहरी निसर्गाच्या विक्षिप्तपणाचे कैक घाव सोसून देखील एखाद्या स्थितप्रज्ञासारखा पाय घट्ट रोवून आजवर अविचल उभा आहे हा, आपल्या मातीत पसरलेल्या असंख्य मुळांना जगण्याचं  बळ देत …आपल्या निष्पर्ण फांद्या सांभाळत …आणि त्यांची समजूत काढत ..कारण आता विसाव्याला पक्षी येणार नाहीत, त्यांच्या गुलाबी मनाला निष्पर्ण फांद्यांची भुरळ पडणार नाही, सुरक्षितता आणि ऊब हरवून बसलेल्या ओक्या बोक्या फांद्यांच्या कटीखांदी घरटी झुलणार नाहीत.

पांथस्थांचं शांतवन , प्रीतीची गुपितं यापैकी काहीच साधणार नाही. आयुष्यातलं गमकच हरवलेला हा एकाकी वृक्ष मात्र डोळ्यांत स्वप्न जागवतोय असा भास झाला मला अचानक …स्वप्न ..तुटलेपणाचे ..

भंगलेपणाचे ..पण त्या तुटलेपणातही एक चमक होती भंवतालाशी अतूट नातं जपता आल्याची, कुणाच्या तरी आयुष्याशी आजवर स्वत:ला जोडता आल्याची, सांधता आल्याची ! त्याच्या श्वासाश्वासात कृतकृत्यता जाणवत होती आयुष्य सार्थकी लागल्याची, मातीशी इमान राखल्याची !

© ज्योति हसबनीस

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मराठी आलेख
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English Literature – Book-Review/Abstract – Detail Geography of Space – Mr. Ashish Kumar

Detail Geography of Space

(It is difficult to comment about young author Mr Ashish Kumar and his mythological/spiritual/scientific  writing.  I am really mesmerized.  I am sure you will be also amazed – an entire chapter as an excerpts will change your thinking.) 

Blurb : Scientists doesn’t have answers to some all time mysteries of science like; why quantum particles shows dual nature and uncertainty? How black hole created in space? Why we can only feel presence of dark matter and dark energy but unable to locate them in universe? Why amount of matter and anti matter differs in our universe? Is time travel possible?  What is Higg Boson, their composition and how they give masses to other particles?  Can teleportation is possible? Can life at other planets possible? And many more unsolved problems of physics are solved only by a simple old Hindu philosophy called ‘Sankhya Philosophy’ or ‘Philosophy of evaluation of elements’. Yes a Philosophy which is based on three properties of nature called Sattwa (goodness), Rajas (Activity) and Tamas (Inertia) are reason behind all unexplained scenarios of science. s quest of unify theory of anything finally solved?

Excerpts from the book:  A Chapter from ‘Detail Geography of Space’

Uncertainty

Quantum mechanics does not assign definite values. Instead, it makes a prediction using a probability distribution.

In science world, we want everything perfect and accurate like accurate position, accurate momentum, definite energy, definite time of occurrence etc., but in quantum mechanics, we do not pinpoint the exact values of a particle’s position and momentum or its energy and time, rather it provides only a range of probabilities in which the particles might be given its momentum and momentum probability.

This uncertainty is called rules of uncertainty for quantum particles or particles which we can’t observe directly.

As we have discussed in details that according to Sankhya philosophy, we can’t tell the exact composition of three modes of nature in any matter or particle. We can only guess or make a probability of outcomes.

We can make more accurate guess on the species with large existence or objects which can perceive accuracy, but we can’t make exact prediction about atomic or quantum particles.

Now try to solve this uncertainty principle from Sankhya’s point of view.

Uncertainty principle: The position and momentum of a particle cannot be simultaneously measured with arbitrarily high precision.

Important steps to understand the uncertainty principle are wave–particle duality. As we proceed downward in size to atomic dimensions, it is no longer valid to consider a particle like a hard sphere, because the smaller the dimension, the more wave-like it becomes.

It is clear from Sankhya’s philosophy that composition of modes of nature in every element is continuously in the process to convert from one mode to other. In large species like human being, composition is large and complex but keeps changing every time in our body and mind. We can’t perceive changes in a short time span in large species because it contains huge amount of modes components, and it will take time to completely change resultant of modes as explained in part Sankhya’s philosophy: abstract to generalised.

But as we go to atomic dimensions, there the total composition of three modes of nature is actually in very less amount. So a small change of one mode results into change in total composition of modes so that we can perceive changes. This rapid change shows wave-like pattern.

For example, if a particle is in the stage of Sattwa, it will change to Tamas and Rajas very fast because in these cases, Rajas has very less amount of mode in matter to change from Sattwa to Tamas, which Rajas can change very fast.

Now again we try to understand uncertainty principle from above explanation:

According to uncertainty principle, the position and momentum of a particle cannot be simultaneously measured with arbitrarily high precision.

Or ∆X∆P ≥Ћ/2

Where ∆ indicates standard deviation, a measure of spread or uncertainty; X and P are particle’s position and liner momentum, respectively.

We know that Sattwa is responsible for existence or position of anything in space, so we can say that in the above equation

Sattwa = f (X) – position of particle in space.

Similarly, Rajas is responsible for motion so we can say that

Rajas = f (v) – velocity of particle and

Tamas signifies heaviness or stability,

So, Tamas = f (m) – mass of particle.

We know that linear momentum of any particle is

P = m × v = mass × velocity.

So, we can write in Sankhya

P = Tamas × Rajas.

Or, uncertainty equation like

∆ Sattwa ∆ (Tamas × Rajas) ≥Ћ/2.

It is clear from the above equation that in atomic particles, one mode of nature changes into other so fast that we cannot tell the exact composition of three modes accurately.

More clearly, suppose a quantum particle is in Sattwa dominating mode at any given time. As we try to measure its position (Sattwa show existence in space), it converted into Tamas mode by Rajas (Rajas play as a role of convertor). Now, if we try to measure the momentum of this particle or we can say that it’s Tamas and Rajas mode (Consider now particle is in Tamas dominating mode), it will converted again to Sattwa. And again if we try to measure the position, it will again convert into Tamas or whole Rajas because we know in quantum particles, change of mode is so fast that we can’t predict them.

In more Sankhya terms, we can’t tell composition of modes of nature in any quantum particle with accuracy at any given time.

Till now, we have discussed uncertainty for quantum particles or particles which we can’t see directly. However, does it work on all level? As we told above, we can’t tell about compositions of three modes exactly but can make closer guess in big object with more accuracy than quantum particles. But then, what about our stars and galaxies?

To think about the prospective of macro level, we have to understand the relativity in general. Space and time are relative quantity.

Example 9.1: Suppose, we have one box of 1×1×1 feet three dimensions. In this box, I have placed an ant so the space inside the box is very large for the ant, but very less for us. So with the case with other large objects, means space is relative (Figure 9:1).

Figure 9:1

Again, we know that time looks long when we have to wait for someone and very small when we spend with someone we love. Therefore, time is also relative. Means space and time both are relative and depends upon the form of reference through which we are observing.

Now back to the uncertainty problem, we have proved that uncertainty works very well for the quantum particles but not for us when we are observing from the reference of us. However, when we saw our life from large reference, is it possible to tell about what might happen with our life in future accurately?

Or more correctly, will we be able to tell with accuracy that we will be doing at what time in future?

No! we can’t answer it with accuracy because in any species small or large, from small reference to large, we can’t tell exact composition of three modes of nature. We can go as close as possible as science progresses.

 

© Ashish Kumar

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Book Review
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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – कार की वधू-परीक्षा – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

कार की वधू-परीक्षा
इस वर्ष  दीपावली के अवसर पर घर के द्वार पर कार खड़ी होगी, जिससे मेरी शान बढ़ेगी, इसलिये अब कार लेना ही होगी, ऐसा संकल्प हमारे मित्र रामबाबू ने कर ही लिया। उनकी इस प्रतिज्ञा में ऐसी ध्वनि सुनाई दी मानो वे कह रहे हों- ‘बस, इस सहालग में घर में बहू लानी ही है’।
रामबाबू और हम तीन मित्र, दीपावली पूर्व के उजास से चमचमाते बाजार में एक कार के शोरूम  में प्रवेश  कर गये। द्वार पर ही एक  षोडशी ने चमकते दांत दिखा कर हमारा स्वागत किया जिसे देखकर मुझे लगा कि अब तो कार खरीद कर ही जाना पड़ेगा। शोरूम के अन्दर का वातावरण एकदम स्वयंवर जैसा दिख रहा था जहां एक वधू का वरण करने कई-कई राजा उपस्थित थे। देखकर भ्रम होता था मानो भारत से गरीबी हट गई है।
हम एक ओर खड़े होकर यहां-वहां देख ही रहे थे कि अचानक एक और मेकअप-रंजित बाला हमारे सामने प्रकट हुई और पूछा- कौन सा मॉडेल देखेंगे सर ? हमारे एक रसिक मित्र के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा ‘आप जैसा’ ! सेल्सगर्ल की झेंप को मिटाने के लिये तीसरे ने कहा- हमारा मतलब, एकदम लेटेस्ट तकनीक, कम ईंधन खपत, ज्यादा जगह, मजबूत और बजट कीमत वाली दिखाईये प्लीज। यह कथन कुछ यों लगा मानो लडके का पिता कह रहा हो, कन्या शिक्षित , सुन्दर, गृहकार्य में दक्ष, समझदार, पूरे घर को लेकर चलने वाली, सेवाभावी, सहनशील, संगीत में निपुण आदि-आदि वाली हो।
खैर, हमें एक चमचमाती कार के सामने ले जाकर खडा कर दिया गया और वो कन्या उसके गुणों को ऐसे बताने लगी जैसे वधू का पिता अपनी बेटी की झूठी विशेषताओं को बखानता है।
सब कुछ सुनकर रामबाबू के कंठ से खुर्राट बाप जैसी लम्बी हूँ निकली और उसने कार की एक प्रदक्षिणा की और कहा- इसकी कीमत कितनी है? सेल्सगर्ल ने कन्यापक्ष की सी विनम्रता से कहा- सर, आप गाडी पसंद तो कीजिये, कीमत तो वाजिब लग जायेगी। हम तो आज आपको इस गाड़ी में बिठा कर ही विदा करेंगे।
अब तो दोनों पक्षों में दहेज के सेटलमेंट-सी चर्चा आरम्भ चल पड़ी। रामबाबू कोई दाम लगाते, तो सेल्सगर्ल उसके साथ कोई ऑफर जोड़ कर कंपनी की कीमत पर टिकी रहती।
अंततः रामबाबू ने हमारी ओर गहरी नजरों से देखा और गंभीर वाणी में उस सेल्सगर्ल से कहा- ‘ठीक है मैडम, हम आपको चार दिन में जवाब देते हैं; और भी शोरूम में जरा देख लेते हैं। आखिर जिंदगी भर का मामला है ‘।
ये वातावरण वैसा ही बन गया कि जब भरपेट पोहा, समोसा, मिठाई, चाय के साथ कन्या का इंटरव्यू लेने के बाद लड़के का पिता जाते-जाते यही शब्द लड़की वालों को सुनाता है। इसे सुनकर कन्या के माता-पिता और दसियों ऐसे इंटरव्यू झेल चुकी बेचारी लडकी भी समझ जाती है कि ‘हमारे भरोसे मती रहना’ । अब सेल्सगर्ल की बारी थी- उसने चेहरे पर जमाने भर की मुस्कुराहट और स्वर में ज्यादा से ज्यादा विनम्रता लाकर रामबाबू की बजाय हम लोगों से कहा- सर लोग, आप यहां से पैदल जा रहे हैं ये हमारे लिये शर्म की बात है, हम तो सर को बेस्ट मॉडल दे रहे हैं, आप कहेंगे तो लोन भी करवा देंगे, और सर लोग, क्या आप मेरी इतनी सी बात नहीं मानेंगे? इसके बाद उसके चेहरे पर जो दीनतामिश्रित मुस्कान उभरी उसे नजर अंदाज कर पाना हम किसी के लिये सम्भव नहीं रहा।
रामबाबू ने ठाकुरों की-सी शान भरी आवाज में कहा- मैडम, मैं तो तैयार नहीं था, पर अब क्या करें, हमारे इन दोस्तों की बात को मैं टाल नहीं सकता और आपको भी नाराज नहीं कर सकता। चलिये, बिल बनवा ही दीजिये, हम यही गाड़ी लेकर घर जायेंगे।
इतना सुनकर दो समय की रोटी के लिये मेहनत कर रही उस मासूम सेल्सगर्ल के चेहरे पर आया संतोष ठीक वैसा ही था जैसा लड़की के लिये वरपक्ष की हां सुनकर वधू के माता-पिता के चेहरे पर दिखाई देता है।
©  सदानंद आंबेकर
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कथा-कहानी
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